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कचनार
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कचनार
सभी प्रकार के कचनार गुण-धर्म में प्रायः समान होते हैं। इसलिये इनमें से प्रत्येक परस्पर एक दूसरे की जगह व्यवहार किया जा सकता है। परन्तु इन में से लाल कचनार अन्य की अपेक्षा अधिक प्रचुरता के साथ एवं सहज सुलभ होता है। अस्तु, प्राचीन कालसे यह लाल कचनार ही औषध में व्यवहृत होता आ रहा है और आज भी इसी के उपयोग का अधिक प्रचलन है और अन्य कचनारों को तो लोग एक प्रकार से भूल ही चुके हैं। अत: कांचनार या कचनार हिन्दी शब्द से साधारणतया लाल कचनार ही अभिप्रेत होता है और सर्व प्रथम इसी का वर्णन यहाँ किया | जायगा।
लाल कचनार या कांचनार संस्कृत पर्याय-कांचनार, काँचनक, गण्डारि | शोणपुष्पक (भा०), स्वल्पकेस(श)री, रकपुष्प, कोविदारः, युग्मपत्र,कुण्डल,रक्तकांचन । हिं०-कच नार, कचनाल, लाल कचनार | पं०-कोलियार, कुराल, पद्रियान, खैराल, गुरियल, गुरियार, बरियाल, कनियार, कार्दन, खंबाल, कचनाल । बं०-लाल कांचन, रककांचन, रकपुष्प, कोविदार, युग्मपत्र, कुण्डल, कांचनफुलेर गाछ । अं०माउण्टेन एबोनी (Mountain ebony)। ले०-बौहीमिया वेरीगेटा ( Bauhimia Vari gata, Rorb, Linn.)। ता०, मरा०-सेगापु-मंथरी,शेम्मनदारै ते०-देवकांचनमु। मल०-चुवन्न मंदरम् । कना०-कोचाने कचनार, केम्पुमंदर, काँचिबालदो । मरा०-कोरल, कांचनु, एतकांचन, कांचन । कों-कांचन, कंचनगच् । गु०-कोविदार, चंपाकाटी। कोल० कुरमगमेची, सिंग्या । संथाल-टिंग्या । नैपा०-टाकी । लेप०रबा । बम्ब-कोविदार | उड़ि-बोराडू ।
शिम्बी बर्ग (N. 0. Leguminoseae.)
उत्पत्ति-स्थान-हिमालय की तराई में इसके पेड़ प्रचुरता से मिलते हैं, इसके सिवा भारतवर्ष और ब्रह्मा के जङ्गलोंमें लगभग यह हर जगह पाया जाता है । अाजकल इसके पेड़ भारतवर्ष के प्रायः हर एक अच्छे उद्यान में मिल जाते हैं।
रासायनिक संगठन-इसकी छाल में एक प्रकार का कषाय सार ( Tannic acid or Tannin ), ग्ल्यूकोस और एक भूरे रङ्ग का गोंद पाया जाता है।
औषधार्थ व्यवहार-यद्यपि अधिकतया इसकी छाल वा जड़ की छाल ही औषधार्थ व्यवहार में आती है; पर इसके पत्र, पुष्प बीज और गोंद भी परमोपयोगी पदार्थ हैं।
प्रभाव-इसकी छाल धातु-परिवर्तक,बल्य और संकोचक है। जड़-आध्मानहर और फूल-कोष्ठ मृदुकर ( Laxative) है। .
औषधि-निर्माण-इमलशन, वटिका, कल्क, गण्डूष और क्वाथ (१० में १), मात्रा-2 से १ औंस तक । मूलत्वक-मात्रा-१० मा० से ४० माशे तक।
आयुर्वेदोक्त योग–कांचनगुटिका, कांचनसूप, कांचनार गुग्गुलुः, गण्डमाला-कण्डन · रस इत्यादि - इसके अतिरिक्त निम्न प्रयोगों में भी यह व्यवहृत होता है। यथा
(१) गुलकन्द कचनार-कचनार पुष्प १ भाग, खाँड़ दानेदार २ भाग-दोनों को मिला कर खूब जोरदार हाथों से मलें। इसके बाद उन्हें मरतबान में डालकर दो सप्ताह तक धूप में रख छोड़ें । पुनः काम में लावें।
गुण-उत्कृष्ट मलवद्धतानाशक है तथा यह रक्तशोधक एवं अशोध्न है।
(२) कांचनारादि काथ-कचनारवृक्ष की छाल १ सेर, शाहतरा (पित्तपापड़ा) श्राधसेर, मुडी आध सेर, बरना के पेड़ की छाल पावसेर, कुटकी, उसबा प्राधा-आधा सेर । इन समग्र औषधियों को जौ-कुट करके एक में मिलावें।
मात्रा तथा सेवन-विधि-प्रातः सायंकाल उक्त क्वाथ्य द्रव्य में से प्राध छटाँक (२॥ तो.) के लगभग लेकर अाध सेर पानी में क्वाथ करें । जब जल चौथाई भाग रह जाय, तब चूल्हे से उतारकर मल कर छानलें। फिर उसमें एक तोला मधु मिलाकर पिला दिया करें।
गुण-रक्त-विकार रोग में परमोपकारी है। कंठमाला के लिये विशेषतया लाभकारी एवं परीक्षित