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________________ ओषधि १८४३ ओषधि गण ऋतु में, कन्द वसन्त में दूध शरद् ऋतु में, सार हेमन्त-ऋतु में और फल एवं फूल जिस ऋतु में उत्पन्न हों, उन्हें उसी में ग्रहण करें। यथा-"मूलानि शिशिरेग्रोधो पत्रं वर्षावसन्तयोः। स्वक्वन्दी शरदिक्षीरं यथ कुसुमंफलम् ॥ हेमान्ते सारमोषध्या गृहणीयात् कुशलो भिषक्"। ___ आद्र-औषधि-निम्न अोषधियाँ सदैव गीली अवस्था में ही ग्रहण करना चाहिए और इनका परिमाण द्विगुण न करना चाहिये: (१) अहसा, (२) नीम, (३ पटोल, (४) केतको, (५) वला (खिरेटो), (६) पेठा, (७) सतावर, (८) पुनर्नवा, (६) कुड़े की छाल (१.) असगंध, (११) गन्ध प्रसारिणी (१२) नागवला, (१३) कटसरैया, (१४) गूगुल, (१५) हींग, (१६) आदी पोर(१७) ईख से बने हुए कठिन पदार्थ (राब, भित्री इत्यादि)। यथा-"वासा निम्बपटोल केतकिबला कुष्माण्ड कन्दावरी । वर्षाभूकुटजाश्वगन्ध सहितास्ताः पूति गन्धामृता । मांसं नागवला सहाचर पुरोहिङ्वाद्र के नित्यशः । ग्राह्यास्तत्क्षणमेव न द्विगुणिता येचेक्षुजाताघनाः"। पुरातन-द्रव्य-चिकित्सा कर्म में घृत, गुड़, शहद, धनियाँ पीपल और वायबिडङ्ग-इन्हें सदा पुराना लेना चाहिए। द्रव्याङ्ग-ग्रहण-खदिरादि वृक्षों का सार, निम्बकादि को छाल, दाडिम श्रादि के फल, और पटोलादि के पत्र ग्रहण करना चाहिये। मतान्तर से-वड़ श्रादि वृक्षों की त्वचा, विजयसार आदि का सार, तालीशादि के पत्र, | और त्रिफलादि के फल ग्रहण करना चाहिए। जिन वृक्षों की जड अधिक मोटी हो उनका समस्त अङ्ग काम में लाना चाहिए। वि.दे. "श्रोद्भि-द्रव्य"। सामान्य-विधि-यदि स्पष्ट वर्णन न हो तो "पात्र" का अर्थ मिट्टी का पात्र, "उत्पल" का नीलोत्पल और "शकृद्रस" का अर्थ गाय के गोबर का रस समझना चाहिए। एवं "चन्दन" शब्द से लाल चन्दन, “सर्षप" से सफेद सरसों "लवण" से सेंधानमक और "मूत्र", दूध तथा घी से क्रमश: गोमूत्र,गोदुग्ध और गोघृत समझना चाहिये। दूध, मूत्र और पुरीघ (गोबर) पशु का श्राहार पच जाने पर ग्रहण करना चाहिए। प्रतिनिधि-यदि किसी योग में कोई द्रव्य न प्राप्त हो तो उसके स्थान में उसी द्रव्य के तुल्य गुण रखनेवाले द्रज्य ग्रहण करें। यथा-"कदाचिद् द्रव्यमेकं वा योगे यत्र न लभ्यते । तत्तद्रव्य गुणयुतं द्रव्यं परिवर्तेन रह्यो" । पुनः__यदि किसी योग में एक ही ओपधि दोबार लिखी हो, तो उसे द्विगुण परिमाण में लें। यथा--"एकमप्यार, योगे यस्मिन्यत्पुनरुच्यते। मानतो द्विगुणं प्रोकं तद्रव्य॑तत्व दर्शिभिः"। यदि किसी प्रयोग में कोई श्रोषधि रोगी के लिए हानिकारक होती हो.तो उसे उस योग में से अलग करदें। इसी प्रकार यदि कोई ओषधि रोगी के लिए हितकारी हो, तो वह योग में न होने पर भी डाली जा सकती है। यथा-"व्याधेश्यक यद्व्यं गणोक्कमपितत् त्यजेत् । अनुक्रमपि युक्त यद्योजयेत्तत्रबुधैः ।" ___ चूर्ण, स्नेह, आसव और अवलेह में प्रायः श्वेतचन्दन और कपाय तथा लेप में प्रायः लाल चन्दन का व्यवहार किया जाता है। ___ यदि समय न निर्दिष्ठ हो, तो प्रात:काल, ओषधि का अंग ज्ञात न होने पर मूल (जड़) भाग न होने पर समभाग, पात्र न कहा हो तो मिट्टी का 'पात्र" और द्रव पदार्थ का नाम न बतलाया गया हो तो "जल" तथा तेल का नाम न कहा . हो तो तिल का तैल ग्रहण करना चाहिए। यदि किसी योग में कोई ओषधि प्राप्त न हो तो उसके स्थान में उसके समान गुणवाली अन्य श्रोषधि का ग्रहण करें। . ओषधि गण-संज्ञा पु० [सं० पु.] रासायनिक श्रोषधियों का गण । इस गण की ओषधियाँ सोम के समान वीर्यवाली होती हैं औरमहौषधि नाम से सुविख्यात हैं। शास्त्र में इनका सोम के सदृश ही क्रिया और स्तवन का उल्लेख मिलता है। औषधोपयोगी कतिपय ओषधि के विशेष बक्षणों को
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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