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करत
दिन में दोबार सेवन करादें । उग्र अंडशोथ, डिंबशोथ और कंठमाला के लिये यह महौषधि है। एरण्ड तैल में बना हुआ इसके बीजों का प्रलेप कुरंड (Hydrocele) पर लगाने की उत्कृष्ट महौषधि है । उग्र अंडशोथ और ग्रंथिशोथ यकृद्विकृति में इसकी कोमल कोमल पत्तियाँ उपकारी होती हैं।
आक्षेप, पक्षाघात ( Palsy ) और इसी तरह के अन्य वातव्याधियों में इसके बीजों से निकाला हुआ तेल लाभकारी होता है। इसकी पिसी हुई कोमल पत्तियों को; रेडी के तेल वा घी में पकाकर सूजे हुये वेदनापूर्ण अंडकोषों पर मोटी तह चढ़ाने से महान उपकार होते हुये पाया गया है। बीज-मजाजात तैल कर्णस्राव की औषधि है। श्रामघात वा गठिया में सूजी हुई संधियों पर इसका अभ्यंग भी करते हैं । (इं० मे० मे. पृ० १३८-६)
रुफियस-(Ruphius) करंजुवा के बीज कृमिघ्न हैं। इसकी पत्ती, जड़ और बीज आर्तव प्रवर्तक एवं ज्वर निवारक हैं । (फा० इं०)
भारत और पारस्य देश में इसके बीज अत्यन्त उष्ण एवं रूक्ष तथा शोथध्न, रनपित्त रुद्धक और संक्रामक रोग निवारक माने जाते हैं।
आर० एन० चोपरा-करंज के नन् ग्ल्युकोसाइडिक तिन सत्व की साधारण गुणधर्म विषयक परीक्षा की गई. परन्तु यह प्रभावशून्य अथवा निष्क्रिय प्रमाणित हश्रा । कंजा नियतकालिकज्वर निवारण (Anti periodic) के लिये अति प्राचीन काल से विख्यात है। इसी को ध्यान में रखकर देशी औषध-गुण-धर्म अन्वेषिणी समिति की संरक्षणता में रोगियों पर इसके गुण-धर्म की परीक्षा की गई और यद्यपि समिति ने इसे अतीव बलकारी एवं उत्तम ज्वरघ्न बतलाकर इसकी उपयोगिता के पक्ष में ही अपनी सम्मति दी । पर चूँकि इसके बीजों में कोई व्यक्त रोग निवारक गुण नहीं दीखता और न तो इसके रासायनिक संघटन का पुनरपि संशोधन करने पर इसमें किसी ऐसे क्रियात्मक प्रभावकारी सत्व की विद्यमानता ही सिद्ध होती है, जिससे किसी व्यक्त प्रभाव की श्राशा की जा सके। इसलिये इसके सम्बन्ध में
और परीक्षण-क्रम चालू रखना अनावश्यक समझा गया । (इं० इ० ई० पृ० ३०८-६)
क्षय और श्वास में इसके भुने हये बीजों का काढ़ा व्यवहार्य है। सन् १८६८ में वल्य और ज्वरघ्न मानकर इसके बीज फार्माकोपिया ग्राफ इंडिया के अधिकृत (Offical ) योगों में समाविष्ट कर लिये गये और अनेक डाक्टरों ने इसकी उपयोगिता के पक्ष में ही अपनी सम्मति दी। इं० डू. ई.। ___करंज की पत्ती ३ मा०, काली मिर्च २-३ दाने इनको पीसकर पीने या गोली बनाकर खाने से विषमज्वर ( Malaria) नाश होता है।
औषधि-संग्रह नामक प्रसिद्ध मराठी ग्रंथ के लेखक डाक्टर वामन गणेश देशाई लिखते हैं कि सूतिका ज्वर में कटकरंज के बीज से कई प्रकार का लाभ होता है । इससे ज्वर कम होता है। गर्भाशय का संकोचन होता है। उदरशूल रुक जाता है, रजःस्राव साफ होता है और घाव बढ़ गया हो, तो वह भी शीघ्र भर जाता है। इसलिये प्रसूतिकाल के समय चाहे ज्वर हो या न हो इस ओषधि को उपयोग करना बहुत ही गुणकारी होता है। ___ कटकरंज के फूल, पत्ते इत्यादि सभी गुणकारी हैं । पर इसके बीजों की गिरी में ही ज्वर को नष्ट करने की सबसे अधिक शक्ति है । इसके सेवन की विधि यह है___ करंज की गिरी का चूर्ण १ भाग, चौथाई भाग लेंडी पीपल का चूर्ण इनको शहद में खरल करके पाँच-पाँच छः-छः रत्ती की गोलियाँ बना लेवें। इनको मलेरिया ज्वर में पानी के साथ देने से बड़ा उपकार होता है। अथवा करंज की गिरी और काली मिर्च इनको बराबर-बराबर ले पीसकर ८ रत्ती से १५ रत्ती तक को मात्रा में दिन में दो बार लेने से बारी से प्राना वाला ज्वर छूट जाता है। इसमें कुनैन के समान मलेरिया के विष को नष्ट करने की शक्कि तो है ही, पर इसमें उसके दोष बिलकुल नहीं पाये जाते। इसे - खाली पेट नहीं देना चाहिये । इससे सभी दशाओं में सभी को निर्भयतापूर्वक दे सकते हैं। यह नये पुराने सभी ज्वरों में उपकारी है। यह प्रीहा एवं यकृत