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पोखराणी
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ओज
चर्म रोगों में इसका प्रलेप करते हैं। इं० डू० ई० १०८ पृ.) ___इसका रस दुर्बल बालकों को पिलाया जाता है।
वैट के अनुसार पञ्जाब और सिंध में यह अतिसार में प्रयोगित होती है। (फा• इं० २ भ०
पृ० १०४) ओखराणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० [ उदूखल । ___ोखरी । अोखल-संज्ञा पु० [सं० ऊपर ] (1) परती
भूमि । (२) अोखली । ओखली-संज्ञा स्त्री० [सं० उलूखल] हावन । कूड़ी। ओखा-वि० [हिं०] (१) शुष्क । सूखा । (२) ___ दूषित । खोटा । (३)विरल । जो गाढ़ा न हो। ओगण-वि० [सं० त्रि०] अवगण्य । नफ़रत किया
हुश्रा। ओगल-संज्ञा पु. [ देश.] परती भूमि । श्रोगलदान-संज्ञा पुं॰ [देश॰] निष्ठीवन सराव ।
वह पात्र जिसमें थूका जाता है। उगलदान। श्रोगाई-पं०] एक ओषधि । ( A stragalus____ Tribuloidis ) ओगीयस-वि० [सं० वि० ] उग्र । अत्यन्त तेजस्वी । ओघ-संज्ञा पु० [सं० पु.] (1) नदी। (२)
नदी की वेग । बाढ़ । (३) समूह । ढेर। (४) उपदेश । (५) द्रुत नृत्य । फुर्तीली नाच । (६)
परम्परा । पुरानी चाल । ओघवत्-वि० [सं० त्रि०] जलवेगादि युक्र। तेजी
से बहनेवाला। ओङ्ब र० ] नारियल । नारिकेल। . ओङ्-सी- बर० ] नारियल का तेल। नारिकेल |
तैल। श्रोज(स)-संज्ञा पु० [सं० क्री०वि० श्रोजस्वी,प्रोजित,
श्रोजिष्ठ] (1) शरीर के भीतरके रसोंका सारभाग। रस से लेकर वीर्य पर्यन्त प्रत्येक धातुओं का जो परम तेज है, उसी को "प्रोज" कहते हैं । वह हृदय में रहता हुआ भी संपूर्ण शरीर में व्याप्त है । वही जीवन का प्रधान कारण है।
पर्याय-तेज । बल । प्रताप ।
लक्षण-स्निग्ध, सोमात्मक (शीतवीर्य), कुछ कुछ पीला तथा लाल होता है । इसके नष्ट होने
पर जीवन लीला समाप्त हो जाती है और जिसमें यह रहता है, वही सजीव रहता है। इससे ही शरीर सम्बन्धी प्रत्येक भाव निष्पन्न होते हैं । वा० सू० ११ अ० । इसकी वृद्धि से ही देह की तुष्ठि पुष्टि तथा वल का उदय होता है । वा० सू० ११०।___ "वैद्यक निघण्टु" में लिखा है-यह शरीर में स्थितत्व, स्निग्धता, शीतलता, स्थिरता, शुक्र वर्णता और कफात्मकता उत्पन्न करता है और शरीर को बलवान और पुष्ट करता है।
"सुश्रुत" में लिखा है-रस; रक्क, मांस, मेद, अस्थि, मजा और शुक्र ये सात धातु हैं-इन सातों के सार यानी तेज को "प्रोज" कहते हैं; उसे ही शास्त्र के सिद्धान्त से "बल" कहते हैं।" "श्रोज" सोमात्मक चिकना, सफेद, शीतल, स्थिर और सर यानी फैलनेवाला, रसादिधातुओंसे पृथक्, कोमल, प्रशस्त और प्राणों का उत्तम प्राधार है । ___ "सुत" में और भी लिखा है –ोज रूपी बल से ही मांस का संचय और स्थिरता होती है । उसी से सब चेष्टाओं में स्वच्छन्दता, स्वर, वर्ण, प्रसन्नता तथा बाहरी और भीतरी इंद्रियों में और मन में अपने-अपने काम की उत्कण्ठा होती है। यानी प्रोज-बल की शक्ति से ही आँख देखने का, कान सुनने का, जीभ चखनेका और गुदा मलत्याग करने का काम करता है। इसी तरह शेष और इन्द्रियाँ भी अपने-अपने काम करती हैं। शरीर के प्रत्येक अवयव में यह "प्रोज" व्याप्त है। इसके व्याप्त न होने से मनुष्यों के अङ्ग-प्रत्यङ्ग जर्जरीभूत हो जाते हैं। ___ "चरक" के अनुसार यह शरीर में पाठ विन्दु प्रमाण होता है और कुछ-कुछ लाल तथा पीला होता है और अग्नि सोमात्मक रूप से यह दो प्रकार का वर्णन किया गया है। 'गुण-इसमें प्रधान १० गुण हैं-भारी, शीतल, मृदु, श्लपण, वहुल, मधुर, स्थिर, प्रसन्न, पिच्छिल और स्निग्ध । यथा-"गुरु शीतंमृदु श्लक्षणं बहुलं मधुरं स्थिरम् । प्रसन्नं पिच्छलं स्निग्धं मोजो दश गुणं स्मृतम् ॥ २६ ॥च. चि. १२ प्र०।