________________
करहानेक
२२१६
E का
करहानक-[फा०] बाबूना। करही-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] (१) बैंगन। भंटा। - (२) शीशम की तरह एक पेड़ । जिसके पत्ते . शीशम के पत्तों से दूने बड़े होते हैं। करंकानी-[फा०] अंगूर का एक भेद। करंकुसा-[बं०] खवी । लामज्जक तृण । इज़खिर । करंगल्ली-[ ता. ] खदिर । कत्था । खैर । करंगा-[?] सेवती । गुलाबभेद ।
संज्ञा पुं० दे० 'करंगा"।
संज्ञा पु. भेकल । करेंगा-संज्ञा पुं॰ [हिं० काला वा कारा+अंग] एक
प्रकार का मोटा धान, जिसकी भूसी कुछ काला पन लिए होती है। यह प्रायः क्वार मास में
पकता है। करंगी-[ मैसूर ] इमली । अम्लिका ।
संज्ञा स्त्री० [सं०१](1) छोटी इलायची (२) दे. “काँगा"। करंच-[बं०] करौंदा, करमर्दक । करंचक-हिंदी-[?] जमालगोटा । करंज-[फा०] कलौंजी । शोनीज़ ।
[ तुरान ] चावल ।
संज्ञा पुं॰ [सं० करों ] (1) एक वृक्ष का | नाम, जो डील-डोल में मनुष्य के बराबर वा उससे भी अधिक ऊँचा होता है। पत्तियाँ करम कल्ले वा (अंगूर) की पत्तियों की तरह, किंतु उससे अधिक कोमल, चिकनी और पिस्तई रंग को होती है । यह दो प्रकार का होता है। (१) सफेद फूल का और (२) पीले फूल का । दूसरे
का नाम पूति करंज है। करंज-संज्ञा पु० [सं० करञ्जः ] (१) एक उच्च,
बहुशाखान्वित उत्तम छाया तरु। वृक्ष ५०-६० फुट ऊंचा होता है । प्रकांड छोटा और गोलाई में ५ से ८ फुट तक होता है। इसकी छाल मसूण, स्थान-स्थान पर विचित्र चिहाङ्कित एक इंच मोटी
और चिकनी होती है । यह प्रायशः पल्वल; पुष्करणी किंवा नदी के तीर उत्पन्न होता है; सुतरां इसका "डहर करंज' नाम अन्वर्थ है। चैत में इसके पत्ते गिरजाते हैं और कुछ दिनों के उपरांत इसमें नवीन पत्र आजाते हैं। पत्र प्रायः पकड़ी की पत्ती की तरह होती है। परन्तु इसमें यह
अधिकता होती है, कि यह तैलाकवत् चिकनी मसृण एवं गाढ़े हरे रंग को होती है । एक सींके पर २-३ जोड़े, २-४ इंच लंबे पत्तों के लगते हैं। इसका स्वाद कड़वा होता है । इसमें आकाशवत् नीलवर्ण ( बा सफ़ेद बेंगनी) के पुष आते हैं। पुष्पदण्ड पर गुच्छा कार स्थित होते हैं। पुष्पदण्ड पत्रार्द्ध दीर्घ होता है । यह चैत बैशाख में पुष्पित होता है । (मतांतर से जेठ-बैशाख में फूलता और भागामी बर्ष के चैत में फलियाँ पकती हैं)। पुष्प सर्वथा शिम्बीधारी उद्भिदों के पुष्प के समान होता है । शिम्बी अण्डाकृति दीर्घ, कड़ी, मोटी, चिपटी, चिकनी एक इंच चोड़ी और 1 से 1 इंच मोटी और १॥से २ इंच लम्बी होती है। शिम्बी का अग्रभाग, हठात् सूक्ष्मता प्राप्त, मोटा और प्रतीक्ष्ण होता है। नोक ईषद्वक्र, अत्यन्त लघु होती है । प्रत्येक शिम्बी में केवल एकबीज होताहै। बीज चिपटा(Compressed) और बड़ी मटर की रूप-प्राकृति का होता है। इसके ऊपर का छिलका पतला, मसूण, शिराबहुल और हलके लाल रंग का होता है। बीज की गिरी (Cotyledons) अत्यंत तैलपूर्ण एवं तिक होती है । इसमें से लाल, भूरा, गाढ़ा बीजों का पाँचवां भाग तेल निकलता है। वृक्ष-त्वक् का वाह्य स्तर पतला ख़ाकी-धूसरवर्ण का होता है। जिसे शीघ्र पृथक किया जा सकता है। इसे हटाने पर भीतरी सतह हरिद्वर्ण की दिखाई देती है, जिस पर आड़े रुख सफेद चिन्ह होते हैं। छाल कड़ी होती है। गंध अत्यंत अप्रिय (Mawkish), स्वाद तिक और कुछ-कुछ सुगंधित और विलक्षण चरपरा होता है । सूचम-दर्शक से देखने पर श्वेतसार एवं स्फटिक दृग्गोचर होते हैं। मूलत्वक् बाहर से मंडीय धूसर ( Rusty-brown) और भीतर से पीला होता है । वृक्ष के सर्वाङ्ग को कुचलने से एक प्रकार का पीला रस प्राप्त होता है (इसमें एक प्रकार का गोंद निकलता है। इसकी राख गत के काममें आती है। 'अनुभूत-चिकित्सा सागर')
वक्तव्य प्राचीन आयुर्वेदीय निघण्टु ग्रन्थों में "पूतिक" शब्द करअद्वय अर्थात् नक्रमाल और पूतिकरा