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________________ कनकधत्तूर २०४६ कनकरस उत्तम सिद्ध समझना चाहिये । भै० २०शि० होता है। योग-चिन्ता० । भैष २० ज्वराती. रो. चि०। चि.। (२) मधु के कषाय में एक कुडव तैल और (२) शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, काली मिर्च, मंजीठ, लालचन्दन, नोलोत्पल और भुना सोहागा, एक एक भाग, सबके बराबर धत्तुर नागेश्वर प्रत्येक का चार-चार तोले करक डालकर बीज, सिगिया बिष १ भा०। बारीक चूर्ण कर पाक करने से यह तैल प्रस्तुत होता है। इसके भांगरे के रस में दोपहर अच्छी तरह घोटें। प्रयोग से मुख की कांति बढ़ती और चक्षुःशूल मात्रा-२ रत्ती। शिरःशूल प्रभृति रोग मिटते हैं। -च० द । गुण-इसके सेवन से वातातिसार शीघ्र दूर कनकधत्तर-संज्ञा पुं॰ [सं०] एक प्रकार का धतूरा। होता है। कनकपराग-संज्ञा पुं० [सं० पु.] सुवर्ण रेणु । पथ्य-भात के साथ बकरी या गऊ का दही सोने का बुरादा। (बृहत् रस रा० सु०१) कनकपल-सज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) सोना (३) धतूर बोज, काली मिर्च, हंसपदी, प्रभृति तौलने का एक मान जो १६ मासे के बरा- पीपर, भुनासोहागा, सिंगिया विष, और शुद्ध बर होता है। हारा। इसका दूसरा नाम कुरु- गंधक, प्रत्येक समान भाग । चूर्णकर भंग के रस विस्त है । (२) एक प्रकार की मछली । इसका | में अच्छी तरह खरलकर १ रत्ती प्रमाण गोलियाँ मांस सुवर्ण जैसा होता है। बनाएँ। कनकपुष्पिका, कनकपुष्पी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] गुण तथा प्रयोग-इसके उपयोग से अति (१) छोटो अरनी । गणिकारिका । (२) सार, संग्रहणी, ज्वरातिसार, और मन्दाग्नि का उलटकंबल । द्र मोत्पल । वै० निघ। नाश होता है। कनकप्रभ-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार की पथप-दही, भात, शीतल जल, तीतर और सोमलता । सु० चि० २६ अ० । दे. “सोम"। लवा पक्षी के मांस का यूष । (वृहत् रस कनकप्रभा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) बड़ी रा० सु०.) मालकँगनी । महाज्योतिष्मती लता। रा०नि० | कनक प्रसवा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] स्वर्ण केतकी व०३ । (२) सोनजूही। पीलीजूही । स्वर्ण- वृक्ष, केतकी केवड़े का पेड़ । रा०नि० व० १०। यूथिका । रा०नि० व १० । (३) हड़ताल । कनकप्रसू-संज्ञा पुं० [सं० पु.] धूली कदम्ब । (४) एक रसौषध जिसका प्रयोग ज्वरातिसार | वै.निघः । में होता है । योग यह है-सुवर्ण बीज, मरिच, कनकफल-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] (१) धतूरे का मरालपाद, कणा । टंकणक, विष और गंधक- फल । धुस्तूर फल । (२) जमालगोटा । इनको बराबर-बराबर ले चूर्ण करें। फिर उसे जयपाल | भॉग के रस में घोंट कर गुजाप्रमाण वटिका | कनकबीर, कनकमृग-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] स्वर्ण प्रस्तुत करें। इसके सेवन से अतिसार ग्रहणी और वर्ण भृग । सुनहले रंग का हिरन । अग्निमांद्य रोग छूट जाता है । र० सा० सं०। कनकमोचा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] सोनकेला, चंपाकनक प्रभा वटी- । संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] केला । स्वर्ण कदली। कनक सुन्दर रस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कनक रम्भा-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.] सोनकेला । (१) शुद्ध हिंगुल. मिर्च, शुद्ध गन्धक, पीपर, सुवर्ण कदली । पीलाकेला । चंपाकेला । रा०नि० सोहागा भुना, शुद्ध सिंगीमोहरा, धत्तुर के बीज, व० ११ । कनकवर्ण, कलिकारम्भा । प्रत्येक समान भाग ग्रहण करें । बारीक चूर्ण कर कनकरस-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०, क्री०] (1)हरभांग के रस में १ पहर अच्छी तरह घोटे फिर ताल | रा०नि० व १३ । (२) सोने का पानी सना प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। शीतल स्वर्ण. द्रवीभूत सुवर्ण । माउ.ज़हब । गुण-इसके उपयोग से ग्रहणी रोग का नाश दे० “सोना" । ५ला
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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