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ककड़ी
अत्यन्त श्वेत, लघु और मसूण होता है । इसकी गन्ध में थोड़ी सी हीक होती है। खरबूजे का बीज गुरु और कम चौड़ा होता है और इसमें किसी प्रकार की गन्ध नहीं होती।
गुणधर्म तथा प्रयोग
आयुर्वेदीय मतानुसारएर्वारु तेल- कर्कटीबीजतैल, ककड़ी | का तेल, रोशन किस्साs, कांकुड़ बीजेर तैल )।
विभीतक तैल गुणम् । वातपित्तघ्नंकेश्यं श्लेष्म करं गुरु शीतलञ्च । (वा० तैल व०)।
ककड़ी के बीज से निकाला हुआ तेल गुण में वहेड़े के तेल के समान होता है । यह वातपित्त नाशक, बालों के लिए हितकारी, कफकारक, भारी और शोतल है।
वैद्यक में एव्वार का व्यवहार चरक-अश्मरी, शर्करा कृच्छ्ररोग में एार | बीज-किसमिस के क्वाथ में एरुि बीज भली | भाँति पीसका पीवे । मूत्रकृच्छ्र रोग में यह सब प्रकार हितकारी है। यथा"एर्वारुवीज * * *। द्राक्षारसेनाश्मरीशर्करासु सर्वेषु कृच्छे षु प्रशस्त एषः ॥" (चि० २६ अ०)
(२) पित्तकृत कृच्छ्ररोग में एर्वारु बीजककड़ी के बीज, मुलेठी और दारुहल्दी इन्हें समानभाग लेकर चावलों के धोवन में पीसकर चावलों के जल के साथ पीने से पित्तज मूत्रकृच्छ, का नाश होता है । यथा
एर्वारुबीजं मधुकं सदार्वि पैत्ते पिबेत्तंडुल धावनेन । दार्वी तथावामलकीरसेन समाक्षिकां पित्तकृते तु कुच्छ्र ।
(चि० २६ अ० भैष मूत्रकृच्छ, चि०) (३)गुल्माश्मरि भेदन के लिए एवारुबीजककड़ी के बीज प्रभृति का चूर्ण मात्रानुसार मांसरस और मद्यादि के साथ सेवन करने से गुल्माश्मरी का नाश होता है। यथा"* * एरिकाच वपुषाचवीजम् ।
सुश्रुत-(१) मूत्ररोधज उदावर्त रोग में एर्वारु बीज-मूत्ररोधजात उदावर्तरोग में जल के साथ फूट ककड़ी वा ए रुबीज पीसकर किंचित् सेंधानमक मिलाकर पान करें । यथा"एारुवीज तायेन पिवेद्वालवणीकृतम्।"
(उ० ५५ श्र.) (२) मूत्राघात में एारु वीज-एर्वारुवीज २ तोला किंचित् सेंधानमक के साथ पीसकर काँजी मिलाकर पीने से मूत्ररोध निवृत्त होता है। यथा"कल्कमेरुि वीजानामतमात्रं ससैन्धवम् । धान्याम्लयुक्तं पीत्वैव मूत्रकृच्छ्रात् प्रमुच्यते।।" (उ० ५८ अ० भैष० मूत्राघात चि०)
वक्तव्यचरक के फलवर्ग में एर्वारु प्रभृति का पाठ नहीं मिलता। चरक ने मूत्रविरेचनीय वर्ग में भी एवोरु और वपुष का उल्लेख नहीं किया है। चरक ने कर्कारु और चिटि के शाक का अतिसार रोग में व्यवहार किया है । (चि० १० अ०) सुश्रुत लिखते हैं-"त्रपुसेर्वारु कर्कारुकतुम्बी कुष्माण्ड स्नेहाः मूत्रसङ्गेयु" (चि० ३१ अ.) अर्थात् पुष, कर्कारु, तुम्बी और कुष्माण्ड के बीज का तेल मूत्ररोध में हितकारी है। __यूनानी मतानुसार गुणदोष
प्रकृति-प्रथम कक्षा में सर्द एवं तर (मतातर से द्वितीय कक्षा में शीतल एवं स्निग्ध)। रंग-श्वेत । स्वाद-विवाद एवं किंचित् मधुर । हानिकर्ता-प्लीहा को । ये ठहरे हुये मवाद-घटकों को उभारते हैं और प्रतिश्यायके रोगी को हानिकर हैं। दर्पघ्न-सिकञ्जबीन (मतांतर से शहद वा मकोय) । प्रतिनिधि-खीरा के बीज । मात्रा-६ माशे से ६ माशे तक (मतांतर से १७॥ माशे से ३ तोले तक )।
गुण, कर्म, प्रयोग-कर्कटी का बीज मूत्रादि प्रवर्तन कर्ता--मुदिर,रोधोद्घाटनकर्ता, कांतिकर्ता तथा रगों को गाढ़े मवादों से रहित करता है अर्थात् रग संशोधनकर्ता-मुनक्का उरूक है एवं यह रक्कोद्वग, पित्तोल्वणता और पिपासा के वेग को शमन करता है। यह पित्तज वा उष्णप्रधान
अम्लैरनुष्णै रसमद्ययूषैःपेयानि गुल्माश्मरि भेदनानि ॥” (चि० २६ अ०) ।