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শিক্ষা १९८२
कण्ठद्वार कण्टिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कंधो । प्रतिपला । कंप वेदनाः । मोहं च दाहं हृदये शिरोरुजं तं वै० निघः।
कण्ठकुजं प्रवदन्ति साधवः ।। कण्टी-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. कल्टिन् ] (१) सके ।
कण्ठ-कुब्जक-संज्ञा पु० [सं० पु.] दे० "कण्ठचिरचिटा । श्वेतापामार्ग । (२) अपामार्ग।
कुज"। 'चिचड़ी । रा०नि० व०८ । (३) गोखरू । गोचर
कण्ठ-कूजन-संज्ञा पुं० [सं० क्ली०] गल कूजन । (१)छोटा गोखरू । क्षुद्र गोत्र । रा०नि० ब० ४ । गले में शब्द होने की क्रिया वा भाव । “प्रततं(५) खैर । खादिर ( ६) मटर । कलाय । (७)
कण्ठकूजनम्" । मा० नि० । गोक्षुर । गोखरू ।
कण्ठ-कूजिका- कण्टोलन-[मरा०] धार करेला । वाहस (सं०)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] वीणा
कण्ठ-कू एकाइं. मे० मे० ।
नामक वाद्य । बीन । कण्ठ-सज्ञा पुं॰ [सं०पु० [वि० कण्ठ्य] (१) गला ।
कण्ठ-कूप-संज्ञा पुं० [सं० को०] गले के सामने का टेंटुश्रा (Pharynk) (२) स्वर । आवाज़ ।।
गड्ढा । (Jugularnotch) Supra शब्द। हारा०। (३) मैन फल का पेड़ । मदन वृक्ष । |
sternal noteh अ० शा० । से उद्विक । (४) किनारा । तट । तोर । (१) कण्ठ-कोत्तर-सज्ञा पुं० [सं० पु.] (Supr:फेन । (६) स्वरयंत्र । Organ of voice.
spinal ligament) कण्ठक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कंठ । टेटुवा ।
| कण्ठगत-वि० [सं० त्रि०] गले में पाया हुआ । कण्ठकाल-संज्ञा पुं॰ [सं-पु.] मत्स्य । मछली । कण्ठकान्तरीया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] Inters
___ कंठ में अटका हुआ । गले में प्राप्त । गले में स्थित ।
कंठस्थ । pisali पेशी विशेष । अ० । शा० । (२) एक बंधनी विशेष।
कण्ठगलीया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्रो०] कंठ और स्वरकण्ठ-कर्णी-नाली-संज्ञा स्त्री० [स० स्त्री० ) एक नाली |
यंत्र संबंधिनी नाड़ी । (Laryngopharyजो कंठ और कान के मध्य में स्थित है। नुग़नुग़
ngeal nerve) अ० शा० । (बहु० नग़ानिग़ )-अ० । (Eusta Chian- | कण्ठ-ग्रह-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कण्ठ कुब्जक । tube ) अ० शा०।
यथा-"इह द्वौ कर्ण कराठग्रहो"। भा० प्र० म० कण्ठ-कर्णी-सुरङ्गा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० |
१ अ०। "कण्ठकीनालो"।
कण्ठ-जिह्वक कास-संज्ञा पु० [सं० क्ली० ] एक प्रकार कण्ठ-कुब्ज-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार का
की खाँसी । व0 रा०। सन्निपात रोग । सन्निपात ज्वर का एक भेद।
लक्षण-कफ का विकार हो, जीभ काली पड़ लक्षण-सिर में दर्द, गले में दर्द, दाह, मोह,
जाय, मूर्छा, के करने से थकावट उत्पन्न हो, नींद कम्प, वातरक की पीड़ा ! ठोड़ी जकड़ जाना,
नावे अोर सुख न प्रतीत हो । यथासंताप, प्रलाप (पान तान वकना ), और मूर्छा
गरला जिबिका श्लेष्मा वान्ति मूपिरिश्रमः । ये लक्षण "कण्ठकुब्ज" सन्निपात ज्वर में होते हैं । निद्राभंगो विदाहश्च कण्ठ जिह्वक लक्षणम् ॥ यह कष्टसाध्य होता है । यथा
वा० रा०प्र० पृ० १४६ शिरोर्तिकंठ ग्रह दाह मोह कंप ज्वरारक्त समीर भांगरे के पत्तों के चूर्ण में शहद मिलाय गोली णार्तिः । हनुग्रहस्तापविलाप मूर्छा स्यात्कंठ
बनाकर मुख में धारण करने से लाभ होता है ।
कण्ठ-तलासिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] घोड़े को कुब्जः खलु कष्टसाध्यः । भा० प्र० ज्वर चि०।
बाँधने की रस्सी । अश्व बंधन रजु । श० मा० । माधव निदान में इसके लक्षण इस प्रकार है
कण्ठ-द्वार-संज्ञा पुं० [सं० की ] कंठ मुख । कण्ठग्रहं यः कुरुते हनुग्रहं मूप्रिलाप ज्वर (Laryngeal-Orifice.) अ० शा० ।