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________________ कंपी २४२३ कंचीड़ा नादकर्णी-इसका मूल और मूलत्वक मूत्र- मात्रा-हृन्नैर्वल्य में आधी रत्ती रजत भस्म कर रूप से समाप्त होते हैं। सेव के मुरब्बा में और यकृत की निर्बलता में (Indian Materia Medica P. 7-8) अामले के मुरब्बे के साथ देवें । वनौषधि गुणादर्श-अतिबला की कोमल (३)सीसक भस्म-दो तोले सीसा को पत्तियों को बारीक पीसकर लुगदी बनाकर फोड़े कढ़ाई में गलाकर उसमें कंघी की लकड़ी फिराते पर रखना चाहिये और उस पर कपड़े की तह रहें। सीसा धीरे धीरे राख हो जायगा। उक्त रखकर उस पर ठंडा पानी डालते रहना चाहिये । राख को कंघी पत्र-स्वरस से चार प्रहर खरल करके इस प्रयोग से गाँठ में होनेवाली जलन और झपक टिकिया बनाये और इसे दो सेर उपलों की अग्नि बंद होता है और गाँठ शीघ्र पककर फूटजाती है । देवें । दो-तीन आँच में सुनहले रंग का सुन्दर अतिबला की जड़ को घिसकर लगाने से बिच्छू भस्म प्रस्तुत होगी । इसे पीसकर रखें। का विष दूर होता है। गुण, प्रयोगादि-बहुमूत्र, मधुमेह तथा मूत्रकंघी द्वारा होनेवाली धातु-भस्में प्रणाली के अन्य रोगों में यह भस्म अतीव गुण. (१)संगयहूद भस्म-विधि यह है-कंघी पत्र कारी है । राजयक्ष्मा और उरःक्षत में भी इससे अर्द्ध सेर लेकर चार सेर पानी में काथ करें। जब उपकार होता है। पानी अष्टमांश अर्थात् प्राध सेर शेष रह जाय, मात्रा--१ रत्ती उपयुक्त अनुपान के साथ तब उसे खूब मलकर छान लेवें । पुनः संगयहूद व्यवहार्य है। होतोले लेकर थोड़ा थोड़ा काढ़ा डालकर खरल | कंच- मल.1 भाँग | विजया। में आलोडित करें। जब सब काढ़ा समाप्त हो कंचकचु-[ देश० ] Lasia Heterophylla हो जाय और टिकिया बनाने योग्य कल्क हो जाय कंटकचु। तब उसकी टिकिया बनाकर छाँह में सुखा लेवें। कंचन-संज्ञा पुं० [सं० काञ्चन ] (1) सोना । इसटिकिया को कंघी के एक पाव पत्तों की लुगदी सुवर्ण । (२) धतूरा । (३) एक प्रकार का के भीतर रखकर ऊपर से कपड़ मिट्टी करके पाँच कचनार । रक कांचन । सेर उपलों की प्राग देवें । टिकिया भस्म होकर वि० (१) नोरोग | स्वस्थ । (२) स्वच्छ । खिल पड़ेगी। गुण, प्रयोगादि-मूत्रसंग और अश्मरी एवं सुन्दर । मनोहर । [मरा० ] कचनार । कांचन । सिकता के लिये परमोपकारी है । कंचना-एक ओषधि (Jussiaea Repens.)। मात्रा-दो रत्ती उक्त भस्म खाकर ऊपर से २ तोला गौघृत और ३ तोले मिश्री मिला एक कंचनिया-संज्ञा स्त्री० [हिं० कचनार ] एक छोटी पाव गरम गरम दूध पीने से तत्काल लाभ जाति का कचनार । इसकी पत्तियाँ और फूल छोटे होता है। होते हैं। (२) रजत भस्म-शुद्ध चाँदी लेकर उसका | कंचा-[ मल० ] पालिता मंदार । फरहद । बारीक पत्र वनायें । पुनः एक पाव कंघी के पत्ते | कंचाच-चेटि पशा-[ मल.] चरस । खब कूटकर लुगदी बनायें और उसके भीतर चाँदी | कंचाव-एल-[ मल० ] भाँग । विजया । के पत्र रखकर ऊपर से कपरौटी करें ।इस कपरौटी कंचाव चेटि-[ मल० ] भाँग। किये हुये गोले को पाँच उपलों की अग्नि देवें । कंचाव पाल-[ मल० ] चरस । फिर निकाल कर कई बार इसी प्रकार श्राग देखें। चाँदी भस्म होगी। कंचाव वित्त-[ मल० ] विजया बीज । गुणप्रयोगादि-यह हृदय को शक्ति प्रदान | कंची-संज्ञा स्त्री० [सं० ] काला जीरा । करता है तथा यकृत की दुर्बलता और ऊष्मा को [पं० ] अँकरी दूर करता है। ! कंचीड़ा-[ ? ] नारंगी।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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