Book Title: Aagam 14 JIVAJIVABHIGAM Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [१४] श्री जीवाजीवाभिगम (उपांग)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । | "जीवाजीवाभिगम" मलं एवं वृत्ति: [मलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति:] [आदय संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता, मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 30/10/2014, गुरुवार, २०७० कार्तिक शुक्ल ७ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१४], उपांग सूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [-], ------------------------- उद्देशक: [-], ----------------------- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम SWAANAANAANANARTARNAG SARVARIANNAINAANANTARNIAANAANAANAANAARAAAAMAANAATA अष्टि देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ५०. श्रीस्थानाशाख्यनीयासंबद्धं श्रीमजिनप्रशिम्यचतुर्दशपूर्वधरविरचितं श्रीमन्मलयगिर्याचार्यसूत्रितविवरणयुत श्रीमजीवाजीवाभिगमोपाङ्गं. प्रसेधकः-शाह नगीनभाई घेलाभाई जव्हेरी, अस्यैकः कार्यबाहकः । इन पुस्तकं मुम्बरां-शाह नगीनभाई घेलाभाई जव्हेरी, ५२६ जाहेरी बाजार इत्यनेन निर्णयसागरयन्त्रालये कोलभाटवीच्या २३ तमे आलये रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम्. 1 [अन्य पुनर्मुद्रणानगाः सर्वेऽधिकाराः स्वायत्ताः ] चौरमंवत् २४४५. पिनरस्य १९७१५. काईट १९१९. प्रथमस्कारे प्रतयः ११५५] मूल्यं ३-४-० [R.R-4-1) SUNUMUNUMANUNUNUNUNUNUNUNUNUNUM T जीवाजीवाभिगम (उपांग)सूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: २७२+९३ [ गाथा: ] विषय: मूलांक: ००१ ०५२ ०७४ १३० प्रथमा- दद्विविधा प्रतिपत्ति जीवाभिगमस्य द्विविधे भेदे अजीवाभिगमस्य द्विविधेभेदे पृथिव्यादि जीवानाम् वर्णनं द्वितिया त्रिविधा प्रतिपत्ति संसारिजीवानाम त्रैविध्यं- --स्त्री, पुरुषः, नपुंसकम् तृतीया चतुर्विधा प्रतिपत्ति नैरयिका: उदेशकः १नैरयिकस्य नाम्नं एवं गोत्रं नरक - वर्णनं, नरकावासे गति- आगति, नरकस्य अल्पबहुत्वं नैरयिका: उदेशकः २ + ३ नरकस्य नाम्नं आकार: " - वेदना, संस्थानं, वर्ण, गन्धं, - स्पर्श, पुद्गलः, संहननं, - आहार, लेण्या, ज्ञानं, अज्ञानं पृष्ठांक ००४ १०६ १७९ १७९ २०६ + २६० -योग, उपयोग, इत्यादि. तिर्यञ्चयोनिक: उदेशकः १- २६४ तिर्यञ्चयोनिकजीवानाम् भेदा: तिर्यञ्चयोनिकः उदेशकः २- २८० - संसारिजीवानाम् षड्विधत्वं - पृथ्वी जीवानाम् षड्विधत्वं जीवानाम् संस्थिति-कालादिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... जीवाजीवाभिगम (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम विषय: मूलांक: १४० विषय: एकोरुकद्वीप-वर्णनं, आभासिक आदि द्विपस्य स्थानादि वर्णनं देवाधिकार; देवानाम् चतुर्विधत्वं भवनवासी देवानाम् भवनं, पर्षदा, देव-देवी संख्या, स्थिति:, व्यंतर-वर्णनं द्वीप समुद्रः स्थानं संख्या, संस्थानं, जम्बूद्वीपस्य वर्णनं, विजयदेवस्यअधिकार:, सुधर्मा आदि सभा, लवणसमुद्र वर्णनं, जंबूद्वीपस्य अन्तर्गत द्वीपस्य अधिकार: धातकीखण्ड-कालोदसमुद्र- पुष्कर वरद्वीप मानुषोत्तरपर्वत आदि द्वीप समुद्रानाम् अधिकार: इन्द्रियविषयाधिकारः पञ्च इन्द्रियस्य विषया: ज्योतिष्क उद्देशक: देवगति, वैक्रियशक्तिः, चन्द्रसूर्यपरिवार:, ज्योतिष्कदेवस्य गतिक्षेत्रः, अन्तरं, नक्षत्रवर्णनं संस्थानं, अग्रमहिषी, अल्पबहत्व वैमानिक देवाधिकारः उद्देशकः १ एवं २ सौधर्मादिकल्पस्य विमानानि, बाहल्यं, संस्थानं, उच्चत्वं, वर्ण, प्रभा, गन्धं: स्पर्शः, रचना सौधर्मादि देवानाम् संघयणं, संस्थानं, वर्णादि:, पुद्गलः, आहार, अवधिज्ञानं, समुद्घात वेदना, ऋद्धि:, काम-भोग:, गत्यागतिः, स्थिति: चतुर्थी पञ्चविधा प्रतिपत्ति संसारिजीवस्य पञ्चविधत्वं पञ्चमी- षड्विधा प्रतिपत्ति संसारिजीवस्य षड्विधत्वं षष्ठी - सप्तविधा प्रतिपत्ति संसारिजीवस्य सप्तविधत्वं सप्तमी अष्टविधा प्रतिपत्ति संसारिजीवस्य अष्टविधत्वं अष्टमी नवविधा प्रतिपत्ति संसारिजीवस्य नवविधत्वं नवमी दशविधा प्रतिपत्ति संसारिजीवस्य दशविधत्वं सर्वजीव प्रतिपत्ति (अन्तर्) प्रतिपत्ति २ - १० ..आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः १५२ १६० ३०६ ३०७ मनुष्याधिकारः मनुष्यस्य वैविध्यं ~2~ पृष्ठांक: २८९ ३१९ ३५४ ७४९ मूलांक: ३२४ ७५१-७५३ ३४४ ३४६ ३६५ ३६६ ३६७ ३६८ दीप- अनुक्रमाः ३९८ ३६९ पृष्ठांक: ७७४ ७७४, ७९० ८१५ ८२५ ८५७ ८६० ८६५ ८६८ ८७४ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ["जीवाजीवाभिगम' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा । यह प्रत सबसे पहले “जीवाजीवाभिगम सूत्रम्' के नामसे सन १९१९ (विक्रम संवत १९७५) में देवचंद्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धार द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | * हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर प्रतिपत्ति, उद्देशक, मलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौन सी प्रतिपत्ति, उद्देशक, मलसुत्रादि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस -] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक प्रतिपत्ति, उद्देशक, मूलसूत्र आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। .......मुनि दीपरत्नसागर. ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [-], -------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 5 S प्रत सूत्राक श्रेष्ठिदेवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोदारे-ग्रन्थाङ्कः ॥ अहम् ॥ श्रीचतुर्दशपूर्वधरश्रुतस्थविरविहितं । श्रीमन्मलयगिर्याचार्यप्रणीतविवृत्तियुतं । श्रीजीवाजीवाभिगमसूत्रम् (तृतीयमुपाङ्गम्) दीप अनुक्रम - प्रणमत पदनखतेजःप्रतिहतनिःशेषनम्रजनतिमिरम् । वीर परतीर्थियशोद्विरदघटाध्वंसकेसरिणम् ॥१॥ प्रणिपल गुरून जीवाजीवाभिगमस्य विवृत्तिमहमनपाम् । विदधे गुरूपदेशात्प्रबोधमाधातुमल्पधियाम् ॥२॥ इह रागद्वेषायभिभूतेन सांसारिकेण सत्त्वेनाविषयशारीरमानसिकदु:खोपनिपातपीडितेन तदपनोदाय हेयोपादेवपदार्थपरिहाने | यत्न आसेयः, स च विशिष्टविवेकप्रतिपत्तिमन्तरेण न भवति, विशिष्टश्च विवेको न प्राप्ताशेषातिशयकलापाप्तोपदेशमृते, आप्तश्च राग - - जी०५०१ -- वृत्तिकार-रचिता जीवाजीवाभिगमस्य भूमिका ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [-], ------------------------- उद्देशक: [-], ----------------------- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: शानभू मिका प्रत सूत्राक श्रीजीवा- द्वेषमोहादिदोषाणामात्यन्तिकप्रक्षयात् , स चात्यन्तिकः प्रक्षयो दोषाणामईत एव, अत: प्रारभ्यतेऽर्जतचनानुयोगः, तत्राचारादिशात्राजीवाभिणामनुयोगः पूर्वसूरिभिर्व्यासादिप्रकारैरनेकधा कृतस्ततो न तदन्वाख्याने समस्ति तथाविधं प्रयाससाफल्यम्, अतो यदस्ति तृतीयाङ्गस्य मलयगि-15 स्थाननाम्नो रागविषपरममत्ररूपं द्वेषानलसलिलपूरोपमं तिमिरादित्यभूतं भवाब्धिपरमसेतुमहाप्रयनगम्यं निःश्रेयसावाप्त्यवन्ध्यरीयावृत्तिः शक्तिकं जीवाजीवाभिगमनामकमुपाङ्गं पूर्वटीकाकृताऽतिगम्भीरमल्पाक्षराख्यातम्, अत एव मन्दमेधसामुपकारायाप्रभविष्णु,तस्य तेषा मनुग्रहाय सविस्तरमन्वाख्यानमातन्यते । तत्र जीवाजीवाभिगमाध्ययनप्रारम्भप्रयासोऽयुक्तः, प्रयोजनादिरहितत्वात् , कण्टकशाखामर्द नादिवत् , इत्याशकाऽपनोदाय प्रयोजनादिकमादाबुपन्यसनीयम् , उक्तं च-"प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ, फलादित्रितयं स्फुटम् । मङ्गलं | दाचैव शास्त्रादौ, वाफ्यभिष्टार्थसिद्धये ॥१॥” इति, तत्र प्रयोजनं द्विधा-परमपरं च, पुनरेकै द्विविध-कर्तृगतं श्रोतृगतं च, तत्र द्रव्या स्तिकनयमतपर्यालोचनायामागमस्य नित्यत्वात्कर्तुरभाव एव, तथा चोक्तम्-'नेपा द्वादशाङ्गी कदाचिन्नासीत् न कदाचिन्न भवति । न कदाचिन्न भविष्यति, ध्रुवा नित्या शाश्वती"त्यादि, पर्यायास्तिकनयमतपर्यालोचनायां चानित्यत्वावश्यंभावी तत्सद्भावः, तत्त्वपर्यालोचनायो तु सूत्रार्थोभयरूपत्वादागमस्यार्थापेक्षया नित्यलात् सूत्रापेक्षया चानित्यत्वात्कथञ्चित्कर्तृसिद्धिः, तत्र सूत्रकर्तुः परमपवर्गप्राप्तिः अपरं सत्त्वानुग्रहः, तदर्थप्रतिपादकस्याहतः किं प्रयोजनमिति चेद् , उच्यते, न किञ्चित् , कृतकृत्यत्वाशगवतः, प्रयोजनमन्तरेणार्थप्रतिपादनप्रयासो निरर्थक इति चेत्, न, तस्य वीर्थकरनामफर्मविपाकोदयप्रभवत्वात् , उक्तं च-तं च कहं वेइजइ ?, अगिलाए धम्मदेसणाए उ" इति, ओतृणामनन्तरं प्रयोजनं विवक्षिताध्ययनार्थपरिज्ञानं, परं नि:श्रेयसपर्द, विवक्षिताध्ययनसम्यगावगमतः १ तच कर्भ वैधते । अग्लान्या धर्मदेशनयैव ( नादिभिः) दीप अनुक्रम EASCARSA वृत्तिकार-रचिता जीवाजीवाभिगमस्य भूमिका ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [-], प्रतिपत्ति: [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........ मूलं [-] आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः संयमप्रवृत्त्या सकलकर्मक्षयोपपत्तेः, ततः प्रयोजनवान् अधिकृताध्ययनप्रारम्भप्रयासः, अभिधेयं जीवाजीव स्वरूपं तचाधिकृताध्यय ननानो यथार्थत्वमात्रादप्यवगतं १, सम्बन्धश्च द्विधा - उपायोपेयभावलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणश्च तन्त्रायस्तर्कानुसारिण: प्रति, तद्यथावचनरूपापन्नं प्रकरणमुपायस्तत्परिज्ञानं घोपेयं, गुरुपर्वक्रमलक्षणः केवलश्रद्धानुसारिणः प्रति, स चैवम्-अर्थतो भगवता वर्द्धमानस्वामिना जीवाजीवाभिगम उक्तः, सूत्रतो द्वादशस्वङ्गेषु गणधरैः, ततोऽपि मन्दमेधसामनुप्रहायातिशायिभिश्चतुर्दशपूर्वधरैस्तृतीयस्मादङ्गादाकृष्य पृथगध्ययनत्वेन व्यवस्थापितः, अमुमेव सम्बन्धमनुविचिन्त्य स्थविरा भगवन्तः प्रज्ञापितवन्त इति प्रतिपादयिष्यति २, इदं च जीवाजीवाभिगमाख्यमध्ययनं सम्यग्ज्ञानहेतुलात् अत एव (च) परम्परया मुक्तिपदप्रापकत्वाच्छ्रेयोभूतम् अतो मा भूदव विन इति विघ्नविनायकोपशान्तये शिष्याणां मङ्गलबुद्धिपरिग्रहाय खतो मङ्गलभूतेऽप्यस्मिन् मङ्गलमुपन्यस्यते, वच्चादिमध्यावसानभेदात्रिधा, तन्त्रादिमङ्गलम् 'इह खलु जिगमय' मित्यादि, अत्र जिननामोत्कीर्त्तनं मङ्गलं, मङ्गलं च नामादिभेदाचतुर्धा सत्रेदं नोआगमतो भावमङ्गलम् एतचाधिकृताध्ययनार्थपारगमनकारणं, मध्यमङ्गलं द्वीपसमुद्रस्वरूपकथनं, निमिशाले हि द्वीपसमुद्रनामग्रहणं परममङ्गलमिति निवेदितं तथा च द्वीपसमुद्रादिनामग्रहणाधिकारे तत्रोक्तम् — "जो' जं पसत्यमत्थं पुच्छर तस्सऽत्यसंपत्ती " इत्यादि, | एतच्चाधिकृताध्ययनार्थस्थिरीकरणहेतुः, अवसानमङ्गलं " दसविहा सव्वजीवा" इत्यादिरूपं, सर्वजीवपरिज्ञानहेतुत्वेन माङ्गलिकत्वात्, तच शिष्यप्रशिष्यसन्तानाव्यवच्छेदार्थम् उक्तंच — "तं मंगलमाईए मझे पनंतर व सत्यस्स पढमं सुत्थाविग्धपारगमणाय निहिं १ यो यं प्रशस्तमर्थ पुच्छति तस्यार्थं संप्राप्तिः २ तन्मङ्गलमादी मध्ये पर्यन्ते च शस्य प्रथमं सूत्रार्थस्याविशेन पारयमनाय निर्दिष्टम् ॥ १ ॥ वृत्तिकार - रचिता जीवाजीवाभिगमस्य भूमिका For P&Pernaise Cly ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], -------------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 1-45% प्रत सूत्राक (१) दीप श्रीजीवा- ॥१॥ तस्सेब उ थिजत्थं मझिमयं अंतिमंपि तस्सेव । अब्बोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स ॥२॥" अथ कथं सफल शाखभूजीवाभि |8|| मेवेदमध्ययनं स्वतो मङ्गलभूतम् , उच्यते, निर्जरार्थत्वात्तपोवत् , निर्जरार्थता च सम्यगज्ञानरूपत्वान् , उक्तं च--"ज अण्णाणी कम्म|3|| मिका मलयगि- खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिर्हि गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेणं ॥१॥" मङ्गलशब्दव्युत्पत्तिश्वेयम्-उख णख बस मखेरीयावृत्तिः यादि वण्डकधातुः, मङ्गयतेऽधिगम्यते हितमनेनेति मङ्गलम् , अथवा नङ्ग इति धर्मस्याख्या तं लाति-आदत्ते इति मङ्गलं, तथा चास्मिन्नध्ययने मनसि भावतः परिणगति समुपजायते सुविशुद्धसम्यग्दर्शनादिको भावधर्मः, उक्तं च-"मंगिंजएऽधिगम्मइ जेण हियं|४. ॥२॥ लावण मंगल होइ । अवा मंगो धम्मो तं लाति तयं समादत्ते ॥१॥” इति, यदिवा मां गालयति-अपनयति भवादिति मङ्गलं, मा भूद्द गलो-विघ्नो गालो वा-नाशः शास्त्रस्थास्मादिति मङ्गलं, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः ३॥ तदेवं प्रयोजनादित्रितयं मङ्गलं चोपदर्शि-1, तम्, अधुनाऽनुयोगः प्रारभ्यते, अधानुयोग इति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, सूत्रपाठानन्तरमनु-पश्चात् सूत्रस्यार्थेन सह योगी-घटना-17 नुयोगः, सूत्राध्ययनात्पश्चादर्थकथनमिति भावना, यद्वाऽनुकूल:-अविरोधी सूत्रस्यार्थेन सह योगोऽनुयोगः, तत्रेवमादिसूत्रम् ॥ ऐं नमः ॥ इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं जिणाणुलोमं जिणप्पणीतं जिणपरूवियं जिणक्वार्य जिणाणुचिन्नं जिणपण्णत्तं जिणदेसियं जिणपसत्थं अणुब्बीइए तं सद्दहमाणातं पत्तियमाणा तं रोएमाणा घेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमणाममज्झयणं पण्णवइंसु (सू०१) ॥ २॥ १ तस्यैव तु सर्या मधममन्समपि तस्यैव । अन्युच्छितिनिमित्तं शिष्यप्रशिष्यादिवंशे ॥ २ ॥२ यदहानी फर्म क्षपयति बहुफाभिवर्षकोटीभिः । तज्ज्ञानी | Kानिमितः क्षपयत्युकासमात्रेण ॥१॥ ३ मन्यतेऽधिगम्यते येन हितं तेन मालं भवति । अथवा मझो धर्मसं खाति तर्फ समायते ॥१॥ अनुक्रम [१] - - वृत्तिकार-रचिता जीवाजीवाभिगमस्य भूमिका अत्र प्रथमा (द्विविधा) प्रतिपत्ति: आरभ्यते Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 'इह' अस्मिन् प्रवचने खलुशब्दोऽवधारणे इहैव प्रवचने न शेषेषु शाक्यादिप्रवचनेषु, अथवा 'इहे ति मनुष्यलोके, खलुशब्दो वाक्यालकारे, 'जिनमत'मिति रागादिशत्रून जयति सा (इति) जिनः, स च यद्यपि छास्थवीतरागोऽपि भवति तथाऽपि तस्य तीर्थसाप्रवर्तकत्वायोगादुत्पन्न केवलज्ञानतीर्थदभिगृह्यते, सोऽपि च बर्द्धमानस्वामी, तस्य वर्त्तमानतीर्थाधिपतित्वात् , तस्य जिनस्य-वर्द्धमानखा-4 कामिनो मतम्-अर्थतस्तेनैव प्रणीतत्वादाचारादि दृष्टिवादपर्यन्तं द्वादशाहं गणिपिटक, कथम्भूतं वर्द्धमानस्वामिजिनमतमित्याह-'जिनानु मतं' जिनानाम्-अतीतानागतवर्तमानानामुपभपद्मनाभसीमन्धरस्वामिप्रभृतीनामनुमतम्-आनुकूल्येन संमतं वस्तुतत्त्वमपवर्गमार्ग च प्रति लमनागपि विसंवादाभावादिति जिनानुमतम्, एतेन सर्वेषामपि तीर्थकृतां परस्परमविसंवादिवचनता प्रवेदिता, पुनः कथम्भूतमि त्याह-'जिनानुलोम' जिनानाम्-अवध्यादिजिनानामनुलोमम्-अनुकूलमनुगुणमिति भावः, एतद्वशादवध्यादिजिनवप्राप्तेः, तथाहि यथोक्तमिदं जिनमतमासेषमानाः साधवोऽवधिमनःपर्यायकेवललाममासादयन्येवेति, तथा 'जिनप्रणीत' जिनेन-भगवता बर्द्धमान-1 दवामिना प्रणीतं समस्तार्थसमहात्मकमातृकापदत्रयप्रणयनाजिनप्रणीतं, भगवान् हि बर्द्धमानस्वामी केवलज्ञानावातावादी बीजबुद्धि खादिपरमगुणकलितान् गौतमादीन् गणधारिणः प्रत्येतन्मातृकापदत्रयमुक्तवान् "उप्पन्ने इ वा विगमे इ वा धुवे इ वा" इति, एतच पदयमुपजीव्य गौतमादयो द्वादशाङ्गं विरचितवन्तस्ततो भवत्येतजिनमतं जिनप्रणीतमिति, एतेनागमस्य सूत्रतः पौरुषेयत्वमावेदितं, पुरुषव्यापारमन्तरेण वचनानामसंभवात् , न खलु पुरुषव्यापारमन्तरेण नभसि ध्वनन्तः शब्दा उपलभ्यन्त इति, तेन यदवादि परैः -वचनाजिनसंघुद्धिस्तनरर्थक्यमन्यथा । अपौरुषेयमेवेद, धर्माधर्मनिबन्धनम् ॥ १॥ इति तपास्तमवसेयमिति, तत्र मा भूत्कस्याप्येवमाशङ्का-यथेदमविशातार्थमेव तत्त्वतः साक्षात्सर्वज्ञादपि अवणे सर्वज्ञविवक्षाया अलपक्षलेन ग्रहणाभावे विवक्षितशब्दार्थपरि दीप अनुक्रम ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ----------------------- उद्देशक: [-], ---------- ------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक (१) -6 दीप श्रीजीवा-15ज्ञानायोगात् केवलं म्लेच्छस्येवाऽऽर्योक्तानुभाषणमात्रमिदमिति, तथा चोक्तमपरैः-आर्याभिप्रायमज्ञाला, म्लेच्छवागयोगतुल्यता ।। अध्ययन जीवाभि सर्वज्ञादपि हि श्रोतुस्तदन्यस्यार्थदर्शने ॥ १ ॥"तत आह–'जिनप्ररूपित' जिनेन-भगवता बर्द्धमानस्वामिना यथा श्रोतृणामधिगमो || | प्रामाण्यं मलयगि- भवति तथा सम्यप्रणयनक्रियाप्रवर्त्तनेन प्ररूपितं, किमुक्तं भवति ?-यद्यपि नाम श्रोता न भगवद्विवक्षा साक्षादधिगच्छति तथारीयावृत्तिः शायनादिरयं शाग्दो व्यवहारः साक्षाद्विवक्षाग्रहणमन्तरेणापि भवति यथासङ्केतं शब्दार्थावगमो, बालादीनां तथा दर्शनात् , अन्यथा सकलशाब्दव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः, चित्रार्थी अपि शब्दा भगवतैव सङ्केतिताः प्रस्तावौचित्यादिना च नियतमर्थ प्रतिपादयन्ति, तत-| श्चित्रार्थशब्दझवणेऽपि भवति यथाऽवस्थितार्थावगमो, न चान्यथाऽवबुध्यमानांस्तान्न निषेधति, अविप्रतारकत्वात् , न चोपेक्षते, तीर्थप्रवर्त्तनाय प्रवृत्तत्वात् , वतो गणभृतां साक्षात् परम्परया शेषसूरीणामपि यथाऽवस्थितार्थावगम इति नेदमविज्ञातार्थमिति, अन्ये त्वाःभगवान प्रवचनप्रयासमाधत्ते, केवलं तत्पुण्यप्रारभारवशादेव श्रोतृणां प्रतिभास उपजायते यथा-इत्थमित्थं भगवान् सत्वमाचष्टे, उक्तं च तदाधिपत्यादाभासः, सत्यानामुपजायते । स्वयं तु वनरहितश्चिन्तामणिरिव स्थितः ॥ १ ॥” इति, तन्मतविकुट्टनार्थमाह-जिनाख्यातं' जिनेन-भगवता बर्द्धमानस्वामिना प्रकृष्टपुण्यसंभारविपाकोव्यतस्तथा व्यापारयोगेन आख्यात कथितं जिनाख्यातं, साक्षात्कथनव्यापारोपलम्भेऽपि यदि तदाधिपत्यमात्रात्तथाप्रतिभासः श्रोतृणामित्यभ्युपगम्यते ततोऽन्यत्रापि तथाकल्पनाप्रसङ्गः, तथा च प्रत्यक्षविरोध इति यत्किञ्चिदेतद्, भगवांश्चाख्यातवान् सम्यग् योग्येभ्यः श्रोतृभ्यो नायोग्येभ्यः, अमूढलक्षवात् , सम्यगयोग्यश्च श्रोता ओतलक्षणोपेतः, श्रोतृलक्षणानि चामूनि-मध्यस्थो बुद्धिमानर्थी, जात्यादिगुणसंगतः । श्रुतकृय यथाशक्ति, पाश्रोता पात्रमिति स्मृतः ॥ १॥" ततः फलवदेवेदं जिनाख्यातमित्यावेदयन्नाह-'जिनानुचीर्ण जिना इह हिवाप्त्यचिवकयोयसिद्धा अनुक्रम -450-60 १-१ Jatich ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [?] उपांगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], उद्देशक: [-], मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः “जीवाजीवाभिगम" - गणधारिणः परिगृह्यन्ते, विचित्रार्थत्वात्सूत्राणां ततोऽयमर्थः - जिनैः - हिताध्यनिवर्त्तक योगसिद्वैर्गणधारिभिरनुचीर्ण-सम्यक् तदर्थाय - गमासङ्ग शक्तिगर्भानिवर्त्तकसमभावप्रात्या धर्ममेघनामकसमाधिरूपेण परिणमितं जिनानुचीर्णम्, अत एव तथारूपसमाधिभावतः समुहसितातिशयविशेषभावेन तेषां तथा सूत्रकरणशक्तिरिति दर्शयन्नाह - 'जिनप्रज्ञसं' जिनैः - हितास्यनिवर्त्तकयोगिभिः प्रज्ञप्तं तदन्यसत्वानुग्रहाय सूत्रत आचारायङ्गोपाङ्गादिभेदेन रचितं जिनप्रज्ञप्तम् उक्तं च- अत्यं मासइ अरिहा सुतं गंधति राणहरा निवणं सासणरस हियद्वाए तओ सुतं पवत्तई ॥ १ ॥” इति इदं च हितप्रवृत्तादिरूपेभ्यो जिनेभ्यो देशनीयं तेषामेव सम्यग्विवेययोगभावतो हिताविघातकरणात् इत्येतदुपदर्शयन्नाह - 'जिनदेशितं जिना इह हितप्रवृत्तगोत्र विशुद्धोपायाभिमुखापायत्रिमुखादयः परिगृह्यन्ते, तथा मूलटीकाकृता व्याख्यानात्, जिनेभ्यो हितप्रवृत्तादिरूपेभ्यः शुश्रूषादिभिर्व्यक्तभावेभ्यो देशितं कथितं गणधरैरपि जिनदेशितं तथा च जम्बूस्वामिप्रभृतय एवंविधा एवेति निरूपणीयमेतत् अथ प्रकृतिसुन्दरमिदमिति कस्मादजिनेभ्योऽपि नोपदिश्यते ?, उच्यते, तेषां स्वतोऽसुन्दरत्वेनानर्थोपनिपातसम्भवात् दृष्टं च पात्रासुन्दरतया स्वतः सुन्दरमपि रविकराद्युलूकादीनामनथय, आह च पैउंजियध्वं धीरेण हियं जं जस्स सव्वा । आहारोषि हु मच्छरस न पसत्थो गो भुवि ॥ १ ॥" अस्वार्थस्य संदर्शनायाह - 'जिनप्रशस्तं ' जिनानां - गोत्रत्रिशुद्धोपायाभिमुखापायविमुखहितप्रवृत्तादिभेदानां प्रशस्तं निरुजपध्यान्नवत् उचित सेवनया हितं जिनप्रशस्तम्, एवंभूतं जिनमतम् 'अनुविश्चिन्त्य' औत्पत्तिक्यादिभेदभिन्नया बुद्ध्या पर्यालोच्य 'तत्' जिनमतं 'श्रद्दधानाः ' १ अर्थ भाषतेऽईन् सूत्रं प्रनन्ति गणधरा निपुणम् शासनस्य हितार्थे ततः सूत्रं प्रवर्त्तते ॥ १ ॥ २ प्रयोकव्यं धीरेष हितं भवस्य सर्वथा । आहारोऽपि च मत्स्यस्य न प्रशस्तो गरो भुवि ॥ १ ॥ For P&Praise City ~10~ City Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], -------------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक (१) दीप श्रीजीवा-४ यद्यपि नाम कालवैगुण्यतो मेधादिगुणहीनाः प्राणिनस्तथाऽप्यतः स्वल्पमप्यधिगतं भवच्छेदायेत्या चित्ततया मन्यमानाः, तथा 'तत्' अभिगमजीवाभि- जिनमतमेव 'प्रीयमाणाः" असङ्गशक्तिप्रीत्या पश्यन्तः, तथा 'तत्' जिनमतमेव रोचयन्तः' सामीभावेनानुभवन्तः, क एते इत्याह-स्थ-1|| भेदो मलयगि- विरा भगवन्तः तत्र धर्मपरिणत्या निवृत्तासमक्षसक्रियामतयः स्थविरा इव स्थविराः, परिणतसाधुभावा आचार्या इति गर्भः, 'भग- स.२ रीयावृत्तिः वन्तः' श्रुतैश्वर्यादियोगाद् भग्नवन्तः कषायादीनिति भगवन्तः पृषोदरादित्वान्नकारलोपः, 'जीवाजीवाभिगम नाम' नाम्ना जीवाजीवा-81 भिगम, नामन् शब्दस्यानाध्ययलात्ततः परस्य तृतीवैकवचनस्य लोपः, जीवानाम्-एकेन्द्रियादीनाम् अजीवाना-धर्मास्तिकायादीनाम भिगमः-परिच्छेदो यस्मिन् तत् जीवाजीवाभिगमम् , इदं चान्वर्थप्रधानं नाम यथा ज्वलतीति ज्वलन इत्यादि, किं तदित्याह-अधी४ यत इति 'अध्ययन विशिष्टार्थध्वनिसंदर्भरूपं 'प्रज्ञापितवन्तः' प्ररूपितवन्तः, एतेन गुरुपर्वक्रमलक्षणः सम्बन्धः साक्षादुपदर्शितः, एतदुपदर्शनादभिधेयादिकमपि सिद्धं यथोक्तमनन्तरमिति फतं प्रसङ्गेन ॥ से कितं जीवाजीवाभिगमे ?, जीवाजीवाभिगमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-जीवाभिगमे य अजी वाभिगमे य॥ (सू०२) अथास्व सूत्रस्य किनैदम्पर्यम् ?, उच्यते, प्रभसूत्रमिदम्, एतचादावुपन्यस्यन्निदं ज्ञापयति-पृच्छतो मध्यस्थस्य बुद्धिमतो भगवदहदुपदिष्टतत्त्वस्य तत्त्वप्ररूपणा कार्या नान्यस्येति, अक्षरगमनिका वेवम्-सेशब्दो मगधदेशप्रसिद्धो निपातोऽथशब्दायें, अथशब्दश्च | प्रक्रियाद्यर्थाभिधायी, उक्तं च-अथ प्रक्रियाप्रमानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेवि"ति, इह तूपन्यासे, किंशब्दः परप्रश्रे, स| ॥ ४॥ चाभिधेययथावत्स्वरूपानिर्माते नपुंसकलिङ्गतया निर्दिश्यते, तथा चोक्तम्-'अव्यक्ते गुणसन्दोहे नपुंसकलिङ्गं प्रयुज्यते” ततः पुन अनुक्रम - Á - ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक हरयांपेक्षया यथाभिधेयमभिसंबध्यते इति, अथ 'किं तज्जीवाजीवाभिगम' इति, अथवा प्राकृतशैल्या 'अभिधेयवल्लिङ्गवचनानि भव न्तीति न्यायात् किं तदिति-कोऽसावित्यसिन्नर्थे द्रष्टव्यं, ततोऽयमर्थ:-कोऽसौ जीवाजीवाभिगम: ? इति, एवं सामान्येन केनचित्यो । कृते सति भगवान गुरुः शिष्यवचनानुरोधेनादराधानार्थ किञ्चितात्युच्चार्याह-'जीवाजीवाभिगमः अनन्तरोदितशब्दार्थः द्विविधः'। हिप्रकारः प्रज्ञप्तस्तीर्थकरगणधरैः, अनेन चागृहीतशिष्याभिधानेन निर्वचनसूत्रेणैतदाह-न सर्वमेव सूत्र गणधरप्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपं किन्तु किञ्चिदन्यथापि, केवलं सूत्र बाहुल्येन गणधरैईब्ध स्तोकं शेषैः, यत उक्तम्-'अत्थं भासइ अरिहा" इत्यादि, 'तद्यथेति | वक्ष्यमाणभेदकथनोपन्यासार्थः, स जीवाजीबाभिगमो यथा द्विविधो भवति तथोपन्यस्यत इति भावः, जीवाभिगगनाजीवाभिगमश्च, चशब्दौ वस्तुतत्त्वमङ्गीकृत्य द्वयोरपि तुल्यकक्षतोद्भावनाथौं, आह-जीवाजीवाभिगमः प्रभसूत्रे संवलित उपन्यस्तसं तथैवोचार्यासंवलितनिर्वचनाभिधानमयुक्तं, असंवलिते संवलितविधानायोगात् , नैष दोषः, प्रश्नसूत्रेऽप्यसंवलितस्यैवोपन्यासात् , भिन्नजातीययोरेकलायोगात् ।। तत्र यद्यपि यथोदेशस्तथा निर्देश' इति न्यायोऽस्ति, तथाऽप्यल्पतरवक्तव्यत्वात् प्रथमतोऽजीवाभिगममभिधित्सुस्तत्प्रश्नसूत्रमाह से किं तं अजीवाभिगमे?, अजीवाभिगमे दुविहे पन्नते, तंजहा-कविअजीवाभिगमे य अरूविअजीवाभिगमे य ॥ (सू०३) से किं तं अरूविअजीवाभिगमे ?, अरूविअजीवाभिगमे दसविहे प०, तंजहा-धम्मस्थिकाए एवं जहा पण्णवणाए जाव सेत्तं अरुबिअजीवाभिगमे (सू०४)। से किं तं रूविअजीवाभिगमे ?, रूविअजीवाभिगमे चउब्बिहे पण्णत्ते, तंजहा-खंधा खंधदेसा दीप अनुक्रम २ SARSA अजीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : १. ...........................-- उद्देशक: -1, ....................-- मूलं [३-५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३-५] श्रीजीवाजीवाभि मलयगि-1 रीयावृत्तिः दीप अनुक्रम [३-५] खंधप्पएसा परमाणुपोग्गला, ते समासतो पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-वण्णपरिणया गंध० रस. अजीवाफास० संठाणपरिणया, एवं ते ५ जहा पण्णवणाए, सेत्तं रूविअजीवाभिगमे, सेत्तं अजीवा- भिगमः भिगमे (सू०५) सू. ३-४-५ अथ कोऽसौ अजीवाभिगमः ?, सूरिराह-अजीवाभिगमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-रूप्यजीवाभिगमोऽरूप्यजीवाभिगमश्च, रूपमेपामस्तीति रूपिणः, रूपग्रहणं गन्धादीनामुपलक्षणं, तद्व्यतिरेकेण तस्यासम्भवात् , तथाहि-प्रतिपरमाणु रूपरसगन्धस्पर्शाः, उक्तं च - कारणमेव तदन्त सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवणों द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ १॥ एतेन यदुच्यते कैश्चित *भिन्ना एव रूपपरमाणबो भिन्नाश्च पृथक् पृथग रसादिपरमाणव' इति, तदपास्तमबसेयं, प्रत्यक्षबाधितत्वात् , तथाहि-य एव नैरन्तयण कुचकलशोपरिनिविष्टा रूपपरमाणव उपलब्धिगोचरास्तेष्वेवाव्यवच्छेदेन सकलेवपि स्पोऽप्युपलभ्यते, य एव च घृतादिरसपरमाणयः कर्पूरादिगन्धपरमाणयो वा तेष्वेव नैरन्वर्येण रूपं स्पर्शश्चोपलब्धिविषयः, अन्यथा सान्तरा रूपादयः प्रतीतिपथमिनियुः, न च सान्तरा: प्रतीयन्ते, तस्मादव्यतिरेकः परस्परं रूपादीनामिति, रूपिणश्च तेऽजीवाश्च रूप्यजीवास्तेषामभिगमो रूप्यजीवाभिगमः पुलरूपाजीवाभिगम इतियाक्त् , पुद्गलानामेव रूपादिमत्त्वात् , रूपन्यतिरिक्ता अरूपिणो-धर्मास्तिकायादयस्ते च तेऽजीवाश्वारूप्यजीवास्तेषामभिगमोऽरूप्यजीवाभिगमः॥३॥ तत्रारूपिणः प्रत्यक्षाद्यविषयाः केवलमागमप्रमाणगम्बास्तत्त्वत इति प्रथमतस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहसुगम, सूरिराह-'अरुवी'त्यादि ।। अरूप्यजीवाभिगमः 'दशविधः' दशप्रकारः प्रज्ञप्तः, तदेव दशविधखमाह-तंजहेत्यादि, 'तद्य-13 थेति वक्ष्यमाणभेदकथनोपन्यासार्थः, धर्मास्तिकायः, 'एवं जहा पण्णवणाए' इति 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण यथा प्रज्ञापनायां तथा ॥५ अजीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : १. ...........................-- उद्देशक: -1, ....................-- मूलं [३-५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३-५] वक्तव्यं तावद् यावत् 'सेत्तं असंसारसमापन्नजीवाभिगमे' इति, तश्चैवम्-'धम्मस्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसे धम्मस्थिकायस्स पएसा अधम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकायस्स देसे अधम्मत्विकायस्स पएसा आगासस्थिकाए आगासत्थिकायस्स देसे आगासस्थिकायस्स | पएसा अद्धासमये" इति, तत्र जीवानां पुद्गलानां च स्वभावत एव गतिपरिणामपरिणतानां तत्स्वभावधारणापोषणाद्धर्मः अस्तय:-प्रदेशा| स्तेषां काय:-सङ्घात: "गण काए य निकाए खंधे बग्गे तहेव रासी य" इति वचनात् अस्तिकाय:-प्रदेशसक्षात इत्यर्थः, धर्मश्चा-1 सावस्तिकायश्च धर्मास्तिकाय:, अनेन सकलधर्मास्तिकायरूपमवयविद्रव्यमाह, अवययी च नाम अवयवानां तथारूप: ससातपरिणामविशेष एव, न पुनरवयवद्रव्येभ्यः पृथगर्थान्तरद्रव्यं, तस्यानुपलम्भात् , तन्तव एव हि आतानवितानरूपसङ्घातपरिणामविशेषमापन्ना | लोके पटव्यपदेशभाज उपलभ्यन्ते, न तदतिरिक्तं पटाख्यं नाम द्रव्यम् , उक्तं चान्यैरपि-"तन्त्यादिव्यतिरेकेण, न पटायुपलम्भनम् । तन्त्वादयोऽविशिष्टा हि, पटादिव्यपदेशिनः ॥ १॥" कृतं प्रसङ्गेन, अन्यत्र धर्मसमहणिटीकादावेतद्वादस्य चर्षितत्वात् , तथा तस्यैव बुद्धिपरिकल्पितो व्यादिप्रदेशासको विभागो धर्मास्तिकायस्य देशः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशा:-प्रकृष्टा देशाः प्रदेशाः, प्रदेशा | निर्विभागा भागा इति, ते चासयेयाः, लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्तेषाम् , अत एव बहुवचनं, धर्मास्तिकायप्रतिपक्षभूतोऽधर्मास्तिकाय:, किमुक्तं भवति ?-जीवानां पुद्गलानां च स्थितिपरिणामपरिणतानां तत्परिणामोपटुम्भकोऽमूत्तोंऽसङ्ख्यातप्रदेशामकोऽधर्मास्तिकाय:, अधमास्तिकायस्य देश इत्यादि पूर्ववत्, तथा आ-समन्तात्सर्वाण्यपि द्रव्याणि काशन्ते-दीप्यन्तेऽत्र व्यवस्थितानीत्याकाशम्, अस्तयःप्रदेशास्तेषां कायोऽस्तिकायः, आकाशं च तदस्तिकायश्चाकाशास्तिकायः, आकाशास्तिकायस्य देश इत्यादि प्राग्वत् , नवरमस्य प्रदेशा | अनन्ताः, अलोकसानन्तत्वात, 'अदासमय' इति, अद्धति कालस्याख्या, अद्धा चासौ समयश्चाद्धासमयः, अथवाऽद्धायाः समयो AARAGAR. 54 दीप अनुक्रम [३-५] अजीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३-५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३-५] जीवाभि० रीयावृत्तिः अजीवाभिगमः सू. ३-४५ मलयनि दीप अनुक्रम [३-५] श्रीजीवा- निर्विभागो भागोऽद्धासमयः, अयं चैक एव वर्तमानः परमार्थतः सन् नातीतानागताः, तेषां यथाक्रमं विनष्टानुत्पन्नत्वात् , ततः काय- लाभावाद्देशप्रदेशकल्पनाविरहः, अथाकाशकाली लोकेऽपि प्रतीताविति तौ श्रद्धातुं शक्येते, धर्माधर्मास्तिकायौ तु कथं प्रत्येतव्यौ ? | येन तद्विषया श्रद्धा भवेत् , उच्यते, गतिस्थितिकार्यदर्शनात्, तथाहि-यद् यदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्तवेतुकमिति व्यवहर्त्तव्यं, यथा चलरिन्द्रियान्वयव्यतिरेकान विधायि चाक्षुषं विज्ञानं, तथा च जीवानां पुद्गलानां च गतिस्थितिपरिणामपरिणतानामपि गतिस्थिती यथाक्रमं धर्माधर्मास्तिकायान्वयव्यतिरेकानुविधायिन्यौ, तस्मात्ते तद्धेतुके, न चायमसिद्धो हेतुः, तथाहि-जीवानां पुगलानां च गतिस्थितिपरिणामपरिणतानामपि गति स्थिती न तत्परिणमनमानहेतुके, तन्मात्रहेतुकतायामलोकेऽपि तत्प्रसक्तेः, अथ न तत्परिणमनमात्रं हेतुः किन्तु विशिष्टः परिणामः, स चेत्थंभूतो यथा लोकमात्रक्षेत्रस्यान्तरेऽत्र गतिस्थितिभ्यां भवितव्यं न बहिः प्रदेशमात्रमध्यधिक, ननु स एवेत्थम्भूतो विशिष्टपरिणाम आकालं जीवानां पुद्गलानां चोत्कर्षतोऽप्येत्तावत्प्रमाण एवाभूद् भवति भविष्यति वा न तु कदा18 चनाप्यधिकतर इत्यत्र किं नियामक ?, यथा हि किल परमाणोर्जघन्यत: परमाणुमात्रक्षेत्रातिक्रममादिं कृत्वोत्कर्षतचतुर्दशरज्वामकमपि क्षेत्रं यावद् गतिरुपजायते तथा परतोऽपि प्रदेशमात्रमप्यधिका किं न भवति ?, तस्मादवश्यमत्र किश्चिन्नियामकमपरं वक्तव्यं, तच धर्माधर्मास्तिकायावेव नाकाशमात्रम् , आकाशमात्रस्थालोकेऽपि सम्भवात् , नापि लोकपरिमितमाकाशम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् , तथाहि-जीवानां पुद्गलानां चान्यत्र गतिथियोरभावे सिद्धे सति विवक्षितस्य परिमितस्याकाशस्य लोकलसिद्धिः, तत्सिद्धौ चान्यत्र जीवपुद्गलानां गतिस्थित्यभावसिद्धिरित्येकाभावेऽन्यतरस्याप्यभावः, अथ किमिदमसंबद्धमुच्यते?, यत् लोकलेन सम्प्रति व्यवड़ियते क्षेत्रं, तावन्मात्रस्यैवाकाशखण्डस्य गतिस्थित्युपष्टम्भकस्वभावो न परस्य प्रदेशमात्रस्यापि ततो न कश्चिद्दोषः, ननु तावन्मात्रस्यैवाकाशस्य NSGRRESCREGACSCORESEX F%95 अजीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [३-५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३-५] दीप अनुक्रम [३-५] दास स्वभावो न परस्य प्रदेशमात्रस्यापीत्यत्रापि सुधियः कारणान्तरं मृगयन्ते, आकाशवमात्रखोभयत्रापि तुल्यत्वात् , विशेषणमन्तरेण पाच वैशिष्टायोगान् , कारणान्तरं धर्माधर्मास्तिकायभावाभावावेष नापरमिति स्थितम् , अन्यच्च-तावन्मात्रस्याकाशखण्डस्य स स्वभावो न परस्पेत्यपि कुत: प्रमाणात्परिकल्प्यते !, आगमप्रमाणादिति चेत् तथाहि-तावत्येवाकाशखण्डे जीवानां च पुद्गलानां च गतिस्थितिमतां गतिस्थिती तत्र तत्र व्यावयेते न परत इति, यद्येवं तांगमप्रामाण्यवलादेव धर्माधर्मास्तिकायावपि गतिथितिनिवन्धनमिष्येयातां ॐ किमाकाशखण्डस्य निर्मूलस्वभावान्तरपरिकल्पनाऽऽयासेनेति कृतं प्रसङ्गेन । अथामीषाभित्थं क्रमोपन्यासे किं प्रयोजनम् ?, उच्यते, इह धर्मास्तिकाय इति पदं गङ्गलभूतम् , आदौ धर्मशब्दान्वितत्वात् , पदार्थप्ररूपणा च सम्प्रत्युक्षिप्ता वर्चते, ततो मङ्गलार्थमादौ धर्मास्तिकायस्योपादानं, धर्मास्तिकायप्रतिपक्षभूतश्चाधर्मासिकाय इति तदनन्तरमधर्मास्तिकायस्थ, द्वयोरपि चानयोराधारभूतमाकाशमिति तदनन्तरमाकाशास्तिकायस्थ, यतः पुनरजीवसाधादवासमयस्य, अथवा इह धर्माधर्मासिकायौ विभू न भवतः, तद्विभुलेन तत्सामध्यंतो | जीवपुद्गलानामस्खलितप्रचारप्रवृत्तेर्लोकव्यवस्थाऽनुपपत्तेः, अस्ति च लोकालोकव्यवस्था, तत एतावविभू सन्तौ यत्र क्षेत्रे समवगादौ तावत्प्रमाणो लोकः, शेषस्त्वलोक इति सिद्धम् , उक्तं च-"धर्माधर्मविभुखात्सर्वत्र च जीवपुद्गलविचारान् । नालोकः कश्चित्स्यान्न च संमतमेतदार्याणाम् ॥ १॥ तस्माद्धर्माधर्माववगाढी व्याप्य लोकखं सर्वम् । एवं हि परिच्छिन्नः सियति लोकस्तदविभुत्वात् ।। २।। हातात एवं लोकालोकव्यवस्थाहेतू धर्माधर्मास्तिकायावित्यनयोरादावुपादानं, तत्रापि माङ्गलिकत्वात् प्रथमतो धर्मास्तिकायस्य, तत्प्रतिप खात् ततोऽधर्मास्तिकायस्य, ततो लोकालोकन्यापित्वादाकाशास्तिकायस्थ, तदनन्तरं लोके समयासमयक्षेत्रव्यवस्थाकारित्वादद्धासमजी०५०२ यस्य, एवमागमानुसारेणान्यदपि युक्त्यनुपाति वक्तव्यमित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, अत्रोपसंहारवाक्यं-सेत्तं अरूविअजीवाभि JEscal at अजीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [३-५] दीप अनुक्रम [३-५] उपांगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [१], उद्देशक: [ - ], मूलं [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ७ ॥ "जीवाजीवाभिगम" अजीवाभिगमस्य प्ररूपणा - गमे । अत ऊर्द्धमिदं सूत्रम् - 'से किं तं रूविअजीवाभिगने ?, रूविअजीवाभिगने घडव्विद्दे पण्णत्ते, तं०-खंधा संघदेसा खंघपएसा ७ जीवाजीपरमाणुपुरगला' इह स्कन्धा इत्यत्र बहुवचनं पुद्गलस्कन्धानामनन्तत्वख्यापनार्थे, तथा चोक्तम्- “दुब्बतो णं पुग्गलत्थिकाए णं याभि० अनन्ते" इत्यादि, 'स्कन्धदेशाः स्कन्धानामेव स्कन्धवपरिणाममजहतां बुद्धिपरिकल्पिता क्यादिप्रदेशात्मका विभागाः, अत्रापि बहु- जीवाभिवचनमनन्तप्रदेशिकेषु स्कन्धेषु स्कन्धदेशानन्तत्वसंभावनार्थं, 'स्कन्धप्रदेशाः स्कन्धानां स्कन्धत्व परिणाममजतां प्रकृष्टा देशा:-निविभागा भागाः परमाणव इत्यर्थः, 'परमाणुपुद्गलाः' स्कन्धवपरिणामरहिताः केवलाः परमाणवः । अत ऊर्द्ध सूत्रमिदम् — 'ते समा सतो पंचविधा पन्नत्ता, तंजावण्णपरिणया गंवपरिणता रसपरिणता फासपरिणता संठाणपरिणता, तत्थ णं जे वण्णपरिणया ते पंचविधा पन्नत्ता, तंजा - कालवण्णपरिणता नीलवण्णपरिणता इत्यादि तावद् यावत् 'सेत्तं रुविअजीवाभिगमे, सेत्तं अजीवाभिगने । गमः से किं तं जीवाभिगमे ?, जीवाभिगमे दुविहे पण्णते, तंजहा संसारसमावण्णगजीवाभिगमे य असंसारसमावण्णगजीवाभिगमे य ( सू० ६ ) से किं तं असंसारसमावण्णगजीवाभिगमे १, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा - अणंतरसिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे य परंपरसिद्धासंसारसमाauraजीवाभिगमे । से किं तं अनंतर सिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे १, २ पण्णरसविहे पण्णत्ते, तंजहा - तित्थसिद्धा जाव अणेगसिद्धा, सेत्तं अतरसिद्धा । से किं तं परंपरसिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे १, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा- पढमसमयसिद्धा दुसमय For P&Permalise Caly ~ 17~ ॥ ७ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६-७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: %25 % प्रत सूत्रांक [६-७] CASGRA %2525% सिहा जाय अर्णतसमयसिद्धा, से तं परंपरसिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे, सेतं असं सारसमावण्णगजीवाभिगमे (सू०७) हा संसरणं संसारो-नारकतिर्यानरामरभवभ्रमणलक्षणस्तं सम्यग-एकीमावेनापन्ना:-प्राप्ताः संसारसमापना:-संसारवर्तिनस्ते च ते जीवाश्च तेषामभिगमः संसारसमापन्नजीवाभिगमः, तथा न संसारोऽसंसार:-संसारप्रतिपक्षभूतो मोक्ष इत्यर्थः तं समापन्ना असंसारसमापन्नास्ते च ते जीवाश्च तेषामभिगमोऽसंसारसमापन्नजीवाभिगमः, चशब्दो उभयेषामपि जीवानां जीवलं प्रति तुल्यकक्षतासूचको, तेन ये विध्यातप्रदीपकल्पं निर्वाणमभ्युपगतवन्त: ये च नवानामालगुणानामत्यन्तोच्छेदेन ते निरस्ता द्रष्टव्याः, तथाभूतमोक्षाभ्युपगमे तदर्थ प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, न खलु सचेतनः स्खवधाय कण्ठे कुठारिका व्यापारवति, दुःखितोऽपि हि जीवन कदाचिद् भद्रमायात् मृतेन तु निर्मूलमपि हस्तिताः सम्पद इति, इह केवलान् अजीवान् जीवांश्चानुश्चार्याभिगमशब्दसंबलितप्रोऽभिगमव्यतिरेकेण प्रतिपत्तेरसम्भवतस्तेषामभिगमगम्यताधर्मख्यापनार्थः तेन 'सदेवेदमित्यादि सद्वैताद्यपोह उक्तो बेदितव्यः, सदद्वैताद्यभ्युपगमेऽभिगमगम्यसारूपधर्मायोगतः प्रतिपत्तेरेवासम्भवात् । तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथमतोऽसंसारसमापन्नजीवाभिगमसूत्रम्-से किं तं असंसारसमावनजीवाभिगमे, २ दुविहे पं०, ०-अनंतरसिद्धअसंसारसमावनजीवाभिगमे परंपरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवाभिगमे य' इत्यादि तावद्वाच्यं यावदुपसंहारवाक्यं सत्तं असंसारसमापन्नजीवाभिगमें अस्य व्याख्यानं प्रज्ञापनाटीकातो वेदितव्यं, तत्र सविस्तरमुक्तखात् ।। सम्प्रति संसारसमापन्नजीवाभिगममभिषित्सुतत्पसूत्रमाह से किं तं संसारसमावन्नजीवाभिगमे?, संसारसमावण्णएसु णं जीवेसु इमाओ णव पडिवत्तीओ दीप -50-4 5 अनुक्रम [६-७] -% *40-50-4%9 जीवाभिगमस्य प्ररुपणा ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], -------------------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः जीवाजीवाभि० प्रतिपत्तिः सूत्रांक N-Dik दीप एवमाहिति, तं०-एगे एबमाहंसु-दुविहा संसारसमावषणगा जीवा पं०, एगे एवमाहंसु-तिथिहा संसारसमावण्णगा जीवा पं०, एगे एवमाहंसु-चउबिहा संसारसमावण्णगा जीवा पं०, एगे एवमाहंसु-पंचविहा संसारसमावण्णगा जीवा पं०, एतेणं अभिलावेणं जाव दसविहा संसार समावण्णगा जीवा पण्णत्ता (सू०८) सूरिराह-संसारसमापनेषु णमिति वाक्यालङ्कारे जीवेषु 'इमाः' वक्ष्यमाणलक्षणा 'नव प्रतिपत्तयो' द्विपत्यवतारमादौ कला | दशप्रत्यवतारं यावद् ये नव प्रत्यवतारास्तद्रूपाणि प्रतिपादनानि संवित्तय इतियावत् 'एवं' वक्ष्यमाणया रीत्याऽऽख्यायन्ते पूर्वसूरिभिः इह प्रतिपत्त्याख्यानेन प्रणालिकयाऽर्थाख्यानं द्रष्टव्यं, प्रतिपत्तिभावेऽपि शब्दादर्थे प्रवृत्तिकरणात् , तेन यदुरूयते शब्दाद्वैतवादिभिः'शब्दमात्रं विश्व'मिति, तदपास्तं द्रष्टव्यं, तदपासने चेयमुपपत्ति:-एकान्तैकस्वरूपे वस्तुन्यभिधानद्वयासम्भवात् भिन्नप्रवृत्तिनिमित्ताभावात् , ततश्च शब्दमानमित्येव स्वात् न विश्वमिति, प्रणालिकयाऽर्थाभिधानमेवोपदर्शयति, तद्यथा-एके आचार्या एवमाख्यातवन्त:द्विविधाः संसारसमापन्ना जीवाः प्रशताः, एके आचार्या एवमाण्यातवन्त:-त्रिविधाः संसारसमापन्ना जीवाः, एवं यावदशविधा इति, इह एके इति न पृथग्मतावलम्बिनो दर्शनान्तरीया इव केचिदन्ये आचार्याः, किन्तु य एवं पूर्व द्विप्रत्यवतारविवक्षायां वर्तमाना एवमुक्तवन्तः यथा द्विविधाः संसारसमापन्ना जीवा इति त एव त्रिप्रत्यवतारविवक्षायां वर्तमानाः, द्विपत्यवतारविवक्षामपेक्ष्य त्रिप्रत्यवतारविवक्षाया अन्यत्वात् , विषक्षावतां तु कथञ्चिद् भेदादन्य इति वेदितथ्याः, अत एव प्रतिपत्तय इति परमार्थतोऽनुयोगद्वाराणीति प्रतिपत्तव्यम्, इह य एव द्विविधास्त एव त्रिविधास्त एव चतुर्विधा याबद्दशविधा इति तेषामनेकस्वभावतायां तत्तद्धर्मभेदेन तथा अनुक्रम 27 ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक + * तथाऽभिधानता युज्यते, नान्यथा, एकान्तकस्वभावतायां तेषां वैचित्र्यायोगतस्तथा तथाऽभिधानप्रवृत्तेरसम्भवात् , एवं सति "अष्टविकल्पं देवं तिर्यग्योनं च पञ्चधा भवति । मानुष्यं चैकविधं समासतो भौतिकः सर्गः ॥ १ ॥” इति वामात्रमेव, अधिष्ठातृजीवानामेकरूपत्वाभ्युपगमेन तथारूपवैचित्र्यासम्भवादिति, एवमन्येऽपि प्रवादास्तथा तथा वस्तुवैचित्र्यप्रतिपादनपरा निरस्ता द्रष्टव्याः, सर्वथैकस्वभावत्वाभ्युपगतौ वैचित्र्यायोगात् ।। सम्प्रत्येता एवं प्रतिपत्तीः क्रमेण व्याचिख्यासुः प्रथमत आद्यां प्रतिपत्ति विभावयिषुरिदमाह तत्थ(ण) जे एवमाहंसु 'दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पं० ते एवमाहंसु-तं०-तसा चेव थावरा चेव ।। (सू०९) I 'तत्र' तेषु नवसु प्रतिपत्तिषु मध्ये ये द्विश्त्यवतारविवक्षायां वर्तमाना एवं व्याख्यातवन्त:-द्विविधाः संसारसमापनका जीवाः प्रज्ञप्ता इति ते 'णम्' इति वाक्यालकारे 'एवं' वक्ष्यमाणरीत्या द्विविधत्वभावनार्थमाख्यातवन्तः, 'तद्यथे त्युपन्यस्तद्वैविध्योपदर्शनार्थः, त्रसाश्चैव स्थावराश्चैव, तत्र त्रसन्ति-उष्णायभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ति गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तरमिति प्रसाः, अनया च व्युत्पत्त्या प्रसासनामकर्मोदयवर्तिन एवं परिगृह्यन्ते, न शेषाः, अथ शेषैरपीह प्रयोजनं, तेषामप्यमे वक्ष्यमाणत्वात् , तत एवं व्युत्पत्ति:-वसन्ति-अभिसन्धिपूर्वकमनभिसन्धिपूर्वकं वा ऊर्द्धमधस्तिर्यक् चलन्तीति त्रसा:-तेजोवायबो द्वीन्द्रियादयश्च, उष्णासद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः सन्तस्तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावरा:-पृथिव्यादयः, चशब्दो स्वगतानेकभेदसमुण्यार्थों, एवकारानववधारणार्थी, अत एव संसारसमापनका जीवाः, एतव्यतिरेकेण संसारिणामभावात् ॥ तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथमतः स्थावरानभिधित्सु स्तत्प्रभसूत्रमाह दीप अनुक्रम १-५५ जीवानाम् द्विविध-भेदा: ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [9] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: जीवाजी वाभि० प्रत प्रतिपत्तिः सूत्रांक CGTOS [१०] दीप श्रीजीवा- से किं तं थावरा?, २ तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया १ आउकाइया २ वणस्सइकाइया जीवाभि ३ ॥ (सू०१०) मलयगि अथ के ते स्थाबराः', सूरिराह-स्थावरात्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः, आर्षवात्स्वार्थे इकप्रत्ययः, रीयावृत्तिः आपो-वास्ताश्च प्रतीता: ता एव काय:-शरीरं येषां ते अप्कायाः अपकाया एवाप्कायिकाः, वनस्पति:-लतादिरूपः प्रतीतः स एव | ॥९॥ BI काय:-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः, सर्वत्र बहुवचनं बहुखण्यापनार्थ, तेन 'पृथिवी देवते' त्यादिना यत्तदेकजीवलमात्रप्रतिपादनं तदपातम्यसेयं, यदि पुनस्तदुधिष्ठात्री काचनापि देवता परिकरुप्यते तदानीमेकलेऽप्यविरोधः। भइह सर्वभूताधारः पृथिवीति प्रथम पृथिवीकायिकानामुपादानं, तदनन्तरं तत्प्रतिष्ठितवादप्कायिकाना, तदनन्तरं "जत्थ जलं तत्थ | 8 वर्ण" इति सैद्धान्तिकवस्तुप्रतिपादनार्थ बनस्पतिकायिकानामिति, इह त्रिविधत्वं स्थावराणां तेजोवायूनां लदच्या स्थावराणामपि सतां 3 गतित्रसेष्वन्तर्भावविवक्षणात्, तथा च तत्त्वार्थसूत्रमप्येवं व्यवस्थितं "पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावरा: ॥ तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च | सा:" (तत्त्वा० अ०२ सू०१३-१४) इति, तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति प्रथमतः पृथिवीकायिकप्रतिपादनार्थमाह से किंतं पुढविकाइया?,२दुविहा पं०,०-सुहमपुढविक्काइया य वायरपुढविकाइयाय ॥ (सू०११) अथ के ते पृथिवीकायिका:?, सूरिराह-पृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मपृथिवीकाबिकाश्च बदरपृथिवीकायिकाश्च, तत्र सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मा बादरनामकोंदयात्तु बादराः, कर्मोदयजनिते खल्वेते सूक्ष्मवादरले, नापेक्षिके बदरामलकयो अनुक्रम [१०] ॥९ ॥ स्थावरजीवस्य त्रिविध-भेदाः, अथ पृथ्विकायिकानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ...---------------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक XGAACCES [११] KIरिव, सूक्ष्माश्च ते पृथिवीकायिकाश्च सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, बादराश्च ते पृथिवीकायिकाश्च बादरपृथिवीकायिकाः, चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ, सूक्ष्माः सकललोकवर्त्तिनो बादराः प्रतिनियतैकदेशधारिणः ॥ तत्र सूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रतिपादनार्थमाह से कितं मुहमपुदविकाइया?, २ दुविहा पं०, तं०-पज्जसगा य अपज्जत्तगा य॥ (सू०१२) अध के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिका: १, सूरिराह-सूक्ष्मपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकाश्चापर्याप्तकाच, तत्र पर्यातिर्नामाहारादिपुद्गलपहणपरिणमनहेतुरालनः शक्तिविशेषः, स च पुगलोपचयादुपजायते, किमुक्तं भवति-उत्पत्तिदेशमागतेन प्रथमं ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां तथाऽन्येषामपि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्संपर्कतस्तद्रूपतया जातानां यः शक्तिविशेष आहारादिपुद्गलखलरसरूहैपतापादनहेतुर्वथोदरान्तर्गतानां पुद्गलविशेषाणामाहारपुद्गलविशेषाणामाहारपुद्गलखलरसरूपतापरिणमनहेतुः सा पर्याप्तिः, सा च घोडा, तद्यथा-आहारपर्याप्तिः १ शरीरपर्याप्तिः २ इन्द्रियपर्याप्तिः ३ प्राणापानपर्याप्तिः ४ भाषापर्याप्तिः ५ मनःपर्याप्तिश्च ६, तत्र यया बाद्य| माहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति साऽऽहारपर्याप्तिः १, यया रसीभूतमाहारं रसासृग्मांसमेदोऽखिमजाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः २, यया धातुरूपतया परिणमितभाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः ३, यया पुनरुच्छासप्रायोग्यवर्गणापुद्गलानादायोच्छासरूपतया परिणमण्यालम्ब्य च मुञ्चति सा. उच्छासपर्याप्तिः ४, यया तु भाषापायोग्यान पुद्गलानादाय भाषाखेन परिणमच्यालम्ब्य च मुञ्चति सा भाषापर्याप्ति: ५, यया पुनर्मन:प्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः ६, एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां सब्जिवर्जाना द्वीन्द्रियादीनां संज्ञिनां च चतुपञ्चपट्सङ्ख्या भवन्ति, उत्पत्तिप्रथमसमये एव च एता यथायथं सर्वा अपि युगपन्निष्पादयितुमारभ्यन्ते क्रमेण च निष्ठामुपयान्ति, दीप अनुक्रम ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्राक [१२] दीप श्रीजीवा- तद्यथा-प्रथममाहारपर्याप्तिस्ततः शरीरपर्याप्तिस्तत इन्द्रियपर्याप्तिरित्यादि, आहारपर्याप्तिश्च प्रथमसमय एव निष्पत्तिमुपगच्छति, शेषास्तु जीवाजीजीवाभिशाप्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन कालेन, अधाहारपर्याप्तिः प्रथमसमय एव निष्पद्यत इति कथमवसीयत्ते, उच्यते, इह भगवताऽर्यश्यामेन प्र- वाभि० मलयगि- ज्ञापनायामाहारपदे द्वितीयोद्देशके सूत्रमिदमपाठि-"आहारपजत्तीए अपजत्तए णं भंते ! कि आहारए अणाहारए, गोयमा! प्रतिपत्तिः रीयावृत्तिः नो आहारए अणाहारए" इति, तत आहारपर्याप्त्या अपर्याप्तो विग्रहगतावेवोपपद्यते नोपपातक्षेत्रमागतोऽपि, उपपातक्षेत्रसमागतस्य । प्रथमसमय एवाहारकत्वात् , तत एकसामायिकी आहारपर्याप्तिनिर्वृत्तिः, यदि पुनरुपपातक्षेत्रसमागतोऽप्याहारपर्याप्त्या अपर्याप्तः स्या॥१०॥ त्तत एवं व्याकरणसूत्रं पठेत्-"सिय आहारए सिय अणाहारए" यथा शरीरादिपर्याप्तिषु "सिय आहारए सिय अणाहारए" इति, सर्वासामपि च पर्याप्तीनां पर्याप्तिपरिसमाप्तिकालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः, पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः, अभ्रादिभ्य' इति भवथीयो|ऽप्रत्ययः, पर्याप्ता एव पर्याप्तकाः, ये पुनः वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्याप्ताः अपर्याप्ता एवापर्याप्तकाः, से द्विधा-लब्ध्या करणैश्च, तत्र येऽपर्याप्तका एव नियन्ते ते लब्ध्याऽपर्याप्तकाः, ये पुनः करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न तावनिवर्तयन्ति अथचावश्यं । निर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः संप्राप्ताः ॥ सम्प्रति विनेयजनानुग्रहाय शेषवक्तव्यतासङ्ग्रहार्थमिदं सङ्घहणिगाथाद्वयमाहा-सरीरोगाहणसंघयण संठाणकसाय तह य हुँति सन्नाओ । लेसिदियसमुग्धाए सन्नी वेए य पजती ॥१॥ विट्ठी सणनाणे जोगुवओगे | तहा किमाहारे । उववायठिई समुग्घाय चवणगइरागई चेव ॥ २॥ अस्य व्याख्या-प्रथमत: सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां शरीराणि वक्तव्यानि, तदनन्तरमवगाहना, ततः संहननं, तदनन्तरं संस्थानं, ततः कषायाः, ततः कति भवन्ति सज्ञा:? इति वक्तव्यं, ततो लेश्या:,8॥१०॥ तदनन्तरमिन्द्रियाणि, तत: समुद्घाताः, ततः किं सज्ज्ञिनोऽसब्जिनो वा? इति वक्तव्यं, तदनन्तरं वेदो वक्तव्यः, ततः पर्याप्तयो अनुक्रम [१२-१३] |★ एते द्वे गाथे अन्यत्र मूल-सूत्र रूपेण संपादिते, तत् कारणात् मयाऽपि एवं कृतं ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 4 प्रत -%% सूत्रांक [१२] % यथा कति पर्याप्तयः सूक्ष्मपृथिवीकायिकानाम् ? इत्यादि, पर्याप्तिग्रहणमुपलक्षणं तेन तत्प्रतिपक्षभूता अपर्याप्तयोऽपि वक्तव्या इति द्रष्टव्यं, तदनन्तरं दृष्टिवक्तव्या, ततो दर्शनं, तदनन्तरं ज्ञानं, ततो योगः, तत उपयोगः, तथा किमाहारमाहारयन्ति सूक्ष्मपृथिवीका यिकाः ? इत्यादि वक्तव्यं, तदनन्तरमुपपातः, ततः स्थितिः, तत्त: समुद्रात: समुद्घातमधिकृत्य मरणं वक्तव्यमित्यर्थः, तदनन्तरं यवनं, 13 ततो गत्यागती इति, इति सर्वसापया त्रयोविंशतिौराणि, तत्र प्रथमद्वारव्याख्यानार्थमाह तेसि भंते! जीवाणं कतिसरीरया पपणत्ता, गोयमा! तओ सरीरगा पं०, तं०-ओरालिए तेथए कम्मए।तेसिणं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पं०, गो! जहन्नेणं अंगुलासंखेजतिभागं उकोसेणवि अंगुलासंखेजतिभागंतेसिणं भंते! जीवाणं सरीरा किंसंघयणा पण्णत्ता?, गोयमा! छेचट्ठसंघयणा पण्णत्ता ॥ तेसि णं भंते ! सरीरा किंसंठिया पं०१, गोयमा! मसूरचंदसंठिता पण्णत्ता ॥ तेसि णं भंते ! जीवाणं कति कसाया पण्णत्ता ?, गोयमा! चत्तारि कसाया पणत्ता, तंजहा-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोहकसाए ॥ तेसि भंते ! जीवाणं कति सपणा पपणत्ता?, गोयमा! चत्तारि पण्णता, तंजहा-आहारसण्णा जाव परिग्गहसन्ना ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं कति लेसाओपण्णत्ताओ?. गोयमा ! तिन्नि लेस्सा पन्नता, तंजहा-किण्हलेस्सा नीललेसा काउलेसा ।। तेसिणं भंते ! जीवाणं कति इंदियाई पण्णत्ताई?, गोयमा ! एगे फासिदिए पपणत्ते॥ तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्घाया पण्णत्ता ?, गोयमा ! तओ समुग्घाया पण्णता, तंजहा % दीप % अनुक्रम [१२-१३] %% % % ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: -1, --------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः जीवाजीवाभि० प्रतिपत्तिः सूत्रांक [१३] ॥११॥ दीप वेयणासमुग्धाते कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए ॥ ते ण भंते ! जीवा किं सन्नी असन्नी ?, गोयमा! नो सन्नी असन्नी ॥ तेणं भंते ! जीवा किं इस्टिवेया परिसवेया णपुंसगवेया ?, गोयमा! णो इथिवेया णो पुरिसवेया णपुंसगवेया ॥ तेसि णं भंते ! जीवाणं कति पज्जत्तीओ पण्णताओ?, गोयमा ! चत्तारि पजत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-आहारपजत्ती सरीरपजत्ती इंदियपज्जत्ती आणपाणुपज्जत्ती। तेसि र्ण भंते ! जीवाणं कति अपजत्तीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! चत्तारि अपजत्तीओ पण्णताओ, तंजहा-आहारअपजत्ती जाव आणापाणुअपजत्ती ॥ ते णं भंते ! जीवा किं सम्मविट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी?, गोयमा ! णो सम्मविट्ठी मिच्छादिट्टी नो सम्ममिच्छादिट्ठी ॥ तेणं भंते ! जीवा किं चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओहिदसणी केवलदसणी ?, गोयमा ! नो चक्खुदसणी अचक्खुदंसणी नो ओहिदंसणी नो केवलदसणी ॥ ते णं भंते ! जीवा किं नाणी अण्णाणी?, गोयमा! नो नाणी अण्णाणी, नियमा दुअण्णाणी, तंजहा-मतिअन्नाणी सुयअण्णाणी य ॥ते ण भंते ! जीवा किं मणजोगी वयजोगी कायजोगी?, गोयमा ! नो मणजोगी नो वयजोगी कायजोगी ॥ ते णं भंते ! जीवा किं सागारोव उत्ता अणागारोवउत्ता?, गोयमा! सागारोवउत्सावि अणागारोवउत्तावि ।। ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारैति?, गोयमा! दब्बतो अर्णतपदेसियाई खेत्तओ असंखेजपदेसोगाढाई कालो अन्नयर अनुक्रम [१४] ११॥ ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -], --------------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप समयद्वितीयाई भावतो वण्णवं(म)ताई गंधर्व (म)ताई रसव (म)ताई फासव(म)बाई ॥ जाई भावओ वण्णमंताई आग, ताई कि एगवपणाई आ० दुवपणाई आकतिवण्णाई आ० चउवपणाई आ० पंचवण्णाई आ०१, गोयमा! ठाणमग्गणं पडच एगवण्णाइपि दुवपणाईपि तिवण्णाईपि चउवण्णाइंपि पंचवण्णाईपि आ०, विहाणमग्गणं पडुश्च कालाईपि आ० जाव सुकिलाईपि आ०, जाई वपणओ कालाई आ० ताई किं एगगुणकालाई आ० जाव अणंतगुणकालाई आ०१, गोयमा! एगगुणकालाईपि आ० जाव अणंतगुणकालाइंपि आ० एवं जाव सुकिलाई ॥ जाई भावतो गंधमंताई आताई किं एगगंधाई दुगंधाई आ०?, गोयमा! ठाणमग्गणं पउस एगगंधाइंपि आ० दुगंधाइंपि आ०, विहाणमग्गणं पहुंच सुम्मिगंधाइंपि आ० मुग्भिगंधाइंपि आ०, जाई गंधतो सुन्भिगंधाई आ० ताई कि एगगुणसुम्भिगंधाई आ० जाय अर्णतगुणसुरभिगंधाई आ०?, गोयमा! एगगुणसुन्भिगंधाइंपि आ० जाव अणंतगुणसुदिभगंधाइंपि, आ० एवं दुन्भिगंधाईपि ॥ रसा जहा वण्णा || जाई भावतो कासवं(म)ताई आ० ताई किं एगफासाई आ० जाव अट्ठफासाई आ०१, गोयमा! ठाणमग्गणं पड़श नो एगफासाई आoनो दुफासाई आoनो तिफासाई आ० चउफासाई आ० पंचफासाइपि जाय अट्ठफासाइंपि आ०, विहाणमग्गणं पडुच कक्खडाइपि आ० जाच लुक्खाइपि आ०, जाई फासतो कक्खडाई आ० अनुक्रम [१४] RRC-- ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: -1, --------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः जीवाजीवाभि प्रतिपत्तिः सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] ताई किं एगगुणकक्खडाई आ० जाच अणंतगुणकक्खडाई आ०१, गोषमा! एगगुणकक्खडाइंपि आ० जाव अर्णतगुणकक्खडाइंपि आ० एवं जाव लुक्खा णेयब्वा । ताई भंते ! किं पुट्ठाई आ० अपुट्ठाई आ०१, गोयमा! पुढाई आ० नो अपुट्ठाई आ०, ताई भंते! ओगाढाई आ० अणोगाढाई आ०?, गोयमा! ओगाढाई आ० नो अणोगाढाई आ०, ताई भंते! किमणतरोगाढाई आ० परंपरोगाढाई आ०?, गोयमा! अणंतरोगाढाई आoनो परंपरोगाढाई आ०, ताई भंते ! किं अणूई आ० बायराई आ०१, गोयमा! अणूइंपि आ० थायराइंपि आहारैति, ताई भंते ! उर्दु आ० अहे आतिरियं आहारैति?, गोयमा! उहृपि आ. अहेवि आ.तिरियपि आ०, ताई भंते ! किं आई आ० मजो आ० पजवसाणे आहारेंति ?, गोयमा! आदिपि आ. मजोषि आ० पजवसाणेवि आ०, ताई भंते! किं सविसए आ. अविसए आ०?, गोयमा! सविसए आ० नो अविसए आ०, ताई भंते। किं आणुपुर्दिव आ० अणाणुपुलिंब आहारैति?. गोयमा! आणुपुब्धि आहारैति नो अणाणुपुचि आहारैति, ताई भंते! किं तिदिसिं आहारैति चउदिसिं आहारैति पंचदिसिं आहारैति छदिसिं आहारैति ?, गोयमा! निव्वाघाएणं छदिसिं, वाघातं पटुच सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, उस्सन्नकारणं पहुच वणतो काला नीला जाव सुकिलाई, गंधतो सुन्भिगंधाई दुग्भिगंधाई, रसतो जाय तित्तमहुराई, फासतो ॥१२॥ ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) (१४) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -], --------------------------- मूलं [१३] | मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [१३] E0%A4%% दीप कक्खडमउयजाव निद्धलुक्खाई, तेसिं पोराणे वण्णगुणे विप्परिणामहत्ता परिपालइत्ता परिसाहात्ता परिविद्धंसहत्ता अण्णे अपब्वे वण्णगुणे गंधगुणे जाव फासगुणे उप्पाइत्ता आतसरीरओगाढा पोग्गले सबप्पणयाए आहारमाहारेंति ॥ ते णं भंते ! जीवा कतोहिंतो उवषजति? किं नेरइएहिंतो उववजंति तिरिक्खमणुस्सदेवेहिंतो उववर्जनि?, गोयमा! नो नेरइएहिंतो उबवजति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उयवति मणुस्सहिंतो उववजंति, नो देवेहिंतो उचवज्जति, तिरिक्खजोणियपज्जत्तापज्जत्तेहिंतो असंखेजवासाउयवबेहिंतो उवचजति, मणुस्सेहिंतो अकम्मभूमिगअसंखेजवासाउयवजेहिंतो उववजंति, वकंतीउववाओ भाणियल्वो ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोथमा! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं ॥ ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्घातेणं किं समोहया मरति असमोहया मरंति ?, गोयमा ! समोहयावि मरंति असमोहयावि मरंति ॥ ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उब्वहिता कहिं गच्छति ? कहिं उववजति ?-किं नेरइएसु उववनंति निरिक्खजोणिएसु उ० मणुस्सेसु उ० देवेसु उवव० ?, गोयमा ! नो नेरइएसु उववर्जति तिरिक्खजोणिएसु उ० मणुस्सेसु उ० णो देवेसु उवव० । किं एगिदिएसु उववर्जति जाव पंचिंदिएसु उ०, गोयमा! एगिदिएसु उववज्जति जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजंति, असंखेजवासाउयवजेसु पजसापजसएसु उव०, मणुस्सेसु अ अनुक्रम [१४] -% 0 जी००३ AE%D ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप श्रीजीवा- कम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेजवासाउयवजेसु पजत्तापञ्चत्तएसु उब० ॥ ते णं भंते ! जीवा प्रतिपत्ती जीवाभि० कतिगतिका कतिआगतिका पण्णता ?, गोयमा ! दुगतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेजा सूक्ष्मपृमलयगिपण्णत्ता समणाउसो!, से तं सुहमपुढविक्काइया । (सू०१३) ध्वीकार्याः रीयावृत्तिः 'तेषां सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां णमिति वाक्यालङ्कारे 'भदन्त!' परमकल्याणयोगिन् ! कति शरीराणि प्रज्ञप्तानि ?, अथ क: कमेव सू०१३ माह', उच्यते, भगवान् गौतमो भगवन्तं श्रीमन्महावीरं, कथमेतद् विनिश्चीयते इति घेद्, उच्यते, निर्वचनसूत्रात्, ननु गौतमोऽपि ॥१३॥ भगवान उपचितकुशलमूलो गणधरतीर्थकरभाषितमातृकापवयश्रवणमात्रावातप्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमश्चतुर्दशपूर्वविद् विवक्षितावार्थपरिजानसमन्वित एव ततः किमर्थं पृच्छति ?, तथाहि-न चतुर्दशपूर्वविदः प्रज्ञापनीयं किश्चिदविदितमस्ति, विशेषतः सर्वाक्षरसं-18 निपातिनः संभिन्नश्रोतसो भगवतो गणभृत: सर्वोत्कृष्टश्रुतलन्धिसमन्वितस्य गौतमय, उक्तं च "संखातीते वि भबे साहइ जं था| परो उ पुच्छेशा । न य णं अणाइसेसी वियाणई एस छउमत्यो ॥१॥" उच्यते, शिष्यसंप्रत्ययार्थ, तथाहि-जानन्नेव भगवान् अन्यत्र विनेयेभ्यः प्रतिपाद्य तत्संप्रत्ययनिमित्तं भूयोऽपि भगवन्तं पृच्छतीति, अथवा गणधरप्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपं किञ्चित्सूत्रमिती-18 स्थमधिकृतसूत्रकारः सूत्रं रचितवान् , यदिवा संभवति भगवतोऽपि स्वल्पोऽनाभोगः छद्मस्थत्वादिति पृच्छति, उक्तं च न हि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥१॥” इति कृत प्रसङ्गेन, प्रस्तुत मुच्यते, भगलवानाह-गोयमेयावि, अनेन लोकप्रथितमहागोत्रविशिष्टाभिधायकनाममणध्वनिनाऽऽमत्रयन्निदं ज्ञापयति-प्रधानासाधारणगुणेनोत्साह ४ ॥१३॥ संख्यातीतानपि भवान् साधयति यदा परः पृच्छेत् । न चानतिशायी विजानात्येष छपस्थः (इति) ॥१॥ अनुक्रम [१४] TAINI ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -, ..-------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] RECCASSSSSSSSSS दीप विनेयस्य धर्मः कथनीयः, इत्यमेव सम्यातिपत्तियोगादिति, वीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, इह शरीराणि पश्च भवन्ति, तद्यथा-औदारिक वैक्रियमाहारकं तैजसं कार्मणं च, तत्रोदारं-प्रधानं, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीराण्यधिकस, ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्यापि अनन्तगुणहीनत्वात् , यद्वा उदारं सातिरेकयोजनसहनमानत्वात् शेषशरीरापेक्षया धृहत्प्रधान, बृहत्ता चास्य वैकियं प्रति भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्यथोत्तरवैक्रियं योजनलक्षमानमपि लभ्यते, उदारमेव औदारिक, विनयादिपाठादिकण १, तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियं, तथाहि-तदेकं भूलाउनेकं भवति अनेक भूत्या एकं तथाऽणु भूत्वा महद्भवति महच्च भूत्वाऽणु तथा खचरं भूखा भूमिचरं भवति भूमिचरं भूत्वा खचरं तथा दृश्यं भूत्वाऽदृश्यं भवति अहश्यं भूखा दृश्यमिति, तच द्विविधम्-औपपातिक लब्धिप्रत्ययं च, तत्रौपपातिकमुपपातजन्मनिमित्तं, तच देवनारकाणां, लब्धिप्रत्ययं तिर्यग्मनुष्याणां २, तथा चतुर्दशपूर्वविदो तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधप्रयोजनोत्पची सत्यां विशिष्टलब्धिवशादाहियते-निर्वय॑ते इत्याहारक, 'बहुलक'| मिति वचनात्कर्मणि बुन्, यथा पादहारक इत्यत्र, उक्तं च- कंजंमि समुप्पन्ने सुयकेवलिणा बिसिहलद्धीए । जं एत्थ आहरिजइ भणंति आहारगं तं तु ॥ १॥" कार्य चेदम्-'पाणिदयरिशिदसण सुहुमपयस्थावगाहहे वा । संसयवोच्छेयर्थ गमणं जिणपायमूलंमि ॥१॥" एतच्चाहारकं कदाचनापि लोके सर्वथाऽपि न भवति, तचाभवनं जघन्यत एकं समयमुत्कर्षत: पण्मासान यावत् , उक्तं च-आहारगाइ लोगे छम्मासा जा न होतिवि कयाई । उकोसेणं नियमा एक समय जहन्नेणं ॥ १॥" आहारकं च शरीरं १ कार्ये समुत्ने श्रुतकेवलिना विशिष्टलम्या । यदनाहियते भगन्याहारकं तत्तु ॥1॥३प्राणिदयारद्धिदर्शनसूक्ष्मपदार्थावपाहहेतचे बा । संशययुच्छेदाथें गमनं जिनपावमूले ॥१॥ आहारकादयो नियमाओके षण्मासान् यावत्र भवन्स्यपि कदाचित् । उत्तो नियमात् एक समय जघन्येन ॥१॥ अनुक्रम [१४] ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: -], -------------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३]] - -- दीप अनुक्रम श्रीजीवा- क्रियशरीरापेक्षयाऽत्यन्तशुभं स्वच्छस्फटिकशिलेव शुभ्रपुद्गलसमूहासकं ३, तथा तेजसां-तेजःपुद्गलानां विकारस्तैजसं 'विकार' इत्यम्, प्रतिपक्षी जीवाभिः तत् औष्मलिङ्ग भुक्ताहारपरिणमनकारणं, ततश्च विशिष्टतपःसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः, उक्तं च- सव्वस्स उम्ह-|| मलयगि- सिद्धं रसाइआहारपाकजणगं च । तेयगलद्धिनिमित्तं च तेयर्ग होइ नायव्वं ॥ १॥"४, तथा कर्मणो जातं कर्मजं, किमुक्तं भवति?- थ्वीकायाः रीयावृत्तिः । कर्मपरमाणष एवात्मप्रदेशैः सह श्रीरनीरवदन्योऽन्यानुगताः सन्त: शरीररूपतया परिणताः कर्मजं शरीरमिति, अत एवैतदन्यत्र का- स०१३ मणमित्युक्तं, कर्मणो विकारः कार्मणमिति, तथा चोक्तम्- कैम्मविकारो कम्मणमहविह विचित्तकम्मनिष्फन्न । सव्वेसिं सरीराणं | कारणभूयं गुणेयर्व ॥१॥" अन 'सव्वेसिमिति सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणां कारणभूतं-बीजभूतं कार्मणं शरीरं, न खल्वामूलमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चरोहवीजभूते कामणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावः, इदं च कर्मजं शरीरं जन्तोर्गत्यन्तरसङ्क्रान्तौ साधकतमं| कारणं, तथाहि-कर्मजेनैव वपुषा तैजससहितेन परिकरितो जन्तुर्मरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमभिसर्पति, ननु यदि तैजससहितकार्मणवपुःपरिकरितो गत्यन्तरं संकामति तर्हि स गच्छन्नागन्छन् कस्मान दृष्टिपथमवतरति ?, उच्यते, कर्मपुद्गलानां तैजसपुद्गलानां चातिसूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वात् , तथा च परतीधिकैरप्युक्तम्-"अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वानोपलभ्यते । निष्कामन प्रविशन वाऽपि, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥१॥" एतेषां पञ्चानां शरीराणां मध्ये यानि त्रीणि शरीराणि सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां तानि नामप्राहमुपदर्शयति-तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, वैक्रियाहारके तु तेषां न संभवतो, भवखभायत एवं तल्लब्धिशून्यत्वात् । १ सर्वस्याण्वसिद्ध रसायाहारपाकजन च । तेजोलब्धिनिमित्तं च तैजस भवति ज्ञातव्यम् ॥१॥ २ कर्मविकारः कार्मणमष्टविधविचित्रकर्मनिष्पन्नम् । स. ॥ १४॥ |वैषी शरीराणां कारणभूतं मुणितव्यं ॥१॥ [१४] ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -], --------------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] SGARCA4964 दीप अधुनाऽवगाहनाद्वारमाह-'तेसिणं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं जघन्यपदोत्कृष्टपदयोस्तुल्यश्रुतावपि जघन्यपदादुरकष्टपदमधिकमवसातव्यम् ॥ संहननद्वारमाह-तेसिणमित्यादि, तेषां भदन्त ! जीवानां शरीरकाणि किंसंहननानि प्रज्ञप्तानि', संहनन नामास्थिनिचयरूपं, तच पोढा, तद्यथा-बजरषभनाराचं ऋषभनाराचं नाराचमर्द्धनाराचं कीलिका छेदवर्ति च, तत्र वर्ण-कीलिका षभ:-परिवेष्टनपट्टः नाराचस्तूभयतो मर्कटबन्धः ततश्च योरस्भोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिं गच्छता तृतीयेनारमा परिवेष्टितयो|रुपरि तदस्थित्रयभेदि कीलिकास्य वचनामकमस्थि यत्र भवति तद्वजऋषभनाराचसझं प्रथम संहननं १, यत्पुनः कीलिकारहित |संहननं तत् ऋषभनारा द्वितीयं संहननं २, तथा यत्रासभोमर्कटवन्ध एव केवलसन्नाराचसशं तृतीयं संहननं ३, यत्र पुनरेकपावे मर्कटबन्धो द्वितीये च पाचँ कीलिका तदर्द्धनाराचं चतुर्थ संहननं ४, तथा यत्रास्थीनि कीलिकामात्रयद्धानि तरकीलिकाख्यं पचर्म संहननं ५, तथा यत्रास्थीनि परस्परं छेवेन वर्तन्ते न कीलिकामानेणापि बन्धस्तत् षष्ठं छेदवति, तथ प्रायो मनुष्यादीनां नित्यं स्नेहाभ्यङ्गादिरूपां परिशीलनामपेक्षते ६, इत्यं षोढा संहननसम्भवे संशय:-तेषां शरीराणि किंसंहननानि प्रज्ञप्तानि ? इति, भगवानाह -गौतम! छेदवर्तिसंहननानि प्रज्ञतानि, अयमत्राभिप्राय:-यद्यपि सूक्ष्मपृथिवीकाविकानामस्थ्यभावस्तथाऽप्यौदारिकशरीरिणामस्थ्यासकेन संहननेन यः शक्तिविशेष उपजायते सोऽप्युपचारासंहननमिति व्यवहियते, शक्तिविशेषश्चात्यन्तमल्पीयान् सूक्ष्मपृथिवीकायिकानामप्यस्यौदारिकशरीरित्वात् , जपम्यश्च शक्तिविशेषश्छेदवसिंहननविषय इति तेषामपि छेदवर्तिसंहननमुक्तम् ॥ गर्न संहननद्वारं, सम्प्रति संस्थानद्वारमाह-'तेसिणं भंते!' इत्यादि सुगम, नवरं 'मसूरगचंदसंठिया' इति, मसूरकाख्यस्य-धान्यविशेषस्य यश्चन्द्राकृति | दलं स मसूरकचन्द्रस्तदनुसंखितानि मसूरकचंद्रसंस्थितानि, अत्राय भावार्थ:-इह जीवानां षट् संस्थानानि, तानि च समचतुरस्रादीनि अनुक्रम [१४] ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 9 प्रत सूत्रांक [१३] दीप श्रीजीवा- जवक्ष्यमाणलक्षणानि, तेषामाद्यानि पञ्च संस्थानानि मसूरचन्द्रकाकारे न संभवन्ति, तल्लक्षणायोगात् , तत इदं मसूरचन्द्रकाकारं संस्थान प्रतिपत्ती जीवाभि हुण्डं प्रतिपत्तव्यं, सर्वत्रासंस्थितखरूपस्य तल्लक्षणस्य योगान् , जीवानां संस्थानान्तराभावाच, आह च मूलटीकाकारः-"संस्थान म-18 | सूक्ष्ममलयगि- सूरचन्द्रकसंस्थितमपि हुण्ड, सर्वत्रासंस्थितत्वेन तलक्षणयोगात्, जीवानां संस्थानान्तराभावाचे"ति ॥ गतं संस्थानद्वारमधुना कषाय थ्वीकायाः रीयावृत्तिः द्वारमाह-'तेसिणं भंते !' इत्यादि, तेषां भदन्त ! सूक्ष्मपध्वीकायिकानां कति कषायाः प्रज्ञप्ताः, तत्र कपाया नाम कच्यन्ते-हिंस्यन्ते | |सू०१३ ॥१५॥ परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कप:-संसारस्तमयन्ते-गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषाया:-क्रोधादयः परिणामविशेषाः, तथा पाह-गो-18 यमें यादि सुगम, नवरं कोध:-अप्रीतिपरिणामः मानो-गर्बपरिणामः माया-निकृतिरूपा लोभो-गावलक्षणः, एते च क्रोधादयो-16 उमीषां मन्दपरिणामतयाऽनुपदर्शितवाह्यशरीरविकारा एवानाभोगतस्तथा तथा वैचित्र्येण भवन्तः प्रतिपत्तव्याः ॥ गतं कषायद्वारं, सज्ञाद्वारमाह-'तेसिण मित्यादि सुगम, नवरं सब्ज्ञानं सज्ञा, सा च द्विधा-ज्ञानरूपाउनुभवरूपा च, तत्र ज्ञानरूपा मतिश्रुताव-15 धिमनःपर्यायकेवलभेदात्पश्चप्रकारा, तत्र केवलसम्क्षा क्षाविकी शेषास्तु भायोपशमिक्यः, अनुभवसम्ज्ञा-खकृतासातवेदनीयादिकर्म-IC विपाकोदयसमुत्था, यह प्रयोजनमनुभवसम्झाया, ज्ञानसम्झायास्तहारेण परिगृहीतत्वात् , तबाहारसज्ञा नाम आहाराभिलाषः शुढेबनीयप्रभवः खल्लामपरिणामविशेषः, एषा चासातवेदनीयोदयादुपजायते, 'भयसज्ञा' भयवेदनीयोदयजनितत्रासपरिणामरूपा, 'परि-1 ग्रहसम्ज्ञा' लोभविपाकोदयसमुत्थमूर्चीपरिणामरूपा, 'मैथुनसज्ञा' वेदोदयजनिता मैथुनाभिलाषः, एताश्चतस्रोऽपि मोहनीयोदयप्र-TA ठाभवाः, एता अपि सूक्ष्मपृथ्वीकायिकानामव्यक्तरूपाः प्रतिपत्तव्याः ॥ गतं सब्ज्ञाद्वारमधुना लेश्याद्वारमाह-'तेसिण'मित्यादि सुगम, ॥१५॥ नवरं लिश्यति-श्लिष्यते आमा कर्मणा सहानयेति लेश्या-कृष्णादिन्यसाचिव्यादामनः शुभाशुभपरिणामः, उक्तं च-"कृष्णादि अनुक्रम [१४] ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : 1............................-- उद्देशक: -1, ...........................- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप सव्यसाचिन्यात्परिणामो य आमनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ १॥" सा च षोढा, तद्यथा-कृष्णलेश्या नील-1 लेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुटलेश्या च, आसां च स्वरूपं जम्बूफलखादकषट्पुरुषदृष्टान्तेनैवावसातव्यम्-"पंथाओ| 18 परिभट्ठा छप्पुरिसा अढविमझयारंमि । जंबूतरुस्त हेट्ठा परोप्परं ते विचिंतेति ॥ १॥ निम्मूलसंधसाला गोच्छे पके य पड़ियसहै| डियाई । जह एएसि भावा तह लेसाओवि नायब्वा ॥२॥" अमीषां च सूक्ष्मतथिवीकायिकानामतिसंक्लिष्टपरिणामयादेवेभ्यः सू मेष्वनुत्पादाचाद्या एवं तिनः कृष्णनीलकापोतरूपा लेश्याः, न शेषा इति ।। गतं लेश्याद्वारमिदानीमिन्द्रियद्वारमाह-'तेसिण'मित्यादि, इन्द्रियं नाम 'इदु परमैश्वर्य उदितः' इति नम्, इन्दनादिन्द्रः-भामा सर्वोपलब्धिरूपपरमैश्वर्ययोगात् तस्य लिङ्ग-चिह्नमविनाभावि इन्द्रियम् , 'इन्द्रिय'मिति निपातनसूत्रादूपनिष्पत्तिः, तत्पश्चबा, तद्यथा-ओत्रेन्द्रियं चक्षुरिन्द्रियं जिहेन्द्रियं प्राणेन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रियं च, एकैकमपि द्विधा-द्रव्येन्द्रिय भावेन्द्रियं च, द्रव्येन्द्रियं द्विधा-निर्वृत्तिरूपमुपकरणरूपं च, तत्र निर्वृत्तिर्नाम प्रतिविशिष्टः संस्थानविशेषः, साऽपि द्विधा-बाह्याऽभ्वन्तरा च, तत्र वाह्या कर्णपर्पटिकादिरूपा, सा च विचित्रा न प्रतिनियतरूपतया निर्देष्टु शक्यते, तथाहि-मनुष्यस्य ओबे नेत्रयोरुभयपार्श्वतोभाविनी ध्रुवावुपरितनश्रवणबन्धापेक्षया समे, वाजिनो नेत्रयोरुपरि तीक्ष्णे चाप्रभागे इत्यादि, अभ्यन्तरा तु निर्वृत्तिः सर्वेषामप्येकरूपा, तामेवाधिकृत्य चामूनि सूत्राणि प्रावतिषत-"सोइंदिए गं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णते?, गोयमा! कलंयुयासंठाणसंठिए पन्नत्ते, चक्खिदिए णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पन्नते ?, गोयमा! मसूरचंदसंठाणसंठिए पन्न, १पथः परिश्रष्टाः पद् पुरुषा अटवीमध्यभागे । जम्बूतरोरधत्वात् परस्पर ते विचिन्तयन्ति ॥ १ ॥ निर्मूलं स्कन्ध शाखा प्रशाखा गुच्छान् (छित्त्वा ) पकानि पतितशदितानि ( भक्षयामः) । यौवेषां भावास्तथा लेश्या अपि हातव्याः ॥२॥ अनुक्रम [१४] -% 2% ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], .........-------------------- उद्देशक: -1, --------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रतिपत्ती सूक्ष्मपृथ्वीकायाः सू०१३ सूत्रांक [१३] * दीप श्रीजीवा- पाणिदिए गं भते! किंसंठाणसंठिए पन्नत्ते?, गोयमा! अइमुत्तसंठाणसंठिए पन्नते, जिम्भिदिए णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पन्नत्ते, नीवाभिगोयमा! खुरप्पसंठाणसंठिए पन्नते, फासिदिए णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते?, गोयमा! नाणासठाणसंठिए पन्नत्ते ॥” इति, इह मलयगि- स्पर्शनेन्द्रियनिवृत्तः प्रायो न बाह्याभ्यन्तरभेदः, तत्त्वार्थमूलटीकायामनभ्युपगमात् , उपकरणं नाम खड्गस्थानीयाया बायनिर्वृत्तो रीयावृत्तिः खन्नधारास्थानीया स्वछत्तरपुद्गलसमूहात्मिकाऽभ्यन्तरा निर्वृचिस्तस्याः शक्तिविशेषः, इदं चोपकरणरूपं द्रव्येन्द्रियमान्तरनिर्वृत्तेः कथशि- दर्थान्तरं, शक्तिशक्तिमतोः कथञ्चिद्देदात् , कथविक्रेदश्च सत्यामपि तस्यामान्तरनिर्वृत्तौ द्रव्यादिनोपकरणस्योपधातसम्भवात् , तथाहि ॥१६॥ -सल्यामपि कदम्बपुष्पाद्याकृतिरूपायामान्तरावां निवृत्ती महाकठोरतरपनगर्जितादिना शक्त्युपपाते सति न परिकछेत्तुमीशते जन्तवः शब्दादिकमिति, भावेन्द्रियमपि द्विधा-लब्धिरुपयोगश्च, तत्र लब्धिः श्रोत्रेन्द्रियादिविषयस्तदावरणक्षयोपशमः, उपयोगः स्वस्व विषये लब्भ्यनुसारेणासन: परिच्छेदव्यापारः, तत्र यद्यपि द्रव्यरूपं भावरूपं चेत्थमिन्द्रियमनेकप्रकारं तथाऽपीह बाघनिर्वृत्तिरूपमिन्द्रियं | पृष्टमवगन्तव्यं, तदेवाधिकृत्य व्यवहारप्रवृत्तेः, तथाहि-बकुलादयः पञ्चेन्द्रिया इव भावेन्द्रियपञ्चकविज्ञानसमन्विता अनुमानतः प्रतीयन्ते तथाऽपि न ते पञ्चेस्त्रिया इति व्यवहियन्ते, बाह्येन्द्रियपञ्चकासम्भवात् , उक्तं च-पवेदिओ उ बउलो नरो व सम्बविसओवलंभाओ । तहकि न भण्णइ पंचिंदिउ त्ति बझिदियाभावा ॥१॥" ततो द्रव्येन्द्रियमधिकृत्य निर्वचनसूत्रमाह-'गोयमें त्यादि सुगमम् ॥ गतमिन्द्रियद्वारमधुना समुद्घातद्वार, तत्र समुद्घाता: सप्त, तद्यथा-वेदनासमुद्घात: १ कषायसमुद्घात: २ मारणसमुद्घातः ३ वैक्रियसमुद्रातः ४ तैजससमुद्घात: ५ आहारकसमुद्घात; ६ केवलिसमुद्घातश्च ७, तत्र वेदनायाः समुद्घातो वेदनासमुद्घातः, १ पोनिद्रय एव बकुलो नर इस सर्वविषयोपलम्भात् । तथापि न भण्यते पवेनिय इति बान्दियाभावात् ॥१॥ LOCACANCESCACACACAScx RS24 अनुक्रम [१४] ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] स चासातवेदनीयकर्माश्रयः १, कषायेण-कषायोदयेन समुद्रातः कषायसमुद्घातः, स च कषायचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः २, मरणे भवो मारणः, स चासो समुद्घातश्च मारणसमुद्घातः ३, वैकिये प्रारभ्यमाणे समुद्धातो वैक्रियसमुद्यातः, स च वैक्रियशरी-XI रनामकर्माश्मयः ४, (जसेन हेतुभूतेन समुद्घातस्तैजससमुद्घातः तैजसशरीरनामकर्माश्रयः) ५, आहारके प्रारभ्यमाणे समुद्घान आहारकसमुद्घातः, स चाहारकशरीरनामकर्माश्रयः ६, केवलिनि अन्तर्मुहूर्तभाविपरमपदे समुद्घातः केवलिसमुद्घातः | ७ । अथ समुद्धात इति कः शब्दार्थ:?, उच्यते-समिति-एकीभावे उत्-प्राबल्ये एकीभावेन प्राबल्येन धात: समुद्घात:, केन सह | एकीभावगमनम् ! इति चेद्, उच्यते, अर्थाद्वेदनादिभिः, तथाहि-यदा आमा वेदनादिसमुद्घातगतो भवति तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानप-| रिणत एव भवति नान्यज्ञानपरिणतः, प्राबल्येन घातः कथम् ? इति चेत्, उच्यते, इह वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादिकर्मपुद्गलान् कालान्तरानुभवयोग्यानुद्दीरणाकरणेनाकृष्योदयावलिकायां प्रक्षिप्यानुभूयानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशेभ्यः शातयतीति भावः, तत्र वेदनासमुद्घातगत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, तथाहि-वेदनाकरालितो जीवः स्वप्रदेशाननन्तानन्तकर्मपरमाणुवेष्टितान् शरीरावहिरपि विक्षिपति, तैश्च प्रदेशैवेदनजघनादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामतो बिस्तरतश्च शरीरमात्रं क्षेत्रमभिव्याप्यान्तर्मुहूर्त थावववतिष्ठते, तस्मिश्चान्तर्मुहूर्ते प्रभूतासातवेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति , कषायसमुद्घातसमुद्धत: कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, तथाहि-कषायोदयसमाकुलो जीवः स्वप्रदेशान् बहिर्विक्षिप्य तैर्वदनोदरादिरप्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामविस्तराभ्यां देहमानं क्षेत्रमभिव्याप्य वर्त्तते, तथाभूतश्च प्रभूतकषायकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, एवं मरणसमुद्घातगत आयुःकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, वैक्रियसमुद्धातगतः पुनर्जीवः स्त्रप्रदेशान् शरीराद्धहिनिष्काश्य शरीरवि दीप अनुक्रम [१४] ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप श्रीजीवा- माकम्भवाहल्यमानमायामतः सायेययोजनप्रमाणं दण्डं निसृजति, निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान प्रतिपक्षा जीवाभि. शातयति, तथा चोक्तम्-'वेउब्बियसमुग्घाए णं समोहणइ २ ता संखिजाई जोयणाई दंडं निसिरह, निसिरिता अहाबायरे पुग्गले मलयगि-1 परिसाडेइ" इति, तैजसाहारकसमुद्घातौ वैक्रियसमुद्घातवदवसातव्यो, केवलं तैजससमुद्घातगतसौजसशरीरनामकर्मपुद्गलपरिशा || सशरीरनामकमपुद्गलपरिशात नवीकायाः रीयावृत्तिः 18 करोति, आहारकसमुद्घातगत आहारकशरीरनामकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, केवलिसमुद्घातसमुद्धतस्तु केवली सदसवेंदनीयशुभाशुभना- II सू०१३ मोचनीचैर्गोत्रकर्मपुद्गलपरिशात (करोति), केवलिसमुद्घातबर्जाः शेषाः षडपि समुद्धाता: प्रत्येकमान्तरितिकाः, केवलिसमुद्घात: पुन-1 ॥१७॥ Pष्टसामयिकः, उक्तं च प्रज्ञापनायाम् -'वेयणासमुग्धारण कइसमइए पण्णचे ?, गोयमा ! असंखेजसमइए अंतमुहुत्ते, एवं जाव आहार8|गसमुचाए । केवलिसमुग्घाए ण भंते ! कइसमइए पणते ?, गोयमा ! अट्ठसमइए पण्णत्ते ॥” इति, तदेवमनेकसमुद्घातसम्भवे सूक्ष्म-18 दापूथिवीकाविकानां तान् पृच्छति-तेसिण भंते' इत्यादि सुगम, नवरं वैक्रियाहारकतैजसकेवलिसमुद्घाताभावो वैक्रिया दिलब्ध्यभावात् ।। गतं समुद्घातद्वारं, सम्प्रति सज्ञिद्वारमाह-'ते ण भंते' इत्यादि, 'ते' सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः णमिति वाक्यालङ्कारे भवन्त ! किं स६|| जिनोऽसब्जिनो वा ?, सज्ञान सम्झा-भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं सा विद्यते येषां ते सब्जिन:-विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाज इत्यर्थः, यथोक्तमनोविज्ञानविकला असजिनः ?, अत्र भगवा निर्वचनमाह-गौतम! नो सब्शिनः, किन्त्वसब्जिनः, विशिष्टमनोलमध्यभावात् , हेतुवादोपदेशेनापि न सम्झिनः, अभिसंधारणपूर्विकायाः करणशक्तेरभावात् , इहासजिन इत्येव सिद्धे नो सभिजन इति प्रतिषेधः प्रतिषेधप्रधानो विधिरयमिति ज्ञापनार्थः, प्रतिपायव प्रकृतिसावधलादिति । गतं सब्जिदारं, वेदनाद्वारमाह | ॥१७॥ -ते णं भंते ! इत्यादि ।। इत्थिवेयगा' इति स्त्रिया: वेदो येषां ते खीवेदकाः, एवं पुरुषवेदका नपुंसकवेदका इत्यपि भावनीयं, तत्र अनुक्रम [१४] ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : 1............................-- उद्देशक: -1, ...........................- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: --- - - -- प्रत सूत्रांक [१३] - दीप त्रियाः पुंस्वभिलाष: सीवेदः, पुंसः स्त्रियामभिलाषः पुंवेदः, उभयोरप्यभिलायो नपुंसकवेदः, भगवानाह-गौतम! न स्त्रीवेदका न ४ पुरुषवेदकाः, नपुंसकवेदकाः संमूछिमत्वात् , 'नारकसंमूछिमा नपुंसका' इति भगवचनम् ॥ पर्याप्तिद्वारमाह-"तेसिणं भंते' इत्यादि, सुगम, पर्याप्तिप्रतिपक्षा अपर्याप्तिस्तनिरूपणार्थमाह-'तेसिणं भंते!' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरं चतस्रोऽप्यपर्याप्तयः करणापेक्षया द्रष्टव्याः, लब्ध्यपेक्षया खेकैव प्राणापानापर्याप्तिः, यस्मादेवमागमः-इह लब्ध्यपर्याप्तका अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमासावेव नियन्ते नार्वाक्, यत आगामिभवायुर्वद्धा म्रियन्ते सर्व एव देहिनः, तच्चाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तानामेव बन्धमायातीति ॥ सप्रति दृष्टिद्वारमाह-'ते णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं सम्यग्-अविपरीवा दृष्टिः-जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषां ते सम्यग्दृष्टयः, मिध्या-विपर्यस्ता दृष्टियेषां भक्षितहत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् मिच्यादृष्टयः, एकान्तसम्यग्रूपमिथ्यारूपप्रतिपत्तिविकला: सम्यग्मिध्यादृष्टयः, निर्वचनसूत्रं-गोयमे त्यादि, सुगर्म, नवरं सम्यग्दृष्टित्वप्रतिषेधः सासादनसम्यक्त्वस्यापि तेषामसम्भवात् , सासा|दनसम्यकलवता तन्मध्ये उत्पादाभावात् , ते यतिसंक्लिष्टपरिणामाः, सास्वादनसम्यक्त्वपरिणामस्तु मनाक् शुभ इति तन्मध्ये सासादनसम्यक्त्ववतामुत्पादाभावः, अत एव सदा संकिष्टपरिणामलातेषां सम्यग्मिथ्यादृष्टित्वपरिणामोऽपि न भवति, नापि सम्यग्मिथ्यादृष्टिः सन् तन्मध्ये उत्पद्यते, "न सम्ममिल्लो कुणइ काले" इति वचनात् ॥ गतं दृष्टिद्वारमधुना दर्शनद्वारमाह-दर्शनं नाम सामान्यविशेषासके वस्तुनि सामान्यावयोधः, तचतुर्धा, तद्यथा-चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं च, तत्र सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि चक्षुषा दर्शन-रूपसामान्यपरिच्छेदश्चक्षुर्दर्शनम् , अचक्षुषा-चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् , अवधिरेव दर्शनरूपिसामान्यमणमवधिदर्शनं, केवलमेव दर्शनं-सकलजगद्भाविवस्तुसामान्यपरिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनं, तत्र किमेषां दर्शनमिति अनुक्रम [१४] ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] प्रतिपत्ती सूक्ष्मपृथ्वीकायाः सू०१३ ५. दीप अनुक्रम श्रीजीवा-पद जिज्ञासुः पुफछति-'ते णं भंतें' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरमचक्षुर्दर्शनिवं स्पर्शनेन्द्रियापेक्षया, शेषदर्शनप्रतिषेधः सुझानः ॥ गतं दर्शन- जीवाभि०द्वारं, ज्ञानद्वारमाह-'ते णं भंते जीवा' इत्यादि, अज्ञानत्वं मिथ्यादृष्टित्वात् , तदपि चाज्ञानत्वं मत्यज्ञानभुत्ताज्ञानापेक्षया, तथा चाह मलयगि- -नियमा दुअण्णाणी' त्यादि पाठसिद्धं, नवरं तदपि मत्यज्ञानं श्रुवाहानं च शेषजीवबादरादिराश्यपेक्षयाऽत्यन्तमल्पीयः प्रतिपत्तव्यं, रीयावृत्तिः यत उक्तम्---"सर्वनिकृष्टो जीवस्य दृष्ट उपयोग एष वीरेण । सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानां स च भवति विज्ञेयः ।। १ ।। तस्मात्प्रभृति ज्ञानविवृद्धिद्देष्टा जिनेन जीवानाम् । लब्धिनिमित्तैः करणैः कायेन्द्रियवाग्मनोदृग्भिः ॥२॥" योगद्वारमाह-'ते णं भंते' इत्यादि |पाठसिद्धम् ।। गतं योगद्वारमधुनोपयोगद्वारं, सत्रोपयोगो द्विविधः-साकारोऽनाकारश्व, तत्राकार:-प्रतिवस्तु प्रतिनियतो ग्रहणपरिणामः "आगारो उ विसेसों" इति वचनात् , सह आकारो यस्य येन वा स साकारो-ज्ञानपञ्चकमज्ञानत्रिकं, यथोक्ताकारविकलोऽनाकारः, स चक्षुर्दर्शनादिको दर्शनचतुष्टयासकः, उक्तं च ज्ञानाज्ञाने पञ्च त्रिविकल्पे सोऽष्टधा तु साकारः । चक्षुरचक्षुरवधिकेवलग्विषयसषनाकारः ॥ १॥" तत्र क एषामुपयोगः ? इति जिज्ञासुः पृच्छति-'ते णं भंते !' इत्यादि निगदसिद्ध, नवरं साकारोपयोगोपयुक्ता मत्यज्ञानश्रुताज्ञानोपयोगापेक्षया, अनाकारोपयोगोपयुक्ता अचक्षुर्दर्शनोपयोगापेक्षयेति ॥ साम्प्रतमाहारद्वारमाह-ते ण भंते इत्यादि, 'ते' सूक्ष्मपूथिवीकायिका: णमिति वाक्यालकारे भदन्त ! जीवाः किमाहारमाहारयन्ति ?, भगवानाह-गौतम! 'द्रव्यतो' द्रव्यस्वरूपपर्यालोचनायामनन्तप्रादेशिकानि द्रव्याणि, अन्यथा ग्रह्णासम्भवात् , न हि सङ्ख्यातप्रदेशामका असयातप्रदेशात्मका वा स्कन्धा | जीवस्य ग्रहणप्रायोग्या भवन्ति, क्षेत्रत्तोऽसङ्ख्यातनदेशावगाठानि, कालतोऽन्यतरस्थितिकानि-जघन्यस्थितिकानि मध्यमस्थितिकानि उ|त्कृष्टस्थितिकानि चेति भावार्थः, स्थितिरिति चाहारयोग्यस्कन्धपरिणामत्वेऽवस्थान प्रत्येतव्यम् , आह च मूलटीकाकार:-काल [१४] 24-24 ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -], --------------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप हा तोऽन्यतरस्थितीनि तद्भावावस्थानेन जघन्यादिरूपां स्थितिमधिकृत्ये"ति, भावतो वर्णवन्ति गन्धवन्ति रसवन्ति स्पर्शवन्ति च, प्रतिपरमाण्वेकेकवर्णगन्धरसद्विस्पर्शभावात् , "एवं जहा पण्णवणाए" इत्यादि, ''एवम्' उक्तेन प्रकारेण यथा प्रज्ञापनायामष्टाविंशतितमे | आहारपदे प्रथमोदेशके तावद्वक्तव्यं यावत् "सिय तिदिसि सिय चउदिसि सिय पंचदिसि"मिति, तचैवम्-'जाई भावतो वण्णमताई आहारेति ताई किं एगवण्णाई आहारेंति जाव पंचवण्णाई आहारेंति', गोवमा! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाईपि आहारेंति | जाव पंचवण्णाई पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच्च कालवण्णाइंपि आहारेंति जाव सुकिल्लवण्णाइपि आहारेंति, जाई कालवण्णाईपि | आहारेति ताई किं एगगुणकालाई आहारेंति जाव दसगुणकालाई आहारेंति संखिजगुणकालाई आहारैति असंखेजगुणकालाई आहारैति अणंतगुणकालाई आहारेति ?, गोयमा! एगगुणकालाईपि आहारेंति जाव अणंतगुणकालाइंपि आहारेंति एवं जाव मुक्लिाइंपि आहारेंति, एवं गंधतोबि रसवोवि ॥ जाई भावतो फासमंताई आहारेंति ताई कि एगफासाई आहारेंति दुफासाई आहारेंति जाव अट्ठफासाई आहारेंति?, गोयमा! ठाणमग्गणं पडुश्च नो एगफासाई आहारेंति नो दुफासाई आहारेंति नो तिफासाइपि आहारेति चउ| फासाइंपि आहारेंति जाब अट्ठफासाइपि आहारेंति, विहाणमग्गर्ण पहुच कक्खडाईपि आहारेंति जाव लुक्खाईपि आहारेति ॥ जाई | फासतो कक्खडाईपि आहारेंति ताई किं एगगुणकक्खडाई आहारेति जाव अर्णतगुणकक्खडाइपि आहारेंति ?, गोयमा! एगगुणकक्खहाइपि आहारेंति जाव अर्णतगुणकक्खडाईपि आहारेंति, एवं अट्ठवि फासा भाणियब्वा जाव अणंतगुणलुक्खाइपि आहारेति ॥ जाई भंते ! अर्णतगुणलुक्खाई आहारेति साई भंते ! किं पुट्ठाई आहारैति अपुढाई आहारेंति ?, गोयमा! पुट्ठाई आहारेंति नो अपुढाई | जीच०४ाहारैति, जाई पुट्ठाई आहारेंति साई भंते ! किं ओगाढाई आहारेंति अगोगाढाई आहारेंति ?, गोयमा! ओगाढाई आहारेंति नो| अनुक्रम [१४] CAऊन Jatician ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप श्रीजीवा- अणोगाढाई आहारेंति, जाइं भंते ! ओगाढाई आहारेति ताई कि अणंतरोगाढाई आहारेंति परंपरोगाढाई आहारेंति ?, गोयमारप्रतिपत्ती जीवाभिमणतरोगाढाई आहारेंति नो परंपरोगाढाई आहारेंति, ताई भंते ! कि अणूई आहारेंति बायराई आहारेंति', गोयमा ! अणूईपिसूक्ष्मपृमलयगि- आहारैति वायराईपि आहारेंति, जाई भते! अणूई आहारेंति ताई भंते! किं उ९ आहारेंति अहे आहारेंति तिरियं आहारेंति ?,5थ्वीकायाः रीयावृत्तिः गोयमा! उ«पि आहारेंति अहेवि आहारति तिरिवंपि आहारेंति, जाई भंते ! उपि आहारेंति अहेवि आहारेंति तिरियपि आहारेंति सू०१३ भनाई कि आई आहारेंति मझे आहारेंति पजवसाणे आहारेंति ?, गोयमा! आइपि आहारेंति मझेनि आहारेंति पञ्चवसाणे (वि)आहा-|| ति, जाई भंते! आइपि आहारेंति जाव पजवसाणेवि आहारति ताई कि सविसए आहारति अविसए आहारवि', गोयमा ! सविसए8 आहारेंति नो अविसए आहारेंति, जाई भंते ! सविसए आहारेति ताई किं आणुपुब्धि आहारैति अणाणुपुलिंब आहारैति?, गोयमा! आणुपुर्दिय आहारेंति नो अणाणुपुलिंब आहारेंति, जाई भंते ! आणुपुलिंब आहारेंति ताई कि विदिसि आहारेंति चउदिसि आहारेति । पंचदिसिं आहारेंति दिसिं आहारेंति', गोयमा! निन्यापारणं छद्दिसिं, वापाय पडुच सिय तिदिसि सिय पउदिसि(सिय)पंचदिसि-18 | मिति ।” अस्य व्याख्या-"जाई भावतो वण्णमंताई" इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम् , भगवानाह-गौतम! 'ठाणमग्गणं पदुचेति तिष्ठन्ति है विशेषा अस्मिन्निति स्थानं-सामान्यमेकवर्ण द्विवर्ण त्रिवर्णमित्यादिरूपं तस्य मार्गणम्-अन्वेषणं तत्प्रतीत्य, सामान्यचिन्तामाश्रित्येति भावार्थः, एकवर्णान्यपि द्विवर्णान्यपीलादि सुगर्म, नवरं तेषामनन्तप्रदेशिकानां स्कन्धानामेकवर्णवं द्विवर्णत्वमित्यादि व्यवहारनयमता-18 पेक्षया, निश्चयनयमतापेक्षया खनन्तप्रादेशिकस्कन्धोऽस्पीयानपि पञ्चवर्ण एवं प्रतिपत्तव्यः, 'विहाणमग्गणं पदुधे'त्यादि यावद् [विधान -विशेषः,] विविक्तम्-इतरव्यवच्छिन्नं धान-पोषणं स्वरूपस्य यत्तत्प्रतीत्य सामान्यचिन्तामाश्रित्येति शेषः, कृष्णो नील इत्यादि प्रति-I अनुक्रम [१४] ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ...---------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: A + प्रत सूत्रांक [१३] दीप CCASS नियतो वर्णविशेष इतियावत् , तस्य मार्गणं तत्प्रतीत्य कालवर्णान्यष्याहारयन्तीत्यादि सुगम, नवरमेतदपि व्यवहारतः प्रतिपत्तव्यं, निश्रयत: पुनरवश्य तानि पञ्चवर्णान्येव ।। 'जाई वण्णतो कालवण्णाई' इत्यादि सुगमं यावदनन्तगुणसुकिलाइंपि आहारयन्ति, एवं गन्धरसस्पर्शविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि ॥ 'जाई भंते ! अर्णतगुणलुक्खाई इत्यादि, यानि भदन्त ! अनन्तगुणरूक्षाणि, उपल क्षणमेतत्-एकगुणकालादीन्यप्याहारयन्ति तानि स्पृष्टानि-आत्मप्रदेशस्पर्शविषयाण्याहारयन्ति उतास्पृष्टानि !, भगवानाह-पृष्टानि | Mनो अस्पृष्टानि, तत्रासपदेशैः संस्पर्शनमात्सप्रदेशावगाढक्षेत्राहिरपि संभवति ततः प्रश्रयति-'जाई भंते इत्यादि, यानि भदन्त ! स्पृष्टान्याहारयन्ति तानि किमवगाढानि-आसप्रदेशैः सहकक्षेत्रावस्थायीनि उतानवगाढानि-आलप्रदेशावगाहक्षेत्रावहिरवस्थितानि?, भगवानाह-गौतम! अवगाढान्याहारयन्ति नानवगाहानि । यानि भवन्त ! अवगाढान्याहारयन्ति तानि किमनन्तरावगाडानि?, किमुक्तं भवति ?-वेष्वासप्रदेशेषु यान्यव्यवधानेनावगादानि तैरामप्रदेशैस्तान्येवाहारयन्ति उत परम्परावगाडानि-एकद्विवाद्यामप्रदेशैव्यवहितानि ?, भगवानाह-गौतम! अनन्तरावगाढानि न परम्परावगाढानि । यानि भदन्त ! अनन्तरावगाढान्याहारयन्ति तानि || भदन्त ! अनन्तप्रादेशिकानि द्रव्याणि किमणूनि-स्तोकान्याहारयन्ति उत बादराणि-प्रभूतप्रदेशोपचितानि ?, भगवानाह-अणून्यप्याहारयन्ति बादराण्यप्याहारयन्ति, इहाणुत्ववादरत्वे तेषामेवाहारयोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकलबाहुल्यापेक्षया प्रज्ञापनामूलटीकाकारेणापि ब्याख्याते इत्यस्माभिरपि तथैवाभिहिते । यानि भदन्त ! अणून्यपि आहारयन्ति तानि किमूर्ध्वप्रदेशस्थितान्याहारयन्ति अ धस्तिर्वग्वा?, इहोधिस्तिर्यक्त्वं यावति क्षेत्रे सूक्ष्मपृथिवीकायिकोऽवगाढस्तावत्येव क्षेत्रे तदपेक्षया परिभावनीयं, भगवानाह-ऊर्ध्वमदाप्याहारयन्ति-ऊर्ध्वप्रदेशावगादान्यन्याहारयन्ति, एवमधोऽपि तिर्यगपि । यानि भदन्त ! ऊर्वमप्याहारयन्ति अधोऽप्याहारयन्ति तिर्य-16 -+-%ARC-SCACMCGA4%20 अनुक्रम [१४] ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] प्रतिपत्ति: [१], मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... ..आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २० ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [-], Ja Eber | गप्याहारयन्ति तानि किमादाबाहारयन्ति मध्ये आहारयन्ति पर्यवसाने आहारयन्ति १, अयमत्राभिप्रायः - सूक्ष्मपृथिवीकायिका हानन्तप्रादेशिकानि द्रव्याण्यन्तर्मुहूर्त्तं कालं यावदुपभोगोचितानि गृह्णन्ति, ततः संशयः किमुपभोगोचितस्य कालस्यान्तर्मुहूर्त प्रमाणस्यादीप्रथमसमये आहारयन्ति उत मध्ये-मध्यसमयेषु आहोश्वित् पर्यवसाने पर्यवसानसमये ?, भगवानाह - गौतम! आदावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति, किमुक्तं भवति ? - उपभोगोचित कालस्यान्तर्मुहूर्त्त प्रमाणस्यादिमध्यावसानसमयेऽप्याहारयन्तीति । यानि भदन्त ! आदावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किं स्वविषयानि - स्वोचिताहारयोग्यान्याहारयन्ति उताविषयानि खोचिता x हारायोग्यान्याहारयन्ति ?, भगवानाह - गौतम! स्वविषयाण्याहारयन्ति नो अविषयाणि । यानि भदन्त ! स्वविषयाण्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किमानुपूर्व्याऽऽहारयन्ति अनानुपूर्व्या ?, आनुपूर्वी नाम यथाऽऽसनं तद्विपरीताऽनानुपूर्वी, भगवानाह - गौतम! आनुपूर्व्या, सूत्रे द्वितीया तृतीयार्थे वेदितव्या प्राकृतत्वात् यथाऽऽचाराङ्के "अगणि पुट्ठा" इत्यत्र, आहारयन्ति, नो अनानुपूर्व्या ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्या, यथाssसनं नातिक्रम्याहारयन्तीति भावः । यानि भदन्त ! आनुपूर्व्याऽऽहारयन्ति तानि भदन्त ! किं 'तिदिसं ति तिस्रो दिशः समा | हतास्त्रिदिक् तस्मिन् व्यवस्थितान्याहारयन्ति चतुर्दिशि पश्चदिशि दिशि वा, इह लोकनिष्कुटपर्यन्ते जधन्यपदेऽपि [-जीवावगाहक्षेत्रं-] त्रिदिग्व्यवस्थितमेव प्राप्यते न द्विदिग्व्यवस्थितमेकदिग्व्यवस्थितं वा अतस्त्रिदिश्यारभ्य प्रभः कृतः, भगवानाह - गौतम! 'निव्वाघापूर्ण छद्दिसि'मित्यादि, व्याघातो नामालोकाकाशेन प्रतिस्खलनं व्याघातस्याभावो निर्व्यापातं 'शब्दप्रधादावव्ययं पूर्वपदार्थे नित्यमव्ययीभाव' इत्यव्ययीभावः 'तेन वा तृतीयाया' इति विकल्पेनाम्भावविधानात् पक्षेऽत्राम्भावः, नियमाद्- अवश्यतया पदिशि व्यवस्थितानि, पद्भ्यो दिग्भ्य आगवानीति भावः, द्रव्याण्याहारयन्ति, व्याघातं पुनः प्रतीत्य लोकनिष्कुटादौ स्यात्कदाचित्रिदिशि तिसृभ्यो दिग्भ्य For P&Palle Cinly ~ 43~ १ प्रतिपत्तौ सूक्ष्मपृ७ थ्वीकायाः सू० १३ ॥ २० ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] आगतानि, कदाचित् चतसूभ्यः कदाचित्पञ्चभ्यः, काऽत्र भावना ? इति चेदुच्यते-इह लोकनिष्कुटे पर्यन्तेऽधरल्यप्रतरानेयकोणावस्थितो| यदा सूक्ष्मपृथिवीकायिको वर्तते तदा तस्याधस्तादलोकेन व्याप्तस्वात् अधोदिक्पुद्गलाभाव: आमेयकोणावस्थितत्वात् पूर्वदिक्पुद्गलाभावो दक्षिणदिक्पुद्गलाभावश्च, एवमध:पूर्वदक्षिणरूपाणां तिसृणां दिशामलोकेन व्यापनात् ता अपास्य या परिशिष्टा ऊोऽपरोत्तरा च दिगव्याहता वर्तते तत आगतान पुद्गलानाहारयन्ति, यदा पुनः स एव पृथिवीकायिक: पश्चिमां दिशमनुसृत्य वर्त्तते तदा पूर्वा दिगभ्यधिका जाता, द्वे च दिशौ दक्षिणाधस्त्यरूपे अलोकेन व्याहते इति स चतुर्दिगागतान् पुद्गलानाहारयति, यदा पुनरुवं द्वितीयादिप्रतरगतपश्चिमदिशमवलम्ब्य तिष्ठति तदाऽवस्यापि दिगभ्यधिका लभ्यते, केवला दक्षिणवैका पर्यन्तवर्तिनी अलोफेन व्याहतेति पञ्चदिगागतान् पुद्गलानाहारयति । 'वण्णतो' इत्यादि वर्णतः कालनीललोहितहारिद्रशुकानि, गन्धतः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि वा, रसतस्तिकानि यावन्मधुराणि, स्पर्शतः कर्कशानि यावदक्षाणि, तथा तेषामाहार्यमाणानां पुद्गलानां 'पुराणान्' अप्रेतनान् वर्णगुणान गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् विपरिणामइत्ता परिपालइत्ता परिसाडइत्ता परिविसइत्ता' एतानि चलायपि पदान्येकाथिकानि |विनाशार्थप्रतिपादकानि नानादेशजविनेयानुपहार्थमुपात्तानि, विनाशः किमित्याह-अन्यान् अपूर्वान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् । स्पर्शगुणान् उत्पावासशरीरक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् 'सव्वप्पणयाए' सर्वात्मना-सर्वेरेवामप्रदेशैराहारमाहाररूपान पुद्गलानाहारयन्ति ॥ गतमाहारद्वारं, साम्प्रतमुपपातद्वारमाह-'ते णं भंते' इत्यादि, ते भदन्त ! सूक्ष्मपृथिवीकायिका जीवाः 'कुतः' केभ्यो जीवेभ्य उद्धृत्योत्पद्यन्ते ?, किं नैरपिकेभ्यः ? इत्यादि प्रतीतं, भगवानाह-गौतम! नो नैरयिकेभ्य इत्यादि पाठसिद्धं, नवरं देवनैरविकेभ्य उत्पादप्रतिपेधो देवनैरविकाणां तथाभवस्वभावतवा तन्मध्ये उत्पादासम्भवात् , 'जहा वकंतीए' इति, यथा प्रज्ञापनायां व्युत्कान्तिपदे तथा दीप अनुक्रम [१४] Elimina! ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ...---------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सन प्रत सूत्रांक [१३] सू०१३ दीप श्रीजीवा- का वक्तव्यं, तथैवम्-तिर्यग्योनेभ्योऽप्युत्पादः पर्याप्तेभ्योऽपर्याप्तभ्यो वा केवलमसङ्ख्यातवर्षांयुष्कबर्जितेभ्यः, मनुष्येभ्योऽप्यकर्मभूमिजान्तर-1 वतन्य, तथवम् प्रतिपत्ती जीवाभि र द्वीपजाससातवर्षायुष्ककर्मभूमिजव्यतिरिक्तेभ्यः पर्याप्तेभ्योऽपर्याप्तेभ्यो वेति ।। गतमुपपातद्वारमधुना स्थितिद्वारमाह-'तेसि णं भंते ! सूक्ष्ममलयगि- इत्यादि सुगम, नवरं जघन्यपदादुस्कृष्टपदमधिकमवसेवम् ।। गतं स्थितिद्वारमधुना समुद्घातमधिकृत्य मरणं विचिन्तयिषुरिदमाह-' ते थ्वीकायाः रीयावृत्तिःणं भंते जीवा' इत्यादि सुगमम् , उभयथाऽपि मरणसम्भवात् ।। च्यवनद्वारमाह-'ते णं भंते जीवा' इत्यादि, 'ते' सूक्ष्मपूथ्वीका-15 ताविका भदन्त ! जीवा अनन्तरमुद्दय सूक्ष्मपृथिवीकायिकभवादानन्तर्वेणोद्भूत्येति भावः क गच्छन्ति ?-कोरपद्यन्ते ?, एतेनासनो ॥२१॥ गमनधर्मकता पर्यायान्तरमधिकृत्योत्पत्तिधर्मकता च प्रतिपादिता, तेन ये सर्वगतमनुत्पत्तिधर्मकं चालानं प्रतिपन्नास्ते निरस्ता द्रष्टव्यात, सथारूपे सत्यात्मनि यथोक्तप्रभार्थासम्भवात्, कि नेरइएसु गच्छन्ति'? इत्यादि सुप्रतीतं, भगवानाह-'नो नेरइएम् गच्छन्ति। इत्यादि पाठसिद्धं 'जहा वकंतीए' इति, यथा प्रज्ञापनायां व्युत्कान्तिपदे च्यवनमुक्तं तथाऽऽत्रापि वक्तव्यं, तथोत्पादव भावनीय-14 मिति ।। गतं च्यवनद्वारमधुना गयागतिद्वारमाह-'ते णं भंते जीवा' इत्यादि, ते भदन्त ! जीवाः 'कतिगतिकाः? कति गतयो येषां । ते कतिगतिकाः, 'कत्यागतिकाः कतिभ्यो गतिभ्य आगतिर्वेषां ते कत्यागतिकाः, भगवानाह-गौतम! व्यागतिका नरकगतेदेवगतेश्च सूक्ष्मपुत्पादाभावात् , द्विगतिका नरकगतौ देवगतौ च तत उत्तानामुत्पादाभावात् , 'परीत्ता' प्रत्येकशरीरिणः, असल्येया असोय लोकाकाशप्रदेशप्रमाणखात् प्रज्ञप्ता मया शेषैश्च तीर्थकद्भिः, अनेन सर्वतीर्थकृतामविसंवादिवचनतामाह, हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! 151'से सुहुमपुढविकाइया' त एते सूक्ष्मपृथिवीकायिका उक्ताः । उक्ताः सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, अधुना बादरपृथिवीकायिकान- | ॥२१॥ भिधित्सुराह अनुक्रम [१४] ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [१], ...................-------- उद्देशक: -1, -------- --- मूल [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ACC [१४] दीप से किं तं वायरपुढविकाइया ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सण्हवायरपुढषिकाइया य खरवायर पुढविक्काइया य (सू०१४॥ 'से किं तमित्यादि, अथ के ते बादरपृथिवीकायिका: १, सूरिराह-वादरपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-लक्ष्णचादरपू-| थिवीकायिकान खरबादरपृथिवीकायिकाश्च-लक्ष्णा नाम चूर्णितलोष्ट कल्पा मृदुपृथवी तदात्मका जीवा अप्युपचारत: लक्ष्णाः ते च ते वादरपृथिवीकाविकाश लक्ष्णवादरपृथिवीकायिकाः, अथवा लक्ष्णा चासौ बादरपृथिवी च सा काय:-शरीरं येषां तेलक्षणवादरपृथ्वीकायाः त एवं स्वार्थिकेकप्रत्ययविधानात् लक्ष्णवादरपृथिवीकायिकाः, खरा नाम पृथिवी सङ्घातविशेष काठिन्यविशेष बाऽऽपन्ना तदासका जीवा अपि खरा: ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च खरबादरपृथिवीकायिकाः, अथवा पूर्ववत्प्रकारान्तरेण स-1 मासः, चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ ॥ से किं तं सहवायरपुढविक्काइया ?, २ सत्तविहा पण्णत्ता, तंजहा-कण्हमत्तिया, भेओ जहा पषणवणाए जाव ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य । तेसिणं भंते ! जीवाणं कति सरीरमा पपणत्ता ? गोयमा ! तओ सरीरगा पं०, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, तं चेव सव्वं नवरं चत्तारि लेसाओ, अवसेसं जहा सुहमपुढविकाइयाणं आहारो जाव णियमा छरिसि, उववातो तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवेहितो, देवहिं जाव सोधम्मेसाणेहितो, ठिती जहनेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं बावीसं वाससहस्साई । ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमु अनुक्रम [१५] - SSC ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [9] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 25% प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः SAR सूत्रांक [१५] ॥२२॥ दीप ग्याएणं किं समोहया मरंति असमोहता मरंति ?, गोयमा! समोहतावि मरति असमोहतावि १ प्रतिपत्ती मरंति । ते णं भंते ! जीथा अणंतरं उध्वहित्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववजंति ?-किं नेरइएम लक्ष्णखरउववज्जति १०, पुच्छा, नो नेरइएसु उववज्जति तिरिक्खजोणिएम उवयजति मणुस्सेसु उब० नो | बादरदेवेसु उव०, तं चेव जाव असंखेजवासाउबजेहिं । ते णं भंते ! जीवा कतिगतिया कतिआगतिया थ्वीकायौ पण्णता ?, गोयमा! दुगतिया तिआगतिया परित्ता असंखेजा य समणाउसो!, से तं वायरपुढ सू०१४विकाइया । सेत्तं पुढविकाइया ।-(सू०१५) से किं तमिलादि, अथ के ते श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिका:१, सूरिराह-लक्ष्णबादरपृथिवीकायिका: सप्तविधा: प्रहप्ताः, तदेव सप्तविधलं दर्शयन्ति, तद्यथा-कृष्णमृत्तिका इत्यादि भेदो भाणियब्यो जहा पण्णवणाए जाव तत्थ नियमा असंखिजा' इति, भेदो बा-1 दरपृथिवीकायिकानां द्विविधानामपि तथा भणितन्यो यथा प्रज्ञापनायां, स च तावद् यावत् "तस्थ नियमा असंखेजा" इति पदं, स चैवम्-किहमत्तिया नीलमत्तिया लोहियमत्तिया हालिहमत्तिया सुकिलमत्तिया पंडुमत्तिया पणगमत्तिया, सेत्तं सहवायरपुढवि-18 काइया । से किं तं खरवायरपुढविकाइया?, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुढवी य सकरा वालुया य उबले सिला य लोणूसे । तथा य तय सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य ॥ १॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजण पवाले । अब्भपडलब्भवालय बा-1 |यरकाये मणिविहाणा ॥२॥ गोमेजए य रुयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगयमसारगले भुयमोयगइंदनीले य ॥ ३॥ चंदणगेरुयहसे पुलए सोगंधिए य बोद्धन्वे । चंदप्पभवेरुलिए जलकंते सूरकते य॥ ४॥ जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासतो दुविहा | अनुक्रम [१६] C25% ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ......------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - प्रत सूत्रांक -- [१५] हापण्णता, तंजहा-पजतगा य अपज्जत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते गं असंपन्ना, तत्थ ण जे ते पजत्तगा एएसिणं वण्णादेसेणं । गंधाएसेणं रसाएसेणं फासाएसेणं सहस्सग्गसो बिहाणाई संखिजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई पजत्तगनिस्साए अपजत्तगा वनमंति, जस्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इति, अस्य व्याख्या-कृष्णमृत्तिका-कृष्णमृत्तिकारूपा, एवं नीललोहितहारिद्रशुक्लभेदा अपि वाच्याः, पाण्डुमृत्तिका नाम देशविशेषे या धूलीरूपा सती पाहू इति प्रसिद्धा तदात्मका जीवा अप्यभेदोपचारापाण्डुमृत्तिकेयुक्ताः, पणगमत्तिया' इति नद्यादिपूरताविते देशे नद्यादि पूरेऽपगते यो भूमौ श्लक्ष्णमृदुरूपो जलमलोऽपरपर्यायपक्कः स पनकमृत्तिका तदासका जीवा अध्यभेदोपचारात्पनकमृत्तिकाः, सेत्तमित्यादिनिगमनं सुगमम् ।। 'से किं तमित्यादि । अथ के ते खरबादरपृथिवी कायिका:१, सूरिराह-खरबादरपृथिवीकायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, चलारिंशद्देदा मुख्यत: प्रज्ञप्ता इत्यर्थः, वानेव चत्वारिंशद्भेदाट्र नाह, संजहा-पुढवी यादिगाथाचतुष्टयम् । पृथिवीति 'भामा सत्यभामावत्' शुद्धपृथिवी नदीतटभित्त्यादिरूपा १, चशब्द उत्त रापेक्षया समुच्चये, शर्करा-लघूपलशकलरूपा २, बालुका-सिकता ३, उपल:-रकाशुपकरणपरिकर्मणायोग्यः पाषाणः ४, शिलाघटनयोग्या देवकुलपीठाधुपयोगी महान् पाषाणविशेष: ५, लवणं-सामुद्रादि ६, ऊषो यदशादूपरं क्षेत्रम् ७, अयस्ताम्रपुसीसकरूप्यसुवर्णानि-प्रतीतानि १३, वसो-हीरक: १४, हरितालहिङ्गुलमनःशिला: प्रतीताः १७, सासगं-पारदः १८, अजनं सौवीराजनादि १९, प्रवालं-विद्रुमः २०, अभ्रपटलं-प्रसिद्धम् २१, अभ्रवालुका-अभ्रपटलमिश्रा वालुका २२, 'थायरकाए' इति बादर पृथिवीकायेऽमी भेदा इति शेषः, 'मणिविहाणा' इति चशब्दस्य गम्यमानत्वात् मणिविधानानि च-मणिभेदाश्च बादरपृथिवीकायमेदिलेन ज्ञातव्याः, तान्येव मणिविधानानि दर्शयति-'गोमेजए ये' इत्यादि, गोमेजक: २३, 'चः' समुचये, रुचक: २४ अङ्क: २५ दीप RMA अनुक्रम [१६] ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१६] प्रतिपत्तिः [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः १ ॥ २३ ॥ "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) उद्देशक: [-], मूलं [१५] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः - स्फटिकः २६ 'चः' पूर्ववत्, लोहिताक्षः २७ मरकतः २८ मसारगलः २९ भुजमोचकः ३० इन्द्रनील ३१ चन्दन (:) ३२ गैरिफ ३३ हंसगर्भः ३४ पुलकः ३५ सौगन्धिक ३६ चन्द्रप्रभः ३७ वैडूर्यः ३८ जलकान्तः ३९ सूर्यकान्तच ४०, तदेवमायया गा यया पृथिव्यादयश्चतुर्दश भेदा उक्ताः द्वितीयगाथयाऽष्टौ हरितालादयः तृतीयगाथया गोमेजकादयो दश तुर्यगाथयाऽष्टाविति, स साया चत्वारिंशत्, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकारा मणिभेदाः पद्मरागादयस्तेऽपि स्वरवादरपृथिवीकायिकत्वेन वेदितव्याः । 'ते समासतो' इत्यादि, ते बादरपृथिवीकायिकाः 'समासतः " सङ्क्षेपेण द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाश, तत्र येऽपर्याप्तकास्ते स्वयोग्याः पर्याप्तीः साकल्येनासंप्राप्ताः अथवाऽसंप्राप्ता इति विशिष्टान् वर्णादीननुपगताः तथाहि -वर्णादिभेदविवक्षायामेते न शक्यन्ते कृष्णादिना भेदेन व्यपदेष्टुं किं कारणमिति चेद् उच्यते, इह शरीरादिपर्याप्तिषु परिपूर्णासु सतीषु बादराणां वर्णादिभेदः संप्रकटो भवति नापरिपूर्णासु ते चापर्याप्ता उच्छासपर्याया अपर्याप्ता एव म्रियन्ते ततो न स्पष्टो व र्णादिविभाग इत्यसंप्राप्ता इत्युक्तम्, अन्ये तु व्याचक्षते-सामान्यतो वर्णादीन संप्राप्ता इति, तच न युक्तं यतः शरीरमात्रभाविनो वर्णादयः शरीरं च शरीरपर्याया संजातमिति । 'तरथ ण'मित्यादि, तत्र ये ते पर्याप्तकाः - परिसमाप्तसमस्तस्वयोग्य पर्याप्तयते वर्णादेशेन वर्णभेदविवक्षया एवं गन्धादेशेन रसादेशेन स्पर्शादेशेन सहस्रायशः - सहस्रसया विधानानि भेदाः, तद्यथा-वर्णः कृष्णादिभेदारपश्च गन्धौ सुरभीतरभेदाही रसास्तिकादयः पञ्च स्पर्शा मृदुकर्कशादयोऽम्रो, एकैकस्मिंश्र वर्णादी तारतम्यभेदेनानेकेऽवान्तरभेदाः, तथाहि - भ्रमरकोकिलकज्जलादिषु तरतमभावात् कृष्णः कृष्णतरः कृष्णतम इत्यादिरूपतयाऽनेके कृष्णभेदाः, एवं नीलं दिष्वप्यायोज्यं, तथा गन्धरसस्पर्शेष्वपि तथा परस्परं वर्णानां संयोगतो धूसरकरत्वादयोऽनेकसङ्ख्याभेदाः, एवं गन्धादीनामपि परस्परं गन्धादिभिः For P&P Cy ~ 49~ १ प्रतिपत्तौ बादरपुथ्वीकायाः सू० १५ ॥ २३ ॥ by M Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ......------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % % प्रत सूत्रांक [१५] 545%% समायोगात, ततो भवन्ति वर्णाचादेशैः सहस्राप्रशो भेदाः, 'संखिजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साईति सोयानि योनिप्रमुखाणि-योनिद्वाराणि शतसहस्राणि, तथाहि-एकैकस्मिन् वर्णे गन्धे रसे स्पर्शे च संदृता योनिः पृथिवीकायिकानां, सा पुननिधासचित्ताऽचित्ता मिश्रा च, पुनरेकैका त्रिधा-शीता उष्णा शीतोष्णा, शीतादीनामपि प्रत्येक तारतम्यभेदादनेकभेदत्वं, केवलमेकविशिष्टवर्णादियुक्ताः सङ्ख्यातीता अपि स्वस्थाने व्यक्तिभेदेन योनिजातिमधिकृत्यैकैव योनिर्गण्यते, तत: सोयानि पृथ्वीकायिकानां योनिशतसहस्राणि भवन्ति, तानि च सूक्ष्मवादरगतसर्वसमाया सप्त, 'पज्जत्तगनिस्साए' इत्यादि, पर्याप्तकनिश्रयाऽपर्याप्तका व्युत्कामन्तिउत्पद्यन्ते, कियन्तः' इत्याह-यत्रैकः पर्याप्तकस्तत्र नियमात्तन्निश्रया असोया:-समातीता अपर्याप्तकाः । 'एएसिणं भंते जीवाण'मित्यादिना शरीरावगाहनादिद्वारकलापचिन्तां करोति, सा च पूर्ववत् , तथा चाह-एवं जो चेव सुहुमपुढविकाइयाणं गमो सो चेव भाणियब्बो इति, 'नवर' मित्यादि, नवरमिदं नानावं लेश्याद्वारे चतस्रो लेश्या वक्तव्याः, तेजोलेश्याया अपि सम्भवात् , तथाहि -व्यन्तरादय ईशानान्ता देवा भवनविमानादावतिमूर्छयाऽऽसीयरत्नकुण्डलादाबप्युत्पद्यन्ते, ते च तेजोलेश्यावन्तोऽपि भवन्ति, यहेश्यश्च म्रियते अप्रेऽपि तल्लेश्य एवोपजायते "जल्लेसे मरइ तलेसे उववजई" इति वचनात् , ततः कियत्कालमपर्याप्तावस्थायां तेजोलेश्यावन्तोऽप्यवाप्यन्ते इति चतस्रो वक्तव्याः, आहारो नियमात् पड्दिशि, बादराणां लोकमध्य एवोपपातभावान , उपपातो देवेभ्यो| ऽपि, यादरेषु तदुत्पादविधानात्, स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मुदमुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, देवेभ्योऽप्युत्पादात् ज्यागतयो, द्विगतयः | पूर्ववत् , एतेऽपि च 'परीत्ता' प्रत्येकशरीरिणोऽसोयाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, 'सेत्त'मित्याग्रुपसंहारवाक्यम् ॥ उक्ताः पृथ्वीकायिकाः, अधुनाऽकायिकानभिधित्सुरिदमाह SAMASSAGAR%E5% दीप 2 अनुक्रम [१६] 45% * ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: %ERS प्रत प्रतिपत्ती | सूक्ष्मबादराष्का सूत्रांक [१६] ययोः सू०१६१७ % दीप श्रीजीवा से किं तं आउक्काइया १,२ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-मुहुमाउकाइया य यायरआउक्काइया य, जीवाभि मुहुमआऊ. दुविहा पपणत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य ।तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीमलयगि रया पण्णत्ता ?, गोयमा! तओ सरीरया पण्णता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, जहेच सुहुरीयावृत्तिः मपुढविकाइयाणं, णवरं थिबुगसंठिता पण्णत्ता, सेसं तं चेव जाव दुगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेजा पण्णता । से तं सुहुमआउकाइया ।। (सू०१६) ॥२४॥ अथ के तेऽपकायिका:१, सूरिराह-अपकायिका द्विविधाः प्राप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्माप्कायिकाश्च बादराप्कायिकाच, तत्र सूक्ष्माः सर्वलोतिकव्यापिनो बादरा घनोदध्यादिभाविनः, चशब्दो खगतानेकभेदसूचकौ। 'से किं तं सुहमआउकाइया?" इत्यादि सूक्ष्मपृथिवीकायिकवनिरवशेष भावनीयं, नवरमिदं संस्थानद्वारे नानात्वं, तदेवोपदर्शयति-ते सिणं भंते जीवाणं सरीरया किं संठिया?' इत्यादि पाठसिद्धम्।। से किं तं वायरआउकाइया?,२अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-ओसा हिमे जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य, तं चेव सव्वं णवरं थिबुगसंठिता, चत्तारि लेसाओ, आहारो नियमा छदिसिं, उववातो तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवेहि, ठिती जहमेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसं सत्तवाससहस्साई, सेसं तं चेव जहा वायरपुतविकाइया जाव दुगतिया तिआगतिया परित्ता असंखेजा पन्नत्ता समणाउसो!, सेत्तं वायरआऊ, सेतं आउकाइया । (सू०१७॥) % अनुक्रम [१७] RECASSSCDCS ॥२४॥ SAE अथ अप्कायिकानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~514 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], -------------------------- उद्देशक: -1, -------------------- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] SACROS* % दीप 'से किं तमित्यादि, अथ के ते बादराकायिका: ?, सूरिराह-बाराकायिका अनेकविधाः प्राप्ताः, तद्यथा-ओसा हिमे महिया जाव तत्थ नियमा असंखेजा" इति, यावत्करणादेवं परिपूर्णपाठो द्रष्टव्यः-करगे हरतणू सुद्धोदए सीओदए खट्टोदए खारोदए । | अंबिलोदए लवणोदए वरुणोदए खीरोदए खोओदए रसोदए जे यावन्ने तहप्पगारा, वे समासतो दुविहा पण्णत्ता, संजहा-पञ्चत्तगा य अपज्जतगा थ, तत्थ णं जे ते अपजत्तगा एएसिणं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसाएसेणं फासाएसेणं सहस्सगसो विहाणाई संखिजाई। जोणिप्पमुह्सयसहस्साई पजत्तगनिस्साए अपज्जत्तगा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा” इति, अस्य व्याख्या-अवश्याय:ब्रहः, हिमं-स्त्यानोदकं, महिका-गर्भमासेषु सूक्ष्मवर्ष, करको-पनोपलः, हरतनुः यो भुवमुद्भिय गोधूमाकरतृणामादिषु बद्धो विन्दुरुपजायते, शुद्धोदकम्-अन्तरिक्षसमुद्भवं नद्यादिगतं वा, तच्च स्पर्शरसादिभेदादनेकभेदं, तदेवानेकभेदत्वं दर्शयति-शीतोदक-नदीतडागावटबापीपुष्करिण्यादिषु शीतपरिणामम् , उष्णोदकं-स्वभावत एवं कचिनिझरादावुष्णपरिणाम, क्षीरोदकम्-ईषलवणपरिणाम | यथा लाटवेशादी के चिवटेषु, खट्टोदकम्-ईषदम्लपरिणामम् , आम्लोदकम्-अतीव स्वभावत एवाम्लपरिणाम कातिकवत् , लव-17 णोदकं लवणसमुद्रे, वारुणोदकं वारुणसमुद्रे, क्षीरोदक क्षीरसमुद्रे, क्षोदोदकमिक्षुरससमुद्रे, रसोदकं पुष्करवरसमुद्रादिपु, येऽपि | चान्ये तथाप्रकारा रसस्पर्शादिभेदाद् घृतोदकादयो बादराकाथिकास्ते सर्वे बादराप्कायिकतया प्रतिपत्तव्याः, 'ते समासओ' इत्यादि प्राग्वत् नवरं सख्येयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणीत्यत्रापि सप्त वेदितव्यानि । तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ सरीरगा' १ इत्यादिद्वारकलापचिन्तायामपि बादरपृथिवीकायिकगमोऽनुगन्तव्यो, नवरं संस्थानद्वारे शरीरकाणि तिचुकसंस्थानसंस्थितानि वक्तव्यानि, अनुक्रम [१८] C SRAE% A ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७-१८] दीप अनुक्रम [१९-२०] प्रतिपत्ति: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ।। २५ ।। “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [-], मूलं [१७] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः सप्त वर्षसहस्राणि शेषं तथैव, उपसंहारमाह--- 'सेत्त' मित्यादि ॥ उक्ता अष्कायिकाः, सम्प्रति वनस्पतिकायिकानाह से किं तं वणस्सइकाइया १, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा -- सुहमवणस्सइकाइया य बायरवणस्सइकाइया य ॥ (सू० १७) । से किं तं सुहुमवणस्सइकाइया १, २ दुविहा पण्णत्ता, संजहा—पज्ज तगाय अपलत्ता य तहेव णवरं अणित्थत्थ ( संठाण) संठिया, दुगतिया दुआगतिया अपरित्ता अनंता, अवसेसं जहा पुढविकाइयाणं, से तं सुहुमवणस्सइकाइया ॥ ( सू० १८ ) 1 अथ के ते वनस्पतिकायिका: ?, सुरिराह-वनस्पतिकायिका द्विविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा— सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाच बादरवनस्पतिकायिकाच चशब्दों स्वगतानेकभेदसूचकौ ॥ 'से किं तमित्यादि, अथ के ते सूक्ष्मवनस्पतिकायिका: १, सूरिराह-सूक्ष्मवनस्पतिकायिका द्विविधाः प्रशप्ताः-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, 'तेसि णं भंते! कति सरीरंगा' इत्यादिद्वारकलापचिन्तनं सूक्ष्मपृथिवीकायिकवद्भावनीयं, नवरं संस्थानद्वारे 'सरीरगा अपित्थंत्यसंठाणसंठिया पण्णत्ता' इति, इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थं न इत्थंस्थमनित्थंस्थम् अनियताकारमित्यर्थः तच तत्संस्थानं तेन संस्थितानि अनियतसंस्थान संस्थितानि, गत्यागतिद्वारसूत्रपर्यन्ते 'अपरिता अनंता पन्नत्ता' इति वक्तव्यम्, 'अपरीत्ता' अप्रत्येकशरीरिण: अनन्तकायिका इत्यर्थः, अत एवानन्ता: प्रज्ञप्ताः श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'सेत्त' मित्यादि उपसंहारवाक्यम् ॥ से किं तं बायरवणस्सइकाइया १, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- पत्तेयसरीरबायरवणस्सतिकाइया For P&Praise City मूल-संपादने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते - सू० १७ ' क्रम द्वि-वारान् मुद्रितं अथ वनस्पतिकायिकानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~ 53~ - % % १ प्रतिपत्तौ वनस्पति भेदी सू० १७ सूक्ष्मवनस्पतिः सू० १८ ॥ २५ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------- ------------ उद्देशक: [-], ------- - मूलं [१९-२०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९-२०] य साधारणसरीरबायरवणस्सइकाइया य॥(सू० १९)। से किं तं पत्तेयसरीरयादरवणस्सतिकादया?, २दवालसविहा पपणत्ता, तंजहा-रुक्खा गुच्छा गुम्मा लता य वल्ली य पब्वगा चेष । तणवलयहरितओसहिजलरुहकुहणा य बोद्धव्वा ॥१॥से किं तं रुक्खा?, २दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-एगडिया य बहुबीया यासे किं तं एगडिया?,२ अणेगविहा पण्णता, तंजहा-निबंधजंबुजाव पुण्णागणागरुक्खे सीवपिण तथा असोगे य, जे यावण्णे तहप्पगारा, एतेसिणं मूलावि असंखेजजीविया, एवं कंदा खंधा तया साला पवाला पत्ता पत्तेयजीवा पुप्फाई अणेगजीवाई फला एगडिया, सेत्तं एगढिया। से किं तं बहुबीया ?, २ अणेगविधा पपणत्ता, तंजहा-अत्थियतेंदुयउंघरकविढे आमलकफणसदाडिमणग्गोधकाउंबरीयतिलयलज्यलोद्धे धचे, जे याचपणे तहप्पगारा, एतेसिणं मूलावि असंखेजजीविया जाव फला बहुबीयगा, सेत्तं बहुयीयगा, सेतं रुक्खा, एवं जहा पण्णवणाए तहा भाणियब्ब, जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, सेत्तं कुहणा-नाणाविधसंठाणा रुक्खाणं एगजीविया पत्ता । खंधोवि एगजीवो तालसरलनालिएरीणं ॥१॥ 'जह सगलसरिसवाणं पत्तेयसरीराण' गाहा ॥ २ ॥ 'जह वा तिलसक्कुलिया' गाहा ॥ ३॥ सेत्तं पसेयसरी रवायरवणस्सइकाइया ।। (सू०२०) 'से कि तमित्यादि, अथ के ते बादरवनस्पतिकायिका: १, सूरिराह-बादरवनस्पतिकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रत्येक -KLAGAKAXटकॐ गाथा: दीप अनुक्रम [२१-२८] ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - 3 प्रतिपत्ति: [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [१९-२०] +गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रतिपक्षी प्रत सूत्रांक [१९-२०] प्रत्येकानपतिः गाथा: श्रीजीवा-| शरीरबादरवनस्पतिकायिका साधारणशरीरवादरवनस्पतिकायिकाश्च, चशब्दो पूर्ववत् ॥ 'से किं तमित्यादि, अब के ते प्रसेक- I जीवाभि० शरीरबादरवनस्पतिकायिकाः ?, सूरिराह-प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिका द्वादशविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-रुक्खा इत्यादि, वृक्षा:मलयगि- चूतादयः गुच्छा-वृन्ताकीप्रभृतयः गुल्मानि-नयमालिकाप्रभृतीनि लता:-चम्पकलतादयः, इह येषां स्कन्धप्रदेशे विवक्षितोर्ध्वशारीयावृत्तिः खाव्यतिरेकेणान्यत् शाखान्तरं तथाविधं परिस्थर न निर्गच्छत्ति ते लता इति व्यवह्नियन्ते, ते च चम्पकादय इति, वय:-कूष्मा ण्डीत्रपुषीप्रभृतयः पर्वगा-इक्ष्वादयः तृणानि-कुशजु जकार्जुनादीनि वलयानि-केतकीकदल्यादीनि तेषां हि त्वग् वलयाकारेण ॥२६॥ व्यवस्थितेति हरितानि-तन्दुलीयकवस्तुलप्रभूनीनि औषधयः-फल पाकान्ता: ताश्च शास्यादयः जले रहन्तीति जलरुहा:-उदका- वकपनकादयः कुहणा-भूमिस्फोटाभिधानास्ते चायकायप्रभृतयः, एवं भेदो भाणियब्वो जहा पन्नवणाए' इत्यादि, 'एवम्' उक्तेन | प्रकारेण चादरप्रत्येकशरीरवनस्पतिकायिकानां भेदो वक्तव्यो यथा प्रज्ञापनायाम, इह तु अन्धगौरवभयान लिख्यते, स च किं थाविद् वक्तव्यः ? इत्याह-जह वा तिलसकुलिया' इत्यादि, अस्थाश्व गाथाया अयं सम्यन्धः-इह यदि वृक्षादीनां मूलादयः प्रत्येकम नेकप्रत्येकशरीरजीवाधिष्ठितास्तत: कथमेकखण्डशरीराकारा उपलभ्यन्ते , तत्रेयमुत्तरगाथा-"जह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्लाण ट्टिया बट्टी । पत्तेयसरीराणं तह होति सरीरसंघाया ॥ १॥" अस्या व्याख्या-यथा सकलसर्षपाणां श्लेषमित्राणां-लेषद्रव्यविमि१ श्रितानां वलिता वत्तिरेकरूपा भवति, अथ च ते सकलसर्पपाः परिपूर्ण शरीराः सन्त: पृथक् पृथक् स्वस्वावगाहनयाऽवतिष्ठन्ते, Cl'तथा' अनयैवोपमया प्रत्येकशरीरिणां जीवानां शरीरसङ्घाताः पृथक्पृथक्वखावगाहना भवन्ति, इह लेषद्रव्यस्थानीय रागद्वेषो पचितं तथाविधं स्वकर्म सकलसर्षपस्थानीयाः प्रत्येकशरीराः, सकलसर्पपाहणं वैविक्यप्रतिपत्त्या पृथक्पृथकवखावगाहप्रत्येकशरीरवै ५ दीप अनुक्रम २१-२८] - K ना॥२६॥ ~55M Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१९-२०] + गाथा: दीप अनुक्रम [२१-२८] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [१], उद्देशक: [-], मूलं [१९-२०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः वित्तयप्रतिपत्त्यर्थम् अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह - "जह वा तिलसकुलिया" इत्यादिरधिकृतगाथा, वाशब्दो दृष्टान्तान्तरसूचने, यथा 'तिलसकुलिका' तिलप्रधाना पिष्टमयी अपूपिका बहुभिस्तिमिश्रिता सती यथा पृथक्पृथक्स्वस्वावगाहतिलासिका भवति कथविदेकरूपा च 'तथा' अनयैवोपमया प्रत्येकशरीरिणां जीवानां शरीरसङ्घाताः कथञ्चिदेकरूपाः पृथक्पृथक्स्वस्वावगाहनाश्च भवन्ति, उपसंहारमाह- 'सेत्त' मित्यादि सुगमम् ॥ सम्प्रति साधारणवनस्पतिकायिकप्रतिपादनार्थमाह से किं तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया १, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा-आलुए मूलए सिंगबेर हिरिलि सिरिलि सिस्सिरिलि किट्टिया छिरिया छिरियविरालिया कण्हकंदे वज्जकंदे सूरकंदे खलडे किमिरासि भद्दे मोत्थापिंडे हलिद्दा लोहारी गी[ठिहु] चिभु अस्सकण्णी सीहकन्नी सीडेंटी मूसंढी जे यावण्णे तहम्पगारा ते समासओ दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा - पज्जन्तगा य अपत्ता । तैसि णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता?, गोयमा। तओ सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा --ओरालिए तेयए कम्मए, तहेव जहा बायरपुढविकाइयाणं, णवरं सरीरोगाहणा जहस्रेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं सातिरेगजोयणसहस्सं, सरीरगा अणित्त्यसंठिता, ठिती जहनेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं दसवाससहस्सारं, जाब दुगतिया तिआगतिया परित्ता अनंता पण्णत्ता, सेतं बायरवणस्सइकाइया, सेतं थावरा ।। (सू० २१) 'से किं तमित्यादि, अथ के ते साधारणशरीरवादरवनस्पतिकायिका: ?, सूरिराह- साधारणशरीरवाद वनस्पतिकायिका अनेक For P&Praise Cnly ~ 56~ tay w Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] श्रीजीवा- विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'आलुए' इत्यादि, एते आलुकमूलकबेरहिरिलिसिरिलिसिस्सिरिलिकिट्टिकाक्षीरिकाक्षीरबिडालिकाक-17 18 प्रतिपत्ती जीवाभि. 18ष्णकन्दवनकन्दसूरणकन्दखल्लूट( कृमिराशि )भद्रमुस्तापिण्डहरिद्रालौहीस्नुहिस्तिभुअश्वकीसिंहकर्णीसि कुंडीमुषण्डीनामानः साधारण-18 साधारणमलयगिवनस्पतिकायिकभेषाः केचिदतिप्रसिद्धत्वात्केचिद्देशविशेषारस्वयमवगन्तव्याः, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चाम्ये तथाप्रकारा: बादरवन रीयावृत्तिः स०२१ एवंप्रकारा अवकपनकसेवालादयस्तेऽपि साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिका: प्रतिपत्तव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि, 'ते' बादरव-| ॥२७॥ नस्पतिकायिकाः समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाच, 'जाव सिय संखेज्जा' इति यावत्करणादेवं परिपूर्णः RAI पाठो द्रष्टव्यः-तत्थ णं जे से अपजत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्थ णं जे ते पजत्तगा तेसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसाएसेणं | फासाएसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखिजाई जोणिप्पमुहसबसहस्साई पजत्तगनिस्साए अपजत्तगा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ सियत संखिजा सिय असंखेजा सिय अणंता" इति, एतत्माग्वत् , नवरं यत्रैको बादरपर्याप्तस्तत्र तन्नित्रयाउपर्याप्ताः कदाचित्सङ्ख्येयाः कदा-11 || चिदसवेयाः कदाचिदनन्ताः, प्रत्येकतरवः सोया असङ्ख्या वा, साधारणास्तु नियमादनन्ता इति भावः । 'तेसि णं भंते ! कइ-15 सरीरगा?' इत्यादिद्वारकलापचिन्तनं बादरपृथिवीकायिकवत् , नवरं संस्थानद्वारे नानासंस्थानसंस्थितानीति वक्तव्यम् । अवगाहनाद्वारे 'उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्स'मिति, तच्च सातिरेकं योजनसहस्रमवगाहनामानमेकस्य जीवस्य बाह्यद्वीपेषु वल्ल्यादीनां समुद्रगोतीर्थेषु च पदानालादीनां, तदधिकोच्छ्यमानानि पद्मानि पृथिवीकायपरिणाम इति वृद्धाः । स्थितिद्वारे उत्कर्षतो दश वर्षसहस्राणि वक्तव्यानि, गत्याग तिसूत्रानन्तरं 'अपरीत्ता अणंता' इति वक्तव्यं, तत्र 'परीत्ता' प्रत्येकशरीरिणोऽसहयेया: 'अपरीत्ता' अप्रत्येकक्षरीरि दीप अनुक्रम [२९] दादीपेष वल्ल्यादीनां समु-रा॥२७॥ 4% ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [२९] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [-], मूलं [२१] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. योऽनन्ताः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन्!, उपसंहारमाह- 'सेतं वादरवणस्सइकाइया, सेत्तं थावरा' इति सुगमम् ॥ उक्ता: स्थावराः, सम्प्रति सप्रतिपादनार्थमाह से किं तं तसा १, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहातेडकाइया बाउकाइया ओराला तसा पाणा ।। (सू० २२) । अथ के वे नसा ?, सूरिराह-प्रसाविविधाः प्रज्ञप्ताः तथथा - तेजस्कायिका वायुकायिका औदारिकत्रसाः, तत्र तेजः - अभिः कायः शरीरं येषां ते तेजस्कायास्त एव स्वार्थिके कप्रत्ययविधानात्ते जस्कायिकाः, वायुः पवनः स कायो येषां ते वायुकायास्त एव वायुकायिकाः, उदाराः स्फारा उदारा एवं औदारिकाः प्रत्यक्षत एवं स्पष्टत्रसत्वनिबन्धनाभिसन्धिपूर्वकगतिलिङ्गतयोपलभ्यमानखात्, तत्र त्रसा द्वीन्द्रियादय: 'औदारिकत्रसाः' स्थूरवसा इत्यर्थः ॥ तत्र तेजस्कायिकप्रतिपादनार्थमाह से किं तं ते काइया १, २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा - मुहमते उक्काया य बादरतेडकाइयाय । (सू०२३) से किं तं माइया १, २ जहा सुमपुढविकाइया नवरं सरीरगा सहकलावसंठिया, एमगया हुआ आ परित्ता असंखेला पण्णत्ता, सेसं तं चेव, सेत्तं सुहुमतउक्काइया ॥ ( सू० २४ ) से किं तं बादरतेकाइया १, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-इंगाले जाले मुम्मुरे जाव सूरकंतमणिनिस्सिते, जे यावन्ने तहपगारा, ते समासतो दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्ता य अपजन्त्ता य । तेसिणं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता?, गोयमा ! तओ सरीरगा पण्णत्ता, तंजा - ओरालिए तेयए कम्मए, सेसं तं चैव, सरीरगा सहकलावसंठिता, तिन्नि लेस्सा, ठिती For P&False City सजीवस्य त्रिविध-भेदाः, तेउकायिक एवं वायुकायिक- जिवानाम् त्रस रूपेण प्ररूपणा अथ तेजस्कायिकानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~ 58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [२३-२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३-२५]] ॥२८॥ दीप अनुक्रम श्रीजीवा- जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उफोसेणं तिन्नि राईदियाई तिरियमणुस्सेहितो उववाओ, सेसं तं चेष एग- प्रतिपत्ती जीवाभि० गतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, सेत्तं तेउकाइया । (सू०२५) त्रसभेदाः मलयगि- अथ के ते तेजस्कायिकाः , तेजस्कायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मतेजस्कायिकाच बादरतेजस्कायिकाच, चशब्दौ पू- ०२२ रीयावृत्तिः शावत् ॥ अथ के ते सूक्ष्मतेजस्कायिका: ?, सूरिराह-सूक्ष्मतेजस्कायिका इत्यादि सूत्रं सर्व सूक्ष्मपृथिवीकायिकवद् वक्तव्यं, नवरं संस्थानद्वारे शरीराणि सूचीकलापसंस्थितानि वक्तव्यानि, च्यवनद्वारेऽनन्तरमुद्धृत्य तिर्यग्गतावेवोत्पद्यन्ते, न मनुष्यगतौ, तेजोवायु | सू०२३लभ्योऽनन्तरोद्धृताना मनुष्यगतावुत्पादप्रतिषेधात् , तथा चोक्तम्-"सत्तैमिमहिनेरइया तेऊ वाऊ अर्णतरुवट्टा । नवि पावे माणुस्स २४-२५ तहेवऽसंखाउया सब्वे ॥१॥" गत्यागतिद्वारे द्वयागतयः, तिर्यग्गतेर्मनुष्यगतेश्च तेषूत्पादात्, एकगतयोऽनन्तरमुत्तानां तिर्यग्गतावेव टू गमनात्, शेषं तथैव, उपसंहारवाक्यं 'सेत्तं सुहुमतेउकाइया' ।। पादरतेजस्कायिकानाह-अथ के ते वादरतेजस्कायिकाः सूरिराह-बादरतेजस्कायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--"इंगाले जाव तत्थ नियमे"त्यादि यावत्करणादेवं परिपूर्णपाठः-1-11 गाले जाला मुम्मुरे अच्ची अलाए सुद्धागणी उक्का विजू असणि निग्याए संघरिससमुट्ठिए सूरकतमणिनिस्सिए, जे बावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्य गं जे ते पज्जत्तगा एएसिणं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखिजाई जोणिप्पमुहस-10 यसहस्साई पजत्तगनिस्साए अपनत्तगा वक्रमति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्जा" इति, अस्य व्याख्या-'अङ्गार' neen १ सप्तमीमहीनैरयिकाः तेजो वायुः अनन्तरोवृत्ताः । नैव प्राप्नुवन्ति मानुष्यं तथैवासंख्यायुषः स ॥१॥ [३१-३३] क ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३-२५] दीप अनुक्रम [३१-३३] प्रतिपत्ति: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [-], मूलं [२३-२५] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः बिगतधूमज्वालो जाज्वल्यमानः खदिरादिः, 'ज्वाला' अनलसंबद्धा दीपशिखेत्यन्ये, 'मुर्मुरः' कुम्फुकान्नौ भस्मामिश्रितोऽग्निकणरूपः 'अर्चिः' अनलाप्रतिबद्धा ज्वाला, 'अलातम्' उल्मुकं, 'शुद्धाग्निः' अयःपिण्डादौ, 'उल्का' चुडुली 'विद्युत्' प्रतीता, 'अशनि: आकाशे पतन्नग्निमयः कणः, 'निर्घातः वैक्रियाशनिप्रपातः 'संघर्षसमुत्थित:' अरण्यादिकाष्ठ निर्मथनसमुत्थः, 'सूर्यकान्तम| णिनिश्रितः' सूर्यखरकिरणसंपर्क सूर्यकान्तमणेर्यः समुपजायते, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये 'तथाप्रकाराः एवंप्रका | रास्तेजस्का विकास्तेऽपि वादरतेजस्कायिकतया वेदितव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि प्राग्वत्, शरीरादिद्वारकलापचिन्ताऽपि सूक्ष्मतेजस्कायिकवत्, नवरं स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि रात्रिन्दिवानि, आहारो यथा वादरपृथ्वीकायिकानां तथा वक्तव्यः, उपसंहारमाह- 'सेतं तेडकाइया' ॥ उक्तास्तेजस्कायिकाः सम्प्रति वायुकायिकानाह— से किं तं वाकाइया १, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - मुहमवाक्काया य बादरवाङकाइया प सुहुमवाडकाइया जहा तेडक्काइया णवरं सरीरा पडागसंठिता एगगतिया दुआगतिया परित्ता असंखिज्जा, सेन्तं सुहुमवाउकाइया । से किं तं बादरवारक्काहया १, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा - पाईणवाए पडीणवाए, एवं जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - पज्जन्ता य अपजत्ता य । ते सि णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा ! चतारि सरीरगा पण्णत्ता, तंजहा–ओरालिए बेउच्चिए तेयए कम्मए, सरीरगा पडागसंठिता, चारि समुग्धाता - वेयणासमुग्धाप कसायसमुग्धाए मारणंतिय समुग्धाए वेडव्वियसमुग्धाए, अथ वायुकायिकानाम् भेदाः प्ररुप्यते For P&Palle Cnly ~60~ te Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [२६] दीप आहारो णिवाघातेणं छद्दिसिं वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसि सिय पंचदिसिं, उव १ प्रतिपत्ती पातो देवमणुयनेरइएमु णत्थि, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि वाससहस्साई, सेसं वायुकायः तं चेव एगगतिया दुआगइया परित्ता असंखेजा पण्णत्ता समणाउसो, सेतं बायरवाक, सेतं सू० २६ वाउक्काइया। (सू०२६) अथ के ते वायुकायिकाः १, सूरिराह-वायुकाविका द्विविधा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मवायुकायिकाच बादरवायुकायिकाच, च-15 शब्दी प्राग्वत् , तत्र सूक्ष्मवायुकायिकाः सूक्ष्मतेजस्कायिकवद्वक्तव्याः, नवरं संस्थानद्वारे तेषां शरीराणि पताकासंस्थानसंस्थितानि | वक्तव्यानि, शेषं तथैव, बादरवायुकायिका अपि एवं चैव-सूक्ष्मतेजस्कायिकवदेव, नवरं भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स || चैवम्-"से किं तं वायरवाउकाइया ?, बायरवाउकाइया अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-पाईणवाए पडीणवाए दाहिणवाए उदीणवाए उड़वाए अहेवाए तिरियवाए विदिसिवाए बाउभामे बाउकलिया मंडलियावाए उकलियावाए गुंजावाए झंझावाए संवट्टगवाए घणवाए तणुबाए सुद्धवाए, जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णता, तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य, तत्थ ण जे ते अपवत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्थ णं जे ते पञ्जत्तगा एएसि वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासाएसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखेजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई, पञ्चत्तगनिस्साए अपजत्तगा बक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इति, अस्य व्याख्या - |-पाईणवाए' इति, य: प्राच्या दिश: समागच्छति वात: स प्राचीनवातः, एवंमपाचीनो दक्षिणवात उदीचीनवातश्च वक्तव्य:,8॥२९ ऊर्ध्वमुद्रच्छन् यो वाति वातः स ऊर्ववातः, एवमधोवाततिर्यग्वातावपि परिभावनीयो, विदिग्वातो यो विदिग्भ्यो वाति, वातो अनुक्रम [३४] ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ............ ...---- उद्देशक:-1, .....................--- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: %956-425% प्रत सूत्रांक [२६] CUSTOMACACTSC++++ म:-अनवस्थितो वातः, वातोत्कलिका समुद्रस्खेव वातस्योत्कलिका बातमण्डलीवात उत्कलिकाभिः प्रचुरतराभिः सम्मिश्रो यो वातः, मण्डलिकावातो मण्डलिकाभिर्मूलत आरभ्य प्रचुरतराभिः सम्मिश्रो यो वातः, गुखाबातो यो गुञ्जन्-शब्दं कुर्वन् वाति, झम्झावातः सवृष्टिः, अशुभनिठुर इत्यन्ये, संवर्तकवातस्तृणादिसंवर्तनस्वभावः, घनवातो धनपरिणामो वातो रत्नप्रभापृथिव्यायधोवी, तनु-| वातो-विरलपरिणामो घनवातस्याधःस्थायी, शुद्धवातो मन्दस्तिमितो, वस्तिहत्यादिगत इत्यन्ये, 'ते समासतो' इत्यादि प्राग्वत्, तथा शरीरादिद्वारकलापचिन्तायां शरीरद्वारे चत्वारि शरीराणि औदारिकवैक्रियतैजसकार्मणानि, चत्वारः समुद्घाता:-वैक्रियवेदनाकषा-13 यमारणान्तिकरूपाः, स्थितिद्वारे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त वक्तव्यमुत्कर्षतस्वीणि वर्षसहस्राणि, आहारो निर्व्याघातेन षड्दिशि, व्याघात प्रतीत्य स्वात्रिदिशि स्याश्चतुर्दिशि स्यात्पञ्चदिशि, लोकनिष्कुटादावपि बादरवातकायस्य सम्भवात् , शेषं सूक्ष्मवातकायवत् , उपसंहारमाह-'सेत्तं वाउकाइया' इति ॥ उक्का वातकायिकाः, सम्प्रत्यौदारिकत्रसानाह से किं तं ओराला तसा पाणा १, २ चउब्बिहा पण्णत्ता, तंजहा-इंदिया तेइंदिया चरिंदिया पंचेंदिया। (सू०२७) अथ के वे औदारिकत्रसाः, सूरिराह-औदारिकत्रसाश्चतुर्विधाः प्राप्ताः, तद्यथा-द्वीन्द्रियात्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः, तत्र द्वे स्पर्शनरसनरूपे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः, त्रीणि स्पर्शनरसनमाणरूपाणि इन्द्रियाणि येषां वे त्रीन्द्रियाः, चत्वारि पर्शनरसनघ्राणचभूरूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः, पश्च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःनोत्ररूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः ॥ तत्र द्वीन्द्रियप्रतिपादनार्थमाह दीप -*-15-%25A4 अनुक्रम [३४] Jaticall औदारिक-त्रसजीवानाम् चतुर्विध-भेदा: ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: -], ---------------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] श्रीजीवाजीवामिन मलयगिरीयावृत्तिः १प्रतिपत्ती सभेदाः (सू० २७) द्वीन्द्रियाः सू०२८ ॥३०॥ दीप से किं तं बेइंदिया ?, २ अणेगविधा पपणत्ता, तंजहा-पुलाकिमिया जाव समुहलिक्खा, जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णता, तंजहा-पजत्ता य अपजत्ता य। तेसिणं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ?, गोयमा! तओ सरीरगा पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए । तेसि णं भंते ! जीवाणं के महालिया सरीरओगाहणा पण्णता ?, जहल्लेणं अंगुलासंखेजभागं उकोसेणं बारसजोयणाई छेवट्टसंघयणा हंडसंठिता, चत्तारि कसाया, चत्तारि सण्णाओ, तिपिण लेसाओ, दो इंदिया, तओ समुग्घाता-वेयणा कसाया मारणंतिया, नोसन्नी असन्नी, णपुंसकवेदगा, पंच पज्जत्तीओ, पंच अपज्जत्तीओ, सम्मदिट्टीवि मिच्छदिट्ठीवि नो सम्ममिच्छदिट्ठी, णो ओहिदसणी णो चक्खुदसणी अचक्खुदंसणी नो केवलदसणी । तेणं भंते! जीवा किं णाणी अण्णाणी?, गोयमा! णाणीवि अण्णाणीवि, जे णाणी ते नियमा दुण्णाणी, तंजहा-आमिणिबोहियणाणी सुयणाणी य, जे अन्नाणी ते नियमा दुअण्णाणी-मतिअण्णाणी य सुपअण्णाणी य, नो मणजोगी बहजोगी कायजोगी, सागारोवत्तावि अणागारोवउत्तावि, आहारो नियमाछदिसिं, उववातो तिरियमणुस्सेसु नेरइयदेवअसंखेजवासाउयवजेसु, ठिती जहनेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं बारस संवच्छराणि, समोहतावि मरंति असमोहतावि मरंति, कर्हि अनुक्रम [३६] ॥३०॥ अथ द्वि-इन्द्रियजीवानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~634 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : 1............................-- उद्देशक: -1, ...........................- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] .. गच्छंति?, नेरइयदेवअसंखेजवासाउअवजेसु गच्छंति, दुगतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेजा, सेत्तं वेइंदिया ॥ (सू०२८) | 'से कि तमित्यादि, अथ के ते द्वीन्द्रियाः १, सूरिराह-द्वीन्द्रिया अनेक विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'पुलाकिमिया जाब समुहलिक्खा' इति यावत्करणारे परिपूर्णपाठो द्रष्टव्यः-पुलाकिमिया कुच्छिकिमिया गंडूयलगा गोलोमा नेउरा सोमंगलगा 4-1 सीमुहा सूईमुहा गोजलोया जलोया जालायुसा संखा संखणगा घुल्ला खुल्ला बराडा सोत्तिया मोत्तिया कडयावासा एगतोवत्ता दुहतोवत्ता नंदियावत्ता संचुका माइवाहा सिप्पिसंपुडा चंदणा समुद्दलिक्खा इति" अस्य व्याख्या-पुलाकिमिया' नाम | पायुप्रदेशोत्पन्नाः कृमय: 'कुक्षिकमयः' कुक्षिप्रदेशोत्पन्नाः 'गण्डोयलका:' प्रतीताः 'शङ्खाः' समुद्रोद्भवास्तेऽपि प्रतीताः 'शङ्खनका:' त| मएच लघवः 'घुल्ला:' धुलिकाः 'खुल्लाः' लघवः शङ्खाः सामुद्रशङ्काकाराः 'वराटाः' कपर्दाः 'मातृवाहाः' कोद्रवाकारतया ये कोद्रवा| इति प्रतीताः 'सिप्पिसंपुढा' संपुटरूपाः शुक्तय: 'चन्दनकाः' अक्षाः, शेषास्तु यथासम्प्रदाय वाच्याः, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकारा:-एवंप्रकाराः मृतककलेवरसम्भूतकृम्यादयस्ते सव्वें द्वीन्द्रिया ज्ञातव्याः, ते समासतों इत्यादि, ते द्वीन्द्रियाः समासत:' सझेपेण द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अपर्याप्ताः पर्याप्ताश्च । शरीरद्वारेऽमीषा त्रीणि शरीराणि-औदारिकं तैजसं कार्मणं च, अवगाहना जघन्यतोऽनुलासङ्ख्येयभागमात्रा उत्कृष्टा द्वादश योजनानि, संहननद्वारे छेदवर्तिसंहननिनः, अत्र संहननं मुख्पमेव द्रष्टव्यम् , अस्थिनिचयभावात् , संस्थानद्वारे हुण्डसंस्थानाः, कषायद्वारे चत्वारः कषायाः, सज्ञाद्वारे चतम आहारादिकाः सज्ञाः, लेण्याद्वारे आवास्तिस्रो लेश्याः, इन्द्रियद्वारे द्वे इन्द्रिये, तद्यथा-स्पर्शनं रसनं च, समुदूपातद्वारे प्रयः समुद्घाताः, - दीप अनुक्रम [३६] JEscam ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [३६] श्रीजीवा- यथा-वेदनासमुद्धातः कषायसमुद्घातो मारणान्तिकसमुद्घातश्च, सज्ञाद्वारे नो सम्झिनोऽसचिनः, वेदद्वारे नपुंसकवेदाः, प्रतिपत्ती जीवाभि मूछिमखात्, पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्याप्तयः पञ्चापर्याप्तयः, दृष्टिद्वारे सम्यग्दृष्टयो मिध्यादृष्टयो वा, न सम्यग्मिध्यादृष्टयः, कथम् द्वीन्द्रियाः मलयगि-15 इति चेत् उच्यते, इह घण्टाया वादितावां महान् शब्द उपजायते, तत उत्तरकालं हीयमानोऽवसाने लालामात्रं भवति, एवममुना सु०२८ रीयावृत्ति घण्टालालान्यायेन किञ्चित्सास्वादनसम्यक्त्वशेषाः केचिद् द्वीन्द्रियेषु मध्ये उत्पद्यन्ते, ततोऽपर्याप्तावस्थायां कियत्कालं सास्वादनस म्यक्त्वसम्भवात् सम्यग्दृष्टित्वं, शेषकालं मिध्यादृष्टिता, यत्तु सम्यग्मिध्यादृष्टित्वं तन्न संभवति, तथाभवखभावतया तथारूप॥३१॥ II परिणामायोगात , नापि सम्यग्मिध्यादृष्टिः सन् तत्रोत्पद्यते 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' इति वचनात् , दर्शनद्वारं प्राग्वत् , ज्ञा नद्वारे ज्ञानिनोऽप्यज्ञानिनोऽपि, तत्र ज्ञानिलं सास्वादनसम्यक्त्वापेक्षया, ते च ज्ञानिनो नियमाद् द्विज्ञानिनो, मतिश्रुतज्ञानमात्रभावात् , अज्ञानिनोऽपि नियमाद् द्वयज्ञानिनो, मत्यज्ञान ताज्ञानमात्रभावात् , योगद्वारे न मनोयोगिनो वाग्योगिनोऽपि काययोगिनोऽपि, उपयोगद्वार पूर्ववत् , आहारो नियमान् षड्दिशि, सनाड्या एवान्तीन्द्रियादीनां भावात् , उपपातो देवनारकासातव युष्कवर्जेभ्यः शेषतिर्यग्मनुष्येभ्यः, स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो द्वादश वर्षाणि, समवहतद्वारं प्रागिक, व्यवनद्वारे देवना|रकासयातवर्षायुष्कवर्जितेषु शेषेषु तिर्यग्मनुष्येष्वनन्तरमुद्धृत्य गमनम् , अत एव गत्यागतिद्वारे व्यागतिका द्विगतिकाः तिर्यग्मनुष्वगत्यपेक्षया, 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणः, असङ्ख्येया घनीकृतस्य लोकस्य या अर्ध्वाध आयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽसधेययोजनकोटाको-15 टीप्रमाणाकाशसूचिगतप्रदेशराशिप्रमाणा: तावत्प्रमाणत्वात् , प्रज्ञप्ता: हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं बेइंदिया। उक्ता द्वीन्द्रिया:, अधुना त्रीन्द्रियानाह 9 9-% % *-*- ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३७] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [१], उद्देशक: [-], मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ..आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Join *%% % छ से किं तं तेइंदिया १, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा - ओवइया रोहिणीया हत्थिसोंडा, जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुबिहा पण्णसा, तंजहा - पज्जन्त्ता य अपज्जत्ता य, तहेब जहा बेदियाणं, नवरं सरीरोगाहणा उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई, तिन्नि इंडिया, ठिई जहन्त्रेणं अंतोमहु उक्कोसेणं एगूणपण्णराइंदिया, सेसं तहेव, दुगतिया दुआगतिया, परिता असंखेला पण्णत्ता, सेतं तेइंदिया ॥ ( सू० २९ ) अथ केते त्रीन्द्रिया:?, सूरिराह -त्रीन्द्रिया अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- 'भेदो जहा पण्णवणाएं' भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स चैवम् — “डवविया रोहिणिया कुंथूपिवीलिया उद्देसगा उद्देहिया उकलिया तणहारा कट्टद्वारा पत्तहारा मालुया पत्तहारा तणर्बेटका पत्तवेंटया फलवेंटया तेम्बुरुमिंजिया तउसमिंजिया कप्पासद्विमिंजिया झिल्लिया झिंगिरा झिगिरिडा वाहुया [अन्धायम् १००० ] मुरगा सोबन्धिया सुयवेंटा इंदकाइया इंदगोवया कोत्थलवाहगा हालाहला पिसुया तसवाइया गोन्ही हत्थिसोंडा ॥” इति एते च | केचिदतिप्रतीताः केचिदेशविशेषतोऽवगन्तव्याः, नवरं 'गोम्ही' कण्हसियाली, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये 'तथाप्रकारा:' एवंप्रकारास्ते सर्वे श्रीन्द्रिया ज्ञातव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि समस्तमपि सूत्रं द्वीन्द्रियवत्परिभावनीयं, नवरमवगाहनाद्वारे उत्कर्षतोऽवगाहना त्रीणि गव्यूतानि । इन्द्रियद्वारे त्रीणि इन्द्रियाणि । स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षत एकोनपञ्चाशद् रात्रिन्दिवानि, शेषं तथैव, उपसंहारमाह--'सेत्तं तेइंदिया ॥' उक्तास्त्रीन्द्रियाः, सम्प्रति चतुरिन्द्रियप्रतिपादनार्थमाह से किं तं चरिंदिया १, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा - अंधिया पुत्तिया जाव गोमयकीडा, जे अथ त्रि एवं चतुर् इन्द्रियजीवानाम् भेदाः प्ररुप्यते For P&Praise Cinly ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्तौ त्रिचतुरिन्द्रियाः सू० २९ पश्चान्द्रयार सू०११ दीप श्रीजीवा- यावणे तहप्पगारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य, तेसि गं जीवाभि भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता, गोयमा ! तओ सरीरगा पण्णत्ता तं चेव, णवरं सरीमलयगि-15 रोगाहणा उकोसेणं चत्सारि गाउयाई, इंदिया चत्तारि, चक्खुदसणी अचक्खुदसणी, ठिती जुरीयावृत्तिः कोसेणं छम्मासा, सेसं जहा तेइंदियार्ण जाव असंखेजा पपणत्ता, से तं चउरिदिया ॥ (सू०३०) अथ के ते चतुरिन्द्रिया:?, सूरिराह-चतुरिन्द्रिया अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-"अंधिया पुत्तिया मच्छिया मगसिरा ॥३२॥ || कीडा पयंगा टॅकणा कहा कुकडा नंदावत्ता झिगिरिडा किण्हपत्ता नीलपत्ता लोहियपत्ता हालिहपत्ता सुकिलपत्ता वित्तपक्या विचि- तपक्खा ओहंजलिया जलचारिया गंभीरा नीणिया तंतवा अच्छिरोडा अच्छिवेहा सारंगा नेउरा डोला भमरा भरिलि जरला विरङ्गया | पत्तविच्छुया छाणविच्छुया जलबिच्छुया सेइंगाला कणगा गोमयकीडगा” एते लोकतः प्रत्येतन्याः, जे यावण्णे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये 'तथाप्रकाराः' एवंप्रकारास्ते सर्वे चतुरिन्द्रिया विज्ञेयाः, 'ते समासतो' इत्यादि सकलमपि सूत्र द्वीन्द्रियवदावनीयं, नवरमवगाहनाद्वारे उत्कर्षतोऽवगाहना चत्वारि गब्यूतानि । इन्द्रियद्वारे स्पर्शनरसननाणचक्षुर्लक्षणानि चलारीन्द्रियाणि । स्थितिद्वारे | उत्कर्षत: स्थितिः षण्मासा:, शेषं तथैव, उपसंहारमाह-'सेत्तं चउरिंदिया । सम्प्रति पञ्चेन्द्रियान् प्रतिषिपादयिषुराह से किं तं पंचेदिया?, २ चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा-रेतिया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा ॥ (सू०३१) अथ के ते पञ्चेन्द्रियाः १, सूरिराह-पञ्चेन्द्रियाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नैरयिकास्तिर्यग्योनिका मनुष्या देवाः, तत्र अयम् अनुक्रम [३८] 11३२ + JaEAMIN अथ पञ्च-इन्द्रियजीवानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] % 85% दीप अनुक्रम [३९] इष्टफलं कर्म निर्गतमयं येभ्यस्ते निरया-नरकावासास्तेषु भवा नैरयिकाः, अध्यामादेराकृतिगणवादिकणप्रत्ययः । तिर्यगिति प्रायस्तियंगलोके योनयतिर्यग्योनयनत्र जातास्तिर्यग्योनिजाः, यदिया तिर्यग्योनिका इति शब्दसंस्कारः, तत्र तिर्यगिति प्रायस्तिर्यग्लोके योनय:-उत्पत्तिस्थानानि येषां ते तिर्यग्योनिकाः । मनुरिति मनुष्यस्य सज्ञा, मनोरपत्यानि मनुष्याः, जातिशब्दोऽयं राजन्यादिशब्दवत् । दीव्यन्तीति देवाः ।। तन्त्र नैरविकप्रतिपादनार्थमाह से किंत नेरहया, २ सत्सविहा पण्णत्ता, तंजहा-यणप्पभापुढविनेरइया जाव अहे सत्तमपुदविनेरहया, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं-पज्जत्ता य अपजत्ता य । तेसि णं भंते जीवाणं कति सरीरगा पण्णता?, गोयमा! तओ सरीरया पण्णत्ता, तंजहा-वेउम्बिए तेथए कम्मए । तेसि णं भंते। जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता, गोपमा! दुविहा सरीरोगाहणा पण्णत्ता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्विया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहणणं अंगुलस्स असंखेजो भागो उक्कोसेणं पंचधणुसयाई, तत्थ णं जा सा उत्तरउब्बिया सा जहपणेणं अंगुलस्स संखेजतिभागं उकोसेणं धणुसहस्सं । तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसंघयणी पण्णता ?, गोयमा! छपहं संघपणाणं असंघयणी, णेवट्ठी व छिराणेष पहारु णेव संघयणमस्थि, जे पोग्गला अणिट्टा अर्कता अप्पिया असुभा अमणुण्णा अमणामा ते तेसि संघातत्ताए परिणमंति । तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसंठिता पण्णता ?, गोयमा ! दुविहा . अथ नैरयिक-जीवानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलय गिरीयावृत्तिः [३२]] ॥३३॥ दीप पपणत्ता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्बिया य,तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया, . ४१ प्रतिपत्तौ तत्थ णं जे ते उत्तरवेविया तेवि हुंडसंठिता पण्णत्ता, चत्तारि कसाया चत्तारि सपणाओ नारकाः तिण्णि लेसाओ पंचेंदिया चत्तारि समुग्धाता आइल्ला, सन्नीवि असन्नीवि, नपुंसकवेदा, छप्प ३२ जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, तिविधा दिट्ठी, तिन्नि दंसणा, णाणीवि अपणाणीवि, जे णाणी ते नियमा तिन्नाणी, तंजहा-आभिणियोहियणाणी सुतणाणी ओहिनाणी, जे अण्णाणी ते अत्धेगतिया दुअण्णाणी अत्थेगतिया तिअण्णाणी, जे य दुअण्णाणी ते णियमा मइअण्णाणी सुयअपणाणी य, जे तिअण्णाणी ते नियमा मतिअण्णाणी य सुयअपणाणी य विभंगणाणी घ, तिविधे जोगे, दविहे उवओगे, छहिसिं आहारो, ओसणं कारणं पडच वण्णतो कालाई जाव आहारमाहारैति, उववाओ तिरियमणुस्सेसु, ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसेणं तित्तीसं सांगरोवमाई, दुविहा मरंति, उबवणा भाणियब्वा जतो आगता, णवरि संमुच्छिमेसु पडिसिद्धो, दुगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेना पण्णत्ता समणाउसो!, से तं नेरइया ॥ (सू०३२) अथ के ते नैरविकाः', सूरिराह-रयिकाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-रत्नप्रभापूथिवीनरयिका यावत्करणात शर्कराप्रभापूथियी-IN || नरयिकाः बालुकाप्रभावित्रीनरयिकाः पङ्कप्रभागृषिवीनरयिकाः धूमप्रभापृथिवीनैरयिका: तमःप्रभापूथिवीनैरयिका इति परिप्रहः । अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकाः, ते समासतो' इत्यादिपर्याप्तापर्याप्तसूत्र सुगमम् । शरीरादिद्वारप्रतिपादनार्थमाह-'तेसि णं भंते !' इत्यादि,8 अनुक्रम ACCURATES [४०] Jatica ll ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ...---------------------- मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] दीप सुगम नवरं भवप्रत्ययादेव तेषां शरीरं वैक्रियं नौदारिकमिति बैक्रियतैजसकार्मणानि त्रीणि शरीराण्युक्तानि । अवगाहना तेषां द्विधाभवधारणीया उत्तरवैकुर्विकी च, तत्र यया भवो धार्यते सा अवधारणीया, बहुलवचनात्करणेऽनीयप्रत्ययः, अपरा भवान्तरवैरिनारकप्रतिघातनार्थमुत्तरकालं या विचित्ररूपा वैक्रयिकी अवगाहना सा उत्तरवैकुर्विकी, तत्र या सा भवधारणीया सा जपन्यतोऽङ्गलासमयेयभागः, स चोपपातकाले वेदितव्यः, तथाप्रयत्नभावात् , उत्कर्षतः पञ्चधनुःशतानि, इदं चोत्कर्षतः प्रमाणं सप्तमपृथिवीमधिकृत्य वेदितव्यं, प्रतिप्रथिवि तूत्कर्षतः प्रमाणं सहणिटीकातो भावनीवं, तत्र सविस्तरमुक्तत्वात् , उत्तरवैकुर्विकी जघन्यतोऽङ्गलसहयेयभागो न त्वसयेयभागः, तथाप्रयाभावात् , उत्कर्षतो धनु:सहस्रमिति, इदमप्युत्कर्षपरिमाणं सप्तमनरकपृथिवीमधिकृत्य वेदितव्यं, प्रतिपथिवि तु सङ्ग्रहणिटीकातः परिभावनीयं, संहननद्वारे 'तेसि णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! षण्णां संहनना नामन्यतमेनापि संहननेन तेषां शरीराण्यसहननानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्, कस्मादसंहननानि ' इति चेद् अत आह-ने४ वट्ठी' इत्यादि, नैव तेषां शरीराणामस्थीनि, नैव शिरा-धमनिनाइयो, नापि स्नायूनि-शेषशिराः, अस्थिनिचयात्मकं च संहननमतोs& स्थ्यायभावादसंहननानि शरीराणि, इयमत्र भावना-इह तत्त्ववृत्त्या संहननमस्थिनिचयामक, यत्तु प्रागेकेन्द्रियाणां सेवार्तसंहननमभ्य धायि तदादारिकशरीरसम्बन्धमात्रमपेक्ष्यौपचारिक, देवा अपि बदन्यत्र प्रज्ञापनादौ वनसंहननिन उच्यन्ते तेऽपि गौणवृत्त्या, तथाहि-इह बादशी मनुष्यलोके चक्रवर्त्यादेविशिष्टवर्षभनाराचसंहननिनः सकलशेषमनुष्यजनासाधारणा शक्ति: "दोसोला बत्तीसा सब्वबलेणं तु संकलनिबद्ध"मित्यादिका, ततोऽधिकतरा देवानां पर्वतोत्पाटनादिविषया शक्तिः श्रूयते न च शरीरपरिक्लेश इति तेऽपि वकसंहननिन इव वनसंहननिन उक्ता न पुनः परमार्थतस्ते संहननिनः, ततो नारकाणामस्थ्यभावात्संहननाभावः, एतेन योऽपरिणतभग अनुक्रम [४०] ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मतिपत्ती नारकाः प्रत सूत्रांक सू० ३२ [३२]] दीप श्रीजीवा- 1वसिद्धान्तसारो वावदूकः सिद्धान्तबाहुल्यमामनः ख्यापयन्ने प्रललाप-'सुत्ते सत्तिविसेसो संघयणमिहऽद्विनिचयो"ति, इति सोऽपा- जीवाभिकीर्णो द्रष्टव्यः, साक्षादत्रैव सूत्रे अस्थिनिश्चयात्मकस्य संहननस्याभिधानात् , अध्यभावे संहननप्रतिषेधादिति । अपरस्त्वाह-नैरयिकामलयगि लणामस्थ्यभावे कर्थ शरीरबन्धोपपत्तिः १, नैष दोषः, तथाविधपुदलस्कन्धवत् शरीरबन्धोपपत्तेः, अत एवाह-'जे पोग्गला अणिवा रीयावृत्तिः इत्यादि, ये पुद्गला: 'अनिष्टाः' मनस इच्छामतिक्रान्ताः, तत्र किश्चित्कमनीयमपि केषाश्चिदनिष्टं भवति तत आह-न कान्ता: अ-18 कान्ता-अकमनीयाः, अत्यन्ताशुभवर्णोपेतत्वात् , अत एव न प्रियाः, दर्शनापातकालेऽपि न प्रियबुद्धिमालन्युत्पादयन्तीति भावः, ॥३४॥ 'अशुभाः' अशुभरसगन्धस्पर्शालकत्वात् , 'अमनोशा:' न मनःप्रहादहेतवो, विपाकतो. दुःखजनकलात् , अमनापा:-- जातुचिदपि भोज्यतया जन्तूनां मनास्याप्नुवन्तीति भावः, ते तेषां 'सङ्घातत्लेन' तधारूपशरीरपरिणतिभावेन परिणमन्ति । संस्थानद्वारे तेषां शरीराणि भवधारणीयानि उत्तरवैकुर्विकाणि च हुण्डसंस्थानानि वक्तव्यानि, तथाहि-भवधारणीयानि तेषां शरीराणि भवस्वभावत एवं निर्मूलबिलुप्तपक्षोत्पाटितसकलपीवादिरोमपक्षिशरीरकवदतिबीभत्सहुण्डसंस्थानोपेतानि, यान्यप्युत्तरवैक्रियाणि तानि यद्यपि शुभानि वयं विकुर्विघ्याम इत्यभिसन्धिना विकुक्तुिमारभन्ते तथाऽपि तानि तेषामत्यन्ताशुभतथाविधनामफमोदयतोऽतीवाशुभतराण्युपजायन्ते इति तान्यपि हुण्डसंस्थानानि । कषायद्वारं सज्ञाद्वारं च प्राग्वत्, लेश्याद्वारे आद्यास्तिस्रो लेश्याः, तत्राययोईयोः पृथिव्योः कापोतलेश्या, तृतीयस्यां पृथिव्यां केधुचिन्नरकावासेषु कापोतलेश्या शेषेषु नीललेश्या, चतुयो नीललेश्या, पञ्चम्यां केषुचिन्नरकावासेषु नीललेश्या, शेषेषु कृष्णलेश्या, षष्ठयां कृष्णलेश्या, सप्तम्यां परमकृष्णलेश्या, उक्त व्याख्यामज्ञप्ती-काऊ य दोसु तइ १ कापोती न इयोस्तृतीयस्यां मिश्रा नीला चतुयौं । पम्या मिधा कृष्णा ततः परमकृष्णा ॥१॥ अनुक्रम [४०] ॥३४॥ ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ...---------------------- मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 45 प्रत सूत्रांक [३२] याएँ मीसिया नीलिया चउत्थीए पंचमियाए । मीसा कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥ १॥” इन्द्रियद्वारे पश्च इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनमाणचक्षुःोत्रलक्षणानि । समुद्घातद्वारे चत्वारः समुद्घाता:-वेदनासमुद्धातः कषायसमुद्घातो वैक्रियसमुद्घातो मारणान्तिकसमुद्घातश्च । सब्जिद्वारे सजिनोऽसम्झिनश्च, तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तिकेभ्य उत्पन्नास्ते सब्जिन इति ध्यपदिश्यन्ते, ये तु संगूछनजे-- भ्यस्तेऽसब्ज्ञिनः, ते च रत्नप्रभायामेवोत्पद्यन्ते न परतः, अनाशयाशुभक्रियाया दारुणाया अध्यनन्तरविपाकिन्या एतावन्मात्रफलत्वात् , अत एवाहुर्घद्धा:-अस्सन्नी खलु पढमं दो व सिरीसवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउत्थि उरगा पुण पंचमि पुढवि ।।१।। छटुिं य इस्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि पुढविं । एसो परमोगाओ योद्धब्बो नरय पुढवीसु ॥२॥" वेदद्वारे नपुंसकवेदाः । पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्याप्तयः पञ्चापर्याप्तयः । रष्टिद्वारे त्रिविधदृष्टयोऽपि, तद्यथा-मिध्यादृष्टयः सम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिध्यादृष्टयश्व, दर्शनदि द्वारे त्रीणि दर्शनानि, तयथा-चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं च । ज्ञानद्वारे झानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि, तत्र ये शानिनस्ते नियमा विज्ञानिनः, तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च, वेऽत्राज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश्च, एष चात्र भावार्थ:-ये नारका असञ्जिनस्तेऽपर्याप्तावस्थायां षज्ञानिन: पर्याप्तावस्थायां तु व्यज्ञानिन: सब्जिनस्तूभय्यामप्यवस्थायां दव्यज्ञानिनः, असजिभ्यो पुत्पद्यमानास्तथाबोधमान्द्यादपर्याप्तावस्थायां नाव्यक्तमप्यवधिमानुवन्तीति । योगोपयोगाहारद्वाराणि प्रतीतानि । उपपातो यथा व्युत्क्रान्तिपदे प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यन्मनुष्येभ्योऽसङ्ख्यातवर्षायुष्कवर्जेभ्यो वक्तव्यो, असंक्षिनः खळ प्रथम द्वितीयां च सरीरापास्तृतीयां पक्षिणः । सिंहा यान्ति चतुर्थी उरगाः पुनः पञ्चमी पृथ्वीम् ॥ १॥ षष्टी पश्रियः मत्स्या मनुष्याच सप्तमी पृथ्वीम् । एष परम उत्पादो बोदव्यो नरकपृथ्वीयु ॥२॥ SACANCERSSCSC दीप अनुक्रम [४०] A E%E0%A4%ACES ~ 72 ~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्ती पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदाः सू०३३ [३२]] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- SIन शेषेभ्य इति भावः । स्थितिर्जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । समुद्धातमधिकृत्य मरणचिन्ता प्राग्वत् ।। जीवाभि. उद्वर्तनाचिन्ता यथा व्युत्क्रान्तिपदे प्रज्ञापनायां कृता तथा बक्तव्या, अनन्तरमुद्धृत्य सब्ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यानुष्येवसङ्ख्यातवर्षायुष्कमलयगि- वर्जितेष्वागच्छन्तीति भावः, अत एव गत्यागतिद्वारे दूधागतिका द्विगतिकाः, 'परीत्ताः' प्रत्येकशीरिणोऽसयेयाः प्राप्ताः, हे श्रमण ! हे रीयावृत्तिः आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं नेरइया' । उक्ता नैरयिकाः, सम्प्रति तिर्यक्ष चेन्द्रियानाह से किं तं पंचेंदियतिरिक्खजोणिया?, २ दुविहा पण्णता, तंजहा-समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्ख जोणिया य गम्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य॥ (सू०३३) 81 अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, सूरिराह-पथेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संमूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिवन्यो-| निका गर्भव्युत्क्रान्तिकपचेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच, तत्र संमूर्छनं समूच्छों-गर्भोपपातव्यतिरेकेणैव यः प्राणिनामुत्पादस्तेन निर्वृत्ताः सं मूछिमाः, 'भावादिम' इति इमप्रत्ययः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, गर्ने व्युत्क्रान्तिः-उत्प४ तिर्येषां यदिवा गर्भाद्नार्भवशाद व्युत्क्रान्ति:-निष्क्रमणं येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, से च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानेति विशेषसमासः, चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ ॥ से किं तं समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया?.२तिविहा पपणसा, तंजहा-जलपरा धलपरा खहयरा ॥ (सू०३४)। से किं तं जलयरा ?, २ पंचविधा पपणत्ता, तंजहा-मच्छगा कच्छभा मगरा गाहा सुसुमारा । से किं तं मच्छा, एवं जहा पपणवणाए जाय जे यावपणे तहप्पगारा, [४०] अथ पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक-जीवानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~73~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [३४-३५] दीप अनुक्रम [४२-४३] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) ----- उद्देशक: [ - ], मूलं [ ३४-३५] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्ति: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... Jan Ehem ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- पज्जन्ता य अपज्जन्त्ता य । तेसि णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ?, गोयमा । तओ सरीरया पण्णत्ता, तंजहा—ओरालिए तेयए कम्मए, सरीरोगाहणा जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं छेवट्टसंघपणी हुंडर्सठिता, चार काया, सण्णाओवि ४, लेसाओ ५, इंदिया पंच, समुग्धाता तिष्णि णो सण्णी असण्णी, णपुंसकवेदा, पजत्तीओ अपज्जतीओ य पंच, दो दिडिओ, दो दंसणा, दो नाणा दो अन्नाणा, दुधे जोगे, दुविधे उबओगे, आहारो छद्दिसिं, उववातो तिरियमणुस्सेहिंतो नो देवेहिंतो नो नेरइएहिंतो, तिरिएहिंतो असंखेजवासा उवज्जेसु, अकम्मभूमग अंतरदी वगअसंखेज्जवासवसु मस्से, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुत्र्वकोडी, मारणंतिय समुग्धातेणं दुविहावि मरंति, अनंतरं उच्चद्वित्ता कहिं ?, नेरइएसवि तिरिक्खजोगिएसुवि मणुस्सेसुवि देवेसुनेर रणपहाए, सेसेसु पडिसेधो, तिरिएस सब्र्व्वसु उववज्जति संखेज्जवासा सुवि असंखेज्जवासाउएसुवि चउप्पएसु पक्खीसुवि मणुस्सेसु सव्वैसु कम्मभूमीसु नो अकम्मभूमीएस अंतरदीव एसुवि संखिज्जवासाउएसुवि असंखिज्जवासाउएसुवि देवेसु जाव वाणमंतरा, चउगइया दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता । से तं जलयरसंमुच्छिमपंचेंद्रियतिरिक्खा || (सू० ३५) अथ के ते संमूमिपचेन्द्रियतिर्यग्योनिका ?, सूरिराह-संमूर्च्छिमपचेन्द्रियतिर्यग्योनिकास्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, वयथा - जलचराः For P&Pase Cnly ~74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३४-३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक E [३४-३५]] % दीप श्रीजीवा- स्थलचराः खचराः, तत्र जले चरन्तीति जलचराः, एवं स्थलचरा खचरा अपि भावनीवाः ।। अथ के ते जलचराः?, सूरिराह-जल- १ प्रतिपत्ती जीवाभिचराः पञ्चविधा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मत्स्याः कच्छपा मकरा पाहा: शिशुमारा:, 'एवं मेओ भाणियव्यो जहा पण्णवणाए जाव सुसुमारासंमूछिममलयगि-1 | एगागारा पन्नत्ता' इति, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण मत्स्यादीनां भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स च तावद् यावत् "सिसुमारासमूच्छिमरीयावृत्तिः एगागारा इतिपदं, स चैवम-से किं तं मच्छा, मच्छा अणेगविहा पण्णता, तंजहा-सहमच्छा खवलमच्छा जुगमच्छा भिभिय- जलचराः मच्छा हेलियमच्छा मंजरियामच्छा रोहियमच्छा हलीसागारा मोगरावडा वडगरा तिमीतिमिगिलामच्छा तंदुलमन्छा कणिकमाछा सु०३५ सिलेच्छियामच्छा लंभणमच्छा पडागा पडागाइपडागा, जे यावण्णे तहप्पगारा, से तं मच्छा । से किं तं कच्छभा?, कच्छभा दुविहा। पण्णत्ता, तंजहा-अढिकन्छभा य मंसलकच्छभा य, से तं कच्छभा । से किं तं गाहा ?, गाहा पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-दिली वेढगा मुदुगा पुलगा सीमागारा, सेत्तं गाहा । से किं तं मगरा?, मगरा दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा-सोडमगरा व मट्ठमगरा य, सेतं मगरा । से किं तं सुसुमारा?, २ एगागारा पण्णत्ता, सेत्तं सुसुमारा" इति, एते मत्स्यादिभेदा लोकतोऽवगन्तव्याः, 'जे यावष्णे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये 'तथाप्रकाराः' उक्तप्रकारा मत्स्यादिरूपाः, ते सर्वे जलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्रष्टव्याः । 'ते समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्र सुगम, शरीरादिद्वारकदम्बकमपि चतुरिन्द्रियवद्भावनीयं, नवरमवगाहनाद्वारे जघन्यतोऽवगाहना अङ्गुलासहयेयभागमात्रा, उत्कर्षतो योजनसहस्रम् । इन्द्रियद्वारे पञ्चेन्द्रियाणि । सज्जिद्वारे नो सम्झिनोऽसब्जिनः, संमूछिमतया समनस्कत्वायो ॥३६॥ गात् । उपपातो यथा व्युत्क्रान्तिपदे तथा वक्तव्यः, तिर्यग्मनुष्येभ्यो ऽससवातवर्षायुष्कवयेभ्यो वाच्य इति भावः । स्थिति धन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षत: पूर्वकोटी । च्यवनद्वारेऽनन्तरमुगृत्स्य चत्तमृध्वपि गतिपूत्पद्यन्ते, तत्र नरकेषु रत्नप्रभायामेव, तिर्यक्षु सर्वेष्वेव, मनु अनुक्रम [४२-४३] ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३४-३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४-३५]] प्राध्येषु कर्मभूमिजेषु, देवेषु व्यन्तरभवनवासिपु, तदन्येष्वसङ्ग्यायुष्काभावात् , अत एव गयागतिद्वारे चतुर्गतिका वषागतिकाः, 'प रीताः' प्रत्येकशरीरिणोऽसङ्खयेया: प्रज्ञमा: हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-सेत्तं समुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजो[णिया' । उक्ता: संमूछिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, सम्प्रति संमूछिमस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकप्रतिपादनार्थमाह से किं तं थलयरसमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया?.२ विहा पण्णता, तंजहा-चप्पयथलपरसंमुकिछमपंचेदियतिरिक्खजोणिया परिसप्पसंमु० ॥ से तिं थलयरचउप्पयसमुच्छिम०१, २ चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा-एगखुरा दुखुरा गंडीपया सणफया जाव जे यावणे तहप्पकारा ते समासतो दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्सा य अपजत्ता य, तओ सरीगा ओगाहणा जहपणेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं ठिती जहणेणं अंतोमुहुरतं उकोसेणं चउरासीतिवाससहस्साई, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेजा पण्णत्ता, सेत्तं थलयरचउप्पदसंमु० से किं तं थलयरपरिसप्पसंमुच्छिमा?,२ दुविहा पण्णता, तंजहा-उरगपरिसप्पसमुच्छिमा भुयगपरिसप्पसंमुच्छिमा। से किं तं उरगपरिसप्पसंमुच्छिमा?,२ चउव्विहा पण्णत्ता, तंजहा-अही अयगरा आसालिया महोरगा । से किंतं अही?, अही दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-दब्बीकरा मउलिणो य । से किं तं दधीजी०स०७ करा?, २ अणेगविधा पपणत्ता, तंजहा-आसीविसा जाव से तं व्धीकरा । से किं तं मउ 5%95%25A4%E दीप अनुक्रम [४२-४३] -4-% E ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [४४] प्रतिपत्तिः [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [-], मूलं [ ३६ ] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३७ ॥ लिणो ?, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा - दिव्या गोणसा जाव से तं मउलिणो, सेत्तं अही । से किं तं अथगरा?, २ एगागारा पण्णत्ता से तं अथगरा । से किं तं आसा लिया, २ जहा पण्णवणाए, से तं आसालिया । से किं तं महोरगा १, २ जहा पण्णवणार, से तं महोरगा । जे यावणे तहप्पगारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा–पञ्जन्त्ता य अपजत्ता य तं चेव, णवरि सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्सऽसंखेज • उक्कोसेणं जोयणपुहुत्तं, ठिई जहनेणं अंतोमुत्तं उकोसेणं तेषणं वाससहस्लाई, सेसं जहा जलयराणं, जाव चउगतिया दुआगतिया परिसा असंखेज्जा, सेतं उरगपरिसप्पा ॥ से किं तं भुयगपरिसप्प संमुच्छ्मिथलयरा १, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजा - गोहा णडला जाव जे यावन्ने तहप्पकारा ते समासतो दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा - पज्जन्ता य अपजन्ता य, सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जं उक्कोसेणं धणुपुहत्तं, वित्ती उक्कोसेणं बयालीसं वाससहस्साई सेसं जहा जलयराणं जाब चउगतिया दुआगतिया परिता असंखेजा पण्णत्ता से तं भयपरिसप्पसंमुच्छिमा से तं धलयरा ॥ से किं तं खयरा १, २ चडविवहा पण्णत्ता, तंजा— चम्मपक्खी लोमपक्खी समुग्गपक्खी विततपक्खी से किं तं चम्मपक्खी १, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहावग्गुली जाब जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं चम्मपक्खी। से किं तं लोमपक्खी ?, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा- ढंका कंका जे यावन्ने तहप्पकारा, से For P&Palle Cnly ~77 ~ %% १ प्रतिपत्ती संमूच्छिम| पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चः सू० ३६ ॥ ३७ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: CA -04 प्रत सूत्रांक 40-%2-% [३६] दीप अनुक्रम [४४] तं लोमपक्खी । से किं तं समुग्गपक्खी,२एगागारा पण्णत्ता जहा पण्णवणाए, एवं विततपक्खी जाच जे यावन्ने तहप्पगारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य, णाणतं सरीरोगाहणा जह० अंगु० असं० उक्कोसेणं धणुपुहुसं ठिती कोसेणं यावत्तरि वाससहस्साई, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, से तं खयरसमुच्छिमतिरिक्खजोणिया, सेतं समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ॥ (मू० ३६) अथ के ते संमूछिमस्थलचरपोन्द्रियतिर्यायोनिकाः?, सूरिराह-स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञता:, तद्यथा-चतुष्पदखलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच परिसर्पस्थलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच, तत्र चलारि पदानि येषां ते चतुष्पदाःअश्वाद्यः ते च ते सलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चतुष्पदस्खलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, उरसा भुजाभ्यां वा परिसर्प-18 न्तीति परिसर्पा:-अहिनकुलादयस्ततः पूर्ववत्समासः, चशब्दो खखगतानेकभेदसूचकी, तदेवानेकविधवं क्रमेण प्रतिपिपादयिधुराहअथ के ते चतुष्पदस्थलचरसंमूछिमपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ?, सूरिराह-चतुष्पदखलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चतुर्विधाः | प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'जहा पण्णवणाए' इति, यथा प्रज्ञापनायां प्रज्ञापनाख्ये प्रथमे पदे भेदास्तथा वक्तव्या यावत् 'ते समासतो दु-1 विहा पण्णत्ता' इत्यादि, ते चैवम्-"एगखुरा दुखुरा गंडीपया सणप्फया । से किं तं एगखुरा, एगखुरा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-अस्सा अस्सतरा घोडा गहमा गोरखुरा कंदलगा सिरिकंदलगा आवत्ता जे यावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं एगखुरा । से किं वं दुखुरा ?, दुखुरा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-उट्टा गोगा गवया महिसा संवरा वराहा अजा एलगा रुरू सरभा चमरी कुरंगा गोक ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] श्रीजीवा णमाई, सेत्तं दुखुरा । से कि तं गंडीपया ?, गंडीपया अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-इत्थी हस्थिपूयणा मंकुणहत्थी खग्गा गंडा, १प्रतिपत्तौ जीवाभिजे यावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं गडीपया । से किं तं सणफया', २ अणेगबिहा पण्णता, तंजहा-सीहा बग्घा दीदिवा अच्छा तरच्छा समूच्छिममलयगि- परस्सरा सीयाला सुणगा कोकंतिया ससगा चित्तगा चित्तलगा, जे यावण्णे तहप्पकारा ॥" इति, तत्र प्रतिपदमेकः खुरो येषां ते | | पश्चेन्द्रियरीयावृत्तिः एकखुरा:-अश्वादयः, प्रतिपादं द्वौ खुरौ-शफौ येषां ते द्विखुरा-उष्ट्रादयः, तथा च तेषामेकैकस्मिन् पादे द्वौ द्वौ शफी दृश्येते, गण्डीवतियश्चः पदं येषां ते गण्डीपदा:-हस्त्यादयः, सनखानि-दीर्घनखपरिकलितानि पदानि येषां ते सनखपदा:-धादयः, प्राकृतत्वाच 'सणफया' ॥३८॥ इति सूत्रे निर्देश:, अश्वादयस्लेत दाः केचिदतिप्रसिद्धत्वात्स्वयमन्ये च लोकतो वेदितव्याः, नवरं सनखपदाधिकारे द्वीपका:-चित्रका अच्छा:-कक्षाः परासरा:-सरभाः कोकन्तिका-लोमठिकाः चित्ता चित्तलगा आरण्यजीवविशेषाः, शेषास्तु सिंहव्याधतरक्षशृगालशुनPolककोलशुनशशका: प्रतीताः, 'ते समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्र शरीरादिद्वारकलापसूत्रं च जलचरवदावनीयं, नवरमवगाहना द्वारे जघन्यतोऽवगाहना अङ्गलासयेयभागप्रमाणा उत्कृष्टा गम्यूतपृथक्त्वं स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतश्चतुरशीति वर्षसहस्राणि, शेषं तथैव, उपसंहारमाह-'सेत्तं चउप्पयथलयरसमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' ।। अथ के ते परिसर्पस्थल पर संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका: १, २ द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'एवं भेदो भाणियब्बो' इति, एवम्' उक्तेन प्रकारेण यथा प्रज्ञासापनायां तथा भेदो वक्तव्यो यावत् 'पज्जत्ता य अपज्जता य स चैवम्-'जहा-उरपरिसप्पथलयरसमुच्छिमपञ्चेन्दियतिरिक्खजो णिया य भुवपरिसप्पथलयरसमुच्छिमपश्चिदियतिरिक्खजोणिया य" सुगम, नवरम् उरसा परिसर्पन्तीत्युर:परिसर्पा:-सर्पादयः, भुजाभ्यां परिसर्पन्तीति भुजपरिस-नकुलापयः, शेषपदसमासः प्राग्वत्, “से कि उरपरिसप्पथलयरसमुच्छिमपश्चिदियतिरि दीप अनुक्रम 4.COP [४४] Email ~ 79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ......------------------- उद्देशक: [-], ------------------ मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 8 C2% प्रत सूत्रांक % [३६] क्खजोणिया', उरपरिसप्पथलयरसमुच्छिमपश्चिदियतिरिक्खजोणिया चउब्विहा पन्नता, संजहा-अही अयगरा आसालिया महोरगा । से किं तं अही?, अही दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-दम्बीकरा य मउलिणो य । से किं तं दावीकरा, दम्वीकरा अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा-आसीविसा दिहीविसा उग्गविसा भोगविसा तयाविसा लालाविसा निस्सास विसा कण्हसप्पा सेयसप्पा काकोदरा दुव्भपुप्फा कोलाहा सेलेसिंदा, जे चावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं अही । से कि त अयगरा, अयगरा एगागारा पन्नत्ता, सेत्तं अयगरा । से किं तं आसालिया ?, कहिणं भंते ! आसालिगा समुच्छइ ?, गोयमा ! अंतो मगुस्सखेत्ते अडाइजेसु दीवेसु निव्वापारणं पन्नरससु कम्मभूमीसु, बाधायं पडुश पंचसु महाविदेहेसु चकबट्टिखंधावारेसु बलदेवखंधावारेसु वासुदेवखंधावारेसु मंडलियखंधावारसु महामण्डलियखंधावारेसु गामनिवेसेसु नगरनिवेसेसु खेडनिवेसेसु कब्बड० मड़वनिवेसेसु दोणमुहनिवेसेसु पट्टणनिवेसेस आगरनिवेसेसु भासमनिवेसेसु राबहाणिनिवेसेसु, एएसि णं चेव विणासेसु, एत्थ णं आसालिया संमुच्छइ, जहणं अंगुलम्स असंखेजइ-1151 भागमित्ताए ओगाहणाए, उकोसेणं वारस जोयणाई, तदाणुरूवं च णं विक्खंभवाहलेणं भूमि दालित्ता संमुच्छइ, असण्णी मिच्छदिट्ठी अन्नाणी अंतोमुहुत्तद्धाउया चेव कालं करेइ, सेत्तं आसालिया । से किं तं महोरगा?, महोरगा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहाका अस्थेगइया अंगुलंपि अंगुलपुहुत्तियावि विहस्थिपि विहत्थिपुहतियावि रयणिपि रमणिपुहुत्तियावि कुछिपि कुच्छिपुहत्तियावि | धणुह पि धणुहपुहत्तियावि गाउयपि गाउयपुहत्तियावि जोयणपि जोयणपुहत्तियावि जोयणसयंपि जोयणसवपुहत्तियावि, तेज थले| जाया जलेऽवि चरंति धलेऽवि चरंति, ते गथि इहं बाहिरएसु दीवसमुद्देसु वंति, जे यावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं महोरगा।" इति । अस्य विषमपदव्याख्या-व्धीकरा य मउलिणो य इति, दीव दर्या-फणा तत्करणशीला दकिराः, मुकुलं-फणाविरहयोग्या %20 दीप अनुक्रम [४४] % 2 2 ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ...---------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [४४] श्रीजीवा- शरीरावयव विशेषाकृतिः सा विद्यते येषां ते मुकुलिन:-रूफटाकरणशक्तिविकला इत्यर्थः, अत्रापि चशब्दो खगतानेकभेदसूचकी, 'भा- १प्रतिपत्ती जीवाभि० सीविसा' इत्यादि, आस्यो-दंष्ट्रास्तासु विष येषां ते आसीविषाः, उक्तं च-"आसी दाढा तग्गयविसाऽऽसीविसा मुणेयवा" संमूछिममलयगि- इति, दृष्टौ विषं येषां ते दृष्टिविषाः, उमं विषं येषां ते उपविषा:, भोगः-शरीरं तत्र सर्वत्र विषं येषां ते भोगविषाः, त्वचि- विपञ्चेन्द्रियरीयावृत्तिः येषां ते त्वग्विषाः, प्राकृतत्वाच 'तयाविसा' इतिपाठः, लाला-मुखात् श्रावस्तत्र विषं येषां ते लालाविषाः, निश्वासे विषं येषां ते तियेचः | निश्वासविषाः कृष्णसर्पादयो जातिभेदा लोकत: प्रत्येतव्याः । से किं तं आसालिगा' इत्यादि, अथ का सा आसालिगा, एवं शिष्येण सू० ३६ ॥ ३९॥ प्रश्ने कृते सति सूत्रकृद् यदेवासालिकाप्रतिपादकं गौतमप्रमभगवनिर्वचनरूपं सूत्रमस्ति तदेवागमबहुमानतः पठति-कहि गं भंते ! 18 इत्यादि, क णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! परमकल्याणयोगिन् ! आसालिगा संमूर्छति, एषा हि गर्भजा न भवति किन्तु संमूछिमैच || तत उक्तं संमूर्छति, भगवानाह-गौतम ! अन्त:-मध्ये मनुष्यक्षेत्रस्य न बहिः, एतावता मनुष्यक्षेत्रादहिरस्या उत्पादो न भवतीशि| प्रतिपादितं, तत्रापि मनुष्यक्षेत्रे सर्वत्र न भवति किन्तु अर्द्धतृतीयेषु द्वीपेषु, अर्द्ध तृतीयं येषां तेऽर्द्धतृतीयाः, अवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थः तेषु, एतावता लवणसमुद्रे कालसमुद्रे वा न भवतीत्यावेदितं, 'निर्व्याधातेन' व्याघातस्याभावो नियाघातं तेन, यदि पञ्चसु भरतेषु पञ्चस्वैरावतेषु सुषमसुषमादिरूपोऽतिदुषमादिरूपश्च कालो व्याघातहेतुत्वाद् व्याघातो न भवति तदा पञ्चदशसु कर्मभूमिपु संमूर्च्छति, व्याघातं प्रतीत्य, किमुक्तं भवति ?-यदि पञ्चसु भरतेषु पञ्चखैरावतेषु यथोक्तरूपो व्याघातो भवति ततः | पञ्चसु महाविदेहेषु संमूर्च्छति, एतावता त्रिंशत्यप्यकर्नभूमिघु नोपजायत इति प्रतिपादितं, पञ्चदशसु कर्मभूमिषु पञ्चसु महाविदेहेषु सर्वत्र न संमूर्छति किन्तु चक्रवर्तिस्कन्धावारेषु बलदेवस्कन्धावारेषु वासुदेवस्कन्धाबारेषु माण्डलिक:-सामान्यराजाऽल्पर्धिकः, ARX*XX*** ** ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक RA2% [३६] महामाण्डलिकः स एवानेकदेशाधिपतिस्तस्कन्धाबारेषु, प्रामनिवेशेषु इत्यादि, प्रसति बुझ्यादीन गुणानिति यदिवा गम्यः शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति प्रामः, निगमः-प्रभूततरवणिग्वर्गावासः, पांसुप्राकारनिबद्धं खेटं, क्षुल्लाकारवेष्टितं कर्बटम् , अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तामरहितं मडम्ब 'पट्टण'त्ति पट्टनं पत्तनं वा, उभयत्रापि प्राकृतत्वेन निर्देशस्य समानत्वात् , तत्र यन्नौभिरेव गम्यं 8 तत्पट्टनं यत्पुनः शकटै?टकैनॊभिर्वा गम्यं तत्पत्तनं यथा भरुकच्छम् , उक्तं च-पत्तनं शकदैर्गम्यं, घोटकैनौंभिरेव च । नौभिरेव तु यद्गम्यं, पट्टनं तत्प्रचक्षते ॥१॥" द्रोणमुखं-प्रायेण जलनिर्गमप्रवेशम् , आकरो-हिरण्याकरादिः आश्रम:-तापसावसयोपलक्षित आश्रयः, संबाधो-यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशः, राजधानी-राजाधिष्ठानं नगरम् , 'एएसि ग' मित्यादि, एतेषां चक्रवर्तिस्कन्धावारादीनामेव विनाशेषूपस्थितेषु 'एत्थ णं ति एतेषु चक्रवर्तिस्कन्धावारादिषु स्थानेष्वासालिका संमूर्च्छति, सा च जघन्यतोऽ|मुलासययभागमात्रयाऽवगाहनया समुत्तिष्ठतीति योगः, एतयोत्पादप्रथमसमये वेदितव्यम् , उत्कर्पतो द्वादश योजनानि-द्वादशयोजनप्रमाणयाऽवगाहनया 'तदनुरूप' द्वादशयोजनप्रमाणानुरूपं विक्खंभवाहल्लेणीति विष्कम्भा याहल्यं च विष्कम्भवाहल्यं, स-16 माहारो द्वन्दः, तेन, विष्कम्भो-विस्तारो बाहल्यं च-स्थूलता, भूमि दालित्ता गं' विदार्य समुत्तिष्ठति, पत्रपतिस्कन्धावारादीनाम-15 धस्ताद् भूमेरन्तरुत्पद्यत इति भावः, सा चासब्जिनी-अगनस्का संमूछिमत्वात् , मिथ्याष्टिः सासादनसम्यक्त्वस्यापि तस्या अस-1 म्भवात् , अत एवाज्ञानिनी, अन्तर्मुहूर्तावायुरेव कालं करोति । 'अत्थेगश्या अंगुलंपी'त्यादि, अस्तीति निपातोऽत्र बहुवचनाभिधायी, ततोऽयमर्थ:-सन्त्येककाः केचन महोरगा येऽसलमपि शरीरावगाहनया भवन्ति, इहाङ्गुलमुच्छ्याङ्गुलमवसातव्यं, शरीरप्रमाणस्य चि-| न्यमानखात्, सन्त्येकका येऽङ्गलपथक्विका अपि-पृथक्त्वं द्विप्रभृतिरानवभ्य इति परिभाषा अङ्गुलपृथक्त्वं शरीरावगाहनमानमे दीप अनुक्रम [४४] E ME%e. JaticariIKI ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [४४] श्रीजीवा- पामस्तीलङ्गलपृथक्खिकाः, 'अतोऽनेकस्वरादि' तीकप्रत्ययः, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं द्वादशाङ्गुलप्रमाणा विवस्तिः, द्वि-18/१प्रतिपत्तौ जीवाभि वितस्तिप्रमाणा रनिहस्त:, कुक्षिहितमाना, धनुर्हस्तचतुष्टयप्रमाणं, गम्यूतं द्विधनुःसहस्रप्रमाण, चत्वारि गव्यूतानि योजनम् समूच्छिममलयगि-1 पतथापि वितस्त्यादिकमुषछ्याङ्गलापेक्षया प्रतिपचव्यं, ते णमित्यादि, 'ते' अनन्तरोदितस्वरूपा महोरगाः स्थलचरविशेषत्वात् स्थले || रीयावृत्तिःजाय जायन्ते स्खले च जाताः सन्तो जलेऽपि स्थल इव चरन्ति स्थलेऽपि चरन्ति, तथास्वाभाव्यात्, यद्येवं ते कस्मादिह न दृश्यन्ते ? तिर्यञ्चः सू० ३६ इत्याशङ्कायामाह-ते नत्थि इह' इत्यादि, 'ते' यथोदितस्वरूपा महोरगाः 'इह' मानुषक्षेत्रे 'नत्यित्ति न सन्ति, किन्तु बाह्येषु द्वीप-| ॥४०॥ समुद्रेषु भवन्ति, समुद्रेष्वपि च पर्वतदेवनगर्यादिषु स्खलेषुत्पद्यन्ते न जलेषु, तत इह न दृश्यन्ते । जे यावणे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये तथाप्रकारा अङ्गुलदशकादिशरीरावगाहमानास्तेऽपि महोरगा ज्ञातव्याः, उपसंहारमाह-'सेत्तं महोरगा, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः उक्तरूपानादिरूपास्ते सर्वेऽपि उर:परिसर्पस्थलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिबन्योनिका द्रष्टव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्रं शरीरादिद्वारकदम्बकं च जलचरवद्भावनीयं, नबरमवगाहना जघन्यतोऽनुलासवेयभागप्रमाणा उत्कर्षतो योजनपृथक्लं, स्थितिद्वारे जघन्यत: स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतविपश्चाशद्वर्षसहस्राणि, शेषं तथैव ॥ भुजपरिसर्पप्रतिपादनार्थमाह-से किं तमित्यादि, अथ के ते भुजपरिसर्पसंमूछिमस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका: १, सूरिराह-भुजपरिसर्पसंमूर्लिछमस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका अनेकविधा: प्रज्ञप्ताः, 'तह चेव भेओ भाणियव्यों' इति, यथा प्रज्ञापनायां तथैव भेदो वक्तव्यः, स चैवम्-"तंजहा-गोहा नउला सरडा सम्मा सरंडा सारा खारा घरोलिया विस्संभरा मंसा मंगुसा पयलाया छीरवि-18॥४ रालिया जाहा चउप्पाइया" एते देशविशेषतो वेदितव्याः, 'जे यावण्णे तहप्पगारा येऽपि चान्ये 'तथाप्रकारा:' उक्तप्रकारा गोधा ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1. -...-- ---------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [४४] दिस्वरूपास्ते सर्वे भुजपरिसा अवसातव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि सूत्रकदम्बकं प्राग्वद्भावनीवं, नबरमवगाहना जघन्यतोऽङ्गलास-1 पेयभागप्रमाणा उत्कर्षतो धनुःपृथक्वं, खितिर्जधन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो द्वाचवारिंशद्वर्षसहस्राणि, शेषं जलघरवद्रष्टव्यम् , उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि सुगमम् ।। खचरप्रतिपादनार्थमाह-अथ के ते संमूछिमखचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका:?, सूरिराह-संमू-1 छिमखचरपचेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भेदो जहा पण्णवणाए' इति, भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स चैवम्-"चम्मपक्षी लोमपक्खी समुन्गपक्सी विततपक्खी । से किं तं चम्मपक्खी !, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-वगुली | |जलोया अडिला भारुडपक्खी जीवंजीवा समुदवायसा कण्णत्तिया पक्खिविराली, जे यावण्णे तहप्पगारा, से तं चम्मपक्खी । से किं लोमपक्खी ?, लोमपक्सी अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-दका कंका कुरला वायसा चकवागा हंसा कलहंसा पोयहंसा राय-| हंसा अढा सेडीवडा वेलागया कोंचा सारसा मेसरा मयूरा सेयवगा गहरा पोंडरीया कामा कामेयगा वंजुलागा तित्तिरा वगा लावगा कपोया कपिंजला पारेषया चिडगा वीसा कुकुडा सुगा बरहिगा मयणसलागा कोकिला सण्हावरण्ागमादी, से तं लोमपक्खी । से किं तं सगुग्गपक्खी !, समुग्गपक्खी एगागारा पण्णत्ता, ते णं नस्थि इई, बाहिरएसु दीवसमुद्देसु हति, से तं समुग्गपक्खी । से किं तं विततपक्खी ?, विततपक्खी एगागारा पण्णत्ता, ते णं नत्थि इह, बाहिरएम दीवसमुदेसु भवंति, से तं विततपक्खी" इति पाठसिद्धं नवरं 'चम्मपक्खी' इत्यादि, चर्मरूपी पक्षौ चर्मपौ तौ विद्यते येषां ते चर्मपक्षिणः, लोमानको पक्षी लोमपक्षी तौ विद्यते येषां ते लोमपक्षिणः, तथा गच्छतामपि समुद्रवस्थितौ पक्षी समुद्र कपक्षी तद्वन्तः समुद्कपक्षिणः, वितती-नियमनाकुश्चिती पक्षी विततपक्षौ तद्वन्तो विततपक्षिणः 'ते समासतों' इत्यादि सूत्रकदम्बकं जलचरबद्भावनीयं, नवरमवगाहना उत्क Rk ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] %A4%95 तियञ्चः श्रीजीवा-18|तो धनु:पृथक्लं, स्थितिरुत्कर्षतो द्वासप्ततिवर्षसहस्राणि । तथा चात्र कचित्पुस्तकान्तरेऽवगाहनास्थियोर्यथाक्रम सङ्गन्हणिगाथे-जो- 1१प्रतिपत्ती जीवाभि दयणसहस्सगाउयपुहत्त तत्तो य जोयणपुहत्तं । दोण्हपि धणुपुहत्तं समुच्छिमवियगपक्खीणं ॥ १॥ संमुच्छ पुब्बकोडी चउरासीई भवे समूच्छिममलयगि- सहस्साई । सेवण्णा बायाला बावत्तरिमेव पक्खीणं ॥२॥" व्याख्या-संमूछिमाना जलचराणामुत्कृष्टाऽवगाहना योजनसहस्र, चतु-| पञ्चेन्द्रियरीयावृत्तिः पदानां गन्यूतपृथक्त्वम् , उर:परिसर्पाणां योजनपथक्त्वं । 'दोण्हं तु'इत्यादि, द्वयानां संमूछिमभुजगपक्षिणां-संमूछिमभुजगपरिसर्प- तियञ्चः पक्षिरूपाणां प्रत्येकं धनुःपृथक्त्वं, तथा संमूञ्छिमाना जलचराणामुत्कृष्टा स्थितिः पूर्वकोटी चतुष्पदानां चतुरशीतिवर्षसहस्राणि, उर:परि सू० ३६ ॥४१॥ सर्पाणां त्रिपञ्चाशद्वर्षसहस्राणि, भुजपरिसर्पाणां द्वाचत्वारिंशद्वर्षसहस्राणि, पक्षिणां द्वासप्ततिवर्षसहस्राणि, उपसंहारमाह-'सेत्तं । गर्भजक समुच्छिमखहयरपश्चिंदियतिरिक्खजोणिया' । उक्ताः संमूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनयः, सम्प्रति गर्भव्युत्क्रान्तिकान् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाह सू०३७ से किं तं गम्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ?,२तिविहा पण्णता, तंजहा-जलयरा थलयरा खहयरा ॥ (सू० ३७) 'सेकिंत'मित्यादि, अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका: , सूरिराह-गर्भव्युत्क्रान्तिकपोन्द्रियतिर्थयोनिकाखिविधाः | ॥४१॥ प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जलचरा: खलचरा: खचराश्च । तत्र जलचरप्रतिपादनार्थमाह से किं तं जलपरा, जलयरा पंचविधा पण्णत्ता, तंजहा-मच्छा कच्छभा मगरा गाहा सुंसुमारा, . दीप अनुक्रम [४४] ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] २५ सब्वेसिं भेदो भाणितब्बो तहेव जहा पण्णवणाए, जाव जे यावपणे तहप्पकारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्ता य अपजत्ता य, तेसि णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता?, गोयमा! चत्तारि सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालिए वेउविए तेयए कम्मए, सरीरोगाहणा जहन्नेर्ण अंगुलस्स असंखेज० उक्कोसेणं जोयणसहस्सं छव्विहसंघयणी पण्णत्ता, तंजहा -वइरोसभनारायसंघयणी उसभनारायसंघयणी नारायसंघयणी अद्धनारायसंघयणी कीलियासंघयणी सेवसंघयणी, छब्विहा संठिता पण्णत्ता, तंजहा-समचउरंससंठिता णग्गोधपरिमडल. साति खुज० वामण हुंड०, कसाया सव्वे सपणाओ ४ लेसाओ ६ पंच इंदिया पंच समुरघाता आदिल्ला सण्णी नो असणी तिविधवेदा छप्पजत्तीओ छअपज्जत्तीओ दिट्ठी तिविधावि तिणि दसणा णाणीवि अण्णाणीवि जे णाणी ते अत्धेगतिया दुणाणी अत्धेगतिया तिन्नाणी, जे दुनाणी ते नियमा आभिणियोहियणाणी य सुतणाणी य, जे तिनाणी ते नियमा आभिणिबोहियणाणी सुत० ओहिणाणी, एवं अण्णाणीवि, जोगे तिबिहे उवओगे दुविधे आहारो छदिसि उववातो नेरइपहिं जाव अहे सत्तमा तिरिक्खजोणिएसु सब्बेसु असंखेजवासाउयवजेसु मणुस्सेसु अकम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेजवासाउयवज्जेसु देवेसु जाव सहस्सारो, ठिती जहपणेणं अंतोमुहुरा उक्कोसेणं पुव्वकोडी, दुविधावि मरंति, अणंतरं उध्वहित्ता नेरइएसु जाव अहे दीप अनुक्रम [४६] -ॐ% 2 5AGE ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -------------------------- उद्देशक: -], ---------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १प्रतिपत्ती गर्भज जलचर प्रत सूत्रांक [३८] % तिर्यञ्चः % दीप श्रीजीवा-2 सत्तमा तिरिक्खजोणिएमु मणुस्सेसु सब्बेसु देवेसु जाव सहस्सारो, चउगतिया चउआगजीवाभि तिया परिता असंखेजा पण्णत्ता, से तं जलयरा ॥ (सू०३८) मलयगि 'भेदो भाणियब्बो तहेव जहा पण्णवणाए' इति भेदस्तथैव मत्स्यादीनां वक्तव्यो यथा प्रज्ञापनायां, स च प्रागेवोपदर्शितः, 'ते रीयावृत्तिः | समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्रं पाठसिद्ध, शरीरादिद्वारकदम्बकसूत्र संमूच्छिमजलचरवद्भावनीयं, नवरमत्र शरीरद्वारे पलारिश रीराणि वक्तव्यानि, गर्भव्युतकान्तिकानां तेषां वैक्रियस्यापि सम्भवात् , अवगाहनाद्वारे उत्कर्पतोऽवगाहना योजनसहस्रम् । संहननचि॥४२॥ न्वायां पडपि संहननानि, तत्वरूपप्रतिपादक चेदं गाथाद्वयम्-'वजेरिसहनारायं पढमं बीयं च रिसहनारायं । नारायमद्धनाराय कीलिया तह य छेवढं ॥ १ ॥ रिसहो य होइ पट्टो वजं पुण कीलिया मुणेयव्वा । उभयो मक्कडबंधो नारायं तं वियाणाहि ॥ २॥" संस्थानचिन्तायां पडपि संस्थानानि, तान्धमूनि-समचतुरस्रं न्यग्रोधपरिमण्डलं सादि वामनं कुब्ज हुण्डमिति, सत्र समाः-सामुद्रिकशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽसय:-चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यत्र तत्समचतुरस्र, समासान्तोऽत्प्रत्ययः, अत। एवैतदन्यत्र तुल्यमिति व्यवहियते, तथा न्यग्रोधवत्परिमण्डलं यस्य, यथा न्यग्रोध उपरि संपूर्णप्रमाणोऽधस्तु हीन: तथा यत्संस्थान नाभेरुपरि संपूर्णमधस्तु न तथा तन्यप्रोधपरिमण्डलम् , उपरि विस्तारबहुलमिति भावः, तथाऽऽदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते, ततः सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्तत इति सादि, उत्सेधबहुलमिति भावः, इह यद्यपि १वमर्षभनारा प्रथम द्वितीयं च ऋषभनाराचम् । नाराचमर्धनाराचं की लिका तथा च सेवार्तम् ॥ १॥ अपभश्च भवति पहः वयं पुनः कीलिका ज्ञातव्या । उभयतो मर्कटवन्धो नाराचं तत् विजानीहि ॥ २॥ % अनुक्रम [४६] ॥४२॥ ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 14-% सूत्रांक [३८] % दीप olसर्व शरीरमादिना सह वर्तते तथाऽपि सादिलविशेषणान्यथाऽनुपपत्त्या विशिष्ट एव प्रमाणलक्षणोपपन्न आदिरिह लभ्यते, तत उ तम्-उत्सेधबहुलमिति, इदमुक्तं भवति-यरसंस्थानं नाभेरधः प्रमाणोपपन्नमुपरि च हीनं सत्सादीति, अपरे तु साचीति पठन्ति, तत्र | साचीति प्रवचनवेदिन: शाल्मलीतरुमाचक्षते, तत: साचीव यत्संस्थानं, यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धकाण्डमतिपुष्टमुपरि च न तदनु| रूपा महाविशालता तद्वदस्यापि संस्थानस्वाधोभागः परिपूर्णों भवति उपरितनभागस्तु नेति, तथा यत्र शिरोपीवं हस्तपादादिकं च। यथोक्तप्रमाणलक्षणोपेतं उरउदरादि च मण्डलं तत्कुब्ज संस्थान, यन्त्र पुनरुदरादि प्रमाणलक्षणोपेतं हस्तपादादिकं च हीनं तद्बामनं, यत्र सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्षणपरिभ्रष्टास्तत् हुण्डम् , उक्तन- समचउरसे नग्गोहमंडले साइ खुज वामणए । हूंडेवि य संठाणे जीवाणं छम्मुणेयन्वा ॥१॥ तुलं वित्थडबहुलं उस्सेहबहुं च मडहकोठं च । हेडिल कायमडहं सव्वत्थासंठियं ९८ ॥२॥" लेश्याद्वारे षडपि लेश्याः, शुकृलेश्याया अपि सम्भवात् , समुद्घाता: पञ्चा, वैक्रियसमुद्घातस्यापि सम्भवात् , सब्जिद्वारे सब्जिनो नो अ सम्झिनः, वेदद्वारे त्रिविधवेदा अपि, स्त्रीपुरुषयोदयोरप्यमीषां भावात्, पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्याप्तयो, भाषामनःपर्यात्योरेकलेन वि४ वक्षणात् , अपर्याप्तिचिन्तायां पञ्चापर्याप्तयः, दृष्टिद्वारे त्रिविधदृष्टयोऽपि, तद्यथा-मिथ्यादृष्टयः सम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिध्यादृष्टयश्च, दर्शनद्वारे त्रिविधदर्शना अपि, अवधिदर्शनस्यापि केषाश्चिद्भावात् , ज्ञानद्वारे त्रिज्ञानिनोऽपि, अवधिज्ञानस्यापि केपाश्चिद्भावात् , अज्ञानचिन्तायामज्ञानिनोऽपि, विभङ्गस्यापि केषाञ्चित्सम्भवात् , अवधिविभङ्गौ च सम्यग्मिथ्यादृष्टिभेदेन प्रतिपत्तब्यौ, उक्तश्च-स १ समचतुरस्र न्यग्रोधपरिमण्डतं सावि कुब्ज वामनम् । हुण्डमपि च संस्थान जीयानो षड् ज्ञातव्यानि ॥ १॥ तुल्यं बहुविस्तारं उत्सेपबहुलं च मनभको च। अधस्तनकायमहर्भ सर्वत्रासंस्थितं हुण्डम् ॥ २ ॥ अनुक्रम [४६] seDRESS Sonkskic जी००८ ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], -------------------------- उद्देशक: -1, ------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] चराः दीप श्रीजीवा- म्यग्दृष्टानं मिध्यादृष्टेविपर्यासः" इति, उपपातद्वारे उपपातो नैरयिकेभ्यः सप्तपृथ्वीभाविभ्योऽपि, तिर्यग्योनिकेभ्योऽप्यसायातवर्षा-18 प्रतिपत्ती जीवाभियुष्कवर्जेभ्यः सर्वेभ्योऽपि, मनुष्येभ्योऽकर्मभूमिजान्तरद्वीपजासपातवर्षायुष्कवर्जकर्मभूमिभ्यो, देवेभ्योऽपि यावत्सहस्रारात्, परतः गर्भजलमलयगि-18 प्रतिषेधः, स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तगुल्कर्षत: पूर्वकोटी, च्यवनद्वारेऽनन्तरमुद्धृत्य सहस्त्रारात्परे ये देवास्तान् वर्जयित्वा रीयावृत्तिःला शेषेषु सर्वेष्वपि जीवस्थानेषु गच्छन्ति, अत एव गत्यागतिद्वारे चतुरागतिकाश्चतुर्गतिकाः, 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणोऽसोयाः प्रज्ञप्ताः, सू० ३८ हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं जलयरा गम्भवतियपश्चिंदियतिरिक्खजोणिया' ॥ सम्प्रति स्थलचरप्रतिपा18 दनार्थमाह से किं तं थलयरा?, २ दुविहा पणत्ता, तंजहा-चप्पदा य परिसप्पा य से किं तं चप्पया?, २चउम्विधा पण्णत्ता, तंजहा-एगक्खुरा सो चेव भेदो जाव जे यावन्ने तहप्पकारा ते समासतो दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्ता य अपञ्चत्ता य, चत्तारि सरीरा ओगाहणा जहन्ने] अंगुलस्स असंखेज उकोसेणं छ गाउयाई, ठिती उकोसेणं तिन्नि पलिओमाई नवरं उबहित्ता नेरइएमु चउत्थपुढविं गच्छंति, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया चउआगतिया परित्ता असंखिज्जा पपणत्ता, से तं चप्पया।से किं तं परिसप्पा?.२ दविहा पण्णता, तंजहा-उरपरिसप्पा य भुयगपरिसप्पा य, से किं तं उरपरिसप्पा?,२ तहेव आसालियबजो भेदो भाणियब्बो, ॥४३॥ (तिपिण) सरीरा, ओगाहणा जहरणेणं अंगुलस्स असंखे० उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, ठिती जहन्ने] अनुक्रम [४६] RAKAR ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [३९-४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९-४० CSSCRACK दीप अनुक्रम [४७-४८] अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुम्बकोडी उब्वहिता नेरइएसु जाव पंचम पुढविं ताव गच्छति, तिरिक्खमगुस्सेसु सब्बेसु, देवेसु जाव सहस्सारा, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया चउआगइया परित्ता असंखेज्जा से तं उरपरिसप्पा।से किं तं भुयगपरिसप्पा?, २ भेदो तहेव, चत्तारि सरीरगा ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलासंखे० उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उघोसेणं पुब्बकोडी, सेसेसु ठाणेसु जहा उरपरिसप्पा, णवरं दोचं पुढविं गच्छंति, से तं भुयपरिसप्पा पण्णत्ता, से तं धलपरा ।। (सू०३९)। से किं तं खहयरा?, २ चउचिहा पण्णत्ता, तंजहा-चम्मपक्खी तहेब भेदो, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखे० उक्कोसेणं धणुपुहुतं, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तंउकोसेणं पलिओवमस्स असंखेजतिभागो, सेसं जहा जलयराणं, नवरं जाव तचं पुढविं गच्छति जाव से तं खयरगम्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया, से तं तिरिक्खजोणिया ॥ (सू०४०) स्थलचरगर्भव्युत्क्रान्तिकानां भेदोपदर्शक सूत्रं यथा संमूर्षिछमस्थलचराणां, नवरमत्रासालिका न वक्तव्या, सा हि संमूछिमैव न गर्भव्युत्क्रान्तिका, तथा महोरगसूत्रे "जोयणसयपि जोयणसयपुहुत्तियावि जोयणसहस्संपि" इत्येतदधिकं वक्तव्यं, शरीरादिद्वारकदम्बकसूत्रं तु सर्वत्रापि गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचराणामिव, नवरमवगाहनास्थित्युदर्तनासु नानात्वं, तत्र चतुष्पदानामुस्कृष्टाऽवगाहना षड् गव्यूतानि, स्थितिरुत्कर्षतसीणि पल्योपमानि, उर्जना चतुर्थपृथिव्या आरभ्य यावत्सहस्रारः, एतेषु सर्वेष्यपि जीवस्थानेष्वनन्तरमुइत्त्योत्पद्यन्ते, उर:परिसणामुत्कृष्टावगाहना योजनसहस्र, स्थितिरुत्कर्षत: पूर्वकोटी, उद्वर्तना पञ्चमपृथिव्या आरभ्य यावत्सह ~ 90 ~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [३९-४०] दीप अनुक्रम [४७-४८] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [१], ----- उद्देशक: [-], मूलं [ ३९-४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....... आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ४४ ॥ + १ प्रतिपत्तौ स्थलचर र्भजाः सू०३९ ४० सार:, अत्रान्तरे सर्वेषु जीवस्थानेष्वनन्तरमुद्धत्योत्पद्यन्ते । भुजपरिसर्पाणामुत्कृष्टाऽवगाहना गव्यूतपृथक्लं, स्थितिरुत्कर्षसः पूर्वकोटी, उद्वर्त्तनाचिन्तायां द्वितीयपृथिव्या आरभ्य यावत्सहस्रारः, अत्रान्तरे सर्वेषु जीवस्थानेषूत्पादः ॥ खचरगर्भव्युत्क्रान्तिकपचेन्द्रियभेदो यथा संमूच्छिमखचराणां शरीरादिद्वारकलापचिन्तनं गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरवत्, नवरमवगाहनास्थित्युद्वर्त्तनासु नानात्वं तत्रोत्कर्ष- २ खेचरागतोऽवगाहना धनुष्पृथक्लं, जघन्यतः सर्वत्राप्यङ्गुलासङ्घयेय भागप्रमाणा, स्थितिरपि जघन्यतः सर्वत्राप्यन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽत्र पस्योपमासोयभागः, उद्वर्त्तना तृतीयपृथिव्या आरभ्य यावत्सहस्रार:, अत्रान्तरे सर्वेषु जीवस्थानेषूत्पादः कचित्पुस्तकान्तरेऽवगाइनास्थित्योयथाक्रमं सङ्ग्रहणिगाथे— “जोयणसहस्स छग्गाउयाइ तत्तो व जोयणसहरसं । गाउयपुहुत्त भुयगे धणुयहुतं च पक्खी ॥ १ ॥ गर्भमि पुथ्वकोडी तिन्नि य पलिओनाई परमाउं । उरभुयग पुव्वकोडी पलिय असंखेजभागो य ॥ २ ॥” अनयोर्व्याख्यानाच्युक्रान्तिकानामेव जलचराणामुत्कृष्टावगाहना योजनसहस्रं चतुष्पदानां षड् गव्यूतानि, उरः परिसर्पाणां योजनसहस्रं, भुजपरिसर्पाणां गव्यूतपृथक्लं, पक्षिणां धनुष्पृथक्त्वं । तथा गर्भव्युत्क्रान्तिकानामेव जलचराणामुत्कृष्टा स्थितिः पूर्वकोटी, चतुष्पदानां त्रीणि पल्योपमानि, उरगाणां भुजगानां च पूर्वकोटी, पक्षिणां पस्योपमासोयभाग इति । उत्पादविधिस्तु नरकेष्वस्माद्गाथाद्वयादवसेयः "अस्सण्णी खलु पढमं दोचं च सरीसवा तइय पक्खी। सीहा जंति चउत्थि उरगा पुणे पंचनिं पुढविं ॥ १ ॥ छद्धिं च इत्थिया मच्छा मणुया जय सत्तमिं पुढविं । एसो परमुषवाओ वोल्वो नरयपुढवीसु ॥ २ ॥” उक्ताः पञ्चेन्द्रियतिर्यचः सम्प्रति मनुष्यप्रतिपादनार्थमाह-- | १ असंज्ञिनः खलु प्रथमां द्वितीयां च सरीसृपास्तृतीयां पक्षिणः । सिंहा यान्ति चतुर्थीमुरगाः पुनः पञ्चम पृथ्वीम् ॥ १ ॥ षडी च स्त्रियः मत्स्या मनुष्पा | सप्तमीं पृथ्वीं बावत्। एष परम उत्पातो बोद्धव्यो नारकपृथ्वीषु ॥ २ ॥ For P&Permalise Cly ~ 91~ ॥ ४४ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [४९] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], उद्देशक: [-], मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः से किं तं मणुस्सा १, २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा- संमुच्छिममणुस्सा य गन्भवकंतियमणुस्सा य ॥ कहि णं भंते! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति?, गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते जाव करेंति । तेसि णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता?, गोयमा ! तिनि सरीरगा पन्नन्ता, संजहा—ओरालिए तेयए कम्मए, सेतं संमुच्छिममणुस्सा । से किं तं गन्भवतियमणुस्सा १, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजा - कम्मभूमया अकस्मभूमगा अंतरदीवजा, एवं माणुस्स भेदो भाणियव्वो जहा पण्णवणाए तहा णिरवसेसं भाणियवं जाव छउमत्था य केवली य, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजा - पज्जन्ता य अपज्जता य । तेसि णं भंते! जीवाणं कति सरीरा प० १, गोयमा ! पंच सरीरया, तंजहा - ओरालिए जाव कम्मए। सरीरोगाहणा जहन्त्रेणं अंगुलअसंखेज • उक्कोसेणं तिणि गा उयाई छच्चैव संघयणा छस्संठाणा । ते णं भंते! जीवा किं कोहकसाई जाव लोभकसाई अकसाई ?, गोयमा ! सच्चेवि । ते णं भंते! जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता० लोभसन्नोवउत्तानोसन्नोare ?, गोयमा ! सव्वेवि । ते णं भंते! जीवा किं कण्हलेसा य जाव अलेसा ?, गोयमा ! सब्वेवि । सोइंदियोवउता जाव नोइंद्रियोवउत्तावि, सव्वे समुग्धाता, तंजहा— बेयणासमुग्धाते जाव केवलिसमुग्धाए, सन्नीवि नोसन्नी असन्नीवि, इत्धिवेयावि जाव अवेदावि, पंच पज्जन्ती, तिविहाविदिट्ठी चत्तारि दंसणा णाणीचि अण्णाणीवि, जे गाणी ते अस्थेगतिया दुणाणी अथ मनुष्य-जीवानाम् भेदाः प्ररूप्यते For P&Praise Cly ~92~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती मनुष्याः सू०४१ सूत्रांक [४१] ॥४५॥ दीप अत्थेगतिया तिणाणी अत्धेगइया चउणाणी अत्थेगतिया एगणाणी, जे दुग्णाणी ते नियमा आभिणियोहियणाणी सुतणाणी य, जे तिणाणी ते आभिणियोहियणाणी सुतणाणी ओहिणाणी य, अहया आभिणिचोहियणाणी सुयनाणी मणपजवणाणी य, जे चउणाणी ते णियमा आभिणिबोहियणाणी सुत. ओहि मणपजवणाणी य, जे एगणाणी ते नियमा केवलनाणी, एवं अनाणीवि दुअन्नाणी तिअण्णाणी, मणजोगीवि वइकायजोगीवि अजोगीवि, दुविहउवओगे, आहारो छरिसिं, उववातो नेरइएहिं अहे सत्तमवज्जेहिं तिरिक्खजोणिएहितो, उववाओ असंखेजवासाउयवजेहिं मणुएहिं अकम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेजवासाउयवजेहिं, देवेहिं सब्वेहि, ठिती जहन्नेणं अतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई, दुविधावि मरंति, उब्वहित्ता नेरइयादिसु जाव अणुत्तरोववाइएसु, अत्धेगतिया सिझंति जाव अंतं करेंति । ते णं भंते! जीवा कतिगतिया कइआगइया पपणत्ता ?, गोयमा! पंचगतिया चउआगतिया परित्ता संखिजा पपणत्ता, सेत्तं मणुस्सा ।। (सू०४१) अथ के ते मनुष्या:?, सूरिराह-मनुष्या द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संमूछिममनुष्याश्च गर्भब्युस्कान्तिकमनुष्याश, चशब्दी 8 खगतानेकभेदसूचकौ । तत्र संमूरिछमगनुष्यप्रतिपादनार्थमाह-'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! संमूछिममनुष्याः संमूर्च्छन्ति, भगवानाह-गौतम! 'अंतो मणुस्सखेत्ते जाव करेंति' इति, अत्र यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठ:-"अंतो मणुस्सखेते पणयाली अनुक्रम [४९] का॥४५॥ ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : १. .......................-- उद्देशक: -1, ........................- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] दीप साए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पनरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदीवेसु गम्भवतियमणुस्साणं चेव उफारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणएसु वा तेसु वा पित्तेसु का सोजिएसु वा सुकेसु वा सुकपोग्गलपरिसाडेसु वा कगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोगेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सब्वेसु चेव असुइटाणेसु, एत्थ णं संभुमिछममणुस्सा संमुच्छंति अंगुलस्स असंखेजइभागमेत्ताए ओगाहणाए असन्नी मिच्छादिट्ठी सञ्चाहिं पजनीति अपजतगा अंतोमुहत्ताउया चेव कालं करेंति " एतच्च निगदसिद्धम् ॥ सम्प्रति शरीरादिद्वारप्रतिपादनार्थमाह-तेसि णं| दाभते! शरीराणि त्रीणि औदारिकतैजसकार्मणानि, अवगाहना जघन्यत उत्कर्षतश्चाङ्गलासमयभागप्रमाणा, संहननसंस्थानकषायलेश्या द्वाराणि यथा द्वीन्द्रियाणां, इन्द्रियद्वारे पञ्चेन्द्रियाणि, सब्जिद्वारवेदद्वारे अपि द्वीन्द्रियवत् , पर्याप्तिद्वारेऽपर्याप्तयः पश्चा, दृष्टिदर्शनज्ञानयोगोपयोगद्वाराणि (यथा) पृथिवीकायिकानां, आहारो यथा द्वीन्द्रियाणां, उपपातो नैरयिकदेवतेजोबाय्वसङ्ख्यातवर्षायुष्कबर्जेभ्यः, स्थितिर्जघन्यत उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणा, नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टमधिकं वेदितव्यं, मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता अपि नियन्ते असमवहताश्च, अनन्तरमुद्धृत्य नैरयिकदेवासद्ध्येयवर्षायुष्कवर्जेषु शेषेषु स्थानेषूत्पद्यन्ते, अत एव गत्यागतिद्वारे व्यागतिका द्विगतिकास्तियमनुष्यगत्यपेक्षवा, 'परीत्ता:' प्रत्येकशरीरिणोऽसयेयाः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं समुच्छिममगुस्सा'। उक्ताः संमूछिममनुष्याः, अधुना गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यानाहू-अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याः ?, सूरिराह-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याखिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कनभूमका अकर्मभूमका अन्तरद्वीपजाः, तत्र कर्म-कृषिवाणिज्यादि मोक्षानुष्ठान वा कर्मप्रधाना भूमिर्वेषां ते कर्मभूमाः आर्ष त्वात्समासान्तोऽप्रत्ययः, कर्मभूमा एव कर्मभूमकाः, एवमकर्मा-यथोक्तकर्मविकला भूमिर्येषां तेऽ अनुक्रम [४९] Jaticomin ~94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : १. .......................-- उद्देशक: -1, ........................- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥४६॥ [४१] % दीप + कर्मभूमास्त एवाकर्मभूमकाः, अन्तरशब्दो मध्यवाची, अन्तरे-लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरबीपास्तगता अन्तरद्वीपगाः, 'एवं माणु- १प्रतिपत्ती स्सभेयो भाणियब्यो जहा पण्णवणाए' इति, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण मनुष्यभेदो भणितव्यो यथा प्रज्ञापनायां, स चातिबहुप्रन्थ | है। मनुष्याः इति तत एव परिभावनीयः, 'ते समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्र पाठसिद्धं, शरीरादिद्वारकलापचिन्तायां शरीरद्वारे पञ्च शरीराणि, सू०४१ तद्यथा-औदारिक वैक्रियमाहारकं तैजसं कार्मणं च, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात् , अवगाहनाद्वारे जघन्यतोऽवगाहना अङ्गुलासङ्खयेयभागमात्रा उत्कर्षतस्त्रीणि गव्यूतानि, संहननद्वारे षडपि संहननानि, संस्थानद्वारे पडपि संस्थानानि, कषायद्वारे क्रोधकथायिणोऽपि | मानकषाविणोऽपि मायाकषायिणोऽपि लोभकषायिणोऽपि अकषायिणोऽपि, वीतरागमनुष्याणामकथायित्वात् , सञ्जाद्वारे आहारसजोपयुक्ता भयसझोपयुक्ता मैथुनसम्झोपयुक्ता लोभसञोपयुक्ताः, नोसंज्ञोपयुक्ताश्च निश्चयतो बीतरागमनुष्याः, व्यवहारतः सर्व एव || चारित्रिणो, लोकोत्तरचित्तलाभात्तस्य सज्ञादशकेनापि विप्रयुक्तत्वात् , उक्तश्च-"निर्वाणसाधकं सर्व, शेयं लोकोत्तराश्रयम् । सम्झा लोकाश्रया सर्वाः, भवाङ्करजलं परम् ॥१॥” लेश्याद्वारे कृष्णलेश्या नीललेश्या: कापोतलेश्यास्तेजोलेश्या: पद्मलेश्याः शुकलेश्या | अलेश्याश्च, तत्रालेश्याः परमशुकुध्यायिनोऽयोगिकेवलिनः । इन्द्रियद्वारे श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्ता यावत्स्पर्शनेन्द्रियोपयुक्ता नोइन्द्रियोपयु-1 काच, तत्र नोइन्द्रियोपयुक्ताः केवलिनः, समुदूधातद्वारे सप्तापि समुद्घाताः, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवान् , समुतूधातसङ्गाहिका पेमा | गाथा-"येणकसायमरणंतिए य बेम्बिए य आहारे । केवलियसमुग्धाए सत्त समुग्धा इमे भणिया ॥१॥” सब्जिद्वारे सब्जिनोऽपि नोसब्जिनोअसज्ञिनोऽपि, तत्र नोसब्जिनोअसब्जिनः केवलिनः । वेदद्वारे स्त्रीवेदा अपि पुरुषवेदा अपि नपुंसकवेदा P ॥ ४६॥ १ वैदनः कषायः मारणान्तिकब वैकयिकथाहारकः । कैवलिका समुद्धातः सप्त समुदपाता इमे भगिताः ॥१॥ -5 अनुक्रम 4 [४९] 7 - R 4 ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : १. .......................-- उद्देशक: -1, ........................- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] अपि अवेदाः-सूक्ष्मसम्परायादयः, पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्याप्तयः पञ्चापर्याप्तयः, भाषामन:पर्यात्योरेकत्वेन विवक्षणात् , दृष्टिद्वारे त्रिवि धदृष्टयः, तद्यथा-केपिन्मिभ्यारष्टयः केचित्सम्यग्दृष्टयः केचित्सम्यग्मिध्यादृष्टयः, दर्शनद्वारे चतुर्विधदर्शनाः, तद्यथा-चक्षुर्दर्शना & अचक्षुर्दर्शना अवधिदर्शना: केवलदर्शना:, ज्ञानद्वारे ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र मिध्यादृष्टयोऽज्ञानिनः सम्यग्दृष्टयो ज्ञानिनः, 'नाणाणि |पंच तिष्णि अण्णाणाणि भयणाते' इति, ज्ञानानि पञ्च मतिज्ञानादीनि, अज्ञानानि त्रीणि मत्यज्ञानादीनि, तानि भजनया वक्तव्यानि, सा च भजना एवम्-केचिहिज्ञानिनः केचित्रिज्ञानिनः केचिश्चतु निनः केचिदेकज्ञानिनः, तत्र ये द्विज्ञानिनस्ते नियमादाभिनिबोधिCशानिनः श्रुतज्ञानिनश्च, ये विज्ञानिनसे मतिज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च, अथवाऽऽभिनियोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिनश्च, अवधिज्ञानमन्तरेणापि मनःपर्यवज्ञानस्य सम्भवात्, सिद्धनाभृतादौ तथाऽनेकशोऽभिधानात् , ये चतु निनस्ते, द आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिनश्च, ये एकज्ञानिन केवलज्ञानिनः, केवलज्ञानसद्भावे शेषज्ञानापगिमात् , "नटुंमि उ छाउमस्थिए नाणे” इति वचनात् , ननु केवलज्ञानप्रादुर्भावे कथं शेषज्ञानापगमः', यावता यानि शेषाणि मत्या दीनि ज्ञानानि खखावरणक्षयोपशमेन जायन्ते ततो निर्मूलस्वस्वावरणविलये तानि सुतरां भवेयुश्चारित्रपरिणामवत् , उक्तश्च-आवरणदेसविगमे जाई विजंति मइसुयाईणि । आवरणसव्वविगमे कह ताई न होंति जीवस्स? ॥ १॥" जरुयते, इह यथा जात्यस्य मरकतादिमणेमलोपदिग्धस्य यावन्नाद्यापि समूलमलापगमस्तावद् यथा यथा देशतो मलविलयस्तथा तथा देशतोऽभिव्यत्तिरुपजायते, |सा च कचित्कदाचित्कश्चिद्वतीत्यनेकप्रकारा, तथाऽऽत्मनोऽपि सकलकालकलाकलापावलम्बिनिखिलपदार्थसार्थपरिच्छेदकरणकपार १नटे तु छायरिसके शान. २ आवरणदेशविगमे यदि तानि भवन्ति मतिभुतादीनि । सर्वांचरणपिगमे कथं तानि न भवन्ति जीवस्य । ॥1॥ दीप अनुक्रम CACASSEX [४९] ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मनुष प्रत सूत्रांक [४१] दीप मार्थिकस्वरूपस्याप्यावरणमलपटलतिरोहितस्य यावन्नाद्यापि निखिलकर्ममलापगमस्तावद् यथा यथा देशतः कर्ममलोच्छेदस्तथा तथा १ प्रतिपत्ती जीवाभि तस्य विज्ञप्तिरजम्भते, सा च कचित्कदाचित्कश्चिदनेकप्रकारा, उक्तश्च-'मलविद्धमणेयक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः । कर्मविद्वामविश-16 मल यगि-1 प्तिस्तथाऽनेकप्रकारतः ॥ १॥" सा चानेकप्रकारता मतिश्रुतादिभेदेनावसेवा, ततो यथा मरकताविमणेरशेषमलापगमसम्भवे सम-II सू०४१ रीयावृत्तिः स्तास्पष्टदेशव्यक्तिव्यवच्छेदेन परिस्फुटरूपैकाभिव्यक्तिरुपजायते तद्वदात्मनोऽपि ज्ञानदर्शनचारित्रप्रभावतो नि:शेषावरणप्रहाणावशेषदे शज्ञानव्यवच्छेदेनैकरूपाऽतिपरिस्फुटा सर्ववस्तुपर्याचप्रपञ्चसाक्षात्कारिणी विज्ञप्तिरुल्लसति, उक्तञ्च- यथा जात्यस्य रत्नस्य, निःशेष॥४७॥ मलहानितः । स्फुटैकरूपाऽभिव्यक्तिर्विज्ञप्तिस्तदात्मनः ॥ १॥” इति, येऽज्ञानिनस्ते दूधज्ञानिनरुयज्ञानिनो वा, तब ये व्रषज्ञानिनस्ते | मत्यज्ञानिनः श्रुताशानिनः, ये ग्यज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताहानिनो विभङ्गशानिनश्च । बोगद्वारे मनोयोगिनो वाग्योगिनः काययोगिनोऽयोगिनश्च, तत्रायोगिनः शैलेशीमवस्था प्रतिपन्नाः, उपयोगद्वारमाहारद्वारं च द्वीन्द्रियवत् , उपपात एतेष्वधःसप्तमनरकादिव जेभ्यः, उक्तश्च-सत्तममहिनेरइया तेऊ वाऊ अणंतरुबट्टा । नवि पावे माणुस्सं तहेवऽसंखाउया सव्वे ॥१॥” इति, स्थितिद्वारे ४ जघन्यत: स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, समुद्घातमधिकृय मरणचिन्तायां समवहता अपि म्रियन्ते असमवहता अपि, च्यवनद्वारेऽनन्तरमुत्य सर्वेषु नैरविकेषु सर्वेषु च तिर्यग्योनिषु सर्वेषु मनुष्येषु सर्वेषु देवेष्वनुत्तरोपपातिकपर्यवसानेषु गच्छन्ति, 'अस्थेगइया सिझंति जाव अंतं करेंति' इति, अस्तीति निपातोऽत्र बहुवचनार्थः, सन्त्येकका वे निष्ठितार्थाः भवन्ति यावत्करणात् "बु| झंति मुचंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंती"ति द्रष्टव्यं, तत्राणिमाद्यैश्वर्याप्या तथाविधमनुष्यकृत्यापेक्षया निष्ठितार्था इति, अ सप्तममहीनेरविकाः तेजस्कायिका वायुकायिका अनन्तरोवृत्ताः । नैव प्राप्नुवन्ति मानुष्यं तथैवासंख्येयवर्षायुष्काः सर्वे ॥१॥ अनुक्रम [४९] Kा॥४७॥ ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [१], ................---.---- उद्देशक: -1, ............... मूल [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: KAA प्रत सूत्रांक [४१] सर्वविदोऽपि कैश्चित्सिद्धा इष्यन्ते ततो मा भूत्तेषु संप्रत्यय इति तदपोहायाह-'बुध्यन्ते' निरावरणत्वात्केवलावबोधेन समस्तं वस्तुजा तम्, एते चासिद्धा अपि भवस्थ केवलिन एवंभूता वर्तन्ते तत्र मा भूदेतेष्वेव प्रतीतिरित्याह-'मुच्यन्ते' पुण्यापुण्यरूपेण कृच्छ्रेण कदिमणा, एतेऽपि चापरिनिर्वृत्ता एव परैरिष्यन्ते--मुक्तिपदे प्राप्ता अपि तीर्थनिकारदर्शनादिहागच्छन्तीति वचनात् , ततो मा भूत्तद्गोचरा मन्दमतीनां धीरित्याह-परिनिर्वान्ति' बिध्यातसमस्तकर्महुतवहपरमाणवो भवन्तीति, किमुक्तं भवति ?-सर्वदुःखाना शारीरमानस भेदानामन्त-विनाशं कुर्वन्ति, अत एव गत्यागतिद्वारे चतुरागतिका: पञ्चगतिकाः, सिद्धगतावपि गमनात्, 'परीताः' प्रत्येकशरीसारिण: 'सहपेयाः' सयेयकोटीप्रमाणत्वात् प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं मणुस्सा' । अधुना देवानाह से किं तं देवा?, देवा चउब्चिहा पण्णता, तंजहा-भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया। से किंतं भवणवासी,२दसविधा पण्णत्ता, तंजहा-असुरा जाव थणिया, से तं भवणवासी । से किं तं वाणमंतरा,२ देवभेदो सब्बो भाणियब्बो जावते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्ता य अपजत्ता य, तओ सरीरगा-वेउब्विए तेयए कम्मए । ओगाहणा दुविधाभवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्विया य, तत्व णं जा सा भवधारणिजा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजभार्ग उक्कोसेणं सत्त रयणीओ, उत्तरवेउब्विया जहन्नेणं अंगुलसंखेजति उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं, सरीरगा छपहं संघयणाणं असंघयणी वट्टी व छिरा व पहारू नेव संघयणमस्थि, जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव ते तेसिं संघायत्ताए परिणमंति, किंसंठिता?, गोयमा! दुविहा प. दीप % अनुक्रम [४९] ---- अथ देव-जीवानाम् भेदा: प्ररुप्यते ~ 98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -], --------------------------- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्तो देवाः सू०४२ [४२] दीप अनुक्रम [५०] श्रीजीवा-18 पणसा, तंजहा-भवधारणिवा य उत्तरवेब्विया य, तस्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते णं समचजीवाभि उरससंठिया पणत्ता, तत्ध णं जे ते उत्तरवेउब्बिया ते णं नाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता, चमलयगिरीयावृत्तिः तारि कसाया चत्तारि सपणा छ लेस्साओ पंच इंदिया पंच समुग्धाता सन्नीवि असन्नीवि इ स्थिवेदावि पुरिसबेदावि नो नपुंसगवेदा, पज्जत्ती अपज्जत्तीओ पंच, दिट्ठी तिन्नि तिण्णि दंसणा, ॥४८॥ णाणीवि अपणाणीवि, जे नाणी ते नियमा तिण्णाणी अण्णाणी भयणाए, दुविहे उवओगे ति विहे जोगे आहारो णियमा छदिसिं, ओसन्नकारणं पडुच वण्णतो हालिहसुकिल्लाई जाव आहारमाहारेंति, उववातो तिरियमणुस्सेसु, ठिती जहन्नेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, दुविधावि मरंति, उब्वहित्ता नो नेरइएसु गच्छंति तिरियमणुस्सेसु जहासंभवं, नो देवेसु गच्छति, दुगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेचा पण्णत्ता, से तं देवा, से तं पंचेंदिया, सेत्तं ओराला तसा पाणा ॥ (सू०४२) अथ के ते देवाः १, सूरिराह-देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिषका वैमानिकाच, 'एवं भेदो भाणि-12 यवो जहा पन्नवणाए' इति, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण भेदो भणितव्यो यथा प्रज्ञापनायां, स चैवम्-" से किं तं भवणवासी?, भवणवासी दसबिहा पन्नत्ता" इत्यादिरूपस्तत एव सव्याख्यान: परिभावनीयः, 'ते समासतो दुविहा पण्णत्ता-पजत्तगा य +CAAMSACSCLASSOCIAL ॥४८॥ ~99~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत - 09 सूत्रांक [४२] है अपज्जत्तगा य' एषामपर्याप्तत्वमुत्पत्तिकाल एव द्रष्टव्यं न वपर्याविनामकर्मादयतः, उक्तश्च-नारयदेवा तिरिवमणुवगम्भजा जे असंखवासा ऊ । एर उ अपजत्ता उववाए चेव बोद्धव्वा ॥ १॥” इति, शरीरादिद्वारचिन्तायां शरीरद्वारे श्रीणि शरीराणि वैफियं तैजसं | कार्मणं च, अवगाहना भवधारणीया जपन्यतोऽङ्गुलासययभागमात्रा उत्कर्षतः सप्तहस्तप्रमाणा, उत्तरक्रिया जघन्यतोऽङ्गुलसङ्ख्येव|भागप्रमाणा उत्कर्षतो योजनशतसहस्र, संहननद्वारे षण्णां संहननानामन्यतमेनापि संहननेनासंहननिनः, कुतः १ इत्याह-नेवट्ठी | इत्यादि, यतो नैव तेषां देवानां शरीरेवस्थीनि नैव शिरा नापि सायूनि संहननं चास्थिनिचयामकमतोऽस्थ्यादीनामभावात्संहननाभावः, किन्तु 'जे पोग्गला' इत्यादि, ये पुद्गला इष्टा:-मनस इच्छामापन्नाः, तत्र किश्चिदकान्तमपि केषाश्चिदिष्टं भवति तत आह-5 'कान्ता:' कमनीया: शुभवोंपेवत्वात् , यावत्करणात् 'पिया मणुन्ना मणामा' इति द्रष्टव्यं, तत्र यत एव कान्ता अत एव प्रिया:-सदैबामनि प्रियवुद्धिमुत्पादयन्ति, तथा 'शुभाः' शुभरसगन्धस्पर्शात्मकत्वात् 'मनोशाः' विपाकेऽपि सुखजनकतया मनःप्रहादहेतुखात्। मनापाः' सदैव भोज्यतया जन्तूनां मनांसि आनुवन्ति, दत्वम्भूताः पुद्गलास्तेषां शरीरसङ्घाताय परिणमन्ति । संस्थानद्वारे भवधारणीया तनुः सर्वेषामपि समचतुरस्रसंस्थाना उत्तरक्रिया नानासंस्थानसंस्थिता, तस्या इच्छावशतः प्रादुर्भावात् , कषायाश्चत्वारः, सब्ज्ञाश्चतस्रो, लेश्याः षट्, इन्द्रियाणि पश्न, समुद्घाता: पञ्च, वेदनाकपायमारणान्तिकवैक्रियतेजससमुद्घातसम्भवात् । सब्जिद्वारे | सब्जिनोऽपि असजिनोऽपि, ते च नैरयिकवद्भावनीयाः, वेदद्वारे स्त्रीवेदा अपि पुरुषवेदा अपि नो नपुंसकवेदाः, पर्याप्तिद्वारं दृष्टिद्वारं दर्शनद्वारं च नैरयिकवत् । ज्ञानद्वारे शानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि चेति विकल्पोऽसब्ज्ञिमध्यः, तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमात्रिज्ञा १ नारका देवाः तिअनुजा गर्भन्युकान्ता येऽसझमेयवर्षायुष्काः । एते तु अपर्याप्ता उपपात एष बोद्धव्याः ॥१॥ SPECKSEENERNKOK दीप अनुक्रम [५०] 4*74-72 जी००९ ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत देवाधिकारः सू० ४२ सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [५०] श्रीजीवा- सानिनः, तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिशानिनश, तत्र येऽज्ञानिनस्ते सन्त्येकका ये यज्ञानिनः सन्त्येकका ये त्र्यज्ञा-| जीवाभिमानिनः, तत्र ये यज्ञानिनस्ते नियमान्मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः, ये व्यज्ञानिनस्ते नियमान्मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश्च, मलयगि- अयं च यज्ञानिनरुयज्ञानिनो वेति विकल्प: असज्ञिमध्याद् ये उत्पद्यन्ते तान् प्रति द्रष्टव्यः, स च नैरविकवद्भावनीयः । उपयोगारीयावृत्तिःहारद्वाराणि नैरविकवत् , उपपात: सब्ज्यसब्जिपचेन्द्रियतिर्यग्गर्मजमनुष्येभ्यो न शेषेभ्यः । स्थिति धन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्क पंतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, समुद्घातमधिकृत्य मरणचिन्तायां समवहता अपि नियन्तेऽसमवहता अपि । च्यवनद्वारेऽनन्तरमुद्धृत्य ॥४९॥ पृथिव्यम्बुवनस्पतिकायिकगर्भव्युत्क्रान्तिकसङ्ख्यातवर्षायुष्कतिर्यकपोन्द्रियमनुष्येषु गच्छन्ति न शेषजीवस्थानेषु, अत एव गत्याग-18 तिद्वारे यागतिका द्विगतिकाः, तिर्यग्मनुष्यगत्यपेक्षया, 'परीताः' प्रत्येकशरीरिणोऽसलपेया: प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-सेत्तं देवा,' सर्वोपसंहारमाह-सेत्तं पंचेंदिया, सेत्तं ओराला तसा पाणा' मुगमम् ।। सम्प्रति स्थावरभावस त्रसभावस्य च भवस्थितिकालमानप्रतिपादनार्थमाह थावरस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं बावीसं वाससहस्साई ठिती पण्णता॥ तसस्सणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा! जहणेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता।थावरे णं भंते ! थावरत्ति कालतो केवचिरं होति ?, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अर्णतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणिओ (अवसप्पिणीओ) कालतो खेत्ततो अर्णता लोया असंखेजा पुग्गलपरियट्टा, ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलिपाए असं % -46- 4658 ॥४९॥ +-+25 ~ 101~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -, ---------------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - - - - प्रत सूत्रांक [४३]] -- - -- - खेजतिभागो ॥ तसे णं भंते ! तसत्ति कालतो केवञ्चिरं होति?, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओ (अवसप्पिणीओ) कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा ।। थावरस्स णं भंते ! केवतिकालं अंतरं होति?, जहा तससंचिट्ठणाए । तसस्स णं भंते ! केवतिकालं अंतरं होति ?, अंतोमुहुत्तं उकोसेणं वणस्सतिकाले ॥ एएसि णं भंते ! तसाणं थावराण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहया वा तल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा तसा थावरा अणंतगुणा, सेतं दुविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ।। दुविहपडिवत्ती समत्ता (सू०४३) जपन्यतोऽन्तर्मुहमुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, एतच्च पृथिवीकायमधिकृत्यावसातव्यम् , अन्यस्य स्थावरकायस्योत्कर्षत एतावत्या भवस्थितेरभावात् ।। सकायस्व जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रयविंशत्सागरोपमाणि, एतच देवनारकापेक्षया द्रष्टव्यम् , अन्यस्य सकायस्योत्कर्षत एतावत्प्रमाणाया भवस्थितेरसम्भवान् ॥ सम्प्रत्येतयोरेब कायस्थितिकालमानमाह-स्थावरे 'गम्' इति वाक्यालङ्कारे | स्थावर इति' स्थावर इत्यनेन रूपेण स्थावरलेनेति भावः, कालत: किवचिरं भवति?, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो-| ऽनन्त कालं, तमेवानन्तं कालं कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य: कालतः, क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः, किमुक्तं भवति ?-अनन्त लोकेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तेषां प्रतिसमयमेकैकापहारेण यावत्योऽनन्ता अवसर्पिण्युत्सर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इति, एतासामेव पुद्गलपरावर्त्ततो मानमाह-असद्धयेयाः पुद्गलपरावाः , असोयेषु पुद्गलपरावर्तेषु क्षेत्रत इति पदसांनिध्यात्क्षेत्रपुद्गलपरा - दीप - अनुक्रम [५१] ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [४३ ] दीप अनुक्रम [५१] उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], उद्देशक: [-], मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... ..आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ५० ॥ Jan Education "जीवाजीवाभिगम" - सु० ४३ वर्सेषु यावत्यः संभवन्ति अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यस्तावत्य इति भावः इहासङ्ख्येयमसयेयभेदात्मकमतः पुलपरावर्त्तगतमसो- २ १ प्रतिपत्तौ यत्वं निर्द्धारयति - 'ते ण'भित्यादि, ते णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गलपरावर्त्ता आवलिकाया असङ्ख्येयो भागः, आवलिकाया असङ्ख्येय- सस्थातमे भागे यावन्तः समयास्तावत्यमाणा इत्यर्थः एतच्च बनस्पतिकायस्थितिमङ्गीकृत्य वेदितव्यं, न पृथिव्यम्बुकायस्थितिव्यपेक्षया तयोः 3 वरस्थि काय स्थिते रुत्कर्षतो ऽप्यसङ्ख्येयोत्सर्पिणीप्रमाणत्वात्, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायाम् – “पुढविकाइए णं भंते! पुढविकाइयत्ति कालओ 4त्यन्तरे केवच्चिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तमुकोसेणं असंखिनं कालं असंखिजाओ उस्सप्पिणिअवसपिणीओ कालओ, खेचओ असंखिजा लोगा, एवं आउकारवि" इति, या तु वनस्पतिकायस्थितिः सा यथोक्तप्रमाणा तत्रोक्ता "वणस्सइकाइए णं भंते! वणस्सइकायत्ति कालओ कियचिरं होइ ?, गोयमा! जहस्रेणं अंतोमुद्दत्तं उकोसेणं अनंतं कालं अनंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, वित्तओ अणंता लोगा असंखिज्जा पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखिज्जइभागो" इति । एषोऽपि च वनस्पतिकाय स्थितिकाल: सां- 18 व्यवहारिकजीवानधिकृत्य प्रोच्यते, असांव्यवहारिकजीवानां तु कायस्थितिरनादिरवसेया, तथा चोकं विशेषणवत्याम् — “अस्थि अनंता जीवा जेहिं न पत्तो तसाइपरिणामो । तेवि अनंताणंता निगोयवासं अणुवसंति ॥ १ ॥” साऽपि तेषामसांव्यवहारिकजीवा| नामनादिः कार्यस्थितिः केषाञ्चिदनादिरपर्यवसाना, ये न जातुचिदसांव्यवहारिकराशेरुहृत्य सांव्यवहारिकराशौ निपतिष्यन्ति, केपाचिदनादिः सपर्यवसाना, ये असांव्यवहारिकराशेरुद्धृत्य सांञ्यवहारिकराशौ निपतिष्यन्ति । अथ किमसांव्यवहारिकराशेर्विनिर्गत्य सांव्यबहारिकराशावागच्छन्ति ? येनैवं प्ररूपणा क्रियते, उच्यते, आगच्छन्ति, कथमवसीयते ? इति चेदुच्यते-पूर्वाचार्योपदेशात्, १ सन्त्यनन्ता जीवा वैर्न प्राप्तसादिपरिणामः । वेऽप्यनन्तानन्दा निगोदवासमनुवसन्ति ॥ १ ॥ For P&Personal Use City ~103~ ॥ ५० ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: -, ---------------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३]] दीप अनुक्रम [५१] तथा चाह दु:षमान्धकारनिमग्नजनप्रवचनप्रदीपो भगवान् जिनभद्रगणिः क्षमाश्रमणो विशेषणवत्याम्-सिंहांति जत्तिया किर Pइह संयवहारजीवरासिमझाओ । इति अणाइवणस्सइरासीओ तत्तिया तंमि ॥ १॥” इति कृतं प्रसङ्गेन । सम्प्रति सकायस्य का यस्थितिमानमाह-तसे णं भंते'इत्यादि, तसे'ण'मिति पूर्ववत् 'वस इति' बस इत्यनेन पर्यायेण कालत: "कियधिर' कियन्तं कालं यावद्भवति, भगवानाह-गीतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसोयं कालम् , एनमेवासपेयं कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-असंखि-| जाओ'इत्यादि, असमषेया उत्सपिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसोया लोका असोयेषु लोकेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तेषां प्रतिसमयमेकैकापहारे यावलोऽसयेया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इति भावः, इयं चैतावती कायस्थितिर्गतित्रसं तेजस्कायिक वायुकायिकं चाधिकृत्यावसेवा न तु लब्धित्रसं, लब्धित्रसस्य कायस्थितेरुत्कर्षतोऽपि कतिपयवर्षाधिकसागरोपमसहस्रद्वयप्रमाणत्वात् , तथा चोतं प्रज्ञापनायाम्-तसकाए गं भंते! तसकायत्ति कालतो कियचिरं होइ?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहर्त उक्कोसेणं दो। सागरोवमसहस्साई संखेनवासमभहियाई" तथा "तेउकाइए गं भंते ! तेउकाइएत्ति कालतो केवगिरं होति', गोयमा! जहन्नेणं| अंतोमुहुर्त उकोसेणं असंखेज कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेजा लोगा, एवं बाउकाइयावि"। इति । सम्प्रति स्थावरत्वस्यान्तरं विचिन्तयिषुराह-'थावरस्सणं भंते! अंतर'मित्यादि सुगमं नवरमसोया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसया लोकाः, इत्येतावत्प्रमाणमन्तरं तेजस्कायिकत्रायुकायिकमध्यगमनेनावसातव्यम् , अन्यत्र गतायेतावत्प्रमाणस्यान्तरस्या|सम्भवात् ।। 'तसस्स गं भंते ! अंतर'मित्यादि सुगम नवरम् 'उकोसेणं अणस्सइकालो' इति, उत्कर्षतो वनस्पतिकालो वक्तव्यः, स चै १सिध्यन्ति यावन्तः किलेह संव्यवहारराशिमध्यात् । आयान्ति अनादिवनस्पतिराशेः तावन्तस्तस्मिन् ॥ १॥ ~ 104~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः वम्-"उकोसेणं अर्णतमकताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अर्णता लोगा, असंखेजा पोग्गलपरिपट्टा, ते गं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजइभागो" इति, एतावत्प्रमाणे चान्तरं वनस्पतिकायमध्यगमनेन प्रतिपत्तव्यम् , अन्यत्र गतावेतावतो- |ऽन्तरस्यालभ्यमानत्वात् ।। सम्प्रत्यल्पबहुत्वमाह-एतेषां भदन्त ! जीवानां बसानां स्थावराणां च मध्ये कतरे कतमेभ्योऽल्पा वा बहवो वा कतरे कतरैस्तुल्या वा?, अत्र सूत्रे विभक्तिपरिणामेन तृतीया व्याख्येया, तथा कतरे कतरेभ्यो (ऽल्पा बहुकास्तुल्या) विशेषाधिका वा, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोकानसाः, असख्यातत्वमात्रप्रमाणत्वात् , स्थावरा अनन्तगुणाः, अजयन्योत्कृष्टानन्तानन्तसङ्ख्यापरिमाणत्वात् , उपसंहारमाह-'सेत्तं दुविहा संसारसमावन्ना जीवा' इति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाजीवाभिगमटीकायां द्विविधा प्रतिपत्तिः समाप्ता ।। प्रतिपत्ती सादेःस्थित्यादि सू०४३ सूत्रांक [४३] ॥५१॥ दीप अनुक्रम [११] 4375%2% xin५१॥ JOKEkcamam अत्र प्रथमा (द्विविधा) प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता ~ 105~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) पतिपत्तिः श...................- उद्देशक: -1, ----------------------- मल [४४-४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: अथ त्रिविधाख्या द्वितीया प्रतिपत्तिः प्रत सूत्रांक R-% [४४-४५] C दीप अनुक्रम तदेवमुक्ता द्विविधा प्रतिपत्तिः, सम्प्रति त्रिविधा प्रतिपत्तिरारभ्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम्तत्थ जे ते एवमासु तिविधा संसारसमावपणगा जीवा पण्णत्ता ते एवमासु, तंजहा-इत्थि पुरिसा णपुंसका ॥ (सू०४४)। से किं तं इत्थीओ?,२ तिविधाओ पण्णत्ता, तंजहा-तिरिक्खजोणियाओ मणुस्सिस्थीओ देवित्थीओ।से किं तं तिरिक्वजोणिणित्थीओ?, २ तिविधाओ पण्णसा, तंजहा-जलयरीओ धलयरीओ, खयरीओ।से किं तं जलयरीओ?, २ पंचविधाओ पण्णताओ, तंजहा-मच्छीओ जाव सुंसुमारीओ। से किंतं थलयरीओ?,२ दुविधाओ पण्णता, तंजहा-चउपपदीओ य परिसप्पीओ या से किं तं चउपपदीओ?, २ चउविधाओ पण्णत्ता, तंजहा-एगखुरीओ जाव सणफईओ। से किंतं परिसप्पीओ?.२ दविहा पण्णत्ता, तंजहाउरपरिसप्पीओ य भुजपरिसप्पीओ य । से किं तं उरगपरिसप्पीओ?.२तिविधाओ पण्णत्ता, तंजहा-अहीओ अहिगरीओ महोरगाओ, सेत्तं उरपरिसप्पीओ । से किं तं भुयपरिसप्पीओ?,२ अणेगविधाओ पण्णशा, तंजहा-सेरडीओ सेरंधीओ गोहीओ णउलीओ सेधाओ [५२-५३] -%Xx अथ द्वितिया (त्रिविधा) प्रतिपत्ति: आरभ्यते जीवानाम् भेदा: त्रिविध-स्वरुपेणम , स्त्रिया: त्रैविध्यम ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४४-४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि र प्रतिपत्ती जीवास्त्रि मलयगि भेदाः प्रत सूत्रांक [४४-४५] रीयावृत्तिः ।। ५२॥ सू०४४ खीभेदाः सू०४५ दीप अनुक्रम सण्णाओ सरडीओ सेरंधीओ भावाओ खाराओ पवण्णाइयाओ चउप्पइयाओ मूसियाओ मुगुसिओ घरोलियाओ गोव्हियाओ, जोव्हियाओ विरचिरालियाओ, सेत्तं भुयगपरिसप्पीओ। से किं तं खहयरीओ?, २ चउविधाओ पण्णत्ता, तंजहा-चम्मपक्खीओ, जाव सेत्तं खहयरीओ, सेसं तिरिक्खजोणिओ ॥ से किं तं मणुस्सिओ?, २ तिविधाओ पण्णत्ता, तंजहा-कम्मभूमियाओ अकम्मभूमियाओ अंतरदीवियाओ । से किं तं अंतरदीविषाओ?, २ अट्ठावीसतिविधाओ षण्णत्ता, तंजहा-एगूरूइयाओ आभासियाओ जाव सुद्धदंतीओ, सेसं अंतरदी० ॥ से किं तं अकम्मभूमियाओ?,२ तीसविधाओ पषणता, तंजहा-पंचसु हेमवएसु पंचसु एरण्णवएम पंचसु हरिवंसेसु पंचसु रम्नगवासेसु पंचसु देवकुरासु पंचसु उत्तरकुरासु, सेत्तं अकम्मा। से किं तं कम्मभूमिया ?, २ पपणरसविधाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-पंचसु भरहेसु पंचमु एरवएम पंचसु महाविदेहेसु, सेतं कम्मभूमगमणुस्सीओ, सेत्तं मणुस्सित्थीओ ॥ से किं तं देवित्थियाओ?, २ चउब्विधा पपणत्ता, तंजहा-भवणवासिदेवित्थियाओ वाणमंतरदेवित्थियाओ जोतिसियदेवित्थियाओ वेमाणियदेवित्थियाओ । से किं तं भवणवासिदेवित्थियाओ?, २ दसविहा पण्णता, तंजहा-असुरकुमारभवणवासिदेवित्थियाओ जाव थणितकुमारभवणवासिदेवित्थियाओ, से तं भवणवासिदेवित्थियाओ। से किं तं वाणमंतरदेवित्थियाओ?, २ अट्ट [५२-५३] % ॥५२॥ REC-25 ~ 107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग ਸ प्रत सूत्रांक [४४ ४५] दीप अनुक्रम [५२ ५३ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-] मूलं [४४-४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४]. उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः विधाओ पण्णत्ता, तंजहा -- पिसापवाणमंतर देवित्थिवाओ जाव से तं वाणमंतरदेवित्थियाओ । से किं तं जोतिसियदेवित्थियाओ ?, २ पंचविधाओ पण्णत्ता, तंजहा - चंद्रविमाणजोतिसिदेवत्थियाओ सूर०गह० नक्खत० ताराविमाणजोतिसियदेवित्थियाओ, से त्तं जोतिसियाओ । से किं तं वैमाणियवित्थियाओ ?, २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजा-सोहम्मकप्पवेमाणियदेवित्थियाओ ईसाणकपवेमाणियदेवित्थिगाओ, सेत्तं वैमाणित्थीओ ॥ ( सू० ४५) 'सूत्र' तेषु नवसु प्रतिपत्तिषु मध्ये ये आचार्यो एवमाख्यातवन्तः - विविधाः संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञप्तास्त एवमाख्यातवन्तः, तयथा - स्त्रियः पुरुषा नपुंसकानि, इह रूयादिवेदोदयाद् योन्यादिसङ्गताः स्यादयो गृह्यन्ते तथा चोक्तम् — “योनिर्मृदुत्वमस्थैर्य, मुग्धताssवडता स्तनौ । पुंस्कामितेति लिङ्गानि सप्त स्त्रीले प्रचक्षते ॥ १ ॥ मेहनं खरता दा, शौण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता । स्वीकामितेति लिङ्गानि सप्त पुंस्ले प्रचक्षते ॥ २ ॥ स्तनादिश्मनुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधाः श्राहुमहानलसुद्दीपितम् ॥ ३ ॥” तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति श्रीवतव्यतामाह-'से किं तमित्यादि, अब कास्ताः स्त्रियः ?, सूरिराह- स्त्रियविविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथातिर्यग्योनिस्त्रियो मनुष्यस्त्रियो देवस्त्रियश्च । 'से किं तमित्यादि तिर्यग्योनिस्त्रियस्त्रिविधाः, तद्यथा - जलचर्यः स्थलचर्यः खचर्यश्च । 'से किं तमित्यादि । मनुष्यत्रियोऽपि त्रिविधास्तद्यथा - कर्मभूमिका अकर्मभूमिका अन्तरद्वीपिकाश्च । 'से किं तमित्यादि, देवस्त्रियश्चतुर्विधास्तद्यथा-भवनवासिन्यो व्यन्तयों ज्योतिष्क्यो वैमानिक्यश्च ॥ सम्प्रति स्त्रिया भवस्थितिमानप्रतिपादनार्थमाह इत्थी णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोधमा । एगेणं आपसेणं जहनेणं अंतोमुहसं For Pase & Personale Only ~ 108~ pruboryg Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], .. ......... ...---- उद्देशक:-1, .....................--- मूलं [४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक । सू०४६ [४६] दीप श्रीजीवा- उकोसेणं पण्णपन्नं पलिओवमाई एक्केणं आदेसेणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उफोसेणं णव पलिओवमाई र प्रतिपत्ती जीवाभि० एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं अंतो- स्त्रीवदमलयगि- मुहुत्तं उक्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाई ॥ (मू०४६) स्थित्यादि रीयावृत्तिः 'इत्थी णं भंते' इत्यादि, स्त्रिया भदन्त ! कियन्तं कालं स्थिति: प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम ! 'एकेनादेशेन' आदेशशब्द इह प्रकादारवाची "आदेसो त्ति पगारों" इति वचनात् , एकेन प्रकारेण, एक प्रकारमधिकृत्येति भावार्थः, जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम् , एतत्तिर्यग्मनु-16 ध्यख्यपेक्षया द्रष्टव्यम् , अन्यत्रैतावतो जघन्यस्यासम्भवान्, उत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि, एतदीशानकल्पापरिगृहीतदेव्यपेक्षम्।। तथैकेनादेशेन जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तम् एतत्तथैवोत्कर्पतो नब पल्योपमानि, एतदीशानकल्प एव परिगृहीतदेव्यपेक्षम् । तथा एकेनादेशेन जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तम् , एतत्प्राग्वत् , उत्कर्पतः सप्त पल्योपमानि, एतत्सौधर्मकल्पे परिगृहीतदेवीरधिकृत्य । तथा एकेनादेशेन जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पञ्चाशत्पल्योपमानि, एतत्सौधर्मकल्प एवापरिगृहीतदेव्यपेक्षम , उक्तश्च सतहण्याम्-संपरिम्गहेवराणं सोहम्मीसाण पलियसाहीयं । उकोस सत्त पन्ना नत्र पणपन्ना य देवीणं ॥ १॥" तदेवं सामान्यतः स्त्रीणां जघन्यत उत्कर्षतश्च स्थितिमानमुक्तं, सम्प्रति तिर्यकरूयादिभेदानधिकृत्याह तिरिक्खजोणिस्थीर्ण भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता?.गो जहन्नेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाई। जलयरतिरिक्खजोणित्थीणं भंते! केवइयं कालं ठिती पण्णसा',गोयमा! जहनेणं १ परिग्रहीतेतराणा सीधशामानो पस्योपमं साधिकम् । उत्कृष्टतः सप्त पञ्चाशत् ना पञ्चपञ्चाशन पत्योपमानि देवीनाम् ॥1॥ अनुक्रम [१४] RECEARCH ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], -------------------- मूलं [४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७] दीप अंतो उको पुवकोडी।चउप्पदयलयरतिरिक्खजोणिवीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गोजहा तिरिक्खजोणिस्थीओ। उरगपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणिस्थीर्ण भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसं पुग्यकोडी । एवं भुयपरिसप्पा एवं खहयरतिरिक्खिस्थीणं जहन्नेणं अंतोमुहुसं उको पलिओवमस्स असंखेजतिभागो।।मणुस्सित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पणता?, गोयमा! खेत्तं पहुंच जह० अंतो को तिणि पलिओवमाई, धम्मचरणं पहुंच जह० अंतो० उक्कोसेणं देरणा पुचकोडी । कम्मभूमयमणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पणत्ता?, गोयमा! खित्तं पडुच जहन्नेगं अंतोमुहत्तं उफोसेणं तिन्नि पलिओचमाई धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं देसूणा पुष्यकोडी । भरहेरवयकम्मभूमगमणुस्सिस्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता, गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं तिनि पलिओचमाइं, धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंगोमु० उकोसेणं देसूणा पुब्बकोडी । पुब्बविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा खेत्तं पडुच जहन्नेणं अंतो उक्कोसेणं पुचकोडी, धम्मचरणं पञ्च जहन्नेणं अंतोमहतं उकोसेणं देसूणा पुचकोडी । अकम्मभूमगमणुस्सित्थीण भंते! केवतियं कालं ठिती पपणता?. गोयमा! जम्मणं पडुच जहन्नेणं देसूर्ण पलिओवर्ण पलिओवमस्स असंखेजतिभागऊणगं उको अनुक्रम [१५] ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [२], ------------------------- उद्देशक: [-], --------------------- मूलं [४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः NROLMAC- र प्रतिपत्ती तिर्यक्खीस्थित्यादि सू०४७ [४७]] ॥५४॥ सेणं तिन्नि पलिओवमाई, संहरणं पहुच जहन्नेणं अंनोमुहुरा उकोसेणं देसूणा पुवकोडी । हेमवएरण्णवए जम्मणं पहुंच जहन्नेणं देसूर्ण पलि ओवमं पलिओवमस्स असंखेजइभागेण ऊणगं पलिओवम संहरणं पहुञ्च जहन्नेणं अंतोमुहुरा उक्कोसेणं देसूणा पुब्वकोडी । हरियासरम्मयवासअकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! केवइयं कालं ठिई पषणता?, गोयमा! जम्मणं पडुच्च जहनेणं देसणाई दो पलिओवमाई पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणयाई उको दो पलिओवमाई. संहरणं पहुंच जाह अंतो० उको० देसूणा पुब्वकोडी । देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता?, गोयमा! जम्मगं पडुच जहन्नेणं देसूणाई तिणि पलिओवमाई पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणयाई उक्को तिन्नि पलिओवमाई, संहरणं पटुव जहन्नेणं अंतोमुह० उको० देसूणा पुब्बकोडी । अंतरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवतिकालं ठिती पणत्ता?, गोयमा! जम्भणं पडुच जहन्नेणं देसूर्ण पलिओवमस्स असंखेज इभागं पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणयं उको पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं संहरणं पहुच जहन्नेणं अंतोमु० उको० देसूणा पुचकोडी ।। देविस्थीणं भंते! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं पणपन्नं पलिओवमाई । 'भवणवासिदेवित्थीणं भंते!, जहन्नेर्ण दसवाससहस्साई उकोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई। एवं असुरकु दीप अनुक्रम [१५] -- 2 -% - 0 ॥ ५४॥ " 2-% ~111~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [ ५५ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [ ४७ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... .. आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जी० च० १० Education मारभवणवासिदेवित्थियाए, नागकुमारभवणवासिदेवित्थियाएवि जज्ञेणं दसवास सहस्साई उकोसेणं देसूणाई पलिओवमाई, एवं सेसाणवि जाव थणियकुमाराणं । वाणमंतरीणं जहनेणं दसवाससहस्साई उकोसं अद्धपलिओवमं । जोइसियदेवित्थीणं भंते! केवइयं कालं ठिती प ?, गोमा ! जहणेणं पलिओवमं अट्ठभागं उक्कोसेणं अद्वपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अमहियं, चंद्रविमाणजोतिसियदेवित्थियाए जहन्नेणं चडभागपलि ओवमं उक्कोसेणं तं चैव सूरविमाणजोतिसियदेवित्थियाए जहस्रेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पंचहिं बाससएहिमन्भहियं, गहविमाणजोतिसियदेवित्थीणं जपणेणं च भागपलिओवमं उसे अद्धपलिओवमं, णक्खत्तविमाणजोतिसियदेवित्थीणं जहण्णेणं च भागपलिओवमं उक्कोसेणं च भागपलिओवमं साइरेगं, ताराविमाणजोतिसियदेवित्थियाए जहनेणं अट्ठभागं पलिओ मं उक्को० सातिरेगं अट्ठभागपलि ओवमं । वेमाणियदेवित्थियाए जहणेणं पलिओवमं उक्कोसेणं पणनं पलिओबमाई, सोहम्मकप्पवेमाणियदेवित्थीणं भंते! केवतियं कालं ठिती प ०१, जहणेणं पलिओवमं उक्कोसेणं सत्त पलिओचमाई, ईसाणदेवित्धीणं अहपणेणं सातिरेगं पलिओवर्म उकोसेणं णव पलिओदमाई || (सू. ४७ ) 'तिरिक्खजोणिइत्थियाणं भंते!" इत्यादि, उत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि देवकुर्बादिषु चतुष्पदस्त्रीरधिकृत्य, जलचरस्त्री Far P&Personally ~ 112~ royang Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ..............................- मूलं [४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत तिर्यक् सूत्रांक [४७] दीप श्रीजीवा- णामुत्कर्षतः पूर्वकोटी, स्थलचरस्त्रीणां यथा औधिकी, त्रीणि पल्योपमानीत्यर्थः । खचरीणामुत्कर्षतः पस्योपमासङ्ख्येयभागः,रप्रतिपत्ती जीवाभि मनुष्यत्रीषु क्षेत्र प्रतीत्य-क्षेत्राश्रयणेनेतिभावः, जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्तमुत्कर्षतो देवकुर्वादिषु भरतादिष्वपि एकान्तसुषमादिकाले त्रीणि | मलयगि- कापल्योपमानि, धर्मचरण चरणधर्मसेवनं प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तम्, एतच तद्भवस्थिताया एव परिणामवशतः प्रतिपातापेक्षया रीयावृत्तिः हा द्रष्टव्यं, चरणधर्मस्व मरणमन्तरेण सर्वस्तोकतयाऽप्येतावन्मात्रकालावस्थानभावान्, तथाहि-काचित्स्त्री तथाविधक्षयोपशमभावतः सर्व-18|| विरतिं प्रतिपद्य तावन्मात्रक्षयोपशमभावादन्तर्मुहूर्तानन्तरं भूयोऽपि अविरतसम्यग्दृष्टिवं मिथ्यात्वं वा प्रतिपद्यते इति, अथवा धर्म-1 चरणमिह देशचरणं प्रतिपत्तव्यं न सर्वचरणं, देशचरणप्रतिपत्तिस्तु जघन्यतोऽप्यान्तर्मुहूर्तिकी, तस्या भङ्गबहुलत्वात, अथोभयचरणसम्भवे किमर्थमिह देशचरणं परिगृझते ?, उच्यते, देशचरणपूर्वकं प्राय: सर्वचरणमिति स्थापनार्थम्, अत एवोक्तं वृद्धैः-"सम्म-| तिमि उ लद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होइ। चरणोवसमखयाणं सागरसंखंतरा होंति ॥ १॥" एवं "अप्परिवडिए" इत्यादि, उत्कर्षतो देशोना| पूर्वकोटी, अष्टसांवत्सरिक्याश्चरणधर्मप्राप्नेस्तदूर्व चरमान्तर्मुहूर्त यावप्रतिपतितपरिणामभावात्, पूर्वपरिमाणं चेदम्-"पुवस्स उ परिमाण सयरिं खलु होति कोडिलक्खाओ । छप्पणं च सहस्सा बोद्धब्बा वासकोडीणे ॥ १॥ (७०५६००००००००००)। सम्प्रति कर्मभूमिकादिविशेषत्रीणां वक्तव्यतामाह-अक्षरगमनिका सुगमा, भावार्थस्त्वयम्-कर्मभूमिकमनुष्यत्रीणां क्षेत्रं कर्मभूमिकासामान्यलक्षणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, तानि च भरतैरावतेषु सुषमसुषमालक्षणेऽरके बेदितव्यानि, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तनुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, भावना चान प्रागिब द्रष्टव्या, एवमुत्तरसूत्रद्वयेऽपि ।। अत्रैव विशे ॥५५॥ सम्यक्त्वे तु लब्बे पल्योपमपृथक्त्वेन श्रावको भवति । चारित्रमोहोपशमक्षयाणां सामराः संख्याता अन्तरं भवति ॥१॥ SCENE अनुक्रम [१५] ~ 113~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७] दीप अपचिन्तां चिकीर्षुराह-सुगम, नवरं भरतैरावतेषु त्रीणि पल्योपमानि सुषमसुषमायां, पूर्व विदेहेषु क्षेत्रतः पूर्वकोटी, तत ऊर्च तत्र तथाक्षेत्रवाभाव्यादायुषोऽसम्भवात् , अकम्मभूमिगेत्यादि, जन्म प्रतीत्येति-अकर्मभूमिपूत्पत्तिमाश्रित्य जघन्यतो देशोनं पल्योपमं, तञ्चाभागाानमपि देशोनं भवति ततो विशेषस्थापनाथाह-पल्योपमस्वासङ्खयेयभागेनोनं, एतन हैमवतहरण्यवतक्षेत्रापेक्षया द्रष्टव्यं, तत्र जघन्यतः स्थितेरेतावत्प्रमाणायाः सम्भवात् , उत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि, तानि च देवकुरूत्तरकुर्वपेक्षया, 'संहरणं पडुच्चे'त्यादि, संहरणं नाम कर्मभूमिजाया: नियोऽकर्मभूमिपु नयनं तत्प्रतीत्य' तदाश्रित्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, इयमत्र भावना -इह कर्मभूमिकाऽप्यकर्मभूमिषु संहृता अकर्मभूमिकेति व्यवहियते, तत्क्षेत्रसम्बन्धभावात् , यथा लोके कश्चिन्मगधादिदेशात्सुराट्रान् प्रति प्रस्थितो गिरिनगरेषु निवासं कल्पयितुकामः सुराष्ट्रपर्यन्तमाभप्राप्तः सन् समुत्पद्यमानेषु तथाविधेषु प्रयोजनेषु सौराष्ट्र इति व्यवहियते, तद्वदधिकृताऽपि, तत्र च संहृता सती काचिदन्तर्मुहूत्तै जीवति ततोऽपि वा भूयोऽपि संहियते काचित्पूर्वकोट्यायुष्का यावजीवमपि तत्रावतिष्ठते ततो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुक्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति, आह-भरतैरावतान्यपि कर्मभूमौ वर्तन्ते तत्र माकान्तसुषमादौ त्रीण्यपि पल्योपमानि स्थितिरस्या भवति संहरणं च संभवति तत्कथं देशोना पूर्वकोटी भण्यते ? इति, अत्रोच्यते, कर्मकालविवक्षयाऽभिधानान् , तस्य चैतावन्मात्रलादिति । हैमवतहरण्यवताकर्मभूमिकमनुष्यस्त्रीणां जन्मतो जघन्येन देशोनं पल्योपन कापस्योपमासवधेयभागेन न्यूनमुत्कर्षत: परिपूर्ण पल्योपम, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुर संगुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, भावना प्रागिव ।। एवं 'हरिवासरम्मए' इयायपि सूत्रत्रयं भावनीयं, नवरं हरिवर्षरम्यकयोर्जन्मतो जघन्येन द्वे पल्लोपमे पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूने उत्कर्षतः परिपूर्णे वे पस्योपमे । देवकुरूत्तरकुरुषु जन्मतो जघन्येन त्रीणि पल्योपमानि पल्योपमासपेयभागहीनानि उ अनुक्रम [१५] CRA ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], .. ......... ...---- उद्देशक:-1, .....................--- मूलं [४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवा- प्रत सूत्रांक [४७] मलयगि-|| रीयावृत्तिः - स्थितिः . दीप त्कर्षत: परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि, अन्तरद्वीपेषु जन्मतो जघन्येन देशोनः पल्योपगासवधेयभागः, कियता देशेनोन: पल्योपमा- रप्रतिपत्ती सद्धयेयभाग' इति चेदत आह-पल्योपमासङ्ख्येयभागेनोन:, किमुक्तं भवति-उत्कृष्टपल्योपमासङ्खधेयभागप्रमाणादायुषो जघन्यमायुः तिर्यकपल्योपमासधेयभागन्यून, नबरमूनताहेतु: पल्योपमासङ्खयेयो भागोऽतीव स्तोको द्रष्टव्यः, संहरणमधिकृत्य सर्वत्रापि जघन्यत उत्क- स्यादिपंतश्च तावदेव प्रमाणम् ।। सम्प्रति देवस्तीवक्तव्यतामाह-अक्षरगमनिका सुगमा तात्पर्यमात्रमुच्यते-देवत्रीणां सामान्यतो जघन्यतः । स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि, तानि च भवनपतिव्यन्तरीरधिकल वेदितव्यानि, उत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि, एतानि चेशानदेवी सू०४७ रधिकृत्य प्रतिपत्तव्यानि । विशेषचिन्तायां भवनबासिदेव्य: सामान्यतो दश वर्षसहस्राणि, उत्कर्षतोऽर्द्धपञ्चमानि-सार्दानि चत्वारि पल्योपमानि, एतानि च भवनवासिविशेषासुरकुमारदेवीरधिकृत, अनापि विशेषचिन्तायामसुरकुमारदेवीनां सामान्यतो जघन्येन दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतोऽपश्चमानि पल्योपमानि, नागकुमारभवनवासिदेवस्त्रीणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतो देशोनं | |पल्योपमम् , एवं शेषाणां यावत्स्तनितकुमारीणां, व्यन्तरीणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्पतोऽर्द्ध पल्योपमं, ज्योतिषस्त्रीणां जघन्येनाष्टभागपल्योपसमुत्कर्षतोऽर्द्ध पल्योपमं पञ्चाशता वर्षसहस्रैरभ्यधिकम् , अत्रापि विशेषचिन्तायां चन्द्रविमानवासिज्योतिषस्त्रीणां जघन्यतश्चतुर्भागमा पल्योपममुत्कर्षतोऽर्द्धपल्योपमं पश्चाशता वर्षसहस्रैरधिकं, सूर्यविमानबासिज्योविष्कदेवीनां जघन्यतश्चतुर्भागमात्र |पल्योपममुत्कर्षतोऽर्द्धपल्योपमं वर्षशतपञ्चकाभ्यधिक, ग्रह विमानवासिज्योतिष्कदेवीनां जघन्यतश्चतुर्भागमात्र पल्योपमं उत्कर्षतोऽर्द्धपल्योपम, नक्षत्रविमानज्योतिष्कदेवीनां जघन्यतश्चतुर्थभागमात्र पल्योपममुत्कर्षत: सातिरेकं चतुर्थभागमात्र पस्योपम, ताराधिमानज्योतिष्कदेवीनां जघन्यतोऽष्टभागमात्रं पल्योपममुत्कर्षतस्तदेवाष्टभागमा पल्योपमं सातिरेकं । सामान्यतो वैमानिकदेवखीणां जघन्यतः अनुक्रम [१५] R ॥५६॥ ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], .. ......... ...---- उद्देशक:-1, .....................--- मूलं [४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४७] पल्योपममुत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशरपल्योपमानि, विशेषचिन्तायां सौधर्मकल्पवैमानिकदेवीनं जघन्यतः पल्योपममुत्कर्षतः सप्त पल्योपकामानि, अनापीदं स्थितिपरिमाणं परिगृहीतदेवीनामवगन्तव्यं, अपरिगृहीतदेवीनां जपन्यत: पल्योपममुत्कर्षतः पञ्चाशत्पल्योपमानि, शानकल्पवैमानिकदेवीनां जघन्यतः सातिरेक पल्योपममुत्कर्पतो नव पल्योपमानि, अत्रापीद स्थितिपरिमाणं परिगृहीतदेवीनामवगन्तव्यं, अपरिगृहीतदेवीनां जघन्यतः सातिरेक पल्योपमभुत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि, एतच सूत्रं समस्तमपि कापि साक्षाद | दृश्यते कचिवमतिदेश:--"एवं देवीणं ठिई भाणियब्वा जहा पण्णवणाए जाव ईसाणदेवीण"मिति ।। सम्प्रति स्त्री नैरन्तर्येण स्त्री| त्वममुश्चन्ती कियन्तं कालमवतिष्ठते ? इति जिज्ञासायां सूत्रकृत्तत्कालापेक्षया ये पश्चादेशा: प्रवर्तन्ते तानुपदर्शयितुमाह इत्थी णं भंते ! इस्थित्ति कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! एक्केणादेसेणं जहन्नेणं एक समयं उफोर्स दमुत्सरं पलिओवमसयं पुवकोडिपुहुत्तमभहियं । एकणादेसेणं जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं अट्ठारस पलिओवमाई पुब्वकोडीपुहुत्तमम्भहियाई । एक्केणादेसेणं जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं चउद्दस पलिओवमाई पुब्बकोडिपुहुत्तमन्भहियाई। एकणादेसेणं जह० एक समयं उक्को पलिओवमसयं पुब्बकोडीपुहुत्तमभहियं । एकणादेसेणं जहण्णं एक समयं उक्को० पलिओवमपुहत्तं पुष्यकोडीपुहत्तमभहियं ।तिरिक्खजोणिस्थी णं भंते ! तिरिक्खजोणिस्थित्ति कालओ केवञ्चिर होति?, गोयमा जहनेणं अंतोमहत्तं जक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई पुवकोडी पुहत्तमभहियाई.जलयरीए जहरणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडिपुहुत्तं । चउप्पदयलयरतिरिक्खजो जहा ओहिता ति दीप अनुक्रम [१५] ~116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [४८] दीप अनुक्रम [ ५६ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [४८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ५७ ॥ Jan Education *८ * * * रिक्ख०, उरगपरिसप्पी भुयगपरिसप्पित्थी णं जधा जलयरीणं, खहपरि० जपणेणं अंतोमुद्दत्तं mato पलिओ मस्स असंखेज्जतिभागं पुञ्चकोडिपुहुत्तमम्भहियं ॥ मणुस्सित्थी णं भंते! कालओ केवचिरं होति ?, गोयमा ! खेतं पडुच जपणेणं अंतोमुत्तं उक्को तिनि पलिओ माई पुण्यकोडिपुत्तमम्भहियाई, धम्मचरणं पडुच जह० एक समयं उक्को, देखणा पुत्र्वकोडी, एवं कम्म - भूमियाfव भरहेरवयावि, णवरं खेत्तं पहुच जह० अंतो उक्को० तिन्नि पलिओ माई देसूणपुरुवकोडीअमहियाई, धम्मचरणं पडुच्च जह० एकं समयं उक्को० देसृणा पुव्यकोडी । पुत्र्वविदेह अवरविदेहित्थी णं तं पहुच जह० अंतो० उक्को० पुत्र्वकोडीपुहुत्तं, धम्मचरणं पडुच जह० एकं समयं कोसेणं देणr yaकोडी | अकम्मभूमिकमस्सित्थी णं भंते! अकम्मभूम० कालओ केवचिरं होइ ? गोपमा ! जम्मणं पहुच जह० देखूणं पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेजतिभागेणं जणं उaro तिष्णि पलिओमाई। संहरणं पडुच जह० अंतो० उक्कोसेणं तिनि पलिओ माई देसूणाए yaकोड़िए अमहियाई । हिमवतेरण्णवते अकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! हेम० कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जम्मणं पडच जह० देसूणं पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊणगं, उक्को० पलिओवमं । साहरणं पडुच्च जह० अंतोमु० उको० पलिओवमं देणाए goaकोडीए अमहियं । हरिवासरम्मयअकम्मभूमगमणुस्सित्थी णं भंते!, जम्मणं पडुच जह० Far P&Personal Use Only ~ 117 ~ २ प्रतिपत्तौ सामान्य विशेषत या स्त्रीत्वस्थितिः सू० ४८ ॥ ५७ ॥ may mg Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ..............................- मूलं [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [४८] - देसूणाई दो पलिओवमाई पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणगाई, उक्को दो पलिओवमाई। संहरणं पडुच जह० अंतोमु.उको दो पलिओचमाई देसूणपुब्वकोडिमन्भहियाई । उत्तरकुरुदेबकुरूण, जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणाई तिन्नि पलिओवमाई पलितोवमस्स असंखेजभागेणं ऊणगाजमोतिन्नि पलिओवमाई। संहरणं पडच जह.अंतोमु० उक्को. तिन्नि पलि ओवमाई देसूणाए पुव्वकोडिए अब्भहियाई । अंतरदीवाकम्मभूमकमणुस्सित्थी?, २ जम्मणं पडुच जह देसूर्ण पलिओवमस्स असंखेजतिभागं पलिओबमस्स असंखेजतिभागेण ऊण उको पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागं । साहरणं पडुच जह० अंतोमु० उक्को० पलिओवमस्स असंखेजतिभागं देसणाए पुवकोडीए अन्भहियं ॥ देविस्थी णं भंते! देविस्थिति काल, जच्चेव संचिटणा। (सू०४८) एकेनादेशेन जघन्यत्त एक समयं यावदवस्थानमुत्कर्षतो दशोत्तरं पल्योपनशतं पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकम् , एकसमयं कथम् । इति चेदुच्यते-काचिद् युवतिरुपशमश्रेण्या वेदत्रयोपशमनादवेदकत्वमनुभूय ततः श्रेणे: प्रतिपतन्ती स्त्रीवेदोदयमे समयमनुभवति, सतो द्वितीये समये कालं कृत्वा देवेपूत्पद्यते तत्र च तस्याः पुंस्त्वमेव न स्त्रीत्वं, तत एवं जघन्यतः स्त्रीवं समयमात्र, सम्प्रति पूर्वकोटिपृथक्वाभ्यधिकदशोत्तरपल्योपमशतभावना क्रियते-कश्चिजन्तु रीषु तिरधीषु वा पूर्वकोट्यायुषकासु मध्ये पचषान् भवाननुभूय ईशाने कल्पे पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुकास्वपरिगृहीतदेवीपु मध्ये देवीलेनोत्पद्यते ततः स्वायु: %--4 दीप अनुक्रम [५६] 6 8-0- 4k50-25 ~118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ..............................- मूलं [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८] दीप श्रीजीवा-1 आये तस्मात्स्थानाद् भूयोऽपि नारीषु तिरधीषु वा मध्ये पूर्वकोट्यायुष्षुरुत्पन्नसतो भूयो द्वितीयं वारमीशानदेवलोके पञ्चपञ्चाशत्पल्यो- २ प्रतिपत्ती तापमप्रमाणोत्कृष्टायुष्काखपरिगृहीतदेवीषु मध्ये देवीलेनोपजातस्ततः परमवश्यं वेदान्तरमवगच्छति, एवं दशोत्तरं पल्योपमशतं पूर्वको- सामान्यमलयगि- टिपृथक्त्वाभ्यधिकं प्राप्यते, भत्र पर आह-ननु यदि देवकुरुत्तरकुर्वादिपु पस्योपमत्रयस्थितिकासु खीषु मध्ये समुत्पद्यते ततोऽधि विशेषतरीयावृत्तिः काऽपि स्त्रीवेदस्यावस्थितिलभ्यते, वतः किमित्येतावदेवोपदिष्टा?, तयुक्तम् , अभिप्रायापरिज्ञानात् , तथाहि-न तावद्देवीभ्यश्युत्वाऽसये- या स्त्रीत्व रायवर्षायुष्कासु खीषु मध्ये स्त्रीत्वेनोल्पद्यते, देवयोनेश्युतानामसोयवर्षायुष्केषु मध्ये उत्पादप्रतिषेधात् , नाप्यसयेयवर्षायुष्का सती| स्थितिः ॥५८॥ उत्कृष्टायुष्कासु देवीपु जायते, यत उक्तं प्रज्ञापनामूलटीकायाम्-"जतो असंखेजवासाउया उक्कोसिय ठिई न पावेई" इति, ततो सू०४८ यथोक्तप्रमाणैव स्त्रीवेदपोत्कृष्टाऽवस्थितिरवाप्यते । द्वितीयेनादेशेन जघन्यत एक समयमुत्कृष्टतोऽष्टादश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वा-15 दाभ्यधिकानि, तन समयभावना सर्वत्रापि प्राग्वत् , अष्टादश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि एवं-नारीषु तिरधीषु वा पूर्व-x कोटीप्रमाणायुष्कासु मध्ये कश्चिजन्तुः पञ्चषान् भवाननुभूय पूर्वप्रकारेणेशानदेवलोके वारद्वयमुल्कष्टस्थितिकासु देवीपु मध्ये समुत्पद्यमानो नियमतः परिगृहीताखेवोत्पद्यते नापरिगृहीतासु, तत एवं द्वितीयादेशबादिमतेन स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमवस्थानमष्टादश पल्योपमानि | पूर्वकोटिपूधक्वं च । तृतीयेनादेशेन जघन्यत एक समयमुत्कर्षतचतुर्दश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्वाभ्यधिकानि, तानि चैव-पूर्वप्रकारेण सौधर्मदेवलोके परिगृहीतदेवीषु सप्तपल्योपमप्रमाणोत्कृष्ठायुष्कासु मध्ये बारद्वयं समुत्पद्यते तत्र(त) एवं तृतीयादेशवादिमतेन | खीवेदस्योत्कृष्टमवस्थानं चतुर्दश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्वं च । चतुर्थेनादेशेन जघन्यत एक समयमुत्कर्षत: पल्योपमशतं पूर्वको-15 ६ टिपृथक्त्वाभ्यधिक, कथम् ? इति चेदुच्यते, नारीषु तिरश्धीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु पञ्चपान भवाननुभूय पूर्वप्रकारेण सौधर्मदेवलोके अनुक्रम [५६] ~119~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [४८] दीप अनुक्रम [ ५६ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [ ४८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः J Education पञ्चाशत्पस्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्का स्वपरिगृहीतदेवीषु मध्ये देवीत्वेनोत्पद्यते, तत एवं चतुर्थादेशवादिमतेन पत्थोपमशतं पूर्वकोटिपृथक्वाभ्यधिकं भवति । पभामेनादेशेन जघन्यत एक समयमुत्कर्षतः पस्योपमपृथक्त्वं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकं, तथैवं-नारीषु तिरश्रीषु वा पूर्वको ख्यायुधकासु मध्ये सप्त भवाननुभूयाष्टमभवे देवकुर्वादिषु त्रिपल्योपमस्थितिकासु स्त्रीषु मध्ये स्त्रीत्वेन समुत्पद्यते, ततो मृत्वा सौधर्मदेवलोके जघन्यस्थितिकासु देवीषु मध्ये देवीलेनोपजायते, तदनन्तरं चावश्यं वेदान्तरमधिगच्छति, ततः पञ्चमादेशवादिमतेन स्त्रीवेदस्यावस्थानं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकं पत्योपमपृथक्त्वं, ते ह्येवमाहुर्नानाभयप्रमाणद्वारे-यदि स्त्रीवेदस्योत्कृष्टभावस्थानं चिन्त्यते तत इत्थमेतावदेव लभ्यते, नाधिकमन्यथा चेति । अमीषां च पञ्चानामादेशानामन्यतमादेशसमीचीनतानिर्णयोऽतिशयज्ञानिभिः सर्वोत्कृश्रुतलब्धिसंपन्नैर्वा कर्तुं शक्यते, ते च सूत्रकृत्प्रतिपत्तिकाले नासीरन्निति सूत्रकृन्न निर्णयं कृतवानिति । तदेवं सामान्यतः स्त्री श्रीलं नैरन्तर्येणामुश्वन्ती यावन्तं कालमवतिष्ठते तावत्कालप्रमाणमुक्तम् । इदानीं तिर्यस्त्रिया स्तिर्यक्लीलमजहत्याः कालमानं विचिन्तयिषुरिमाह-'तिरिक्खजोणिइत्थिए णं भंते !, इत्यादि, तिर्यक्त्री णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! तिर्यक्त्रीति कालतः कियचिरं भवति ?, भगवानाह - गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तत्रान्तर्मुहूर्त्त कस्याश्चित्तावत्प्रमाणायुएकतया तदनन्तरं सूत्वा वेदान्तराधिगमाद्विलक्षणमनुष्य भवान्तराधिगमाद्वा, कथमुत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमान पूर्वकाटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि ? इति चेदुच्यते इह नराणां तिरयां चोत्कर्षतोऽष्टौ भवाः प्राप्यन्ते नाधिकाः, "नरतिरियाणं सत्तभवा" इति वचनात् तत्र सप्त भवाः सयवर्षायुषोऽष्टमस्वयवर्षायुरेव तथाहि पर्याप्तमनुध्याः पर्याप्तसङ्क्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यभ्यो वा निरन्तरं यथास सप्त पर्याप्तमनुष्य भवान् सप्त पर्याप्तसपिचेन्द्रियतिर्यग्भवान् वाऽनुभूय यद्यष्टमे भवे भूयः पर्याप्तमनुष्याः पर्याप्तसपिचेन्द्रियति Far P&Personal Use City ~ 120~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], --------------------- मूलं [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८] सू०४८ दीप श्रीजीवा- चो वा समुत्पद्यन्ते ततो नियमादसहयेववर्षायुष एव न सापेयवर्षायुषः, असोयवर्षायुषश्च मृत्वा नियमतो देवलोकेषुत्पद्यन्ते, ततो २ प्रतिपसौ जीवाभि नवमोऽपि मनुष्यभवः सम्जिपश्चेन्द्रियतिर्यग्भयो वा निरन्तरं न लभ्यते, अत एव च पाश्चासाः सप्त भवा निरन्तरं भवन्तः सवयेय- सामान्यमलयगि- वर्षायुष एवोपपद्यन्ते नैकोऽप्यसहयेयवर्षायुः, असाश्येयवर्षायुर्भवानन्तरं भूयो मनुष्यभवस्व तिर्यग्भवस्य वाऽसम्भवात , तत्र यदा उ- विशेषतरीयावृत्तिः स्कर्षतस्तिर्यतीवेदसहिताः पाशात्याः सप्तापि भवा पूर्वकोट्यायुषो लभ्यन्ते अष्टमस्तु भवो देवकुर्वादिपु तदा भवन्त्युत्कर्षतखीणि प- या खीत्व ल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि तिर्यकत्रीत्वस्थावस्थानम् । अत्रैव विशेषचिन्तां चिकीर्षुराह-'जलयरीए इत्यादि, जलचर्याः II स्थितिः ॥ ५९॥ स्त्रिया जलचरस्त्रीत्वेन निरन्तरं भवन्त्या जघन्यतोऽयस्थानमन्तर्मुहूमुत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं, सप्तपूर्वकोट्यायुभवानन्तरं जलचरस्त्री-पग णामवश्यं जलचरखीवच्युतिभावात् , 'चउपयथलयरीए जहा ओहियाए' इति, चतुष्पदस्थलचरस्त्रिया यथा औषिक्यास्तिर्यकत्रियाx | उक्तं तथा द्रष्टव्यं, तथैवम्-जपम्यतोऽन्तर्मुहूर्त तत ऊर्व तद्भावपरित्यागसम्भवान् , उत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि पूर्वकोटिपथक्खाभ्य|धिकानि, तानि च प्रागिव भावनीयानि । उर:परिसर्पस्थलचरबिया भुजपरिसर्पस्थल परस्त्रियाश्च यथा जलचरखियास्तथा वक्तव्यं, तवं-जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्लं तञ्च पूर्ववद्भावनीयम् । खचरखिया जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षत: पल्योपमासक्थेयभागः पूर्वकोटिपृथक्त्याभ्यधिक उत्कर्षतोऽवस्थानमिति ॥ तदेवमुक्तं तिर्यक्तिया: सामान्यतो विशेषतश्च अवस्थानमानं, सम्प्रति मनुष्यस्त्रिया आह-'मणुस्सिस्थियाए' इत्यादि, मनुष्यस्त्रियाः सामान्यतो यथा औधिक्यास्तिर्यस्त्रियाः, तश्चैव-जधन्यतोऽन्तर्मुहूर्ध्वमुत्कर्षतत्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, सानि च सामान्यतस्तिकवीबद्भावनीयानि । कर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः क्षेत्रं प्रतीत्य | ।॥ ५९॥ है सामान्यत: कर्मक्षेत्रमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तत ऊर्व तद्भावपरित्यागसम्भवात् , उत्कर्पतत्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वा अनुक्रम [५६] CRACKGRAM ~121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [४८] दीप अनुक्रम [ ५६ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [४८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education भ्यधिकानि तत्र सप्त भवा महाविदेहेषु अष्टमो भवो भरतैरावतेष्वेकान्तसुषमादौ त्रिपत्योपमप्रमाण इति 'धर्मचरणं प्रतीत्य' चारित्रासेवनमाश्रित्य जघन्येनैकं समयं सर्वेविरतिपरिणामस्य तदावरण कर्मक्षयोपशमवैचित्र्यतः समयमेकं सम्भवात् तत ऊर्ध्वं मरणतः प्रतिपात भावात्, उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, समग्रचरणकाल स्योत्कर्षतो ऽप्येतावन्मात्रप्रमाणत्वात् । भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यत्रियाः बीलं 'क्षेत्रं प्रतीत्य' भरताद्येवाश्रित्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त तच्च प्राग्वद्भावनीयम् उत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि देशोनया पूर्वकोव्याऽभ्यधिकानि तानि चैवं पूर्वविदेहमनुष्यस्त्री अपरविदेहमनुष्यस्त्री वा पूर्वकोट्यायुका केनापि भरतादावेकान्वसुषमादौ संहृता, सा च यद्यपि महाविदेहक्षेत्रोत्पन्ना तथाऽपि प्रागुक्तमागधपुरुषदृष्टान्तबलेन भारथैरावतीया वेति व्यपदिश्यते, ततः सा भारत्यादिव्यपदेशं प्राप्ता पूर्वकोटिं जीवित्वा स्वायुःक्षयतस्तत्रैव भरतादावेकान्तसुषमाप्रारम्भे समुत्पन्ना, तत एवं देशोनपूर्व कोट्यभ्यधिकं पस्यो| पमत्रयमिति । धर्मचरणं प्रतीत्य कर्मभूमिजस्त्रिया इव भावनीयं जघन्यत एक समयमुत्कर्षतो देशोनां पूर्वकोटी यात्रम्, पूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमिजमनुष्य स्त्रियान्तु क्षेत्रमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तच सुप्रतीतं प्राग्भावितत्वात् उत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं तत्रैव भूय उत्पत्त्या धर्मचरणं प्रतीत्य समागतकर्मभूमिजखिया इव वक्तव्यं जघन्यत एक समयमुत्कर्षतो देशोनां पूर्वकोटिं यावदिति भावार्थः ॥ उक्ता सामान्यतो विशेषतश्च कर्मभूमिकमनुष्य स्त्रीवक्तव्यता, साम्प्रतमकर्मभूमकमनुष्यस्त्रीवतव्यतां चिकीर्षुः प्रथमत: सामान्येनाह - 'अकम्मभूमिगमणुस्सित्थी णं भंते!' इत्यादि, अकर्मभूमकमनुष्यस्त्री, णमिति वाक्यालङ्कारे, अकर्मभूमिकमनुष्य स्त्रीति कालत: कियशिरं भवति ?, भगवानाह - गौतम! 'जन्म' तत्रैव सम्भूतिलक्षणं 'प्रतीत्य' आश्रित्य जघन्येन पत्योपमं देशोनं, अष्टभागाद्यूनमपि देशोनं भवति ततो विशेषस्थापनायाह - पस्योपमस्यासरूपेयभागोनं जघन्यतः उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि संहरणं प्रतीत्य For P&Personal Use City ~122~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [४८] दीप अनुक्रम [ ५६ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः: [२], उद्देशक: [-], मूलं [ ४८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ६० ॥ Ja Education i जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमन्तर्मुहूर्त्तायुःशेषायाः संहतिभावान् उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि कथम् ? इति चेदुच्यते-काचित्पूर्वविदेहमनुष्यस्त्री अपरविदेहमनुष्यस्त्री वा देशोनपूर्वकोयायुः समन्विता देवकुर्वादौ संहृता सा च पूर्वदृष्टान्तबलेन देवकुर्वादिका जाता, ततः सा देशोनां पूर्वकोटिं जीवित्वा मृत्वा च तत्रैव त्रिपस्योपमायुष्का समजनि, तत एवं देशोन पूर्वकोट्यधिकं पल्योपमन्त्रयमिति, अनेन संहरणतो जघन्योत्कृष्टावस्थानकालमानप्रदर्शनेन न्यूनान्तर्मुहूर्त्तायुः शेषाया गर्भखिया वा न संहरणमिति प्रतिपादितम्, अन्यथा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षचिन्तायां पूर्वकोट्या देशोनता न स्यादिति । अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रीविषयामेव विशेषचिन्तां करोति' हेमवयेत्यादि, हैमवतैरण्यवतहरिवर्षैरम्यकवर्षदेवकुरुत्तरकुर्वन्तरद्वी षिकाणां जन्म प्रतीत्य या यस्याः स्थितिस्ततस्तस्या अवस्थानं वाच्यं, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो या यस्या उत्कष्टा स्थितिः सा तस्या देशोनया पूर्वकोयाऽभ्यधिका व तव्या, सा चैवं हैमवतैरण्यवत्तयोमनुष्यत्री जन्म प्रतीत्य जघन्येन पस्योपमं पस्योपमा सयभागन्यूनम् उत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपर्म, संहरणमधिकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम्, अन्तर्मुहूर्त्तायुः शेषाया एव संहरणभावात् उत्कर्षतः पस्योपमं देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्य धिकं तच देशोनपूर्व कोट्यायुः समन्वितायास्तन्न संहरणे तत्रैव च मृत्योत्पन्नाया भावनीयम् । हरिवर्षरम्यकयोर्जन्म प्रतीत्य जघन्येन * पस्थोपमासङ्घवभागन्यूने द्वे पल्योपमे, स्कर्षतः परिपूर्णे द्वे पल्योपने संहरणं प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिके द्वे पस्योपमें, भावना प्रागिव । देवकुरूत्तरकुरुषु जन्म प्रतीत्य जघन्यतः पल्योपमासंख्येयभागम्यूनानि त्रीणि पल्योपमानि उत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि । संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि अन्तरद्वीपेषु जन्म प्रतीत्य जघन्यतः पस्योपमासमुपेयभागन्यूनं पल्योपमासङ्घयेयभागं यावत् उत्कर्षतः पस्योपमासवेयभागम्, For P&Personal Use Only ~123~ %% २ प्रतिपत्तौ सामान्य विशेषतया खीत्वस्थितिः सू० ४८ ॥ ६० ॥ yang Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [४८] दीप अनुक्रम [ ५६ ] उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [४८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जी० च० ११ "जीवाजीवाभिगम" - एतावत्प्रमाणस्य तत्र जघन्यत उत्कर्षतञ्च मनुष्याणामायुषः सम्भवान् मरणानन्तरं च देवयोनावुत्पादान् । संहरणमधिकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकं पल्योपमासङ्घयेयभागं यावत् भावनाऽत्र प्रागिव । उक्ता सामस्त्येन मनुष्यस्त्रीवक्तव्यता, सम्प्रति देवस्त्रीव कव्यतामाह – 'देवितथीण' मित्यादि, देवीनां तथाभवस्वभावतया कायस्थितेरसम्भवात् चैव प्राकू सामा*न्यतो विशेषतःञ्च भवस्थितिरुक्ता 'सेव संचिडणा भाणियन्त्रा' तदेवावस्थानं वक्तव्यम्, अभिलापञ्च देवित्थी णं भंते! देवित्थीति * कालतो केवच्चिरं होइ ?' इत्यादिरूपः सुधिया परिभावनीयः ॥ तदेवमुक्तं सामान्यतो विशेषतश्च खस्यावस्थान कालमानम्, इदानीमन्तरद्वारमाह इत्थीणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होति ?, गोयमा ! जह० अंतोमु० उक्को० अनंतं कालं वणसतिकालो, एवं सवासिं तिरिक्खित्थीणं । मणुस्सित्थीए स्वेतं पडुब जह० अंतो० को ० वणस्सतिकालो, धम्मचरणं पडुच ज० एकं समयं उक्को० अनंतं कालं जाव अवहुपोग्गलपरिय देणं, एवं जाव पुव्यविदेह अवरविदेहियाओ, अकम्मभूमगमगुस्सित्थीणं भंते! केवतियं कालं अंतर होति ?, गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नं दसवाससहस्साइं अंतमुत्तमम्भहियाई, उक्को० वणस्सतिकालो, संहरणं पडच जह० अंतोमु उक्को० वणस्सतिकालो, एवं जाव अंतरदीवियाओ । देवित्थियाणं सव्वासिं जह० अंतो० उको० वणस्सतिकालो ।। ( सू० ४९ ) स्त्रिया भदन्त ! अन्तरं कालतः कियचिरं भवति ?, स्त्री भूला स्त्रीवाद् भ्रष्टा सती पुनः कियता कालेन स्त्री भवतीत्यर्थः एवं Far Pr&Personal Use Only ~ 124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्तिः शि ......... ............- उद्देशक: -1, ---------------------- मलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४९] दीप श्रीजीवा- गौतमेन प्रभे कृते सति भगवानाह-गौतम! जयन्येनान्तर्मुहूर्त, कथमिति चेदुच्यते-इह काचित्स्त्री स्रीलान्मरणेन च्युखा भवान्तरेर प्रतिपत्ती जीवाभि. पुरुषवेदं नपुंसकवेदं वाऽन्तर्मुहूर्तमनुभूय ततो मृत्वा भूयः खोलेनोत्पद्यते तत एव जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त भवति, उत्कर्षतो वनस्प- स्त्रीणाममलयगि- तिकाल:-असङ्खषेयपुद्गलपरावर्ताख्यो वक्तव्यः, तावता कालेनामुक्तौ सत्यां नियोगतः स्त्रीत्वयोगात् , स च वनस्पतिकाल एवं वक्तव्यः न्तरं रीयावृत्तिः -अणताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालो, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेजा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा आव- सू०४९ लियाए असंखेजहभागो" इति, एवमौधिकतिर्यवीणां जलचरस्थलचरखचरस्त्रीणामौधिकमनुध्वस्त्रीणां च जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं ॥६१॥ 3. वक्तव्यम् , अभिलापोऽपि सुगमलारस्वयं परिभावनीयः । कर्मभूमिकमनुष्य स्त्रियाः क्षेत्रं-कर्मभूमिक्षेत्रं प्रतीय जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षदातोऽनन्तं कालं वनस्पतिकालप्रमाणे यावत् , धर्मचरणं प्रतीय जघन्येनैकं समय, सर्वजघन्यस्य समयत्वात् , उत्कणानन्तं कालं, देशोनम पार्द्ध, पुटलपराव यावत् , नातो अधिकतरश्चरणलब्धिपातकालः, संपूर्णस्याप्यपापुद्गलपरावर्त्तम दर्शनलब्धिपातकालस्य तत्र तत्र प्रदेशे प्रतिपेधात् । एवं भरतैरावतमनुष्यस्त्रियाः पूर्व विदेहापरविदेहस्त्रियाच क्षेत्रतो धर्मचरणं चानित्य वक्तव्यम् । अकर्मभूमकमनुष्यस्त्रिया जन्म प्रतीयान्तरं जघन्येन दश वर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, कथमिति चेदुच्यते-इह काचिदकर्मभूमिका स्त्री मृत्वा | जघन्यस्थितिषु देवेषूत्पन्ना, तत्र दश वर्षसहस्राण्यायुः परिपाख्य तत्क्षये च्युत्ता कर्मभूमिपु मनुष्यपुरुषत्वेन मनुष्यस्त्रीवेन बोत्पद्यते, देवेभ्योऽनन्तरमकर्मभूमिपूत्पादाभावात् , अन्तर्मुहर्सेन मृत्वा भूयोऽप्यकर्मभूमिजस्त्रीलेन जायत इति भवन्ति जघन्यतो दश वर्षसवाहनाण्यन्तर्मुहर्ताभ्यधिकानि, उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं, संहरणं प्रतीय जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तम् , अकर्मभूमिजस्त्रियाः कर्मभू मिपु संरत्य तावता कालेन तथाविधधुद्धिपरावृत्त्या भूयस्तत्रैव नयनात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं, तावता कालेन कर्मभूम्यु अनुक्रम [१७] -- ~125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४९] पत्तियत् संहरणस्यापि नियोगतो भावात् , तथाहि-काचिदकर्मभूमिका कर्मभूमौ संहता, सा च स्यायुःक्षयानन्तरमनन्त कालं वन-1 स्पत्यादिपु संमृत्य भूयोऽप्यकर्गभूमी समुत्पन्ना सस: केनापि संहृतेति यथोक्तं संहरणस्वोत्कृष्ट कालमानम् । एवं हैमवतहरण्यवतहरि-| वर्षरम्यकवर्षदेवकुरुत्तरकुर्वन्तरभूमिकानामपि जन्मतः संहरणतश्च प्रत्येकं जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरं वक्तव्यम् . सुत्रपाठोऽपि सुगमवास्वयं परिभावनीयः ॥ सम्प्रति देवस्त्रीणामन्तरप्रतिपादनार्थमाह-'देवित्थियाणं भंते !' इत्यादि, देवखिया भदन्त ! अन्तरं कालत: कियधिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम! जयन्येनान्तर्मुहूर्त, कल्याश्चिदेव खिया देवीभवाच्युताया गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्येपूत्पद्य पर्या पिपरिसमाप्तिसमनन्तरं तथाऽध्यवसायमरणेन पुनदेवीत्वेनोत्पत्तिसम्भवात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च सुप्रतीत एव । एवमसुहारकुमारदेव्या आरभ्य यावदीशानदेवनियामुत्कृष्टमन्तरं वक्तव्यं, पाठोऽपि मुगमत्वात्स्वयं परिभावनीयः ।। सम्प्रत्यल्पबहुखं वक्तव्यं, तानि च पञ्च, तद्यथा-प्रधर्म सामान्येनाल्पबहुलं विशेषचिन्तायां द्वितीयं त्रिविधतिर्यक्लीणां तृतीयं त्रिविधमनुष्यस्त्रीणां चतुर्थे चतुर्विधदेवत्रीणां पचन मिश्रस्त्रीणां, तत्र प्रथममल्पबहुत्वमभिधित्सुराह एतासि णं भंते! तिरिक्खजोणित्थियाणं मणुस्सित्थियाणं देवित्थियाणं कतरा २ हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सब्वत्थोवा मणुस्सिस्थियाओ तिरिक्खजोणिस्थियाओ असंखेजगुणाओ देवित्थियाओ असंखिजगुणाओ॥ एतासि णं भंते! तिरिक्खजोणित्थियाणं जलयरीणं धलयरीणं खहयरीण य कतरा २ हिंतो अप्पा वा बहुया चा तुल्ला वा विसेसाहिया वा', गोयमा! सव्वत्थोवाओ खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओं थलयरतिरिक्व दीप अनुक्रम [१७] -52 3-04- 4528-2 % % % % ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [५० ] दीप अनुक्रम [५८] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्री जीवाजीवामि मलयगि रीयावृत्तिः ।। ६२ ॥ जोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ जलयरतिरिक्ख० संखेज्जगुणाओ ॥ एतासि णं भंते! मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अम्मभूमियाणं अंतरदीवियाण य कतरा २ हिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा ! सच्चस्थोवाओ अंतरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सिन्थियाओ देवकुरूत्तरकुरुअकस्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दोवि तुलाओ संखेजगु०, हरिवासरम्मयवास अकम्मभूमगमगुस्सित्थियाओ दोषि तुल्लाओ संखेजगु०, हेमवतेरण्णवासअ कम्म भूमिगमणुस्सित्थियाओ दोवि तुलाओ संग्विजगु०, भरतेरक्तवासकम्मभूमगमणुस्सि० दोवि तुलाओ संखिजगुणाओ, पुण्वविदेह अवरविदेहकम्मभूम गमणुस्सित्थियाओ दोषि तुल्लाओ संखेजगुणाओ ।। एतासि णं भंते! देवित्थियाणं भवणवासीणं वाणमंतरीणं जोइसिणीणं वेमाणिणीण य कयरा २ हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सम्वत्थोवाओ वैमाणियदेवित्थियाओ भवणवासिदेवित्थियाओ असंस्वेजगुणाओ वाणमंतरदेवीयाओ असंखेजगुणाओ जोतिसियदेवित्थियाओ संखेलगुणाओ || एतासि णं भंते । तिरिक्खजोणित्थियाणं जलपरीणं थलयरीणं खहपरीणं मणुस्सित्थीयाणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवियाणं देवित्थीणं भवणवासियाणं वाणमंतरीणं जोतिसियाणं मणिणी कराओ २ हिंतो अप्पा वा बहुआ वा तुला वा विसे० १, गोयमा! सव्वत्थोवा अंतरtaranम्मभूमगमस्सित्थियाओ देवकुरुउत्तरकुरुअ कम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दोषि संखे For P&Personal Use City ~ 127 ~ २ प्रतिपत्तौ स्त्रीणाम रूपबहुत्वं सू० ५० ॥ ६२ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - - -- प्रत सूत्रांक - [५०] जगुणाओ, हरिवासरम्भगवासअकम्मभूमगमणुस्सिस्थियाओ दोऽवि संखेजगुरु, हेमवतेरणवयवासअकम्मभूमग० दोऽवि संखेजगुरु, भरहेरवतवासकम्मभूमगमणुस्सिस्थीओ दोऽपि तुल्लाओ संखेजगु०, पुब्वविदेह अवरविदेहवासकम्मभूमगमणुस्सिस्थि० दोऽवि संखेजगुरु, बेमाणियदेवित्थियाओ असंखेजगुरु, भवणवासिदेवित्थियाओ असंखेजगुरु, खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओ असंखेनगु०, थलयरतिरिक्वजोणित्थियाउ संखिजगुरु, जलयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखेजगुणाओ, वाणमंतरदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ जोइसियदेविस्थियाओ संखेजगु णाओ॥ (सू०५०) सर्थस्तोका मनुष्यस्रियः, सङ्ख्यातकोटाकोटीप्रमाणत्वात् , ताभ्यस्तियंग्योनिकस्त्रियोऽसोयगुणाः, प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं तिर्यकत्रीणामतिबहुतया सम्भवात् , द्वीपसमुद्राणां चासक्येयवान , ताभ्योऽपि देवखियोऽसझ्येयगुणाः, भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवीनां प्रत्येकमसहयोण्याफाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वान् । द्वितीयमस्पबहुत्वमाह-सर्वस्तोकाः खचरतिर्यग्योनिकस्त्रियः, ताभ्य: स्वलचरतियग्योनिक स्त्रियः सोयगुणाः, खचरेभ्यः स्थलचराणां स्वभावत एव प्राचुर्येण भावात् , ताभ्यो जलचरबियः सहधेयगुणाः | लवणे कालोदे खयम्भूरमणे च समुद्रे मत्स्यानामतिप्राचुर्येण भावात् , स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य च शेषसमस्तद्वीपसमुद्रापेक्षयाऽतिप्रभूतवान् ॥ उक्तं द्वितीयमल्पबहुत्वम् , अधुना तृतीयमाह-सर्वतोका अन्तरद्वीपकाकर्मभूमिकमनुष्यस्त्रियः, क्षेत्रस्थाल्पत्वान् , ताभ्यो | देवकुरुत्तरकुरुखियः सोयगुणाः, क्षेत्रस्य सङ्खषेयगुणत्वात् , स्वस्थाने तु दूष्योऽपि परस्परं तुल्याः, समानप्रमाण क्षेत्रलात , नाभ्यो दीप अनुक्रम [१८] % % % % ~128~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ..................- मूलं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५०] दीप श्रीजीधा- हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः सोयगुणाः, देवकुरूत्तरकुरुक्षेत्रापेक्षया हरिवर्षिरम्यकक्षेत्रस्पातिप्रचुरत्वात् , स्वस्थानेऽपि २ प्रतिपत्ती जीवाभि योऽपि परस्परं तुल्याः, क्षेत्रस्य समानखात् , ताभ्योऽपि हैमवतैरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः सपेयगुणाः, क्षेत्रस्याल्पले ऽप्यल्प स्त्रीणाममलयगि- स्थितिकतया बहूनां तत्र तासां सम्भवात् , स्वस्थाने तु दूय्योऽपि परस्परं तुल्याः, ताभ्योऽपि भरतैरावतकर्मभूमिकमनुष्यखियः सङ्घषे- ल्पबहुत्वं रीयावृत्तिः वगुणाः, कर्मभूमितया स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण सम्भवात् , स्वस्थाने तु दुय्योऽपि परस्परं तुल्याः, ताभ्योऽपि पूर्व विदेहापरवि सू०५० देहकर्मभूमकमनुष्य खियः सोयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यादजितस्वामिकाल इव च स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण भावात् , स्वस्थाने तु दूकायोऽपि परस्परं तुल्याः ।। उक्तं तृतीयमल्पबहुखम् , अधुना चतुर्थमाह-सर्वस्तोका वैमानिकदेवत्रियः, अङ्गलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेर्यद् द्वितीय वर्गमूलं तस्मिन् तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावत्प्र(वान् प्र)देशराशिस्तावत्प्रमाणासु पनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशा द्वात्रिंशत्तमभागहीनास्तावत्प्रमाणखात्प्रत्येक सौधर्मशानदेवस्त्रीणां, ताभ्यो भवनवासिदेवत्रियोऽसोयगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेयत्प्रथम वर्गमूलं तस्मिन् द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु थावान् प्रदेशराशि त्रि-| शत्तमभागहीनस्तावत्प्रमाणत्वात् , ताभ्यो ब्यन्तरदेवखियोऽसयेयगुणाः, सङ्ख्येययोजनप्रमाणैकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेभ्योऽपि द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपनीते यच्छेपमवतिष्ठते सावत्प्रमाणत्वात्तासां, ताभ्यः सञ्जयेयगुणा ज्योतिष्कदेवस्त्रियः, पदपश्चाशदधिकशतद्वयागुलप्रमाणेकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्ये कस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेभ्यो द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपसारिते यावान प्रदेशराशिभवति तावत्पमाणलात् ।। उक्तं चतुर्थमल्पबहुत्वम् , इदानी समस्तस्त्रीविषयं पञ्चममल्पबहुखमाह-शा &सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकाकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः, ताभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुध्यस्त्रियः साक्येयगुणाः ताभ्योऽपि हरिवर्षर अनुक्रम [१८] ~129~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [५० ] दीप अनुक्रम [५८] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Is Education म्यकत्रियः सख्येयगुणाः ताभ्योऽपि हैमवत हैरण्यवतस्त्रियः सख्येयगुणाः ताभ्योऽपि भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्य स्त्रियः सख्येयगुणाः ताभ्योऽपि पूर्वविदेहापरविदेह मनुष्य स्त्रियः सङ्ख्येयगुणाः अत्र भावना प्राग्वत् ताभ्यो वैमानिकदेवखियोऽसङ्ख्येयगुणाः, अस थेय श्रेण्यःकाश प्रदेशराशिप्रमाणत्वात्तासां ताभ्यो भवनवासिदेवस्त्रियोऽसङ्ख्यातगुणाः अत्र युक्तिः प्रागेवोक्ता. ताभ्यः खचरतिर्यग्योनिक स्त्रियोऽयगुणाः. प्रतरासङ्ख्येय भागवन् सोय श्रेणिगता काशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्तासां ताभ्यः स्थलचरतिर्यग्योनि कस्त्रियः, सोयगुणगृह सरप्रतरासय भाग व सय श्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणलान्, ताभ्यो जलचर तिर्यग्योनिकस्त्रियः सख्येयगुणाः, | वृहत्तमप्रसरास ल्येय भागवस इथेय श्रेणिगता काशप्रदेश राशिप्रमाणखान्, ताभ्यो व्यन्तरदेवस्त्रियः सख्येयगुणाः सख्ययोजनकोटा कोटीप्रमाणैकप्रादेशिक श्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेभ्यो द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपहते यावान् राशिरव तिष्ठते तावत्प्रमाणत्वात् ताभ्योऽपि ज्योतिष्कदेवस्त्रियः सख्येयगुणाः एतच प्रागेव भावितम् । इद स्त्रीखानुभावः स्त्रीवेदकमोंदय इति स्त्रीवेदकर्मणो जघन्यत उत्कर्षतथ स्थितिमानमाह - इत्थवेदस्स णं भंते! कम्मस्स केवइयं कालं बंघटिती पण्णत्ता?, गोयमा ! जहनेणं सागरोवमस्स दिवो सत्तभागो [3] पलिओवमस्स असंखेज़निभागेण ऊणो उक्को० पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ, पण्णरस वाससयाई अबाधा, अवाहणिया कम्मकिती कम्मणिसेओ ॥ इत्थवेदे णं भंते! किंपगारे पणसे ?, गोयमा ! फुंफुअग्गिसमाणे पण्णत्ते, सेत्तं इत्थियाओ || (सू० ५१ ) 'स्वेदस्य' स्त्रीवेदनाम्रो णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त कर्मणः कियन्तं कालं बन्धस्थितिः प्रज्ञता ? भगवानाह गौतम ! जघन्येन Far P&Personal Use City ~130~ way Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ...................- मूलं [५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्तौ स्त्रीवेदवधस्थितिः प्रकारश्च सू०५१ [५१] दीप श्रीजीवा- सागरोपमस्य सार्द्धः सप्तभागः पल्योपमासख्येयभागन्यूनः, कथमिति चेदुच्यते-इह स्त्रीवेदादीनां कर्मणां स्वस्मान् २ उत्कृष्ट स्थिति- जीवाभि बन्धान मिथ्यालसत्कया उत्कृष्टया स्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणया भागे हते यलभ्यते तत्पल्योपमासस्येयभागन्यून मलयगि- जघन्य स्थितिः "सेसाणुकोसाभो मिषछत्तुकोसएण जं लद्ध"मित्यादिवचनप्रामाण्यान , तत्र बीवेदस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धः पशदशसा- रीयावृत्तिः गरोपमकोटीकोट्यः, तासां मिथ्यात्वखिला भागो हियते, शून्यं शून्येन पातयेन् जाता उपरि पञ्चदश अधस्तारसप्ततिः, अनयोश्च | छेद्यच्छेदकराच्योर्दशभिरपवर्त्तना जात उपर्येक: साई: अधस्तात्सम आगतमेकसागरोपमस्य लार्द्धः सप्तभागः, पस्योपमासख्येयI भागन्यूनः क्रियते, इयं च व्याख्या मूलटीकाऽनुसारेण कृता, पञ्चसङ्ग्रहमतेनापीवमेव जघन्य स्थितिपरिमाणं केवलं पस्योपमास येवभागहीनं (न) वक्तव्यं, सम्मतेन "सेसाणुकोसाओ मिच्छत्तठिई जं लद्ध" इत्येतावन्मात्रस्यैव जघन्यस्थित्यानयनस्य करणस्य वियमानलान्, कर्मप्रकृतिसतहणीकार स्वित्थं जघन्यस्थित्यानयनाय करणसूत्रमाह-वगुजोसठिईण मिकछत्तुषोसगेण जलयं । Mसेसाणं तु जहणं पलियासंबेजगेणूर्ण ॥ १ ॥” अस्याक्षरगमनिका-इह ज्ञानावरणीयप्रकृतिसमुदायो ज्ञानावरणीयवर्ग इत्युच्यते | दर्शनावरणीय प्रकृतिसमुदायो दर्शनावरणीयवर्गः, वेदनीयप्रकृतिसमुदायो वेदनीयवर्गः, दर्शनमोहनीयप्रकृतिसमुदायो दर्शनमोहनीयवर्गः, चारित्रमोहनीयप्रकृति समुदायश्चारित्रमोहनीयवर्ग:, नोकषायमोहनीयप्रकृतिसमुदायो नोकपायमोहनीयवर्गः, नामप्रकृतिसमुदायो नामवर्गः, गोत्रप्रकृतिसमुदायो गोन्नवर्गः, अन्तरायप्रकृतिसमुदायोऽन्तरायवर्गः, एतेषां (च) वर्गाणां या आसीया आलीया उत्कृष्टा खितित्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यादिका तस्या मिथ्यात्वसत्कया उत्कृष्टया स्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे हते सति यलभ्यते तत्पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यून सत् उक्तशेषाणां निद्रादीनां प्रकृतीनां जनन्यस्थितेः परिमाणमिति, ततस्तन्मतेन स्त्रीवेदस्य ज अनुक्रम [१९] CONCENSCRENCS ६४ ~ 131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ...................- मूलं [५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] वन्या स्थितिद्वौं सागरोपमस्य सप्तभागौ पल्योपमासख्येयभागहीनौ, तथाहि-नोकपायमोहनीयस्योत्कष्टा स्थितिविंशतिसागरोपमकोटीकोट्यः, तासां मिथ्यात्वग्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे हियमाणे शून्यं शून्येन पातयेत, लब्धौ द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ तौ पस्योपमासलयेयभागहीनौ क्रियते इति । उत्कृष्टा स्थितिः पञ्चदशसागरोपमकोटीकोट्यः, इह स्थितिविधाकर्मरूपवाऽवस्थानलक्षणा अनुभवयोग्या च, तत्रेयं कर्मरूपताऽवस्थानलक्षणा द्रष्टव्या, अनुभवयोग्या पुनरवाधाहीना, (सा) च येषां कर्मणां यावत्यः सागरोपमकोटीकोट्यनेपां तावन्ति वर्षशतान्यबाधा, बीवेदस्य चाधिकृतस्योत्कृष्टा स्थिति: पञ्चदश सागरोपमकोटीकोयलतः पञ्चदश वर्षशतान्यबाधा, तथा चाह-"पण्णरस बाससयाई अवाहा इति, किमुक्तं भवति -बीवेदकर्म उत्कृष्ठस्थितिकं बद्धं || सत्स्वरूपेण पञ्चदश वर्षशतानि यावन्न जीवस्य स्वविपाकोदयमादर्शयति नावकालमध्ये दलिकनिषेकस्याभावात् , तथा चाह-अ-15 बाहूणिया” इत्यादि, 'अबाधोना' अबाधाकालपरिहीना कर्म स्थितिरनुभवयोग्येति गम्यते, यतः 'अबाधोनः' अवाधाकालपरिहीनः | कर्मनिषेक:-कर्मदलिकरचनेति ॥ सम्प्रति बीवेदकर्मोदय जनितो यः स्त्रीवेदः स किस्वरूपः इत्यावेदयन्नाह- इथिए णं भंते!' इत्यादि, स्त्रीवेदो णमिति पूर्ववत् भदन्त ! 'किंप्रकार:' किस्सम्पः प्रज्ञमः?, भगवानाह-गौतम ! फुम्फुकाग्निसमानः, फुस्फुकशब्दो देशीयात्कारीषवचनस्ततः कारीपाग्निसमानः परिमलनमदनदाहरूप इत्यर्थः, प्रज्ञप्तः, उपसंहारमाह-'सेत्तं इथियाओ' । वदेपवमुक्काः खियः, सम्प्रति पुरुषप्रतिपादनार्थमाह से किं तं पुरिसा?, पुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-तिरिक्खजोणियपुरिसा मणुस्सपुरिसा देवपुरिसा।। से किंततिरिक्खजोणियपरिसा?.२तिविहा पण्णता, तंजहा-जलपराधलयरा खयरा, दीप अनुक्रम [१९] -- - पुरुषस्य त्रैविध्यम् ~ 132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक X [१२] दीप अनुक्रम [६०] श्रीजीवा- इत्थिभेदो भाणितव्यो, जाव खहयरा, सेत्तं खयरा सेत्तं खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसा।से किं M२ प्रतिपत्ती जीवाभि तं मणुस्सपरिसा?, २तिविधा पपणत्ता, जहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवगा, सेतं पुरुषभेदामलयगि- मणुस्सपुरिसा ।। से किं तं देवपुरिसा?, देवपुरिसा चउब्विहां पपणत्ता, इत्थीभेदो भाणितव्यो तिदेशः रीयावृत्तिः जाव सव्वट्ठसिद्धा (सू०५२) 'से कि तं पुरिसा' इत्यादि, अथ के ते पुरुषाः, पुरुषास्विविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-तिर्यग्योनिकपुरुषा मनुष्यपुरुषा देवपुरुषाश्च । ॥६५॥ से किं तमित्यादि, अथ के ते तिर्यग्योनिकयुरुषाः, तिर्यग्योनिकपुरुषास्त्रिविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-जलचरपुरुषाः स्वलचरपुरुषाः ४ खचरपुरुषाश्च । मनुष्यपुरुषा अपि त्रिविधास्तद्यथा-कर्मभूमका अकर्मभूमका अन्तरद्वीपकाश्च ॥ देवसूत्रमाह-से किं तमित्यादि, अथ के ते देवपुरुषाः, देवपुरुषाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भवनवासिनो वानमन्तरा ज्योतिका वैमानिकाच, भवनपतयोऽसुरादिभेदेन दशविधा वक्तव्याः, वानमन्तरा: पिशाचादिभेदेनाष्टविधाः, ज्योतिष्काश्चन्द्रादिभेदेन पञ्चविधाः, वैमानिकाः कल्पोपपबकल्पातीतभेदेन द्विविधाः, कल्पोपपन्नाः सौधर्मादिभेदेन द्वादशविधाः, कल्पातीता अवेयकानुत्तरोपपातिकभेदेन द्विविधाः, तथा चाह-"जाव अणुत्तरोवबाइया" इति ।। उक्तो भेदः, सम्प्रति स्थितिप्रतिपादनार्थमाह पुरिसस्स गंभंते! केवनियं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! जह. अंतोमु० उको तेसीसं सागरोयमाई। तिरिक्वजोणियपुरिसाणं मणुस्साणं जा चेव इत्थीणं ठिती सा चेव भणियब्बा ।। ॥६५॥ देवपुरिसाणवि जाव सब्वट्ठसिद्धाणं ति।ताब ठिती जहा पपणवणाए तहा भाणियव्वा ।। (सू०५३) CANCESc ~ 133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [१३] SCARRECTORS 2-04-% | परिसस्स णं भंते' इत्यादि, पुरुषस्य खखभवमजहतो भदन्त ! कियन्तं कालं यावरिषतिः प्रज्ञप्ता, भगवानाह-जयन्यतोऽन्तर्मु-14 हूर्त, तत ऊर्व मरणभावात् , उत्कर्षतखयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, तान्यमुत्तरसुरापेक्षया द्रष्टव्यानि, अन्यस्यैतावत्याः स्थितेरभावात् । तिर्यग्योनिकानामौधिकानो जलपराणां स्थलचराणां खचराणां स्त्रिया या स्थितिरुक्ता तथा वक्तव्या, मनुष्यपुरुषस्याप्यौधिकस्य कर्मभूमिकस्य सामान्यतो विशेषतो भरतराषतकस्य पूर्व विदेहापरविदेहकस्य अकर्मभूमस्य सामान्यतो विशेषतो हैमवतैरण्यातकस्य हरिवर्परम्यकस्य । 8| देवकुरूत्तरकुरुकस्यान्तरद्वीपकस्य वैवालीये आलीये स्थाने खिया: स्थितिः सैव पुरुषस्यापि वक्तव्या, ताथा-सामानिकतिर्यग्योनिकहापुरुषाणां जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, जलपरपुरुषाणां जघन्येनान्तर्मुहुर्तमुत्कर्पत: पूर्वकोटी, चतुष्पदस्थलचरपुरु पाणां जवन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतस्त्रीणि पल्योपमानि, उर:परिसर्पस्थलचरपुरुषाणां जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्पत: पूर्वकोटी, एवं भुजपरिसर्पवलपरपुरुषाणां खचरपुरुषाणामपि जपन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पल्योपमासयभागः, सामान्यतो मनुष्यपुरुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूत्त, एतञ्च बाह्यलिङ्गप्रत्रज्याप्रतिपत्तिमजीकात्य वेदितव्यं, अन्यथा | चरणपरिणामस्सैकसामायिकस्यापि सम्भवादेकं समयमिति ब्रूयात, अथवा देशचरणमधिकृत्येदं वक्तव्यं, देशचरणप्रतिपत्तेर्बहुलभङ्गनया जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तसम्भवात् , तत्र सर्वचरणसम्भवेऽपि यदिदं देशचरणमधिकृत्योक्तं वद्देशचरणपूर्वकं प्राय: सर्वचरणमिति प्रतिपत्त्यर्थ, तथा चोक्तम्-सम्मत्तंमि उ लढे पलियपुहुत्तेण सावओ होइ। चरणोवसमखयाणं सागर संख़तरा होति ।। १॥" इति, अत्र यदाद्यं व्याख्यानं तत्स्त्रीवेदचिन्तायामपि द्रष्टव्यं, यच्च स्त्रीवेद चिन्तायां व्याख्यातं तदनापीति, उत्कर्षसो देशोना पूर्वकोटी| १ सम्पत्ये तु लये पल्पोपमधयेनैव श्रावको भवति । चरणोपशमक्षयाणां सागरोपमागि संख्यातानि अन्तरं भवन्ति ॥१॥ दीप अनुक्रम SCRE% ~ 134~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : स. .......... .....--- उद्देशक: -1, .......................- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३] दीप श्रीजीवा- वर्षाष्टकादूर्ध्वमुत्कर्पतोऽपि पूर्वकोट्यायुष एव चरणप्रतिपत्तिसम्भवान् , कर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतस्त्रीणि प र प्रतिपत्तौ जीवाभि ल्योपमानि, चरणप्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां क्षेत्रं प्रतीत्य पुरुषवेदबमलयगि-13 जघन्यतोऽन्तर्मदर्तमुत्कर्षतबीणि पस्योपमानि, हानि च सुषमसुषमारके वेदितव्यानि, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो||8|धस्थितिः रीयावृत्तिः देशोना पूर्वकोटी, पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकगनुष्यपुरुषाणां क्षेत्रं प्रतीय जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्यतो देशोना पूर्वकोटी, धर्मचरणं सू०५३ प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्येन पल्योपमासवयभागन्यूनमेकं पल्योपममुल्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, संहरणमधिकृय जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्चमुत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटी, पूर्व विदेहकस्या-18 परविदेहकस्य वाडकर्मभूमौ संहतस्य जघन्येनोत्कर्षत एतावदायुःप्रमाणसम्भवात् , हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्येन पल्योपमं पस्योपमासस्येयभागन्यून मुत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपम, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, भावना प्रागिव, हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्यतो वे पल्योपमे पल्योपमासख्येय-18 भागन्यूने उत्कर्षतः परिपूर्णे द्वे पल्योपमे, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुप्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्यत: पल्योपमासयेयभागन्यूनानि त्रीणि पल्योपमानि उत्कर्षतः परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, अन्तरद्वीपकाकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीय जघन्येन देशोनपल्योपमासङ्ख्येयभाग उत्कर्षतः परिपूर्णपल्योपमासङ्ख्येयभागः, संहरणमधिकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति ।। देवपुरिसाणमित्यादि, देवपुरुषाणां सामान्यतो जघन्यतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, विशेषचिन्तायाम अनुक्रम ॥६६ ~135~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ..............................- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: %-2-53 प्रत सूत्रांक [१३] %िA5 सरकमारपुरुषाणां जपन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः सातिरेकमेकं सागरोपर्म, नागकुमारादिपुरुषाणां सर्वेषामपि जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतो देशोने द्वे पल्योपमे, व्यन्तरपुरुषाणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षत: पल्योपम, ज्योतिषकदेवपुरुषाणां जघन्यत: पल्योपमस्याष्टमो भाग उत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिक, सौधर्मकरूपदेवपुरुषाणां जघन्यतः पल्योपममुकपंत: द्वे सागरोपमे ईशान-[पन्धानम् २०००] कल्पदेवपुरुषाणां जघन्यतः साधिकं पल्योपममुरकर्षतो वे सागरोपमे सातिरेके सन कुमारफरूपदेवपुरुषाणां च जघन्यतो हे सागरोपमे उत्कर्षतः सप्त सागरोपमाणि माहेन्द्रकरूपदेवपुरुपाणां जघन्यतः सातिरेके द्वे साग-1 हारोपमे उत्कर्पतः सातिरेकाणि सप्त सागरोपमाणि ब्रह्मलोकदेवानां जघन्यतः सप्त सागरोपमाणि उत्कर्पतो दश लान्तककल्पदेवानां जघन्यतो दश सागरोपमाणि उत्कर्षतचतुर्दश महाशुक्रकल्पदेवपुरुषाणां जयन्यतचतुर्दश सागरोपमाणि उत्कर्पतः सप्तदश सहस्रारकपदेवानां जघन्येन सप्तदश सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टादश आनतकल्पदेवानां जयन्यसोऽष्टादश सागरोपमाणि उत्कर्षत एकोनविशतिः प्राणतकल्पदेवानां जघन्यत एकोनविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतो विंशतिः आरणकल्पदेवानां जघन्यतो शितिः सागरोपमाणि पत्कर्पत एकविंशतिः अभयुतकल्पदेवानां जघन्यत एकविंशतिः मागरोपमाणि उत्कर्पतो द्वाविंशतिः अवलनाधस्तनप्रैवेयकदेवानां | जघन्यतो द्वाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतत्रयोविंशतिः अधस्तनमध्यमवेयकदेवानां जघन्यतस्त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतचतुर्विंशतिः अधसनोपरितनपैवेयकदेवानां जघन्यतश्चतुर्विंशतिः मागरोपमाणि उत्कर्पतः पञ्चविंशतिः मध्यमाधस्तनौवेयकदेवानां जघन्वेन पञ्चविंशति: सागरोपमाणि उत्कर्षत: पड्विंशतिः मध्यसमध्यमत्रैबेयकदेवानां जघन्यतः षड्विंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्यतः सप्तविंशतिः मध्यमोपरितनगवेयकदेवानां जघन्येन सप्तविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टाविंशतिः उपरितनाधस्तनप्रवेयकदेवानां जघ दीप अनुक्रम [६१] SUPER जी० च०१२ ~ 136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३] श्रीजीवा-पान्येनाष्टाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षत एकोनत्रिंशत् उपरितनमध्यनौवेयकदेवानां जघन्येनैकोनत्रिंशसागरोपमाणि उत्कर्षतस्त्रिंशत् उप-5 प्रतिपत्ती जीवाभिरितनोपरिसनप्रैवेयकदेवानां जघन्यतविंशत्सागरोपमाणि उत्कर्षत एकत्रिंशत् सागरोपमाणि विजयवैजयन्तजयन्तापराजितविमानदे- पुरुषभवमलयगि-हवाना जघन्येनैकत्रिशत्सागरोपमाणि उत्कर्षतस्त्रयविंशन् सागरोपमाणि सर्वार्थसिद्धमहाविमानदेवानामजघन्योत्कृष्ट त्रयस्त्रिंशत्साग- स्थितिः रीयावृत्तिःतारोपमाणि । कचिदेवं सूत्रपाठः-"देवपुरिसाण ठिई जहा पण्णवणाए ठिइपए तहा भाणियव्या” इति, तत्र स्थितिपदेऽप्येवमेवोक्ता | सू०५३ स्थितिरिति । उक्तं पुरुषस्य भवस्थितिमानमधुना पुरुषः पुरुषत्वममुश्चन् कियन्तं कालं निरन्तरमवतिष्ठते इति निरूपणार्थमाह॥६७॥ | पुरुषवेदपुरिसे णं भंते ! पुरिसे त्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतो० उक्को सागरोय- स्यस्थितिः मसतपुहसं सातिरेग । तिरिक्खजोणियपुरिसे णं भंते ! कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा ! जह- | सू० ५५ नेणं अंतो० उको० तिन्नि पलिओवमाई पुब्बकोडिपुहुत्तमम्भहियाई, एवं तं चेष, संचिट्ठणा जहा इत्थीणं जाव खयरतिरिक्खजोणियपुरिसस्स संचिट्टणा। मगुस्सरिसाणं भंते ! कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! खेत्तं पडुच जहन्ने० अंतो० उक्को तिन्नि पलिओवमाई पुवकोडिपुहुत्तमम्भहियाई, धम्मचरणं पडुच जह० अंतो० उक्कोसेणं देसूणा पुब्बकोडी एवं सव्वत्थ जाव पुब्वविदेहअवरविदेह, अकम्मभूमगमणुस्सपुरिसाण जहा अकम्मभूमकमणुस्सित्थीणं जाव ॥६७॥ अंतरदीवगाणं जञ्चेव ठिती सचेव संचिट्ठणा जाव सब्वट्ठसिद्धगाणं ॥ (सू०५४) पुरुषो णमिति बाक्यालकारे भदन्त ! पुरुष इति पुरुषभावापरित्यायेन कियश्चिरं' कियन्तं कालं यावद्भवति ?, भगवानाह-गौतम 4GRESCRSS दीप अनुक्रम ~ 137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ ५४ ] दीप अनुक्रम [६२] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [ ५४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... .. आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तावत: कालादूर्ध्वं मृत्वा ख्यादिभावगमनाइ, उत्कर्षतः सातिरेकं सागरोपमशतपृथक्त्वं, सामान्येन तिर्यङ्नरामरभवेण्येतावन्तं कालं पुरुषेष्वेव भावसम्भवात्, सातिरेकता कतिपयमनुष्य भवैर्वेदितव्या, अत ऊर्ध्वं पुरुषनामकर्मोदयाभावतो नियमत एव रूयादिभावगमनात् । तिर्यग्योनिकपुरुषाणां यथा तिर्यग्योनिकस्त्रीणां तथा वक्तव्यं तचैवम् तिर्यग्योनिकपुरुषस्तिर्यग्योनिकपुरुषत्वमजहत् जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं त्वा गत्यन्तरे वेदान्तरे वा संक्रमात् उत्कर्षतस्त्रीणि पत्योपमानि पूर्वकोटिपृथकत्वाभ्यधिकानि, तत्र पूर्वकोटिपृथक्लं सप्त भवाः पूर्वकोट्यायुपः पूर्वविदेहादौ (यतः) त्रीणि पल्योपमान्यष्टमे भवे देवकुरूत्तरकुरुपु, (यतः) विशेषचिन्तायां जलचरपुरुषो जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तत ऊर्ध्व मरणभावेन तिर्यग्योन्यन्तरे गत्यन्तरे वेदान्तरे वा संक्रमात् उत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं, पूर्वकोट्यायुः समन्वितस्य भूयो भूयस्तत्रैव ज्यादिवारोत्पत्तिसम्भवात् । चतुष्पदस्थलचरपुरुपो जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पस्यो - पमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि तानि सामान्यतिर्यक्पुरुषस्येव भावनीयानि । उरः परिसर्पस्थलचरपुरुषो भुजपरिसर्पखलचरपुरुपञ्च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं तच जलचरपुरुषस्येव भावनीयं । खचरपुरुषो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, अन्तर्मुहूर्तभावना सर्वत्रापि प्रागिव, उत्कर्षतः पूर्वकोटिप्रयकत्वाभ्यधिकः पत्योपमा सयभागः, स च सत्र वारान् पूर्वकोटिस्थितिपूत्पथाष्टमबारमन्तरद्वीपादिखचरपुरुषेषु पस्योपमासङ्घयेय भागस्थितिपूत्पद्यमानस्य वेदितव्यः । 'मणुस्सपुरिसाणं जहा मणुस्सित्थीण' मिति, मनुष्यपुरुषाणां यथा मनुष्यस्त्रीणां तथा वक्तव्यं तचैवं सामान्यतो मनुष्यपुरुषस्य क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्च, तत ऊर्द्ध मृत्वा गत्यन्तरे वेदान्तरे वा संक्रमात् उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि तत्र सत्र भवाः पूर्वकोट्यायुषो महाविदेहेषु अष्टमस्तु देवकुर्वादिषु धर्मचरणं प्रतीत्य समयमेकं द्वितीयसमये मरणभावात् उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, उत्कर्षतोऽपि पूर्वकोट्यायुष Far Pr&Personal Use Only ~138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [५४] दीप अनुक्रम [६२] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [ ५४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ६८ ॥ एव वर्षाष्टकाचरणप्रतिपत्तिभावात्, विशेषचिन्तायां सामान्यतः कर्म्मभूमकमनुष्यपुरुषः कर्मभूमिरूपं क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोSन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि तत्रान्तर्मुहूर्त्त भावना प्रागिव, त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि सप्त वारान् पूर्वकोट्यायुः समन्वितेषूत्पथाष्टमं वारमेकान्तसुषमायां भरतैरावतयोखिपल्योपमस्थितिपूत्पद्यमानस्य वैदितध्यानि, धर्मचरणं प्रतीत्य जघन्यत एकं समयं सर्वविरतिपरिणाम स्यैकसामयिकस्यापि सम्भवान्, उत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, समचरणकालस्याप्येतावत एवं भावान् । भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यपुरुषोऽपि भरतैरावतक्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि देशोनपूर्व कोट्यभ्यधिकानि तानि च पूर्वकोट्यायुः समन्वितस्य विदेहपुरुषस्य भरतादौ संहत्यानीतस्य भरतादिवासयोगाद् भरतादिप्रवृत्तव्यपदेशस्य भवायुः क्षये एकान्तसुषमाप्रारम्भे समुत्पन्नस्य वेदितव्यानि, धम्र्मेचरणं प्रतीत्य जघन्यत एक समयमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, एतच्च द्वयमपि प्रागिव भावनीयं, पूर्वविदेहापर विदेह कर्म्म भूमकमनुष्यपुरुषः क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं तच भूयो भूयस्तत्रैव सप्तवारानुत्पश्या भावनीयं, अत ऊर्द्ध ववश्यं गत्यन्तरे योन्यन्तरे वा संक्रमभावात्, धर्मचरणं प्रतीत्य जपन्यत एकं समयमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी तथा सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुष्य पुरुषस्तद्भावमपरित्यजन् जन्म प्रतीत्य जघ न्यत एकं पस्योपमं पस्योपमा सय भागन्यूनमुत्कर्षत स्त्रीणि पस्योपमानि संहरणं प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त तथान्तर्मुहूर्त्तायुः शेष- x स्याकर्म्मभूमिषु संहतस्य वेदितव्यं उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि तानि च देशोनपूर्व कोट्यायुः समवितस्योत्तरकुर्यादौ संहृतस्य तत्रैव मृत्योत्पन्नस्य वेदितव्यानि देशोनता च पूर्वकोट्या गर्भकालेन न्यूनत्वाद्, गर्भस्थितस्य संहरणप्रतिषेधात् । हैमवत हैरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यपुरुषो जन्म प्रतीत्य जघन्यतः पत्योपमासोयभागन्यूनं पस्योपममुत्कर्षतः परिपूर्ण For P&Personal Use City ~ 139~ २ प्रतिपत्ता पुरुषस्यस्थितिः सू० ५४ ॥ ६८ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [२], ------------------------- उद्देशक: [-], --------------------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] दोपल्योपम, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकमेकं पस्योपम, अत्र भावना प्रागुक्तानुसारेण स्वयं कर्त्तव्या । हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुध्यपुरुषो जन्म प्रतीत्य जघन्यतो द्वे पल्योपमे पल्वोपमासद्धयेयभागन्यूने, उत्कर्षतः परिपूर्णे | x पल्योपमे, जघन्यत उत्कर्षतश्च तत्रैतावत आयुषः सम्भवान् , संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्व न्यूनान्तर्मुहूर्त्तायुषः संहरणाऽस-र म्भवात् , उत्कर्षतो देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिके द्वे पल्योपमे, भावनाऽत्र प्राग्वत् । देवकुरुत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यपुरुषः क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतः पल्योपमासवेयभागन्यूनानि त्रीणि पल्योपमानि उत्कर्षत: परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोड-14 न्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि देशोनपूर्वकोल्यधिकानि । अन्तरद्वीपकमनुष्यपुरुषो जन्म प्रतीत्य देशोनं पल्योपमासमयेयभागमु| स्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमासययभार्ग, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिसमभ्यधिक: पल्योपमासमायेयभागः ।। 'देवाणं जा चेव ठिई सा चेव संचिट्ठणा भाणियव्वा' देवानां चैव स्थितिः प्रागभिहिता सैव 'संचिटुणा' इति कायस्थितिमणितत्र्या, नन्वनेकभवभावाश्रया कायस्थितिः सा कथमेकस्मिन् भवे भवति ?, नैप दोषः, देवपुरुषो देवपुरुषलापरित्यागेन कियन्तं कालं यावनिरन्तरं भवति ? इत्येतावदेवात्र विवक्षितं, तत्र देवो मृलाऽऽनन्तर्येण भूयो देवो न भवति ततः 'देवाणं जा ठिई सा चेव संचिट्ठणा | भाणियव्या' इत्यतिदेशः कृतः । तदेवमुक्तं सातयेनावस्थानमिदानीमन्तरगाह पुरिसस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होई,गोयमा ! जह० एक समयं उको० वणस्सतिकालो तिरिक्वजोणियपुरिसाणं जह• अंतोमु० उक्को० वणस्सतिकालो एवं जाव बहयरतिरिक्वजोणियपुरिसाणं ॥ मणुस्सपुरिसाणं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ ?, गोयमा ! वेत दीप अनुक्रम [६२] ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], --------------------- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: SEX २ प्रतिपत्ती पुरुषवेदस्थान्तरं सु०५५ प्रत सूत्रांक [५५] श्रीजीवा- पडुच जह० अंतोमु उक्को वणस्सतिकालो, धम्मचरणं पडुच्च जहा एक समय उक्को. अणतं जीवाभि काल अणंताओ उस्स.जाव अवडपोग्गलपरियह देसूर्ण, कम्मभूमकाणं जाब विदेहो जाव धम्ममलय गि चरणे एको समओ सेसं जहित्थीणं जाव अंतरदीवकाणं ॥ देवपुरिसाणं जह• अंतो० उको रीयावृत्तिः वणस्सतिकालो, भवणवासिदेवपुरिसाणं ताव जाव सहस्सारो, जह० अंतो० उको वणस्सति॥६९॥ कालो । आणतदेवपुरिसाणं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ?, गोयमा ! जह• वासपुहुत्तं उक्को० वणस्सतिकालो, एवं जाव गेवेज्जदेवपुरिसस्सवि । अणुत्तरोववातियदेवपुरिसस्स जह वासपुहुत्तं उको संखेजाई सागरोवमाई साइरेगाई ॥ (सू०५५) 'पुरिसस्सणं' इत्यादि, पुरुषस्य णमिति वाक्यालङ्कारे पूर्ववत् भदन्त ! अन्तरं कालत: कियचिरं भवति ?, पुरुषः पुरुषत्वात्परिभ्रष्टः सन् पुनः कियता कालेन तदवासोतीत्यर्थः, तत्र भगवानाह-गौतम ! जघन्येनैक समय-समयादनन्तरं भूयोऽपि पुरुषलमवाप्नोतीति भावः, इयमत्र भावना-यदा कश्चित्पुरुष उपशमणिगत उपशान्ते पुरुषवेदे समयमेकं जीवित्वा तदनन्तरं म्रियते तदाऽसौ नियमादेवपुरुदात्पद्यते इति समयमेकमन्तरं पुरुषलस्य, ननु स्त्रीनपुंसकयोरपि श्रेणिलाभो भवति तत्कस्मादनयोरप्येवमेक: समयोऽन्तरं न भवति?, उच्यते, खिया नपुंसकस्य च श्रेण्यारूढाववेदकभावानन्तरं मरणेन तथाविध माध्यवसायतो नियमेन देवपुरुषत्वेनोत्पादानः, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स चैवमभिलपनीय:-"अणंताओ उस्सप्पिणीओ ओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अर्णता लोगा असंखेज्या पोग्गलप-1 रियट्टा, ते गं पुग्गलपरियट्ठा आवलियाए असंखेजइ भागो" इति ॥ तदेवं सामान्यतः पुरुषस्वस्थान्तरमभिधाय सम्प्रति तिर्यक्पुरुषविष दीप अनुक्रम [६३] Economics ~141~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ...................- मूलं [५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५] यमतिदेशमाह-जंतिरिक्खजोणित्थीणमंतर मित्यादि, यत्तिर्यग्बोनिकस्त्रीणामन्तरं प्रागभिहितं तदेव तिर्यग्योनिकपुरुषाणामप्यविशेषितं वक्तव्यं, तश्चैवम्-सामान्यतस्तिर्यपुरुषस्य जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त तावत्कालस्थितिना मनुष्यादिभवेन व्यवधानान् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽसलयेयपुरलपरावर्ताख्यः, तावता कालेनामुक्ती सत्यां नियोगत: पुरुषत्वयोगात् , एवं विशेषचिन्तायां जलचरपुरुषस्य स्व-18 लचरपुरुषस्य स्वचरपुरुषस्यापि प्रत्येक जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यं ॥ सम्प्रति मनुष्यपुरुषत्वविषयान्तरप्रतिपादनार्थमतिदेशमाह -'जं मणुस्सइत्थीणमंतरं तं मणुस्सपुरिसाण मिति, यन्मनुष्यस्त्रीणामन्तरं प्रागभिहितं तदेव मनुष्वपुरुषाणामपि वक्तव्यं, तचैवम्सामान्यतो मनुष्यपुरुषस्य जघन्यतः क्षेत्रमधिकृत्यान्तरमन्तर्मुहूर्त, तच्च प्रागिव भावनीयं, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यत एकं समर्थ, चरणपरिणामात्परिभ्रष्टस्य समयानन्तरं भूयोऽपि कस्यचिचरणप्रतिपत्तिसम्भवान् , उत्कर्षतो देशोनापार्द्धपुलप-1 रावत:, एवं भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यपुरुषस्य पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्य पुरुषस्य जन्म प्रतीत्य चरणमधिकृत्य च प्रत्येक जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यं । सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुष्यपुरुषस्य जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तरं दश वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, अकर्मभूमकमनुष्यपुरुषत्लेन मृतस्य जघन्यस्थितिषु देवेपूत्पद्यते], ततोऽपि च्युत्वा कर्मभूमिषु खीवेन पुरुषलेन बोत्पद्य | कस्याप्यकर्मभूमिलेन भूयोऽप्युत्पादान, देवभवाणयुवाऽनन्तरमकर्मभूमिषु मनुष्यत्वेन तिर्यसम्झिपञ्चेन्द्रियत्वेन वा उत्पादाभावा-12 दपान्तराले कर्मभूमिकेषु मृलोत्पादाभिधानं, उत्कर्षतो बनस्पतिकालोऽन्तरं, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त, अकर्मभूमेः कर्मभूमिषु संहृत्यान्तर्मुहूर्तानन्तरं तथाविधबुद्धिपरावर्त्तादिभावतो भूयस्तत्रैव नयनसम्भवात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, एतावत: कालादूर्द्धमकर्मभूमिपूत्पत्तिवत् संहरणस्यापि नियोगतो भावात् । एवं हैमवतैरण्यवतादिष्वप्यकर्मभूमिषु जन्मतः संहरणतश्च जघन्यत ACANADAGARSA दीप अनुक्रम [६३] ~142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [५५] दीप अनुक्रम [ ६३ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [ ५५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा २ प्रतिपत्ता पुरुषवेदस्यान्तरं सू० ५५ | उत्कर्षतञ्चान्तरं वक्तव्यं यावदन्तरद्वीपका कर्मभूमक मनुष्य पुरुष वक्तव्यता । सम्प्रति देवपुरुषाणामन्तरप्रतिपादनार्थमाह- 'देवपुरिसस्स जीवाभि० ५ णं भंते!" इत्यादि, देवपुरुषस्य भदन्त ! कालतः किञ्चिरमन्तरं भवति ?, भगवानाह - गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त देवभवाश्यखा गर्भमलयगि- व्युत्क्रान्तिकमनुष्येपूत्पद्य पर्याप्तिसमास्यनन्तरं तथाविधाध्यवसायमरणेन भूयोऽपि कस्यापि देवत्वेनोत्पादसम्भवान् उत्कर्षतो वनस्परीयावृत्तिः कतिकालः, एवमसुरकुमारादारभ्य निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत्सहस्रारकल्पदेवपुरुपस्यान्तरं, आनतकरूपदेवस्यान्तरं जघन्येन वर्षपृथ- ४ क्त्वं कस्मादेतावदिहान्तरमिति चेदुच्यते इह यो गर्भस्थः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः स शुभाध्यवसायोपेतो मृतः सन् आनतकस्वादारतो ये देवास्तेषूत्पद्यते नानतादिषु तावन्मात्र कालस्य तद्योग्याध्यवसाय विशुद्धयभावान् ततो य आनतादिभ्यश्युतः सन् भूयोऽप्यानतादिषूत्पत्स्यते स नियमाचारित्रमवाप्य, चारित्रं चाष्टमे वर्षे, तत उक्तं जघन्यतो वर्षे पृथक्त्वम् उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, एवं प्राणतारणाच्युतकल्पयैवेयक देवपुरुषाणामपि प्रत्येकमन्तरं जघन्यत उत्कर्षतश्च वक्तव्यम्, अनुत्तरोपपातिककल्पातीतदेवपुरुषस्य जघन्यतोऽन्तरं वर्षपृथक्त्वमुत्कर्षतः सङ्ख्येयानि सागरोपमाणि सातिरेकाणि, तत्र सङ्घयेयानि सागरोपमाणि तदन्यवैमानिकेषु सङ्घयेयवारोत्पस्या, सातिरेकाणि मनुष्यभत्रैः, तत्र सामान्याभिधानेऽप्येतदपराजितान्तमवगन्तव्यं, सर्वार्थसिद्धे सकृदेवोत्पादतस्तत्रान्तरासम्भवात् अन्ये त्वभिदधति-भवनवासिन आरभ्य आईशानादमरस्य जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त्त, सनत्कुमारादारभ्यासहस्रारानव दिनानि आनतकल्पादारभ्याच्युतकल्पं यावन्नव मासाः नवसु चैवेयकेषु सर्वार्थसिद्धमहाविमानव जेव्वनुत्तरविमानेषु च नव वर्षाणि, मैत्रेयकान् यावत् सर्वत्राप्युत्कर्षतो वनस्पतिकालः, विजयादिषु चतुर्षु महाविमानेषु द्वे सागरोपमे, उक्तश्च – “आईसाणादमरस्स आईशानादन्तरममराणां हीनं मुहूर्तान्तः । आ सहारात् अच्युतात् अनुत्तरात् दिनमासवर्धनवकम् || १ || स्थावरकाल उत्कृष्टः सर्वार्थ द्वितीयो नोस्पादः द्वे सागरोपमे विजयादिपु. 18 11 10 11 Far P&Personal Use City ~ 143~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ ५५ ] दीप अनुक्रम [ ६३ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [ ५५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... .. आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अंतरं हीणयं मुहुर्त्ततो आसहसारे अचुयणुत्तरदिणमासवासनव ॥ १ ॥ थावरकालुकोसो सम्बट्टे बीयओ न उबवाओ। दो अ यरा विजयादिसु" इति ॥ तदेवमुक्तमन्तरं साम्प्रतमल्पबहुत्वं वक्तव्यं तानि च पञ्च तद्यथा-प्रथमं सामान्यास्पबहुलं, द्वितीयं त्रिविधतिर्यकुपुरुषविषयं तृतीयं त्रिविधमनुष्यपुरुषविषयं चतुर्थे चतुर्विधदेवपुरुषविषयं पञ्चमं मिश्रपुरुषविषयं तत्र प्रथमं तात्रदभिधित्सु राह अप्पाबहुयाणि जहेवित्थीणं जाव एतेसि णं भंते! देवपुरिसाणं भवणवासीर्ण वाणमंतराणं जोतिसियाणं वैमाणियाण य कतरे हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा ?, गोमा ! सत्थोवा माणियदेवपुरिसा भवणवदेवपुरिसा असंखे० वाणमंतरदेवपुरिसा अ संखे० जोतिसिया देवपुरिसा संखेज्जगुणा ॥ एतेसि णं भंते! तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जलयराणं धarराणं स्वहयराणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमकाणं अक्रम्मभूमकाणं अंतरदिव० देवपुरिसाणं भवणवासीणं वाणमन्तराणं जोइसियाणं चेमाणियाणं सोधम्माणं जाव सच्चहसिद्धगाण य कतरेरहिंतो अप्पा वा बहुगा वा जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवा अंतरीगमसपुरमा देवकुरूत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दोषि संखेज० हरिवासरम्मगवासअक० दोवि संखेज्जगुणा हेमवतहेरण्णवतवासअकम्म० दोवि संखि० भरहेरवतचासकम्मभूमगमणुः दोषि संखे० पुरुषविदेह अवरविदेहकम्मभू० दोवि संखे० अणुत्तरोबवा Far P&Personal City ~ 144~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः पुरुषाल्प प्रत सूत्रांक [१६] तियदेवपुरिसा असंखि० उवरिमगेविजदेवपुरिसा संखेज मज्झिमगेविजदेवपुरिसा संखेज हेहि- K२ प्रतिपत्ती मगेविजदेवपरिसा संखे० अक्चुयकप्पे देवपुरिसा संखे०, जाव आणतकप्पे देवपुरिसा संखेज सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखे० महामुक्के कप्पे देवपुरिसा असंखे०जाव माहिद कप्पे देव बहुत्वं पुरिसा असंखे० सणंकुमारकप्पे देवपुरिसा असं० ईसाणकप्पे देवपुरिसा असंखे० सोधम्मे सू०५६ कप्पे देवपुरिसा संखे० भवणवासिदेवपुरिसा असंग्वे० खहयरतिरिक्खजोणियपरिसा असंखे० धलयरतिरिक्वजोणियपुरिसा संखे० जलयरतिरिक्खजोणियपुरिसा असंख० वाणमंतरदेव पुरिसा संखे०, जोतिसियदेवपुरिसा संखेजगुणा ॥ (सू०५६) परिसाणं भंते' इत्यादि, सर्वस्तोका मनुष्यपुरुषाः सङ्ख्येयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्वस्तिर्यग्योनिकपुरुषा असङ्ख्येयगुणाः, प्रतरासाख्येयभागवय॑सत्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणलातेषां, तेभ्यो देवपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, बृहत्तरप्रतरासङ्ख्येयभागवय॑सख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तिर्यग्योनिकपुरुषाणां यथा तिर्यग्योनिकस्त्रीणां मनुष्यपुरुषाणां यथा मनुष्यत्रीणामल्पबहुलं (तथा) वक्तव्यं । सम्प्रति देवपुरुषाणामल्पबहुलमाह-सर्वस्तोका अनुत्तरोपपातिकदेवपुरुषाः, क्षेत्रपल्योपमासजण्येयभागवाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्य उपरितनौवेयकदेवपुरुषाः सङ्ख्येवगुणाः, बृहत्तरक्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिमानत्वात् , कथमेतदवसेयमिति चेदुख्यते-विमानवाहुल्यान् , तथाहि-अनुत्तरदेवानां पञ्च विमानानि, विमानशतं तूपरितनप्रैवे- का॥७१।। यकप्रस्तटे, प्रतिविमानं चास जनल्येया देवाः, यथा चाधोऽधोवत्तौनि विमानानि तथा तथा देवा अपि प्राचुर्येण लभ्यन्ते, ततोऽवसी दीप अनुक्रम [६४] ~145~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] यते-अनुत्तरविमानवासिदेवपुरुषापेक्षया बृहत्तरक्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागवर्त्तिनमःप्रदेशराशिप्रमाणा उपरितनबेयकप्रस्तटे देवपुरुषाः (संख्येयगुणा) एवमुत्तरत्रापि भावना विधेया, तेभ्यो मध्यमवेयकप्रस्तटदेवपुरुषाः सङ्ख्यगुणाः, तेभ्योऽप्यधस्तनौवेयकप्रस्तटदेव-18 पुरुषाः सञ्जयगुणाः, तेभ्योऽप्यच्युतकल्पदेवपुरुषाः सोयगुणाः, तेभ्योऽप्यारभकल्पदेवपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, यद्यप्यारणाच्युतकल्पी समश्रेणीको समविमानसङ्ख्याको च तथाऽपि कृष्णपाक्षिकास्तथास्वाभाब्यात्प्राचुर्वेण दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते । अथ | के ते कृष्यापाक्षिकाः ?, उच्यते, इह द्वये जीवाः, तद्यथा-कृष्णपाक्षिकाः शुहपाक्षिकाच, तत्र येषां किञ्चिडूनोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्तः | तासंसारस्ते शुक्लपाक्षिकाः, इतरे दीर्घसंसारभाजिनः कृष्णपाक्षिका:, उक्तञ्च-"जेसिमबडो पुग्गलपरियट्टो सेसओ य संसारो । ते सुकपक्खिया खलु अहिर पुण कण्हपक्खीया ॥ १॥" अत एव स्त्रोका: शुलपाक्षिकाः, अल्पसंसाराणां स्तोकानामेव सम्भवात् , बहवः कृष्णपाक्षिकाः, दीर्घसंसाराणामनन्तानन्तानां भावात् , अथ कथमेतदवसातव्यं यथा कृष्णपाक्षिकाः प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, उच्यते, तथास्वाभाव्यात् , तच्च तथास्वाभाव्यमेवं पूर्वाचार्ययुक्तिभिरुपहितं-कृष्णपाक्षिकाः खलु दीर्घसंसारभाजिन उच्यन्ते, दीर्घसंसारभाजिनश्च बहुपापोदयात्, बहुपापोदयाश्च क्रूरकर्माणः, क्रूरकर्माण प्रायस्तथास्वाभाव्याद् तद्भव सिद्धिका अपि दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, यत उक्तम्-'पायमिह कूरकम्मा भवसिद्धीयावि दाहिणिलेलु । नेरइयतिरियमणुया दासुराइठाणेसु गच्छति ।। १॥" ततो दक्षिणस्यां दिशि प्राचुर्येण कृष्णपाक्षिकाणां सम्भवादुपपद्यते-अच्युतकल्पदेवपुरुषापेक्षयाऽऽर १येपामपाः पुनलपरावर्सः शेष एव संसारः । ते शकपाक्षिकाः सजु अधिके पुनः कृष्णपाक्षिकाः॥1॥२ प्राय इह कूरकर्माणो भवसिद्धिका अपि दाक्षिणात्येषु । नैरमिकतिर्वमनुजामुरादिस्थानेषु गच्छन्ति ॥१॥ दीप अनुक्रम [६४] 1504 २-4KCARE5% ~146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रतिपनी पुरुषाल्प बहुत्व सू०५६ %20% सूत्रांक [१६] श्रीजीवा- कल्पदेवपुरुषाः सहयगुणाः, तेभ्योऽपि प्राणतकल्पदेवपुरुषाः सङ्ग्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यानतकरूपदेवपुरुषाः सायगुणाः, अत्रापि|| जीवाभिप्राणत कल्पापेक्षया सोयगुणत्वं कृष्णपाक्षिकाणां दक्षिणस्यां दिशि प्राचुर्येण भावात् , एते च सर्वेऽप्यनुत्तरविमानवास्वादय आनतमलयगि-I कल्पवासिपर्यन्तदेवपुरुषाः प्रत्येक क्षेत्रपल्योपमासयेयभागवर्त्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणा द्रष्टव्याः, "आणयपाणयमाई पल्लम्सास-1 रीयावृत्तिःदाखभागो " इति वचनात् , केवलमसषयो भागो विचित्र इति परस्परं यथोक्तं सोयगुणसं न विरुभ्यते, आनतकल्पदवपुरु षेभ्यः सहस्रारकल्पवासिदेवपुरुषा असङ्घययगुणाः, घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिक्याः श्रेणेरसङ्गापयतमे भागे यावन्त आकाशप्र॥७२॥ देशातावरप्रमाणत्यातेषां, तेभ्योऽपि महाशुक्रकल्पवासिदेवपुरुषा असङ्खयेयगुणाः, बृहत्तरश्रेण्यसहस्पेयभागाकाशप्रदेशराशिप्रमाणलिवान , कथमेतत्प्रत्येयमिति चेदुच्यते-विमानवाहुल्यात् , तथाहि-पट् सहस्राणि विमानानां सहस्त्रारकल्पे चत्वारिंशत्सहस्राणि महाशुके, अन्यचाधोविमानवासिनो देवा बहुबहुतरा: स्तोकस्तोकतरा उपरितनोपरितनविमानवासिनस्तत उपपद्यन्ते सहस्रारकल्प देवपुरुषेभ्यो महाशुक्रकल्पबासिदेवपुरुषा असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि लान्तककरूपदेवपुरुषा असङ्ख्येयगुणाः, वृहत्तनश्रेण्यसङ्खथेयदभागवर्त्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि ब्रह्मलोककल्पवासिदेवपुरुषा असङ्खयेयगुणाः, भूयोवृहत्तमश्रेण्यसाधेयभागवा काशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात, तेभ्योऽपि माहेन्द्रकल्पदेवपुरुषा असङ्खधेयगुणाः, भूयस्तरवृहत्तमनभःश्रेयसङ्घयेयभागगताकाशप्रदेशमानत्वात् , तेभ्यः सनत्कुमारकल्पदेवा असमयेवगुणाः, विमानबाहुल्यान, तथाहि-द्वादश शतसहस्राणि सनत्कुमारकल्पे विमानानामष्टौ शतसहस्राणि माहेन्द्रकल्पे अन्यच्च दक्षिणदिग्भागवत्ती सनत्कुमारकल्पो माहेन्द्रकल्पश्चोत्तरदिग्वत्तों दक्षिणस्यां च दिशि बहवः | १ आनतप्राणतादयः षल्योपमस्यासंख्यो भागस्तु. दीप अनुक्रम [६४] ॥७२॥ ~147~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ...................- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत Fe-09 सूत्रांक [१६] समुत्पयन्ते कृष्णपाक्षिकाः, तत उपपद्यन्ते माहेन्द्रकल्पासनत्कुमारकल्पे देवा असश्येयगुणाः, एते च सर्वेऽपि सहस्रारकल्पवासिदेबादयः सनत्कुमारकल्पवासियेवपर्यन्ताः प्रत्येक स्वखाने चिन्यमाना बनी कृतलोकैकश्रेण्यसहयेयभागगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणा द्रप्रत्याः, केवलं श्रेण्यसहयेयभागोऽसस्पेयभेदभिन्नस्तत इत्थमसोयगुणतयाऽस्यवहुत्वमभिधीयमानं न विरोधभाक, सनत्कुमारकल्पदेवपुरुषेभ्य ईशानकल्पदेवपुरुषा असङ्ख्यगुणाः, अहुलमानक्षेत्रप्रदेशराशिसम्बन्धिनि द्वितीये वर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन | गुणिते यावान प्रदेदाराशिस्वायत्सङ्ग्याकामु पनीकृतस्य छोकम्यकप्रादेशिकीपु श्रेणिपु बायन्तो नभःप्रदेशास्तेषां यावान द्वात्रिंशनमो| भागतावत्प्रमाणवान् , नेभ्यः सौधर्मकल्पवासिदेवपुरुषाः सहयगुणाः, विमानवाहुल्यान् , तथाहि-अष्टाविंशतिः शतमहाणि विमानानामीशानकल्पे द्वात्रिंशतसहनाणि सौधर्मकरूपे, अपि च दक्षिणदिग्व सौधर्मकल्प ईशानकल्पश्चोत्तरदिग्बनी, दुनिगम्यां च दिशि बहवः कृष्णपाक्षिका उत्पदन्ते, तत ईशानकरूपदासिदेवपुरुषेभ्यः सौधर्मकल्पासिदेवपुरुषाः सहयेयगुणाः, नन्धियं युक्तिः सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोरयुक्ता, परं तत्र माहेन्द्रकल्पापेक्ष्या सनत्कुमारकल्पे देवा असावयेय गुणा उता इह तु सौधर्मे कल्पे सहयगुणास्तदेवकान, अरबते, तथाटस्नुस्खाभाव्यान, एसजावसीयते प्रज्ञापनादौ सर्वत्र जथाभणनान , तेभ्योऽपि भवनवानिदेवपुरुषा असाहयेगगुणाः, अगुटमानक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमे वर्गमूले द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते याबान प्रदेशराशिरुपजायते नायन्सङ्गमाकामु भनीकनमा टोकस्यैकप्रादेशिकीपु श्रेणिषु यावन्तो नभ:प्रदेशास्तेषां यावान द्वात्रिंशत्तमो भागस्नावलामाणखान् , तेभ्यो व्यन्तरदेवपुरपा अस हुयेयगुणा:, सहयेययोजनकोटीकोटीप्रमाणैकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्तो कम्मिन प्रतरे भवन्ति तेषां यात्रा डाशिनमो भागमावममाणत्वान् , नेभ्यः सश्यगुणा ज्योतिएकदेवपुरुषाः, पटप था इधिकशतदया-1 दीप --- अनुक्रम [६४] जी०स०१३ is Etc ~148~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: Ck प्रत सूत्रांक [१६] श्रीजीवा हुलप्रमाणैकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्येकस्मिन प्रतरे भवन्ति तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्खापत्प्रमाणत्वात् ।। स- प्रतिपत्तो प्रति पञ्चममल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते" इत्यादि. सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकमनुष्यपुरुषाः, क्षेत्रस्य तोकत्वात् , तेभ्योऽपि पुरुषवेदिमलयागादेवकुरुत्तरकुरुमनुष्यपुरुषाः साहयेयगुणाः, क्षेत्रस्य बहुत्वात् , स्वस्थाने तु येऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽपि हरिवर्षरम्यकवर्षाक- नामल्परीयावृत्तिः मभूमकमनुष्यपुरुषाः सयेय गुणाः, क्षेत्रस्यातिबहुत्वान् . स्वस्थाने तु इये ऽपि परस्परं तुल्याः, क्षेत्रस्य समानवान् तेभ्योऽपि हैमवत- वहुत्वं ॥७३॥ हरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाः सङ्ख्येय गुणाः, क्षेत्रस्यात्पत्वेऽयल्पस्थितिकतया प्राचुर्येण लभ्यमानत्वान् स्वस्थाने तु येऽपि पर- सू०५६ स्परं तुल्याः, तेभ्योऽपि भरतैरायतकर्मभूमकमनुष्यपुकपाः सञ्जययगुणाः, अजितस्वामिकाले उत्कृष्टपदे (इव) स्वभावत एव भरतैरावतेपु नाच] मनुष्यपुरुषाणामतिप्राचुर्येण सम्भवान् , स्वस्थाने च येऽपि परस्परं तुल्याः, क्षेत्रस्य नुल्यत्वात् , तेभ्योऽपि पूर्व विदेहापरविदे-16 हकर्मभूगकमनुष्यपुरुषाः समायेयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यादजितस्वामिकाले इव स्वभावत एव मनुष्यपुरुषाणां प्राचुर्येण सम्भवात् , स्वकास्थाने तु येऽपि परस्पर तुल्याः, तेभ्योऽनुत्तरोपपातिकदेवपुरुपा असषयगुणाः भेषपस्योपमासमवेयभागवाकाशप्रदेशप्रप्रमाण त्यान् , तदनन्तरमुपरितनपैवेयकातटदेवपुरुषा मध्यमवेयकप्रस्तटदेवपुरुषा अधमानौवेयकासददेवपुरुषा अकयुतकरूपदेव पापा आरणकल्पदेवपुरुषाः पाणतकल्पदेवपुरुपा आनतकल्पदेवपुरपा यथोत्तरं सोयगुणाः, भावना प्रागिव, तदनन्तरं सहसार-1 टाकल्पदेवपुरुषा लान्तककल्पदेवपुरुषा प्रहालोककल्पदेवपुरुषा माहेन्द्रकल्पदेवपुरुषाः सनत्कुमारकरूपदेवपुरुषा ईशानकरूपदेवपुरुषा यथो-151 दानरमसत्येयगुणाः, सौधर्मकल्पदेवपुरुषाः सवयगुणाः, सौधर्मकल्पदेवपुरुपेभ्यो भवनवासिदेव पुरुषा असलयेयगुणाः, भावना 10७३ ॥ सर्वत्रापि प्रागिष, तेभ्यः सचरतिषग्योनिकपुस्पा असङ्ख्यगुणाः, प्रतरासयभागवय॑सङ्ग्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणखान, दीप अनुक्रम [६४] ~ 149~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [६४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [ ५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Jan Edocation नपुंसकस्य त्रैविध्यम् | तेभ्यः स्थलचर तिर्यग्योनिकपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः श्रेयगुणाः, युक्तिरत्रापि प्रागिव तेभ्योऽपि बानमन्तरदेवपुरुषाः सत्येयगुणाः, सङ्घयेययोजनकोटी प्रमाणैकप्रादेशिक श्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेषां यावान द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् तेभ्यो ज्योतिष्कदेवपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, युक्तिः प्रागेवोक्ता ॥ पुरिसवेदस्स णं भंते! कम्मरस केवतियं कालं बंधहिनी पण्णत्ता ?, गोयमा ! जह० अट्ठ संवच्छराणि, उक्को० दस सागरोवमकोडाकोडीओ, दसवाससयाई अवाहा, अवाहूनिया कम्म ठित कम्मणिसेओ ॥ पुरिसवेदे णं भंते! किंपकारे पण्णत्ते ?, गोयमा ! वणदवग्गिजालसमाणे पण्णत्ते, सेतं पुरिसा || (सू०५७) रुपवेदस्थितिर्जघन्यतोऽष्टौ संवत्सराणि एतन्यूनस्य तन्निबन्धनविशिष्टाध्यवसायाभावतो जघन्यत्वेनासम्भवात् उत्कर्षतो दश सागरोपमकोटीकोटयः, दश वर्षशतान्ययाधा, अवाधोना कर्मस्थितिः कर्मनिषेकः अस्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ तथा पुरुषवेदो भदन्त ! किंप्रकारः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह - गौतम ! दवाग्निज्वालासमानः प्रारम्भे ती मदनदाह इति भावः प्रज्ञप्तः ॥ व्याख्यातः पुरुषाधिकारः, सम्प्रति नपुंसकाधिकारप्रस्तावः तत्रेदमादिसूत्रम् - से किं तं पुंसका ?, णपुंसका तिविहा पण्णत्ता, तंजा-नेरयनपुंसका तिरिक्म्वजोणियनपुंसका मस्सजोणियणपुंसका ॥ से किं नं नेरइयनपुंसका ?, नेरइयनपुंसका सत्तविधा पण्णत्ता, तंजहारयणप्पभापुढविनेरयनपुंसका सकरप्पभापुढविनेरइयनपुंसका जाव अधेसत्तमपुढविनेरइयणपुं For Pro & Personal Use City ~ 150 ~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ ५८ ] दीप अनुक्रम [६६] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [ ५८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ७४ ॥ सका, से तं नेरइयनपुंसका | से किं तं तिरिक्वजोणियणपुंसका १, २ पंचविधा पण्णत्ता, तंजाएर्गिदियतिरिक्खजोणियनपुंसका, बेदि० तेइंदि० उ० पंचेद्रियतिरिक्खजोणियणपुंसका ॥ से किं तं एर्गिदियतिरिकम्वजोणियनपुंसका ?, २ पञ्चविधा पण्णत्ता, तं० पु० आ० ते० वा० ब० से तं एर्गिदियतिरिक्ग्वजोणियणपुंसका | से किं तं बेइंदियतिरिक्म्ब जोणियणपुंसका १, २ अणेगविधा पणता से तं इंद्रियतिरिक्म्वजोणिया, एवं तेइंद्रियावि, चउरिंदियावि ॥ से किं तं पंचेंद्रियतिरिक्खजोणियणपुंसका?, २ तिविधा पण्णत्ता, तंजहा- जलधरा थलयरा स्वयरा । से किं तं जलयरा १, २ सो चेव पुव्युत्तभेदो आसालियवजितो भाणियच्चो से नं पंचेंद्रियतिरिक्वजोणिपुंसका | सो किं तं मणुस्सनपुंसका १, २ निविधाः पण्णत्ता, तंजहा- कम्मभूमगा अम्मभूमगा अंतरदीवका, भेदो जाव भा० ॥ ( सू० ५८ ) 'से किं तं पुंसा' इत्यादि, अथ के ते नपुंसकाः ?, नपुंसकाविविधाः प्रज्ञताः, तथथा - नैरथिक नपुंसकास्तिर्यग्योनिकनपुंसका मनुष्य नपुंसकाश्च ॥ नैरविकनपुंसकप्रतिपादनार्थमाह से किं तमित्यादि, अब के ते नैरविकनपुंसकाः ?, पृथ्वीभेदेन समविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - रत्नप्रभा पृथ्वीनैरयिकनपुंसकाः शर्कराप्रमापृथ्वीनैरयिकनपुंसकाः यावदधः सप्तमपृथिवीनैरयिक नपुंसकाः, उपसंहारमाह-' से तं नेरइयनपुंसका' । सम्प्रति तिर्यग्योनिकनपुंसकप्रतिपादनार्थमाह - 'से किं तमित्यादि प्रनसूत्रं सुगमम्, भगवानाह - तिर्यग्योनि कनपुंसकाः पञ्चविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा - एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यावत्पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकाः ॥ For Pregally ~ 151~ २ प्रतिपत्ती पुरुषवेद स्थिति प्रकारी सू० ५७ नपुंसक भेदाः सू० ५८ ॥ ७४ ॥ wwwyung Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], --------------------- मूलं [५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] एकेन्द्रियनपुंसकर मसूत्र सुगम, भगवानाह-एकेन्द्रियतिर्यग्योनि कनपुंसकाः पञ्चविधाः प्रज्ञमाः, तद्यथा-पृथिवीकायिकैकेन्द्रियनिर्यग्योनिकनपुंसका अप्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकास्तेजम्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकापुंसका वायुकायिकैकेन्द्रिय तिर्यग्योनिकनपुंसका बनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकाः, उपसंहारमाह-'मेतं एगिदियतिरिक्खजोणियनपुंसका' ॥ द्वीन्द्रियनपुंसकप्रतिपादनार्थमाह-वेइंदिए'त्यादि, द्वीन्द्रियतिर्यग् योनिकनपुंसका भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञप्ता:?, भगवानाह-गौतम || अनेकविधाः प्रज्ञतास्तद्यथा-"पुलाकिमिया" इत्यादि पूर्ववत्ताबद कठयं यायश्चतुरिन्द्रियभेदपरिसमाभिः । पञ्चेन्द्रियतिर्यग् योनिकन| पुंसका भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञाना: १, गौतम! विविधाः प्रज्ञपाः, लाथा-जलचरा: खलचरा: बचराश्च, एते च प्राग्वत्सप्रभेदा | वक्तव्याः, 'उपसंहारमाह-से तं पंचिंदियतिरिक्ख जोणियणपुंमगा। 'से किं तमित्यादि, अथ के ते मनुष्यनपुंसकाः', मनुप्यनपुंसकाबिविधाः प्रज्ञताः, तन्यथा-कर्मभूमका अकर्मभूमका अन्तरद्वीपकान, एतेऽपि प्राग्वत्समभेदा वक्तव्याः ।। नुक्को भेदः, स-४ प्रति स्थितिप्रतिपादनार्थमाह पासकस्सण मंने ! केवतियं कालं ठिनी पणता?. गोयामा! जह० अंमो० उको तेत्तीसं सागरोबमाई । नेरइयनपुंसगस्स णं भंते ! केवनियं कालं ठिती पण ला?, गोयमा ! जह० इमबामसहस्माई'उकोलेसीसं सागरोवमाई, सब्वेसि टिनी भाणियवा जाव अधेस समापुनविनेरहया । निरिक्वजोणियणपुंसकरस भने ! केवइयं कालं ठिनी प०, गोयमा!, जह० अंतो. उको पुख्बकोही । पगिदियतिरिक्वज़ोणियणमक जह० अंतो० उको बाचीसं बामसह दीप अनुक्रम [६६) 10-%EXIMAEXXXX ~ 152~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ ५९ ] दीप अनुक्रम [६७] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [ ५९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... .. आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ७५ ॥ स्साई, पुढविकाइयएगिंदियतिरिक्व जोणिघणपुंसकस्स णं भंते! केवनियं कालं ठिती पन्नत्ता ?, जह० अंतो० उको० बावीसं वाससहस्माई, सव्वेसिं एगिंदियणपुंसकाणं ठिती भाणियव्वा, येइंद्रियते द्वियच उरिंडियणपुंसकाणं किती भाणितव्वा । पंचिंदियतिरिक्ग्वजयिणपुंसकस णं भंते! केवलियं कालं किती पण्णत्ता ?, गोयमा ! जह० अंतो० उक्को० पुव्वकोडी, एवं जलयतिरिक्वच उपदधलयरउरगपरिसप्प भुगगपरिसप्पखयरतिरिक्ख० सव्वेसिं जह० अंतो० उको पुबकोडी | मणुसणपुंसकस्स णं भंते! केवतियं कालं किती पण्णत्ता?, गोयमा ! खेतं पहुच जह० अंनो० उक्को० पुत्र्वकोडी, धम्मचरणं पडुच जह० अंतो० उक्को० देसृणा पुञ्चकोडी । कम्मभूमगभरद्देरवयपुब्वविदेह अवरविदेह मणुस्मणपुंसकस्सवि तहेव, अम्मभूमगमणुस्मणपुंसकस्स णं भंते! केवलियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा ! जम्मणं पडुच जह० अंतो० उको अंतोमु० साहरणं पडच जह० अंतो० उफो० देसृणा yoanोडी, एवं जाव अंतरदीयकाणं ॥ णपुंसएणं भंते! णपुंसए त्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं एकं समयं उको० तरुकालो । रइयणपुंस णं भंते । २ गोयमा ! जह० दस बाससहस्साई उक्को० तेत्तीसं सागरोमाई, एवं पुढवीए दिती भाणिया । तिरिक्वजोणियणपुंसएणं भंते! ति०१, २ गोयमा ! जह० अंतो० उको० वणस्सतिकालो, एवं एगिंद्रियणपुंसकस्स णं, वणस्सतिकाइयस्सवि एवमेव, For P&Personal Use City ~ 153~ **% *% २ प्रतिपत्तौ नपुंसक - स्थित्यन्तरे सू० ५९ ॥ ७५ ॥ oryg Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ...................- मूलं [५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५९] सेसाणं जह अंतो उको असंखिलं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालनो, खेसओ असंखेजा लोया । बेइंदियतेइंदियचउरिंदियनपुंसकाण य जहा अंतो० उफो० संखेनं कालं । पंचिंदियतिरिक्वजोणियणपुंसए णं भंते!?, गोयमा! जह० अंतो उको पुब्बकोडिपुरतं । एवं जलयरतिरिक्खचप्पदथलचरउरगपरिसप्पभुयगपरिसप्पमहोरगाणवि । मगुस्सणपुंसकस्स भंते ! वेत्तं पड्य जह० अतो० उको पुवकोडिपुहतं, धम्मचरणं पटुब जह एक समयं उक्को० देसूणा पुग्यकोडी । एवं कम्मभूमगभरहेरचयपुव्वविदेहअवरविदहेसुवि भाणियव्यं । अकम्मभूमकमणुस्सणपुंसए णं भंते ! जम्मण (पट्टच) जह० अंतो० उको मुहुक्तपुहत्तं, साहरणं पहुंच जह• अंतो. उको देसूणा पुचकोडी। एवं सब्बेसिं जाव अंतरदीवगाणं ॥णपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होह?, गोयमा! जह• अंतो० उको सागरोवमसयपुहुतं सातिरेगं । रइयणपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ?, जह• अंतो० उको० तरुकालो, रयणप्पभापुरवीनेरइयणपुंसकस्स जह० अंतो० उकोतरुकालो, एवं सव्येसिं जाव अधेसत्तमा । तिरिक्वजोणियणपुंसकस्स जह० अंतो० उदो० सागरोवमसयपुहुसं सातिरेगं । एगिदियतिरिक्वजोणियणपुंसकस्स जहः अंतो. उको दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई, पुढविआउतेउचाऊणं जह० अंतो उदो० वणस्सइकालो । दीप अनुक्रम [६७] -60-60-%256 -50 ~154~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ८ प्रत श्रीजीवाजीवाभि मटयनिरीयावृत्तिः सूत्रांक [५९] दीप वणस्सतिकाइयाणं जह० अंतो को असंखेज़ कालं जाय असंग्वेजा लोया, मेसाणं घेइंदि. प्रतिपत्ती यादीर्ण जाव ग्वहाराणं जह. अंतो. उदो० वणस्सतिकालो। मणुस्सणपुंसकस्स श्वेतं पडच नपुंसकजह अंतो. उको० वणस्सतिकालो, धम्मचरणं पटुब जह० एग सभयंउको अर्णनं कालं स्थित्यन्तरे जावअवहुपोग्गलपरियह देणं, एवं कम्मभूमरुस्सवि भरनेरचनस्स पुब्बविदेह अवरविदेहकरसवि। सू०५१ अफम्मभूमकावणुस्सणपुंसकस्स णं भंते! केवनियं कालं?, जम्मणं पहुंच जह० अंनो० उको वणस्तनिकालो, संहरणं पहुंच जह० अंतो० उक्को. वणस्तनिकालो एवं जाव अंतरदीव गत्ति ॥ (सू०५९) 'नपुंसगरस ण भंते !' इत्यादि सुगम, नवरमन्तर्मुह निर्यग्मनु यापेक्षया द्राव्य, त्रयविंशत्सागरोपमाणि सप्तमपृथिवीनारकापेक्षया ॥ तदेवं सामान्यतः स्थितिकता, सम्प्रति विशेषतस्तां विचिचिन्तयिपुः प्रथमतः सामान्यतो विशेषतश्च मेरयिकनपुंसकविपयामाह-'नेरइयनपुंसगस्स मियादि, सामान्यतो नैरयिकनपुंसकस्य जयन्यतो दश वर्षसहस्राणि 'उत्कर्पतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, विशेषचिन्तायां रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकनपुंसकस्य जपन्यत: स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षत एक सागरोपमं शर्करापु थियीनैरयिकनपुंकसस्य जघन्यत एकं सागरोपममुत्कर्पतखीणि सागरोपमाणि बालुकाप्रभापृथिवीनैरविकनपुंसकस्य जघन्यतस्त्रीणि सागरोपमाणि उत्कर्पतः सप्त पङ्कप्रभाधवीनैरपिकनपुंसकस्य जघन्यतः सप्त सागरोपमाणि उत्कर्षतो दश धूमप्रभापृथिवीनरयिकनपुंसकस्य जघ-1x न्यतो दश सागरोपमाणि उत्कर्षत: सनदश तमःप्रभापथिवीनैरयिकनपुंसकस्य जघन्यतः सप्रदश सागरोपमाणि उत्कर्षतो द्वावि अनुक्रम [६७] ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ...................- मूलं [५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५९] शतिः अधःसप्रमथिवीनैरयिकनपुंसकस्य जघन्यतो द्वाविंशतिः सागरोपमाणे उत्कर्पतत्रयनिंशन , कचिदतिदेशसूत्र जहा पगणवणाए लिइपदे तहे' त्यादि, नत्राप्येवमेवातिदेशव्याख्याऽपि कन्या। सामान्यतलियम्योनिकनपुंसकस्य स्थितिर्जचन्यतोऽन्तर्मु-15 इनमुत्कर्पत: पूर्वकोटी, सामान्यत एकेन्द्रियतिर्यन्योनिकनपुंसकस्य जपन्यतोऽन्तर्मुहूर्तभुत्कर्पतो द्वाविंशतिर्वर्षसहस्राणि, विशेषचिहतायां पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यम्बोनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतो द्वाविंशतिर्वसहस्राणि अकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनि कनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुल्कर्पतः सप्त वर्षसहस्राणि तेज:का विकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जयन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतपाखीणि रात्रिन्दिवानि वातकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जपन्यतोऽन्तर्मुहुर्तमुत्कर्पतत्रीणि वर्षसहस्राणि बनस्पतिकायिकैके१/न्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतो दश वर्षसम्माणि । दीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य 'जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमु.४ दाकर्पतो द्वादश वर्याणि । त्रीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुइ नमुत्कर्पत एकोनप याशदू रात्रिन्दिवानि । चतुरिन्द्रियपतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतः पण्मासाः । सामान्यतः पञ्चेन्द्रियतिर्थयोनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमु कर्पतः पूर्वकोटी, विशेषचिन्तायां जलचरस्य स्खलचरस्य खचरम्यापि पश्चेन्द्रियनिग्योनिकनपुंसकस्य जचन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटी । सामान्यतो मनुष्यनपुंसकस्यापि जघन्यसोऽन्तर्मुहूर्नमुत्कर्षस: पूर्वकोटी, कर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य क्षेत्रं प्रतीला जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटी, धर्मचरण' यायवेषपरिकरितप्रज्याप्रतिपनिमङ्गीकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूरी तत ऊर्द्ध मरणादिभावान् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, संवत्सराष्ठकादुई प्रतिपद्याजन्मपालना , भरतरावतकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य च क्षेत्रं धर्माचरणं च प्रतीत्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैवमेव वक्तव्यम् । अकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकम्य दीप अनुक्रम [६७] ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५९] श्रीजीवा- जन्म प्रतीत्य जयन्येनान्तर्मुहूर्तगुत्कर्पेणाप्यन्तर्मुहूर्तम् , अकर्मभूमौ हि मनुष्या नपुंसकाः संमूर्लिङमा एव भवन्ति, न गर्भव्युत्का- २ प्रतिपत्ती दन्तिका: युगलधर्मिणां नपुंसकत्वाभावात् , संमूछिमाश्च जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्तयुषः, केवलं जघन्यादुत्कृष्टमन्तर्मुहूर्त वृहत्तर- नपुंसकवेमलयगि- नवसेयं, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्नमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, संहरणादूर्ध्वमामरणान्तमवस्थानसम्भवान् , उत्कर्षतो देशोनता दतद्वरिस्थरीयावृत्तिः पूर्वकोट्या गर्भान्निर्गतस्य संहरणसम्भवान्, एवं विशेषचिन्तायां हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस हरिवर्षरम्यकव- त्यन्तरादि दिपकर्मभूगकमनुष्यनपुंसकस्य देवकुरुत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकम्य अन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसकस्य च जन्म संहरणं च प्रतीत्यैव मेव वक्तव्यम् ।। सम्प्रति कायस्थितिमाहणपुंसगे णं भंते ! इत्यादि, नपुंसको भदन्त ! नपुंसक इत्यादि, सामान्यतस्तद्वेदा-17 परित्यागेन कालतः कियनिरं भवति', भगवानाह-गौतम ! जघन्यत एक समयमुत्कर्षतो वनस्पतिकालं, तत्रैकसमयता उपशमशेदागिसमाप्तौ सत्यामवेदकले सति उपशमश्रेणीत: प्रतिपततो नपुंसकवेदोदयसमयानन्तरं कस्यचिन्मरणान् , तथा मृतस्य चावश्यं देवो त्पादे वेदोदयभावान् , बनस्पतिकाल:-आवलिकासपेयभागगतसमयराशिप्रमाणासाहयेयपुद्गलपरावर्त्तप्रमाणः । नैरयिकनपुंसककायस्थितिचिन्तायां यदेव सामान्यतो विशेषतच स्थितिमानं जघन्यत उत्कर्षतचोक्तं तदेवावसातव्यं, भवस्थितिथ्यतिरेकेण तत्रान्यस्याः | कायस्थितेरसम्भवान् । सामान्यतस्तिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थिति चिन्तायां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं मृत्वा गत्यन्तरे वेदान्तरे वा| संक्रमान् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, विशेषचिन्तायामेकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थितावपि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त भावना प्रा| ग्वन् , उत्कर्पतो वनस्पतिकालो यथोदितरूपः, तत्रापि विशेषचिन्तायां पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थितौ जघन्यसोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसयेयकालोऽसलरेयोत्सपिण्यबसर्पिणीप्रमाणः, तथा चाह-नकोसेणमसंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पि दीप अनुक्रम [६७] ...अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमाकने एका स्खलना दृश्यते-सू० ५९ स्थाने सू०६० इति मुद्रितं ~ 157~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 22% प्रत सूत्रांक [५९] Vणीभोसपिणीमो कालसो, संत्ततो असंखिज्जा लोगा" एवमष्कायिकतेजःकायिकवायुकायिककायस्थितिध्वपि वक्तव्यं, वनस्पतिकायि कायस्थितौ तथा वक्तव्यं यथा सामान्यत एकेन्द्रियकायस्थिती । द्वीन्द्रियतिबग्योनिकनपुंसककाय स्थिती जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कपंतः सह्यपेयः कालः, स च सोयानि वर्षसहस्राणि प्रतिपत्तव्यः । एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकनसककायस्थित्योरपि वक्तव्यम् । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थिती जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत: पूर्यकोटिपृथक्वं, तब निरन्तरं सप्तभवान् पूर्वकोट्यायुपो| नपुंसकत्येनानुभवतो वेदितव्यं, तस उर्व खवश्यं वेदान्तरे विलक्षणभवान्तरे बा संक्रमात् , एवं जल चरस्थलचरखचरसामान्यतो मनुलायनपुंसककायस्थितिष्वपि वेदितव्यं, कर्मभूमकमनुष्यनपुंसककायस्थिती क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुदत उत्कर्पतः पूर्वकोटीपृथक्त्वं भावना प्रागिव, धर्मचरणं प्रतीत्य जघन्यत एक समयमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, अत्रापि भावना पूर्ववत् । एवं भरतैरावतकर्मभूम-IN कमनुप्यनपुंसककायस्थिती पूर्व विदेहापरविदेहकर्माभूमकमनुष्यनपुंसककायस्थितौ च वाच्यं, सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुष्यनपुंसककायस्थितिचिन्तायां जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्त महत्त, एतावत्यपि कालेऽसकृदुत्पादात् . उत्कर्षतोऽन्तर्मुहुर्तपृथक्त्वं तत ऊ तत्र तथोत्पादाभावात् , संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त तत ऊर्द्ध मरणादिभावान् उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी । एवं हैमवतहरण्यवतहरिवपरम्यकवर्षदेबकुरुत्तरकुर्वन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसककायस्थितिध्वपि वक्तव्यम् ॥ तदेवमुक्ता कायस्थितिः, साम्प्रतमन्नरमभिधित्सुरिदमाह नपुंसगस्स ण'मित्यादि, नपुंसकस्य णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! अन्तरं कालतः कियचिरं भवति १, नपुंसको भूला नपुंसकत्वात्परिभ्रष्टः पुनः कियता कालेन नपुंसको भवतीत्यर्थः, भगबानाह-गौतम! जघन्यतोऽन्तर्मुहत. एतावता पुरुषादिकालेन व्यवधानात. उत्कर्षत: सागरोपमशतपुथक्त्वं सातिरेक, पुरुषादिकालस्यैतावत एव सम्भवान् , तथा चात्र सङ्ग्रहणिगाथा-"इस्थिनपुंसा संचि दीप अनुक्रम [६७] ARArt 5 ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५९] श्रीजीचा- हणेमु पुरिसंतरे य समओ उ । पुरिसनपुंसा संचिट्ठणंतरे सागर पुहत्तं ॥ ५॥" अश्या अक्षरगमनिका-संचिहणा नाम सानत्यनाव- प्रतिपत्ती जीवाभि खान, तत्र स्त्रिया नपुंसकस्य च सातलोनावस्थाने पुरुपान्तरे च जघन्यत एकः समयः तथा यथा प्रागभिहितम्-'इत्थीए णं भरे नसकये. मलयगि-15 इत्थीप्ति कालतो कियशिरं होइ?, गोयमा ! एगेगं आदेसेणं जहर एगं समय" इत्यादि नधा-नपुंसगे णं भंते ! नपुंसगत्ति कालसोदस्थिरीयावृत्तिःश कियचिरं होइ?, गोयमा ! जहरू समुछ समय" इत्यादि, तथा-पुरिसस्स भंते . अंतरं कालतो किथचिरं होइ?, गोयमा ! जह-है। त्यन्तरादि मेणं एवं समय" इत्यादि । तथा पुरुषस्य नपुंसकस्य यथाक्रमं संचिट्टणा-सातत्येनावस्थानमन्तरं चोत्कर्षत: सागरपृथक्वं' पदैक॥७८ ॥x शे पदसमुदायोपचारान सागरोपमशतपृथक्त्वं, तथा च प्रागभिहितम्-पुरिसे गं भंते ! पुरिसेति फालतो कियचिरं होइ', गौ-16 यमा जहन्नेणं अंतोमुटु नकोसेणं सागरोवमसयपुर सातिरेग" नपुंसकान्तरोत्कर्षप्रतिपादकं चेदमेवाधिकृत तत्सूत्रमिति । तथा सामान्यतो नैरमिकनपुंसकरूपान्तरं 'जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, सप्तमनरकपृथिव्या उद्भुत्य तन्दुलमत्स्यादिभवेप्यन्तर्मुहू ने स्थित्या भूयः सत्रम-17 नरकपुथिवीगमनस्य श्रवणान् , उत्कर्पतो बनस्पतिकालः, नरकभवादुदत्य पारम्पर्येण निगोदेपु मध्ये गत्वाऽनन्तं कालमवस्थानात एवं विशेषचिन्तायां प्रतिपूथिव्यपि बचल्यं । तथा सामान्यचिन्तायां तियन्योनिकनपुंसकस्यान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूमुकर्पतः मागरोपमशतपृथकत्वं, सातिरेकत्वभावना प्रागिव, विशेषचिन्तायां सामान्यत एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्यान्तरमन्तर्मुहुर्त ताबता द्वीन्द्रियायिकालेन व्यवधानान् , उत्कर्षतो वे सागरोपमसहने, सलववर्षाणि प्रसकायस्थितिकालस्य एकेन्द्रियत्वव्यवधायकखोत्कर्पतोऽयेतायत एव सम्भवान् । पृथिवीकायिकै केन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जयन्यतोऽन्तर्मुह मुस्कर्षतो बनस्पतिकालः । एत्र- ७ ॥ मकायिकतेज:कायिकवायुकाविकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकानामपि वक्तव्यं । वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्य दीप अनुक्रम -- - [६७] ***अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमाकने एका स्खलना दृश्यते-सू०५९ स्थाने सू०६० इति मुद्रितं ~159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५९] तोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽसहयेयं कालं यावत् । स चासयेयः कालोऽसयेया उत्सर्पिण्यवसपिण्य: कालतः, क्षेत्रतोऽसङ्ख्येया' लोकाः, किमुक्तं भवति ?-असह्यपेयलोकाकाशप्रदेशानां प्रतिसमयमेकैकापहारे यावत्य उत्सपिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इत्यर्थः, वनस्पतिभवात्प्रच्युतस्यान्यत्रोत्कर्षत एतावन्तं कालमवस्थानसम्भवात् , तदनन्तरं संसारिणो नियमेन भूयो वनस्पतिकायिकखेनोत्पादभावात् । हीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकानां जलचरस्थलचरखचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकानां सामान्यतो मनुध्यनपुंसकस्य च जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चानन्त: कालो वनस्पतिकालो यथोक्तस्वरूपः प्रतिपत्तव्यः, कर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्यान्तरं क्षेत्र प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमुत्कर्पतो वनस्पतिकालः, धर्माचरणं प्रतीला जघन्यत एकं समय यावत् , लब्धिपातस्य सर्बजघन्यस्यैकसामयिकत्वात् , उत्कर्पतोऽनन्तं कालं, तमेवानन्तं कालं निर्धारवति-अर्णताओ उस्सप्पिणीओसपिणीओ कालओ, खेतो अर्णता लोगा अबई पुग्गलपरियट्ट देसूर्ण"मिति, एवं भरतैरावतपूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकानामपि क्षेत्रं धर्मचरणं च प्रतीत्य जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरं प्रत्येकं वक्तव्यम् । अकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, एतावता गत्यन्तरादिकालेन व्यवधानभावान् , उत्कर्षतो बनस्पतिकालः, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तचैव-कोऽपि कर्मभूमकमनुष्यनपुंसकः केनाप्यकर्मभूमौ संहतः, स च मागधपुरुषदृष्टान्तबलादकर्मभूमक इति व्यपदिश्यते, ततः कियरकालानन्तरं स्थाविधबुद्धिपरावर्तनभावतो भूयोऽपि कर्मभूमौ संहतः, तत्र चान्तर्मुहू धृत्वा पुनरप्यकर्मभूमावानीतः, उत्कर्षतो वनस्पत्तिकालः । एवं विशेषचिन्तायां हैमवतहरण्यवतह रिवर्षरम्यकदेवकुरुत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकानामन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसकस्य | च जन्म संहरणं च प्रतीत्य जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यम् । तदेवमुक्तमन्तरमधुनाउरूपबहुवमाह दीप अनुक्रम [६७]] *-*-*-*-५ जी०च०१४ ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ..................- मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: CHA श्रीजीवाजीवाभि मलयगिगेयावृत्तिः प्रतिपनी नपुंसकानामलग प्रत A सूत्रांक बहुवं [६०] एनेमि भंते : पोरहयणपुंसकाणं तिरिक्वजोणियनपुंसकाणं मणुस्सणपुंसकाण य कयरे कयरेहिन्तो जाब विमेमाहिया वा?, गोयमा! सवथोवा मणुस्मणपुंसका नेरइयनपुंसगा असंखेजगुणा तिरिकबजोणियणपुंसका अर्णनगुणा ।। एतेमिण भंते ! रयणप्पहापुढविणेरइयणपुंसकाणं जाव अहेमत्तमपुढविणेरइयणपुंसकाण य कयरे २ हिंतो जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वन्योवा अहेमत्तमपुढविनेरइयणपुंसका पुरविणेरड्यणपुंसका असंग्वेजगुणा जाव दोचपुढविणेरड्यगपुंसका असंवेनगुणा इमीसे रयणप्पभाग पुढवीए णेरइयणपुंसका असंग्वेजगुणा ॥ एतेसिणं भंते ! तिरिक्वजोणियणपुंसकाणं पगिदियतिरिक्वजोणियणपुंसकाणं पुढविकाइय जाव वणस्मनिकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं येइंदियतेइंदियचउरिदियपंचेंदियतिरिक्वजोणियणपुंसकाणे जलयराणं चलयराणं बहयराण य कतरेशहिन्तो जाव विसेसाहिया चा?. गोयमा! सम्बधोवा खहयरतिरिकावजोणियणपुंसका, थलयरतिरिक्वजोणियनपुंसका संग्वेज. जलयरतिरिक्वजोणियनपुंसका संग्वेज चतुरिंदियतिरि० विसेसाहिया लेइंद्रियति० बिसेसाहिया बेइंदियति. विसेसातेउकाहयएगिदियतिरिक्वा असंखेजगुणा पुढविकाइयएगिदियतिरिक्वजोणिया विसेसाहिया, एवं आउवाउवणस्सतिकाइयएगिदियतिरिक्वजोणियणपुंसका अणंतगुणा ।। एनेसि णं भंते ! मणुस्सणघुसकाणं कम्मभूमिणपुंसकाणं अकम्मभूमिणपुंसकाणं अंत दीप अनुक्रम [६८] ॥७९॥ % 2- % 20- ...अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमाकने एका स्खलना दृश्यते-सू० ५९ स्थाने सू० ६० इति मुद्रितं ~ 161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६०] रदीवकाण य कतरे कयरहितो अप्पा वा ४१, गोयमा! सम्वत्थोवा अंतरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगा दोवि संग्वेजगुणा एवं जाच पुण्यविदेह अवरविदेहकम्म० दोवि संखेजगुणा ।। एतेसि णं भंते ! णेरड्यणपुसकाणं रयणप्पभापुढविनेरहयनपुंसकाणं जाव अधेसत्तमापुढविणेरइयणपुंसकाणं तिरिक्व जोणियणपुंसकाणं पगिद्रियनिरिक्खजोणियाणं पुढविकाइयएगिंदियतिरिक्वजोणियणपुंसकाणं जाव वणस्सतिकाइय० बेइंदियतेईदियचतुरिंदियपंचिंदियतिरिक्वजोणियणपुंसकाणं जलयराणं थलयराणं बहयराणं मणुस्सणपुंसकाणं कम्मभूमिकाणं अकम्मभूमिकाणं अंतरदीवकाण य कतरे २ हिंतो अप्पा ४, गोयमा! सब्वन्थोवा अधेसत्तमपुढविणेरइयणपुंसका छट्टपुढविनेरइयनपुंसका असंग्वेज. जाव दोचपुढविणेरक्ष्यणपुं० असंग्वे० अंतरदीवगमणुस्सणपुंसका असंग्वेजगुणा, देवकुमउत्तरकुरूअकम्मभूमिक० दोवि संग्वेजगुणा जाव पुब्बविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका दोबि मंग्वेजगुणा, रयणप्पभापुढविणेरइयणपुंसका असंग्वे० बहयरपंचेंदियतिरिक्वजोणियनपुंसका असं घलयर० संग्विज जलयर संग्विजगुणा चतुरिंदियतिरिक्वजोणिय. विसेसाहिया तेइंदिया बिसे बेइंदिय० विसे० तेउकाइयएगिदिय० असं० पुढविकाइयएगिदिया विसेसाहिया दीप अनुक्रम [६८] ~ 162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत IRAN सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [६८] श्रीजीवा- आउकाइय. विसे. वाचकाइय. विसेसा० वणस्सइकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसका प्रतिपत्ती जीवाभि० अणंतगुणा ।। (सू०६०) मलयगि-1 नपुंसका'एएसि ण'मित्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका मनुष्यनपुंसकाः, श्रेण्यसहवेयभागवत्तिप्रदेशराशिप्रमाणखात् | नामल्पतेभ्योऽपि नैरयिकनपुंसका अस वेयगुणाः, अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशी तद्गतप्रथमवर्गमूले द्वितीयवर्गमूलेन गुणिते थावान् प्रदेशराशि- वहत्वं ॥८॥ वति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीषु श्रेणिपु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणवात्तेपा, तेभ्यस्तिर्यग्योनिकनपुंसका ०६० अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तत्वान् ॥ सम्प्रति नैरयिकनपुंसकविषयमल्पबहुलमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका अधःसप्तमपृथिवीनैरबिकनपुंसकाः, अभ्यन्तरण्यसाधेयभागवत्तिनमःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि पाठपृथिवीनैरयिकनपुंसका असयगुणाः, तेभ्योऽपि पञ्चमपृथ्वीनैरबिकनपुंसका असपेयगुणाः, तेभ्योऽपि चतुर्थपुथिवीनैरयिकनपुंसका असहयगुणाः, ते-|| हाभ्योऽपि तृतीयपृथिवीनैरयिकनपुंसका असहयगुणाः, तेभ्योऽपि द्वितीयपृथिवीनरविकनपुंसका असहयगुणाः, सर्वेषामध्येतेषां पूर्व-1 पूर्वनैरयिकपरिमाणहेतुण्यसपेयभागापेक्षयाऽसहयेयगुणासङ्खयेयगुणश्रेण्यसहयभागवर्तिनमःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , द्वितीयपृधिवी-IN नैरविकनपुंसकेभ्योऽस्यां रत्नप्रभायो पृथिव्यां नैरयिकनपुंसका असोयगुणाः, अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशौ तद्गतप्रथमवर्गमूले द्वितीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोफस्कप्रादेशिकीपु श्रेणिपु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् , प्रतिपृथिवि च पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनो नैरयिका: सर्वस्तोकाः, तेभ्यो दक्षिणदिग्भाविनोऽसोयगुणाः, पूर्वपूर्वपृथिवीगतदक्षिणदि V ॥८० हाभाविभ्योऽप्युत्तरस्यामुत्तरस्यां पृथिव्यामसोयगुणाः पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनः, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायाम्-"दिसाणुवाएणं सव्व ~ 163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ..................- मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६०] थोवा अहेसत्तमपुढविनेरइया पुरथिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणोहितो अहेसत्तमपुढविनेरइएहितो छहाए तमाए पुढवीए नेरइया पुरस्थिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणिहितो तमापुढविनेरइएहितो पंचमाए पुढवीए नेरइया पुरस्थिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं असंखेनगुणा । दाहिणिल्लेहिंतो धूमप्पभापुढविनेरइएहितो चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरस्थिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणिलहितो पंकप्पभापुढविनेरइएहितो तइयाए वालुयप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरथिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा,दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणिलेहितो बालुवप्पभापुढविनेरइएहिंतो दुइयाए सकरप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरथिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणिल्लेहिंतो सकरप्पभापुढवीनेरइएहिंतो इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरथिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा"। सम्प्रति तिर्यग्योनिकनपुंसकविषयमल्पबहुखमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोकाः खचरपश्चेन्द्रियतियग्योनिकनपुंसकाः, प्रतरासोयभागव_सोयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणखान्, तेभ्यः स्थलचरतिर्यग्योनिकनपुंसकाः समावेयगुणाः, वृहत्तरप्रतरासयेयभागवय॑सोयश्रेणिगतनभ:प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि जलचरतिर्यग्बोनिकनपुंसकाः सहयेय गुणाः, बृहत्तमप्रतरासयेयभागवर्त्यसोयरेणिगताकाशप्रदेशराशिमानत्वात् , तेभ्योऽपि चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषादधिकाः, असोययोजनकोटीकोटीनमाणाकाशप्रदेशराशिप्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिपु यावन्तो नभःप्रदेशा स्तावत्प्रमाणखान , तेभ्यसीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततरणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततमश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिमानत्वात् , तेभ्यस्तेजस्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अस दीप R अनुक्रम [६८] ~164~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [२], ------------------------- उद्देशक: [-], --------------------- मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६०] श्रीजीवा- यगुणाः, सूक्ष्मवादरभेदभिन्नानां तेषामसाहबलोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वात् , तेभ्यः पृथिवीकायिकैकेन्द्रियनिर्यग्योनिकनपुंसका प्रतिपनी जीवाभि विशेषाधिकाः, प्रभूतासभेवलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽ कायिकैकेन्द्रियनिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासये- नपुंमकामलयगि- यलोकाकाशप्रदेशमानत्वान् , तेभ्योऽपि वायुकाबिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूलतमासपेयलोकाकाशपदेशराशि- नामल्पयावृत्तिः प्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणा:, अनन्तलो काकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ।। अधुना || बहुस्वं मनुष्य नपुंसकविषयमल्पबहुलमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका अन्तरद्वीपजमनुष्यनपुंसकाः, एते च संमूर्छनजा द्रष्टव्या:, सू०६० ॥८१॥ गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुप्यनपुंसकानां तत्रासम्भवान् , संहतास्तु कर्मभूमिजास्तत्र भवेयुरपि, तेभ्यो देवकुरुत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुं-IN सका: सोयगुणाः, तद्न्तगर्भजमनुष्याणामन्तरद्वीपजगर्भजमनुष्येभ्यः सल्ले यगुणत्वान , गर्भजमनुष्योचाराद्याश्रयेण च संमूK छिममनुष्याणामुत्पादान, स्वस्थाने तु दयेऽपि परम्परं तुल्याः, एवं तेभ्यो हरिवर्षरम्यकपर्षाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका सहापे-11 *यगुणाः स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः तेभ्योऽपि हैमवतहरण्यवतवर्षाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः सङ्ग्येयगुणाः, स्वस्थाने तु, येऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरतैरावतवर्षकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका: सङ्ग्ये यगुणाः, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्यः | पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः सायगुणाः, स्वस्थाने तु येऽपि परस्परं तुल्याः, युक्ति: सर्वत्रापि तथैवानुस-12 नव्या ।। सम्प्रति नैरयिकतिर्यग्मनुप्यविषयमरूपबहुत्वमाह-एएसिणं भंते!' इत्यादि, सर्वस्तोका अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकनपुं सकाः, तेभ्यः पप्ठपञ्चमचतुर्थतृतीयद्वितीयपुथिवीनरविकनपुंसका यथोत्तरमसळयेयगुणाः, द्वितीयपुथिवीनैरयिकनपुंसकेभ्योऽन्तरद्वी-||४|| लापजमनुष्यनपुंसका असोयगुणाः, एतद्सययगुणत्वं संमूर्छनजमनुष्यापेक्षं, तेषां नपुंसकत्वादेतावतां च तत्र संमूर्छनसम्भवान् , दीप अनुक्रम [६८] । x ॥८१ SACCES ~165~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ..................- मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: AS++ प्रत + सूत्रांक [६०] || तेभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका। भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः पूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका यथोत्तरं सोयगुणाः, स्वस्थानचिन्तायां तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकेभ्यो ऽस्यां प्रत्यक्षत उपलभ्यमानायां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकनपुंसका असङ्खवेयगुणाः, तेभ्यः खचरपवेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असहयेयगुणाः, तेभ्यः स्खलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं सहयगुणाः, जलचरपञ्चेन्द्रियनपुंसकेभ्यश्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रियतिर्यग् योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकेभ्यस्तेजस्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असोयगुणाः, तेभ्यः पृथिव्यम्बुवायुतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, वाग्वेकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसके यो वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियसियंग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः, युक्तिः सर्वत्रापि पागुक्तानुसारेण स्वयं भावनीया ।। सम्प्रति नपुंसकवेदकर्मणो बन्धस्थिति नपुंसकवेदस्य प्रकारं चाह णपुंसकवेदस्स णं भंते! कम्मस्स केवइयं कालं बंधठिई पन्नत्ता?, गोयमा! जह० सागरोयमस्स दोन्नि संतभागा पलिओचमस्स असंखेजतिभागेण ऊणगा उको० वीसं सागरोचमकोडाको डीओ, दोपिण य वाससहस्साई अबाधा, अबाहणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो। णपुंसकवेदे णं भंते ! किंपगारे पण्णत्ते, गोयमा! महाणगरदाहसमाणे पण्णत्ते समणाउसो!, से तं णपुंसका ॥ (सू०६१) 'नपुंसकवेयस्स णं भंते कम्मरस' इत्यादि, प्राग्वद्भावनीयं, नवरं महानगरदाहसमानमिति सर्वावस्थासु सर्वप्रकारं, मदनदाह(:समान) दीप + अनुक्रम [६८] ~166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ...................- मूलं [६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१] श्रीजीवा- इत्यर्थः ॥ सम्प्रत्यष्टावल्पबहुत्वानि वक्तव्यानि, तद्यथा-प्रथमं सामान्येन तिर्यक्लीपुरुषनपुंसकप्रतियद्धम् , एवमेव मनुष्यप्रतिबद्धं जीवाभि018|| द्वितीय, देवखीपुरुषनारकनपुंसकप्रतिबद्धं तृतीयं, सकलसम्मिश्रं चतुर्थ, जलचर्यादिविभागत: पञ्चमं, कर्मभूमिजादिमनुष्यख्यादि- मलयगि- विभागतः षष्ठं, भवनवास्यादिदेण्यादिविभागतः सप्तम, जलचर्यादिविजातीयव्यक्तिव्यापकमष्टमं, तत्र प्रथममभिधित्सुराहरीयावृत्तिः एतेसि णं भंते ! इस्थीणं पुरिसाणं नपुंसकाण य कतरेरहितो अप्पा वा ४?, गोयमा! सब्ब॥८२॥ स्थोवा पुरिसा इत्थीओ संखि०णपुंसका अणंत। एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणिहत्थीणं तिरिक्खजोणियपरिसाणं तिरिक्खजोणियणपुंसकाण य कयरे २ हिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा! सब्वस्थोवा तिरिक्खजोणियपुरिसा तिरिक्खजोणिइत्थीओ असंखे० तिरिक्वजो० णपुंसगा अणंतगुणा । एतेसिणं भंते ! मणुस्सित्थीणं मणुस्सपुरिसाणं मणुस्सणपुंसकाण य कयरे रहिन्तो अप्पा वा ४१, गोयमा! सव्व० मणुस्सपुरिसा मणुस्सित्थीओ संखे० मणुस्सणपुंसका असंखेजगुणा ॥ एतेसिणं भंते ! देवित्थीणं देवपुरिसाणं णेरइयणपुंसकाण य कयरे २ हिंतो अप्पा वा ४?, गोयमा! सब्वत्थोवा रायणपुंसका देवपुरिसा असं० देविस्थीओ संखेनगुणाओ ।। एतेसिणं भंते! तिरिक्खजोणिस्थीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजो णपुंसकाणं मणुस्सित्थीणं मणुस्सपुरिसाणं मणुस्सनपुंसकाणं देवित्थीणं देवपुरिसाणं णेरइयणपुंसकाण य कतरे २ हिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा! सव्वत्थोवा मणुस्सपुरिसा मणुस्सित्थीओ संखे० मणुस्सणपुंसका असं०रहयणपुंसका असं०तिरि २ प्रतिपत्ती नपुंसके बन्धस्थितिः प्रकारश्च सू०६१ वेदानामल्पबहुत्वं ROCESS दीप SOCTOR अनुक्रम सू०६२ [६९] स्त्री-पुरुष-नपुंसकानाम् अल्प-बहुत्वम् ~167~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ..............................- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६२] क्वजोणियपुरिसा असं तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज देवपुरिसा असं० देविस्थियाओ संखि० तिरिक्खजोणियणपुंसका अर्णतगुणा ॥ एतेसिणं भंते!तिरिक्खजोणित्थीणं जलयरीण थलयरीणं खहयरीणं तिरिक्वजोणियपुरिसाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं तिरिक्खजो० णपुंसकाणं एगिदियतिरिक्वजोणियणपुंसकाणं पुढविकाइयएगिंदियतिरिक्खजो णपुंसकाणं जाव वणस्सतिकाइय० बेइंदियतिरिक्खजोणिणपुंसकाणं तेइंदिय० चउरिंदिय० पंचेंदियतिरिक्वजोणियणपुंसकाणं जलयराणं थलयराणं खयराणं कतरे २ हिंतोजाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सब्बत्थोवा ग्वहयरतिरिक्वजोणियपुरिसा खयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संग्वेज० थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियपुरिसा संवेधलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणित्थियाओ संग्वे० जलयरतिरिक्वजो पुरिसा संखि० जलयरतिरिकग्वजोणित्धीयाओ संखेजगुरु बहयरपंचिंदियतिरिक्वजो० णपुंसका असंखे० घलयरपंचिंदियतिरिक्वजोणि नपुंसगा संखि० जलयरपंचंदियतिरिक्ग्यजोणियनपुंसका संखे० चरिंदियसिरि० विसेसाहिया तेइंदियणपुंसका विसेसाहिया बेइंदियनपुंसका विसेसा० तेउकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसका असं० पुढवि० णपुंसका विसेसाहिया आउ०विसेसाहिया वाउ० विसेसावणप्फति एगिन्दियणपुंसका अर्णतगुणा ॥ एतेसिणं भंते! मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवियाणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमकाणं SAXXX दीप अनुक्रम [७०] 4-30-36 ~168~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [ ७०] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरोयावृत्तिः ॥ ८३ ॥ अम्मभूमकाणं अंतरदीवकाणं मणुस्सणपुंसकाणं कम्मभूमाणं अम्म० अंतरदीविकाण य कयरे २ हिन्तो अप्पा वा ४१, गोयमा ! अंतरदीयगा नगुस्मित्थियाओ मणुस्सपुरिसा[ण] य एते णं नितुल्ला सवत्थोवा देवकुरुउत्तरकुरु अकस्मभूमगमनुस्सिन्थियाओ मणुस्सपुरिसा एते णं दोन्निवि तुला संवे० हरिवासरम्मवास अकम्मभूमकमणुस्सित्त्रियाउ मणुस्सपुरिसा य एते[सि] णं दोनतुल्ला संखे हेमवत हे रण्णवत अकस्मभूमकमणुस्सिन्थियाओ मणुस्मपुरिसा [ण] य दोषि तुला सं० भररवतकम्मभूमगमगुस्स पुरिसा दोषि संखे० भररवतकम्ममस्सित्थियाओ दोषि संवे० । पुत्र्वविदेह अवरविदेह कम्म भूमगमगुस्स पुरिता दोषि संग्वे० पुत्र्वविदेह अवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दोषि संखे० । अंतरदीवगमणुस्तापुंसका असं० देवकुरुउत्तरकुरुकम्म भूकमणुस्सणपुंसका दोषि संग्वेजगुणा [ए] नहेब जाव पुण्यविदेहकम्मभूमकमनुस्सापुंसका दोषि संखेजगुणा ॥ एतासि णं भंते! देवित्धीणं भवणवासीणीणं वाणमन्तरीणीणं जोइसिणीणं वैमाणिणीणं देवपुरिमाणं भवणवासिणं जाव वैमाणियाणं सोधम्मकाणं जाव गेवेजकाणं अणुत्तरोववातियाणं गैरइयणपुंसकाणं रणप्पभापुढविणेरइयणपुंसगाणं जाब अहेमढविनेर कतरे २ हिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा ! सवत्थोवा अणुत्तरोववातियदेपुरिसा उवरिमवेज्जदेवपुरिसा संखेजगुणा तं चेव जाव आणते कप्पे देवपुरिमा संखेजगुणा, For Pr&Personal Use Only ~169~ * है मैं % % %* २ प्रतिपत्ती नपुंसके वन्ध स्थितिः प्रकारच ४. सू० ६१ 2 वेदानामपत्रहत्वं सू० ३२ ॥ ८३ ॥ way Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: --- प्रत - सूत्रांक -- [६२] -- अहेसत्तमाए पुढवीए णेरइयणपुंसका असंखेजगुणा, छट्ठीए पुढवीए नेरइय० असंग्वेज़गुणा म. हस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा महामुक्के कप्पे देवा असंग्वेजगुणा पंचमाए पदवीए नेरइयणपुंसका असंग्वेजगुणा लंतए कप्पे देवा असंग्वेजगुणा चउत्थीए पुढवीए नेरया अमंग्वेज़गुणा बंभलोए कप्पे देवपुरिसा असंखेनगुणा तयाग पुढवीए नेरइय० असंखेजगुणा माहिं कप्पे देवयुरिसा असंखेजगुणा सणंकमारकाप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा दोचाए पुढवीए नेइया अमंग्वे. जगुणा, इसाणे कप्पे देवपुरिसा असंग्वेज्ञागुणा ईसाणे कप्पे देविधियाओ संग्वेजगुणाओ, मोधम्म कप टेवपरिमा संखेज लोधम्म कापे देविस्थियाओ संग्वे० भवगवासिदेवपुरिमा असंग्वेजगुणा भवणवासिदेविस्थिवाजो सम्वेनगुणाओ इजीरो स्थणातभापुरवीए रहया असंखेशा गुणा पाणमंतरदेवपुरिमा असंलगुणा वाणभनरदेविस्थियाओ मंग्वेनगुणाशो जोनिपिण्यपुरिमा संग्वेजगुणा जोतिसियदेवित्थियाओ मवेश गुणा । नासि गाने ! निरिकमजोणितीय शाल परीर्ण थलयरीणं यहयरीणं निरियजोणियपुरिमाणं जलपराणं परदा एयराण निरिकनजोणियणपुंसकाण पगिदियतिरिक्वजोणियापुनकाण पुराणिकाइयतिदिपछि जोपासका आमाश्यरगिदिय जोलापुंसकाणं जात नगर निकाय निनियनि- जोसका पेइंतिपनि जोपाध्मकाणं लेइंदिपनि जोगापुंसकाणं वरिंद्रियनिक तो नपुधका पोठियलिए - दीप - -502 - अनुक्रम - [७०) ---- - -5 -- Ch - Lamicaton.in ~170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % % प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगि रीयावृत्तिः सूत्रांक 0-50- [६२] २ प्रतिपत्तौ नपुंसके बन्धस्थितिः प्रकारश्च सू०६१ वेदानामल्पबहुत्वं सू०६३ 5 %ACADASHOCRACANCCC जो० णपुंसकाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाण अंतरदीवियाणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमियाणं अकम्म० अंतरदीवयाणं मणुस्सणपुंसकाणं कग्मभूमिकाणं अकम्मभूमिकाणं अंतरदीवकाणं देविस्थीर्ण भवणवासिणीणं वाणमंतरीणीण जोतिसिणीणं वेमाणिणीणं देव रिसाणं भवणवासिणीणं वाणमंतराणं जोतिसियाणं वेमाणियाणं सोधम्मकाणं जाब गवेजकाणं अणुसरोवधातियाण नेरइयणपुंसकाणं रयणप्पभापुरथिनेरइयनपुंसकाणं जाव अहेसत्तमपुढविणेरइयणपुंसका य कयर २ हिन्तो अप्पा वा ४१, गोयमा! अंतरदीवअकम्मभूमकमणुस्मित्थीओ मणुस्सपुरिसा य, एते णं दोवि तुल्ला सव्वस्थोवा, देवकुमउत्तरकुरूअकम्मभूमगमगुस्सइत्थीओ पुरिसा य एते णं दोवि तुल्ला संग्वे०एवं हरिवासरम्मगवास एवं हेमवतहेरपणथयभरहरवयकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दोचि संग्वेभरहेरवतकम्म० मणुस्सित्थी ओ दोवि संखे० पुब्वविदह अवरविदेहकम्मभूमकमणुस्सपुरिसादोवि संखे०, पुब्वविदेह अवरविहे. हकम्ममणुस्सित्थियाओ दोवि संखे० अणुत्तरोववातियदेवपुरिसा असंखेनगुणा उपरिमगेवेजा देवपुरिसा संखे०जाब आणते कप्पे देवपुरिसा संग्व० अधेसत्तमाए पुढचीए नेरइयणपुंसका असंखे०छट्ठीए पुढवीए नेरयनपुंसका असं० सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखे० महासुके कप्पे देव० असं० पंचमाए पुढवीए नेरइयनपुंसका असं० लंतए कप्पे देवपु० असं० चउत्थीए पुढवीए नेरइ. दीप 4-5% अनुक्रम [७०] ॥८४॥ ~ 171~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: [-], ---------------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 9-2 - 4 - 2 प्रत -- सूत्रांक [६२] यनपुंसका असं० बालोए कप्पे देवपुरिसा अमं० नचाए पुढवीए नेरइयण असं० माहिद कप्पे देवपु० असंखे० सणंकुमारे कप्पे देवपुरिसा असं० दोचाए पुढवीए नेरहयनपुंसका असं० अंनरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका असंग्वे० देवकुलउत्तरकुरुकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका दोवि संखे० एवं जाब विदहत्ति, ईसाणे कप्पे देवपुरिसा असं० ईसाणकप्पे देविस्थियाओ संग्वे सोधम्मे कप्पे देवपुरिसा संग्वे० सोहम्मे कप्पे देवित्थियाओ संग्वेज भवणवासिदेवपुरिसा असंखे० भवणवासिदेवित्थियाओ संखिजगुणाओ इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयणपुंसका असं० ग्वयरतिरिकखजोणियपुरिसा संग्वेजगुणा वहयरतिरिक्वजोणिस्थियाओ संग्वे० थलयरतिरिक्व जोणियपुरिसा संम्बे० थलयरतिरिक्वजोणिस्थियाओ संग्वे. जलयरतिरिक्वपुरिसा संग्वे. जलयरतिरिकापजोणित्थियाउ संग्वे०, वाणमंतरदेवपुरिसा संग्वे वाणमंतरदेविस्थियाओ संखे. जोतिसियदेवपुरिसा संखे. जोतिसियदेवित्थियाओ संग्वे० ग्वहयरपंचेदियतिरिक्वजोणियणपुंसा संग्वे० थलयरणपुंसका संखे० जलयरपापुंसका संखे० चतुरिंदियणपुंसका विसेसाहिया तेइंदिय० विसेसा बेइंदिय० बिसेसा० तेउकाइयएगिदियतिरिक्वजोणियणपुंसका असं पुढवी. विसेसा आऊ बिसेसा वाऊ. विसेसावणप्फतिकाइयएगिदियतिरिकवजो० णपुंसका अणंतगुणा ।। (सू० ६२) दीप अनुक्रम [७०] जी०१०१५ ~172~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ------------------------- उद्देशक: -1, ---------------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक स [६२] श्रीजीवा 'एयासि णं भंते ! तिरिक्खजोणियइत्थीणं' इत्यादि, सर्वस्तोकास्तिर्यक्पुरुषाः, तेभ्यस्तियस्त्रियः सोयगुणास्त्रिगुणत्वान् प्रतिपत्ती जावामिताभ्यस्तिर्यगनपुंसका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तानन्तस्यात् ।। सम्प्रति द्वितीयमल्पबहुत्वमाह-'एयासि णं भंते !' इत्यादि शास्त्रीपुन्न'मलबगि-1 सर्वसोका मनुष्यपुरुषाः सङ्ख्येयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्यो मनुष्यस्त्रियः सायेयगुणाः सप्तविंशतिगुणत्वान , ताभ्यो मनुष्यनपुंसका सकानारीयावृत्तिः समान असल्येयगुणाः श्रेण्यसायेयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणत्वान् ॥ सम्प्रति नृतीयमरूपबाहुलमाह-'एयासि णं भंते! देवित्धीण'मि न्यानि सर्वम्तोका नैरयिकनपुंसका अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराज्ञी स्वप्रथमवर्गमूलन गुणित यावान प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु गतिपु धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकी श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशातावत्यमाणलान, तेभ्यो देवपुरुपा असहयगुणा असहयययोज-18 सू० ६२ हानकोटीकोटीप्रमाणायां सूचौ यावन्तो नभःप्रदेशाताबरप्रमाणासु पनीकृतम्य लोकम्य एकप्रादेशिकीपु श्रेणिपु यावन्त आकाशप्रदे शास्तावत्प्रमाणवान , तेभ्यो देवत्रियः सञयगुणा द्वात्रिंशद्गुणवान ।। मम्प्रति सकलसन्मियं चतुर्थमल्पबहुत्वमाह-'एयासि ण'मित्यादि, सर्यम्तोका मनुष्यपुरुपालेभ्यो मनुष्यस्त्रियः सङ्घयेय गुणाः, ताभ्यो मनुष्यन[मका अमहवेयगुणाः, अत्र युक्तिः प्रागुक्ता, तेभ्यो| निरयिकनपुंसका असहयगुणा असहयोण्याकाशनदेशगशिप्रमाणत्वान, तेभ्यस्निग्योनिकपुरूषा असामवेयगुणाः प्रतरासोयभागवयमबेवश्रेणिगताकाशपदेशराशिप्रमाणत्वान् , तभ्यस्तियग्योनिकप्रियः मयेयगुणास्त्रिगुणत्वान , नाभ्यो देवपुरुपा: सङ्ख्येयगुणाः पभूनतर प्रलरासमयभागवयसरय श्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणखान , तेभ्यो देवयि यः सहयगुणा द्वात्रिंशगुणत्वात् , ताभ्वस्तिपाययोनिकनपुंसका अनन्तगुणा निगोदजीवानामनन्तानन्तलान् । सम्प्रति जलचर्या दि विभावनः परमपबहसमाह-'एयासि णं भंते !" ८५॥ इत्यादि. मनोकाः खचरपञ्चेन्द्रियनियंग्योनिकपुरूपाः, नेभ्यः खचरतियोनिकखियः सहयगुणात्रिगुणलान , ताभ्यः स्थल-11 दीप अनुक्रम [७०] ~173~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २. ..........................-- उद्देशक: -1, ..............................- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - - प्रत - सूत्रांक [६२] चिरतिर्यग्योनिकपुरपाः सद्ध्येयगुणाः, तेभ्यस्त स्त्रियः समवेयगुणात्रिगुणत्वात् , ताभ्यो जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः सोयगुणाः, तेभ्यो जलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियः सहयगुणाखिगुणत्वात् , ताभ्यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनसका असंख्येयगुणाः, तेभ्यः स्वलचरजलचरतिर्यग्योनिकनपुंसका यथाक्रमं सहयेयगुणाः, ततश्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रिया यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततस्तेजःकाबिकैकेन्द्रियतिर्थयोनिकनपुंसका असोयगुणाः, ततः पृथिव्यम्बुवायुकाविकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततो वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः ॥ सम्प्रति कर्मभूमिजादिमनुष्यख्यादिविभागतः षष्ठमल्पबहुत्वमाह-एयासि णं भंते।' इत्यादि, सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकमनुष्यस्त्रियोऽन्तरद्वीपक्रमनुष्यपुरुषाश्च, एते च द्येऽपि परस्परं तुल्या:, तत्रत्यस्त्रीपुंसानां युगलधर्मोपेतलात , तेभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकगनुष्य स्त्रियो मनुष्यपुरुषाश्च सोयगुणाः, युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता. स्वस्थाने | तु परस्परं तुल्याः , एवं हरिवर्षरम्यकपुरुषत्रियो हैमवतहरण्यवतमनुष्यपुरुषस्त्रियश्च यथोत्तरं सहयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं हैतुल्याः, ततो भरतैरावतकर्मभूमकमनुन्या द्वयेऽपि सोयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्य लियो योऽपि सोयगुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात् , स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, ताभ्यः पूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुरुषा येऽपि सोयगुणाः, स्वस्थाने परस्परं तुल्याः, तेभ्यः पूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियो व्योऽपि सहयगुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात् , स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसका असाध्येय गुणाः, श्रेण्यसहयभागगताकाशप्रदेशराशिप-14 माणत्वात् , तेभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका द्वयेऽपि सहयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, ततो हरिवपरम्यकहा वर्षाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका येऽपि सोयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका। दीप अनुक्रम [७०) ~ 174~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [७०] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [२], उद्देशक: [-], मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥ ८६ ॥ श्री जीवा-* द्वयेऽपि सङ्ख्यगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरतैरावतकर्मभूमकमनुध्यनपुंसका द्वयेऽपि सोयगुणाः स्वस्थाने तु जीवाभिः परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽपि पूर्वविदेहापरविदेहकर्म्मभूमकमनुष्य नपुंसका द्वयेऽपि सपेयगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुस्याः ॥ सम्प्रति मलयगि! भवनवास्यादिदेव्यादिविभागतः सप्तममस्पबहुत्वमाह एयासि णं भंते! देवित्थीणं भवणवासिणीण मित्यादि, सर्वस्तोका अनुरीयावृत्तिः । * त्तरोपपातिका देवपुरुषाः, तत उपरितनमैत्रेयकमध्यमत्रैवेयकाध स्तनयैवेयकाच्युतारण प्राणतानत कल्पदेवपुरुषा यथोत्तरं येयगुणाः, ततोऽयः सप्तमपठथिवीनैरयिकनपुंसकसहस्रार महाशुक कल्प देवपुरुपपश्चमपृथिवोनैर विकनपुंसकलान्तक कल्पदेवपुरुषचतुर्थ पृथिवीनैरयिकनपुंसक हा लोक कल्पदेवपुरुपतृतीय पृथिवीनैरबिक नपुंसक माहेन्द्र सनत्कुमार कल्पदेवपुरुपद्वितीयपृथिवी नैरविकनपुंसका यथोत्तरभसोयगुणाः, तत ईशानकल्पदेवपुरुषा अगुणाः तेभ्य ईशानकल्पदेवस्त्रियः सङ्ख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात्, ततः सौधर्मकल्पदेवपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि सौधर्म्मकल्पदेवखियः सोयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणवान्, तेभ्यो भवनवासिदेवपुरुषा असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यो भवनवासिदेव्यः सङ्ख्यगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात्, ताभ्यो रत्नप्रभायां पृथिव्यां तैरयिकनपुंसका असङ्ख्यगुणाः, तेभ्यो वानमन्तरदेवपुरुषा असल्यगुणाः, तेभ्यो वानमन्तरदेव्यः सङ्ख्यगुणाः ताभ्यो ज्योतिष्काः सवेयगुणाः, तेभ्यो ज्योतिष्कदेवखिय: संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् ॥ सम्प्रति विजातीयव्यक्ति व्यापक मष्ट ममपबहुत्वमाह - 'एवासि णं भंते!' इत्यादि, सर्वस्तोका अन्तरद्वीपका मनुष्यत्रियो मनुष्यपुरुषाश्च, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि तुल्याः, युगलधर्मोपेतत्वात् एवं देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकहरिवर्ष रम्यक वर्षा कर्मभूमक हैमवत हैरण्यवताकर्मभूमक मनुष्य स्त्रीपुरुषा यथोत्तरं सङ्ख्यगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽपिभरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यपुरुषा द्वयेऽपि सोयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरतैरायतकर्म्मभूमक मनुष्यत्रियो द्वय्योऽपि Far P&Personally ~ 175 ~ ३२ प्रतिपत्तौ स्त्रीपुन्नपुं सकाना मल्पबहुत्वं गतिषु * सू० ६२ ॥ ८६ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : २], .........-------------------- उद्देशक: -1, --------------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत सूत्रांक [६२] सोयगुणाः, खस्थाने तु परस्परं तुल्याः, ताभ्यः पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुरुषा दयेऽपि सधेयगुणाः, स्वस्थाने तु प-14 रस्परं तुल्याः, तेभ्यो पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियो द्वय्योऽपि सह्मवेयगुणाः, सतविंशतिगुणत्वान् , स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, हाताभ्योऽनुत्तरोपपातिकोपरितनदेयकमध्यमवेयकाधस्तनौवेयकाच्युतारणप्राणतानतकल्पदेवपुरुषा यथोत्तरं सपेय गुणाः, ततोऽध: सप्तमषष्ठपृथिवीनैरविक(न०) सहस्रारकल्पदेवपुरुषमहाशुक्रकल्पदेवपुरुषपञ्चमाथिवीनैरयिक(न०) लान्तककल्पदेवपुरुषचतुर्थपृथवी-14 नैरथिकनपुंसकमालोककल्पदेवपुरुपतृतीयपृथिवीनरथिकनपुंसकमाहेन्द्रकल्पसनकुमारकल्पदेवपुरुषद्वितीयथिवी नरयिकनपुंसकान्तरद्विीपकमनुष्यनपुंसका यथोत्तरमसहयगुणाः, ततो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकह रिवपरस्यकवर्षाकर्मभूमकहमवत्तहरण्यवताकर्मभूमक भरतैरावतकर्मभूमकपूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका यथोत्तर सहयेयगुणाः, स्वस्वस्थानेषु तु द्वये परस्परं तुल्याः , तत ईशानकल्पदेवपुरुषा असोयगुणाः, तत ईशानकल्पदेवस्त्रियः सौधर्मकल्पदेवपुरुषाः सौधर्मकल्पदेवस्थियो यथोत्तर सहयेयगुणाः, ततो भवनवासिदेवपुरुषा असलयेयगुणाः, तेभ्यो भवनवासिदेव स्त्रियः सोयगुणाः, तेभ्योऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकन|पुंसका असायगुणाः, ततः खचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः खचरतियग्योनिकवियः स्थलचरतियग्योनिकपुरुषाः स्थल परतिग्योनिक-| त्रियो जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषा जलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियो बानमन्तरा देवपुरुषा वानमन्तरदेव खियो ज्योतिष्कदेवपुरूपा ज्योतिष्कदेवस्त्रियो यथोत्तरं सहयगुणाः, ततः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असइयेयगुणाः, ततः खलपरजलचरपञ्चेन्द्रियतिबन्योनिकनपुंसकाः कमेण सहयेवगुणाः, ततश्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततस्तेज:काबिफैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असरे यगुणाः, ततः पृथिव्यवधायुकायिकत्तिग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततो बनस्पति दीप अनुक्रम [७०] ~ 176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : RI. ............................. उद्देशक: [-], ---- ---------------- मलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः २ प्रतिपत्ती वेदाना प्रत सूत्रांक स्थित्यादिः सू०६३ अल्पबहुत्व सू० ९४ [६२] श्रीजीवा-कायिकैकेन्द्रियतिषग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तस्यात् ।। सम्प्रति स्त्रीपुरुषनपुंसकानां भवस्थितिमान कायस्थि- जीवाभि० दतिमानं च क्रमेणाभिधातुकाम आहमलयगि इत्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! एगेणं आएसेणं जहा पुब्धि भणियं, एवं रीयावृत्तिः पुरिसस्सवि नपुंसकस्सवि, संचिट्ठणा पुनरवि तिण्हपि जहापुचि भणिया, अंतरंपि तिपहपि जहा पुचि भणियं तहा नेयव्वं ।। (सू०६३) 'इत्थीण भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?, इत्यादि, एतत्सर्व प्रागुक्तवद्भावनीयम् , अपुनरुक्तता च प्राक् रूयादीनां पृथक् खखाधिकारे स्थित्यादि प्रतिपादितमिदानीं तु समुदायेनेति ।। सम्प्रति स्त्री पुरुपनपुंसकानामल्पबहुलमाह-(एयासि पं भंते! इत्थीणं पुरिसाणं नपुंसकाण व कयरे कयरहितो अपा वा ४?, सम्बधोवा पुरिसा इत्थीओ संखेजगुणा नपुंसका अर्णतगुणा) 'एयासि णं भंते! इत्थीणमित्यादि, सर्वस्तोकाः पुरुषा: रुयादिभ्यो हीनसयाकत्वात् , तेभ्यः लियः सबवेयगुणाः, ताभ्यो नपुंसका अनन्तगुणा:, एकेन्द्रियाणामनन्तानन्नसङ्ख्योपेतत्वात् । इह पुरुपेभ्यः खियः सोयगुणा इत्युक्तं, तत्र का: स्त्रिय: खजातिपुरुषापेक्षया कतिगुणा इति प्रभावकाशमाशय तन्निरूपणार्थमाह तिरिक्वजोणित्थियाओ तिरिक्खजोणियपुरिमहितो तिगणाउ तिरूवाधियाओ मणुस्सिस्थियाओ मणुस्सपुरिसेहितो सत्तावीसतिगुणाओ सत्तावीसयरूवाहियाओ देवित्थियाओ देवपुरिसेहिंलो बत्तीसइगुणाओ यत्तीसहरूवाहियाओ सेत्तं तिविधा संसारसमावणगा जीवा पण्णत्ता KASS दीप अनुक्रम [७०] - ॥८७॥ - ~ 177~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [२], ---- --------------------------- उद्देशक: [-1, ---------------------- मूलं [६४] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४] ॥तिविहेसु होइ भेयो ठिई य संचिट्ठणंतरऽप्पबहुं । वेदाण य बंधठिई बेओ नह किंपगारो उ ॥१॥ से तं तिविहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता ॥ (सू०६४) 'तिरिक्खजोणिस्थीओ तिरिक्खजोणियपुरिसेहितो' इत्यादि, तिर्यग्योनिकत्रियस्तिर्यग्योनिकपुरुपेभ्यखिगुणात्रिरूपाधिका: मनुष्यखियो मनुष्यपुरुषेभ्यः सप्तविंशतिगुणाः सप्तविंशतिरूपाधिकाः, देवपुरुपेभ्यो देवरियो द्वात्रिंशद्गुणा द्वात्रिंशद्रपाधिकाः, उक्तं च* युद्धाचारपि-तिगुणा तिरूवअहिया तिरियाणं इस्थिया मुणेयवा । सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिया चेव ॥ १ ॥ वत्ती-|| सगुणा बत्तीसरूवाहिया र होति देवाणं । देवीभो पणत्ता जिरोहिं जियरागडोसेहिं ॥ २ ॥" प्रतिपयुपसंहारमाह-से तिबिहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता' इति ॥ सम्प्रत्यधिकृतप्रतिपत्त्यर्थाधिकारसमहगाथामाह-'तिविहेसु होइ भेओ द इत्यादि, त्रिविधेषु वेदेषु वक्तव्येषु भवति प्रथमोऽधिकारो भेदः ततः स्थितिः तदनन्तरं 'संचिटण ति सातत्येनावस्थानं तदनन्तरम न्तरं ततोऽल्पबहुत्वं ततो वेदानां बन्धस्थितिः तदनन्तरं किंधकारो बेद इति ।। गाथा दीप अनुक्रम [७२-७३] COCALSCRX इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाजीवाभिगमटीकायां द्वितीया प्रतिपत्तिः समामा ॥२॥ इति वेदत्रैविध्वनिरूपिका द्वितीया प्रतिपत्तिः ।। - +-- अत्र द्वितिया (त्रिविधा) प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता ~178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], --------------------- मूलं [६५-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः 4. प्रत सूत्रांक [૬-૬૮ CoadK प्रतिपत्ती चतुर्धा जीवाः सप्तधा नारकाः पृथ्वीनां नामगोत्र बाहल्यं च दीप अनुक्रम [७४-८० श्रीजीवाin तदेवमुक्ता द्वितीया प्रतिपत्तिः, सम्प्रति तृतीयप्रतिपत्त्ययसरः, तत्रेदमादिसूत्रम्जीवाभि तत्थ जे ते एवमासु च उबिधा संसारसमावण्णगा जीवा पपणत्ता ते एवमासु, तंजहा-नेमलयगि रझ्या तिरिक्वजोणिया मणुस्सा देवा ॥ (१०६५)।से किं तं नेरइया ?.२ सत्तविधा पण्णत्ता, रीयावृत्तिः तंजहा-पढमापुढविनेरइया दोचापुढविनेरड्या तयापुढविनेर० चउत्यापुढवीनेर० पंचमापु० ने11८८॥ रइ० छहापु० नेर० सत्तमापु० नरइया ।। (सू०६६)। पढमा णं भंते! पुढवी किनामा किंगोत्ता पपणत्ता?, गोयमा! णामेणं धम्मा गोत्तेणं रयणप्पभा । दोचा णं भंते । पुढची किनामा किंगोत्ता पपणता?, गोयमा! णामेणं वंसा गोत्तेणं सकरप्पभा, एवं एतेणं अभिलावेणं सव्वासिं पुच्छा, णामाणि इमाणि से लातब्वा(णि), (सेला तईया) अंजणा च उत्थी रिट्ठा पंचमी मघा छट्टी माघवती सत्तमा, (जाब) तमतमागोत्तणं पषणत्ता। (मू०६७) इमाण भत! रयणप्पभापुढवी केवतिया वाहल्लेणं पण्णत्ता?, गोथमा! इमाणं रयणप्पभापुढवी असिउत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ता, एवं एतेणं अभिलावणं इमा गाहा अणुगंतव्वा-आसीतं वत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च। अट्ठारस सोलसर्ग अट्टत्तरमेव हिहिमिया ।।१॥ (सू०६८) 'तत्थ जे ते एवमास चउब्विहा' इत्यादि, तत्र' तेषु दशसु प्रतिपत्तिमत्सु मध्ये येते आचार्या एवमाख्यातबन्तश्चतुर्विधाः || संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञप्तास्ते एवमाण्यातबन्तस्तद्यथा-नैरविकास्तिर्यग्योनिका मनुष्या देवाः ।। 'से कि तमित्यादि, अथ के से | अथ तृतिया (चतुर्विधा) प्रतिपत्ति: आरभ्यते तृतीय प्रतिपत्तौ "नैरयिक स्य प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: संसारिजीवानाम् चतुर्विधत्वं, सप्त-नरकपृथ्वि सम्बन्धी विविध-विषयाधिकारः ~ 179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [६५-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६५-६८] दीप अनुक्रम [७४-८० नरयिका:?, सूरिराह-नैरग्रिका: सप्तविधाः प्रज्ञयाः, यथा-प्रथमायां पृथिव्यां नैरपिकाः प्रथमाधिवीनरयिका इत्यर्थः, एवं सर्वत्र भावनीयम् । सम्प्रति प्रतिपृथिवि नामगोनं वक्तव्यं, तत्र नामगोत्रयोरयं विशेष:- अनायिकालसिद्धमन्वर्थरहितं नाम सान्वर्थ तु, नाम गोत्रमिति, नत्र नामगोत्रप्रतिपादनार्थमाह-'इमा ण (पढमा णं) भंते!' इत्यादि, इयं भदन्त ! रमप्रभापूथिवी किनामा 5किमनादिकालप्रसिद्धान्यधरहितनामा? किंगोत्रा?' किमन्वर्थयुक्तनामा ?, भगवानाह-मौतम! नाना धम्मेति प्रशता गोत्रेण रब-| प्रभा, तथा चाम्यर्थमुपदही यन्ति पूर्वसूरयः-रवानां प्रभा-बाहुल्य यन्न ला र दाप्रभा रनबहुलेति भावः, एवं शेपसूत्राण्यपि प्रतिपविवि प्रशनिर्वचनरूपाणि भावनीयानि, नवरं शर्कराप्रभादीनामियमन्वर्थभावना-सराणां प्रभा-बाहुल्यं यत्र सा शर्कराप्रभा, एवं वालुका प्रभा पक्कप्रभा इत्यपि आवनीयं, तथा धूमस्येव प्रभा यस्याः सा धूनप्रभा, तथा तमसः प्रभा-बाहुल्य यत्र सा नम:प्रभा, पवमस्त मस्य-प्रकृष्टवनसः प्रभा-बाहुल्यं यत्र सा तमरतमत्रभा, अत्र केपुचिरपुस्तकेपु सङ्ग्रहगिगाथे-धम्मा वंसा सेला अंजण रिहा मघा व मायक्ती । सत्ताई पुडवीणं एए नामा उ नायबा ॥ १ ॥ रयणा सकर पाय पंका धूना कमा [य] तमतमा य । सत्तण्हं पुटवीणं एक गोता मुगेयव्या ।। २॥" अधुना प्रविधिवि बाहुल्यमभिधित्सुराह-'इमाणं भंते !' इत्यादि, इयं भवन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी कियट्याहुल्येन प्रामा', अब गोत्रेण प्रश्नो नानो गोत्रं प्रधानतरं प्रधानेन च प्रागुपपन्नमिति न्यायप्रदर्शनार्थः, रक्तश्च | -न हीना बाक् सदा सता"मिति, अगवानाह-अशीत्युत्तरम्' अशीसियोजनसहनाभ्यधिकं योजनशतसहस्रं बाहुल्येन प्रज्ञता । ताएवं सर्वाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, अर सङ्ग्रणिगाथा-बासीयं बत्तीसं अट्ठावीसं च होइ बीसं च । अवारस सोलसर्ग अटो-11 पात्तरमेव हिदिमिया ॥ १॥" Myster ~180~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- इमाण भंते ! रयणप्पभापुढवी कतिविधा पण्णत्ता?, गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-वरकंडे प्रतिपत्तः जीवाभि पंकबहुले कंडे आवषहले कंडे । इमीसे णं भंते ! रय पुढ० खरकंडे कतिविधे पाणसे?, गोयमा! पृथ्वीका मलयगि सोलसविधे पण्णते, तंजहा-रयणकंडे १ बहरे २ वेलिए लोहितक्खे ४ मसारगल्ले ५ हंसगम्भे ६ |ण्डानि रीयावृत्तिः पुलए ७सोयंधिए ८ जोतिरसे ९ अंजणे १० अंजणपुलए ११ रयते १२ जातरूवे १३ अंके १४ फलिहे १५ रिहे १६ कंडे ॥ इमीमे णं भंते! रयणप्पभापुढवीए रयणकंडे कतिविधे पण्णते?, गोयमा! एगागारे पण्णते, एवं जाव रिद्धे । इमीसे भंते ! रयणप्पभापुढवीए पंकबहुले कंडे कतिविधे पपणते?, गोयमा! एकागारे पण्णत्ते । एवं आवबहले कंडे कतिविधे पण्णत्ते?, गोयमा! एकागारे पपणत्ते । सकरपभाग णं भंते! पुटवी कतिविधा पगत्ता?, गोयमा! एकागारा पपणत्ता, एवं जाव अहेसत्तमा ।। (म०६९) 'इमा णं भंते' इत्यादि इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पुथिवी 'कतिविधा' कतिगकारा कतिविभागा प्रज्ञाता?, भगवान्नाह-गौतम ! 'त्रिविधा त्रिविभागा प्रजाता, तयथा-खरकाण्ड'मित्यादि, काण्डं नाम विशिष्टो भूभागः, खरं-कठिनं, पङ्कबहुलं ततोऽबहुलं चान्व-IC सार्थतः प्रतिपत्तव्यं, क्रमश्चैतेपामेवमेव, तद्यथा-प्रथम खरकाण्डं तदनन्तरं पङ्कबहुलं ततोऽबहुलमिति ॥ 'इमीसे णं भंते' इत्यादि। अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां खरकाण्डं कतिविध प्रज्ञप्तं ?, भगयानाह--गौतम! 'पोडशविध' षोडशविभागं प्रज्ञानं, ताथा ॥८९ ॥ 1-'रयणे' इति, पदैकदेशे पदसगुदायोपचाराद् रनकाण्डं तब प्रथम, द्वितीयं वचकाण्डं, तृतीयं बैर्यकाण्डं, चतुर्थ लोहितकाण्ड, १6-0 [८१] Eramin A RTHDRyari ~ 181~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], ------------------- मूलं [६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९] दीप अनुक्रम पञ्चमं मसारगतकाण्ड, पाठं हंसगर्भकाटु, सप्तमं पुलक काण्डम् , अष्टमं सौगन्धिककाण्ड, नवम ज्योतीरसफाई, दशममजनका-14 ण्डम् , एकादशमञ्जनपुलककाण्ड, द्वादशं रजतकाण्इं, बयोदशं जातरूपकाण्डं, चतुर्दशमलकाण्ड, पञ्चदशं स्फटिककाण्डं पोडशं| रिष्टरमकाण्ड, तत्र रबानि-कतनादीनि तत्वधान काण्ड र मकाण्ड, बसरवप्रधानं काण्ड बत्रकाण्डम् . एवं शेपाण्यपि, एकैकं च | काण्ड योजनसहस्रबाहल्यम् ।। इमीसे णं भंते इत्यादि, अस्थां भदन्त ! रनमभायां प्रथिव्यां रनकाण्ड 'कतिविध कतिप्रकार | कतिविभागमिति भावः प्रज्ञतं ?. भगवानाह-एकाकारं प्रज्ञा । एवं शेषकाण्डविषयाण्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि क्रमेण भावनीयानि । एवं पक्षहुलायबलविषबाण्यपि । 'दोचा भंते इत्यादि. द्वितीयादिपृथिवीविपयाणि सूत्राणि पाठसिद्धानि ॥ सन्त्रति प्रतिथिवि भरकावाससम्याप्रतिपादनार्थमाह धमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुतवीए केवइया निरयावाससयसहस्सा पणता?, गोयमा! तीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णता. एवं गतेणं अभिलावेणं लब्धासिं पुण्छा, इमा गाहा अणुगं. तव्या-तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसंब तिषिण य हवंति। पंचूणसयसहस्सं पंचेच अणुत्तरा णरगा ॥१॥ जाव अहेसत्तमाए पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाणरगा पण्णत्ता, संजहाकाले महाकाले रोरुए महारोहए अपतिहाणे ॥ (म०७०) । अस्थि णं मंते ! इभीसे रयणप्पमाए पुतवीए अहे घणोदधीति वा घणवातति जा तणुवातेति धा ओरासंतरेति वा?, हंता अस्थि, एवं जाव अहे सत्तमाए॥ (सू०७१) [८१] ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७०-७१] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७०-७१] गाथा श्रीजीवा- 'इमीसे णं भंते' इत्यादि, सुगम, नवरनियमत्र सङ्ग्रहणिगाथा-'सीसा य पण्णवीसा पणरस दस चेव सयसहस्साई प्रतिपत्ती जीवाभितिण्णेगं पंचूर्ण पंचेच अणुत्तरा निरया ॥१॥" अधःसप्तम्यां च पृथिव्यां कालादयो महानरफा अप्रतिष्ठानाभिधस्य नरकस्य पू- निरयावा. मलयगि- दिक्रमेण, उक्तञ्च-"पुज्वेण होइ कालो अवरेणं अप्पइट महकालो । रोरू दाहिणपासे उत्तरपासे महारोरू ॥ १॥" रत्नप्रभादिपु ससंख्या रीयावृत्तिः च तम:प्रभापर्यन्तासु पसु पृथिवीपु प्रत्येक नरकावासा द्विविधाः, तद्यथा-आवलिकाप्रविष्टाः प्रकीर्णकरूपाच, तत्र रत्रप्रभायां पु पासू०७० थिव्यां त्रयोदश प्रस्तटाः, प्रस्तटा नाम पेश्मभूमिकाकल्पाः, तत्र प्रथमप्रस्तटे पूर्वादिषु चतस्पु दिक्षु प्रत्येकमे कोनपञ्चाशन् नरका- अधोपनी।६० वासाः, चतसृपु विदिक्षु प्रत्येकमष्टचत्वारिंशत, मध्ये च सीमन्तकाख्यो नरकेन्द्रकः, सर्वसङ्ख्यया प्रथमप्रस्तटे नरकावासानामावलि- दध्यादिः काप्रविष्टानामेकोननवाधिकानि त्रीणि शतानि ३८९, शेपेषु च बादशसु प्रस्तटेपु प्रत्येकं यथोत्तरं दिक्षु विविक्षु चैकैकनरकावासहानिभावाद् अष्टकाष्टकहीना नरकावासा द्रष्टव्याः, तत: सर्वसझपया रत्नप्रभायां पृथिव्यामावलिकाप्नविष्ठा नरकावासाश्चतुश्चलारिंशच्छ-18 तानि जयविंशदधिकानि ४४३३, शेपास्नेकोनत्रिशलक्षाणि पश्चनवतिसहस्राणि पश्च शतानि सप्रषषधिकानि २५५५५६७ प्रकी-1 काः, तथा चोक्तम्-सत्तही पंचसया पणनाइसहस्स लक्वगुणतीसं । रयणाए सेढिगया चोयालसया उ तित्तीसं ॥ १॥" जभयमीलने त्रिशल्लक्षा नरकावासानां भवन्ति ३०७०८७८ । शर्कराप्रभायामेकादश प्रस्तटाः, "नरकपट लान्यधोऽधो द्वन्द्वहीनानी"ति वचनात् , तत्र प्रथमे प्रतटे चतमपु दिक्षु पत्रिंशद् आवलिकाप्रविष्टा नरकावासाः, विदिक्षु पञ्चत्रिंशन्, मध्ये चैको नरकेन्द्रकः, सर्वसहपया द्वे शते पञ्चाशीत्यशिके २८५, शेषेषु तु दशासु प्रस्तटेषु प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽष्टकाष्ठकहानिः, प्रतिदिकूप्रतिविदिक्षु(च) 3॥९॥ एकैकनरकावासहानेः, ततस्तत्र सर्वसङ्ख्ययाऽऽवलिकाप्रविष्ठा नरकावासाः पविशतिशतानि पश्चनवत्यधिकानि २६९५, शेषाश्चतुर्विश 24 9 दीप अनुक्रम [८२-८५]] ~ 183~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---- ---------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], ----- ---------- मूलं [७०-७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः -- -- *- प्रत सूत्रांक [७०-७१]] गाथा तिलक्षाः सप्तनवतिः सहस्राणि श्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि २४९७३०५ पुष्पावकीर्णकाः, उक्तभ-सत्ताण उइ सहम्सा चउवीसं लक्ख तिसय पंचऽहिया । यीयाए सेढिगया छब्बीससया उ पणन उया ॥१॥" उभयमीलने पञ्चविंशतिर्लक्षा नरकावासानाम् | २५००००० । वालुकामभायां नव प्रस्तटाः, प्रथमे च प्रस्तटे एकैकस्यां दिशि आवदि काप्रविष्टा नरकाबासाः पञ्चविंशतिः विदिशि| चतुर्विशतिः मध्ये चैको नरकेन्द्रक इति सर्वसझया सप्तनवतं शतं १९७, शेपेषु चाष्टसु प्रस्तटेषु प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽष्टकहानिः, तत्र च कारणं प्रागेवोक्तं, ततः सर्वसङ्ख्यया तत्रावलिकाप्रविष्टा नरकाबासाश्चतुर्दश शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि १४८५, शेषास्तु पुष्पाव-IN कीर्णकाश्चतुर्दश लक्षा अष्टनवतिः सहस्राणि पश्च शतानि पञ्चदशाधिकानि १५९८५१५, उक्तश्च-"पंचसया पन्नास अडनवइसहस्स लक्ख चोदस य । तइयाए सेढिगया पणसीया चोइससया उ ॥ १॥” उभय मीलने पञ्चदश लक्षा नरकाबासानाम् १५००००० पङ्कप्रभायां सप्त प्रस्तटाः, प्रथमे च प्रस्तटे प्रत्येक विशि षोडश षोडश आवलिकाप्रविष्टा नरकाबासाः विदिशि पञ्चदश पञ्चदश मध्ये चैको नरकेन्द्रका सर्वसाषया पञ्चविंशतिशतं १२५, शेपेषु षट्सु प्रस्तटेषु पूर्ववत् प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽष्टकाष्टकहानिः, ततः सर्वसङ्ख्यया तत्रावलिकाप्रविष्टा नरकावासाः सप्त शतानि सप्तोत्तराणि ७०७, शेषास्तु पुष्पावकीर्णका नच लक्षा नवनवतिः सहस्राणि द्वे | शते विनवत्यधिके ९९९२९३, उक्तश्च-तेणउया दोणि सवा नवन उइसहस्स नव य लक्खा य । पंकाए सेढिगया सत्त सया हुँति सत्तहिया ॥१॥" उभयमीलने नरकाबासानां दश लक्षाः १२००००० । धूमप्रभायां पञ्च प्रस्तटाः, प्रथमे च प्रस्तटे एकैकस्यां | दिशि नव नव आवलिकाप्रविष्टा नरकावासाः, विदिशि अष्टौ अष्टौ मध्ये चैको नरकेन्द्रक इति सर्वसङ्ख्यया एकोनसप्ततिः ६९ शेषेषु चतुर्पु प्रस्तटेषु पूर्ववत्प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽष्ट काष्टकहानिः, ततः सर्वसङ्ख्या तत्रावलि काप्रविष्टा नरकाबासा द्वे शते पञ्चषा PM दीप अनुक्रम [८२-८५]] जी०१०१६ का ~ 184~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------------------------ उद्देशक: [(नैरयिक)-१], --------------------- मूलं [७०-७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७०-७१] प्रतिपत्ती उद्देशः १ काण्डाय न्तरं सू०७२ M गाथा श्रीजीवाधिक २६५, शेषाः पुष्पावकीर्णका द्वे लक्षे नवनवतिः सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चत्रिशदधिकानि २९९७३५, उक्तञ्च-"सत्तसया जीवाभि पणतीसा नवनवइ [य] सहस्स दो य लक्खा य । धूमाए सेढिगया पणसट्टा दो सया होति ।। १॥" सर्वसङ्ख्यया तिस्रो लक्षाः मलयगि- |३००००० नरकावासानाम् । तमःप्रभायां त्रयः प्रस्तटाः, तत्र प्रथमे प्रस्तटे प्रत्येकं दिशि चत्वारश्चत्वार आवलिकाप्रविष्टा नर- रीयावृत्तिः कावासा विदिशि त्रयस्खयो मध्ये चैको नरकेन्द्रक इति सर्बसाया एकोनविंशत् २९, शेषयोस्तु प्रस्तटयोः प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोड काष्टकहानिः, ततः सर्वसाझ्ययाऽऽवलिकाप्रविष्टा नरकावासास्त्रिषष्टिः ६३, शेषास्तु नवनवतिः सहस्राणि नव शतानि द्वात्रिंशदधि॥ ९१॥ कानि पुष्पावकीर्णकाः ९९९३२, उक्त च-"नवनउई व सहस्सा नव चेव सया हबंति बत्तीसा | पुढबीए छट्ठीए पइण्पागाणेस है संखेबो ॥ १॥" उभयमीलने पञ्चोनं नरकावासानां लक्षम् ९९९९५ ।। सम्प्रति प्रतिपृथिवि घनोदध्याद्यस्तित्वप्रतिपादनार्थमाह |-अस्थि णं भंते !' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! अस्याः प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाया रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधो धनः-स्त्यानीभूतोदक उदधिर्घनोदधिरिति वा पन:-पिण्डीभूतो बात: घनवात इति वा तनुवात इति वा अवकाशान्तरमिति वा ?, अवकाशान्तरं नाम शुद्धमाकाशं, भगवानाह-हन्त ! अस्ति, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वाच्यं यावद्धःसमस्याः ।। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे केवतियं थाहलेणं पण्णसे?, गोयमा! सोलस जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते ॥ इमीसे भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे केवतियं याहल्लेणं पन्नत्ते?, गोयमा! एक जोषणसहस्सं बाहल्लेणं पणत्ते, एवं जाव रिट्टे । इमीसे णं भंते! रय० पु० पंकबहुले कंडे केवतियं याहल्लेणं पन्नत्ते?, गोयमा! चतुरसीतिजोयपासहस्साई बाहल्लेणं प दीप अनुक्रम [८२-८५]] 5 %2 *% ~185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], ------------------- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] दीप अनुक्रम पणत्ते । इमीसे गं भंते! या पुरुआवषहले कंडे केवतियं याहल्लेणं पन्नत्ते?. गोयमा! असीतिजोयणसहस्साई वाहल्लेणं पन्नत्ते । इभीसे णं भंते! रयणप्पभाए पु० घणोदही केवतियं बाहलेणं पन्नत्ते?, गोयमा! वीसंजोयणसहस्साई वाहल्लेणं पण्णते। इमीसे णं भंते! रय० पु० घणवाए केवतियं चाहाल्लेणं पन्नते?, गोयमा! असंग्वेजाई जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णते, एवं तणुवातेवि ओवासंतरेऽवि । सक्करप्प० भंते ! पु० घणोदही केवतियं वाहल्लेणं पण्णत्ते?, गोयमा! बीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते । सकरप्प० पु० घणवाते केवइए बाहल्लेणं पण्णते?, गोयमा! असंखे०जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते, एवं तणुवातेवि, ओवासंतरेवि जहा सकरप्प० पु० एवं जाव अधसत्तमा ।। (सू०७२) 'इमीसे णं भंते !' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रवप्रभायाः पृथिव्याः सम्बन्धि यत्प्रथमं खरं-खराभिधानं काण्ड तत् कियद्वाहॐाल्येन प्राप्तम् !, भगवानाह-गौतम! षोडश योजनसहस्राणि ।। 'इमीसे ण'मित्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नं-16 रत्नाभिधानं काण्डं तत् कियद्वाहल्येन प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! एक योजनसहस्रं । एवं शेषाण्यपि काण्डानि वक्तव्यानि यावद् रिष्ठं-रिष्ठाभिधानं काण्डम् । एवं पदबहुलाबहुलकाण्डसूत्रे अपि व्याख्येये, पक्कबहुलं काण्डं चतुरशीतियोजनसहस्राणि बाहल्येन, अब्बहुलं काण्डमशीतियोजनसहस्राणि, सर्वसषया रसप्रभाया बाहल्यमशीतिसहस्राधिकं लक्षं, तस्या अधो घनोदधिः विंशतियोंजनसहस्राणि बाहल्येन, तस्याप्यधो धनवातोऽसद्धयेयानि योजनसहस्राणि वाहत्येन, तस्याप्यधोऽसाधेयानि योजनसहस्राणि [८६] ~186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -- ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्ती उद्देशः१ रत्नप्रभा काण्डादिद्रव्यस्व. [७२] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- तनुपातो पाइल्येन, तखात्यधोऽसयानि योजनसहस्राणि बाहत्येनावकाशान्तरम् । एवं शेषाणामपि पृथिवीनां घनोदण्यादयः प्रत्येक जीवाभिःतावद्वक्तव्या यावद्धःसप्तम्याः ॥ मलयगि इमीसेणं भंते! रयणप्प. पु. असीउत्तरजोयण(सय)सहस्सवाहल्लाए ग्वेसच्छेएणं छिजमाणीए रीयावृत्तिः अस्थि दवाई वण्णतो कालनीललोहितहालिहसुकिल्लाई गंधतो सुरभिगंधाई दुन्भिगंधाई रसतो ॥ ९२॥ तिराकडयकसायअंबिलमहराई फासतो कवडम उयगरुयलासीत उसिणणिदलक्खाई संठाणतो परिमंडलबदृतसचउरंसआययसंठाणपरिणयाई अन्नमन्नबद्धाई । अण्णमपणपुट्ठाई अण्णमपणओगाढाई अण्णमण्णसिणे हपडिबद्धाइं अण्णमण्णघडताए चिट्ठति ?, हंता अस्थि । इमीसेणं भंते ! रयणप्प भाए पु० खरकंडस्स सोलसजोयणसहस्सवाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स अस्थि दव्याई वण्णओ काल जाव परिणयाई, हंता अस्थि । इमीसे णं रयणप्प० पु० रयणनामगरस कंडस्स जोयणसहस्सवाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिजातं चेव जाच हंता अस्थि, एवं जाब रिहस्स, इमीसे णं भंते ! रयणप्प.पु. पंकबहुलस्स कंडस्स चउरासीतिजोयणसहस्सबाहल्लस्स वेसे तं चेव, एवं आवबहुलस्सवि असीतिजोयणसहस्सवाहल्लस्स । इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० घणोदधिस्स बीसं जोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेदेण तहेव । एवं घणवातस्स अंसखेजजोयणसहस्सबाहल्लस्स तहेव, ओवासंतरस्सवि तं चेव ॥ सक्करप्पभाए णं भंते! पु० यत्तीसुत्सरजोयणसतस [८६] ॥९२॥ ~ 187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [७३] दीप अनुक्रम [८७] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(नैरयिक)-१], मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४] उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Jan Education हस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छे एण छिजमाणीए अस्थि दवाई वण्णतो जाव घडत्ताए चिति?, हंता अस्थि, एवं घणोदहिस्स वीसजोयणसहस्सवादल्लस्स घणवातस्स असंखेजजोयणसहस्सवाहलस्स एवं जाव ओवासंतरस्स, जहा सक्करप्पभाए एवं जाब अहेसत्तमाए || (सू०७३ ) 'इमीसे णं भंते' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रप्रभायां पृथिव्यामशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रवाहस्यायां क्षेत्रच्छेदेन-बुद्ध्या प्रतरकाण्डविभागेन छिद्यमानायाम्, अस्तीति निपातोऽत्र बहुलवचनार्थंगर्भः सन्ति द्रव्याणि वर्णत: कालानि नीलानि लोहितानि हारिद्राणि शुद्धानि, गन्वतः सुरभिगन्धीनि दुरभिगन्धीनि च रसततिक्तरसानि कटुकानि कषायाणि अम्लानि मधुराणि स्पर्शत: कशानि मृदूनि गुरुकाणि लघूनि शीतानि उष्णानि स्निग्धानि रुक्षाणि संस्थानतः परिमण्डलानि वृत्तानि व्यस्राणि चतुरस्राणि आयतानि कथम्भूतान्येतानि सर्वाण्यपि ? इत्यत आह- 'अन्नमन्नपुहाई' इत्यादि, अन्योऽन्यं - परस्परं स्युष्टानि - स्पर्शमात्रोपेतानि, तथाऽन्योऽन्यं - परस्परमवगाढानि यत्रकं द्रव्यमवगाढं तत्रान्यपि देशतः कचित्सर्वतोऽवगाढमित्यर्थः तथाऽन्योऽन्यं - परस्परं स्नेहेन प्रतिबद्धानि येनैकस्मिन् चास्यमाने गृह्यमाणे वाऽपरमपि चलनादिधर्मोपेतं भवति एवम् 'अन्नोन्नघडत्ताए चिति' इति, अन्योइन्यं-- परस्परं घटते संबधन्तीति अन्योऽन्यघटास्तद्भावोऽन्योऽन्यघटता तथा परस्परसंवद्धतया तिष्ठन्ति भगवानाह 'हंता अस्थि' 'हन्त !' इति प्रत्यवधारणे सन्त्येवेत्यर्थः । एवमस्यामेव रत्नप्रभायां पृथिव्यां खरकाण्डस्य पोडायोजनसहस्रप्रमाणबाहल्यस्य, तदनन्तरं रत्नकाण्डस्य योजनसहस्त्रबाहस्यस्य ततो वज्रकाण्डस्य यावद्रिष्टकाण्डस्य तदनन्तरमस्यामेव रत्नप्रभा पृथिव्यां बहुलकाण्डस्य चतुरशीतियोजन सहस्रबाहुल्यस्य तदनन्तरमब्बहुलकाण्डस्याशीतियोजन सहस्रबाहुल्यस्य तदनन्तरमस्या एव रत्रप्रभाया घ For Pr&Personal Use City ~188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [७३] दीप अनुक्रम [८७] उपांगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(नैरयिक)-१], प्रतिपत्ति: [३], मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः “जीवाजीवाभिगम” श्रीजीवाजीवाभि० नोधेर्यो जनविंशतिसहस्रप्रमाणबाहल्यस्य ततोऽसङ्खपातयोजनसहस्रप्रमाणबाहुल्यस्य धनवातस्य तत एतावत्प्रमाणबाहल्यस्य तनुवातस्य ततोऽवकाशान्तरस्य तावत्प्रमाणस्य ततः शर्कराप्रभायाः पृथिव्या द्वात्रिंशत्सहस्रोत्तरयोजनशतसहस्रबाह ल्यपरिमाणायाः, मलयगि- तस्या एवाधस्तायथोक्तप्रमाणवाल्यानां घनोदधिघनवाततनुवातावकाशान्तराणाम्, एवं यावदधः सप्तम्याः पृथिव्या अष्टसहस्राधिकरीयावृत्तिः ४ योजनशतसहस्रपरिमाणबाहल्यायाः, ततस्तस्या careeragथिव्या अधस्तात्क्रमेण घनोदधिघनवाततनुवातावकाशान्तराणां प्रभनिर्वचनसूत्राणि यथोक्तद्रव्यविषयाणि भावनीयानि ॥ सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह ॥ ९३ ॥ इमा णं भंते! रयणप्प० पु० किंसंटिता पण्णत्ता?, गोयमा ! झल्लरिसंठिता पण्णत्ता । इमीसे णं भंते! रयणप० पु० खरकंडे किंसंठिते पण्णसे?, गोयमा झल्लरिसंठिते पण्णत्ते । इमीसे णं भंते! रणप० पु० रयणकंडे किंसंठिते पण्णत्ते ?, गोयमा ! झल्लरिसंठिए पण्णत्ते । एवं जाबरिहे। एवं पंकबहुलेवि, एवं आवबहुलेवि घणोदधीवि घणवावि तणुवाएवि ओव संतरेवि, सबवे झरिसंठिते पण्णत्ते । सकरप्पभा णं भंते! पुढवी किंसंठिता पण्णत्ता ?, गोयमा ! झल्ल रिसंठिता पण्णत्ता, सकरप्पभापुढबीए घणोदधी किंसंठिते पण्णत्ते, गोधमा ! शरिसंहिते पण्णत्ते, एवं जाव ओवासंतरे, जहां सकरप्पभाए वक्तव्त्रया एवं जाव अहेसत्तमाएवि || (सू०७४) 'इमा णं भंते' इत्यादि, 'इयं' प्रत्यक्षत उपलभ्यमाना णमिति वाक्यालङ्कृती र प्रभातथिवी किमित्र संस्थिता किंसंस्थिता प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह - गौतम! शहरीव संस्थिता शहरीसंस्थिता प्रज्ञता, विस्तीर्णवलयाकारत्वात्। एवमस्यामेव रत्नप्रभायां पृथिव्यां खरकाण्डं, तत्रापि Far P&Personal Use City ~ 189~ ३ प्रतिपत्ती उद्देशः १ रत्नप्रभा दिसंस्थानं सू० ७४ ॥ ९३ ॥ wyg Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], ------------------- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: S प्रत सूत्रांक [७४] दीप अनुक्रम [८८] रनकाण्डं, ततो वनकाण्ड, ततो यावद् रिष्ठकाण्ड, तदनन्तरं पङ्कबहुलकाण्डं, ततो जल काण्डं, तदनन्तरमस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधस्तारक्रमेण घनोदधिधनवाततनुबातावकाशान्तराणि यावदधःसप्तमीपृथिवी, तस्याश्वाधस्ताक्रमेण घनोदधिधनवाततनुबातावकाशान्तराणि झहरीसंस्थानानि वक्तव्यानि ॥ ननु चैताः सतापि पुथिव्यः सर्वासु दिनु किमलोकस्पर्शिन्य उतन' इति, उच्यते, नेति त्रूमः, यद्येवं तसः इमीसे णं भंते ! रयणप्प पुढवीए पुरथिमिल्लातो उचरिमंताओ केवतियं अबाधाए लोयंते पपणते?, गोयमा! दुवालसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पपणत्ते, एवं दाहिणिल्लातो पचत्थिमिल्लातो उत्तरिल्लातो । सकरप्प० पु० पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो केवतियं अबाधाए लोयंते पपणते?, गोयमा! तिभागणेहिं तेरसहिं जोयणेहिं अयाधाए लोयंते पण्णते, एवं चउहिसिंपि। वालयप्प० पु० पुरथिमिल्लातो पुच्छा, गोयमा! सतिभागेहिं तेरसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं चउहिसिंपि, एवं सवासिं चउसुवि दिसासु पुच्छितव्वं । पंकप्पा चोदसहिं जोयणेहिं अयाधाए लोयंते पण्णते। पंचमाए तिभागूणेहिं पन्नरसहिंजोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते । छडीए सतिभागेहिं पन्नरसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पणत्ते । सत्तमीए सो. लसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं जाव उत्तरिल्लातो ॥ इमीसे णं भंते! रयण पु० पुरथिमिल्ले चरिमंते कतिविधे पण्णत्ते?, गोयमा! तिविहे पपणते, तंजहा-घणोदधिवलए SCRSCORSCR5RSXXX ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [64] दीप अनुक्रम [८] उपांगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(नैरयिक) - १], प्रतिपत्ति: [३], मूलं [ ७५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ९४ ॥ Jan Edocation “जीवाजीवाभिगम” घणवायवल तवायवलए। इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० दाहिणिल्ले चरिमंते कतिविधे पण्णत्ते ?, गोमा ! तिविधे पण्णत्ते, तंजहा, एवं जाव उत्तरिल्ले, एवं सव्वासिं जाव अधेसत्तमाए उत्तरिल्ले ॥ (सू० ७५) 'इमी से णं भंते' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'पुरथिमिल्लाओ' इति पूर्वदिग्भाविनश्वरमान्तात् 'केवइयाए' इति कियत्याऽबाधया अपान्तरालरूपया लोकान्तोऽलोकाधिपरिच्छिन्नः प्रज्ञम: १, भगवानाह द्वादश योजनानि, द्वादशयोजनप्रभापवेत्यर्थः, अवाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः, किमुक्तं भवति ? - रत्रप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वस्यां दिशि चरमपर्यन्तात्परतोऽलोकादम् अपाअन्तरालं द्वादश योजनानि, एवं दक्षिणस्यामपरस्यामुत्तरस्यां चापान्तराळं वक्तव्यं, दिग्ग्रहणं चोपलक्षणं तेन सर्वासु विदिक्ष्वपि यथोक्त- १ सू० ७५ मपान्तरालमवसातयं, शेषाणां तु पृथिवीनां सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमपर्यन्ताद्लोकः क्रमेणाधोऽपविभागोनेन योजनेनाधिकैर्द्वादशभियजनैरवगन्तव्यः, तद्यथा - शर्कराप्रभायाः पृथिव्याः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमपर्यन्तादलोकादुगपान्तरालं त्रिभागो नानि त्रयोदश योजनानि, बालुकाप्रभायाः सत्रिभागानि प्रयोदश योजनानि, पङ्कप्रभायाः परिपूर्णानि चतुर्दश योजनानि, धूमप्रभायात्रिभागोनानि पञ्चदश योजनानि, तमः प्रभायाः सत्रिभागानि पञ्चदश योजनानि, अधः सप्तमपृथिव्याः परिपूर्णानि पोडश योजनानि, सूत्राक्षराणि पूर्ववयोजनीयानि ॥ अथामूनि रत्नप्रभादीनां द्वादशयोजनप्रमाणादीनि अपान्तरालानि किमाकाशरूपाणि उत धनोदध्यादिव्याप्तानि ?, उच्यते, घनोदध्यादिव्याप्तानि तत्र कस्मिन्नपान्तराले कियान् घनोदध्यादिः ? इति प्रतिपादनार्थमाह-' इमीसे णं भंते' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वदिग्भावी 'चरमान्तः' अपान्तराललक्षण: 'कतिविधः' कतिप्रकारः * ॥ ९४ ॥ Far P&Personal Use Only ~ 191~ ३ प्रतिपत्ती उद्देशः १ रनप्रभा दीनामलोकावाधादि wyg Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- --------------------- उद्देशकः [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७५] दीप अनुक्रम कतिविभाग इत्यर्थः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम ! त्रिविधः प्रज्ञाः, तद्यथा-घनोदधिवलयः' वलयाकारधनोदविरूप इत्यर्थः, एवं धनवातवलयसनुवातवलया, इयमन्त्र भावना-सर्वांसां पृथिवीनामधो यत्प्राग वाहत्येन धनोदध्यादीनां परिमाणमुक्तं तन्मध्यभागे। द्रष्टव्यं, ते हि मध्यभागे यथोक्तप्रमाणबाहल्यास्ततः प्रदेशहान्या प्रदेशहान्या हीयमानाः स्वस्वपृथिवीपर्यन्तेषु तनुतरा भूत्वा खां खां पृथिवीं वलयाकारण बेष्टयित्वा स्थिताः, अत एवामूनि वळयान्युच्यन्ते, तेषां च वलयानामुश्चैवं सर्वत्र स्वस्वपृथिव्यनुसारेण परिभाबनीयं, तिर्यग्वाहल्यं पुनरने वक्ष्यते, इदानीं तु विभागमात्रमेवापान्तरालस्य प्रतिपादयितुमिष्टमिति तदेवोक्तं, एवमस्या रजप्रभाव पृथिव्याः शेषासु दिक्षु, एवं शेषाणामपि पृथिवीनां चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकं २ विभागसूत्रं भणितव्यम् । सम्प्रति घनोदधिवलयस्य तिर्यवाहल्यमानमाह इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पुढवीए घणोदधिवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णसे?, गोयमा ! छ जोयणाणि वाहल्लेणं पण्णते। सकरप्प० पु० घणोदधिवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णते?, गोयमा! सतिभागाई छजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते । वालुयप्पभाए पुच्छा गोयमा! तिभागूणाई सत्स जोयणाई बाहल्लेणं प० । एवं एतेणं अभिलावेणं पंकप्पभाए सत्त जोयणाई वाहल्लेणं पण्णत्ते । धूमप्पभाए सतिभागाई सत्त जोयणाई पपणत्ते।तमप्पभाए तिभागूणाई अट्ठ जोयणाई। तमतमप्पभाए अट्ट जोयणाई॥ इमीसे णं रयणप्प० पु० घणवायवलए केवतियं वाहल्लेणं पण्णत्ते?, गोयमा अद्धपंचमाई जोयणाई बाहल्लेणं । सकरप्पभाए पुच्छा, गोयमा! कोसूणाई पंच जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ताई, SAMACHAR [८९] ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः RSSES प्रतिपत्ती | उद्देशः१ घनोदध्यादिबाहल्यं सू०७६ ॥१५॥ दीप अनुक्रम [९० एवं एतेणं अभिलावेणं चालुयप्पभाए पंच जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ताई, पंकप्पभाए सकोसाई पंच जोयणाई याहल्लेणं पपणत्ताई। धूमप्पभाए अद्धछट्ठाई जोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ताई, तमप्पभाए कोसूणाई छजोयणाई याहल्लेणं पण्णसे, अहेसत्तमाए छजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते ।। इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० तणुचायवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते?, गोयमा! छक्कोसेणं याहल्लेणं पण्णसे, एवं एतेणं अभिलावेर्ण सकरप्पभाए सतिभागे छकोसे बाहल्लेणं पण्णसे । वालुयप्पभाए तिभागूणे सत्तकोसं चाहल्लेणं पपणत्ते । पंकप्पभाए पुढवीए सत्तकोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते । धूमप्पभाए सतिभागे सत्तकोसे । तमप्पभाए तिभागूणे अट्ठकोसे याहल्लेणं पन्नत्ते । अधेसत्तमाए पुढवीए अट्ठकोसे चाहल्लेणं पण्णत्ते । इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० घणोदधिवलयस्स छजोयणबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स अस्थि व्वाई वण्णतो काल जाव ता अस्थि । सकरप्पभाएणं भंते ! पु० घणोदधिवलयस्स सतिभागछजोयणबाहल्लस्स खेत्तच्छेदेणं छिजमाणस्स जाय हंता अस्थि, एवं जाव अधेसत्तमाए जं जस्स बाहलं । इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० घणवातबलयस्स अद्वपंचमजोयणयाहल्लस्स खेत्तछेदेणं छि० जाव हंता अस्थि, एवं जाव अहेसत्तमाए जं जस्स बाहर। एवं तणुवायवलयस्सवि जाव अधेसत्तमा जं जस्स चाहलं ॥ हमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलए किंसंठिते पण्णते?, गोयमा ! बद्दे वलयागारसंठाणसंठिते ॥९५॥ ~193~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- ------------------------ उद्देशकः [(नैरयिक)-१], --------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [९०] पण्णत्ते ॥ जे णं इमं रयणप्पभं पुढविं सब्बतो संपरिक्खिवित्ता णं चिट्टति, एवं जाव अधेसत्तमाए पु० घणोदधिवलए, णवरं अप्पणप्पणं पुढविं संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठति । इमीसे रयणप्प० पु० घणवातवलए किंसंठिते पण्णते?, गोयमा! बहे वलयागारे तहेव जाय जे गं हमीसे णं रयणप्प० पु० घणोदधिवलयं सब्बतो समंता संपरिक्खिवित्तार्ण चिट्ठद एवं जाव अहेसत्तमाए घणवातवलए । इमीसे गं रयणप्प० पु० तणुवातवलए किंसंठिते पण्णते?, गोयमा! वढे वलयागारसंठाणसंठिए जाच जेणं इमीसे रयणप्प० पु० घणयातवलयं सब्बतो समंता संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठह, एवं जाव अधेसत्तमाए तणुवातवलए ॥ इमा णं भंते ! रयणप्प० पु० केवतिआयामविखंभेणं' पं० गोयमा! असंखजाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं असंखेजाई जोषणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते, एवं जाव अधेसत्तमा ॥ इमा णं भंते। रयणप्प० पु० अंते य मज्झे य सम्बत्थ समा बाहल्लेणं पणत्ता?, हंता गोयमा! इमा णं रयण पु० अंते य मज्झे य सब्वत्थ समा बाहलेणं, एवं जाव अधेसत्तमा ।। (सू०७६) दा 'इमीसे णमित्यादि, अस्या भदन्त ! रसनभायाः पृथिव्याः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमान्ते घनोदधिवलयः कियदाहल्येनतिर्यग्वाहल्येन प्रज्ञप्तः १, भगवानाह-गौतम! घड् योजनानि बाहल्येन-तिर्यम्बाहल्येन प्रज्ञमः, तत ऊर्व प्रतिथिवि योजनस्य त्रिभागो वक्तव्यः, तद्यथा-शर्कराप्रभाया: सत्रिभागानि षड् योजनानि वालुकाप्रभायास्त्रिभागोनानि सप्त योजनानि पकप्रभावाः परि ~194~ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] सू०७६ दीप श्रीजीवा- पूर्णानि सप्त योजनानि धूमप्रभायाः सत्रिभागानि सप्त योजनानि तमःप्रभायास्त्रिभागोनान्यष्टौ योजनानि अधःसप्तमपृथिव्याः प्रतिपत्ती जीवाभि० परिपूर्णान्यष्टौ योजनानि, सूत्राक्षराणि तु सर्वत्र पूर्ववद्योजनीयानि ॥ सम्प्रति धनवातबल्यस्य तिर्यग्वाहल्यपरिमाणप्रतिपादनार्थ- उद्देशः१ मलयगि- माह-'इमीसे भंते!' इत्यादि, अस्था रत्नप्रभायाः पृथिव्या घनवातवलयस्तिर्यम्बाहल्येनार्द्धपञ्चमानि-सार्धनि चलारि योजरीयावृत्तिः नानि प्रशप्तः, अत ऊर्य तु प्रतिपृथिवि गब्यूतं बर्द्धनीयं, तथा चाह-द्वितीयस्याः पृथिव्याः क्रोशोनानि पञ्च योजनानि, नृतीयस्याः | दिवाहल्यं पृथिव्याः परिपूर्णानि पञ्च योजनानि, चतुर्थ्याः पृथिव्याः सक्रोशानि पञ्च योजनानि, पञ्चम्याः पृथिव्या अर्द्धषष्टानि-सा नि ! पञ्च योजनानि, पाठयाः पृथिव्याः कोशोनानि षड् योजनानि, सप्तम्याः पृथिव्याः परिपूर्णानि पर् योजनानि || सम्प्रति तनुवातदिवलयस्य तिर्यगवाहल्यपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्यास्तनुवातवलय: कियत्' किंप्रमाणं 'बाहल्येन' तिर्यग्वाहल्येन प्रज्ञतः ?, भगवानाह-पटक्रोशबाहल्येन प्रज्ञप्तः, अत ऊर्ध्वं तु प्रतिपृथिवि क्रोशस्य | त्रिभागो वर्द्धनीयः, तथा चाह-द्वितीयस्याः पृथिव्याः सत्रिभागान् पट् क्रोशान् बाहल्येन प्रज्ञप्तः, तृतीयस्वाः पृथिव्याविभागोनान् | सप्त क्रोशान् चतुर्थ्याः पृथिव्याः परिपूर्णान् सप्त क्रोशान् पञ्चम्याः पृथिव्याः सत्रिभागान् सप्त क्रोशान् षष्ठयाः पृथिव्यात्रिभागोनान् अष्टौ कोशान् , अधःसप्तम्या: परिपूर्णान् अष्टौ कोशान् , उक्तश्च-"छच्चेव अद्धपंचमजोवणसङ्घ च होइ रयणाए । उदही | पणतणुवाया (उ)जहासंखेण निदिहा ॥१॥ सतिभागगाउगाउयं च विभागो गाउयस्स बोद्धब्बो । आइधुवे पक्खेवो अहो अहो जाव है सत्तमिया ॥२॥" एतेषां च त्रयाणामपि धनोध्यादिविभागानामेकत्र मीलने प्रतिपुधिवि यथोक्तमपान्तरालमानं भवति ।। सम्प्रत्ये- ॥९६॥ तेष्वेव घनोदध्यादिबलयेषु क्षेत्रच्छेदेन कृष्णवर्णाद्युपेत द्रब्यास्तित्वप्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं भंते! इत्यादि, पूर्ववद्भावनीयं, अनुक्रम [९० ~195~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -- --------------------- उद्देशकः [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: R-9 - 0 प्रत सूत्रांक [७६] दीप बाहल्यपरिमाणमपि घनोदच्यादीनां प्रतिपुधिवि प्रागुक्तमुपयुज्य वक्तव्यम् ।। सम्प्रति घनोदध्यादिसंस्थानप्रतिपादनार्थमाह-इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या घनोदधिवलयः किमिव संस्थितः किंसंस्थितः प्रज्ञप्त: ?, भगवानाह-गौहातम! 'वृत्तः' चक्रवालतया परिवर्तुलो वलयस्य-मध्यशुपिरस्य वृत्तविशेषस्याकार:-आकृतिर्वलयाकारः स इव संस्थानं वलयाकारसं| स्थानं तेन संस्थितो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः ॥ कथमेवमवगम्यते वलयाकारसंस्थानसंस्थित इति !, तत आह-'जेण' मित्यादि, येन कारणेनेमां रत्नप्रभा पृथिवीं 'सर्वतः' सर्वासु दिनु विदिक्षु च 'संपरिक्षिष्य' सामस्येन वेष्टयिला 'तिष्ठति' बर्तते तेन कारणेन B वलयाकारसंस्थानसंस्वित: प्रज्ञाप्तः । एवं धनवातवलवसूत्रं तनुवातवलयसूत्रं च परिभावनीवं, नवरं बनवातबलयो बनोदधिवलयं सं परिक्षिप्येति वक्तव्यः, तनुवातवलयो बनवातवलयं संपरिक्षिप्येति । एवं शेषास्वपि पृथिवीषु प्रत्येकं त्रीणि त्रीणि सूत्राणि भावनी यानि ।। 'इमा णं भंते!' इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पुथिवी कियद् 'आयामविष्कम्भेन' समाहारो द्वन्द्वः, आयामविष्कम्भाभ्यां ४ प्रज्ञा ?, भगवानाह-असङ्ख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्मेन, किमुक्तं भवति -असहयेयानि योजनसहस्राणि आयामेन, असोयानि योजनसहस्राणि विष्कम्भेन च, आयामविष्कम्भयोस्तु परस्परमल्पवहुवचिन्तने तुल्यत्वं, तथाऽसङ्ख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण' परिधिना प्रज्ञप्ता, एवमेकैका पृथिवी तावद्वक्तव्या यावद्धःसप्तमी पृथिवी ॥ 'इमा णं भंते! इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पुथिवी अन्ते मध्ये च सर्वत्र समा वाहत्येन' पिण्डभावेन प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतमेत्यादि सुगमम् । एवं क्रमेणैकैका पृथिवी तावद्वक्तव्या यावत्सप्तमी ।। इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० सयजीवा उबवण्णपुवा? सव्वजीवा उववण्णा ?, गोयमा ! जी०च०१७ अनुक्रम [९०] ~ 196~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [७७] दीप अनुक्रम [१] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(नैरयिक) - १], मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ९७ ॥ Education इमीसे णं र० पु० सव्वजीवा उबवण्णपुच्चा नो चेव णं सव्वजीवा उबवण्णा, एवं जाव असत्तमा पुढवी ॥ इमाणं भंते! रयण० पु० सव्वजीवेहिं विजढपुच्चा ? सव्वजीवेहिं विजढा ?, गोयमा ! इमा णं रयण० पु० सव्वजीवेहिं विजढपुत्र्वा नो चेव णं सव्वजीवविजढा, एवं जाव अधेसत्तमाः ॥ इमीसे णं भंते । रयण० पु० सव्वपोग्गला पविपुव्वा ? सम्बपोग्गला पविट्ठा ? गोमा ! इमीसे णं रण० पुढवीए सव्यपोग्गला पविपुत्र्वा नो चेव णं सव्वपोग्गला पविट्ठा, एवं जाव असत्तमाए पुढवीए ॥ इमा णं भंते! रयणप्पभा पुढवी सव्यपोग्गलेहिं विजदवा? सव्यपोग्ला विजढा ?, गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पु० सव्वयोग्गलेोहिं विजढपुत्रवा नो चेवणं सव्वमोग्गलेहिं विजढा, एवं जाव अधेसन्तमा ॥ ( सू० ७७ ) 'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वजीवाः सामान्येन उपपन्नपूर्वी इति उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेण, तथा सर्वजीवाः 'उपपन्नाः' उत्पन्ना युगपद् ?, भगवानाह - गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वजीवाः सांव्यवहारिकजीवराश्यन्तर्गता: प्रायोवृत्तिमाश्रित्य सामान्येन 'उपपन्नपूर्वाः' उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेण संसारस्यानादित्वात् न पुनः सर्वजीवाः 'उपपन्ना' उ त्पन्ना युगपत् सकलजीवानामेककालं रत्नप्रभापृथिवीत्वेनोत्पादे सकलदेवनारकादिभेदाभावप्रसक्तेः न चैतदस्ति, तथाजगत्स्खाभान्यात्, एवमेकैकस्याः पृथिव्यास्तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याः || 'इमा णं भंते!' इत्यादि, इयं च भदन्त ! रत्रप्रभापृथिवी 'सव्यजीवेहिं विजढपुच्वा' इति सर्वजीवैः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, तथा सर्वजीवैर्युगपद् 'विजढा' परिव्यक्ता ?, भगवानाह - गौतम ! Far P&Personal Use City ~ 197~ ३ प्रतिपत्तौ उद्देशः १ रलप्रभा तया सर्वजीवपुद्रलोत्पादः सू० ७७ ॥ ९७ ॥ Sarayang Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- ------------------------ उद्देशकः [(नैरयिक)-१], --------------------- मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] 6-05-59-4-%2592-9454 दीप इयं रत्नप्रभा पृथिवी प्रायोवृत्तिमाश्रित्य सर्वजीवैः सांव्यवहारिकैः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, न तु युगपत्परित्यक्ता, सर्वजीवै: एककालपरित्यागस्यासम्भवात् तथानिमित्ताभावात् , एवं तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तमी पृथ्वी ॥ 'इमीसे ण' मित्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्न-1 प्रभायां पृथिव्यां सर्वे पुद्गला लोकोदरविवरवर्तिनः कालक्रमेण 'प्रविष्टपूर्वाः' सद्भावेन परिणतपूर्वाः, तथा सर्वे पुद्गला: 'प्रविष्टाः' एककालं तद्भावेन परिणताः ?, भगवानाह-गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वे पुद्गला: लोकवर्तिनः प्रविष्टपूर्वाः' तद्भावेन परि-10 णतपूर्वाः, संसारस्थानादित्वात् , न पुनरेककालं सर्वपुद्गलाः 'प्रविष्टाः तद्भावेन परिणताः, सर्वपुद्गलानां तद्भावेन परिणवौ रत्नप्रभा-18 व्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्रापि पुद्गलाभावप्रसक्तेः, न चैतदस्ति, तथाजगत्स्वाभाव्यात् । एवं सर्वासु पृथिवीषु क्रमेण वक्तव्यं यावद्धः| सप्तम्यां पृथिव्यामिति ॥ 'इमा णं भंते ! इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी सर्वपुद्गलैः कालक्रमेण "विजढपुव्वा' इति परित्यक्त-10 पूर्वा तथैव सर्वैः पुद्गलैरेककालं परित्यक्ता ?, भगवानाह-गौतम! इयं रत्नप्रभा पृथिवी सर्वपुद्गलैः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, संसार-18 स्वानादिलात्, न पुनः सर्वपुद्गलैरेककालं परित्यक्ता, सर्वपुद्गलैरेककालपरित्यागे तस्याः सर्वथा स्वरूपाभावप्रसक्तेः, न चैतदस्ति, - थाजगत्स्वाभाव्यतः शाश्वतखात्, एतच्चानन्तरमेव वक्ष्यति । एवमेकैका पृथिवी कमेण ताबद्वाच्या यावदधःसप्तमी पृथिवी ॥ इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं सासया असासया ?, गोयमा! सिय सासता सिय असासया ॥ से केणतुणं भंते! एवं खुबह-सिय सासया सिय असासया?, गोयमा! दवट्ठयाए सासता, वपणपज्जवेहिं गंधपज्जवेहि रसपजवेहिं फासपजवेहिं असासता, से तेणढणं गोयमा! एवं वचति-तं चेव जाप सिय असासता, एवं जाव अधेसत्तमा॥इमा भंते ! रयणप्पभापु०कालतो अनुक्रम [९१] ~ 198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], -------------------- मूलं [७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] जीवाजीवाभिगममूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: %95 प्रत सूत्रांक [७८] %E% दीप अनुक्रम श्रीजीवा- केवचिरं होइ ?, गोयमा! न कयाइ ण आसि ण कयाइ णस्थि ण कयाह ण भविस्सति ॥ ३ प्रतिपत्तौ जीवाभि भुवि च भवद य भविस्सति य धुवा णियया सासया अक्खया अव्वया अवहिता णिचा एवं | उद्देशः १ मलयगिजाव अधेसत्तमा । (सू०७८) रत्नप्रभारीयावृत्तिः HI 'इमा णं भंते !' इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी किं शाश्वती अशाश्वती ?, भगवानाह-गौतम ! स्यात्-फायश्चित्कस्यापियाः शा॥९८॥ नयस्याभिप्रायेणेत्यर्थः शाश्वती, स्यान्-कथञ्चिदशाश्वती ॥ एतदेव सविशेष जिज्ञासुः पृच्छति-'से केणढेण'मित्यादि, सेशब्दोऽ-18श्वतेतरते थशब्दार्थः स च प्रभे, केन 'अर्थेन' कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते यथा स्यात् शाश्वती स्वादशाश्वतीति ?, भगवानाह-गौतम! 'दब्व- सू०७८ ट्ठयाए' इत्यादि, द्रव्यार्थतया शाश्वतीति, तत्र द्रव्यं सर्वत्रापि सामान्यमुच्यते, द्रवति-च्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति वा द्रव्यमितिव्युत्पत्तेद्रव्यमेवार्थ:-तात्विकः पदार्थो यस न तु पर्याया: स द्रव्यार्थ:-द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादको नयविशेषस्तद्भावो 8 द्रव्यार्थता तया द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादकनयाभिप्रायेणेतियावत् शाश्वती, द्रव्यार्थिकनयमतपर्यालोचनायामेवंविधस्य रत्नप्रभायाः पृथिव्या | आकारस्य सदा भावात् , 'वर्णपर्यायैः कृष्णादिभिः 'गन्धपर्यायः' सुरभ्यादिभिः 'रसपर्यायः तिक्तादिभिः 'स्पर्शपायैः' क|ठिनलादिभिः 'अशाश्वती' अनित्या, तेषां वर्णादीनां प्रतिक्षणं कियत्कालानन्तरं वाऽन्यथाभवनात् , अतावस्थ्यस्य चानित्यत्वात् , न | चैवमपि भिन्नाधिकरणे नित्यखानियले, द्रव्यपर्याययोमेंदाभेदोपगमात् , अन्यथोभयोरप्यसत्त्वापत्तेः, तथाहि-शक्यते वक्तुं परजापरिकल्पितं द्रव्यमसत् , पर्यायव्यतिरिक्तवान् , बाललादिपर्यायशून्यवन्ध्यासुतवत् , तथा परपरिकल्पिता: पर्याया असन्तः, द्रव्य-IR॥९८॥ 8 व्यतिरिक्तत्वात् , बन्ध्यासुतगतबालत्यादिपर्यायवत् , उक्तश्च-'द्रव्यं पर्यायवियुत, पर्याया व्यवर्जिताः । क कदा केन किंरूपा, [१२] ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], --- -------- मूलं [७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७८] दीप या मानेन केन वा ॥१॥" इति कृतं प्रसङ्गेन, विस्तरार्थिना च धर्मसङ्ग्रहणिटीका निरूपणीया । 'से तेणहेण मित्याद्युपसंहार माह, सेशब्दोऽथशब्दार्थः स चात्र वाक्योपन्यासे अथ 'एतेन अनन्तरोदितेन कारणेन गौतम! एवमुच्यते-स्यात् शाश्वती स्याददशावती, एवं प्रतिपुथिवि तावद्द्वक्तव्यं यावधःसप्तमी पृथिवी, इह यद् यावत्सम्भवास्पदं तच्चत्तावन्तं कालं शश्वद्भवति तदा तदपि । शाश्वतमुच्यते यथा तस्त्रान्तरेषु 'आकप्पट्ठाई पुढवी सासया' इत्यादि, ततः संशय:-किमेपा रमप्रभा पृथवी सकल कालावस्थायितया शाश्वती उतान्यथा यथा तत्रान्तरीयैरुच्यत इति ?, ततस्तदपनोदाथै पृच्छति-'इमा णं भंते' इत्यादि, इयं भदन्त ! रमप्रभा पृ-16 थिवी कालत: 'कियचिरं' कियन्तं कालं यावद्भवति ?, भगवानाह-गौतम! न कदाचिन्नासीत्, सदैवासीदिति भावः, अनादित्वात् , तधा न कदाचिन्न भवति, सर्वदेव वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति भावः, अत्रापि स एव हेतुः, सदा भावादिति, तथा न कदाचिन्न भविष्यति, भविष्यचिन्तायां सर्वदेव भविष्यतीति भावः, अपर्यवसितत्वात् । तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय सम्प्र-15 हत्यस्तित्वं प्रतिपादयति-'भुवि चेत्यादि, अभून् भवति भविष्यति च, एवं त्रिकालभाविलेन 'धुवा' भुवखादेव 'नियता' नियताब स्थाना, धर्मास्तिकायादिवन् , नियतलादेव च शाश्वती, शश्वद्भाव: प्रलयाभावात् , शाश्वतत्वादेव च सततगङ्गासिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि पद्मपौण्डरीक हन इवान्यतरपुगलविघटनेऽप्यन्यतरपुद्गलोपचयभावात् , अक्षया अक्षयलादेव च अव्यया, मानुपोत्तरादहिः समुद्रवत् , अव्ययखादेव 'अवस्थिता' खप्रमाणावस्थिता, सूर्यमण्डलादिवत् , एवं सदाऽवस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या जीवखरूपवत् , यदि वा धुवादयः शब्दा इन्द्रशकादिवत्पर्यायशब्दा नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुपन्यता इत्यदोपः, एक्मेकैका पुथिवी क्रमेण तावद्वक्तव्या 3 यावधःसप्तमी ।। सम्प्रति प्रतिपृथिवीपु(वि)विभागतोऽन्तरं विचिन्तयिपुरिदमाह अनुक्रम [९२] ~200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [83] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(नैरयिक)- १], मूलं [ ७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ९९ ॥ 10% % % [ इमीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए उबरिल्लातो चरिमंतातो हेद्विल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ?, गोयमा ! असिउत्तरं जोयणसतसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । इमी से णं भंते! रयण० पु० उवरिल्लातो चरिमंताओ खरस्स कंडस्स हेहिले चरिमंते एस णं hari अबाधाएं अंतरे पण्णत्ते ?, गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साइं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ] इमीसे णं भंते! रणपभाए पुढचीए उवरिल्लातो चरमंताओ रयणस्स कंडस्स हेहिले चरिमंते एस केवति अबाधाए अंतरे पण्णसे ?, गोयमा ! एवं जोयणसहस्सं अवाधाए अंतरे पण्णन्ते ॥ इसीसे णं भंते! रयण० पु० उवरिल्लातो चरिमंतातो वइरस्स कंण्डस्स उवरिल्ले चरिमंते एस जं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते, १, गोयमा ! एक जोयणसहस्सं अबाधाएं अंतरे प० ॥ इमीसे रयण० पु० उबरिल्लाओ चरिमंताओ वइरस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं भंते! केवतियं retary अंतरे प०, गोयमा। दो जोयणसहस्साइं इमीसे णं अवाधार अंतरे पण्णसे, एवं जाव firee उरिले पन्नre जोयणसहस्साई, हेट्ठिल्ले चरिमंते सोलस जोयणसहस्साई ॥ इमीसे भंते! रणप० पु० उवरिल्लाओ चरिमंताओ पंकबहुलस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते एस णं अबाधाए केवतियं अंतरे पण्णत्ते ?, गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णन्ते । हेहिले चरिमंते एक जोयणस्यसहस्सं आवबहुलस्स उवरि एवं जोयणसयसहस्सं हेडिल्ले For P&Pease Caly ~ 201~ ३ प्रतिपत्ती उद्देशः १ काण्डा द्यन्तरं सू० ७९ ॥ ९९ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], ------------------- मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७९] चरिमंते असीउत्तरं जोयणसयसहस्सं । घणोदहि उवरिल्ले असिउत्तरजोयणसयसहस्सं हेडिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साई । इमीसे णं भंते! रयण पुढ० घणवातस्स उवरिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साई । हेडिल्ले चरिमंते असंखेजाई जोयणसयसहस्साई । इमीसे गं भंते! रयण पु० तणुवातस्स उवरिल्ले चरिमंते असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई अबाधाए अंतरे हेहिल्लेवि असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई, एवं ओवासंतरेवि ॥ दोच्चाए णं भंते! पुढचीए उचरिल्लातो चरिमंताओ हेडिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते?, गोयमा! पत्तीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । सकरप्प० पु० उवरि घणोदधिस्स हेडिल्ले चरिमंते बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाधाए । घणवातस्स असंखेजाई जोयणसयसहस्साई पण्णताई। एवं जाय उवासंतरस्सवि जावऽधेसत्तमाए, णवरं जीसे जं वाहल्लं तेण घणोदधी संबंधेतब्बो बुद्धीए । सकरप्पभाए अणुसारेणं घणोदहिसहिताणं इमं पमाणं ॥ तचाएणं भंते ! अडयालीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं । पंकप्पभाए पुडवीए चत्तालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं । धूमप्पभाए पु. अहतीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं । तमाए पु० छत्तीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं । अधेसत्तमाए पु० अट्ठावीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं जाव अधेसत्तमाए । एस णं भंते! CAMERACK दीप अनुक्रम RSACSCGOSASARASASNA [१३] ~ 202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [७९] दीप अनुक्रम [९३] "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [(नैरविक)-१], प्रतिपत्ति: [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि यावृत्तिः 11 200 11 - • मूलं [७९ ] .....आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः .......... पुढary उवरिल्लातो चरिमंतातो उवासंतरस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते केवतियं अबाधाएं अंतरे पण्णत्ते ?, गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणस्यसहस्साई अबाधाएं अंतरे पण्णत्ते । (सू० ७९ ) 'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्था भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्य प्रथमस्य खरकाण्डस्य विभागस्य 'उवरिल्लात्' इति उपरितनाचरमान्तात्परतो योऽवस्वनः 'चरमान्तः' चरमपर्यन्तः 'एस णमिति एतत् सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतत्वान्, अन्तरं 'कियत्' कियद्योजनप्रमाणम् 'अबाधवा' अन्तरत्वव्याचातरूपया प्रज्ञप्तम् १, भगवानाह - ह-गौतम! 'एकं योजनसहस्रम् एकं योजन सहप्रमाणमन्तरं प्रज्ञप्तम् ॥ 'इमीसे ण'मित्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाञ्चरमान्तात्परतो यो वज्रकाण्डस्योपरितनश्चरमान्त एतदन्तरं 'कियत्' किंप्रमाणमवाधया प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह - गौतम! एकं योजनसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञमं, रत्नकाण्डाधस्तनचर मान्तस्य वत्रकाण्डोपरितनचरमान्तस्य न परस्परसंलग्नतया उभयत्रापि तुल्यप्रमाणत्वभावात् ॥ 'इमीसे णमित्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाथरमान्ताद् वज्रकाण्डस्य योऽवस्तनञ्चरमान्तः एतदन्तरं कियद् अबाधया प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह गौतम ! द्वे योजनसहस्रे अवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं, एवं फाण्डे काण्डे द्वौ द्वावालापको वक्तव्यौ, काण्डस्य चाधस्तने चरमान्ते चिन्त्यमाने योजनसहस्रपरिवृद्धिः कर्त्तव्या यावद् रिष्टस्य काण्डस्याधस्तने चरमान्ते चिन्त्यमाने षोडश योजन सहस्राणि अबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति वक्तव्यम् ॥ 'इमीसे णमित्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनावरमान्तात्परतो यः पबहुलस्य काण्डस्योपरितनश्चरमान्तः एतत् 'कियत्' किंप्रमाणमवाधयाऽन्तरं प्रक्षप्तम् ?, भगवानाह गौतम ! पोडश योजनसहस्राणि अवाधयाऽन्तरं प्राप्तम् । 'इमीसे ण'मित्यादि, तस्यैव पङ्कबहुलस्य काण्डस्यास्तनञ्चरमान्त एकं यो For P&P Cy ~ 203~ ३ प्रतिपत्तौ १ काण्डाद्यन्तरं सू० ७९ ॥ १०० ॥ w Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [७९] दीप अनुक्रम [९३] "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशकः [(नैरविक)-१], प्रतिपत्ति: [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... मूलं [७९] ........ ... आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः - • - 3 जनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं । 'इमीसे ण'मित्यादि, अस्य भदन्त ! रवप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाञ्चरमान्तात्परतोडब्बहुलस्य काण्डस्य य उपरितनश्चरमान्त एतदन्तरं कियद् अवाधया प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह - गौतम! एकं योजनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं । 'इमीसे ण' मित्यादि, अस्या भवन्त ! रनप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाचर मान्तात्परतोऽस्य काण्डस्य योऽवस्तनञ्चरमान्त एतदन्तरं कियद् अवाध्या प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह - गौतम ! अशीत्युत्तरं योजनशतसहस्रम् । घनोद्धेरुपरितने चरमान्ते पृष्टे एतदेव निर्वचनम शीत्युत्तरयोजनशतसहस्रम् अधस्तने पृष्ठे इदं निर्वचनं द्वे योजनशतसहस्रे अबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । वनवातस्योपरितने चरमान्ते पृष्टे इदमेव निर्वचनं, घनोदध्यधस्तनचरमान्तस्य धनवानोपरितनचरमान्तस्य च परस्परं संलग्नखात् । धनवातस्याधस्तने चरमान्ते पृष्ठे एतन्निर्वचनम् असङ्ख्येयानि योजनशतसहस्राण्यवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । एवं तनुवातस्योपरितने चरमान्ते अधस्तने चरमान्ते अवकाशान्तरस्याप्युपरितनेऽधस्तने च चरमान्ते इत्थमेत्र निर्वचनं वक्तव्यम्, असोयानि योजनशतसहस्राण्यवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति, सूत्रपाठस्तु प्रत्येकं सर्वत्रापि पूर्वानुसारेण स्वयं परिभावनीयः सुगमत्वात् ॥ 'दोच्चाए र्ण' इत्यादि, द्वितीयस्या भदन्त ! पृथिव्या उपरितनाञ्चरमान्तात्परतो योऽधस्तनञ्चरमान्त एतत् 'कियत्' किंप्रमाणमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह - गौतम! 'द्वात्रिंशदुत्तरं द्वात्रिंशत्सहस्राधिकं योजनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । धनोद्धेरुपरितने चरमान्ते पुढे एतदेव निर्वचनं द्वात्रिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् अधस्तने चरमान्ते पृष्ठे इदं निर्वचनं द्विपञ्चाशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् । एतदेव घनवातस्त्रोपरितन चरमान्त पृच्छायामपि वनवातस्याधस्तनचरमान्तपृच्छायां तनुवादाकाशान्तर योरुपरितनाधस्तन चरमान्त पृच्छा सु च यथा रनप्रभायां तथा वक्तव्यम्, अमेयानि योजनशतसहस्राण्यवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति वक्तव्यमिति भाव: ।। 'तच्चाए णं For P&P Cy ~ 204~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशकः [(नैरयिक)-१], ------------------- मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्तौ उद्देशः१ रत्नप्रभादीनामल्प| बहुता सू०८० [७९] %A5% ॥१०१॥ दीप श्रीजीवा- भते।' इत्यादि, तृतीयस्या भदन्त ! पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्ताद् अधस्तनश्चरमान्त एतदन्तरं कियद् अबाधया प्रज्ञप्तम् !, भग- जीवाभिदवानाह-गौतम ! अष्टाविंशत्युत्तरं शत(सहस्र)म्-अष्टाविंशतिसहस्राधिकं योजनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । एतदेव घनोदधेरुपरितन- मलयगि- चरमान्तपृच्छायामपि निर्वचनम् । अधस्तनचरमान्तपृच्छायामष्टाचत्वारिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञसमिति वक्त- रीयावृत्तिः व्यम् । एतदेव घनवातस्योपरितनचरमान्तपच्छायामपि । अधस्तनचरमान्तपुच्छायां तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तनचरमा- न्तपृच्छासु च यथा रत्नप्रभायां तथा वक्तव्यम् । एवं चतुर्थपञ्चमषष्टसप्तमपृथिवीविषयाणि सूत्राण्यपि भावनीयानि ॥ इमा भंते! रयणप्पभा पुढवी दोचं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला विसेसाहिया संखेजगुणा? विस्थरेणं किं तुला विसेसहीणा संखेजगुणहीणा?, गोयमा! इमा णं रयण पु० दोचं पुढवीं पणिहाय बाहल्लेणं नो तुल्ला विसेसाहिया नो संखेजगुणा, वित्थारेणं नो तुल्ला विसेसहीणा णो संखेजगुणहीणा । दोचा णं भंते! पुढची तचं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला? एवं चेव भाणितव्वं । एवं तचा चउत्थी पंचमी छट्टी । छट्ठीणं भंते ! पुढवी सत्तमं पुढदि पणिहाय वाहल्लेणं किं तुल्ला विसेसाहिया संखेजगुणा?, एवं चेव भाणियब्वं । सेवं भंते!२। नेरइयउद्देसओ पढमो ॥ (सू०८०) 'इमा णं भंते!' इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवी द्वितीयां पृथिवीं शर्कराप्रभा 'प्रणिधाय' आश्रित्य 'बाहल्येन' पिण्डभा-| वेन किं तुल्या विशेषाधिका सहयेयगुणा ?, वाहल्वमधिकृत्येदं प्रभत्रयम् , ननु एका अशीत्युत्तरयोजनलक्षमाना अपरा द्वात्रिंशदु अनुक्रम [९३] ॥१०१॥ ~205~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-१], ------------------- मूलं [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८०] KOSROCRACLEASCCC SCOCA5 त्तरयोजनलक्षमानेत्युक्तं ततस्तदर्थावगमे सत्युक्तलक्षणं प्रभत्रयमयुक्त, विशेषाधिकेति स्वयमेवार्थपरिज्ञानात् , सत्यमेतत् , केवलं शप्रभोऽयं तदन्यमोहापोहार्थः, एतदपि कथमवसीयते ? इति चेत्स्वावबोधाय प्रश्नान्तरोपन्यासात् , तथा चाह-विस्तरेण-विष्कम्भेन कि ? तुल्या विशेषहीना सङ्ख्येयगुणहीना? इति, भगवानाह-गौतम! इयं रत्नप्रभा पृथिवी द्वितीयां शर्कराप्रभापृथिवीं प्रणिधाय बाहल्येन न [च] तुल्या किन्तु विशेषाधिका नापि सङ्ख्येयगुणा, कथमेतदेवम् ? इति चेदुच्यते-दह रत्नप्रभा पृथिवी अशीत्युत्तरयोजनलक्षमाना, शर्कराप्रभा द्वात्रिंशदुत्तरयोजनलक्षमाना, तवान्तरमष्टाचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि ततो विशेषाधिका घटते न तुल्या नापि सब-15 यगुणा, विस्तरेण न तुल्या किन्तु विशेषहीना नापि सोयगुणहीना, प्रदेशादिङ्ख्या प्रवर्द्धमाने तावति क्षेत्रे शर्कराप्रभाया एवं [च]] वृद्धिसम्भवात् , एवं सर्वत्र भाषनीयम् ॥ [तृतीयप्रतिपत्तौ समासः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीयः प्रारभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम्-]] | सम्प्रति कस्यां पृथिव्यां कस्मिन् प्रदेशे नरकावासा: ? इत्येतत्प्रतिपादनार्थ प्रथमं तावदिदमाह कह णं भंते! पुढवीओ पण्णताओ?, गोयमा! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा ॥ इमीसे णं रयणप्प० पु० असीउत्तरजोयणसयसहस्सपाहल्लाए उवरि केवतियं ओगाहित्ता हेहा केवइयं वज्जित्ता मज्झे केवतिए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पपणत्ता?, गोयमा! इमीसे णं रयण पु० असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेद्वावि एगे जोयणसहस्सं बजेत्ता मज्झे अडसत्तरी जोयणसयसहस्सा, एस्थ णं रयणप्पभाए पु० नेरइयाणं तीसं निरयावाससयसहस्साई भवंतित्तिमक्खाया ॥ दीप अनुक्रम [९४] % % 25 अत्र तृतीय प्रतिपत्तौ "नैरयिक स्य प्रथम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ तृतीय प्रतिपत्तौ "नैरयिक"स्य दवितिय-उद्देशकः आरभ्यते सप्त-नरकावासानाम् विविध-विषयाधिकार: ~206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशकः [(नैरयिक)-२], ------------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥१०२॥ [८१] दीप अनुक्रम ते ण णरगा अंतो वहा बाहिं चउरंसा जाव असुभा णरएसु वेयणा, एवं एएणं अभिलावेणं उब- ३ प्रतिपत्ती जुंजिऊण भाणियब्वं ठाणप्पयाणुसारेणं, जत्थ जं बाहलं जत्थ जत्तिया वा नरयावाससयस- | उद्देशः१ हस्सा जाच अहेसत्तमाए पुढवीए, अहेसत्तमाए मज्झिमं केवतिए कति अणुत्तरा महइ महा- नरकावालता महाणिरया पण्णत्ता एवं पुच्छितब्वं वागरेयव्वंपि तहेव ।। (मू०८१) सस्थान | 'करणं भंते!' इत्यादि, कति भदन्त ! पृथिव्यः प्रज्ञप्ता: ? इति, विशेषाभिधानार्थमेतदभिहिला , उक्तश्च-वभणियपि जा |पुण भन्नई तत्थ कारणं अस्थि । पडिसेहो य अणुण्णा कारण(हेउ)बिसेसोवलंभो वा ॥ १॥" भगवानाह-गौतम ! सप्त पृथिव्य: प्र-18 ज्ञप्ताः, तद्यथा-रत्नप्रभा यावत्तमस्तमप्रभा ॥ 'इमीसे णमित्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपरि 'कियत् किंप्रमाणमवगाह्य-उपरितनभागात् कियद् अतिक्रम्येत्यर्थः अधस्तान् ‘कियत्' किंप्रमाणे वर्जयित्वा मध्ये 'कियति' किंप्रमाणे कियन्ति नर-1 कावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, भगवानाह-गौतम! अस्या रत्नप्रभाया: पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्याया उपर्येकं योजनसहनमवगाह्याधस्तादेकं योजनसहनं वर्जयित्वा 'मध्ये' मध्यभागे 'अष्टसप्तत्युत्तरे' अष्टसप्ततिसहस्राधिके योजनशतसहसे 'अत्र' एतस्मिन् रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां योग्यानि त्रिंशन्नरकाबासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपैश्च तीर्थकनिः, अनेन | सर्वतीर्थकृतामविसंवादिवचनता प्रवेदिता । तेणं नरगा' इत्यादि, ते नरका 'अन्तः' मध्यभागे 'वृत्ता' वृत्ताकाराः 'बहिः' बहिर्भागे | 'चतुरस्राः' चतुरस्राकाराः, इदं च पीठोपरिवर्तिनं मध्यभागमधिकृत्य प्रोच्यते, सकलपीठाद्यपेक्षया तु आवलिकाप्रविष्टा वृत्तव्यनच १ पूर्वभणितमा यत् पुनर्भण्यते तत्र कारणमस्ति । प्रतिषेधोऽनुशा कारणविशेषोपलम्भश्च ॥ १ ॥ [९५] |॥१०२॥ मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते-'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~ 207~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: (नैरयिक)-२], --- -------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] दीप अनुक्रम [९५]] तुरनसंस्थाना: पुष्पावकीर्णास्तु नानासंस्थाना; प्रतिपत्तव्याः, एतच्चाने स्वयमेव वक्ष्यति, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया” इति, “अधः' भूमितले क्षुरप्रस्येव-प्रहरणविशेषस्व (इव) यत् संस्थानम्-आकारविशेषस्तीक्ष्णतालक्षणस्तेन संस्थिताः क्षुरप्रसंस्थानसंस्थिताः, तथाहि-तेषु नरकावासेषु भूमितले ममृणवाभावत: शर्करिले पादेषु न्यस्थमानेषु शर्करामात्रसंस्पशेऽपि क्षुरप्रेणेव पादाः कृत्यन्ते, तथा "निश्चंधयार| तमसा" नित्यान्धकाराः उद्द्योताभावतो यत्तमस्तेन-तमसा नित्यं-सर्वकालमन्धकारो येषु ते नित्यान्धकाराः, वत्रापचरकादिध्वपि तमोऽन्धकारोऽस्ति केवलं स बहिः सूर्यप्रकाशे मन्दतमो भवति नरकेषु तु तीर्थकरजन्मदीक्षादिकालव्यतिरेकेणान्यदा सर्वकालमन्युद्योतलेशस्याप्यभावतो जात्यन्धस्येव मेघच्छन्नकालार्द्धरात्र इवातीव बलतरो भवति, दक्ष उक्तं तमसानित्यान्धकाराः, तमश्च वत्र सदाऽवस्थितमुद्योतकारिणामभावान् , तथा चाह.-"ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसपहा" व्यपगत: परिभ्रष्टो पहचन्द्रसूर्यनक्षत्र रूपाणाम् उपलक्षणमेतत्तारारूपाणां च ज्योतिष्काणां पन्था-मागों यत्र ते व्यपगतपहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिषकपथाः, तथा "मेयवसागर कापूयरुहिरमंसचिक्खिललित्ताणुलेवणतला" इति स्वभावतः संपन्नैर्मेदोवसापूतिकधिरमांसर्यशिक्खिलः-कर्दमस्तेन लिप्तम्-उप दिग्धम् अनुलेपनेन-सकृक्षितस्य पुनः पुनरुपलेपनेन तल भूमिका येपा ते मेदोवशापूतिरुधिरमांसचिक्खिल्ललिप्तानुलेपनवला अत बाएवाशुचय:-अपवित्रा बीभत्सा दर्शनेऽप्यतिजुगुप्सोत्पत्तेः परमदुरभिगन्धा:-मृतगवादिकडेवरेभ्योऽप्यतीवानिष्टदुरभिगन्धाः, 'का अगणिवन्नाभा" इति लोहे धम्यमाने यादृक् कपोतो-बहुकृष्णरूपोऽग्नेर्वर्णः, किमुक्तं भवति ?-याशी बहुकृष्णवर्णरूपाऽग्निज्वाला | विनिर्गच्छत्तीति, तादृशी भाभा-वर्णस्वरूपं येषां ते कपोताग्निवर्णाभाः, तथा कर्कश:-अतिदुस्सहोऽसिपत्रस्येव स्पशों येषां ते कर्कशस्पर्शाः, अत एष 'दुरहियासा' इति दुःखेनाध्यास्यन्ते-सह्यन्ते इति दुरण्यासा अशुभा दर्शनतो नरकाः, तथा गन्धजी०च०१ला ~ 208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------------ उद्देशकः [(नैरयिक)-२], --------------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] ॥१०३ दीप अनुक्रम श्रीजीवा- रसम्पर्शशदरशुभा-अतीवासातरूपा नरकेषु बेदना । एवं सर्वास्वपि पृथिवीबालापको बक्तव्यः, स चैवम्- सकरप्पभाए| प्रतिपत्ती जीवाभि भंते! पुरवीए, बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्साहलाए उवरि केवश्यं ओगाहित्ता हेहा केवइयं वजेत्ता मज्झे चेव केवइए| उद्देशः १ मलयगि- केवइया गिरयात्राससयसहस्सा पण्णत्ता', गोयमा सकरप्पभाए णं पुढबीए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उबरि एग जो- नरकाचारीयावृत्तिःलावणसहस्समोगाहित्ता हेडा एर्ग जोयणसहरसं बजेत्ता मझे तीसुत्तरजोयणसयसहस्से एत्थ णं सकरप्पभापुडविनेरइयाणं पण-18 | सस्वरूपं बीसा नरयावाससयसहस्सा भवतीति मक्खायं, ते गं गरगा अंतो बट्टा जाप असुभा नरएम वेयणा । वालुयप्पभाए | तत्स्थानं च उभंते ! पुढचीए अट्ठावीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उबरि केवइयं ओगाहित्ता हेवा केवइयं बज्जित्ता माझे केवइए केवश्या निर-1 | यावाससयसहस्सा पण्णत्ता, गोषमा चालुयप्पभाए पुढबीए अट्ठावीसुत्तरजोषणमयसहस्सबारमाए बरि एगं जोयणसहसं ओअगाहित्ता हेष्टुं एगं गोषणराहसं बजिता, मझेर छब्बीमुत्तरे जोबणसयसहस्मे पत्थ णं बालुयप्पभापुटबिनेरइयाणं पण्णरस निरया बासमयसहस्सा भदन्तीति मक्यायं, ते णं नरगा जाब असुभा नरगेसु वेयणा । पंकप्पभाए णं भंते ! पुढवीय वीमुत्तरजोयणमयसहन्मयाहल्लाए उवरि केवइयं ओगाहित्चा हेट्ठा केवइयं प्रनिता मजमे केवहा केबदया निरयावाससयसहम्सा पण्णता ?, गोयमा ! पंकप्पभाषणं पुढचीए वीसुत्तरजोयणसयसहस्सवाहलाए उवरि एग जोयणसहसं ओगाहित्ता हिवावि एर्ग जोयणसहस्सं वजेत्ता मझे अट्ठारसुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं पंकप्पभा पुढविणेरयाणं दस निरयावाससयसहस्सा निरयावासा भवतीति मक्खायं, ते णं सागरगा जाब असुभा नरगेसु बेयणा । धूमप्पभाए णं भंते ! पुढबीए अट्ठारसुत्तरजोयणसयसहलवाहलाए, डबरि केवइयं ओगाहेत्ता, हेडा केवयं बजित्ता मझे केवइए केवइया निरयावासमवसहम्सा पण्णता?, गोयमा धूमपभाए णं पुढवीए अट्ठारसुत्तरजोयणसबसह [९५] CA ॥१३॥ मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते-'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~ 209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------------------ मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % % प्रत सूत्रांक [८१] स्सबाहहाए उवरि एगं जोयणसहस्समोगाहेत्ता हेहा एग जोयणसहस्सं बज्जेत्ता मज्झे सोलसुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्य णं धूमापभापुढयिनेरझ्याणं सिन्नि नरइयावाससयसहस्सा भयंतीति मक्खाय, ते णं गरगा अंतो वट्टा जाव असुभा नरगेमु वेयणा इति, [अन्थाग्रम् ३०००1। तमप्पभाए णं भंते ! पुढबीए सोलमुत्तरजोयणसयसहस्सवाहलाए उबरि केवतियं ओगाहेत्ता हेटा केवतियं वजेत्ता | मझे केवतिए केवतिया नरगावाससयसहस्सा पणत्ता', गोयमा तमप्पभाए णं पुढबीए सोलसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्समोगाहेत्ता हेट्ठा एगं जोयणसयसहस्सं वजेत्ता मज्ने चोहसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं तमापुढाविनेरइयाणं एगे पंचूणे नरगावाससयसहस्से भवन्तीति मक्वायं. ते णं णरगा अंतो वट्टा जाव असुभा नरगेसु वेयणा । अहेसत्तमाए णं भंते ! पुडवीए अट्ठोत्तरजोयणसयसहस्सवाहलाए उवरि केवश्यं ओगाहेत्ता हेट्ठा केवइयं यजेत्ता मज्झे केवइए केवझ्या अणुत्तरा महइमहालया महानरगावासा पण्णत्ता'. गोयमा! अहेसत्तमात्र पुढवीए अट्टत्तर जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि अद्धतेवणं जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता। हेटावि अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साई वञ्जित्ता मज्ने तिस जोयणसहस्सेसु एत्थ णं अहेसत्तमपुढविनेरइयाणं पंच अणुत्तरा महइमहा-] लया महानिरया पण्णता, तंजहा-काले महाकाले रोकर महारोगए मज्झे अप्पइट्टाणे, ते णं महानरगा अंतो बट्टा जाव असुभा महा-1 नरगेसु वेयणा” इति । इयं च सकलमपि सूत्र सुगर्म, तत्र बाहल्यपरिमाणनरकावासयोग्यमध्यभागपरिमाणनरकावाससङ्ग्यानामिमाः सङ्घहणिगाथा:-आसीर्य बत्तीसं अट्ठावीसं तहेब वीसं च । अट्ठारस सोलसगं अत्तरमेव हेट्रिमया ॥ १॥ अहत्तरं च तीस Kालम्वीसं चेव सयसहस्सं तु । अट्ठारस सोल्लसगं चोदसमहियं तु छट्ठीप ।। ६ ।। अद्धतिवण्णसहस्सा उबरिमहे बजिऊण तो भणिया । *--54--X-2-% दीप अनुक्रम [९५] ~210~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशकः [(नैरयिक)-२], ------------------- मूलं [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्ती | उद्देशः १ नरकावासानो सं| स्थानं तदाहल्यं च [८२ दीप अनुक्रम [९६-९७] श्रीजीवा- मझे विसु सहस्सेसु होति निरया तमतमाए ॥ ३ ॥ तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दस चेय सयसहस्साई । तिनि य पणेगं 4-1 जीवाभिाव अणुत्तरा निरया ॥४॥" पाठसिद्धाः ॥ सम्प्रति नरकावाससंस्थानप्रतिपादनार्थमाहमलयगि-1 दुमीसे गंभंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरका किंसंठिया पपणत्ता?, गोयमा! दविहा पपणता. रीयावृत्तिः तंजहा-आवलियपविट्ठा य आवलियबाहिरा य, तत्थ णं जे ते आवलियपविठ्ठा ते तिविहा ॥१०४॥ पण्णत्ता, तंजहा-वहा तंसा चउरंसा, तत्थ णजे ते आवलिययाहिरा ते णाणासंठाणसंठिया पण्णता, तंजहा-अयकोढसंठिता पिढपयणगसंठिता कंडसंठिता लोहीसंठिता कडाहसंठिता थालीसंठिता पिहङगसंठिता किमियडसंठिता किन्नपुडगसंठिआ उडवसंठिया मुरवसंठिता मुयंगसंठिया नंदिमुयंगसंठिया आलिंगकसंठिता सुघोससंठिया दद्दरयसंठिता पणवसंठिया पडहसंठिया भेरिसंठिआ झल्लरीसंठिया कुतुंचकसंठिया नालिसंठिया, एवं जाव तमाए || अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए णरका किंसंठिता पणत्ता ?, गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-वहे य तंसा य ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका केवतियं बाहल्लेणं पपणत्ता?, गोयमा ! तिषिण जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ता, तंजहा-हट्ठा घणा सहस्सं मझे झुसिरा सहस्सं उपि संकुइया सहस्सं, एवं जाव अहेसत्तमाए । इमीसेणं भंते ! रयणप्प० पु० नरगा केवतिय आयामविक्रखंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णता, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, 2-53%-0%259594650* ॥१०४॥ कर मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते-'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~211~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------------------ मूलं [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक SANSAR [८२] दीप अनुक्रम [९६-९७] तंजहा-संखेजवित्थडा य असंखेजवित्थडाय, तत्थ णं जे ते संग्वेजवित्थडा ते णं संखेजाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं संखेजाई जोयणसहस्साई परिक्वेवेणं पण्णता तत्थ णं जे ते असंखेजवित्थडा ते असंखेजाई जोयणसहस्साई आयामविश्वंभेणं असंग्वेजाई जोयणसहस्साई परिक्खयेणं पण्णसा, एवं जाव तमाए, अहेसत्तमाए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा दुविहा पपणत्ता, तंजहा-संखेजवित्थडे य असंखेजवित्थडा य, तत्थ गंजे से संखेजवित्थडे से एक जोयणसयसहस्सं आयामविखंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साई दोन्नि य सत्ताबीसे जोयणसए लिन्नि कोसे य अट्ठावीसं च धणुसतं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलयं च किंचिविसेसाधिए परिक्वेवेणं पपणत्ता, तत्थ णं जे ते असंखेजवित्थडा ते णं असंग्वेजाई जोयणसयस हस्साई आयामविक्वंभेणं असंग्वेजाई जाव परिक्वेवणं पण्णत्ता (सू०८२) 'इमीसे गं भंते ! इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किमिव संखिताः किंसंस्थिताः प्रशता: ?, भगवानाहगौतम! नरका द्विविधाः प्रज्ञाः, तबधा-आवल्लिकाप्रविष्टाश्च आवलिकाबाहाश्च, चशब्दावुभयेषामप्यशुभवातुल्यतासूचकौ, आत्रलिकाप्रविष्टा नामाचासु दिनु समण्यवस्थिताः, आवलिकासु-श्रेणिषु प्रविष्ठा-व्यवस्थिता आवलिकाप्रविष्टाः, ते संस्थानमधिकृत्य त्रिविधा: प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-वृत्ताख्यसाधतुरमाः, तत्र येते आषलिकाबाह्यास्ते नानासंस्थानसंस्थिताः प्राप्ताः, तथथा-अय:कोष्ठोलोहमयः कोप्ठस्तद्वत्संस्थिता अयःकोष्ठसंस्थिताः, "पिपयणगसंठिया' इति यत्र सुरासंधानाय पिष्टं पच्यते तत्पष्टपचनक तव ~ 212~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------------------ मूलं [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 25 जीवाभि प्रत सूत्रांक सानां सं. [८२] द्वाहल्यं च दीप अनुक्रम [९६-९७] श्रीजीवा-सामखिना: 'पिडपयणगसंठिया' अत्र सतह णिगाथे-"अयकोपिट्ठपयणगहलोहीकडाहसंठाणा । थाली पिहङग किण्ह (ग) उडए] प्रतिपत्ती मुरवे मुयंगे य ॥ १॥ नंदिमुइंगे आलिंग सुघोसे दद्दरे व पणवे य । पडहगझलरिभेरीकुसुधगनाडिसंठाणा ॥ २॥" कण्ड:- उद्देशः १ मलयगि पाकस्थानं लोहीकटाही प्रतीतौ तद्वत्संस्थानाः स्थाली-उषा पिहर-यत्र प्रभूतजनयोग्य धान्यं पच्यते उटज:-तापसाश्रमो मुरजो- | नरकवारीयावृत्तिः|महलविशेषः नन्दीमृदङ्गो-द्वादशबिधनूर्यान्तर्गतो मृदङ्गः, स च द्विधा, सबथा-मुकुन्दो मर्दलच, तत्रोपरि सङ्कचितोऽधो विस्तीणों म-| कुन्दः उपर्यधक्ष समो गईल; आलिङ्गो-गन्मयो मुरज: सुघोषो-देवलोकप्रसिद्धो घण्टाविशेष आतोषविशेषो बा दर्दरो-याय- स्थानं न॥१०५॥ विशेषः पणवो-भाण्डानां पटहः परह:-प्रतीतः, भेरी-टका, झहरी-वर्गाचनद्धा बिसीर्णवलयाकारा, कुस्तुम्बकः-संप्रदायगन्धः, IN नाही-घटिका, एवं शेषास्वपि पृथिवीपु ताबद्वक्तव्यं यावत्यष्ठयां, सूत्रपाठोऽप्येवम्-"सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीण नरका किंसं-1 सू०८२ ठिया पत्ता, गोयगा! दुबिहा पन्नत्ता, तंजहा-आवलिकापविट्ठा य आवलियाबाहिरा य" इत्यादि । अधःसप्तमीविषयं सूत्र। साक्षादुपदर्शयति--'अहेसत्तमाए णं भंते !' इत्यादि, अधःसनम्यां भदन्त ! पृथिव्यां नरका: 'किंसंस्थिताः किमिय संस्थिताः। प्रज्ञता:', भगवानाह-गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वहे य तंसा य' इति, अधःसप्तम्यां हि पृथिव्यां नरका भावलिकाप्रविष्टा। एव न आवलिकाबाह्याः, आवलिकाप्रविष्टा अपि पश्च, नाधिकाः, तत्र मध्ये ऽप्रतिष्ठानाभिधानो नरकेन्द्रो वृत्तः, सर्वेपामपि नरकेभन्द्राणां वृत्तत्वात् , शेषास्तु चत्वारः पूर्वादिषु दिनु, ते च घ्यखाः, तन उक्तं वृत्तश्च न्यन्नाश्च ।। सम्पति नरकाबासाना बाहल्यप्रतिपाद bill१०५।। 15नार्धमाह-'इमीसे 'मित्यादि, अस्या भवन्त ! रत्नप्रभायां पृधिव्यां नरकाः कियवाहल्येन-बहलस्य भावो पाहल्य-पिण्डभाव दाउत्सेध इत्यर्थः तेन प्रज्ञापाः १, भगवानाह-गौतम : त्रीणि योजनसहमाणि थाहल्येन प्रामाः, ताथा-अधस्तने पादपीठे धना-निचिताः - मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते-'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८२] दीप अनुक्रम [ ९६-९७ ] उपांगसूत्र - ३ (मूलं+वृत्तिः) उद्देशक: [(नैरयिक)-२], प्रतिपत्ति: [३], मूलं [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः Jan Educator “जीवाजीवाभिगम" सहस्रं योजनसहस्रं, मध्ये - पीठस्योपरि मध्यभागे सुपिराः सहसंयोजनसहस्रं तत 'उष्पिं 'ति उपरि सङ्कुचिताः शिखरकृत्या स कोचमुपगता योजनसहस्रं तत एवं सर्वसया नरकावासानां त्रीणि योजनसहस्राणि वाहुल्यतो भवन्ति, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तम्यां तथा चोक्तमन्यत्रापि हा घणा सहस्सं प्रपि संकोचतो सहस्तं तु । मज्झे सहत सिरा तिन्नि सहस्सूसिया नरया ॥ १ ॥ सम्प्रति नरकवासानामायामविष्कम्भप्रतिपादनार्थमाह- 'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभावां पृथिव्यां नरकाः किंप्रमाणमायामविष्कम्भेन, समाहारो द्वन्द्वस्तेनायामविष्कम्भाभ्यामित्यर्थः कियत् 'परिक्षेपेण' परिरयेण प्रज्ञता: ?, भगवानाह - गौतम ! द्विविधाः प्रप्ताः, तद्यथा - सविताच असतेयविस्तृताञ्च सङ्ख्येययोजनप्रमाणं विस्तृतंविस्तरो येषां ते सोयविस्तृताः एवमसङ्ख्येयं विस्तृतं येषां ते असोय विस्तृता: चशब्दौ स्वगतानेकसा भेदप्रकाशनपरी, तत्र ये ते सत्येयविस्तृतास्ते सज्ञेयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेन सङ्ख्यानि योजन सहस्राणि परिक्षेपेण, तत्र ये तेऽसङ्ख्येय विस्तृतास्तेऽसयानि योजन सहस्राण्यायामविष्कम्भेन असङ्ख्यानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञमानि एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं याव स्पष्ठी प्रथित्री, सूत्रपाठस्त्वम् - सक्करम्पभाए णं भन्ते ! पुढबीए नरगा केवइयं आयामविक्रमेणं वइयं परिरयेणं पण्णत्ता ?, गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता, संजहा-संसेजवित्थडा य, असंखेजवित्थडा य" इत्यादि || 'अहेसत्तमाए णं भंते!" इत्यादि, अधः सप्तम्यां भदन्त ! पृथिव्यां नरकाः कियदायामविष्कम्भेन कियत्परिक्षेपेण प्रशप्ताः १, भगवानाह - गौतम! द्विविधाः प्रज्ञमाः तद्यथा-सोयविस्तृत एक:, स चाप्रतिष्ठानाभिधानो नरकेन्द्रकोऽवसातव्यः, असोय विस्तृताः शेषाञ्चत्वारः तत्र योऽसौ सत्येयविस्तृतोऽप्रतिष्ठानाभिधानो नरकेन्द्रकः स एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन त्रीणि योजनशतसहस्राणि पोडश सहस्राणि द्वे योजनशते विंशत्यधिके त्रयः For Pale & Personal Use Only ~ 214~ wwwbary ling Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८२] दीप अनुक्रम [ ९६-९७ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(नैरयिक)-२], मूलं [८२] आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्ति: [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित श्रीजीवा- क्रोशा अष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदश अङ्गुखानि अङ्गुलं च किञ्चिद्विशेपाधिकं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् इदं च परिक्षेपपरिमाणं गणितभाजीवाभिवनया जम्बूद्वीपपरिक्षेपपरिमाणबद्भावनीयं तत्र ये ते शेषाञ्चत्वारोऽसङ्ख्येय विस्तृतास्तेऽसङ्ख्यानि योजन सहस्राण्यायामविष्कम्भेनासमलयगि-यानि योजनसहस्राणि परिक्षेषेण प्रज्ञप्रानि || सम्प्रति नरकावासानां वर्णप्रतिपादनार्थमाहरीयावृत्तिः ।। १०६ ।। इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरया केरिसया वण्णेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! काला कालावभासा गंभीर लोमहरिसा भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता, एवं जाब अधेसत्तमाए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णरका केरिसका गंधेणं पण्णत्ता ?, गोयमा ! से जहाणामए अहिमडेति वा गोमडेति वा सुणगमडेति वा मज्जारमडेति वा मणुस्समदेति वा महिसमडेति वा मूसगमडेति वा आसमडेति वा हत्थिमडेति वा सीहमदेति वा वरघमदेति वा विमति वा दीयमडेति वा मयकुहियचिरविणकुणिमवावण्णदुभिगंधे असुहविलीणfaraateesataणजे किमिजाला उलसंसत्ते, भवेयारूवे सिया ?, णो इणडे समडे, गोयमा ! इसे णं रणभre पुढवीए परगा पत्तो अतिरका चैव अकंततरका चेव जाव असणामतरा चैव गंधेणं पण्णत्ता, एवं जाव अर्धसत्तमाए पुढवीए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० रया केरिया फासेणं पण्णत्ता ?, गोयमा ! से जहानामए असिपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा कलचीरियापत्ते वा सग्गेइ वा कुंतग्गेइ वा तोमरग्गेति वा नारायग्गेति वा सूलग्गेति वा लड For P&False City मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते - उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~ 215~ ३ प्रतिपत्ती उद्देशः १ नरकावासानां वर्णादि * सू० ८३ ॥ १०६ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ---------------.....--- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], .....................- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३] 6- 0 लग्गेति वा भिंडिमालग्गेति वा सूचिकलावेति वा कवियच्छूति वा विंचुयकंटएति वा इंगालेति चा जालेति चा मुम्मुरेति वा, अञ्चिति वा अलाएति वा सुद्धागणीइ वा, भवे एतारूवे सिया?, णो तिणहे समझे, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढचीए णरगा एत्तो अणिदुतरा चेव जाव अम पामतरका चेव फासे णं पण्णात्ता, एवं जाव अधेसत्तमाए पुढवीए॥ (सू०८३) 'इमीसे णं भंते !' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरका: कीदृशा वर्णेन प्रज्ञप्ता:?, भगवानाह-गौतम ! काला:, तत्र कोऽपि निष्प्रतिभतया मन्दकालोऽप्याशङ्कवेत ततस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह-कालावभासाः' काल:-कृष्णोडधावभास:-प्रतिभाविनिर्गमो येभ्यस्ते कालावभासाः, कृष्णप्रभाफ्टलोपचिता इति भावः, अत एव 'गम्भीररोमहर्षाः' गम्भीर:-अती-| बोत्कटो रोमहर्पो-रोमोपों भयवशा वेभ्यस्ते गम्भीररोमहर्षाः, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम ते कृष्णावभासा यदर्शनमात्रेणापि नारकजन्तूनां भयसम्पादनेन अनर्गलं रोमहर्षभुत्पादयन्तीति, अत एव भीमा-भयानका भीमखादेव उनासनकाः, उपास्यन्ते नारका । जन्तब एभिरिति उपासना उपासना एव उपासनकाः, फि बहुना?-वर्णेन' वर्णमधिकृत्य परमकृष्णाः प्रज्ञप्ताः, यत ऊबै न | किमपि भयानक कृष्णमस्तीति भावः, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तम्याम् ॥ गन्धमधिकृत्याह-इमीसे णं भंते !! इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! नद्यथा नाम-'अहिमृत इति वा' अहिमृतो नाम मृताहिदेहः, एवं सर्वत्र भावISIनीय, गोमूत इति वा अश्वमृत इति वा मार्जारभूत इति वा हस्तिमृत इति वा सिंहमृत इति वा व्याघ्रमृत इति वा द्वीप:-चित्रका, दासर्वत्र अहिश्चासौ मृतश्च अहिमृत इत्येवं विशेषणसमासः, इह मृतकं सद्यःसंपन्नं न विगन्धि भवति तत आह-'मयकुहियविणड दीप अनुक्रम 95%E 4-% % [९८ % 0 *%A-24 - ~ 216~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: (नैरयिक)-२], --- -------- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- कुणिमवावणे'सादि, मृतः सन् कुधित:-पूतिभावमुपगतो मृतकुथितः, स चोच्छनावस्थामात्रगतोऽपि भवति, न च स तथा विग-1 प्रतिपत्ती जीवाभि०लान्धस्तत आह-विनष्ट: उच्छूनावस्यां प्राप्य स्फुटित इति भावः, सोऽपि तथा दुरभिगन्धो न भवति तत आह-'कुणिमवावपण चि | उद्देशः१ मलयगि-1 व्यापन्नं-विशरामभूतं कुणिमं-मांसं यस्य स तथा, ततो विशेषणसमासः, 'दरभिगन्धः' इति दुरभिः-सपामाभिमुख्येन दुष्टोनरकाबारीयावृत्तिः गन्धो यस्यासौ दुरभिगन्धः, अशुचिश्च विलीनो-मनसः कलिमलपरिणामहेतुः 'विगय' इति विगतं प्रनष्टं यदभिमुखतया प्राणिनां | PA साना लगत-नामनं यस्मिन , तथा वीभत्सया-निन्दया दर्शनीयो वीभत्सादर्शनीयः दत्तो विशेषणसमासः अशुचिविगतवीभत्सादर्शनीयः वर्णादि ॥१०॥ किमिजालाउलसंसत्ते' इति संसक्तः सन कृमिजालाकुलो जातः कृमिजालाकुलसंसक्तः, मयूरव्यंसकादित्वात्समासः संसक्तशब्दस्य च | सु०८३ परनिपातः, एतावत्युक्ते गौतम आह-भवे एयारूवे सिया?" इति, स्याद् भवेद्-भवेयुरेतद्रपा:-यथोक्तविशेषणविशिष्टा अहिमृतादिसारूपा गन्धनाधिकृता नरकाः, सूत्रे च बहुवचनेऽप्येकवचनं प्राकृतवान् , भगवानाह-गौतम ! 'नायमर्थः समर्थों' नायमर्थ उपपन्नो, यतोऽस्या रजप्रभायां पृधियां नरका इतो-यथोक्तविशेषणविशिष्टाहिमृतादेरनिष्टतरा एव, तत्र किश्चिदम्यमपि कस्याप्यनिष्टतरं भवति तत आह-अकान्ततरा एव-खरूपतोऽप्यकमनीयतरा एच, अभव्या एवेति भावः, तत्राकान्तमपि कस्यापि प्रियं भवति यथा गर्चाशूकरस्याशुचिः, तत आह-अप्रियतरा एव न कस्यापि प्रिया इति भावः, अत एवामनोज्ञतरा एव, अमनआपतरा एव गन्धमधिकृत्य प्रज्ञता:, नत्र मनोनं-मनोऽनुकूलमात्रं यत्पुनः स्वविषये मनोऽत्यन्तमासक्तं करोति तन्मनआपम् , एकाथिका वा एते सर्वे शब्दाः शक्रेन्द्रपुरदरादिवम् नानादेशजविनेयजनानुग्रहार्थमुपात्ताः, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां ताबद्वक्तव्यं यावदनःसप्तम्याम् ।। स्पर्शमधिकृत्याह-'इमीसे | १०७॥ 'मित्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! तद्यथा नाम-'असिपत्रमिति वा' असि:-खड़ तस्य पत्रमसिपत्रं भुरप्रमिति त्रा [९८] Eml मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते-'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~217~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ....................--- उद्देशक: (नैरयिक)-२], ................-- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - प्रत *--CA सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम कदम्बचीरिकापत्रमिति वा, कदम्बचीरिका-तृणविशेषः, स च दर्भादप्यतीब छेदकः, शक्ति:-प्रहरणविशेपत्तदअभिति वा. कुन्तायमिति बा. तोमरामिति वा, भिण्डिमाल:-प्रहरणविशेषस्तदद्ममिति वा, सूचीकलाप इति वा, वृश्चिकर्दश इति वा, कपिकस्टूरिति | वा, कपिकच्छू:-कण्डविजनको वलीविशेषः, अङ्गार इति वा, अङ्गारो-नि मानिः, बालेति बा, आला-अनलसंबद्धा, मुर्मुर इति | वा, मुर्मुर:-फुस्फुकादौ मसृणोऽग्निः, अचिरिति वा, अर्चि:-अनलविच्छिन्ना बाला. अलातम्-उल्मुकं, शुद्धाग्निः-अयस्पिण्डाद्यनुगतोऽग्निविदादादिर्या, इतिशब्दः सर्वत्रापि उपमाभूतवस्तुस्वरूपपरिसमाप्रिद्योतकः, बाशब्दः परस्परसमुजये, इह कस्यापि नरकस्य स्पर्शः शरीरावयवच्छेदकोऽपरल भेदकोऽन्यस्य व्यथाजनकोऽपरस्य दाहक इत्यादि ततः साम्यप्रतिपयर्थमसिपत्रादीनां नानाविधानामुपमानानामुपादानं, 'भधे एयारूवे सिया? इत्यादि प्राग्वत् ।। सम्प्रति नरकाबासानां महत्त्वमभिधित्सुराह इमीमे गं भने । रयणप्पभाए पुढवीए नरका केमहालिया पण्णता?, गोयमा ! अयणं जंबुद्दीवे सव्वदीवसमुदाणं सम्बन्भतरए सब्बखुट्टाए वह तेल्लापवसंठागसंठिसे बहे रथचकवालसंठाणसं. ठिनं पुक्खरकापिणयासंठाणसंठिते चट्टे पडिपुण्णचंदसंटाणसंठिने एक जोयणसतसहस्सं आयामविकावंभेणं जाव किंचिविसेसाहिए परिक्वेवेणं, देवे गं महिड्डीए जाव महाणुभागे जाव एणामेव इणामेचत्तिकद इस केवलकप्पं जंबुद्दीवंतिहिं अच्छरानिवापहि तिसत्तक्खुत्तो अणुपरियहिता णं हय्यमागच्छेजा, से णं देवे ताए उकिटाग तुरिताप चवलाप पंडाए सिग्याए उडुयाए जयणाए लिंगाप] दिब्बाए दिब्वगतीए बीतिक्यमाणे जगणं एगाई वा दुयाहं वा [९८ -RECRes 1 %ka ~ 218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------------------ मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रतिपत्ती प्रत सूत्रांक [८४] उद्देशः१ नरकावासानां महत्ता सू०८४ दीप अनुक्रम श्रीजीवा- तिआहं वा 'उकोसेणं छम्मासेणं वीतिवएज्जा, अत्थेगतिए वीहवएजा अत्थेगतिए नो वीतिवएजा. जीवाभिः एमहालता णं गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए गरगा पण्णत्ता, एवं जाव अधेसत्तमाए, मलयगि- णवरं अधेसत्तमाए अत्थेगतियं नरगं धीहवइजा, अत्धेगहए नरगे नो वीतिवराजा ।। (सू०८४) रीयावृत्तिः 'इमीसे णमित्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः 'किंमहान्तः' किंप्रमाणा महान्तः प्रज्ञमाः १, पूर्व हासायवि-| स्तृता इति कथितं, तचासयत्वं नावगम्यत इति भूयः प्रभः, अत एवात्र निर्वचनं भगवानुपमयाऽभिधत्ते, गौतम! अयमिति यत्र ॥१०८॥ संस्थिता वयं णमिति वाक्यालङ्कारे अष्टयोजनोतिया रत्नमय्या जम्घा उपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां-धातकीखदण्डलवणादीनां सर्वाभ्यन्तर:-आदिभूतः 'सर्वक्षुल्लकः' सर्वेभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको-हवः सर्वक्षुल्लकः, तथाहि-सवे लवणादयः समुद्राः सर्वे धातकीखण्डादयो द्वीपा अस्माजम्यूद्वीपादारभ्य प्रवचनोक्तेन क्रमेण द्विगुणद्विगुणायामविष्कम्भपरिधयः ततोऽयं शेषसर्वद्वीपसमुद्रापेक्षया सर्वलघुरिति, तथा वृत्तो यतः 'तैलापूपसंस्थानसंस्थितः' तैलेन पकोऽपूपस्तैलापूपः, तैलेन हि पकोऽपूपः प्रायः परि| पूर्णवृत्तो भवति न घृतेन पक इति तैलविशेषणं, तस्येव संस्थान तैलापूपसंस्थानं तेन संस्थितसैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो यतः । पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो यतो रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो यत: परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः, अनेकधो पमानोपमेयभावो नानादेशजविनेयप्रतिपयर्थः, एक योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन त्रीणि योजनशतसहस्राणि पोडश सहस्राणि द्वे || &ा योजनशते सप्तविंशे त्रयः क्रोशा अष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदश अङ्गुलानि अ गुलं च किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, परिक्षे पपरिमाणगणितभावना क्षेत्रसमासटीकातो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीकातो वा वेदितव्या । 'देवे ण'मित्यादि, देवश्च णमिति वाक्याल [९८ ॥१०८ मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने अत्र मुद्रण-दोष: दृश्यते-'उद्देश: २' स्थाने 'उद्देश: १' इति मुद्रितं ~219~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: (नैरयिक)-२], --- -------- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम कारे, 'महर्द्धिकः' महती ऋद्धिर्विमानपरिवारादिका यस्य स महर्द्धिकः, महती युतिः शरीराभरणविषया यस्य स महायुतिकः, महद् | बलं-शारीरः प्राणो यस्य स महाबलः, महद् यशः-ख्यातिर्यस्य स महायशाः, तथा 'महेसक्खें' इति महेश इति महान ईश्वर इयाख्या यस्य स महेशाख्यः, अथवा ईशनमीशो भावे घप्रत्यय ऐश्वर्यमित्यर्थः, 'ईशं ऐश्वर्य' इति वचनात् , तत ईशम्-ऐश्वर्यमात्मनः | | ख्याति--अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयति-प्रथयति ईशाख्यः, महांश्चासावीशाख्यश्च महेशाख्यः, कचित् 'महासोक्खे' इति पाठः, तत्र महत् सौख्यं यस प्रभूतसदोदयवशात्स महासौख्यः, अन्ये पठन्ति-'महासक्खे' इति तत्राय शब्दसंस्कारो-महाश्वाक्षः, इयं चात्र पूर्वाचार्यप्रदर्शिता व्युत्पत्ति:-आशुगमनादश्वो-मन: अक्षाणि-इन्द्रियाणि स्वविषयव्यापकत्वात् अश्वश्चाक्षाणि च अश्वाभाणि महान्ति अश्वाक्षाणि यस्यासौ महावाक्षः, तथा 'महाणुभागे' इति अनुभागो-विशिष्टवैक्रियादिकरणविषयाऽचिन्त्या शक्ति: 'भागोऽचिंता सत्ती इति वचनान् , महान अनुभागो यस्य स महानुभागः, अमूनि महर्द्धिक इत्यादीनि विशेषणानि तत्सामातिशवप्रतिपादकानि यावदिति चप्पुटिकात्रयकरणकालावधिप्रदर्शनपरम, 'इणामेव इणामेवेतिकट्ट' एवमेव मुधिकया एवमेव 'मोरकुला मुहा य मुहियत्ति नायव्वा' इति वचनाद् अवज्ञयेति भावः, उक्त च मूलटीकायाम् "इशामेव इणामेवेति कट्ट एवमेव मुधिकयाऽत्रज्ञयेति" 'इतिकृत्वे'लि हस्तदर्शितचप्पुटिकानयकरणमूचकं केवलकल्प-परिपूर्ण जम्बूद्वीपं त्रिभिरप्सरोनिपातः, अप्सरोनिपातो नाम | चप्पुटिका, तत्र तिमभिचप्पुटिकाभिरिति द्रष्टव्यं, चप्पुटिकाच कालोपलक्षणं, ततो यावता कालेन तिम्रश्चप्पुटिका: पूर्यन्ते तावपात्कालमध्य इत्यर्थः, त्रिसप्तकृत्यः-एकविंशतिवारान अनुपरिवर्त्य-सामस्त्येन परिभ्रम्य 'हव्व' शीघमागच्छेन् , स इत्यम्भूतगमन शक्तियोग्यो देवः तया देवजनप्रसिद्ध्या उत्कृष्टया प्रशस्त विहायोगतिनामोदयात्प्रशस्तया शीघसंचरणात्वरितया लरा संजाताऽस्यामिति जी०च०१९/ [९८] ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशकः [(नैरयिक)-२], ------------------- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- त्वरिता तया खरितया शीवतरमेव तथा प्रदेशान्तराक्रमणमिति, अपलेव चपला वया, क्रोधाविष्टस्येव अमासंवेदनान् चण्डेव चण्डा प्रतिपत्ती जीवाभि तया, निरन्तरं शीघ्रलगुणयोगान् शीशा तया शीघ्रया, परमोत्कृष्टवेगपरिणामोपेता जवना तया, अन्ये तु जितया विपक्षजेतृलेनेति उद्देशः २ मलयगि- व्याचक्षते, 'छेकया निपुणया, वातोद्धृतस्य दिगन्तव्यापिनो रजस इव या गति: सा उद्धृता तया, अन्ये लाहु:-उद्धतया दातिशये- नरकावारीयावृत्तिः नेति, 'दिव्यया' दिवि-देवलोके भवा दिव्या तया देवगत्या व्यतित्रजन् जघन्यत: 'एकाहं वा एकमहर्यावन् , एवं व्यहं त्र्यमुत्क- सप्रमाण पत: पण्मासान यावद् व्यतित्रजेत् , तत्रास्त्येतद् यदुत एककान् कांचन नरकान 'व्यतिव्रजेत्' उल्लव परतो गच्छेत् , तथाऽस्येतद् नरकावा1: यदुत इत्थंभूत यापि गत्या षण्मासानपि यावन्निरन्तरं गच्छन् एककान् कांश्चन नरकान् 'न व्यतित्रजेत्' नोला परतो गच्छेन्, सशाश्वत अतिप्रभूताऽऽयामतया तेपामन्तस्य प्रानुभशस्यत्वान , एतावन्तो महान्तो गौतम! अवां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः प्रज्ञताः, एवमेकैा तरत्वे कस्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावद्धःसतम्यां, नबरमधासप्तन्यामेवं वक्तव्यम्-"अत्थेगइयं नरगं वीइवएना अत्यंगइए नरगे नो० ८५ वीइवएजा" अप्रतिष्ठानाभिवबैकस्य नरकस्य लक्षयोजनायामविष्कम्भतयाऽन्तस्य प्राप्तुं शक्यत्वात् शेषाणां च चतुर्णामतिप्रभूतासवे-15 ययोजनकोटीकोटीप्रमाणवेनान्तस्य प्राप्नुमशक्यत्वात् ।। सम्प्रति किमया नरका इति निरूपणार्थमाह इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा किंमया पण्णत्ता?, गोयमा! सव्वबहरामया पण्णता, तत्थ णं नरएस बहवे जीवा य पोग्गला य अवकमति विउक्कमति चयंति उबवज्जति, सा- ID॥१०॥ सता णं ते णरगा दचट्टयाए वषणपजवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपजवेहिं फासपजवहि असासया, एवं जाव अहेसत्तमाए ॥ (सू०८५) [९८] laEcuamind ~221~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: (नैरयिक)-२], --- -------- मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५] * -- * - दीप अनुक्रम 'इमीसे णं भंते !' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रमप्रभायां पृथिव्यां नरका: 'किमया' किंविकाराः प्रज्ञता:?, भगवानाह-गौतम! | 'सव्ववइरामया' इति सीमना वनमया: प्रज्ञप्ताः, वनशब्दस्य सूत्रे दीर्घान्तता प्राकृत त्वान् , 'तत्र च तेषु नरकेषु णभित्ति वाक्यालङ्कारे बहवो जीवाश्च खरवादरथिवीकायिकरूपाः पुद्गलाब 'अपकामन्ति' क्यबन्ते 'व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते, एतदेव शब्दद्वयं यथाक्रम पर्यायद्वयेन व्याचष्टे-'चयंति उववजंति' च्यवन्ते उत्पद्यन्ते, किमुक्तं भवति ?-एके जीवाः पुद्गलाश्च यथायोगं गच्छन्ति अपरे लागल्छन्ति, यस्तु प्रतिनियतसंस्थानादिरूप आकार: स तदवस्थ एवेति, अत एवाह-शाश्वता णमिति पूर्ववत् ते नरका द्रव्या तया तथाविधप्रतिनियतसंस्थानादिरूपतया वर्णपर्यायर्गन्धपर्याय रसपर्यायैः स्पर्शपर्यायैः पुनरशाश्वताः, वर्णादीनामन्यथाऽन्यथाभव४ानान् , एवं प्रतिपृथिवि तावरक्तव्यं यावद्धःसप्तनी पुथिवी । साम्प्रतमुपपातं विचिचिन्तयिपुराह इमीसे भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया कतोहिंतो उववजंति किं असणीहिंतो उबवजंति सरीसिवेहिंतो उववज्जति पक्वीहिंतो उववजंति चउप्पएहितो उववज्जति उरगेहिंतो उववजंति इत्थियाहिंतो उववजंति मच्छमणुषांहतो उपवनंति?, गोयमा! असणीहिंतो उववज्जति जाव मच्छमणुएहिंतोवि उववजति,-असण्णी खलु पढम दोचं च सरीसिवा ततिय पक्खी। सीहा जति चउथी उरगा पुण पंचमी जति ॥१॥छद्धिं च इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि जंति। जाव अधेसत्तमाए पुढवीए नेरहया णो असण्णीहिंतो उववति जाव णो हस्थियाहिंतो उबव१ (संसासु इमाए गाहाए अशुगंतव्या, एवं एतेणं अभिलायेणं इमा गाथा घोसेयच्या). - % [९९] 90 ॐ ~222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८६] + गाथा दीप अनुक्रम [१०० -१०२] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(नैरयिक)-२], मूलं [८६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ११० ॥ ति मच्छमस्सेहिंतो उबवजंति । इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० णैरतिया एकसमपूर्ण केवतिया उववजंति?, गोयमा ! जहपणेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखिज्ञा वा उबवजंति, एवं जाव अधेसत्तमाए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पुढवीए रतिया समए समय अबहीरमाणा अबहीरमाणा केवनिकालेणं अवहिता सिता?, गोयमा! ते णं असंखेला समएसमए अवरमाणा अवहीरमाणा असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओसपिणीहिं अवहीरंति नो चेव पणं अवहिता सिता जाव अधेसत्तमाः ॥ दमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० रतियाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता?, गोगमा ! दुबिहा सरीरोगाहणा पण्णत्ता, तंजहा - भवधारणिज्जा य उत्तरवेउच्चियाय, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्ञा सा जहनेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उकोसेणं सत्त धणू निष्णि य रयणीओ छच अंगुलाई, तत्थ णं जे से उत्तरवेउब्विए से जह० अंगुलस्स संग्वेज्जतिभागं उक्को० पण्णरस धणूई अड्डाहजाओ रयणीओ, दोचाए भवधारणिजे जहण्णओ अंगुलासंखेज्जभागं उक्को० पण्णरस घणू अड्डाइजातो रयणीओ उत्तरवेडब्बिया जह० अंगुलस्स संग्वेज्जभागं उक्को० एकतीसं धणूई एक्का रयणी, तथाए भवधारणिजे एकतीसं धणू एक्का रयणी, उत्तरवेउच्चिया बासहिं धणू दोण्णि रयणीओ, चउत्थीए भवधारणिजे वासद्व ध णूइं दोणि य रथणीओ, उत्तरवेडब्बिया पणवीसं धणुसयं, पंचमीए भवधारणिजे पणवीसंघ For P&Praise City ~ 223~ ३ प्रतिपत्ती उद्देशः २ उपपातः संख्या X वगाहना मानं सू० ८६ ★ ॥ ११० ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------- ------------ उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------- --------- मूलं [८६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक णुसर्य, उत्तरवे० अड्डाइजाई धणुसयाई, छट्ठीए भवधारणिज्जा अड्डाइजाई धणुसयाई, उत्तरवेउब्विया पंचधणुसयाई, सत्तमाए भवधारणिजा पंचधणुसयाई उत्तरवेउविए धणुसहस्म ॥ [८६] गाथा दीप अनुक्रम [१०० 'इमीसे ण'मित्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कुत उत्पदान्ते ?, किमसज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते सरीसृपेभ्य उत्पधन्ते पक्षिभ्य उत्पद्यन्ते चतुष्पदेभ्य उत्पयन्ते उरगेभ्य उत्पद्यन्ते स्त्रीभ्य उत्पद्यन्ते मत्स्यमनुष्येभ्य उत्पयन्ते ?, भगवानाह-गौतम असज्ञिभ्योऽध्युत्पद्यन्ते यावन्मत्स्यमनुष्येभ्योऽप्युत्पद्यन्ते, 'सेसासु इमाए गाहाए अणुगंतव्या' इति, 'शेषासु' शर्कराप्रभाविपु| पृथिवीवनया गाथया, जातायेकवचनं गाथाद्विकेनेत्यर्थः, उत्पद्यमाना अनुगन्तव्याः, तदेव गावाद्विकमाह-'अस्सपणी खलु पढम मित्यादि, असज्ञिन:-संमूछिमपञ्चेन्द्रियाः खलु प्रथमां नरकपृथिवीं गच्छन्ति, खलुशब्दोऽवधारणे, तथा अवधारणमेवम्-असजिनः प्रथमामेव यावद् गच्छन्ति न परत इति, नतु त एव प्रथमामिति गर्भजमरीमपादीनागपि उत्तरपथिवीपटगामिनां तत्र *गमनात, एवमुत्तरत्राप्यवधारणं भावनीयम । 'दोचं च सरीसिवा' इति द्वितीयामेव शर्कराप्रभायां पृथिवीं यावद्छन्ति सरी-14 | सपा:-गोधानकुलादयो गर्भासुरकान्ता न परतः, तृतीयामेव गर्भजाः पक्षिणो गृध्रादयः, चतुर्थीमेव सिंहाः, पञ्चमीमेव गर्भजा | उरगाः, पष्ठीमेव नियः स्त्रीरश्नानगा महाराध्यवसायिन्यः, सममी यावद् गर्भजा मत्स्या मनुजा अतिक्रूराध्यवसायिनो महापापकारिणः, आलापकश्च प्रतिपृथिवि एवम् – सकरप्पभाए गं भंते ! पुढबीए नेरइया किं असण्णीहितो उववजति जाब मच्छमणुए हितो उवत्रजति !, गोयमा ! नो असन्नीहितो उवव जति सरीसिवेहितो उबवनंति जान सच्छमणुस्सेहिं तो उववजति । बालुयप्पभाए गं भंते ! -१०२] 9- 44 Ema ~ 224~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८६] + गाथा दीप अनुक्रम [१०० -१०२] प्रतिपत्ति: [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि• रीयावृत्तिः ॥ १११ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - Jan Ebctur उद्देशकः [(नैरयिक)-२], मूलं [८६] + गाथा आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः पुढवीर नेरश्या किं असण्णीहिंतो उववनंति जात्र मच्द्धमगुएहिंतो उबवजंति ?, गोत्रमा! तो असण्णीहिंतो उवजंति नो सरीसिवेहिंतो उबवजंति एक्सीहिंतो उववर्जति जाव मच्छमणुस्सेहिंतो उवयनंति" एवमुत्तरोत्तरपृथिव्यां पूर्वपूर्वप्रतिषेधसहितोत्तरप्रतिषेधस्तावदुक्तम्यो यावदधः सम्यां स्त्रीभ्योऽपि प्रतिषेधः, तत्सूत्रं चैवम् असत्तमाए णं भंते! पुढate नेरter fi reण्णीहिंतो अंति जाब मच्छमणुस्सेहिंतो ववजंति ?, गोयमा ! तो असण्णीहिंतो उववति जाय तो इत्थीहिंतो उवववंति मच्छमणुस्सेहिंतो | उबवजंति" ।। सम्प्रत्येकस्मिन् समये कियन्तोऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नारका उत्पयन्ते ? इति निरूपणार्थमाह । (इमीसेर्ण) 'रयणप्पभापुढविए नेरइया णं भंते!' इत्यादि स्त्रप्रभापृथिवीनैरविका भदन्त ! एकसमयेन कियन्त उत्पद्यन्ते ?, भगवानाह - गौतम ! ज धन्यतएको वा त्रयो वा उत्कर्षतः सोया असङ्ख्या वा एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याम् ॥ सम्प्रति प्रतिसमय मे कैकनारकापहारे सकलनारकापहारकालमानं विचिचिन्तयिपुरिदमाह - रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते!" इत्यादि, रत्न- ५ प्रभापृथिवीनैरविका भदन्त ! समये समय एकैकसङ्ख्यया अपदियमाणाः २ किवता कालेन सर्वासनाऽपहियन्ते ?, भगवानाह गौतम ! * 'ते णं असंखेज्जा समए २ अवहीरमाणा' इत्यादि ते प्रभापृथिवीनैरयिका असङ्ख्यास्ततः समये समय एकैकपया अप हियमाणा असङ्ख्याभिरुत्सपिण्यव सर्पिणीभिरपहियन्ते इदं च नारकपरिमाणप्रतिपत्त्यर्थं कल्पनामात्रं, 'नो चेव णं अवहिया सिया' इति न पुनरपड़ताः स्युः किमुक्तं भवति ? - न पुनरेवं कदाचनाप्यपहृता अभवन् नाप्यपयिन्ते नाप्यपहरिष्यन्त इति एवं ॐ पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्रम्याम् ॥ सम्प्रति शरीरपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह 'रयणप्पभापुढवी' इत्यादि, रत्नमभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त 'किंमहती' किंप्रमाणा महती शरीरावगाहना प्रज्ञता ?, 'जहा पण्णवणाए ओगाहण संठाणपदे' For P&Praise City ~225~ ३ प्रतिपत्तौ उद्देशः २ उपपातः संख्यावगाहनामानं सू० ८६ ॥ १११ ॥ my Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------ ------------ उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------ --------- मूलं [८६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 0-0 SAA - * [८६] गाथा इति, यथा प्रज्ञापनायामवगाहनासंस्थानाख्यपदे तथा वक्तव्या, सा चैव-द्विविधा रत्नप्रभापृथिवीनरयिकाणां शरीरावगाहना-भवधारणीया उत्तरवैक्रिया च, तत्र या सा भवधारणीया सा जघन्यतोऽङ्गुलासयभाग उत्कर्षतः सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षट् परिपूर्णान्यकुलानि, उत्तरक्रिया जपन्यतोऽङ्गलसोयभाग उत्कर्षतः पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्ताका वितस्तिः, शर्फराप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासवधेयभाग उत्कर्षतः पश्चदश धपि द्वौ हस्तावका क्तिस्तिः, उत्तरवैफिया जपन्यतोऽलसयेयभाग उत्कर्षत एकत्रिंशद्धपि एको हस्तः, चालुकाप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गलासमवेयभाग उत्कर्पत एकत्रिंशद्धपि एको हस्त:, 'उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽङ्गुलसहयेयभाग उत्कर्षतः सादीनि द्वापष्टिधनूंषि, पङ्कुप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गलासयभाग उत्कर्षतः सा नि द्वाषष्टिधनूंषि, उत्तरक्रिया जधन्यतोऽङ्गुलसयेयभाग उत्कर्षतः पञ्चविंशं धनुःशतं, धूमप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासयेयभाग उत्कर्षतः पञ्चविंशं धनुःशतं, उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽङ्गलसरेयभाग उत्कर्षतोऽर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि, तम:प्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गलासयेयभागमात्रा उत्कर्षतोऽर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि, उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽङ्गलस ये यभाग उत्कर्षतः पञ्चधनुःशतानि, तमस्तम:प्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासद्धयेयभाग उत्कर्षत: पञ्च धनुःशतानि, उत्तरवैक्रिया जधन्यतोऽङ्गुलसङ्घयेयभाग, उत्कर्षतो धनुःसहसमिति । यदि पुनः प्रतिप्रस्तटे चिन्ता क्रियते तदैवमवगन्तव्या-तत्र जघन्या भवधारणीया सर्वत्राप्यङ्गलासयेयभागः, उत्तरवैक्रिया तु अङ्गुलसोयभागः, उक्तं च मूलटीकाकारेणान्यत्र- उत्तरवैक्रिया तु तथाविधप्रयत्राभावादाद्यसमयेऽप्यनुलसङ्ख्येयभागमात्रैवे"ति, उत्कृष्टा तु भवधारणीयाया रसप्रभाया: प्रथमे प्रस्तटे त्यो हस्ता अव ऊध्र्व क्रमेण प्रतिप्रतटं सार्द्धानि पट्पञ्चाशदङ्गुलानि प्रक्षिप्यन्ते, तत एवं परिमाणं भवति, द्वितीये प्रस्तटे धनुरेकमेको हस्त: सार्द्धानि चाष्टावङ्गुलानि, तृतीये धनुरेक दीप अनुक्रम [१०० RE5% 97% CACACACASS -१०२] ~ 226~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६] गाथा श्रीजीवा- त्रयो हस्ताः सप्तदशाङ्गुलानि, चतुर्भे द्वे धनुषी द्वौ हस्ती सार्द्धमेकमङ्गुलं, पञ्चमे त्रीणि धनूंषि दशाङ्गुलानि, षष्ठे त्रीणि धनूंपि द्वौ प्रतिपत्तो जीवाभिहस्ती सार्वान्यष्टादशाङ्गलानि, सप्तमे चत्वारि धपि एको हस्तस्त्रीणि चाङ्गुलानि, अष्टमे चत्वारि धनूंधि त्रयो हस्ताः सार्खान्येका- उद्देशः२ मलयगि- दशाङ्गलानि, नवमे पञ्च धपि एको हलो विंशतिरङ्गुलानि, दशमे षड् धनूंषि सार्दानि चखायङ्गलानि, एकादशे पड घनपि द्वौ उपपातः रीयावृत्ति हस्ती प्रयोदशालानि, द्वादशे सप्त धपि सार्द्धान्येकविंशतिरकुलानि, त्रयोदशे सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः पट् च परिपूर्णाम्यालानि संख्याऽउक्तश्च-रयणाए पढमपयरे हत्थतियं देह उम्सए भणियं । छप्पन्नंगुलसट्टा पयरे पयरे हवइ चुड़ी ॥ १ ॥ वगाहनाप्र.१२३४५६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ शर्कराप्रभावां प्रथमे प्रस्तटे सप्त धनूंषि त्रयो हस्ता: पद चाङ्गुलानि, मान | ध..११२३३ ४४ ५६६७७ अत ऊर्व तु प्रतिप्रस्तदं श्रयो हलाखीणि चाङ्गलानि क्रमेण प्रक्षेला३०६१ ह.३१३२२१३१०२३ तव्यानि, तत एवं परिमाणं भवति-द्वितीये प्रस्तटेऽष्ट धपि द्वी हस्ती। अं.. ८॥१७१।। १०१८॥३:११|| २०४।। १३ २१॥ ६ नव चाङ्गुलानि, तृतीये नव धपि एको हस्तो द्वादश चाङ्गुलानि, चतुर्थे दश धनूंषि पञ्चदशाङ्गुलानि. पञ्चमे दश धनूंषि त्रयो हस्ता अष्टादशाङ्गुलानि, षष्ठे एकादश धनूंषि द्वौ हस्तावेकविंशतिरडलानि, सप्तमे द्वादश धनूंषि द्वौ हस्ती, अष्टने त्रयोदश धनूंषि एको हस्तस्त्रीणि चाकुलानि, नवमे चतुर्दश धनूंषि षट् चाकुलानि, दशमे चतुर्दश धपि त्रयो हस्ता नव चाङ्गुलानि, एकादशे पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ एका वितस्तिः, उक्तश्च-सो चेव य बीयाए पढमे पयरंमि । होइ उस्सेहो । हत्थ तिय विग्नि अङ्गुल पयरे पयरे य बुड़ी य ॥ १॥ एकारसमे पयरे पन्नरस धणूणि दोण्णि रवणोओ। वारस व ॥१२॥ अंगुलाई देहपमाणं तु विन्नेयं ॥ २॥" अन्न 'सो चेव य वीयाए' इति य एव प्रथमपृथिव्यां प्रयोदशे प्रस्तटे उत्सेधो भणितो || SASRAOST. C दीप अनुक्रम [१०० -१०२]] % OM 3 ~ 227~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------ उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------ --------- मूलं [८६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६] गाथा यथा सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः पट चालानीति स एव द्वितीयस्यां शराप्रभायां पृथिव्यां पथन प्रसटे उत्सेधो भवति, शेष सुममम 181 १.२ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११३. बालकानभायाः प्रथमे प्रस्तटे पदय पविही हस्ती द्वादश चाहन्टानि, अत: ८ ९ १०१०१११२१३१४१४१५३. तु प्रतिपलटं सा हस्ताः माहानि चेकोनविंशतिरङ्गलानि कमेण प्रक्षIII ३२१०३२२१०३मग्यानि. सत एवं परिमाणं भवति-द्वितीय प्रखटे सनदश धपि द्वीला द६९ ११५१८२१० ३ ६ ५१२ अं. हस्ती सार्दानि समाङ्गलानि, तुनीये एकोनविंशतिर्धपि नौ हस्ती श्रीण्यङ्ग लानि, चतुर्थे एकविंशनियनषि को इल: माडीनि च द्वादिनिरङ्गलानिः ५ त्रयोविनिधनपि एको इस्तोऽष्टादश श चाङ्गुलानि, पष्टे पश्चदिशातर एकोहन: भावनि प्रयोदशानन्यानि, समय नाविधानिधनपि एको हस्तो नव चा लानि, अष्टमे एकोनविशन् धनंदि एको बदलः लाजनि चत्वार्य वानिक मजद एकत्रिगनधि एको हस्तः, 'उक्तश्च-"सो च य लक्ष्याए पढमे पयरंभिर उसेहो । मत बयणी अंगुल गुपची बड़ी या पयरे पयरे य तहा नवमे पत्यकाम होइ उस्ले हो । घायाणि एलवीनं एका ग्वणी व नायब्वा ।। २।। अनार दो व य लश्याए पढमे पयरंमि होइसी ममेटो' उनि य पद द्विगीया शकंरानभायामेकादशे प्रसटे उत्सेधः स एवं नाश्ता वालकाप्रसाचा प्रथमे प्रसटे भवति, शेष मुगनं । पापभायाः प्रथमे प्रलटे एकत्रिंशनपि एकोहलः, तत तु प्रतिप्रश्न पत्र धनपि विंशतिरहुलानि क्रमेण प्रभेत व्यानि, ता परिमाणं भवनि-दितीय प्रस्तर पत्रिंशन पि एको सिंहानिरवानि, तृतीये एकचत्वारिंशजनपि ही हमी बापोडमालानि, चतुबै पदय सारिशचनषि त्रयो दरला द्वादशाहलानि, अमं विपासाउनषि अष्टावालानि, पठे सप्रपञ्चागबपि। दीप अनुक्रम [१०० SAR-12D -१०२] ~ 228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------------ उद्देशक: [(नैरयिक)-२], -------------------- मूलं [८६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६] गाथा श्रीजीवा-काएको हस्तश्चत्वार्पगुन्द्रानि, मनमे द्वापतिः धनपि द्वौ हतो, कच-सो चेव च उत्थीए पहमे पयामि होइ उस्सेहो । पञ्च धणु ||३ प्रतिपत्ती जीवाभि० वीस अंगुल पयरे पयरे य सुधीय ॥१॥ जा सत्तगण पबर नेरयाणं तु होइ स्नेहो । वामढी धणुयाई बोणि य रमणी य बो- उद्देशः २ मलयगि- ब्बा ॥ १॥" अवापि सो चे'त्यस्यार्थः पूर्वानुसारेण भावनीयः । श्रमप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे द्वापष्टियनगि दो हती, तत अर्थउपपातः रीयावृत्तिःतु प्रतिप्रस्वटं पञ्चदश धपि सार्वहस्तद्वयाधिकानि क्रमेण प्रक्षेपव्यानि, तेनेदं परिमाणं भवति-द्वितीये प्रस्तटेऽयमप्रतिर्धपि एका संख्या: वितस्ति:, तृतीये निगवतिर्धनषि त्रयो हस्ताः, चनु नबोनरं धन:शत पेको हल एका बितस्तिः, पञ्चमे पञ्चविंशं धनुःसतं, उक्तच ॥११३॥ सो नेव पंचमीत पहले पनि होइ उम्सेहो । पतरस भनिनो हासा पयरेसु बुही य ॥ १ ॥ तह पंचमए पयरे, उम्सेहो। मानं धणुसयं तु पणवीस ।" मोवेव य' इत्यस्यार्थोऽत्रापि पूर्ववन । नाप्रयायाः प्रबपे प्रस्तटे पञ्चविंशं धनुःशतं ततः परतरे तु अम्ल- ०८६ सटद्वये क्रमेण प्रत्येक सादानि द्वापभिर्धपि प्रक्षेपथ्यानि, नन गयं परिमार्ग गलि-दिनीये मादसवाशीत्यधिकं धनुःशर्त, तृतीयेऽन नूनीयानि धनुःगतानि, रा--"सो चेन य छट्ठीए पढने पयामि होउहो । बागडि पाणु य सहा पयरे पयरे य बुड़ी ॥१॥ (सहा य सत्तसीइ बीए पास कोई धायस) इटी लक्ष्यपपरे यो सय पाएमया होति ।।२।" समधियां पञ्च धनुःशतानि, उत्तरवैकिंवा तु सर्वत्रापि भवधारणीयापेक्षया द्विगुणप्रमाणावसातव्या ।। सम्प्रति संहननातिपादनाभ माह-- इमीले णं भंते ! रयणप० पु०परयाणं सरीरया किंमंधयणी पणसा?, गोपमा! छपई संघयणाणं असंघयणा, णेवट्ठी पोय छिरा वि पहार व संघयणमस्थि, जे पोग्गला अणिहा जाव अमणामा ते तेसिं सरीरसंघायनाग परिणमंति, एवं जाय अधेमसमाए । हमीसेणं भंते ! रयण दीप अनुक्रम [१०० -१०२]] - - ~229~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८७] दीप अनुक्रम [१०३] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(नैरयिक)-२], मूलं [८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः ० रतिया सरीरा किंसंठिता पण्णत्ता, गोषमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा - भववारणिजा य उ तर, तत्थणं जेते भवधारणिजा ले संठिया पण्णत्ता, नत्थ णं जे ते उत्तरयेउनिया तेवि डसंठिता पण्णत्ता, एवं जात्र अहे मत्तमाए ॥ इमसे णं भंते । रचण० पु० रतिया सरीरगा करसता पत्ता?, गोयमा काला कालोभामा जाव परनदिन्हापण्णत्ता एवं जाव आहेससमाए | इसी से णं भने ग्यण० पु० नेरइयाणं सरीरया केरिया पण्णत्ता?, गोयमा ! से जहानाम अहिम इ वा तं चैव जाव असत्तम ॥ हमसे स्वण० पु० नेर या सरीया या कापण्णत्ता ? गोधमा फुटितच्छविचिच्छविया वरमझमसिरा फामेण पत्ता, एवं समा ॥ (० ८५ ) 'रयणपत्यादि प्रभाविनैव भदन्त किंसंहननिनः केन संहननेन संहननवन्तः प्रज्ञता: १, भगवानाह गौतम ! 'छण्हं संघयणाण' मित्यादि पावन पर्व विधि भी ॥ सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह-रियणप्पसेत्यादि, रत्नप्रभाविदीनैरविकाणां भय शरीराणि 'किंसंस्थिताजि' के संस्थाने संस्थानयन्ति प्रप्रानि ? भगवानाह - गौ । तम प्रभाविनैरविकाणां शरीराणि द्विविधानि मानि यथा भवचारणीयानि उज्जरवैक्रियाणि च तत्र यानि भवधारणी4 यानि तानि तथाभवखाभाय्यायं हुण्डनामकमदयतो हुण्डखानानि यान्यपि चतरक्रियरूपादि ताम्यपि यद्यपि शुभमहं वै क्रियं करिष्यामीति चिन्तयति तथाऽपि तथावसभाव्यतो हुण्डसंस्थानासमोदय उत्पाटितसरोमपिच्छकपोतपक्षिण इव हु For P&Praise Cly ~ 230~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------... ..--- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], .....................- मूलं [८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८७] श्रीजीवा-इण्डसंस्थानानि भवन्ति, एवं प्रतिपृथिवि तायद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तम्याम् ॥ सम्प्रति नारकाणां शरीरेषु वर्णप्रतिपादनार्थमाइ-'रय-दर प्रतिपत्ती जीवाभि णप्पभे'यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त ! शरीरकाणि कीदृशानि वर्णेन प्रजातानि?, भगवानाह-गौतम! 'काला कालोभासा' उद्देशः२ मलय गि- इत्यादि प्राग्वत् , एवं प्रतिपृथिवि तावद्द्वक्तव्यं यावद्धःसप्तमपृथिव्याम् ॥ अधुना गन्धप्रतिपादनार्थमाइ-रत्नप्रभापूधियीनैरयिकागांनारकाणां रीयावृत्तिः भदन्त ! शरीरकाणि कीदृशानि गन्धेन प्रज्ञतानि ?, भगवानाह-गौतम! 'से जहानामए अहिमडे इ वा' इत्यादि प्राग्वत्, एवं पृ- संहननसं थिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तभ्याम् ॥ सम्प्रति स्पर्शप्रतिपादनार्थमाह-रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते' इत्यादि, स्थानग॥११४॥ रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त ! शरीरकाणि कीदृशानि स्पर्शेन प्रज्ञतानि ?, भगवानाह-गौतम! स्फटितच्छविविच्छवयः, इहैकत्र |न्धाधार दछविशब्दस्त्वग्वाधी अपरत्र छायावाची, ततोऽयमर्थः-स्फटितया-राजिशतसङ्कलया त्वचा विच्छवयो-विगतच्छाया: स्फटितच्छविवि च्छवयः, तथा खरम(राणि)-अतिशयेन परुषाणि खरपरुषाणि ध्यामानि-दग्धच्छायानि शुषिराणि-शुषिरशतकलितानि, ततः पयस्यापि पदद्वयपदद्वयमीलनेन विशेषणसमासः, सुपकेष्टकाध्यामतुल्यानीतिभावः, स्पर्शन प्रज्ञप्तानि, एवं प्रतिपृथिवि तावद् यावदधःसप्तम्याम् ॥ सम्प्रत्युच्छासप्रतिपादनार्थभाह इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रतियाणं केरिसया पोग्गला ऊसासत्साए परिणमंति?, गोयमा! जे पोग्गला अणिट्ठा जाव अमणामा ते तेसिं ऊसासत्ताए परिणमंति, एवं जाव अहेसत्तमाए, एवं आहारस्सवि सत्समुचि ॥ इमीसे णं भंते! रयण पु० नेरतियाण कति लेसाओ ॥११४॥ पण्णत्ताओ?, गोयमा! एका काउलेसा पपणत्ता, एवं सकरप्पभाएऽवि, चालुपप्पभाए पुच्छा, दो दीप अनुक्रम [१०३] RACAN ~231~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------------------- मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८८] लेसाओ पण्णताओ नं०-नीललेसा कापोतलेसा य, तत्थ जे काउलेसा ते बहुतरा जेणीललेस्सा पण्णता ते धोया, पंकप्पभाए पुच्छा, एका नीललेसा पण्णसा, धूमपभाए पुच्छा, गोयमा! दो लेस्साओ पण्णसाओ, तंजहा-किपहलेस्सा य नीललेस्सा य, ते बहुतरका जे नील लेस्सा, ते धोवतरका जे किण्हलेसा, तमाए पुच्छा, गोयमा! एका किण्हलेस्सा, अधेससमाए एका परमकिपहलेस्सा ॥ इमीसे णं भंते ! रयण पु० नेरच्या किं सम्मदिट्टी मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी?, गोयमा! सम्नविट्ठीवि मिच्छदिट्टीवि सम्मामिच्छदिट्ठीचि, एवं जाब अहेसत्तमाए । इमीसे णमंते ! स्यण पुणेरतिया किं नाणी अण्णाणी?, गोयमा! णाणीवि अपणाणीवि, जे गाणी ते णियमा तिणाणी, तंजहा-आभिणियोधितणाणी सुयणाणी अवधिणाणी, जे अपणाणी ने अन्धेगतिया दुःअण्णाणी अत्धेगव्या तिअन्नाणी, जे अन्नागी ने णियमा मतिअनाणी य सुयअपणाणी य, जे तिअन्नाणी ते नियमा मतिअण्णाणी सुयअण्णाणी विभंगणाणीवि, सेसाणं गाणीवि अपणाणीवि निषिण जाव अधेसत्तमाए । इमीसे मंने! स्यणकिंमणजोगी वइजोगी कायजोगी?, तिपिणथि, एवं जाव अहेसत्तमाए। इमीसे गं भने ! रघणप्पभापु० नेरइया किं सागारोवउत्ता अणा श्रीकाकृद्धिः अत्र 'करपनापुरवीनेरइया कि नाणी अनामोर, गोबमा ! नाणीवि अन्नामावि, जे नाणी ते निश्मा तिभा आभिक मुब. ओहिण, जर मा तेमियमा तिमाही मतिभनाणी विनंगनाणी. एवं'नानाप्राक वाचनारगतोऽनुगः. दीप अनुक्रम [१०४] जी०स०२० ~232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------... ..--- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], .....................- मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रतिपः प्रत रीयावृत्तिः। सूत्रांक [८८] टिज्ञाना श्रीजीवा- गारोवसा?, गोयमा! सागारोवउत्सावि अणागारोवउत्तावि, एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए । जीवाभि [मीसे गं भंते ! रयणप्प पुनेरहया ओहिणा केवतियं वसं जाणंति पासंति?, गोयमा! जमलयगि-18 होणं अगाउनाई उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई । सकरप्पभापु० जह तिन्नि गाउयाई उको. पारकाण अट्ठाई, एवं अद्धदगाउयं परिहायति जाब अधेसत्तमाए जहा अगाउयंउकोसेणं गाउयं] ॥ दमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुगदीए नेरतियाण कति ममुग्धाता पणता?, गोयना! चसारि ॥११५॥ रलेश्यासमुग्धाता पणसा, संजहा-वेदणासमुम्चाए कसायसमुग्धाप मारणलियसमुग्धाप बेउब्विय मनुग्याए, पयं जाव अहेसत्तमाए ।। (मू०८८) 'रयणे त्यादि, रत्नप्रभापूधिबीनैरयिकाणां भवन्त ! कीदृशाः पुद्रला उच्चामतया परिणमन्ति ?, भगवानाह-गौतम ! ये पुढला योगसमु. अनिष्ठा अकान्ता अप्रिया अ भा अमनोशा अमनापाः, अमीषा पदानां व्याख्यानं प्राग्वन , ते तेषां रत्नप्रभाधिवीनैरविकाणामु- द्घाताः कछासतया परिणमन्नि, एग प्रतिपूथिवि तावद्वक्तव्यं याबदधःसप्तम्याम् ।। साम्प्रतमाहारप्रतिपादनार्थमाह-रयणे'लादि, रत्नपासू०८८ |भापूथिवीनरयिकाणां भदन्त । कीदृशाः पुदला आहारतया परिणमन्ति ?, भगवानाह-गौतम! ये पुढला अनिष्टा अकान्ता अप्रिया भाभा अमनोशा अमनापाने संपामाहारतथा परिणमन्ति, एवं प्रतिपृथिवि नावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तम्याम् । इह पुस्तकेषु बहुधाऽन्यथापाठो दृश्यते, अन एक वाचनाभेदोऽपि समपो दर्शयितुं न शक्यते, केवलं बाहुपु पुस्तकेषु योऽविसंवादी पाठस्तत्प्रतिपत्त्यर्थ ॥११५॥ सुगमान्यप्यक्षराणि संस्कारमात्रंण विनियन्ते ऽन्यथा सर्वमेतदुत्तानार्थ सूत्रमिनि ॥ सम्मति लेश्याप्रतिपादनार्थमाह-'रयणे'सादि ज्ञानयोगो दीप अनुक्रम [१०४] -- - 4 0 6- ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [१०४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(नैरयिक)-२], मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः Ja Eber प्रभाविनैरविकरण भदन्त ! कति लेश्याः प्रज्ञप्ताः १, भगवानाह - गौतम! कापोतलेश्या प्रज्ञता, एवं शर्करा प्रभानैरविकाणामपि, नवरं तेषां कापोतलेश्या सतरा वेदितव्या, वालुकाप्रभानैरविका द्वे लेश्ये तयथा नीललेश्या च कापोतलेश्या च तत्र ते बहुतरा ये कापोतलेश्याः उपरितनत्रतटवर्त्तितां नारकाणां कापोतलेश्याकत्वात् तेषां चातिभूयस्कत्वात् ते लोकतरा ये नीललेश्याकाः पङ्कप्रभापृथिवी नैरयिकाणामेका नीललेश्या, सा च तृतीय पृथिवीगतनीललेश्याऽपेश्श्याऽविशुद्धतारा, धूमप्रभा पृथिवीनैरयिकाणां द्वे लेश्ये, तद्यथा-कृष्णलेल्या च नीललेश्या च तन्त्र ते बहुतरा ये नीललेश्याकाः, ते स्तोकतरा ये कृष्णलेश्याकाः, भावनात्रापि प्राग्वन्, तमः प्रभाबित्रीनैरविकाणां कृष्णलेश्या, सा च पञ्चमपृथिवीगत कृष्णलेश्याऽपेक्षयाऽविशुद्धतरा, अधः सममथिवीतैरविकाणामेका परमकृष्णलेश्या. उक्तं च व्याख्याप्रज्ञप्ती - "काऊ दोसु तझ्याएँ मीसिया नीलिया चउत्थीए । पंचमियाए मीसा कण्हा तत्तो परमकण्हा || २ || सम्प्रति सम्यग्दृष्टित्वादिविशेषप्रतिपादनार्थमाह- 'रवणे' त्यादि, स्वभाथिवीनैरयिका भदन्त ! कि सम्यग्दृष्टय मिध्यादयः सम्यग्मिध्यादृश्यो वा ?, भगवानाह - गौतम ! सम्यग्दृष्टोऽपि मिध्यादृष्टयोऽपि सम्यग्मिध्यादृष्टयो उपि, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वाच्यं यावत्तमस्तमायाम् ॥ सम्प्रति ज्ञान्यज्ञानिचिन्तां कुर्वन्नाह – 'रयणेत्यादि, रत्नप्रभा पृथिवी| रविका भदन्त ! किं ज्ञानिनोऽज्ञानिनः १, भगवानाह - गौतम! ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि, सम्यग्दृशां ज्ञानिलान्मिथ्यादृशामज्ञानिवान्, तत्र ये ज्ञानिनले नियमाविज्ञानिनः, अपर्याभावस्थायामपि तेषामधिज्ञानसम्भवात् सञ्ज्ञिपञ्चेन्द्रियेभ्यस्तेषामुत्पादात्, त्रिज्ञानित्वमेव भावयति, तद्यथा-अभिनियोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनः, सेऽज्ञानिनस्ते 'अत्थेगइया' इति अस्तीतिनिपातोst बहुवचनगर्भः सन्येकका ज्ञानिनः सन्येककाव्यज्ञानिनः, तत्र येऽसशिपचेन्द्रियेभ्य उत्पद्यन्ते तेषामपर्याप्तावस्थायां विभङ्गा For P&Pase City ~234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [१०४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(नैरयिक)-२], मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि यावृत्तिः ॥ ११६ ॥ सम्भवाद् ज्ञानिनः, क्षेपकालं तु तेषामपि व्यज्ञानिता, सञ्ज्ञिपश्चेन्द्रियेभ्य उत्पन्नानां तु सर्वकालमपि व्यज्ञानितैव, अपर्याप्तावस्था यामपि तेषां विभङ्गभावात् तत्र ये वज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः, ये व्यज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुवाज्ञानिनो विभङ्गज्ञानि नच 'सक्करपभापुढवीत्यादि, शर्कराप्रभादृथिवीनैरयिका भदन्त ! किं ज्ञानिनोऽज्ञानिनः ?, भगवानाह गौतम ! ज्ञानिनोऽप्यज्ञानिनीऽपि तत्रापि सम्यग्दृशां मिध्यादृशां च भावान्, तत्र ये ज्ञानिनले नियमात्रिज्ञानिनः, तद्यथा-अभिनिवोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनच, येऽज्ञानिनस्ते नियमान्यज्ञानिनः, सञ्चिपञ्चेन्द्रियेभ्य एव तत्रोत्पादान् व्यज्ञानित्यमेव दर्शय[ती]ति, तद्यथा-मत्यज्ञानिनः हेरलेश्याडश्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश्च, एवं शेपास्वपि पृथिवीषु वक्तव्यं तत्रापि सङ्क्षिपश्चेन्द्रियेभ्य एवोत्पादान् ॥ सम्प्रति योगप्रतिपादना- *. ष्टिज्ञानार्थमाह-'रवणप्पभे' यादि, स्त्रप्रभावित्रीनैरविका भदन्त ! किं ननोयोगिनो वाम्योगिनः काययोगिनः ?, भगवानाह - गौतम ! त्रि- 18 ज्ञानयोगीविधा अपि एवं प्रतिपृथिवि तावद्यावदवः सप्तम्याम् ॥ अधुना साकारानाकारोपयोगचिन्तां कुर्वन्नाह - ' रयणे यादि, रत्रप्रभा-पयोगसमुथिवोनैरयिका भदन्त ! किं साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ताः ?, भगवानाह - साकारोपयुक्ता अपि अनाकारोपयुक्ता अपि, एवं तावद् यावदधः सप्तम्याम् || अधुना समुद्घातचिन्तां करोति — 'रवणेत्यादि, रत्नप्रभा पृथिवीनैरविकाणां भदन्त ! कति समुद्घाताः - ज्ञप्ता: ?, भगवानाह - गौतम! चत्वारः समुद्घाताः प्रज्ञमाः, तद्यथा-वेदनासमुद्घातः कपायसमुद्घातो मारणान्तिकसमुद्घातो वैक्रियसमुद्घातञ्च एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधः समभ्याम् ॥ सम्प्रति क्षुत्पिपासे चिन्तयति — दुधाताः * सू० ८९ इसीसे भंते! रयणप्पभा० पु० नेरतिया केरिसयं खुहत्पिवासं पञ्चणुभवमाणा विहरंनि?, गोयमा ! एगमेrrenterपुढविनेरनियस्स असम्भावणार सच्चोदधी वा सम्योगले वा For P&Praise City ~ 235~ ३ प्रतिपत्ती उद्देशः २ नारकाणां श्वासाहा ॥ ११६ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ----------- उद्देशक: (नैरयिक)-२], --- -------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक - [८९] REACEPOKMARRENGEOGIC आसगंसि पक्विवेजा णो चेवणं से रयणप्प० पु० णेरतिए तित्ते वा सिता बितण्हे वा सिता, एरिसया णं गोयमा! रयणप्पभाए रतिया खुधप्पिवासं पचणुम्भवमाणा विहरति. एवं जाव अधेसत्तमाए । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पु० नेरतिया कि एकत्तं पभू विउवित्तए पुहुर्तपि पभू विउवित्तए?, गोयमा! एगत्तंपि पभू पुहुतंपि पनू विउवित्तए, एगत्तं विउब्वेमाणा पुगं महं मोगररूवं घा एवं मुसुंदिकरवत्तअसिसत्तीहलगतामुसलचकणारायकुंततोमरसूललउडभिंडमाला य जाच भिंडमालरूवं वा पुहत्तं विउश्वेमाणा मोग्गररूवाणि वा जाव भिंडमालरूबाणि वा ताई संखेजाई णो असंखेज्ञाई संबद्धाई नो असंबद्धाई सरिसाइं नो असरिसाइं विजव्वंति, विउव्यित्ता अपणमण्णस्स कार्य अभिहणमाणा अभिणमाणा वेषणं उदीरेंति उजलं विउल पगाद ककसं कडयं फरुसं निरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियासं, एवं जाव धूमप्पभाए पुढवीए । छट्टसत्तमासु णं पुढवीसु नेरइया यह महंताई लोहियकुंथूरूवाई वइरामइतुंडाई गोमयकीडसमाणाई विउच्वंति, विउब्वित्ता अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगमाणा खायमाणा स्वायमाणा सयपोरागकिमिया विव चालेमाणा २ अंतो अंतो अणुप्पविसमाणा २ वेदणं उदी. रंति उज्जलं जाब दुरहियाम ॥हमीसे भंते। रयणप. पु. नेरड्या किं सीतवेदणं वेइंति उसिणवेदणं वेइंति सीउसिणवेदणं वदंति ?, गोथमा ! णो सीयं वेदणं वेदेति उसिणं वेदणं दीप - - अनुक्रम [१०५] - - - - ~236~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------------ उद्देशकः [(नैरयिक)-२], --------------------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: R३ प्रतिपत्त उद्देश:२ श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रत नारकाण क्षुत्नृद्धि सूत्रांक क्रिया [८९] वेदनाः सू०८९ बेति नो सीतोसिणं, ते अप्पयरा उपहजोणिया वेदेति, एवं जाव वालुयप्पभाए, पंकप्पभाए पुच्छा, गोयमा ! सीयपि वेदणं वेदति, उसिणंपि वेषणं वेयंति, नो सीओसिणवेयणं येयंति, ते बहतरगा जे उसिणं वेदणं वेदेति, ने धोवयरगा जे सीतं वेदणं वेइंति । धूमप्पभाए पुच्छा, गोयमा ! सीतंपि बंदणं वेदेति उसिणंपि वेदणं वेदेति णो सीतो०, बहुतरगा जे सीयवेदणं वेदेति ते धोवयरका जे उसिणवेदणं वेदेति । तमाए पुच्छा, गोयमा! सीयं वेदणं वेदेति नो उसिणं (वेदणं) वेदेति नो सीनोसिणं वेदणं वेदेति, एवं अहेसत्तमाए गवरं परमसीयं ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० जेरइया केरिसयं णिरयभवं पञ्चणुभवमाणा विहरंति ?, गोयमा! ते णं तस्थ णिचं भीता णिचं तसिता णिचं छुहिया णिचं उब्बिग्गा निचं उपप्पुआ णिचं चहिया निचं परममसुभमउलमणुवई निरयभवं पचणुभवमाणा विहरंति, एवं जाव अधेसत्समाए णं पुढवीए पंच अणुसरा महतिमहालया महाणरगा पण्णत्ता, तंजहा-काले महाकाले रोरुप महारोगा अप्पतिहाणे, नत्थ इमे पंच महापुरिसा अणुत्तरहिं दंडसमादाणेहिं कालमासे कालं किया अप्पनिट्ठाणे णरए रतियत्साए उववण्णा, तंजहा-रामे १, जमदग्गिपुत्ते, दढाउ २, लच्छतिपुत्ते, वसु.३, उवरिचरे, सुभमे कोरब्वे ४. यंभ ५, दत्ते चुलणिसुते ६, ते णं तत्थ नेरतिया जाया काला कालो० जाव परमकिव्हा वषणेणं पण्णता, तंजहा-ते गं तत्थ वेदणं वेदेति उज्जलं विउलं जाव दरहि दीप -- अनुक्रम [१०५] - - - ~ 237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [८९] दीप अनुक्रम [१०५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(नैरयिक)-२], मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः यासं ॥ उणि वेदणिजेसु णं भंते! पेरनिएस णेरनिया केरिसयं उणिवेदणं पञ्चभवमाणा विहरति ? गोयमा ! से जहाणामय कम्मारदारए सिता तरुणे व जुगवं अप्पायंके भिरग्गहत्थे पाणिपादपास तक [संघाय ] परिणए लंघणपवणजवणवग्गणपमद्दणसमत्थे तलजमजुलबहुफलिहणिभवाहू घणणिचितवलियवहखंधे चम्मेदुरणमुट्टियसमाहयणिचित्तगतगते उरस्सयल भण्णागए छेए दक्खे पट्टे कुसले णिउणे मेहावी णिउणसिप्पोवगए एगं महं अयपिंडं उदगवारसमाणं गहाय तं ताविय ताविष कोटिन कोहित उभिदिन उभि दिय चुणिय सुणिय जाव एगाहं वा दुयाहं वा निघारं वा उक्कोसेणं अद्धमासं संहणेज्जा, से णं तं सीतं सीतीभूतं अओमपूर्ण संसएणं गहाय असम्भावपट्टणाए उणिवेदणिज्ञेनु णरएस पक्विवेज्जा, से णं तं उम्मिसियणिमिसियंतरेणं पुणरवि पचुद्धरिस्सामित्तिक पविरायमेव पासेजा पविलीणमेव पासेज्जा पविद्वत्थमेव पासेजा णो चैव णं संचापति अविरायं वा अविली वा विद्वत्थं वा पुणरवि पञ्चद्धरितए | से जहा वा मन्तमातंगे [पाए] कुंजरे सहिहायणे पडसरयकालसमतंसि वा चरमनिदाघकालसमयंसि वा उण्हाभिहए तपहाभिहए दवगजालाभिए आउरे सुसिए पिवासिए दुबले किलते एक महं पुक्खरिणि पासेजा चाउ कोणं समतीरं अणुपुवसुजायवष्पगंभीर सीतलजलं संछष्णमत्तभिसमुणालं बहुउप्पलकुमुद For P&Pase Cinly ~238~ my w Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------... ..--- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], .....................- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि मलयगि-1 रीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती उद्देशः२ नारकाणा प्रत % सूत्रांक क्रिया % [८९] ॥११८॥ वेदनाः सू०८९ % णलिणसुभगसोगंधियपुंडरीय ( महापुंडरीय) सयपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियं छप्पयपरिभुज्जमाणकमलं अच्छविमलसलिलपुपर्ण परिहत्थभमंतमच्छकच्छम अणेगसउणगणमिहणयविरहयसन्नइयमहरसरनाइयं तं पासइ, तं पासित्ता तं ओगाइ, ओगाहिसा से णं नत्थ उण्हंपि पविणेजा तिण्हपि पविणेजा खुहंपि पबिणिज्जा जरंपि पवि० दाहंपि पवि०णिहाएज वा पपलाएज वा सतिं वा रतिं वा धिति वा मति वा उवलभेजा, सीए सीयभूए संकसमाणे संकस. माणे सायासोकग्वबहले यावि विहरिजा, एवामेब गोयमा! असम्भावपट्ठवणाए उसिणवेयणिजेहिंतो णरएहितो कुंभारानणी इवा रहए उध्वहिए समाणे जाई इमाई मगुस्सलोयंसि भवंति (गोलियालिंगाणि वा सोंडियालिंगाणि या भिंडियालिंगाणि वा ) अयागराणि वा तंबागराणि चा तउयागरा० सीसाग० रुप्पागरा० सुवन्नागराणि वा हिरण्णागरा० कुंभारागणी इ वा मुसागणी वा इयागणी वा कवेल्ल्यागणी वा लोहारंवरिसे इ वा जंतवाहचुल्ली वा इंडियलिस्थाणि वा सोडियलि. लागणी ति वा, तिलागणी वा तुसागणी ति वा, तत्ताई समजोतीभूयाई फुल्लकिंसुयसमाणाई उक्कासहस्साई विणिम्मुयमाणाइं जालासहस्साई पमुच्चमाणाई इंगालसहस्साई पविकग्वरमाणाई अंतो२हुहुयमाणाई चिट्ठति ताई पासइ, ताई पासित्ता ताई ओगाहइ ताई ओगाहिता से णं तत्व उहंपि पविणेजा तण्डंपि पविणेजा खुहंपि पविणेजा दीप % अनुक्रम [१०५] Hell॥११८॥ ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], --- ---------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] जरंपि पविणेजा वाहंपि पविणेजा णिहाएज वा पयलाएज वा सतिं वा रतिं वा धिई वा मति वा उवल भेजा, सीए सीयभूयए संकसमाणे संकसमाणे सायासोक्वयाहुले यादि विहरेजा, भवेयारूवे सिया?, णो इणढे समझे, गोयमा! उसिणवेइणिजेसु णरएसु नेरतिया तो अणितरियं चेव उसिणवेदणं पचणुभवमाणा विहरंति ॥ सीयवेदणि लु णं भंते णिरएसु रतिया केरिसयं सीयवेदणं पञ्चणुभवमाणा विहरंति?, गोयमा ! से जहाणामए कम्मारदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं जाव सिप्पोवगते एग मह अयपिंडं दगवारसमाणं गहाय ताविय नाविय कोट्टिय कोहिय जह० एकाहं या दुआई वा तियाहं वा उक्कोसे णं मासं हणेजा, सेणं तं उसिणं उसिणभूतं अयोमपणं संदसएणं गहाय असम्भावपट्ठवणाए सीयवेदणिज्जेसु णरासु पक्षिवेजा, से तं [उमिसियनिमिसियंतरेण पुणरवि पञ्चुरिस्सामीतिकटु पचिरायमेव पासेजा, तं चेव णं जाव णो चेव णं संचाएजा पुणरवि पद्धरित्तए, से णं से जहाणामए मत्तमायंगे तहेव जाव सोक्खबहुले यावि विहरेजा एवामेव गोयमा! असम्भावपट्टवणाए सीतवेदणेहिंतो णरएहितो नेरलिए उबहिण समाणे जाई इमाई इहं माणुस्सलोग हति, तंजहा-हिमाणि वा हिमपुंजाणि चा हिमपडलाणि वा हिमपडलपुंजाणि वा तुसाराणि वा तुसारपुंजाणि वा हिमकुंडाणि वा हिमकुंडपुंजाणि वा सीताणि वा ताई पासति पासित्ता ताई ओगाहति ओगाहित्ता से ण तत्थ दीप अनुक्रम [१०५] % PRE%- ~240~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------------------ मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥११॥ [८९] बेदनाः दीप अनुक्रम [१०५] सीतंपि पविणेजा तहपि प० खुहपि प० जरंपि प० दाहंपि प०निदाएल वा पयलागल वा जाव प्रतिपर उसिणे उसिणभूए संकसमाणे मंकसमाणे सायासोकग्वबहुले यावि विहरेजा, गोयमा! सीयवेय- उद्देशः णिजेसु नरएसु नेरतिया रातो अणिट्टयरियं चेव सीतवेदणं पचणुभवमाणा विहरति ।। (सू०८९) kनारकाण 'रयणे'त्यादि, रसप्रभाविधीनरविका भदन्त ! कीदृशी क्षुधं पिपासा (च) प्रलानुभवन्तः प्रत्येक वेदयमाना: 'विहरन्ति' अवति- क्षुत्तड़ि न्ति ?, भगवानाहगौतम! 'एगमेगरस मिलादि, एकैकस्य रअप्रभाषथिवीनैरयिकस्य 'असद्भाव(प्र)स्थापनया' असद्भावकल्प-शक्रिया नया ये कंचन पुनला उधयश्चेति शेपः तान 'आस्यके' मुग्वे सर्वपुदलान सर्वोदधीन प्रक्षिपेन् । तथाऽपि 'नो चेव णमित्यादि, नैव | RI रत्नप्रभापृथिवीनैरपिकः तृप्तो वा वितृष्णो वा स्थान लेगनः अत्र प्रवलभस्म कव्याध्युपेतः पुरुपो दृष्टान्तः । 'एरिसिया णमित्यादिसू०८१ ईटशी णमिति वाक्यालस्ती गौतम ' रत्नप्रभावृथिवीनैरयिकाः क्षुधं पिपामा प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं या-12 बधःसममी।। सम्पनि क्रियशक्ति विचिचिन्तयिपुरिदमार-'रयणप्पभे'यादि, रत्नप्रभाथिवीनैरविका भवन ! प्रतेक किम 'एकत्वम् एकं रूपं विकुवितुं प्रभवः उत 'पृथक्त्वं' पृथक्लाउदो बहुवाची, आह च कर्मप्रकृतिसङ्घहणिचूर्णिकारोऽपि-"पुहुत्तशब्दो यहुत्तवाई" इति, प्रभूतानि रूपाणि विकुक्तुिं प्रभवः', 'विकुर्व बिक्रियायाम्' इत्यागमप्रसिद्धो धानुरसि यम्य विकुर्वाण इति प्रयोगस्ततो विकुवितुमित्युक्तं, भगवानाह-एकत्वमपि प्रभवो विकुवितुं पृथक्त्वमपि प्रभवो विकुयितुं, सनक रूपं विकुर्वतो मुद्गररूपं वा मुद्गरः-प्रतीत: मुपण्डिस्पं वा नुपण्डि:--पहरणविशेषः, करपत्ररूपं वा अतिरूपं धा शक्तिरूपं वा हलमपं वा गदारूपं वा मुशलरूपं वा चक्ररूपं वा नाराचरूपं का अन्तरूपं या तोमररूपं का शुलरूपं वा लकुटरूपं वा भिण्डनालम्पं आ विकुर्वन्ति, करपत्रादयः । ~ 241~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---- ------------ उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ----- --------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [१०५] प्रतीताः, भिण्डमाल:-शत्रजातिविशेषः, अन सङ्गहणिगाथा कचित्पुस्तके - मुग्गर मुमुंटिकरकयअसिसत्ति हलं गयामुसलचका नारायकुंततोमरसूललउभिडिमाला य ॥१॥" गमार्था, नवरं करकयति नकचं करपत्रमियर्थः, पृथक्त्वं विकुर्वन्नो मुहररूपाणि वा यावन् | भिण्डमालरूपाणि बा, तान्यपि सदृशानि, (समानरूपाणि) नोऽसहशानि' (अ) समानरूपाणि, तथा 'समये यानि परिमितानि न 'अस-121 ययानि सख्यातीतानि, विसशकरणेऽसहये य करणे वा शक्त्यभावात् , तथा 'संबद्धानि' स्वात्मनः शरीरसंलमानि 'नासंबद्धानि' न|R स्वशरीरापथग्भूतानि, खशरीरात्यग्भूतकरणे शत्यभावान , चिकुर्वन्ति, विकुवित्वाऽन्योऽन्यस्य कायमभिनन्तो बेतनामुदीरयन्ति। किंविशिष्टामिलाह-उज्जवला' दुःखरूपतया जानल्यमानां मुखलेशेनायकललितामिति भावः, 'विपुला सकलशरीरध्यापितया विसीणी 'प्रगाढा' प्रकर्षण मर्मप्रदेशच्यापितयाइतीयसमवगाढा कर्कशामिव कर्कशां किमुक्तं भवति ?-यधा कर्कशः पापाणसंघर्षः दारीरस्य खण्ठानि नोटयति एवमानप्रदेशान् त्रोटयन्तीव या वेदनोपजायत सा कर्कशा ता. कटुकामिव कटुको पित्तप्रकोपपरिकलितबपुपो रोहिणी-कद्रव्यभिवोपभुज्यमानमतिशयेनाप्रीतिजनिकामिति भावः, तथा 'परुषां मनसोऽतीव रौश्यजनिक निठुराम्' अश क्यप्रतीकारतया दुभेदां 'चण्ड' का रौद्राध्यवसायहेतु त्वान् 'तीव्राम्' अतिशायिनी 'दुःखां' दुःखरूपां 'दुर्गा दुर्लयामत एवं है।दुरविसह्याम् , एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावलञ्चम्याम् । 'छहसत्तमीसु णमित्यादि. पनुसतम्योः पुनः पृथिव्यों रयिकाः | बहूनि महान्ति गोगयकीटप्रमाणत्वात् . 'लोहितकुन्थुरूपाणि' आरक्तकुन्थुरूपाणि व श्रमवतुण्डानि, गोमयकीटसमानानि बिकुर्वन्ति, विकुविखा 'अन्योऽन्यस्य परम्परस्य 'कायं शरीरं समतुरङ्गा श्याचरन्तः समतुरायमाणाः, अश्वा इवान्योऽन्यमानहन्त इत्यर्थः, खायमाणा खायमाणा' भक्षयन्तो भनयन्तोऽन्तरन्त: 'अनुप्रवेशयन्तः अनुप्रविशन्त: 'सयपोरागकिमिया इव' शतपर्वकमय ~ 242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशकः [(नैरयिक)-२], ------------------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक %25% [८] क्रिया ॥१२०॥ दीप अनुक्रम [१०५] श्रीजीवा-हाइव इनुपर्वकृमय इस 'चालेमाणा चालेमाणा' शरीरस्य मध्यभागेन संचरन्तः संचरन्तो बेदनामुदीरयन्त्युवलामित्यादि पावन । प्रतिपत्ता जीवाभि०सम्पति क्षेत्रखभावजा वेदना प्रतिपादयति-रयणे सादि, रमप्रभापृथिवी नरविका भदन्त ! फिशीसा वेदना भेदयन्ते उष्णां वेदना उद्देशः२ मलयगि- वेदयन्ते शीतोष्णां वा?, भगवानाह-गौतम! न शीता वेदनां वेदयन्ते किन्तु उपणां वेयनां वेदयन्ते, ते हि शीतयोनिका योनिस्था- नारकाणा रीयावृत्तिः नानां केवल हिमानीप्रख्यशीतपदेशामफत्यान, योनिस्थानव्यतिरेकेण चान्यम् सर्वमपि भूम्यादि खादिराङ्गारादपि महाप्रवनमतस्ते 'उ | भुत्तृद्धि प्णवेदनामनुभवन्ति, नापि शीतोष्णा बेदना घेदयन्ते, शीतोष्णखभावतया बेदनाया नरकेपु मूलतोऽपसम्भवान् , एवं शर्करामभावालुकाप्रभानरयिका अपि वक्तव्याः, पक्षमभाप्रथिवी नरयिकाच्छायाम् भगवानाह-गौतम! शीतामपि वेदनां वेदयन्ते नरकावासभे-18| वेदनाः देनोष्णामपि वेदनां वेदयन्ते नरकावासभेदेनव, न तु शीतोष्गा, तन्न ते बहुतरा ये उच्या वेदना वेदयन्ते, प्रभूततराणां शीतयोनि- सू० ८९ त्वात् , ते स्तोकतरा ये शीतां बेदना बेदयन्ते, अल्पतराणामुष्ण योनित्वान्, एवं धूममभायामपि वक्तव्यं, नवरं ते बहुतरा चे शीतवे दना वेदयन्ते, बहुनामुष्ण योनिलात् , ते लोकतरा ये उष्णवेदनां वेदयन्ते, अल्पत्तराणां शीलयानित्वात् , तमःप्रभापृथिवीनैरयिका-3 पच्छायां भगवानाह-गौतम ! शीता वेदनां वेदयन्ते नोषणां नापि शीतोष्णां, तत्रत्यानां सर्वेपामुष्णयोनित्वात् , योनिस्थानव्यतिरेकेण | चान्यस्य सर्वस्वापि नरकभूम्याईमहाहिमानीप्रख्यत्वात , एवं तमस्त मात्रमाथिवीनैरविका अपि वक्तव्या; नवरं परमां शीतवेदना वे दयन्ते इति वक्तव्यं, तमःप्रभाथिबीत: तमस्तमप्रभापृथिव्यां शीतवेदनाया अतिप्रवलत्वान् ।। सम्प्रति भवानुभवप्रतिपादनार्थमाहहरयणे'त्यादि, रमप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त ! कीदृशं नरकमवं प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येकं वेदयमानाः 'विहरन्ति' अवतिष्ठन्ते ?, भगवा नाह-गौतग! खप्रभाधुधिवीनरयिका 'नित्यं सर्वकाल क्षेत्रस्वभावजमहानिविडान्धकारदर्शनतो भीताः, सर्वत उपजातशत्वात् , % ~ 243~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], --- -------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [१०५] KSON तथा नित्यं सर्वकालं स्वत एवाप्रेऽपि त्रस्ताः' परमाधार्मिकदेवपरस्परोदीरितदुःखसंपातभयात्रासमुपपन्नाः, तथा 'नित्यं सर्वकालं | परमाधार्मिकैः परस्परं वा 'बासिताः' त्रासं प्राहिताः, तथा 'नित्यमुद्विग्नाः' यथोक्तरूपदुःखानुभवतस्तद्गतावासपराङ्मुखचित्ताः, तथा 'नित्यं सर्वकालम् 'उपप्लुताः' उपप्लवेनोपेता न तु मनागपि रतिमासादयन्ति, एवं नित्यं सर्वकालं परममशुभम् 'अतुलम्' अशुभत्वेनानन्यसदृशम् 'अनुवद्धम्' अशुभत्वेन निरन्तरमुपचितं निरयभवं 'प्रत्यनुभवन्तः' प्रत्येक वेदवमाना विहरन्ति, एवं पुविल्या पृथिव्यां तावदकरच यावधःसप्तमी, अस्यां चाधःसप्तम्यां क्रूरकर्माण: पुरुषा उत्पद्यन्ते नान्ये, तथा पास्वार्थस्य प्रदर्शनार्थ । पञ्च पुरुषान उपन्यस्वति-'अहेसत्तमाए णमित्यादि, अधःसतम्यां पृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके 'इमे' अनन्तरं वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च महापुरुषा: 'अनुत्तरैः' सर्वोत्तमप्रकर्षप्रापैः 'दण्डसमादानैः' समादीयते कर्म एभिरिति समादानानि-कम्मोपादानहेतवः दण्डा एव-मनोदपवादयः प्राणव्यपरोपणाध्यवसायरूपा: समादानानि दण्डसमादानानि तैः कालमासे कालं कृत्वोत्पन्नाः, तथथा-रामो जामदग्निसुतः पशुराम इत्यर्थः, दालादालः छातीसुतः, वम् राजा उपरिचरः, स हि देवताऽधिष्ठिताकाशस्फटिकसिंहासनोपविष्टः सन्नाकाशस्फटिकमयस्य सिंहासनस्यादर्शनतो लोकेष्वेवं प्रसिद्धिमगमन्-सत्यवादी किलैप बसुराजा न प्राणालायेऽष्यलीकं भापते तसः सत्त्वा वर्जितदेवताकृतप्रातिहाथ एवमुपर्याकाशे चरनीति, स चान्यदा हिंयवेदार्थप्ररूपकस्य पर्वतस्य पक्षमभिगृह्य सम्यग्दृष्टेनारदस्य पक्षमनअभिगृहन्नलीकवादित्वात्प्रकुपितदेवताच पेटाहत: सिहासनात्परिभ्रो रौद्रयानमभिरूडः सप्तमाथिव्यामप्रतिष्ठाननरकमयासीन् , सुभूमो एमञ्चकवली कौरव्यः कौरव्यगोत्रो ब्रह्मदत्तश्चलनीसुतः 'ते णं तत्थ वेयणं वेयंती' स्यादि, 'से' परशुरामादयस्तत्र-अप्रतिष्ठाने नरके विदना बेनुयन्ते उजवला यावद् दुरध्यासामिति प्राग्नन् । सम्प्रति नरकेपूष्णवेदनाया: स्वरूपमभिधित्सुराह-'उसिणवेदणिज्जे सुणं जी०च०२१ -- JEcol ~244~ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------------ उद्देशकः [(नैरयिक)-२], --------------------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] दीप अनुक्रम [१०५] श्रीजीया-8 भंते !' इत्यादि, उपण वेदनेषु शमिति पूर्वबन् भदन्त ! नरकेषु नैरयिकाः कीदृशीमुष्णवेदना प्रत्यनुभवन्तः-प्रत्येक वेदयमाना बिह- ३ प्रतिपत्ती जीवाभि रन्ति ?, भगवानाह-गौतम ! स यथानामकः' अनिर्दिष्ट्रनामकः कश्चिन् 'कारदारकः लोहकारदारक: स्थान , किंविशिष्टः | उद्देशः २ मलयगि-1 इत्याह-तरुणः प्रबर्द्धमानवयाः, आह-दारकः प्रवर्द्धमानण्या एव भवति तत: किमनेन विशेषणेन ?, न, आसन्नमृत्योः प्रवर्द्धमा-18| नारकाणां नवयस्त्वाभावान्, न ह्यासन्नमृत्युः प्रवर्द्धमानयया भवति, न च तस्य विशिष्टसामयसम्भवः, आसन्नमृत्युलादेव, विशिष्टसामर्थ्यप्र- शीतोष्ण तिपादनार्थश्चैप आरम्भस्ततोऽर्थव द्विशेषणम् , अन्ये तु व्याचक्षते-इह याव्यं विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमभिनवं च तत्तरुणमिति लोके वेदनाः ॥१२१॥ प्रसिद्धं, यथा तरूपमिदमश्वस्थपत्रमिति, ततः स कर्मारदारकस्तरुण इति किमुक्तं भवति ?-अभिनयो विशिष्टवादिगुणोपेतचेति, || | सू०८९ वलं-सामर्थ्य तदस्यास्तीति बलवान , तथा युगं-मुफ्गदुष्पमादिकालः स खेन रूपेण यस्वास्ति न दोपदुष्टः स युगवान, किमुक्ताई भवति ?-कालोपद्रवोऽपि सामर्थ्य विज्ञहेतु: स चाय नास्तीति प्रतिपत्त्यर्थ मेतद्विशेषणं, युवा-यौवनस्थः, युवावस्थायां हि बलातिशय इत्येतदुपादानम् , 'अप्पायके' इति अपशब्दोऽभाववाची अल्पः-सर्वथाऽविद्यमान आतङ्को-ज्वरादिस्यासावल्यातरः, 'थिरग्गहत्थे स्थिरौ अग्रहस्तौ यस्य स स्थिराग्रह स्तः, 'दढपाणिपायपासपिठंतरोरुपरिणए इति दृढानि-अतिनिविडचयापन्नानि पाणिपादपावपृष्टान्तरोरूणि परिणतानि यस्य स दृढपाणिपादपार्श्वपृष्टान्तरोम्परिणतः, सुखादिदर्शनात्याक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथा प- नम्-अतिशयेन निचिती--निविडतरवयमापन्नी बलिताविव बलिती वृत्तौ स्कन्धौ यस्य स घननिचितपलितवृत्तम्कन्धः, 'चम्मेद्वगदु-12 घणमुडियसमाहयनिचियगायगत्ते' चर्मेष्टकेन धणेन मुष्टिकया च-गुष्ट्या च समाहत्य ये निचितीकृतगात्रास्ते धर्मेष्टफयणमुष्टि-18 ॥१२१॥ कसमाहृतनिचितगात्रास्तेषामित्र गात्रं या स चर्मेष्टकद्रयाशमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रमात्रः, 'उरस्सालसमन्नागए' इति उरसि ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: (नैरयिक)-२], --- -------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक L-CANCE [८] दीप अनुक्रम [१०५] भवमुरस्वं तच तदलं च उरसाबलं तश समन्वागत:-समनुप्राप्त उरस्यबलसमन्वागतः, आन्तरोत्साहवीर्ययुक्त इति भावः, 'तलजमलजुयलवाह' इति, सली-ताल पक्षी तयोर्यमल युगलं-समशेणीक युगलं तलयमल युगलं, तद्वदतिसरली पीचरी च थाटू यस्य स| तलयमलयुगलबाहुः, 'लंघणपवणजवणपमहणसमत्धे इति, लङ्गने-अतिक्रमणे प्रबने-मनाक् पृथुतरविक्रमगतिगमने जवने अतिशीघ्रगती प्रमर्दने-कठिनस्यापि बस्नुनश्चर्णनकरणे समर्थः लक्षनप्लवनजवनप्रमर्दनसमर्थः, कचिन् 'लंघणपवणजवणवायामहाणसमत्थे' इति पाटलत्र व्यायामने-व्यायामकरणे इति व्याख्येयं, 'छेकः' द्वासप्ततिकलापण्डितः 'दक्षः' कार्याणामविलम्बितकारी, हैपठः' वाग्मी 'कुशल' सम्यक्रियापरिज्ञानवान् 'मेधावी' परस्पराव्याहतपूर्वापरानुसन्धानक्षः, अत एव 'निपुणसिप्पोवगए। इति निपुणं यथा भवति एवं शिल्पं-क्रियासु कौशलमुपगतः-मानो निपुणशिल्पोपगतः, एक महान्तमयस्पिण्डम् 'उदकवारकसमान' लघुपानीयघटसमानं गृहीला 'तम्' अयस्पिण्डं तापयित्वा तापयित्वा ततो घनेन कुट्टयित्वा कुट्टयित्वा यायदेकाई वा यह वा वाव-| |दुत्कर्पतोऽर्तमासं संहन्यान् , ततो णमिति वाक्यालक्कारे 'तम्' अवस्पिण्डं शीतं, स च शीतो बहिर्मनाग्मात्रेणापि स्यादत आह'शीतीभूत' सर्वासना शीतपेन परिणतं अयोमयेन संदेशकेन गृहीला 'असद्भावस्थापनया' असद्भावकल्पनया नैतदभून न भवति भविष्यति वा केवलमसद्भवमिदं कल्प्यत इति, उरणवेदनेषु नरकेषु प्रक्षिपेन , प्रक्षिप्य च स पुरुषो णमिति वाक्यालद्वारे 'उम्भिक हैसियनिमिसियंतरेण उन्मिपितनिमिपितान्तरेण यावताऽन्तरेण-यावता व्यवधानेन उन्मेष निमेपौ कि येते तावदन्तरप्रमाणेन काले नातिक्रान्तेन पुनरपि प्रत्युद्धरिप्यामीतिकृत्वा यावद् द्रष्टुं प्रवर्त्तते तावन् 'प्रवितरमेव' प्रस्फुटितमेव, यदिवा 'प्रविलीनमेव नवनीत|मिव सर्वथा गलितमेव, यदिवा 'प्रविध्वस्तमेव सर्वथा भस्मसाजूतमेव पश्येन, न पुनः शकुयाद् अचिरात्तं अप्रस्फुटितं अविलीन ॐ55 Elimins ~ 246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [९] दीप अनुक्रम [१०५ ] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगियावृत्तिः ॥ १२२ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(नैरयिक)-२], मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सू० ८९ वा अविश्वस्तं वा पुनरपि प्रत्युद्धर्तुम्, एवंरूपा नाम तत्रोष्णवेदना || अस्यैवार्थस्य स्पष्टतरभावनार्थ दृष्टान्तान्तरमाह - 'से जहा- प्रतिपत्तौ नामए' इत्यादि, 'से' सकलजनप्रसिद्धो यथेति दृष्टान्तत्वोपदर्शने वाशब्दो विकल्पने, अयं वा दृष्टान्तो विवक्षितार्थप्रतिपत्तये बोद्धव्य २ उद्देशः २ इति विकल्पनभावना, 'मन्तः' मदकलितः 'मातङ्गः' हस्ती, वह मातङ्गोऽन्यजोऽपि संभवति ततस्तदाशङ्काय्युदासार्थं नानादेशजविनेय-नारा जनानुग्रहाय (वा) पर्यायद्वयमाह - द्विपः' द्वाभ्यां मुखेन करेण चेयर्थः पिवतीति द्विपः, 'मूलविभुजादय' इति कप्रत्ययः, कौशीतोष्णजीर्यतीति कुञ्जरः यदिवा कुखे वनगहने रमति रतिनायनातीति कुञ्जरः 'कचिदिति उप्रत्ययः पष्टियनाः संवत्सरा यस्य स ॐ वेदनाः | पष्टिहायन: 'प्रथमशरत्कालसमये' कार्त्तिकमाससमये, इह प्राय ऋतवः सूर्यर्त्तवो गृह्यन्ते ते चापाडादयो द्विद्विमासप्रमाणाः प्रवचने # चक्रमेणैवनामानः, तद्यथा-प्रथमः प्रावृट् द्वितीयो वर्षारात्रः तृतीयः शरत् चतुर्थी हेमन्तः पञ्चमो वसन्तः पटो ग्रीष्मः तथा चाह पादलिप्तसूरिः- "पाउस वासारतो, सरओ हेमंत बसन्त गिम्हो य एष खलु छप्पि रिऊ, जिणवरदिट्ठा नए सिट्टा ||१|| " ततः प्रथमशरत्कालसमयः कार्त्तिकसमय इति विवृत्तम् आह च मूलटीकाकृत् -"प्रथमशरत्- कार्तिकमासः " तस्मिन् वाशब्दो वि कल्पने 'चरमनिदाघकालसमये वा' चरम निदाघकालसमयो - ज्येष्ठमासपर्यन्तस्तस्मिन् वाशब्दो विकल्पने, 'उष्णाभिहतः' सूर्यखरकिरणप्रतापाभिभूतः, अत एवोणैः सूर्यकिरणैः सर्वतः प्रतप्राङ्गतया शोषभावतस्तृपाभिहतः, तत्रापि पानीयगवेषणार्थमितस्ततः स्वेच्छया परिभ्रमतः कथचिद्दवाभिप्रत्यासत्तौ गमनतो वाज्यिालाभिहतः अत एव 'आतुर' कचिदपि स्वास्थ्यमलभमानः सन् आकुल:, सर्वाङ्गपरितापसम्भवेन गढतालुशोपभावान् शुषितः कचित् 'झिजिए' इति पाठस्तत्र 'क्षितः' क्षीणशरीर इति व्याख्येयम् असाधारण वेदनासमुच्छलनात्पिपासितः अत एव दुर्बलः शारीरमानसावष्टम्भरहितत्वान्, 'कान्तः' ग्लानिमुपगतः For P&Praise Cinly ~ 247~ ॥ १२२ ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: (नैरयिक)-२], --- -------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [१०५] 'कुमू ग्लानी' इति वचनान, एका महतीं 'पुष्करिणी' पुष्कराण्यस्यां विद्यन्ते इति पुष्करिणी ता, किंविशिष्टामित्याह-'चतु कोणां' चत्वारः कोणा-अश्रयो यस्याः सा तथा तां, सम-विषमोन्नतिवर्जितं सुखावतारं तीरं-तटं यस्याः सा समतीरा ताम् , आ-15 दनुपूठयेण-नीच चैस्तरभावरूपेण न लेकहेलथैव कचिद् रूपा कचिदुन्नतिरूपा इति भावः, सुष-अतिशयेन यो जातो वर:-के-16 दारो जलस्थानं तत्र गम्भीरम्-अलब्धस्ताचं शीतलं जलं यस्यां सा आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजला ताम् , 'संछण्णपत्तभिस मणाल मिति संछन्नानि-जलेनान्तरितानि पत्रविसमृणालानि यस्यां सा संछन्नपत्रबिसमृणाला ताम् , इह बिसमृणालसाहचर्यात् पत्राणि | दा-पशिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, चिसानि-कन्दाः मृणालानि-पानाला:, तथा बहुभिरुत्पल कुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापु ण्डरीकशतपत्रसहसपत्रैः केसरैः-फेसरप्रधानः फुल:-विकसितैरुपचिता बहूत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रकेसर फुलोपचिता ता, तथा पट्पदैः-भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कमलानि उपलक्षणमेतन् कुमुदादीनि यस्याः सा षट्पदपरिभुज्यमानकमला ता, तथाऽच्छेन-स्वरूपतः स्फटिकवच्छुद्धेन बिमलेन-आगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णा अच्छविमलसलिलपूर्णा तां, तथा पडिहत्या-अतिरेकसा (त:) अतिप्रभूता इत्यर्थः भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यस्यां सा पडिहरथभ्रमन्मरस्यकच्छपा, तथा अनेकैः शकुनिगणमिथुनकैः गणशब्दस्य प्राकृतत्वावस्थानेऽप्युपनिपातः, शकुनिमिथुनकैविचरितैः-इतस्ततः स्वेच्छया प्रवृत्तैः शब्दोनतिकम्-उन्नतशब्दं मधुरखरं नादितं यस्यां सा अनेकशकुनिगणमिथुनकविचरितशब्दोन्नतिकमधुरखरनादिता, ततः पूर्वपदेन विशेपणसमासः, तां दृष्ट्वाऽवगाहेत, अवगाह्य च 'उष्णमपि' परिदाहमपि शरीरस्य तव 'प्रविनयेत्' प्रकर्षेण सर्वासना स्फोटयेत् , तथा | श्रुधामपि प्रविनयेत् प्रत्यासन्नतटवत्तिशलक्यादि किसलयभक्षणात्, तृपमपि प्रविनयेत् जलपानात् , जरमपि परिसंतापसमुत्थं प्रबि NAR ~248~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------------------ मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [८९] दीप अनुक्रम [१०५] नयेन परियाचक्षुत्पिपासाऽपगमान, एवं सकलक्षुदादिदोषापगमतः मुम्बासिफाभावेन निद्रायेत प्रचलायेत, तन्त्र अनिद्रावान निद्रा-1३ प्रतिपत्ती वान भवतीति व्यर्थविवक्षायां निद्रादिभ्यो धर्मिणि क्यविति कर्मणि स्यपप्रत्ययः, एवं प्रचलाशब्दादपि निद्रादेराकृतिगणवात् , नि-18 उद्देशः २ द्वापच लयोस्वयं विशेष:-सुखप्रयोधा स्वापावस्था निद्रा, उर्दु स्थितस्यापि या पुनधैतन्यमस्कुटीकुर्वती समुपजायते निद्रा सा प्रचला, नारकाणां एवं च क्षणमात्रनिद्रालाभतोऽतिस्वस्थीभूतः 'स्मृति वा' पूर्वानुभूतस्मरणं रतिं वा' तदवस्थाऽऽसक्तिरूपां 'धृति वा' चित्तस्वास्थ्य शीतोष्ण'मति वा' सम्यगीहापोहरूपाम् 'उपलभेत' प्राप्नुयान , ततः 'शीतः' बाह्यशरीरप्रदेशशीतीभावान् , 'शीतीभूतः' शरीरान्तरपि वेदनाः निर्वृतीभूतः सन् 'संकसमाणे' इति सम्-एकीभावेन कसन्-गन्छन् 'सातसौख्यवहुलश्चापि' सातम्-आहादस्तत्प्रधानं सौख्यं सू०८९ सातसौख्यं न त्वभिमानमात्रजनितमाहादविरहितं सातसौख्येन बहुलो-यामः सातसौख्यबहुलश्वापि 'विहरेत्' स्वेच्छया परिभ्र-10 मेत , 'एवमेव' अनेनैवानन्तरोदितदृष्टान्तप्रकारेण हे गौतम ! 'असद्भावप्रस्थापनया' असद्भावकल्पनया नेदं वक्ष्यमाणमभून केवलं नरकगतोष्णवेदनायाधात्म्यप्रतिपत्तयेऽसत्कल बत्त इति भावः, जाणवेडगेभ्यो नरकेभ्यो नैरविकोऽनन्तरमुर्तितो विनिर्गत: सन् 'यानि' इमानि प्रत्यक्षत उपलभ्यमानानि 'इह' मनुष्यलोके स्थानानि भवन्ति, सचथा-"गोलियालिंगाणि वा, सोडियालिंगाणि वा, भिंडियालिंगाणि वा, एते अग्नेराश्रयाविशेषाः, अन्ये तु देशभेदनीत्या पिष्टपाचनकाश्यादिभेदेनैतेषां स्वरूप कथयन्ति, तदप्यविरुद्धमेवेति, नैलानिरिति वा तुपानिरिति या बुसाग्निरिति वा नडाग्निरिति बा, नड:-तृणविशेषः, 'अयागराणीति वा भावानपुंस-1 कनिर्देश: अयआकरा इति वा, येषु निरन्तरं महाभूपास्खयोदलं प्रक्षिप्याऽय उत्पाटपते ते अयआकरा:, एवं ताम्राकरा इति वा त्र- ॥१२३ वाकरा इति वा सीसकाकरा इति वा सप्याकरा इति वा सुवर्णाकरा इति वा हिरण्याकरा इति वा, सुवर्णहिरण्ययोरत्र विशेषो वर्णा-1 T etrayam ~249~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: (नैरयिक)-२], --- -------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [१०५] दादिकृतो वेदितव्यः, इष्टकापाक इति वा कुम्भकारापाक इति वा कवेलुकापाक इति वा लोहकाराम्बरीष इति या, अम्बरीप:-को एकः, यन्त्रवाचुली इति, यत्रम्-पक्षुपीडनय तत्वधानः पाटको यत्रपादक: तब चुली यत्रेचरसः परयते, इत्यम्भूतानि यानि | मनुष्यलोके स्थानानि 'तप्तानि बहिसंपर्कतस्तप्तीभूतानि, तानि च कानिचिद् अयआकरप्रभृतीनि कदाचिदुष्णसर्शमात्राण्यपि संभदावन्ति ततो विशेषप्रतिपादनार्थमाह-'समजोईभूयाई प्राकृतत्वात्समशब्दस्य पूर्व निपातः, 'ज्योतिःतमभूतानि' साक्षादग्निवर्णानि, जातानीति भावः, एतदेवोपमया स्पष्टयति-'फुलकिंशुकसमानानि प्रफुलपलाशफुसुमकस्पानि 'उकासहस्साई' इति ये मूलाहानिदो विटुका वित्रुट्यामिकणाः प्रसर्पन्ति ते उल्का इत्युच्यन्ते तासां सहस्राणि उल्कासहस्राणि गुचन्ति मालासहस्राणि विनिर्मु चन्ति अङ्गारसहस्राणि प्रविक्षरन्ति 'अन्तरन्तईहूयमानानि' अतिशयेन जाज्वल्यमानानि, कचिन् 'अंतो अंतो सुहुयहुयासणा' इति पाठः, 'अन्तरन्तः सुहुतहुताशनानि' सुष्ट हुतो हुताशनो येषु तानि तथा तिष्ठन्ति तानि पश्येन् दृष्ट्वा चावगाहेत, अवगाह 18च 'उष्णमपि' नरकोणवेदनाजनितं बहिःशरीरस्य परितापमपि प्रविनयेन् , नरकगतादुष्णस्पदियधाकरादिपूष्णस्पर्शस्यातीव महन्दत्वात् , एवं च मुखासिकाभावतस्तुपामपि क्षुधमपि दाहमपि अन्तःशरीरसगुत्थं प्रविनयेन् , तथा च सति नूडादिदोपापग नतो निद्रायेत वा प्रचलायेत वा स्मृति वा रति वा धृति वा उपलभेत, तत: शीत: शीतीभूत: सन् 'संकसन् संकसन्' संक्रामन् संक्रामन् सानसौख्ववहुलो विहरेन् । अमीषा पदानामर्थः प्राग्यद्भावनीयः । एतावत्युक्ते भगवान गौतमः पृच्छति-भवे एयारूपे सिया ?' 'स्यात्' संभाव्यते एतद् यथा भवेद् उष्णवेदनीयेपु नरकेषु एतद्रपा उष्णवेदना ?, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थों यदुष्णवेदनीयेषु नरकेपु नैरयिका इति, अनन्तरं प्रतिपादितस्वरूपाया उष्णवेदनाया: अनिष्टतरिकामेव अप्रियतरिकामेव अमनोज्ञत -14 ४ ~250~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], -----.---- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------------------ मूल [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९] वेदनाः दीप अनुक्रम [१०५] श्रीजीवा- रिकामेव अमनआपतरिकामेव वेदना 'प्रत्यनभवन्तः प्रत्येकं वेदयमाना विहरन्ति ॥ सम्प्रति शीतवेदनीयेषु नरकेषु शीतवेदना-18 प्रतिपत्ती जीवाभि स्वरूपं प्रतिपादयति-'सीयवेयणिज्जेसु 'मित्यादि, शीतवेदनीयेषु भदन्त ! निरयेषु नैरयिकाः कीदृशी शीतवेदना प्रत्यनुभवन्तो । | उद्देशः२ मलयगि-IN विहरन्ति', स बथानामकः कर्मकरदारकः स्यान् तरुण इत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत्तावद् यावत्संहन्यान् नवरमुत्कर्पतो मासमिरीयावृत्तिः त्यत्र ध्यान , ततः 'स' कर्मकरदारक: 'तम्' अयपिण्डगुणं स चोष्णो बाह्यप्रदेशमात्रापेक्षवाऽपि स्थादत आह-'उष्णीभूत' स-18शीतोष्ण॥१२४॥ वासनाऽग्निवर्णीभूतमिति भावः, अयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वाऽसद्भावप्रस्थापनया शीतवेदनीयेषु नरकेपु प्रक्षिपेत् , ततः 'स' पुरुषः | 'तम्' अवस्पिण्डमित्यादि प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं यावद्विहरति, तक्षेत्रम्-'से णं तं उम्मिसियनिमिसियंतरेण पुणरवि पबुद्धरिस्सा- II मित्तिक? पविरायमेव पासेना पविलीणमेव पासेजा पविद्धत्थमेव पासेजा नो चेव णं संचाएइ अविरायं अविलीणं अबिद्धत्थं | पुणरवि पद्धरित्तए से जहानामए मत्तमायंगे जाव सायासोक्खबहुलेयावि विहरइत्ति' 'एवामेवे'त्यादि, अनेनैवाधिकृतदृष्टान्तोकेन प्रकारेण गौतम ! असद्भावप्रस्थापनया शीतवेदनीयेभ्यो नरकेभ्योऽनन्तरमुत्तः सन यानीमानि मनुष्यलोके स्थानानि भवन्ति, तद्यथा-हिमानि वा हिमपुजानि वा, सूत्रे नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् , हिमपटलानि वा हिमफूटानि वा, एतान्येव पदानि नानादे-1 शजविनेयानुपहाय पर्यायैाचष्टे-सीयाणि वा सीयपुंजाणि वा' इत्यादि, तानि पश्येत, दृष्ट्वा तान्यवगाहेत, अवगाह्य 'शीतमपि नरकजनितं शीतत्वमपि प्रविनयेन् , ततः सुखासिकाभावतस्तुपमपि क्षुधमपि ज्वरमपि नरकवेदनीयनरकसंपर्कसमुत्थं जा-10 व्यमपि प्रविनयेन् , ततः शीतत्वादिदोषापगमतोऽनुत्तरं स्वास्थ्यं लभमानो निद्रायेत वा प्रचलायेत वा स्मृति वा रति वा धृति वा[ रा दालभेत , ततो नरकगतजाध्यापगमादू उष्णः, स च बहि:प्रदेशमानतोऽपि स्यात्तत आह-'उष्णीभूतः' अन्तरपि नरकगतजा CRACKGROGRAM ~ 251~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: (नैरयिक)-२], --- -------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८] त्यापगमात् जातोत्साह इत्यर्थः, स एवंभूतः सन यथास्वसुखं (संकसन् ) संक्रामन सातसौख्यचहुलो विहरेन् , एवमुक्ते गौतम | आह-भवेयारूवे सिया?' इत्यादि प्रान्वन् । सम्प्रति नैरयिकाणां स्थितिप्रतिपादनार्थमाह इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० रतियाणं केवतियं कालं ठिती पपणत्ता?, गोयमा ! जहणेणवि उकोसणवि ठिती भाणितब्वा जाव अधेसत्तमाए ॥ (सू०९०)। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए रतिया अर्णतरं उव्वविय कहिं गच्छंति ? कहिं उववजंति? किं नेरतिएमु उवचजति ? किं तिरिक्खजोणिएसु उबवनंति ?, एवं उव्वदणा भाणितव्वा जहा वकंतीए तहा इहवि जाव अहेसत्तमाए ॥ (मू०११) 'रयणप्पभ'त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त : कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता ?, भगवानाह-गौतम! जयन्येन दश वर्ष-1 सहस्राणि उत्कर्षतः सागरोपमं, एवं शर्कराप्रभापृथिवीनैरयिकाणां जघन्यत एक सागरोपममुत्कर्षतस्त्रीणि सागरोपमाणि, वालुकाप्रभापूथिवीनैरयिकाणां जघन्यतस्त्रीणि सागरोपमाणि उत्कर्षतः सप्त, पक्षप्रभापृथिवीनैरयिकाणां जघन्यतः सप्त सागरोपमाणि उत्कतो दश, धूमप्रभाथिवीनरयिकाणां जघन्यतो दश सागरोपमाणि उत्कर्पतः सप्रदश, तमःप्रभापृथिवीनैरयिकाणां जपन्यतः सप्तदश सागरोपमाणि उत्कर्षतो द्वाविंशतिः, तमत्तमःप्रभायां जयन्यतो द्वाविंशतिसागरोपमाणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत् , कचित जहा पष्णवणाए ठिइपदे इसतिदेश: सोऽप्येवमेवार्थतो भावनीयः, तदेवं प्रतिपृथिवि स्थितिपरिमाणमुक्तं, यदा तु प्रतिप्रस्तट स्थिति-| परिमाणं चिन्तयते तदैवमवगन्तव्यम्-रजप्रभायां प्रथमे प्रस्सटे जपन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि १०००० उत्कृष्ठा नवतिः ५००००। AKADCARGADCAL दीप अनुक्रम [१०५] KARNCSC-% ARANEL ~252~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ --------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], --------------------- मूलं [९०-९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: k प्रत सूत्रांक [९०-९१] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- द्वितीये प्रस्तदे एपैव शतगुणिता जघन्या उत्कृष्टा च वेदितव्या, तद्यथा-जघन्या दशवर्षलक्षा १०००००० उत्कृष्टा नवतिवर्षलक्षाः प्रतिपत्ती जावाभि ९००००००, तृतीये प्रस्तटे जघन्यतो नबतिवर्पलक्षा उत्कृष्टा पूर्वकोटी, चतुर्थे जघन्या पूर्व कोटी उत्कृष्टा सागरोपमस्य दशमो भागः, उद्देशः २ मलयगि-16 पञ्चमे जघन्या सागरोपमस्यैको दशभाग उत्कृष्टा द्वौ दशभागौ, षष्ठे जघन्या सागरोपमस्य द्वौ दशभागायुत्कृष्टा अयः, सप्तमे ज- नारकाणां न्या अयः सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टाश्चत्वारः, अष्टमे जघन्या चत्वारः सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा पथ, नवमे जयन्या स्थितिः ३१२५॥ पञ्च सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा पट् , दशमे जपन्या पटू सागरोपमस्य दृशभागा उत्कृष्टा सप्त, एकादशे जधन्या सप्त उर-12 सू०९१ पाटी, द्वादशे जघन्याऽष्टौ उत्कृष्टा नव, त्रयोदशे जघन्या नव सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा दश, परिपूर्णमेकं सागरोपममिति भावः । शर्करामभागां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या एक सागरोपमं 'उत्कुष्टा एक सागरोपनं द्वौ च सागरोपमस्वैकादशभागी, द्वितीये प्रस्तटे जघन्या एक सागरोपमं द्वौ सागरोपमस्यै कादशभागो उत्कृष्टा एक सागरोपमं पखारः सागरोपमस्यैकादशभागाः, तृतीये जयन्या एकं सागरोपमं चत्वारः सागरोपमस्वैकादशभागा उत्कृष्टा एकं सागरोपमं पट् सागरोपममौकादशभागाः, चतुर्थे जघन्या एक सागरोपमं पद सागरोपमन्यैकादशभागा उत्कृष्टा एक सागरोपमम् अष्टौ सागरोपमस्यैकादशभागाः, पलमे जघन्या एक सागरोपमं अष्टी सागरोपमस्यैकादशभागाः उत्कृष्टा एक सागरोपमं दश सागरोपगबैकादश भागाः, पठे जघन्या एकं सागरोपमं2| दश सागरोपमस्कारशभागा उत्कृष्टाढे सागरोपमे एकः सागरोपमबैकादशभागः, सप्तमे जपन्या दे सागरोपमे एक: सागरोपम-18 खैकादशभाग उत्कृष्टा द्वे. सागरोपमे त्रयः सागरोपमस्यैकादशभागाः, अष्टमे जधन्या हे सागरोपमे त्रयः सागरोपमस्सैकादशभागाः ॥१२५॥ का उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे पञ्च सागरोपमन्यैकादशभागाः, नवमे जपम्पा द्वे सागरोपने पञ्च सागरोपमस्यैकादशभागाः उत्कृष्टा । साग-12 [१०६ -१०७] ~253~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [९०-९१] दीप अनुक्रम [१०६ 1901 JE “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(नैरविक)-२]. मूलं [ ९०-९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः रोपमे सप्त सागरोपमस्यैकादवाभागाः, दशमे जघन्या द्वे सागरोपमे सप्त सागरोपमस्यैकादशभागाः उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे नत्र लागरोपमस्यैकादशभागाः, एकादशे जघन्या द्वे सागरोपमे नव सागरोपमस्यैकादशभागाः उत्कृष्टानि परिपूर्णानि त्रीणि नागरोपमाणि । वालुकाप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थितिस्त्रीणि सागरोपमाणि उत्कृष्टा त्रीणि सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमत्य नवभागाः, द्वितीये जयन्या त्रीणि सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्टा त्रीणि सागरोपमाणि अष्टौ सागरोपमस्य नवभागाः तृतीये जघन्या त्रीणि सागरोपमाणि अष्टौ सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्टा चत्वारः सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य नत्रभागाः, चतुर्थे जघन्या चत्वारि सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्टा चत्वारि सागरोपमाणि सप्त सागरोपमत्व नवभागाः पञ्चमे जघन्या चत्वारि सागरोपमाणि सप्त सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्टा पच्च सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य नवभाग, पष्ठे अपत्येन पश्च सागरोपमाणि ही सागरोपमस्य नवभागौ उत्कृष्टा पश्च सागरोपमाणि पटू सागरोपमस्य नवभागाः सममे जघन्या पध्य साग| शेपभाणि पट् सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्टा पट् सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्य नत्रभागः, अष्टमे जघन्या पट् सागरोपमाणि एक: सागरोपमस्य नवभागः उत्कृष्टा पट् सागरोपमाणि पथ्य सागरोपमस्व नवभागाः, नवमे जघन्या पट् सागरोपमाथि पद सागरोपमस्य नवभागा: उत्कृष्टा परिपूर्णानि सप्त सागरोपमाणि, एपोऽत्र तात्पर्यार्थः- सागरोपमत्रयस्योपरि प्रतिप्रस्तदं क्रमेण चत्वारः सागरोपमस्य नवभागा बर्द्धयितव्यास्ततो यथोक्तपरिमाणं भवति । पप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे जयन्या स्थितिः सप्र सागरोपमाणि उत्कृष्ट सप्त सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य सहभागाः, द्वितीये जघन्या सप्त सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य समभागाः उत्कृष्ट सत सागरोपमाणि पट सागरोपमस्य समभागाः, तृतीये जघन्या सप्त सागरोपमाणि यद् सागरोपमस्य सप्तभागाः कुठा सागरोप For P&P Cy ~ 254 ~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ --------------------- उद्देशकः [(नैरयिक)-२], --------------------- मूलं [९०-९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: O प्रत सूत्रांक [९०-९१] श्रीजीवा- जीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥१२६॥ दीप अनुक्रम माणि द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागी, चतुर्थे जघन्याऽष्टी सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागी उत्कृष्टाऽष्टी सागरोपमाणि पञ्च प्रतिपत्ती सागरोपमस्य सप्तभागाः, पञ्चमे जघन्याऽष्टौ सागरोपमाणि पच सागरोपमस्य सप्तभागा: उत्कृष्टा नव सागरोपमाणि एकः सागरो- उद्देशः२ पमस्य सप्तभागः, पाठे जघन्या नव सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्म समभागः उत्कृष्ठा नब सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्यनारकाणां सप्तभागाः सप्तमे जपन्या नव सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य सत्रभागा: उत्कृष्टा परिपूर्णानि दश सागरोपमाणि, अत्रापीयं स्थितिः भावना-सागरोपमसप्तकस्योपरि जयखयः सागरोपमस्य सप्तभागाः प्रतिप्रस्तटं क्रमेण वर्द्धयितव्यास्ततो भवति यथोक्तं परिमाणमिति । सू० ९१ धूमप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थितिर्दश सागरोपमाणि उत्कृष्टा एकादश सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमरुप पचभागी. द्वितीये | जघन्या एकादश सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य पञ्चभागी उत्कृष्टा द्वादश सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य पञ्चभागाः, तृतीये जघन्या द्वादश सागरोपमाणि चलार: सागरोपमस्य पञ्चभागाः उत्कृष्टा चतुर्दश सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्य पभाभागः, चतुर्वे जघन्या चतुर्दश सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्य पञ्चभागः उत्कृष्टा पञ्चदश सागरोपमाणि त्रय: सागरोपमस्य पञ्चभागाः, पञ्चमे जपन्या पथवश सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य पञ्चभागाः उत्कृष्टा परिपूर्णानि सनदश सागरोपमाणि, एष चात्र भावार्थ:-सागरोपमदशकस्योपरि प्रतिप्रसट क्रमेणैकं सागरोपमं द्वौ च सागरोपमस्य पञ्चभागाविति बर्द्धयितव्यं ततो यथोक्तं परिमाणं भवति । तमःप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थिति: सप्तदश सागरोपमाणि उत्कृष्टाऽष्टादश सागरोपमाणि द्वौ च सागरोपमस्य त्रिभागी, द्वितीये | जघन्याऽष्टादश सागरोपमाणि द्वौ च सागरोपमस्य त्रिभागी उत्कृष्टा विंशतिः सागरोपमाणि एक: सागरोपमस्य त्रिभागः, तृतीये ज- ||१२६॥ घन्या विंशतिः सागरोपमाणि एक: सागरोपमस्य त्रिभाग: उत्कृष्टा द्वाविंशतिः सागरोपमाणि, अत्राप्येष तात्पर्यार्थ:-सप्तदश साग [१०६ -१०७] ~255~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], --------------------- उद्देशकः [(नैरयिक)-२], --------------------- मूलं [९०-९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०-९१] न दीप अनुक्रम [१०६-१०७] राणामुपरि प्रतिप्रस्तदं ब्रमेणैक सागरोपमं द्वौ च सागरोपमस्व विभागाविति बर्धयितव्यं, ततो यथोक्तं परिमाणं भवति । सप्तम्यो तु पृथिव्यामेक एवं प्रस्तट इति तत्र पूर्वोक्तगेव परिमाणं द्रष्टव्यम् । सम्प्रति नैरयिकाणामुद्वर्तनामाह-रयणप्पभापुढवि'इत्यादि, रत्नप्रभाथिवीनैरपिका भदन्त ! अनन्तरमुत्व क गच्छन्ति ?, एतदेव व्याचष्टे-कोत्पद्यन्ते इत्यादि, यथा प्रज्ञापनायां [ यथा ]] व्युत्क्रान्तिपदे तथा वक्तव्यं यावत्तमस्तमायां, तबातिप्रभूतमिति तत एवावधार्यम् , एष च सङ्ग्रेपार्थः रत्नप्रभापृथिवीनरयिका यावत्तमःप्रभापृथिवीनरयिका अनन्तरमुद्त्ता नैरयिकदेवैकेन्द्रियविकलेन्द्रियसंमूठिमपञ्चेन्द्रियासहदेयवीयुष्कवर्जेषु शेषेपु तिर्यानुष्येपूत्पद्यन्ते, सप्तमपृथिवीनैरयिकास्तु गर्भजतिपन्द्रियेवेव न शेपेषु । सम्पति नरकेषु पृथिव्यादिस्पर्शस्वरूपमाह इमीसे णं भंते ! ग्यण पुनेरतिया केरिसयं पुढविफार्म पचणुश्मवमाणा विहरंति?, गोयमा! अणिटुं जाय अमणाम, पूर्व जाव अहेसत्तमाए, इमीमे मंते ! रपण पु० नेरहया केरिसयं आउफासं पचणुग्भयमाणा विहरति?, गोयमा! अगिटुंजाव अमणाम, एवं जाव अहेसत्तमाए, एवं जाव वणफलिफासं अधेसत्तमाए पुढवीए । इमाणं भंते! स्वणप्पभापुढची दोचं पुर्वि पणिहाय सष्यमहतिया पाहल्लेणं सब्बवखुद्रिया नयनसु,ईना! गोयमा! इमा णं रयणप्पमानवी दोच पुढधि पणिहाय जाव सब्बक्खुद्रिया सबसु, दोवा णं भंते ! पुढवी नचं पुढविं पणिहाय सध्यमहतिया बाहल्लेणं पुच्छा, हंता गोधमा दोचा णं पुढवी जाव सम्बक्खुड़िया सवंतेसु, एवं एएणं अभिलावेणं जाव छहिता युद्धवी अहेलनमं पुर्वि पणिहाय मन्वक्खुडिया - - HOKRANCHI -- -- - जी०च०२२ ~256~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------- ------ मूलं [९२-९४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९२-९४] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्ति -4--00- 0 गाथा: ॥१२७॥ दीप अनुक्रम सन्यतेसु (सू०९२) इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० तीसाए नरयावाससयसहस्सु इकमिकसि प्रतिपत्तो निरयावासंसि सब्वे पाणा सवे भूया सत्वे जीवा सब्वे सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाय वणस्सइका- नरकाधि० इयत्ताए नेरइयत्ताए उवचनपुवा?, हंता गोयमा! असतिं अदुवा अर्णतखुत्तो, एवं जाव अहेस. | उद्देशः २ समाए पुढवीए णवरं जत्थ जसिया णरका। [इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पु० निरयपरिसामंतेसु | सू० ९२जे पुढविकाइया जाच वणप्फतिकाइया ते णं भंते ! जीवा महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महाआसपसरा चेव महावेषणतरा चेव ?, हंता गोयमा! इमीसे णं भिंते !] रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतसुतं चेष जाच महाबेदणतरका चेव, एवं जाय अधेसत्तमा] (सू०१३)। पुढवीं ओगाहित्ता, नरगा संठाणमेव वाहल्लं । विक्वंभपरिक्वेवे वपणो गंधो य फासो य ॥१॥ तेसिं महालयाए उबमा देवेण होइ कायब्वा । जीवा य पोग्गला वकर्मति तह सासया निरया ॥२॥ उववायपरीमाणं अवहारञ्चत्तमेव संघयणं । संठागवण्णगंधा फासा ऊसासमाहारे ॥३॥ लेसा दिही नाणे जोगुवओगे तहा समुग्घाया। तत्तो खुहापिवासा विउवणा वेयणा य भए ॥ ४ ॥ उववाओ पुरिसाणं ओवम्मं वेयणाएँ दुविहाए । उव्वणपुढवी उ, उववाओ सव्वजीवाणं ॥५॥ एयाओ संगहणिगाहाओ ॥ (मू०९४)। बीओ उद्देसओ समत्तो॥ ॥ १२७॥ 'रयणप्पभेत्यादि, रत्नप्रभापूथिवीनरविका भदन्त ! कीदृशं पृथिवीस्पर्श प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ?, भगवानाह-गौतम! 'अणि IN [१०८ ~ 257~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------- ----- मूलं [९२-९४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९२-९४] गाथा: अर्कतं अप्पियं अमणुन्नं अमणाम' अस्पार्थः प्राग्वत्, एवं प्रतिपृथिवि ताबद्वक्तव्यं यावत्तमस्तमायाम् , एवमप्लेजोवायुवनस्पतिस्पर्शसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं तेज:स्पर्श:-उष्णरूपतापरिणतनरककुड्यादिस्पर्श: परोदीरितवैक्रियरूपो वा वेदितव्यो न तु सा-18 क्षा वादरा निकायस्पर्शः, तत्रासम्भवात् ।। 'इमीसे णमित्यादि, अस्यां भदन्त' रमप्रभायां पुथिव्यां त्रिंशति नरकावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् नरकाबासे 'सर्वे प्राणा' द्वीन्द्रिया 'सर्वे भूताः' वनस्पतिकायिका: 'सर्वे सत्त्वाः पृथिव्यादयः 'सर्वे जीवाः पञ्चेन्द्रियाः, उक्त-प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्का, भूताश्च तरवः स्मृताः । जीवाः पचेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्वा उदीरिताः ॥ १॥" पृथिवीकायिकतया अप्कायिकतया वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकतया नैरयिकतया उत्पन्नाः उत्पन्नपूर्वा:?, भगवानाह-'हते त्यादि, हन्तेति प्रत्यवधारणे गौतम ! 'असकृत्' अनेकवारम् , अथवा 'अनन्तकृत्वः' अनन्तान वारान् , संसारस्थानादित्वात् , एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदध सप्तमी, नवरं यन्त्र यावन्तो नरकास्तत्र ताबन्त उपयुज्य वक्तव्याः । कचिदिदमपि सूर्ण रश्यते-इमीसे गं[8 भंते ! रवणपभाए पुढवीए निरयपरिसामतेमु गंजे बायरपुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया ने भंते ! जीवा ! महाकम्मतरा चैव महाकिरियतरा चेव महासवतरा चेव महावेयणतरा चेव, हंता गोयमा ! जाव महावेवणतरा चेब, एवं जाव अहेसत्तमा ॥" अस्यां भदन्त ' रमप्रभायां पृथिव्यां नरकपरिसमन्तेपु-नरकावासपर्यन्तवर्तिषु प्रदेशेषु वादरपृथिवीकाविका: 'जाव वणष्फइकाइय'त्ति वादापकायिका बादरवायुकायिका बादरवनस्पतिकायिकास्ते भदन्त ! जीवा: 'महाकम्मतरा चेव' महन-प्रभूतमसातवेदनीयं कर्म येषां ते महाकर्माणः, अतिशयेन महाकाणो महाकर्मतराः, 'चेवें सवधारणे, महाकर्मतरा एवं कुतः ? इत्याह--'महाकिरियतरा चेव' महती क्रिया-प्राणातिपातादिकाऽऽसीन प्राग जन्मनि तद्भवेषु तदध्यवसायानिवृत्त्या वेषां ते महाकिया:. अतिशयेन महाक्रिया दीप अनुक्रम LIVE ~258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------------------- मूलं [९२-९४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९२-९४] गाथा: श्रीजीवा-INमहाक्रियतराः, 'निमित्तकारणहेतषु सर्वासा विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति न्यायाद्धेतावत्र प्रथमा, ततोऽयमर्थ:-यतो महाक्रियता प्रतिपत्तो जीवाभि एव ततो महाकर्मतरा एव, महाक्रियतरलमपि कुतः' इत्याह-महाश्रवतरा एवं महान्त आश्रवाः-पापोपादानहेतब आरम्भा- नरकाधिक मलयांग-दादयो येपामासीरन ते महाश्रवाः, अतिशयेन महाश्रवा महालवत्तराः, 'चेवेति पूर्ववत् , तदेवं यतो महाकर्मतरा एव ततो महावेदन तवा महावदन हा उद्देशः २ रीयावृत्तिःतरा एव, नरकेषु क्षेत्रस्वभावजाया अपि वेदनाया अतिदुःसहत्वान, भगवानाह-रंता गौतम! 'ते णं जीवा महाकम्मतरा चेवेंत्यादि |NI ॥१२८॥ प्राग्वत् , एवं प्रतिथिवि तावदक्तव्य यावधःसप्तमी ।। सम्प्रत्युदेशकार्यसङ्ग्रहणिगाथा: प्राह-आसामक्षरमात्रगमनिका-प्रथमं 'पुढवीओ' इति पृथिव्योऽभिधेयास्तनाथा-कह णं भंते ! पुढवीभो पण त्ताओ?" इत्यादि । तदनन्तरम् 'ओगाहिता नरगा' इति, यस्यां पृथिव्यां यदवगाह्य यादृशाश्च नरकास्तदभिधेयं, यथा-"इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसथसहस्सवाहलाए उवरि केवइयं ओगाहिता" इत्यादि । नतो नरकाणां संस्थानं ततो बाहल्यं तदनन्तरं विष्कम्भपरिक्षेपौ ततो वर्णसतो गन्धस्तदन्तरं स्पर्शततस्तेषां नरकाणां महत्तायामुपमा देवेन भवति कर्त्तव्या, ततो जीवाः पुद्गलाश्च तेषु नरकेषु व्युत्क्रामन्तीति, तथा शाश्वताशाश्वता नरका इति वक्तव्यं, तत उपपातो वक्तव्यः, तद्यथा-"इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए कतो उबवजंति ?" इत्यादि, तत एकसमयेनोत्पद्यमानानां परिमाणं ततोऽपहारस्तत उच्चत्वं तदनन्तरं संहननं ततः संस्थानं ततो वर्णस्तदनन्तरं गन्धस्ततः स्पर्शस्तत उबलासवक्तव्यता सदनन्तरमाहारस्ततो लेश्या ततो दृष्टिस्तदनन्तरं ज्ञानं ततो योगस्तवोऽप्युपयोगस्तदनन्तरं समुद्घातस्ततः क्षुत्पिपासे ततो विकुर्बणा, तयथा-रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते! किं एगत्तं पभू विउन्वित्तए पुहुत्तं पहू विउवित्तए” इत्यादि। १२८॥ ततो वेदना ततो भयं तदनन्तरं पञ्चानां पुरुषाणामधःसप्तम्यामुपपातस्तत औपम्य वेदनाया द्विविधायाः, उष्णवेदनायाः शीतवेदना दीप अनुक्रम [१०८-११६] ह ...अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांके सू० ९५ मुद्रितं, तत् मुद्रण-दोषः,सूत्र-९४ एव अत्र वर्तते ~ 259~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------- ----- मूलं [९२-९४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९२-९४] गाथा: पायाश्चेत्यर्थः, ततः स्थितिर्वक्तव्या तदनन्तरमुद्वर्त्तना ततः स्पर्शः पृथिव्यादिस्पर्शो वक्तव्यः, ततः सर्वजीवानामुपपातः, तद्यथा-इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए सीसाए निरयावाससयमहस्सेसु पगमेगसि निरयावासंसि सब्वे पाणा सवे भूया" इत्यादि ।। तृतीयप्रतिपत्तौ समाप्तो द्वितीयो नरकोद्देशकः ।। सम्प्रति तृतीय आरभ्यते, नत्र चेमादिसूत्रम् इमीसे कभंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरतिया केरिसयं पोग्गलपरिणाम पञ्चणुभवमाणा विहरंति?, गोयमा! अणिटुंजाव अमणाम, एवं जाव अहेसत्तमाए [एवं नेयम् ।। एस्थ किर अतिवयंती नरवसभा केसवा जलचरा य । मंडलिया रायाणो जे य महारंभकोटुंबी ॥१॥ भिन्नमुहुत्तो नरगसु होति तिरियमणुएसु चत्तारि । देवेसु अद्धमासो उकोस विउवणा भणिया ॥ २॥ जे पोग्गला अणिवा नियमा सो तेमि होइ आहारो । संठाणं तु जहणं नियमा हुंडं तु नायब्वं ॥३॥ असुभा विउवणा ग्वलु नेरइयाणं तु होइ सम्वेसिं । वेउब्वियं सरीरं असंघयण हुंडसंठाणं ॥ ४ ।। अस्साओ उववपणो अस्साओ चेव चयइ निरयभवं । सधपुढवीसु जीवो सब्वेसु ठिइविसेसेसुं ॥५॥ उबवाएण व सायं नेरइओ देवकम्मुणा वावि । अज्नयसाणनिमिनं अहवा कम्माणुभावेणं ॥३॥नेरझ्याणुप्पाओ उकोसं पंचजोयणसयाई। दुकावणभियाणं वेयणसयसंपगादाणं ॥ ७ ॥ अच्छिनिमीलियमेत्तं नथि सुहं दुक्खमेव पडिबई । नरण नेरइयाण अहोनिसं पञ्चमाणाणं ॥ ८॥ मेयाकम्ममरीरा सुहुमसरीरा य जे अपज्जत्ता । जीवेण मुकमेना दीप अनुक्रम [१०८-११६] अत्र तृतीय प्रतिपत्तौ "नैरयिक स्य वितिय-उद्देशकः परिसमाप्त: अथ तृतीय प्रतिपत्तौ "नैरयिक स्य तृतीय-उद्देशक: आरभ्यते ~260~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [१], ------- ----------- उद्देशक: [(नैरयिक)-3], ------- -------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [९५] गाथा: वचंति सहस्ससो भेयं ॥९॥ अतिसीतं अतिउण्हं अतितपहा अतिखुहा अतिभयं वा । निरए ३प्रतिपत्ती नेरइयाणं दुक्खमयाई अविस्मामं ॥ १०॥ एत्थ य भिन्नमुहुत्तो पोग्गल असुहा य होइ अस्सा नरकाधिक ओ। उबवाओ उपाओ अच्छि सरीरा उ योद्धव्वा ॥११॥ नारयउद्देसओ तइओ ॥ से तं नेर | उद्देशः३ सू० ९६ तिया ।। (म०९५) यणप्पयादि, रमप्रभापूधियीनरयिका भदन्त ! कीदृशं 'पुद्गलपरिणाम' आहारादिपुलविषाकं 'प्रत्यनुभवन्तः' प्रत्येकी 2 विदयमाना विहरन्ति ?, भगवानाह-गौतम अनिष्टमित्यादि प्राग्वन् , एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तमी, एवं वेदनालेण्यानामगोत्रारतिभयशोकक्षुत्पिपासाव्याधिउच्छासानुतापक्रोधमानमायालोभाहारभवमैथुनपरिमहसज्ञासूत्राणि बक्तव्यानि, अत्र सङ्घहणिगाथे--पोग्गलपरिणामे वेपणा य लेसा य नाम गोए य । अरई भए य सोगे खुहा पिषामा य वाही य ।। १ ।। उस्सासे अणुतावे कोहे माणे य मायलोभे य । चत्तारिय सणानो नेरइयाणं तु परिणामे ॥ २॥" सम्प्रति सप्तमनरकधिव्यों ये गच्छन्ति तान प्रतिपादयति-इह परिमहसम्हापरिणामबक्तव्यतायां चरमसूत्रं सप्तमनरकपृथ्वीविषयं तदनन्तरं चेयं गाथा तत: 'एत्थे' त्यनन्तरमुक्ताइयःसप्तमी पृथिवी परामृश्यते, 'अत्र' अधःसप्तमनरकथिव्यां 'किल' इत्याप्तवादसूचने आप्तवचनमेतदिति भावः, 'अ-14 तिब्रजन्ति' अतिशयेन-बाहुल्येन गच्छन्ति नरवृषभाः 'केशवा' वासुदेवाः 'जलचराश्च' तन्दुलमत्स्यप्रभृतयः 'माण्डलिकाः' वसु ॥१२९॥ प्रभृत्य इव 'राजानः' चक्रवर्तिनः मुभूमादय इब ये च महारम्भाः कुटुम्बिन:-कालसौकरिकादय इव ।। सम्पति नरकेषु प्रस्तावा दीप अनुक्रम [११७-१२९] **अत्र मूल-संपादने सूत्र क्रमांके सू० ९६ मुद्रितं, तत् मुद्रण-दोषः,सूत्र-९५ एव अत्र वर्तते ~261~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-3], -------------------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 1600-50 K सूत्राक [९५] गाथा: cात्तिर्यगादिषु चोत्तरवैक्रियावस्थानकालमानमाह-भिन्न:-खण्डो मुहूत्तों भिन्नमुहूर्त: अन्तर्मुहूर्तमित्यर्थः, नरकेपूरकर्पतो बिकुर्वणास्थितिकालः, तिर्यमनुष्येषु चखार्यन्तर्मुहानि, देवेवर्द्धमास उत्कर्षतो विकुर्वगाऽवस्थानकालः भणित: एप उत्कर्षतो विकुणाऽवस्थान कालो भणितस्तीर्थकरगणधरैः ।। सम्प्रति नरकेलाहाराविखरूपमाह-ये पुगला अनिष्टा नियमात्स तेषां भवत्याहारः, 'संस्थानं तु' संथानं पुनसेषां हुण्डं हुण्डमपि जघन्यमतिनिकृष्ठमनिष्टं बेदितव्यं, एत्तञ्च भवधारणीयशरीरमधिकृत्य वेदितव्यम् , उत्तरवैफियसंस्थानस्याप्रे वक्ष्य| माणसान् , इयं च प्रागुक्तार्थसङ्घहगाथा ततो न पुनरुक्तदोषः ।। सम्प्रति विकुर्वणास्वरूपमाह-सपा नैरयिकाणां विकुर्वणा 'खलु' |निश्चितमशुभा भवति, यदापि शुभं विकुर्विष्याग इति ते चिन्तयन्ति सथाऽपि तथाविधप्रतिकूलकोयतस्तेषामशुभैव चिकुर्वणा भवति, हैं तदपि च क्रिय-उत्तरक्रियशरीरमसंहननम , अस्थ्यभावान् . उपलक्षणमेतत् भवधारणीयं च वैक्रियशरीरमसंहननं. तथा हुण्डसं-1 स्थानं तन् उत्तरवैक्रियशरीर, हुण्डसंस्थाननाम्न एव भवप्रत्ययत उदयभावान् ।। कश्चिन् जीव: 'सर्वास्वपि पृथिवीषु रमप्रभादिषु तमस्तमापर्यन्तामु सर्वेष्वपि च 'स्थितिविशेषेषु' जघन्यादिरूपेषु 'असातः' असातोदयकलित उपपन्नः. उत्पत्तिकालेऽपि प्राग्भवमरणकालानुभूतमहादुःखानुवृत्तिभावान् , उत्पत्त्यनन्तरमपि 'असात एवं' असानोदयकलित एवं सकलमपि निरयभवं 'त्यजति क्षपMयति, न तु जानुचिदपि सुखलेशमप्यास्वादयति ।। आह-किं तत्र कदाचित्सातोदयोऽपि भवति येनेदमुच्यते ?, उच्यते. भवति, तथा चाह--'उववाएण' इत्यत्र साम्यर्थे तृतीया, उपपातकाले 'सातं' सातवेदनीयकोदयं कश्चिद्वेदयते, य: प्रारभवे दाघरछेदादिष्यतिरेकेण । | मरणमुपगतोऽनविसङ्गिाष्ट्राध्यवसायी समुत्पद्यते, तदानीं हि न तस्य प्राग्भवानुवद्धमाधिरूपं दुःखं नापि क्षेत्रवभाव नापि परमाजाधामिककृतं नापि परस्परोपीरितं तत एवंविधदुःखाभाबादसौ सातं कश्चिन् वेदयते इत्युच्यते. 'देवकम्मुणा वावि' इति देवकर्मणा दीप अनुक्रम [११७-१२९] AROGREOGADCHOCOLX ~ 262~ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [१], ------- ----------- उद्देशक: [(नैरयिक)-3], ------- -------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक जीवाभिकरणवासुदेवस्य, सर [९५] T गाथा: श्रीजीवा- पूर्वसागतिकदेवप्रयुक्तया क्रियया, तथाहि-गच्छति पूर्वसाङ्गतिको देवः पूर्वपरिचितस्य नैरयिक स्य वेदनोपशमनार्थ यथा बलदेवः कु-हा प्रतिपत्तो प्णवासुदेवा, स थ वेदनोपशमी देवकृतो मनाकालमात्र एव भवति, सत ऊर्च नियमाक्षेत्रम्वभावजाऽन्योऽन्या या वेदना प्रवर्तते, नरकाधिक मलयगि- तथास्वाभाल्यान् , 'अज्झवसाणनिमित्त मिति अध्यवसाननिमित्तं सम्यक्त्वोत्पाइकाले तत ऊर्ध्वं कदाचित्तथाविधविशिष्टशुभाध्यव- उद्देशः३ रीयावृत्तिः सायप्रत्ययं कश्चिद् नैरयिको बाह्यक्षेत्रखभावजवेदनासद्भावेऽपि सानोदयमेवानुभवनि, सम्यक्त्वोत्पादकाले हि जात्यन्धस्य चक्षुर्लाभ इबसू०९६ | महान प्रमोद उपजायते, तदुत्तरकालमपि कदाचित्तीर्थकरगुणानुमोदनावानुगतां विशिष्टां भावना भावयतः, ततो वाह्यक्षेत्रस्वभावज वेदनासद्भावेऽप्यन्तः सातोदयो विज़म्भमाणो न विरुध्यते, 'अहवा कम्माणुभावेण मिति अथवा 'कम्र्मानुभावेन' वाह्यतीर्थकरजहान्मदीक्षाज्ञानापवर्गकल्याणसंभूतिलक्षणवाानिमित्तमधिकृत्य तथाविषस्य च सातवेदनीयस्थ कर्मणोऽनुभावेन-विपाकोदयेन क-13 निश्चित्सात बेदयते, न चैतबयाण्यानमना यत उक्तं वसुदेवचरिते, इह नैरयिकाः कुम्भ्यादिपु पच्यमानाः कुन्तादिभिर्भिद्यमाना वा भयोबस्तास्तथाविधप्रवनवशार्द्धमुलवन्ते, ततस्तदुरपातपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-नैरयिकाणां दुःखेनाभिद्रुताना-सामना व्यामानां 'वेदनाशतसंप्रगाढानां' वेदनाशतानि-अपरिमिता वेदनाः संप्रगाढानि-अवगाढानि येषां ते वेदनाशतसंप्रगाढाः सुखादिदर्शनात् निष्टान्तस्य परनिपातः, तेषां हेतुहेतुमद्भावश्चात्र, यतो वेदनाशतसंप्रगाढास्त तो दुःखेनाभिद्रुताः, तेषां जघन्यत उत्पासो गव्यूतमात्रम् , एतच संप्रदायादवसीयते, तथा च दृश्यते कथिदेवमपि पाठ:-नेरइयाणुप्पाओ गाउय उकोस पंचजोयणसवाई" इति, 8| उत्कर्षतः पञ्च योजनशतानि इति । दुःखेनाभिहतानामित्युक्तं ततो दुःखमेव निरूपयति-नरके नैरयिकाणामुष्णवेदनया शीतबेदनया 31 वाऽहनिशं पच्यमानानां न 'अक्षिनिमीलनमात्रमपि' अक्षिनिकोचकालमात्रमपि अस्ति सुखं, किन्तु दुःखमेव केवलं 'प्रतिबद्धम् | दीप अनुक्रम [११७-१२९] Jabe .. अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांके सू० ९६ मुद्रितं, तत् मुद्रण-दोषः,सूत्र-९५ एव अत्र वर्तते ~263~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-3], -------------------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [९५] %--5 गाथा: L2 अनुबद्धं सदाऽनुगतमिति भावः ॥ अथ यशेषां वैक्रियशरीरं तत्तेषां मरणकाले कथं भवति ? इति तन्निरूपणार्थमाह-तैजसकार्मणशरीराणि यानि 'सूक्ष्मशरीराणि' (च) सूक्ष्मनामकम्र्मोदयक्तां पर्याप्तानामपर्याप्तानां चौदारिकशरीराणि वैक्रियाहारकशरीराणि च तेपामपि प्रायो मांसचक्षुराहतया मूक्ष्मत्वान् तथा यानि 'अपर्याप्तानि अपर्याप्तशरीराणि तानि जीवेन मुक्तमात्राणि सन्ति सहस्रशो भेदं ब्रजन्ति विसकलितास्तत्परमाणुसङ्घाता भवन्तीयर्थः ।। एतासामेव गाथानां संग्राहिकां गाथामाह-एत्थ' इति पदोपलक्षिता प्रथमा द्वितीया 'भिन्नमुहत्तो' इति तृतीया 'पोग्गला' इति 'जे पोग्गला अणिवा' इत्यादि चतुर्थी 'अशुभा' इति (जे) 'असुभा विउब्वणा खलु' इत्यादि, एवं शेषपदान्यपि भावनीयानि || तृतीयप्रतिपत्तौ तृतीयो नरकोरेशकः समाप्तः । तदेवमुक्तो |नारकाधिकारः, सम्प्रति निर्वगधिकारो वक्तव्यः, तत्र चेदमादिसूत्रम से किं तं तिरिक्खजोणिया?, निरिक्वजोणिया पंचविधा पण्णता, तंजहा-एगिंदियतिरिक्तजोणिया येइंदियतिरिक्वजोणिया तेइंदियनिरिक्वजोणिया चउरिदियतिरिक्खजोणिया पंचिंदियतिरिकबजोणियाय । से किं तं एगिदियतिरिक्वजोणिया?, २ पंचविहा पणत्ता, तंजहापुढविकाइयएगिदियतिरिक्वजोणिया जाव वणस्सइकाइयएगिदियतिरिक्वजोणिया । से किं तं पुडविकाइयएगिदियतिरिक्वजोणिया?.२ विहा पणत्ता, तंजहा-सुहमपुढविकाइयएगिदियतिरिक्वजोणिया वादरपुढाविकाइयएगिदियतिरिक्खजोणिया य । से किं तं सुहमपुढविकाइथएगिदियतिरि०१, २ दुविहा पण्णत्ता, संजहा-पजससुहुम० अपजत्तसुहम से तं सुहमा । दीप अनुक्रम [११७-१२९] अत्र तृतीय-प्रतिपत्तौ नरकोद्देशक: परिसमाप्त: अत्र तृतीय-प्रतिपत्तौ तिर्यञ्च-उद्देशक: -१ आरब्ध तिर्यञ्च-सम्बन्धी विविध विषयाधिकार: ~264~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -- .........---- उद्देशक: (तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूल [९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः RECA- O प्रत दा प्रतिपत्ती तिर्यगधि । उद्देशः १ सू०९६ सूत्रांक ॥१३१॥ CT - [१६] -- स किं तं पादरपुढविकाइय?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्सवादरपु० अपजत्रावादरपुर, से तं थायरपुतविकाइयएगिदिया से तं पुढवीकाइयएगिदिया । मे किं तं आपकाइयएगिदिय०१, २ दुविहा पणत्ता, एवं जहेव पुढविकाइयाणं तहेव, वाउकायभेदो एवं जाव वणस्सतिकाइया से नं वणस्सइकाएगिदियतिरिक्व०से किं तं बेइंदियतिरिक्व०?, २ दुविधा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तकइंदियति अपजत्तवेइंदियति०, से तं बेइंदियतिरिक एवं जाय चाउरिदिया। से किं तं पंचेदियतिरिक्खजोणिया?, २तिविहा पण्णता, तंजहा-जलयरपंचेंदियतिरिक्वजोणिया घलयरपंचेदियतिरिक्वजो वहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया।से किं तं जलयरपंचेदियतिरिक्वजोणिया?, २ विहा पण्णता, तंजहा-संमच्छिमजलयरपंचेदियतिरिक्वजोणिया य ग भवानियजलयरपंचंदियतिरिक्वजोणिया या से कितं समुच्छिनजलयरपंचिंदियतिरिक्वजो. णिना, २ दुधिहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगसमुच्छिम० अपजत्तगसंभुच्छिम. जलयरा, से न संच्छिमा पंचिंद्रियतिरिक्रवः । से किं तं गम्भवतियजलयरपंचेदियतिरिकग्वजोणिया ?, २दुविधा पण्णता, तंजहा-पजत्तगगम्भवतिय० अपज लगभ० से तं गम्भवनियजलयर० से तं जलयरपंचेंदियतिरिकासे किं तं थलयरपंचेंदियतिरिकावजोणिता?,२ दुविधा पण्णत्ता, तंजहा-चउपयथलयरपंचेंदिय. परिसप्पथलपरपंचेंदियतिरिक्वज़ोणिता। - दीप --- ANGRECRAC अनुक्रम [१३०] - १३१॥ ~265~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [१३०] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], मूलं [९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः से किं तं चप्पलयरपंचिंदिय० ? चउप्पय० दुबिहा पण्णत्ता, जहा - संमुच्छिमच उप्पयथauritiare reaiनियचउप्पयथलयरपंचेंद्रियतिरिक्वजोणिता य, जहेब जलयराणं तहेव चको भेदो, सेत्तं चप्पलयरपंचेंद्रिय० । से किं तं परिसप्पयरपंचेंद्रियतिरिक्ख० ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा — उरगपरिसप्पथलयरपंचेंद्रियतिरिक्खजोणिता भुयगपरिसम्पधलयरपंचेंद्रियतिरिक्खजोणिता । से किं तं उरगपरिसप्पथलयरपंचेंद्रियतिरिक्ख जोणिता ?, उरगपरि० दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा- जहेब जलयराणं तहेव चक्कतो भेदो, एवं भुयगपरिसप्पाणवि भाणितत्रयं से नं भुयगपरिसप्पथलयरपंचेंद्रियतिरिक्वजोणिता से तं थल पर पंचेंद्रियतिरिक्खजो - शिता । से किं तं खयर पंचेंद्रियतिरिक्ग्वजोणिया ?, वह० २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजा-संमुच्छि मखयरपंचेंद्रियतिरिक्ग्वजोणिता गन्भवतियस्वह पर पंचेंद्रियनिरिक्खजोणिता य से किं तं संमुच्छिमहयरपंचेद्रियतिरिक्खजोणिता?, संमु० २ दुविधा पण्णत्ता, तंजहा - पत्तगसंमुच्छिमखयरपंचेद्रियतिरिक्खजोणिया अपजत्तग समुच्छिमखपरपंचेद्रियनिरिक्खजोणिया प एवं भवतियाचि जाब पतगगन्भयकंनियावि जाव अपजन्तगगग्भवनियावि खहयर पंचदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! कतिविधे जोणिसंगहे पण्णत्ते ?, गोयमा! तिविहे जोणिसंग For P&Praise Cly ~266~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- --. ..---------- उद्देशक: (तिर्यञ्च )-१], .......---------...- मूलं [९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत मलयगि सूत्रांक [१६] श्रीजीवा- पण्णत्ते, जहा-अंच्या पोषया संमुच्छिमा, अंडया तिविधा पणत्ता, तंजहा-इत्थी पुरिसा प्रतिपत्ती जीवाभि० गपुंसगा, पोतया तिविधा पण्णता, जहा इत्थी पुरिसा मुसया, तस्थ णं जे ते संमुच्छिमा तियंगधि ते सब्वे णपुंसका ।। (मु०१६) साउद्देशः १ रीयावृत्तिः से किं तमित्यादि, अथ के ते तिर्यग्योनिका ?, सरिराह-हिरसोनिका: विविधाः प्राप्ताः, तपथा-एकेन्द्रिया इत्यादि सूत्रसू०९७ प्रायः सुगम केवलं भूयान पुस्तके वाचनामेव इति यथाऽवधितवाचनाक्रमप्रदर्शनार्थनारसंस्कारमा क्रियते- केन्द्रिया बावत्प-| ॥१३२॥ चेन्द्रियाः । अथ के ते एकेन्द्रिया:?, एकेन्द्रियाः पञ्चविधाः प्रज्ञयाः, तयवा-पृथिवीकायिका यावद्वानस्पतिकायिकाः । अथ के ते पृथिवीकायिका: १, पृथिवीकायिका द्विविधा: प्रज्ञमाः, नयाधा-मुश्मपृथिवीकायिकाश्च वादरचित्रीकायिकाश्च । अथ के ते सूक्ष्मथिवीकायिकाः ?, सूक्ष्मपथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञापास्तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्रकाश्च । अथ के ते बादरएथिवीकायिका: ?, यादरपृथिबीकायिका द्विविधाः प्रक्षप्रास्तयथा-पर्यानका अपर्याप्रकाश्च, एवं नावद्वक्तव्यं यावद्वनस्पतिकायिकाः । अथ के ते द्वीन्द्रिया:?, द्वी. न्द्रिया द्विविधाः प्रशप्ता:-पर्याप्तका अपर्याप्रकाश्च, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया अपि वक्तव्याः । अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्थग्योनिकाः | पञ्चेन्द्रियतियायोनिकानिविधाः प्रामास्तद्यथा-जलचरा: स्थलचराः खचराश्च । अथ के ते जलचराः ?, जलचरा द्विविधाः प्रज्ञप्रास्तहाद्यथा-संमूछिमा गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च । अथ के ते संमूछिमाः, समूच्छिमा द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्रकाश्च । अथ | ॥१३२॥ अटजव्यतिरिकाः सर्वेऽपि जरायुजा अपरायुजा वा नभब्युरकान्तिकाः पञ्चेन्द्रिया अग्रवान्तावनीया इति न चतुर्विधा, समाधास्पति चवरे, केवलमत्र जरायुजतया पक्षिामतिः न समायरादतिः, दीप अनुक्रम [१३०] ~267~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -- ------------ उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], --- -------- मूलं [९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः?, गर्भव्युत्क्रान्तिका द्विविधाः प्रजप्रास्तद्यथा-पर्याप्तका अपर्यातकान, एवं चतुष्पदा उर:परिसर्पा भुजपरिसपीः पक्षिणश्च प्रत्येकं चतुष्प्रकारा बक्तव्याः ।। मम्प्रति पक्षिणां प्रकारान्तरेण भेदप्रतिपादनार्थमाह-'पक्खि गं (खहयरपंचिंदियतिरि०) भंते !' इत्यादि, पक्षिणां भदन्त ! 'कतिविधः' ऋतिप्रकार: 'योजिसनहः' योन्या सङ्घदणं योनिसङ्कहो योन्युपलक्षितं ग्रहणमित्यर्थः (प्रज्ञम: ?), भगवानाह-गौतम! त्रिविधो योनिमहः प्रज्ञमस्तपथा-अण्डजा-मयूरादयः पोतजा-बागुल्यादयः संमूछिमाः खजरीटादयः, अण्डजाम्विविधाः प्रज्ञमास्तयथा-खियः पुरुषा नपुंसकाच, पोतजाखिविधाः प्रज्ञापास्त यथा-खियः पुरुपा नपुंसकाच, नत्र येते संमूछिमास्ते सवें नपुंसकाः, संमूर्णिधमानामवश्यं नपुंसकवेदोषवभावान् ।। एतेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! छल्लेसाओ पण्णसाओ, तंजहा -कण्हलेसा जाव सुक्कलेसा ॥ ते णं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छदिवी?, गोयमा! सम्मदिट्ठीवि मिच्छविट्ठीवि सम्मामिच्छदिट्ठीवि ॥ ते भंते! जीवा किं णाणी अ. पणाणी?, गोयमा! णाणीवि अण्णाणीवि तिषिण णाणाई तिपिण अण्णाणाई भयणाए ॥ ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी बइजोगी कायजोगी?, गोयमा! तिविधाथि ॥ ते णं भंते ! जीवा किं सागारोव उत्ता अणागारोव उत्सा?, गोयमा! सागारोवउत्तावि अणागारोवउत्तावि ।। ते णं भंते! जीवा कओ उववजति किं नेरतिएहितो उप०तिरिक्वजोणिएहितो उव०१, पुच्छा, गो यमा! असंग्वेजवासाउयअकम्मभूमगअंतरदीवगवजेहिंतो उववजंति ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं जी०च०२३४ दीप अनुक्रम [१३०] ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [९७] दीप अनुक्रम [१३१] उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], प्रतिपत्तिः [३], मूलं [९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १३३ ॥ Ja Ebe “जीवाजीवाभिगम" केवलियं कालं दिनी पण्णत्ता?, गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहृत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजतिभागं । तेसि णं भंते! जीवाणं कति समुग्धाता पण्णत्ता?, गोयमा ! पंच समुग्धाता पण्णत्ता, तंजहा - वेदणासमुग्धाए जाव तेयासमुग्धाए ॥ ते णं भंते! जीवा मारणांतियसमुग्धाएणं किं समोहना मरति असमोहना मरंति ?, गोयमा ! समोहतावि म० असमोहयावि मरति ॥ ते भंते! जीवा अनंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छति ? कहिं उववज्जंति ? - किं नेरलिएसु उववज्जति ? तिरिक्ख० पुच्छा, गोयमा ! एवं उच्चणा भाणियच्या जहा वर्षातीए तहेव ।। तेसि णं भंने! जीवाणं कति जानीकुलकोटिजोगीपमुहसयमहस्सा पण्णत्ता ?, गोधमा ! वारस जाती कुलकोडीजोसहरसा | भुयगपरिसप्पधलयरपंचेंद्रियतिरिक्ग्वजोगियाणं भंते! कतिविधे जोणीसंगहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! तिविहे जोणीसंगहे पण्णसे, तंजहा- अंडगा पोयगा संमुच्छिमा एवं जहा स्वहग्रराणं तद्देव, णाणत्तं जहन्नणं अंतोमुहन्तं उक्कोमेणं पुव्यकोडी, उच्चहिता दोघं पुर्वि गच्छति णव जाती कुलको डीजोणी पमुहसतसहस्सा भवतीति क्या सेसं तहेव ॥ उर परिसप्पलयरपंचेंद्रियतिरिकम्वजोणियाणं भंते! पुच्छा, जहेब भुयगपरिसप्पाणं तहेव, णघरं किती जणं अंतमुत्तं उक्कोसेणं पुव्यकोडी, उब्वहित्ता जाव पंचमिं पुढवि गच्छति, दस जाती कुलकोडी | चउपयथलयरपंचंदियतिरिक्त० पुच्छा, गोयसा । दुबिधे पण्णत्ते, तंजा For P&Palle Cinly ~ 269~ ३ प्रतिपत्ती तिर्यग्यो म्यधि० उद्देशः १ सू० ९७ ।। १३३ ।। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ................... उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], --------- - मूल [९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % प्रत % सूत्रांक % [१७] % जराउया (पोयया) य संमुच्छिमा य, (से किं तं ) जराच्या (पोयया)?,२ तिविधा पण्णत्ता, नंजहा-इत्थी पुरिसा णपुंसका, तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सब्वे णपुंसया । तेसिकते। जीवाणं कति लेस्साओ पण्णत्ताओ?, सेसं जहा परवीणं, णाणत्तं ठिती जहन्नेणं अंतोमहत्तं युकोसेणं तिन्नि पलिओवमाई, उवाहित्ता चउत्यि पुढविं गच्छति, दस जातीकुलकोडी।। जलयरपं. चेदियतिरिक्वजोणियाणं पुरुछा, जहा भुयगपरिसप्पाणं णवरं उब्यट्टित्ता जाय अधेमत्सम पुढविं अद्धतेरस जातीकुलकोडीजोणीपमुह जाब प०॥चाउरिदियाणं भंते! कनि जातीकुलकोडीजोणीपमुहसतसहस्सा पणत्ता?, गोयमा! नव जाईकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा [जाय समक्खाया। तेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा! अट्टजाइकुल जावमक्खाया। बेइंदियाणं भंते ! कह जा०?, पुच्छा, गोयमा! सत्त जाई कुल कोडीजोणीपमुह।। (सू०१७) "एएसि णमित्यादि, एतेषां पक्षिणां मन्न ! जीवानां कति लेश्या: प्रज्ञमा: ?, भगवानाह-गौतम! पढ़ लेश्याः प्रज्ञमाः, तद्यधाकृष्णलेश्या यावा शुललेश्या, तेषां द्रव्यतो भावतो वा सर्वा लेश्याः, परिणामसम्भवान् ।। 'ते णं भंते।' इत्यादि, ते भदन्त ! पक्षिणो जीवाः किं सम्यग्दृष्ट्यो मिध्यादृष्टयः सम्यग्मिध्यादृष्टयश्च ?, भगवानाह-गौतम ! त्रिविधा अपि । 'ते णं भंते !' इत्यादि, ते भदन्त ! जीवाः किमानिनोऽज्ञानिन: ?, भगवानाह-गौतम द्वयेऽपि, ज्ञानिनोऽज्ञानिनोऽपीत्यर्थः, तत्र ये ज्ञानिनस्ते विज्ञानिनखिता-16 दा निनो पा येऽप्यज्ञानिमस्तेऽपि व्यज्ञानिनस्यज्ञानिनो वा ।। 'ते णमित्यादि, ने भदन्त ! जीवाः कि मनोयोगिनो वायोगिनः काययो दीप 4-56-0% अनुक्रम [१३१] ~270~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- .........---- उद्देशक: (तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूल [९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] श्रीजीवा- गिन: ?, भगवानाह-गौतम ! त्रयोऽपि ।। 'तणं भंते !' इत्यादि, ते भदन्त ! जीवाः किं साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुका:?. भगवा-11 प्रतिपत्ती जीवाभिःनाह-द्वयेऽपि, साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ताओत्यर्थः । तेणं ते!' इत्यादि, ते भवन्त ! पक्षिणो जीवाः कुत उत्पपाते ? निरवि तिर्यग्योमलयगि- केभ्य इत्यादि प्रथा प्रज्ञापनायां व्युत्क्रान्तिपदे तथा भ्रष्टव्यम् ।। 'तेसि णमित्यादि, तेपां भवन्त ! पक्षिणां कियन्त कालं स्थितिः प्र. न्यधिक रीयावृत्तिःमा , भगबानाइ-गौतम! जयन्येनान्तमुहर्तमुत्कर्पतः पल्योपमासयेयभाग: ।। 'तेसि 'मित्यादि, तेषां भदन्त ! जीयानां कृतिउडेश समुद्याताः प्रज्ञप्ताः भगवानाह-गौतम ! प ल मुद्घाता: प्रक्षमाः तथा-वेदनासमुद्रातः कपायस मुद्धातो मारणान्तिकल मुद्यानोनिसा ॥१३४॥ वैक्रियसमुद्घातस्तैजससमुद्रात तणं भंते !' इत्यादि, ते भदन्त ! जीवा मारणान्तिकसमुत्पातेन कि समबहता नियन्ते असमबहता विधन्ते ?, भगवानाहौसम ! समबहता अपि नियन्ते असमबहता अपि नियन्ते ॥ 'ते णं भंते !' इत्यादि. ने भवन्त ! जीबी अनन्तरमुहस्य क गलन्नि ?, एनदेव व्याय-एवं उव्यहणा' इत्यादि, यथा द्विविधप्रतिपत्ती तथा प्रपथ्यम् ।। 'तेसि नित्यादि। नेपा भदन्त ! जीवानां 'कति' किंप्रमाणानि जातिकुल कोटीनां बोनिप्रमुखाणि-योनिप्रवाहानि शतसहस्राणि योनिप्र मुखशतलहम्माणि | जातिकुलकोटियोनिनसुखशतसहस्राणि भवन्ति ?, भगवानाह-द्वादश जातिकुलकोटीयोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञनानि, नत्र जातिकुलयोनीनामिद परिस्थरमुदाहरणं पूर्वाचार्यरुपादर्शि-जातिरिति किल तिर्यग्जातिस्तस्याः कुलानि-कृमिकीटपृश्चिकादीनि, इमानि च कुलानि । योनिप्रमुखाणि. तथाहि-एकस्वायेव योनौ अनेकानि फुलानि भवन्ति, तथाहि-छगणयोनी कृमिकुलं कीटकलं वृश्चिककुलमियादि । अथवा जातिकुलमित्येक पदं, जातिकुल योन्योश्च परस्परं विशेप: एकस्यामेव योनावनेकजातिकुलसम्भवान् , तद्यथा-एकन्यामेव छग-4॥१३४॥ १ ब्युत्कान्तिपदवरात्र भणिन या प्रती यथायथ, मूले नु प्रज्ञापनाया व्युत्क्रान्तिपद एच यथावर्थ सूत्रमिति वकंतीएति मूत्रं. दीप अनुक्रम [१३१] ~ 271~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------ उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], --- -------- मूलं [९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] योनौ कृमिजातिकुलं कीटजातिकुलं वृश्चिकजातिकुलमित्यादि, एवं चैकस्यामेव योनाववान्तरजातिभेदभाबादनेकानि योनिप्रवाहाणि जातिकुलानि संभवन्तीत्युपपद्यते, खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिजानां द्वादश आतिकुलकोटिशतसहस्राणि, अत्र सहणिगाथा-"जोणी-15 ४संगहलेस्सादिही नाणे व जोग उचओगे । उवधायठिईसभुग्याय वयणं जाई कुलविही ॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-प्रथमं योनि-18 सङ्गहद्वारं ततो लेश्याद्वारं ततो दृष्टिद्वारमित्यादि । 'भुयगाणं भंते !' इत्यादि, भुजगानां भदन्त ! कतिविधो योनिसङ्ग्रहः प्रज्ञाः १, इत्यादि पक्षिवन् सर्व-निरवशेष बक्तव्यं, नवरं स्थितिच्यवनकुलकोटिषु नानालं, तयथा-खितिजचन्येनान्तर्मुहर्तमुत्कर्पतः पूर्वकोटी,14 ४ च्यवनम्-उतना, तत्र नरकगतिचिन्तायामधो याबहिनीया पृथिवी उपरि यावत्सह मारः कल्पस्तावदुत्पदाते, नत्र तेषां जातिकुलको-18 टियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । एवमुर:परिसाणामपि बक्तव्यं, नवरं तत्र च्यवनद्वारेऽवश्चिन्तायां यावत्पञ्चमी पृथिवीति | वक्तव्यं, कुलकोटिचिन्तायां दश जातिकुलकोटियोनिप्रमुग्वशतसहस्राणि प्रज्ञप्रानि ॥ 'चउप्पयाण'मित्यानि, चतुष्पदानां भवन्त कतिविधो योनिसङ्कहः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम ! द्विविधो योनिमः प्राप्तः, तद्यथा-पोतजाः संमूछिमाश्च, इड येडण्डजव्यत्ति-13 रिक्ता गर्भश्युरकान्तास्ते सर्वे जरायुजा अजरायुजा वा पोतजा इति [ पूर्वमपि विवक्षिताः परमन्न तु सर्वेऽपि गर्भव्युत्क्रान्तिकाः पोतजलया ] विवक्षितमतोऽत्र द्विविधो यथोक्तस्वरूपो योनिसह उक्तः, अन्यथा गमादीनां जरायुजलात् (मादीनामण्डजत्वान् ) तुती-16 योऽपि जरायु(अण्डा)लक्षणो योनिसङ्कहो वक्तव्यः स्यादिति, सत्र ये ते पोतजास्ते विविधाः प्रज्ञताः, तपथा--नियः पुरुषा नपुंसकार, तत्र चे ते संमूमिछमास्ते सर्वे नपुंसकाः, शेषद्वारकलापः पूर्वयन् , नवरं स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतस्त्रीणि पल्पोपमानि, जयननद्वारेधश्चिन्तायां यावतुर्थी पृथिवी ऊर्व यावत्सहमारः, जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राण्यत्रापि दश । 'जलचराणा'मित्यादि, जल दीप अनुक्रम [१३१] Elcuamine ~272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- ---------------- ..-- उद्देशक: (तिर्यञ्च)-१], .......................- मूलं [९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९७] श्रीजीवा- चराणां भदन्त ! कतिविधो योनिसङ्ग्रहः प्रज्ञप्तः १, भगवानाह-गीतम! त्रिविधो योनिसङ्गहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अण्डजा: पोतजा: संमूछि-6/३ प्रतिपत्ती जीवाभिमाश्च, अण्डजानिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-खियः पुरुषा नपुंसकाच, पोतजास्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-स्त्रियः पुरुषा नपुंसकाच, तत्र येद | तिर्यन्योमलयगि- माते संमूठिमास्ते स नपुंसकाः, शेषद्वारफलापचिन्ता प्राग्वत् , नवरं स्थितिच्यवनजातिफुलकोटिपु नानालं, स्थितिजयन्येनाम्तमहत- न्यधिक रीयावृत्तिः 81 मुत्कर्षतः पूर्वकोटी, स्यवनद्वारेऽधश्चिन्तायां यावत्सप्तमी ऊर्य यावत्सहस्रारः, कुलफोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि अर्बत्रयोदश सार्बानि | उद्देश:१ ताद्वादशेत्यर्थः । 'चाउरिदियाण'मित्यावि, चतुरिन्द्रियाणां भदन्त ! कति जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रजातानि?, भगवानाह | सू० ९८ -नव जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, एवं त्रीन्द्रियाणामष्टौ जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि, द्वीन्द्रियाणां सप्त ४/जातिकुलकोदियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । इह जातिकुलकोटयो योनिजातीयासतो भिन्नजानीयाभिधानप्रसङ्गतो गन्धाङ्गानि | भिन्नजातीयवान् प्ररूपयति करणं भंते ! गंधा पण्णत्ता? कई गंभंते! गंधसया पण्णता?, गोयमा! सत्स गंधा सत्त गंधसया पण्णता । करणं भंते ! पुप्फजाई कुलकोडीजोणिपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता?, गोयमा! सोलसपुष्फजातीकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता, तंजहा-चत्तारि जलयराणं चत्सारि घलयराणं चत्तारि महारुक्खियाणं चत्तारि महागुम्मिताणं ॥ कति णं भंते! वल्हीओ कति वल्लिसता पण्णता?, गोयमा! चत्तारि वल्लीओ चत्तारि बल्लीमता पण्णत्ता ।। कति णं भंते! लताओ कति लतासता पण्णत्ता?, गोयमा! अट्ट लयाओ अट्ट लतासता पण्णता ॥ कति ] SA दीप अनुक्रम [१३१] ॐॐॐॐ ~273~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- ------------------....--- उद्देशक: (तिर्यञ्च)-१], ..... ............- मूलं [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: tockSCLA प्रत सूत्रांक [२८] भंते ! हरियकाया हरियकायसया पण्णत्ता ?, गोयमा ! तओ हरियकाया तओ हरियकायसया पण्णता, फलसहस्सं च बिंदघद्वाणं फलसहस्सं च णालयद्धाणं, ते सव्वे हरितकायमेव समोयरति, ते एवं समणुगम्ममाणा २ एवं समणुगाहिजमाणा २एवं समणुपेहि जमाणा २एवं समचिं तिजमाणा २ एएमु चेव दोसुकाएमु समोयरंति, तंजहा-तसकाए चेव थावरकाए चेव, एवमेव सपुब्वावरेणं आजीवियदिटुंतणं चउरासीति जातिकुलकोडीजोणीपमुहसनसहस्सा भवंतीलिम क्वाया। (सू०१८) है 'कइ णमित्यादि, कति भदन्त ! गन्धाङ्गानि, कचिद् गन्धा इति पाठस्तत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् गन्धा इति गन्धाक्षानीति द्रष्टव्यं प्रज्ञप्तानि ?, तथा कति गन्धाङ्गशतानि प्रज्ञमानि , भगवानाह-गौतम! सन गन्धाङ्गानि सप्त गन्धानशतानि प्रज्ञमानि, इह सप्त द्वगन्धाङ्गानि परिस्थूरजातिभेदादमूनि, तद्यथा-मूलं वक काष्टं निर्यास: पत्रं पुष्पं फलं च, तत्र मूलं मुस्तावारटुकोशीरादि. वक् सुवर्ण-18 हैल्लीखचाप्रभृति, काष्ठं चन्दनागुरुप्रभृति, निर्यासः कर्पूरादिः, पत्रं जातिपत्रतमालपत्रादि, पुष्पं प्रिय नागरपुष्पादि, फलं जातिफल कोलकैलालवङ्गप्रभृति, एते च वर्णमधिकृत्य प्रत्येक कृष्णादिभेदात्प थपञ्चभेदा इति वर्णपञ्चकेन गुण्यन्ते जाताः पञ्चत्रिंशत् , गFधचिन्तायामेते सुरभिगन्धय एवेत्येकेन गुणिताः पञ्चत्रिंशन् जाताः पञ्चत्रिंशदेव 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति न्यायान , तत्रा-1 प्येकैकस्मिन् वर्गभेदे रसपञ्चक द्रव्यभेदेन विधिकं प्राप्यते इति सा पचत्रिशत् रसपश्चन गुज्यते जाता: पञ्चसप्रतिशतं, स्पर्शाश्च यद्यप्यष्टौ भवन्ति तथाऽपि गन्धाङ्गेयु यथोक्तरूपेपु प्रशस्या व्यवहारतश्चत्वार एव मृदुलघुशीतोष्णरूपास्ततः पञ्चसततं शतं स्पर्शचतु दीप अनुक्रम [१३२] m Jatician ~274~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ................-- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], ...................-- मूलं [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९८] श्रीजीवा- येन गुण्यते जातानि सप्त शतानि, उक्तच- मूलतवकनिजासपत्नपुष्फाफलमेब गंधंगः । वग्णादु सरभंगा गंधालया पुणे यातिपत्ती जीचाभि० ॥१॥ अस्य व्याख्यानरूपं गाथाद्वयम्-"मुत्धास्वग्णाली अगुरू बाला तमालपत्तं च । जदय पिलंग, जाइफलं च जाईतिर्यग्योमलयनि- गंधगा ॥१॥ गुणणाए सत्त सया पंचाहिं यणहिं सुरभिगंधणं । रसपनाणं तह कासेहि व चरहि मिन(पसत्याहि अ न्य धिः रीयावृत्तिः जाईए गंधंगा' इति जाया जातिभेदनामूनि राधानानि, शेपं भाषितम् ।। 'फदवामित्यादि, कति भवन्त ! पुष्पजातिकुल कोटि- उद्देशः xशतसहस्राणि प्रजमानि', भगवानार-गीतम! योदश पुपातिकुलकोटिशतसरत्राणि प्रामानि, तपादत्वारि 'जलजागांपधानांसू०९८ ॥१३६॥ जातिभेदेन, तथा चत्वारि 'स्थलजाना' कोरण्टकालीन जातिभेदेन, गगरि महामुस्मिकालीन जातादीना, चत्वारि 'महावृक्षाणां मधुकादीनामिति ॥ 'कइ णमित्यादि, कति महन्त ! बलयः? कति बल्लिशतानि प्रनमानि ?, भगबानाह-गौतम! चतको लहयख पुष्यादिमूलभेदेन, ताश्च मूलटीकाकृता वैवित्तयेन न व्याख्याता इति संप्रदायादवसेयाः, चत्वारि वल्लिशतान्येवावान्तरजातिभेदेन ।। 'कह होणमित्यादि, कति भदन्त ! लताः कति लताशतानि प्रशमानि ?, भगवानाह-गौतम! अष्टौ लता या मूलभेदेन ता अपि संप्रदायाद यसातव्याः, मूलटीकाकारेणाव्याख्यानान , अष्टी लताशवानि प्रज्ञानि, अवान्तरजातिभेदेन । 'कइ णमित्यादि, कति भदन्त ! हरिइतकायाः कति हरितकायशतानि प्राप्तानि , भगवानाह-गौतम! यो हरितकायाः प्रशना:-जलजाः खलजा उभयजाः, एकस्मिन शतगवान्तरभेदानामिति, त्रीणि हरितकायशतानि । 'फलसहस्सं चेत्यादि, फलसह च 'वृन्तवन्धानां' वृन्ताकप्रभृतीनां कलससारसं च नालबद्वानां, 'तेऽवि सध्ये' इत्यादि, तऽपि स भेदा अपिशव्दादन्येऽपि तथाविधाः 'हरितकायमेव समवतरन्ति' हरि IM॥१३६।। तिकायेऽन्तर्भवन्ति हरितकायोऽपि वनस्पती वनस्पतिरपि स्थावरेषु खाबरा अपि जीयेषु, तत एवं समनुगम्यमाना तथा जात्यन्ती -2 दीप -12 0 अनुक्रम [१३२] g-4- ~275~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------ उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], ---- ------------- मूलं [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत - सूत्रांक -- [२८] वेन खत एवं सूचतः, तथा समनुपाहामाणाः समनुपाह्यमाणा: यरेण सूत्रत एव, नधा समनुप्रेक्ष्यमाणाः समनुप्रेक्ष्यमाणा अनु-18 प्रेक्षया अर्थालोचनरूपया, तथा समनुचिन्त्यमानाः समनुचिन्त्यमानास्तथा तथा तबयुक्तिभिः, एतयोरेव द्वयोः काययो; ममवतरन्ति, तद्यथा-वसकाये च स्थावरकाये च, 'एवामेव' इत्यादि, 'एवमंत्र' इक्तेनैव प्रकारेण 'सपुब्बावरेज' पूर्व चापरं च पूर्वापरं सह पू परं येन स सपूर्वीपर: उत्तप्रकारस्तेन, उक्तविषयपापियालोचनयेति भावार्थः, 'आजीवगदिलुतेणति आ-सकलज गभिव्याया। जीवानां यो दृष्टान्त:-परिच्छेदः स आजीवसृष्टान्तस्तेन सफल जीवदर्शनेनेत्यर्थः, आह च मूलटीकाकार:-"आजीवदान्तेल सकबालजीवनिदर्शनेने"ति, चतुरशीतिजातिकुलकोटियोनिप्रमुग्धशननहम्राणि भवन्तोत्याख्यातं मयाऽन्यैश्च अपभादिभिरिति, अत्र चतुरशी-1 सतिसालोपादानमुपलक्षण, तेनान्यान्यपि जातिकुलकोटियोनिझमुन्वशतमहन्माणि वेदितव्यानि, तथाहि-पक्षिा द्वादश जातिकुलकोटि योनिप्रमुखशतसहस्राणि भुजगपरिसपीणां नव उरगपरिरूपी इश चतुपदानां दश जलचराणानर्द्धप्रयोदशानि चतुरिन्द्रियाणां नव रात्रीन्द्रियाणामष्टी द्वीन्द्रियाणां सम पुपजातीन पोडा, एनेपां चकत्र मीलने विनवतिजातिकुल कोटियोनि सुखशवसहस्राणि सार्द्धानि भवन्ति, ततश्चतुरशीविसयोपादानमुपलक्षणमनसेयं, ल चलन व्याख्यानं समनीषिकाबिजृम्भित, यन उकै चूना-'आजीवगदिईदातेणे'ति अशेपजीवनिदर्शनेन चउरासौजातिकुलफोडिलोनितमुन्नात तहमा उत्तरप्रमुखा अन्वेऽपि विद्यन्ते इति ।। कुलकोदिविचारणे विशेषाधिकाराद्विमानान्यष्यधिकृत्य विशेषप्रश्नमाह अस्थि मंत! विमाणाई सोन्धीशनिमोधियावसाई मोत्थियपभाई सोस्थियकताई मो१ टीकादाभवाचत अभियाई अभियावत्ताई इत्यादि पाटनमः, - - दीप अनुक्रम [१३२] 50x %-50-4 % ~ 276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- .........---- उद्देशक: (तिर्यञ्च)-१], -------------------- मूल [९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती तिर्यग्योन्यधिक उद्देशः१ सु०९९ सूत्रांक [९९] स्थियवनाई सोस्थियलेसाई सोस्थियज्झयाई सोस्थिसिंगाराई सोस्थिकूडाई सोस्थिसिहाई सोस्धुत्तरवर्डिसगाई?, हंता अस्थि । ते णं भंते! विमाणा केमहालना प०? गोयमा! जावतिए णं सरिए उदेति जावइएणं च मरिए अस्थमति एवतिया तिपणोवासंतराई अत्धेगलियस्स देवस्स एगे विकमे सिता, से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाब दिव्याए देवगतीए बीतीषयमाणे २ जाव एकाई वा दुयाई वा उक्कोसेणं छम्मासा वितीधराजा, अन्धेगतिया विमाणं वितीवाजा अत्यंगतिया विमाणं नो वीतीवरजा, एमहालता णं गोयमा! ते विमाणा पण्णता, अस्थि णं भंते ! विमाणाई अंचीणि अचिरावत्ताई तहेब जाव अचुत्तरवळिसगाति?, हंता अस्थि, ते विमाणा केमहालना पणत्ता?, गोयमा! एवं जहा सोत्थी(याई)णि णवरं एवतिघाई पंच उवासंतराई अत्धेगतियस्स देवस्स एगे विक्कमे सिता सेसं तं रेव ।। अस्थि णं भंते ! विमाणाई कामाई कामावत्ताई जाव कामुत्तरवडिंसपाई ?, हंता अस्थि, ते णं भंते! विमाणा केमहालया पण्णसा?, गोयमा! जहा सोथीणि वरं सत्त उवासंतराई विक्कमे सेसं तहेव ।। अस्थि णं भंते! विमाणाई विजयाई वेजयंताई जयंताई अपराजिताई?, हंता अस्थि नेणं भंते ! विपाणा के०?, गोयमा! ज़ाय दीप -2-% अनुक्रम [१३३] R SPROCES-- - Rameenaanemia -- १३७॥ १ मीस्थियाई इसाद टीकादभिप्रायेण पाठोऽत्र. - ~ 277~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -- ------------ उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], --- -------- मूलं [९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. ..आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९९]] तिए सरिए उदेह एवइयाई नव ओवासंतराई, सेसं तं चेव, नो चेव णं ते विमाणे थीईवजा - महालया णं विमाणा पण्णता, समणाउसो! ॥ (सू०९९) लिरिक्वजोणिय उसओ पनमो॥ 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अतीति निपातो बहउँ 'सन्ति विद्यन्ते णमिति वाक्यालङ्कारे 'विमानानि विशेषतः पुण्यप्राणिभिर्मन्यन्ते-तगतसौख्यानुभवनेनानुभूयन्ते इति विमानानि, तान्येव नामपाहमाह-अचीपि-अचिर्नामानि, एवमचिरावानि अधिःप्रमाणि अर्चि:कान्तानि अचिर्वर्णानि अचिर्लेश्यानि अचिर्वजानि अर्चिःशृङ्गा(राणि) अर्चिःस(शिष्टानि अचि:कूदानि अचित्तरावतंसकानि | सर्वस झबया एकादश नामानि, भगवानाह-'हता अस्थि हति प्रत्यवधारणे अस्तीति निपातो पहथें सन्त्येवैतानि विमानानीति भावः । 'केमहालया णमित्यादि, किंमहान्ति कियत्प्रमाणमहत्त्वानि णमिति पूर्ववत् भदन्त ! तानि विमानानि प्रजमानि?, भगवानाह-गौतम! 'जाव य उएइ सूरों' इत्यादि, जम्बुद्वीपे सर्वोत्कृष्टे दिवसे सर्वाभ्यन्तरे मण्डले बर्तमानः सूर्यो यावति क्षेत्रे उदेति यावति च क्षेत्रे सूर्योऽस्त गुपयाति, एतावन्ति त्रीणि अवकाशान्तराणि, उदयास्तमितप्रमितमधिकृत क्षेत्रं त्रिगुणमित्यर्थः, अस्येतदू-बुज्या परिभावनीयमेतद् ययैकस्य विवक्षितस्य देवस्यैको बिक्रमः स्यान् , तत्र जम्बूद्वीपे सर्वोत्कृष्ट दिवसे सूर्य उदेति सप्तचत्वारिंशसहस्राणि द्वे शते त्रिपश्यधिके योजनानामेकस्य च योजनस्यैकविंशतिः पष्टिभागा एतावति क्षेत्रे, उक्तच्च-सीयालीससहस्सा, दोणि सया जोयणाण तेवढी । इगवीस सहिभागा ककड़माईमि पेच्छ नरा ॥१॥ ४७२६३, एतावत्येव क्षेत्रे तस्मिन् सर्वोस्कृष्टे दिवसेऽस्तमुपयाति, तत्त एतरक्षेत्रं द्विगुणीकृतमुदयासापान्तरालप्रमाणं भवति, तचैतावत्-चतुर्नवतिः सहस्राणि पञ्च शतानि पडिंशत्यधिकानि योजनानामकस्य च योजनस्य [प] द्वाचत्वारिंशत्यष्ट्रिभागा: ५४५२६४। एतावत्रिगुणीकृतं यथोक्तविमानपरिमाणक दीप अनुक्रम [१३३] ~ 278~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------....--- उद्देशक: (तिर्यञ्च)-१], ..... ............- मूलं [९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९९] श्रीजीवा- रणाय देवस्यैको विक्रमः परिकल्प्यते, सर्वप्रमाण:-T लक्ष व्यशीतिः सहस्राणि पपा शतानि अशीत्यधिकानि योजनानाम एकस्य प्रतिपत्ती च योजनस्य पष्टिभागाः पट् २८३५८०६ इति ॥ से पण देय इत्यादि, 'सः'विवक्षितो देवः 'तया सकलदेवजनप्रसिद्धया उत्क- तियेग्योमलयगि- टया त्वरितया चपलया चण्डया शीवया उद्धतथा जवनया छकया दिव्यया देवगया, अमीपां पदानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः, व्यतित्र- न्यधि० रीयावृत्तिः जम् व्यतिग्रजन जघन्यत एकाई वा वह वा यावदुत्कर्पत: पण्मासान यावत्' 'व्यतिव्रजेत् गच्छेन, नवं गमने अ[प्रन्याममा उद्देशः १ ॥ १३८॥ ४००० ] स्याद् यथैकं किञ्चन विमानं पूर्वोक्तानां विमानानां मध्ये 'व्यतिनजेत्' अतिक्रामे , तख पारं लभेतेति भाषः, सवा5-1+सू० ९९ स्त्येतद् यथैकर्क विमानं न व्यतित्रजेन् , न तस्य पारं लभेत. 'उभयत्रापि जातायेकवचनं, ततोऽयं भावार्थ:-उक्तप्रमाणेनापि क्रमेण यथोक्तरूपयाऽपि च गत्या पण्मासानपि यावधिकतो देवो गच्छति तथापि केपाश्चिद्विमानानां पारं लभते केपाञ्चित्वारं न लभते इति । एतावन्महान्ति तानि विमानानि प्रज्ञप्तानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ॥ 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, सन्ति भदन्त विमानानि स्वस्ति कानि स्वस्तिकावर्त्तानि स्वस्तिवाप्रभाणि स्वस्तिककान्तानि स्वस्तिकवणानि स्वस्तिकले श्यानि स्वस्तिकध्वजानि स्वस्तिकशृङ्गाराणि है। मास्वस्तिकशिष्टानि स्वस्तिककूटानि खतिकोत्तरायतंसकानि, 'हता अस्थि' इत्यादि, समस्त प्राचिन् , नबरमत्र 'एवझ्याई पंच ओवा संतराई' इति कण्ठ्यं, उदयास्तापान्तरालक्षेत्रं पञ्चगुणं क्रियत इति भावः ॥'अस्थि णं भंते ! इत्यादि, सन्ति भदन्त ! विमानानि कामानि कामावर्तीनि कामप्रभाणि कामकान्तानि कामयणोनि कामलेश्यानि कामध्वजानि कामशृङ्गाराणि कामशिष्टानि काभकूटानि कामोत्तरावतंसकानि?, 'हता अस्थि' इत्यादि सर्व पूर्ववन नवरमत्रोदयास्तापान्तरालक्षेत्रं सप्तगुणं कर्तव्यं, शेष तथैव ।। 'अस्थि णं ॥१३८ । भंते !' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! विजयजयन्तजयन्तापराजितानि विमानानि ?, 'हंता अत्थी'त्यादि प्राग्वत , नपरमत्र 'एवइयाई दीप अनुक्रम [१३३] JEscal ~ 279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -- ------------ उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-१], --- -------- मूलं [९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९९]] नव ओवासंतराई' इति वक्तव्यं शेष तथैव, उक्तश्च- जावइ उदेइ सूरो जाबइ सो अस्थमेइ अवरेणं । तियपणसत्तनवगुणं कार्ड पत्तेय पत्तेयं ।। १।। सीयालीस सहस्सा दो य सवा जोयणाण तेवढा । इगवीस सद्विभागा कक्सडमाइंमि पेकछ नरा ॥२॥ एयं दुगुणं काउंगुणिजय तिपणसत्तमाईहिं । आगयफलं च तं कमपरिमाणं वियाणाहि ॥ ३ ॥ चत्तारिवि सकमेहिं चंडादिगईहिं 5 जंति छम्मासं । तहवि य न जंति पारं केसिंचि सुरा बिमाणाणं ॥४॥" अस्यां तृतीयप्रतिपत्तौ तिर्यग्योन्यधिकारे प्रथमोदेशकः ।। उक्तः प्रथमोद्देशकः, इदानी द्वितीयस्थात्रसरः, तत्रेदमादिसूत्रम् कतिविहा णं भंते ! संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता?, गोषमा! छब्बिहा पण्णता, तंजहा-पुढविकाइया जाय तसकाइया।से किं तं पुढविकाइया?, पुढविकाइया दुविहा पपणत्ता, तंजहामुहुमपुढविकाइया बादरपुतविकाइया च । से किं तं खुहमपुढविकाइया?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजसगा य, सेत्तं सुहमपुढविकाइया । से किं तं वादरपुढविक्काइया?,२ दुविहा पपणत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजसगा य, एवं जहा पण्णवणापदे, सहा सत्तविधा पण्णत्ता, खरा अणेगविहा पन्नत्ता, जाव असंखेजा, से तंबादर पुढविकाइया । सेत्तं पुढविकाइया । एवं चेव जहा पण्णवणापदे तहेव निरवसेसं भाणितव्वं जाव वणप्फतिकाइया, एवं जाव जत्थेको तत्थ सिता संखेजा सिय असंखेजा सिता अणंता, सेत्तं बादरवणप्फतिकाइया, से तं वणरसइकाइया । से किं तं तसकाइया?,२च उब्विहा पण्णसा, जहा-बेइंदिया तेइंदिया च. दीप NCR - अनुक्रम [१३३] SIC जी०१०२४ अत्र तृतीय-प्रतिपत्तौ तिर्यञ्च-उद्देशक: -१ परिसमाप्त: अत्र तृतीय-प्रतिपत्तौ तिर्यञ्च-उद्देशक: -२ आरब्ध संसारिजीवानाम् षड्-विधत्वं आश्रित भेदा:, पृथ्विकायिक-जीव-आश्रित विविध-विषयाधिकार: ~280~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---- ------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], - --------- मूलं [१००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ३ प्रतिपत्ती तिर्यगु प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥१३९॥ देशः२ सू.१०१ सूत्रांक [१००] उरिंदिया पंचंदिया। से किं तं बेइंदिया?, २ अणेगविधा पपणत्ता, एवं जं चेय पण्णवणापदे तं चेव निरवसेसं भाणितव्यं जाव सब्वट्ठसिद्धगदेवा, सेनं अणुत्तरोववाइया, से तं देवा, से तं पंचेंदिया, से तं तसकाइया ।। (मू०१००) 'कइविहा ण मित्यावि, कतिविधा भदन्त ! संसारसमापनका जीवाः प्रजाता:, भगवानाह-गौतम! पविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा- पृथिवीकायिका अपकायिका याव असफायिकाः । अथ के ते पृथिवीकायिका:?, इत्यादि प्रज्ञापनागतं प्रथम प्रज्ञापनापदं निरवशेष वक्तव्यं यावदन्तिम 'से तं देवा' इति पदम् ।। सम्प्रति विशेषाभिधानाय भूयोऽपि पुथिवीकायविपर्य सूत्रमाह कनिविधा णं भंते ! पुढवी पण्णत्ता?, गोयमा! छविहा पुढवी पण्णत्ता, तंजहा-सण्हापुढवी सुद्ध पुढवी वालुयापुतवी मणोसिलापु० सकरापु० खरपुढबी ॥ सण्हापुढवीणं भंते! केवलियं कालं ठिती पणता?, गोयमा! जह० अंतोमु उक्कोसेणं एग वाससहस्सं । सुद्धपुढबीए पुच्छा, गोयमा! जह० अंतोमु० उको बारस बाससहस्साई । वालुयापुढवीपुच्छा, गोयमा ! जह० अंतोमु० उको चोदम बाससहस्साई । मणोसिलापुढवीणं पुच्छा, गोयमा! जह अंतोमु० उक्को सोलस वाससहस्साई । सकरापुढचीए पुच्छा, गोयमा! जह अंतोमु० उको अट्ठारस वाससहस्साई । वरपुतविपुच्छा, गोयमा! जह. अंतोमु० 'उको बाबीस वाससहस्माई ॥ नेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! जहा दम वामसहस्साई 4 - दीप अनुक्रम [१३४] 6 १३९॥ ~ 281~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], ---- ---------- मूलं [१०१-१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०१ १०२]] उको तेसीसं सागरोवमाई ठिती, एयं सव्वं भाणियव्वं जाव सब्वट्ठसिद्धदेवत्ति ॥ जीवे णं भंते ! जीवेत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा! सव्वई, पुढविकाइए णं भंते ! पुढविकाइएत्ति कालतो केवचिरं होति?, गोयमा! सब्बई, एवं जाव तसकाइए ॥ (सू०१०१)। पटुप्पन्नपुढविकाइया णं भंते! केवतिकालस्स णिलेवा सिता?, गोयमा! जहण्णपदे असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं उक्कोसपए असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं, जहन्नपदातो उक्कोसपए असंखेजगुणा, एवं जाव पटुप्पन्नवाउकाइया। पडुप्पन्नवणप्फइकाइयाणं भंते! केवतिकालस्स निहल्लेवा सिता?, गोयमा! पटुप्पन्नवण० जहण्णपदे अपदा उकोसपदे अपदा, पटुप्पन्नवणप्फतिकाइयाणं णत्थि निल्लेवणा || पडप्पन्नतसकाइयाणं पुच्छा, जहण्णपदे सागरोवमसतपुहत्तस्स उकोसपदे सागरोवमसतपुहुत्तस्स, जहण्णपदा उक्कोसपदे विसेसाहिया ॥ (मू०१०२) 'काबिहा ण'मित्यादि, कतिविधा णमिति पूर्ववन् , भदन्त ! पृथिवी प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम पडिया प्रज्ञाप्ता, तथथा-लक्ष्ण-| | पृथिवी मृती चूर्णितलोष्टकल्पा, 'शुद्धपृथिवी' पर्वतादिमध्ये, मनःशिला-लोकप्रतीता, वालुका-सिकतारूपा, शर्करा-मुरुण्डपृथिवी, खरापृथिवी' पापाणादिरूपा । अधुना एतासाने स्थित्तिनिरूपणार्थमाह-'सण्हपुढवीकाइयाण मित्यादि, सक्ष्णपृथिवीकावि कानां भदन्त ' कियन्तं कालं खिति: प्रज्ञता ?, भगवानाह-गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षत एक वर्षसहस्रं । एवमनेनाभिलापेन हशेषाणामपि प्रथिवीनामनया गाथया उत्कृष्ठमनुगन्तव्यं, तामेव गाथामाह-'सण्हा य'इत्यादि (सहा य सुद्धवालुअ मणोसिला दीप अनुक्रम [१३५ १३६] ~282~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], -------------------- मूलं [१०१-१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०११०२] दीप श्रीजीवा- सकरा व खरपुढवी । इगवारचोइससोलढारनावीससमसहसा ॥ १॥) अक्षणधिव्या एक वर्षसहसमुत्कर्षतः स्थितिः, शुद्धप- प्रतिपत्ती जीवाभिमाथिव्या द्वादश वर्षसहस्राणि, बालुकापृथिव्याश्चतुर्दश सहस्राणि, मनःशिलापृथिव्याः पोडश वर्षसहस्राणि, शर्करावृथिव्या तिर्यगुमलयगि-16 अष्टादश वर्षसहस्राणि, खरपृथिव्या द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, सर्वासामपि चामीषां पृथिवीना जघन्येन थितिरन्तर्मुहूत वक्तव्या देशः२ रीयावृत्तिः सम्प्रति खितिनिरूपणाप्रताबारयिकादीनां चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण स्थिति निरूपयितुकाम आह-नेरइयाणं भंते!' इत्यादि.| सू०१०३ 8 नैरविकाणां भदन्त ! कियन्तं काले स्थिति: प्रज्ञता, इत्येवं प्रज्ञापनागतस्थितिपदानुसारेण चतुर्विंशविदण्डककमेण तावद्वक्तव्यं ॥१४॥ दायावत्सर्वार्थसिद्धविमानदेवानां स्थितिनिरूपणा, इह तु अन्धगौरवभयान्न लिख्यते । तदेवं भवस्थितिनिरूपणा कृता, सम्प्रति काय स्थितिनिरूपणार्थमाह-'जीवे गं भंते! इत्यादि, अथ कायस्थितिरिति कः शथ्यार्थः ?, उच्यते, कायो नाम जीवस्य विवक्षितः सामान्यरूपो विशेषरूपो वा पर्यायविक्षेपस्तस्मिन् स्थिति: कायस्थितिः, किमुक्तं भवति ?-यस्य वस्तुनो येन पर्यायेण-जीवत्वलक्षणेन पु|थिवीकायादिवलक्षणेन वाऽऽदिश्यते व्यवच्छेवेन यद्भवनं सा काय स्थितिः, तत्र जीव इति "जीव प्राणधारणे" जीवति-प्राणान् धारयतीति जीवः, प्राणाश द्विधा-द्रव्यप्राणा भावप्राणाच, तत्र द्रव्यप्राणा आयु:प्रभुतयः, उक्तथा-पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छासनिःश्वासमधान्यदायुः । प्राणा दौते भगवद्विरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥१॥" भावप्राणा ज्ञानादयः यैर्मुक्तोऽपि जीवतीति व्यपदिश्यते, उक्तञ्च-"ज्ञानादयस्तु भावप्राणा मुक्तोऽपि जीवति स तेही"ति, इह ए विशेषानुपादानादुभयेषामपि प्रहणं णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! जीव इति-जीवनपर्यायविशिष्टः कालत:-कालमधिकृत्य कियविरं भवति?, भगवानाह-सद्धिां, ला॥१४०॥ संसार्थवस्थायां द्रव्यभावप्राणानधिकृत्य मुक्त्यवस्थायां भावप्राणानधिकृत्य सर्वत्रापि जीवनस्य विद्यमानत्वात् , अथवा जीव इति न एकः ** अनुक्रम [१३५ १३६] ~ 283~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------- ------------- उद्देशक: (तिर्यञ्च)-२], ------- -------- मूलं [१०१-१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०१ १०२]] प्रतिनियतो जीवो विवक्ष्यते किन्तु जीवसामान्य, ततः प्रागधारणलक्षणजीवनाभ्युपगमेऽपि न कश्चिदोषः, तथाहि-'जीये ण भंते। इत्यादि, जीयो गमिति पूर्ववद् भदन्त ! जीव इति-जीवन्निति प्राणान् धारयन्नित्यर्थः कालत: कियचिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम : सर्वाद्धां, जीवसामान्यस्यानाद्यनन्तत्वान् , न चैतद् व्याख्यानं स्वमनीषिकाविजृम्भितं, यत उक्तं मूलटीकायां-'जीवे णं भंते इत्यादि, एषा ओघकायस्थितिः सामान्यजीवापेक्षिणीति सर्वाद्धया निर्वचनम्" । एवं च पृथिवीकायादिष्वप्यदोषः, एतत्सामान्यस्य स दैव भावादिति । एवं गतीन्द्रियकायादिद्वारैर्यथा प्रज्ञापनायामष्टादशे कायस्थितिनामके पदे कायस्थितिरुक्ता तथाऽत्र सर्व निरवशेष वक्तव्यं यथा उपरि तत्पदगतं न किमपि तिष्ठति, गतीन्द्रियकायादिद्वारसाहके चेमे गाथे-"गइ दिए य काए 'जोगे वेए| कसाय लेसा य । सम्मत्तनाणदसणसंजयध्वओगाहारे ॥ १॥ भासगपरित्तपजत्तसुहुम सप्णी भवऽस्थि चरिमे य । एएसि तु पयाणं कायठिई होइ नायव्वा ॥ २॥" सूत्रपाठस्तु लेशतो दयते- नेरइया णं भंते ! परश्यत्ति कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! जहनेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । तिरिक्खजोगिए णं भते! तिरिक्खजोणियत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोवमा ! जहन्नेणं अंतोमुहूत्तमुकोसेणमणतं कालं अणता उस्तप्पिणीओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अणंता लोगा असंखेजा पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजहभागो" इत्यादि । सम्प्रति सामान्यपृथिवीकायादिगतकायस्थितिनिरूपणार्थमाह-'पुढविकाइए णं भंते !' इत्यादि, पृथिवीकायिको भदन्त !, सामान्यरूपोऽत एवं जातावेकवचनं न व्यत्येकले, पृथिवीकाय इति कालतः कियच्चिरं | भवति ?, भगवानाह-गौतम! सर्वाद्धा, पुथिवीकायसामान्यस्य सर्वदेव भावात् । एवमप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायसूत्राण्यपि भावनी-IN यानि ।। सम्प्रति विवक्षिते काले जघन्यपदे उत्कृष्टपदे वा कियन्तोऽभिनवा उत्पद्यमानाः पृथिवीकायिकादयः इत्येतन्निरूपणार्थमाह दीप अनुक्रम [१३५ १३६]] ~ 284~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], -------------------- मूलं [१०१-१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सू०१०३ [१०११०२] श्रीजीवा- -'पटुप्पन्नपुढविकाइया णं भंते ! केवइकालस्स निलेवा सिया' इत्यादि, प्रत्युत्पन्नपृथिवीकायिका:-तत्कालमुत्पद्यमानाः पृथि- प्रतिपत्तो जीवाभि०वीकायिका भवन्त ! 'केवइकालस्स'त्ति तृतीयाथै षष्ठी कियता कालेन निलेपाः स्युः १, प्रतिसमयमेकैकापहारेणापहियमाणाः कियता तियेगु मलयगि- कालेन सर्व एव निष्ठामुपयान्तीति भावः, भगवानाह-गौतम ! जघन्यपदे यदा सर्वस्तोका भवन्ति तदेत्यर्थः, असक्येयाभिरुत्सर्पिण्य-|| देशः२ रीयावृत्तिःशवसर्पिणीभिरुत्कृष्टपदेऽपि यदा सर्वबहवो भवन्ति तदाऽपीति भावः असङ्ख्येवाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिर्नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदि नोऽसषयगुणाः । एवमप्लेजोवायुसूत्राण्यपि भावनीयानि ।। वनस्पतिसूत्रमाह--'पटुप्पण्णे'त्यादि, प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिका भदन्त ! ॥१४१॥ कियता कालेन निलेपाः स्युः १, भगवानाह-गौतम ! प्रत्युत्पन्नबनस्पतिकायिका जघन्यपदेऽपदा-इयता कालेनापहियन्ते इत्येतत्पदविरहिता अनन्तानन्तलान् , उत्कृष्टपदेऽप्यपदा, अनन्तानन्ततया निलेपनाइसम्भवान् , तथा चाह--'पडुप्पन्नवणस्सइकाइयाणं नस्थि निलेवणा' इति सुगम, नवरमनन्तानन्तत्यादिति हेतुपदं स्वयमभ्यूखम् ।। 'पडप्पण्णतसकाइया णमित्यादि, प्रत्युत्पन्ननसकायिका। भदन्त ! कियता कालेन निर्लेपाः स्युः, भगवानाह-गौतम! जयन्यपदे सागरोपमशतपथक्त्वस्य--तृतीयायें पष्ठी प्राकृतत्वात् साग रोपमशतपथक्वेन, उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमशतपृथक्त्वेन नवरं जघन्यपदादुत्कृष्ठपदं विशेषाधिकमवसेयं । इवं च सर्वमुच्यमानं विशुहाबलेश्यसत्यमभि प्राप्तं यथाऽवस्थिततया सम्यगवभासते नान्यत्यविशुद्धविशुद्धलेश्यविषयं किञ्चिद्विवक्षुराह अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहतेणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासह ?, गोयमा! नो इण? समढे । अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणएण ॥१४१॥ बिसुद्धलेस्मं देवं देविं अणगारं जाणइ पामह?, गोयमा! नो इणढे समढे । अविसुद्धलेस्से अण दीप अनुक्रम [१३५ 4940-5 १३६]] ACOCCAR JaticRE ~285~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---- ------------- उद्देशक: [(तिर्यञ्च)-२], - ---------- मूलं [१०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०३] गारे समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति?, गोथमा! नो इण? सम? । अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहतेणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देवं अणगारं जाणति पासति ?, नो तिण? समहे । अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे समोहयासमोहतेणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति', नो तिणट्टे समढे । अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहतासमोहतेणं अप्पाणणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति ?, नो तिगटे समझे। विसद्धलेस्से णे भंते ! अणगारे असमोहतेणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति ?, हंता जाणति पासति जहा अविसुद्धलेस्सेणं आलावगा एवं विसुद्धलेस्सेणविछ आलावगा भाणितम्या, जाव विसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे समोहतासमोहतेणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति?, हंता जाणति पासति ।। (सू०१०३) 'अविसुद्धलेस्से णमित्यादि, 'अविसुद्धलेश्यः' कृष्णादिलेश्यो भदन्त ! 'अनगार' न विद्यते अगार-गृहं यस्यासौ अनगार:साधु: 'असमवहतः' बेदनाविसमुद्घातरहितः 'समवहतः' वेदनादिसमुद्घाने गतः । एबमिमे द्वे सूत्रे असमवहतसमवहताभ्यामामभ्यामविशुद्धलेश्यपरविषये प्रतिपादिते एवं समवहतासमवहताभ्यामात्मभ्यो विशुद्धलेश्यपरविषये द्वे सूत्रे भावयितव्ये । तथाऽन्ये |अविसुद्धलेश्यविशुद्धलेश्यपरविषये द्वे सूत्रे समवहतासमवहतेनात्मनेति पदेन, समवहतासमवहतो नाम वेदनादिसमुद्घातक्रियाविष्टो न तु परिपूर्ण समवहतो नाप्यसमवहतः सर्वथा । तदेवमविशुद्धलेश्ये हातरि साधौ पट सूत्राणि प्रवृत्तानि, एवमेव विशुद्धलेश्वेऽपि * दीप अनुक्रम [१३७] Jatician ~286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---- ------------ उद्देशक: (तिर्यञ्च)-२], - ---------- मूलं [१०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: * e प्रत सूत्रांक [१०३] दीप अनुक्रम [१३७] श्रीजीवा- साधौ ज्ञातरि षट् सूत्राणि भावनीयानि, नवरं सर्वत्र जानाति पश्यतीति वक्तव्य, विशुद्धलेश्याकतवा यथाऽवस्थितज्ञानदर्शनभावात् , प्रतिपत्ती जीवाभि आह च मूलटीकाकार:- शोभनमशोभनं वा वस्तु यथावद्विशुद्धलेश्यो जानाती"ति, समुद्घातोऽपि च तस्याप्रतिबन्धक एव, ना तिर्यगुमलयगि-IIच तस्य समुद्घातोऽत्यन्ताशोभनो भवति, उक्तं च मूलटीकायाम्-"समुद्घातोऽपि तस्याप्रतिबन्धक एवे"त्यादीति ॥ तदेवं यतोऽ- देशः२ रीयावृत्तिामा विशुद्धलेश्यो न जानाति विशुद्धलेश्यो जानाति तत: सम्यग्मिथ्याक्रिययोरेकदा निषेधमभिधित्सुराह सू०१४ ॥१४२॥ अण्णउत्थिया शंभंते! एवमाइक्खंति एवं भासेन्ति एवं पण्णवेंति एवं परूवेति-एवं खलु एगे जीवे पगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तंजहा-सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च. समयं संमत्तकिरियं पकरेति तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति, जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ तं समयं संमत्तकिरियं पकरेइ, समत्तकिरियापकरणताए मिच्छत्तकिरियं पकरेति मित्तकिरियापकरणताए संमत्तकिरियं पकरेति, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरितातो पकरेति, तंजहा-संमत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च, से कहमेतं भंते! एवं?, गोयमा! जन्नं ते अन्नउस्थिया एबमाइक्वंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूवैति एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ परेंति, नहेव जाव सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च, जे ते एकमाईसुतं णं मिच्छा, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाच परवेमि-एवं खलु पगे जीचे एगणं समएणं ॥१४॥ एग किरियं पकरेति, तंजहा-सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा, जं समय संमत्तकिरियं ~ 287~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१०४ ] दीप अनुक्रम [१३८-१३९] “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], मूलं [१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....... .आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः उद्देशक: [ ( तिर्यञ्च)-२], पकरेति णो तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति तं चैव जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति नो तं समयं संमत करिये पकरेति, संमत्त किरियाप करणयाए नो मिच्छत्तकिरियं पकरेति मिच्छतकिरियापकरणवाए णो संमत्तकिरियं पकरेति, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरियं पकरेति, तंजा - सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा ॥ (मृ० १०४ ) से तं तिरिक्म्वजोणियउद्देसओ बीओ समन्तो ॥ 'अन्नउत्थिया णं भंते!' इत्यादि, 'अन्ययूथिकाः' अन्यतीर्थिका भदन्त ! चरकादय एवमाचक्षते सामान्येन एवं भाषन्ते' स्वशिष्यान् श्रवणं प्रत्यभिमुखानवबुध्य विस्तरेण व्यक्तं कथयन्ति एवं 'प्रज्ञापयन्ति' प्रकर्षेण ज्ञापयन्ति यथा स्वाह्मनि व्यवस्थितं ज्ञानं तथा परेष्वप्यापादयन्तीति, एवं 'प्ररूपयन्ति' तत्वचिन्तायामसंदिग्धमेतदिति निरूपयन्ति, इह खल्वेको जीव एकेन समयेन युगपहे क्रिये प्रकरोति, तद्यथा— 'सम्यक्त्वक्रियां च सुन्दराभ्यवसायात्मिकां 'मिथ्यात्यक्रिया च' असुन्दराध्यवसायासिकां 'जं समय'मिति प्राकृतत्वात्सप्तम्यर्थे द्वितीया यस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति तं समय' मिति तस्मिन् समये मिध्यात्वक्रियां प्रकरोति, यस्मिन् समये मिध्यात्वकियां प्रकरोति तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, अन्योऽन्यसंवलितोभयनियमप्रदर्शनार्थमाह-सम्यक्वक्रिया प्रकरणेन मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति मिध्यात्वक्रियाप्रकरणेन सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, तदुभयकरणस्वभावस्य तत्तत्क्रियाकरणासर्वाअना प्रवृत्तेः, अन्यथा क्रियाऽयोगादिति, एवं खल्वि'त्यादि निगमनं प्रतीतार्थं, 'से कहमेयं भंते!' इयादि, तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ? तदेव गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवानाह गौतम बणमिति वाक्यालङ्कारे 'अन्ययूथिकाः' अन्यतीर्थिका एवमाचक्षते For P&Praise Cinly ~ 288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१०४] दीप अनुक्रम [१३८ -१३९] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(तिर्यञ्च)-२], मूलं [१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः |इत्यादि प्राग्वत् यावत्तत् मिथ्या ते एवमाख्यातवन्तः अहं पुनर्गौतम! एवमाचक्षे एवं भाषे एवं प्रज्ञापयामि एवं प्ररूपयामि, इह ख स्वेको जीव एकेन समयेनैकां क्रियां प्रकरोति, तद्यथा सम्यक्त्वक्रियां वा मिध्यात्वक्रियां वा, अत एव यस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां | प्रकरोति न तस्मिन् समये मिध्यात्वक्रियां प्रकरोति यस्मिन समये मिध्यात्वकियां प्रकरोति न तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, रीयावृत्तिः + परस्परवैविक्तत्यनियम प्रदर्शनार्थमाह-सम्यक्त्वक्रियाकरणेन न मिध्यात्वक्रियां प्रकरोति मिध्यात्वक्रियाप्रकरणेन न सम्यक्त्वकियां ॥ १४३ ॥ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि प्रकरोति, सम्यक्त्वक्रियामिथ्यात्वक्रिययोः परस्परपरिहारावस्थानात्मकतया जीवस्य तदुभयकरणस्वभावत्वायोगात्, अन्यथा सर्वथा मोक्षाभावप्रसक्तेः कदाचिदपि मिध्यात्वानिवर्त्तनात् । अस्यां तृतीयप्रतिपत्तौ तिर्यग्योन्यधिकारे द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ व्याख्यातस्तिर्यग्योनिजाधिकारः, सम्प्रति मनुष्याधिकारव्याख्यावसरः, तत्रेदमादिसूत्रम् - से किं तं मणुस्सा, मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - संमुच्छिममणुस्सा य गभवतियमगुस्सा य ॥ (सू० १०५ ) । से किं तं समुच्छिममणुस्सा ?, २ एगागारा पण्णत्ता ॥ कहि णं भंते! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति ?, गोयमा ! अंतोमणुसते जहा पण्णवणाए जाव सेत्तं संमुमिस्सा ॥ (० १०३ ) 'से किं तमित्यादि, अथ के ते मनुष्याः १, सुरिराह-मनुष्या द्विविधाः प्रज्ञप्रास्तद्यथा-संमूमिमनुष्याच गर्भश्युत्कान्तिकमनुप्याथ चशब्दौ इयानामपि मनुष्यत्वजातितुल्यतासूचकौ ॥ 'से किं तमित्यादि अथ के ते संमूच्छिममनुष्याः ?, सूरिराह-संमूच्छिममनुष्याः 'एकाकाराः' एकस्वरूपाः प्रमाः । अथ क तेषां सम्भवः ? इति जिज्ञासिषुर्गोतमः पृच्छति - 'कहि णं भंते!" अत्र तृतीय प्रतिपत्तौ तिर्यञ्च उद्देशकः २ परिसमाप्तः मनुष्य आश्रित विविध विषयाधिकारः For P&Praise City अत्र तृतीय प्रतिपत्तौ मनुष्य उद्देशक: आरब्धः ~289~ ३ प्रतिपत्ती तिर्यगुदेशः २ सू० १०५१०६ ॥ १४३ ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(मनुष्य)], --------- --------- मूलं [१०५-१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५-१०६] इत्यादि, क भदन्त ! संमूच्छिममनुष्याः संमूर्च्छन्ति ?, भगवानाह-अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे इत्यादि सूत्रं प्राग्वद्भावनीयं यावत् अंतोमुहुत्तद्धाउया चेत्र कालं पकरेंति, उपसंहारमाह-'सेतं समुच्छिममणुस्सा' । सम्प्रति गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यप्रतिपादनार्थमाह से किं तं गम्भवतियमणुस्सा?, २ तिविधा पण्णत्ता, तंजहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवगा ।। (मु०१०७) से किं तं अंतरदीवगा?, २ अट्ठावीसतिविधा पण्णत्ता, तंजहा-एगुरूया आभासिता साणिया णांगोली हपकण्णगा० आयंसमुहा० आसमुहा० आसकण्णा उक्कामुहा० घणदंता जाव सुद्धदंता ॥ (सू०१०८) | 'से किं तमित्यादि, अथ के ते गर्भव्युत्कान्तिकमनुष्या:?, सूरिराह-गर्भव्युत्क्रान्ति कमनुष्यात्रिविधाः प्रज्ञमास्तद्यथा-कर्मभूमका अकर्मभूमका आन्तरद्वीपकाः, तत्र 'अत्यनानुपूळपीति न्यायप्रदर्शनार्थमान्तरद्वीपकप्रतिपादनार्थमाह-'से किं तमित्यादि, अथ के ते आन्तरद्वीपका: ?, लवणसमुद्रमध्ये अन्तरे अन्तरे द्वीपा अन्तरद्वीपा अन्तरद्वीपेषु भवा आन्तरद्वीपका:, 'राष्ट्रभ्यः' इपि बुञ् , सूरिराह-आन्तरद्वीपका अष्टाविंशतिविधा: प्रज्ञप्ताः, तानेव तयथेत्यादिना नामयाहमुपदर्शयति-एकोरुकाः १ आभाषिका: २ | वैपाणिकाः ३ नागोलिकाः ४ हयकर्णाः ५ गजकर्णाः ६ गोकर्णाः ७ शप्कुलीकर्णा: ८ आदर्शगुखाः ९ मेण्ड मुखाः १० अयोमुखा: ११ | गोमुखा: १२ अश्वमुखाः १३ हस्तिमुखा: १४ सिंहमुखाः १५ व्याघ्रमुखा: १६ अश्वकर्गाः १७ सिंहकर्णाः १८ अकर्णा: १५ कर्णप्रावरणा: २० उल्फामुखाः २१ मेघमुखाः २२ विद्युहन्ता: २३ विद्युजिहाः २४ घनदन्ताः २५ लष्ठदन्ताः २६ गृढदन्ताः २७ KAMAKASOOCAKACE-NCRAA दीप अनुक्रम [१४०-१४१] | अन्तविपानाम् मनुष्याणाम् २८-भेदा: एवं अन्तविपानाम् वर्णनं ~290~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१०७-१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७ -१०८] दीप अनुक्रम [१४२ श्रीजीवा- शुद्धदन्ताः २८, इह एकोरुकादिनामानो द्वीपाः परं 'तास्थ्यानद्वषपदेश' इति न्यायान्मनु या अप्येकोरुकादय उक्ता यथा पचाल-1४३ प्रतिपत्तों जीवाभि०1शनिवासिनः पुरुषाः पञ्चाला इति ॥ तथा चैकोरुकमनुष्याणामेकोषकद्वीपं पिपच्छिपुराह | मनुष्योमलयगि- कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं एगोरूमणुस्साणं एगोरूदीवे णामं दीव पण्णत्ते?, गोयमा! जबुंडीवे रीयावृत्तिः २ मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवतस्स वासधरपब्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिम॥१४॥ ताओ लवणसमुई तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं ए. गुरुयदीवे णाम दीचे पण्णत्ते तिन्नि जोयणसयाई आयामविखंभेणं णव एकूणपण्णजोयणसए किंचि बिसेसेण परिक्खेवणं एगाए पउमवरवेदियाए एगणं च वणसंडेणं सब्बओ समंता संपरिक्खित्ते । साण पत्रमवरवेदिया अट्ट जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं पगूरुयदीवं समता परिवग्वेवेणं पण्णत्ता। तीसे णं पउमवरवेदियाए अयमेयारवे वपणाचासे पण्णते, तंजहा-बहरामया निम्मा एवं वेतियावण्णओ जहा रायपसेणईए नहा भाणियन्यो ।(सू०१०१) 'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भवन्त ! दाक्षिणात्यानां इह एकोरुकादयो मनुष्याः शिखरिण्यपि पर्वते विद्यन्ते ते च मेरोरुत्तरदिग्वर्तिन इति तस्यवच्छेदार्थ दाक्षिणात्यानामित्युक्तं, एकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे | मन्दरपर्वतस्थान्यत्रासम्भवात् अस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे इति प्रतिपत्तव्यं, 'मन्दरपर्वतस्य मेरोईक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमव-| |॥ १४४॥ दर्पधरपर्वतस्य, क्षुल्लमहणं महाहिमवर्षधरपर्वतस्य व्यवच्छेदार्थ, पूर्वस्मात् पूर्वरूपाचरमान्ताद् उत्तरपूर्वेण-उत्तरपूर्वस्यां दिशि लवण -१४३] k अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 291~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], --------------------- मूलं [१०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 5 प्रत सूत्रांक -4- [१०७ 9- 5 -१०८] X- RAGS समुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवगाह्यात्रान्तरे झुहिमवदंष्ट्राथा उपरि दाक्षिणात्यानामेकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, स च त्रीणि योजनशतान्यायामविष्कम्भेण समाहारो द्वन्द्वः आयामेन विष्कम्भेन चेयर्थः, नब 'एकोनपञ्चाशानि' एकोनपञ्चाशदभिकानि योजनशतानि ९५९ परिक्षेपेण, परिमाणगणितभावना--"विक्वंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरो होइ" इति करणवशात्स्वयं कर्त्तव्या सुगमत्वात् ।। साणं पउमवरवेतिया एगेणं वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता । से णं वणसंडे देसणाई दो जोयणाई चकवालबिक्खंभेणं वेतियासमेणं परिक्वेवेणं पण्णत्ते, से णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे, एवं जहा रायपसेणइयवणसंडवणओ तहेव निरवसेसं भाणियय्वं, तणाण य वाणगंधफासो सही तणाणं वावीओ उप्पायपव्यया पुढविसिलापट्टगा य भाणितब्वा जाव तत्थ ण बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंनि जाव विहरति ।। (मू०११०) 'से ण'मित्यादि, स एकोरुकनामा द्वीप एकया पद्मवरवैदिकया एकेन बनपण्डेन 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन परिक्षिप्तः, तत्र पद्मवरवेदिकावर्णको बनपण्डवर्णकश्च वक्ष्यमाण जम्बूद्वीपजगत्युपरिपडाबरवेदिकावनपण्डवर्णकबद् भावनीयः, स च | ताबदू यावश्चरम 'आसयंतीति पदम् ।। गगोरुयदीवस्स णं दीवस्स अंतो बहसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामा आलिंगपुकवरेति वा, एवं सयणिजे भाणिलब्बे जाव युद्धविसिलापट्टगंसि तत्थ णं बहवे पगुरुयदीवया दीप अनुक्रम [१४२ -१४३] 68 जी०च०२५ JaEMA ~292~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती मनुष्या61 धि दाउद्देशः१ ०१११ ॥१४५॥ दीप -RRC-02 अनुक्रम मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति जाब विहरति, एगुरूयदीवे णं दीवे तत्य तत्थ देसे तहिं २ बहवे उद्दालका कोहाल का कनमाला णयमाला णट्टमाला सिंगमाला संग्खमाला दंतमाला सेलमालगा णाम सुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! कुसविकुसविसुद्धमक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो जाव बीयमलों पत्रोहिय पुप्फेहि य अच्छपणपडिच्छपणा सिरीण अतीव २ उपसोभेमाणा उथसोहेमाणा चिटुंति, एकोग्यदीवे पां दीये लक्खा बहवे हेरुयालवणा मेस्यालवणा मेरुयालयणा सेझयालवणा सालवणा सरलवणा सत्तवणवणा पूतफलिवणा ग्वजरिवणा णालिपरिवणा कसबिकुसति जाय चिट्ठति, एगुरुढीचे णं तस्थ २ यहवे तिलया लवया नग्गोधा जाय रायकवा पंदिस्यग्या कुसविकुसवि० जाब चिट्ठति, एगुरुयदीवेणं तत्थ यहओ पउमलयाओ जाय सामलयाओ निचं कुसुमिताओ एवं लयावण्णओ जहा उववाइए जाय पडिरूवाओ, एकोख्यदीवे णं तस्थ २ बहवे सेरियागुम्मा जाव महाजातिगुम्मा ते णं गुम्मा दसद्धवषणं कुसुमं कुसुमंति विधूयग्गसाहा जेण वायविधूयम्गसाला एगुरुयदीवस्स बहसमरमणिजभूमिभागं मुक्कपुष्फपुंजोबयारकलियं करेंति, एकोख्यदीवे णं तत्थ २ बहओ वणरातीओ पण्णताओ, ताओ णं वणरातीतो किण्हातो किण्होभासाओ जाव रम्माओ महामेहणिगुरुवभूताओ जाव महतीं गंधद्धणिं मुयंतीओ पासादीताओ४ । एगुरूयदीवे तस्थ २ यहवे मत्तंगा णाम दुमगणा पणत्ता समणा [१४५] G ॥१४५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 293~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------- ----------- उद्देशक: [(मनुष्य)], ------- --------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] एसो! जहा से चंदप्पभमणिसिलागवरसीधुपवरवारुणिसुजातफलपत्तपुष्कचोयणिज्जा संसारबहुदबजुत्तसंभारकालसंधयासवा महुमेरगरिट्ठाभदुद्धजातीपसन्नमेल्लगसताउ खजूरमुद्दियासारकाविसायणमुपकरखोयरसवरसुरावण्णरसगंधफरिसजुत्तबलवीरियपरिणामा मजविहित्थबहुप्पगारा तदेवं ते मत्संगयावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए मजविहीए उववेदा फलेहिं पुण्णा वीसंदंति कुसविकुसविसुद्धरुवमूला जाब चिट्ठति १। एकोरुए दीबे तत्व २ यह वो भिंगंगया णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से बारगघडकरगकलसककरि पायंकंचणिउदंकवाणिसुपविट्टरपारीचसकभिंगारकरोडिसरगथरगपत्तीवालणत्थगववलियअवपदगवारकविचित्राथट्टकमणिचट्टकसुत्तिचारुपिणयाकंचणमणिरयणभत्तिविचित्ता भायणविधीए बहुप्पगारा तहेव ते भिंगंगयावि दुमगणा अणेगबहुगविविहवीससाए परिणताए भाजणविधीए उववेया फलेहिं पुनाचिव विसति कुसविकुस जाब चिट्ठति २। एगोरुगदीवे णं दीये तत्थ २ बहवे तुडियंग। णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से आलिंगमुयंगपणवपडहददरगकरडिडिंडिमभभाहोरंभकपिणयारखरमुहिमुगुंदसंखियपरिलीवब्वगपरिवाइणिवंसावेणुवीणासुघोसविनिमहतिकच्छभिरगसगातलतालकंसतालसुसंपउत्ता आतोजविधीणिउणगंधव्यसमयकुसलेहिं फंदिया तिवाणसुद्धा तहेव ते तुडियंगयावि दुमगणा अणेगबहुविविधवीससापरि SOCCESSAGAR ~294~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥१४६ ॥ SC [१११] प्रतिपत्तो | मनुष्या| धि० उद्देशः १ सू०१११ दीप अनुक्रम [१४५] %EXXX णामाए ततविततघणसुसिराए चउविहार आतोजविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसन्ति कुसविकुसविसुद्धक्खमूला जाव चिट्ठति ३। एगोरुयदी तत्थ २ बहवे दीवसिहा णाम तुमगणा पण्णता समणाउसो!, जहा से संझाविरागसमए नवणिहिपतिणो दीविया चकवालविदे पभयवहिपलिताणेहिं धणिवजालियतिमिरमहए कणगणिगरकुसुमितपालियातयवणप्पगासो कंचणमणिरयणविमलमहरिहतवणिजुजलविचित्तदंडाहिं दीवियाहिं सहसा पजलिऊसविषणितेयदिपंतविमलगहगणसमप्पहाहिं वितिमिरकरमरपसरिउल्लोयचिल्लियाहिं जावुजलपहसियाभिरामाहिं सोभेमाणा तहेव ते दीवसिहावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणामाए उज्जोयविधीए उबवेदा फलेहिं पुण्णा विसति कुसविकुसवि० जाव चिट्ठति ।। एगुरुयदीये तत्थ २ बहवे जोतिसिहा णाम दुमगणा पणत्ता समणाउसो!, जहा से अचिरुग्गयसरपसूरमंडलपडंत उक्कासहस्सदिपंतविजुजालहुयवहनिमजलियनितधोयतत्सतवणिज्जकिसुयासोयजावासुयणकुसुमविमउलियपुंजमणिरयणकिरणजचहिंगुलुयणिगररूवाइरेगरूवा तहेच ते जोसिसिहावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए उज्जोयविहीए उववेदा सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदायवलेस्सा कडाय इव ठाणठिया अन्नमन्नसमोगाढाहिं लेस्साहिं साए पभाए सपदेसे सव्वओ समंता ओभासंति उज्ज्ञोवेति पभासेंति कुसविकुसवि० जाय चिट्ठति concern-CCCC अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~295~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] COMN4 दीप अनुक्रम [१४५] ५। एगुरुयदीवे तत्थ २ बहवे चित्तंगा णाम दमगणा पण्णता समणाउसो!, जहा से पेच्छाघरे विचिते रम्मे वरकुसुमदाममालुजले भासतमुकपुष्फपंजोवयारकलिए विरल्लिविचित्तमहसिरिदाममलसिरिसमुदयप्पगन्भे गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमेण मल्लेण छेयसिप्पियं विभारतिएण सव्यतो चेव समणुबद्धे पविरललवंतविपइटेहिं पंचवण्णेहिं कुसुमदामेहिं सोभमाणेहिं सोभमाणे वणमालतग्गए चेव दिपमाणे तहेव ते चित्तंगयावि दमगणा अणेगवहविबिहबीससापरिणयाए मलविहीए उववेया कुसविकुसवि० जाब चिट्ठति । एगुरूयदीवे तत्थ २ बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से सुगंधवरकलमसालिविसिणिरुबहतदुद्धरडे सारयघयगुडखंडमहुमेलिए अतिरसे परमण्णे होज उत्समवण्णगंधमते रणो जहा वा चकवहिस्स होज णिउणेहिं मूतपुरिसेहिं सजिएहिं बाउकप्पसेअसित्ते इव ओदणे कलमसालिणिज्जत्तिएवि एक्के सवष्फमिउबसयसगसिस्थे अणेगसालणगसंजुसे अहवा पडिपुषणदब्बुवकबडेसु सकर वपणगंधरसफरिसजत्तबलविरियपरिणामे इंदियबलपुट्टिवद्धणे खुपिवासमहणे पहाणे गुलकटियखंडमच्छंडियउवणीए पमोयगे साहसमियगम्भे हवेज परमइटुंगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसावि दुमगणा अणेगबहुविविह्वीससापरिणयाए भोजणविहीए उपवेदा कुसविकुसवि० जाच चिट्ठति । एगुरूण दीवेणं तत्थ २ बहवे मणियंगा नाम दुमगणा प Jatican ~296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभिकहा मलयगिरीयावृत्तिः FASCOCR प्रतिपत्तो दा मनुष्या घि का उद्देशः१ धू०१११ * M ॥१४७॥ -- दीप अनुक्रम [१४५] पणत्ता समणाउसो!, जहा से हारहारवट्टणगमउडकुंडलवासुत्तगहेमजालमणिजालकणगजालगमुत्तगउचिइयकडगाखुडियएकावलिकंठसुत्तमंगरिमउरत्यगेवेनसोणिसुत्तगचूलामणिकणगतिलगफुल्लसिद्भूत्थयकण्णवालिससिसूरउसभचक्कगतल अंगतुङियहत्थिमालगवलम्वदीणारमालिता चंदमरमालिता हरिसयकेयूरवलयपालंयअंगुलेजगकंचीनेहलाकलावपयरगपायजालघंटियविखिणिरयणोरुजालस्थिगियवरणेउरचलणमालिया कणगणिगरमालिया कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता भूसणविधी बहुप्पगारा तहेव ते मणियंगावि दुमगणा अणेगयाहुविविहवीससापरिणताए भूसणविहीए उववेया कुसवि० जाव चिट्टति ८ । एगुरूया दीये तस्थ २ बहवे गेहागारा नाम मगणा पण्णत्ता समणाउसो, जहा से पागारद्वालगचरियदारगोपुरपासायाकासतलमंउवागसालबिसालगतिसालगचउरंसचउसालगन्भघरमोहणघरवलभिधरचित्तसालमालयभत्तिघरवतंसचतुरंसगंदियावत्तसंठियायलपंडुरतलमुंडमालहम्मियं अहव णं धवलहरअद्धमागह विभमसेलसलसंठियकृडागारद्वसुविहिकोहगअणेगघरसरणलेणआवणविडंगजालचंदणिज्यूहअपवरकदोवालिचंदसालियरूवविभत्तिकलिता भवणविही बहुविकप्पा तहेव ते गेहागारावि दुमगणा अणेगवहविविधवीससापरिणयाए सुहारहणे महोत्ताराए सुहनिश्वमणप्पवेसाए दहरसोपाणपंतिकलिताए परिकाए सुहविहाराए मणोऽणुकलाप भवणविहीए उवचेया कुसवि० जाव 63 नामA COCOCCANCIES ॥१४७॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~297~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] चिट्ठति । एगोरुयदीये तत्थ २ बहवे अणिगणा णामं दुमगणा पण्णता समणाउसो! जहा से अणेगसो मंतणुतं कंवलगढकोसेजकालमिगपट्टणीणंतुयवरणातबारवणिगयतुआभरणचिप्ससहिणगकहाणगभिंगिणीलकज्जलबहुवपणरत्तपीतसुक्किल मकवयमिगलोमहेमप्फरुपणगअ. वसरत्तगसिंधुओसभदामिलवंगकलिंगनेलिणतंतुमयभत्तिचिन्ता वत्थविही बहुप्पकारा हवेज घरपट्टणुग्गता वष्णरागकलिता तहेव ते अणियणावि दुभगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणताए बथविधीय उबवेया कुसविकुसवि० जाव चिट्ठति १०। एगोळ्यहीवे णं भंते ! दीवे मणुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णते?, गोयमा! ते णं मणुया अणुधमतरसोमचारुरूवा भोगुत्तमगयालयखणा भोगसस्सिरीया सुजायसवंगसुंदरंगा सुपतिहियाम्पचारुचलणा रचप्पलपत्तमउयसुकुमालकोमलतला नगनगरसागरमगरचक्रकवरंकलक्वाणकियचलणा अणुपुब्बसुसाहतंगुलीया उपयतणुतंवणिद्धणग्या संठियसुसिलिट्ठगढगुप्फा एणीकुरुविंदायत्तवहाणुपुत्वजंघा समुग्णणिमग्गगृहजाणू गतससणसुजातसष्णिभोरू वरवारणमत्ततुल्छविकमविलासितगती सुजातवरतुरगगुज्झदेसा आइण्णहतोव णिरुवलेवा पमुइयवरतरियसीहअतिरेगवट्टियकडी साहयसोजिंदमुसलदप्पणणिगरितवरकणगच्छक(क)सरिसवरवइरपलितमज्झा उज़यसमसहितसुजातजचतणुकसिणणिद्धआदेजलडहसुकुमालमउयरमणीजरोमराती गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंगभंगुरर - - ~298~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------------ उद्देशक: [(मनुष्य)], --------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥१४८॥ ३ प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्दशः१ सू०१११ दीप अनुक्रम विकिरणतरुणयोधितअकोसायंतपउमगंभीरवियडणाभी झसविहगसुजातपीणकुच्छी झसोदरा सुइकरणा पम्हवियडणाभा सण्णयपासा संगतपासा मुंदरपासा सुजातपासा मितमाइयपीणरतियपासा अकरडयकणगरुयगनिम्मलमुजायनिरुवहयदेहधारी पसत्यत्तीसलक्खणधरा कणगसिलातलुजलपसत्थसमयलोवचियविच्छिन्नपिहलवच्छी सिरिवच्छंकियवच्छा पुरवरफलिहवहियभुया भुयगीसरविपुलभोगआयाणफलिहउच्छूटदीहवाहू जूयसन्निभपीणरतियपीवरपउट्ठसंठियमुसिलिट्ठविसिघणविरसुबहसुनिगूढपब्वसंधी रत्ततलोवइतमउयमसलपसत्यलक्वणसुजायअच्छिद्दजालपाणी पीवरचट्टियसुजायकोमलवरंगुलीया तंवतलिणसुचिमहरणिदणक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्रपाणिलेहा दिसासोअस्थियपाणिलेहा चंदसूरसंखचफदिसासोअत्थियपाणिलेहा अणेगवरलकवणुत्तमपसत्यमुचिरतियपाणिलेहा वरमहिसवराहसीहसहलसभणागवरपडिपुन्नविउल उन्नतमइंदबंधा चउरंगुलमुप्पमाणकंवुवरसरिसगीवा अबहितसुविभत्तसुजातचित्तमंसूमंसलसंठियपसत्थसहलविपुलहणुयाओ तवितसिलप्पवालबिवफलसभिभाहरोहा पंडुरससिसगलविमलनिम्मलसंग्खगोखीरफेणदगरयमुणालिया धवलदंतसेढी अखंडदंता अफडियदंता अविरलदंता सुजातदंता एगदंतसेदिव्य अणेगदंता हतबहनिद्धंतघोततत्सतबणिजरत्ततलतालुजीहा गरुलाययउजुतुंगणासा अवदालियपॉटरीयणयणा कोकासितध [१४५] CANCCASCIRCRACK अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~299~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------------------------ उद्देशक: [(मनुष्य)], --------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] घलपत्तलच्छा आणामियचावरुइलकिपहपूराइयसंठियसंगतआयतमुजाततणुकसिणनिद्वभुमया अल्लीणप्पमाणजुत्तसरणा सुस्सवणा पीणमंसलकवोलदेसभागा अचिकग्गयवालचंदसंठियपसत्थविच्छिन्नसमणिडाला दुवतिपडिपुषणसोमवदणा उत्तागारुत्तमंगदेसा घणणिचियसुबद्धलक्खगुण्णयकडागारणिभपिडियसिस्से दाडिमपुष्पगासतवणिजसरिसनिम्मलसुजायकेसंतकेसभूमी सामलिबोंडघणणिचियछोनियमिउविसयपसत्थमुहमलक्वणसुगंधसुंदरभुयमोयगभिगिणीलकजलपहट्ठभमरगणणिणिकुबनिचियकुंचियचियपदाहिणावत्तमुद्धसिरया लक्षणवंजणगुणोववेया सुजायसुविभत्तसुरूवगा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, ते णं मणुया हंसस्सरा कोंचस्सरा नंदिघोसा सीहस्सरा सीहघोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुस्सरणिग्घोसा छायाजजोतियंगमंगा बजरिसभनारायसंघयणा समचउरंससंठाणसंठिया सिणिछवी णिरायंका उत्तमपसस्थअइसेसनिरुवगतणू जल्लमलकलंकसेयरयदोसवजियसरीरा निरुवमलेवा अणुलोमवाउवेगा कंकग्गहणी कवोतपरिणामा सउणिच्च पोसपिट्टतरोरुपरिणता थिग्गहियउन्नयच्छी पउमुप्पलसरिसगंधणिस्साससुरभिवणा अधणुसयं ऊसिया, तेसिं मणुयाणं चउसहि पिट्टिकरंडगा पण्णत्ता समणाउसो! ते णं मणुया पगतिमद्दगा पगतिविणीतगा पगतिउवसंता पगतिपयणुकोहमाणमायालोभा मिउमहवसंपण्णा अल्लीणा भद्दगा विणीता अप्पिच्छा असंनिहिसं CASSSC ~300~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------------------------ उद्देशक: [(मनुष्य)], --------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती 10 मनुष्या सूत्रांक धि० [१११] उद्देशः१ ॥१४९।। दीप अनुक्रम [१४५] चया अचंडा बिडिमंतरपरिवसणा जहिच्छियकामगामिणो य ते मणुयगणा पपणत्ता समणाउसो!। तेसि भंते ! मणुयाणं केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पजति ?, गोयमा! चउत्थभत्तस्स आहारहे समुप्पज्जति, एगोरुयमणुईणं भंते! केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते?, गोयमा! ताओणं मणुईओ सुजायसवंगसुंदरीओ पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता अचंतरिसप्पमाणपउमसूमालकुम्मसंठितविसिहचलणाओ जुम्मिओ पीवरनिरंतरपुट्ठसाहितंगुलीता उण्णयरतियनलिणंव सुइणिदणखा रोमरहियवद्दलहसंठियअजहपणपसस्थलकवणअकोप्पजंघजुयला सुणिम्मियसुगूढ जाणुमंडलसुबासंधी कयलिफ्वभातिरंगसंठियणिवणसुकुमालमउयकोमलअविरलसमसहितसुजातवहपीवरणिरंतरोरू अट्ठावयवीचीपसंठियपसत्यविच्छिन्नपिहलसोणी वदणायामप्पमाणदुगुणितविसालमंसलगुबद्धजहणवरधारणीतो बजविराइयपसत्यलक्वणणिरोदरा तिवलिवलीयतणुणमियमज्झितातो उज्जयसससहितजयतणकसिणणिआदेजलडहसुविभत्तसुजातकंतसोभतरुइलरमणिजरोमराई गंगावत्तपदाहिणायत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणयोधितअकोसायंतपउमवणगंभीरवियडणाभी अणुभपसत्थपीणकुच्छी सण्णयपासा संगथपासा सुजायपासा मितमानियपीणरश्यपासा अकरंडुयकणगरुयगनिम्मलसुजायणिम्वहयगातलट्ठी कंचणकलससमपमाणसमसहितसुजातलहनूचुयआमेलगजमलजुगलबहियअन्भुषणयरतियसंठियपयोधराओ भुयंगणु ॥१४९॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 301~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] पुख्यतणुपगोपुरुरवहसमलहियणमियआएजललियवाहाओ तंवणहा मंसलग्नहत्था पीयरकोमलवरंगुलीओ णिद्धपाणिलेहा रविससिसंखचक्कसोस्थियसुविभत्तसुविरतियपाणिलेहा पीणुप्रणयकक्ववस्थिदेसा पडिपुषणगलकबोला चाउरंगुलमुप्पमाणकयुवरसरिसगीवा मंसलसंठियपसस्थहणुया वाडिमपुष्फप्पगासपीवरकुंचियवराधरा सुंदरोत्सरोहा दधिदगरयचंदकुंदवासंतिमउलअच्छि द्दविमलदसणा रतुप्पल पत्तमउयसुकुमालतालुजीहा कणय(व)रमुउल अकुडिलअन्भुगतउजुतुंगणासा सारदणवकमलकुमुदकुवलयविमुक्कदलणिगरसरिसलक्षणअंकियकंतणयणा पत्तलचवलायनपलोयणाओ आणामितचावइलकिपहाभराइसंठियसंगतआययसुजातकसिणणिद्धभमुया अल्लीणपमाणजुत्तसवणा पीणमट्टरमणिजगंडलेहा चउरंसपसत्यसमणिडाला कोमु. तिरयणिकरविमलपडिपुन्नसोमवयणा छत्तुन्नयउत्तिमंगा कुरिलसुसिणिददीहसिरया छत्तज्मयजुगथूभदामिणिकमंडलुकलसबाविसोत्थियपडागजवमच्छकुम्मरहवरमगरसुकथाल अंकुसअहावयवीहसुपइट्टकमयूरसिरिदामाभिलेयतोरणमेइणिउदधिवरभवणगिरिवरआयसललियगत उसभसीहत्यमरउत्तमपसत्थवत्तीसलवणधरातो हंससरिसगतीतो कोनिलमधुरगिरसुस्सराओ कता सव्वस्स अणुनतातो ववगतवलिपलिया चंगदुव्बण्णवाहीदोभग्गसोगमुकाओ उच्चत्तेण य नराण थोवूणमूसियाओ सभावसिंगाराचारचारुवेसा संगतगतहसित भणियचेदियविला ~302~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------------ उद्देशक: [(मनुष्य)], --------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ६३ प्रतिपत्तों मनुष्याXI घि सूत्रांक [१११] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥१५॥ उद्देशः १ सू०१११ - * % दीप अनुक्रम [१४५] ससलावणिउणजुत्तोवयारकुसला सुंदरथणजहणवणकरचलणणयणमाला वष्णलावण्णजोवणविलासकलिया नंदणवणविवरचारिणी उच्च अच्छराओ अच्छेरगपेरुणिमा पासाहतातो दरिसणिजातो अभिरुवाओ पडिरूबाओ। तासि णं भंते! मणुईणं केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पजति ?, गोयमा! चउत्थभत्तस्स आहारट्टे समुप्पजनि । ते णं भने! भणुया किमाहारमाहारैति?, गोयमा! पुढविपुष्कफलाहारा ते मणुयगणा पण्णत्ता ममणाउसो! । तीसे णं भंते ! पुतवीए केरिसए आसाए पण्णते?, गोयमा! से जहाणामए गुलेलि वा बंडेति वा सकराति वा मच्छंडियाति वा भिसकंदेति वा पप्पडमोयएति वा पुष्फउत्तराइ वा पउमुत्तराइ वा अकोसिताति वा विजताति वा महाविजयाइ वा आयसोवसाति वा अणोवसाति या चाउरके गोखीरे चउठाणपरिणए गुडखंडमच्छडिउवणीए मंदग्गिकडीए वपणेणं उववेए जाव फासेणं, भवेतारूवे सिता?. नो इणढे समढे, तीसे णं पुढवीए पत्तो इयराए चेव जाव भणामतराए चेव आसाए णं पण्णते, तेसि णं भंते ! पुष्फफलाणं केरिसए आसाए पण्णत्ते?, गोयमा! से जहानामए चाउरंतचकबहिस्स कल्लाणे पवरभोयणे सतसहस्सनिष्फन्ने वण्णेणं उबवेते गंधेणं उववेते रसेणं उबवेते फासेणं उववेते आसाइणिजे वीसाइणिजे दीवणिजे बिहणिजे दप्पणिजे मयणिजे सम्बिदियगातपल्हायणिज्जे. भवेतारूवे सिता?, णोतिण समझे, तेसिणं पुष्फफलाणं एसो इतराए चेव जाव आस्साए णं 455-2-58-2-56- ॥१५०॥ -5 2-56 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~303~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत - - सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] %ASRAMRESS पपणत्ते । ते ण भंते ! मणुया समाहारमाहारिता कहिं वसहि उति?, गोयमा ! मक्खंगहालता णं ते मणुयगणा पणत्सा समणाउसो! ते भंते! अक्वा किंसंठिया पणत्ता?, गोयमा! कहागारसंठिता पेच्छाघरमंठिता सत्तागारसंठिया झपनंठिया थूभसंठिया तोरणसंठिया गोपुरचेतियपा(या)लगसंठिया अलगसंठिया पासासंदियाहम्मतलसंठिया गवक्खसंठिया बालगपोत्तियसंठिना बलभीसंठिता अण्ण तत्थ बहवे परमवास्थणासणविसिट्ठसंठाणसंठिता सुहमीपलच्छापा ण ते दुभंगणा पण्णसा समण उसो! । अधिकं भंते! एगोरुयहीवे दीवे गेहाणि वा गेहावणाणि था?, णो तिणढे सम?, क्वगहालया सेमणुषगणा पण्णत्तासमणाउसो!। अस्थि ण भंते ! एगुरुयदीवे २ गामाति वा गरानिमा जाव सन्निवेसातिश?. जो तिण समो. साहिच्छितकामगामिणो ते मगुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! । अस्थि णं भंते! एगावदीये असीनि वा मसीइ वा कसीइ वा पणीति वा वणिजाति वा?, नो तिणडे समझे, बवगयअसिनसिधिसिपणियवाणिजा गं ते मणुयगणा पणता समणाउसो! । अस्थि णं भंते! एगरुयहीये हिरपणेति वा सुबन्नेति वा कंसेति वा दसति वा मणीति वा भुत्तिएति वा विपुलधणकणगरयणसणिमोत्तियसंखसिलपवालसंतसारसावएजेति वा?, हंता अस्थि, णो चेव णं सेसिं अणुवाणं तिब्बे ममत्तभावे समुप्पजति । अस्थि णं भंते! एगोरुयदीवे रायाति वा जुवरायाति वा ईसरेति 3RDARMERA सी० च०२६ ~ 304~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवा प्रत सूत्रांक [११] जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्देशः१ सू०१११ ॥१५१॥ दीप अनुक्रम [१४५] वा तलवरेइ वा माइंबियाति वा कोटुंबियाति वा इन्भाति वा सेट्ठीति वा सेणावतीति वा सत्थवा हाति वा?, णो तिणढे समढे, ववगयइडीसक्कारा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगरूयदीवे २ दासाति वा पेसाइ वा सिस्साति वा भयगाति था भाइल्लगाइ वा कम्मगरपुरिसाति वा?, नो तिणढे समढे, ववगतआभिओगिताणं ते मणुयगणा पण्णात्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते! एगोळयदीवे दीवे माताति वा पियाति वा भायाति वा भइणीति चा भजाति वा पुत्ताति वा धूयाइ वा सुपहाति वा?, हंता अस्थि, नो चेव णं तेसिणं मणुयाणं तिब्वे पेमबंधणे समुप्पजति, पयणुपेजबंधणा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीव अरीति वा बेरिएति वा घातकाति वा बहकाति वा पडिणीताति वा पञ्चमित्ताति चा?, णो तिगट्टे समढे, ववगतवेराणुबंधा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!! अन्थि णं भंते ! एगोरूग दीवे मित्ताति वा वतंसाति वा घड़ितानि वा सहीति वा सहियाति वा महाभागाति वा संगतियाति वा?, णो तिण8 समई, ववगतपेम्मा ते मणुयगणा पण्णता समणाउसो!। अस्थि णं भनएगोंरूयदीवे आवाहाति वा चीवाहाति वा जपणाति वा सहाति वा थालिपाकाति वा चेलोवणतणाति वा सीमंतुण्णयणाइ वा पिनि(मत)पिंडनिवेदणाति वा, णो निण? समहे, वबगतआवाहविवाहजपणभहथालिपागचोलोवणतणसीमंतुण्णयणमतपिंडनिवेदणा गं ते मणुयगणा पणता सम RSSCRENCESCHA SCkARXXX ॥१५१।। अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~305~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------- ------------ उद्देशक: [(मनुष्य)], -------- ---------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -- प्रत ------ सूत्रांक [१११] *-- %* दीप अनुक्रम [१४५] % णाउसो! । अस्थि णं भंते! एगोरुयदीचे २ इंदमहाति या खंदमहाति वा कदमहाति घा सिबमहाति वा वेसमणमहाइ वा मुगुंदमहाति वा णागमहाति वा जक्खमहाति वा भूतमहाति चा कूवमहाति वा तलायणदियहाति वा दहमहाति वा पब्वयमहाति वा रुम्वरोषणमहाति वा चेइयमहाइ वा थूभमहाति वा?, णो तिणढे समढे, धवगतमहमहिमा णं ते मणुषगणा पणत्ता समणाउसो! । अत्धि णं भंते! एगोरुयदीवे दीवे णडपेच्छाति वा णदृपेच्छाति वा मल्लपेच्छाति वा मुट्ठियपेच्छाइ वा विईबगपेच्छाइ वा कहगपेच्छाति वा पबगपेच्छाति वा अक्वायगपेच्छाति वा लासगपेच्छाति वा लेखपे० मंखप० तृणइल्लपे० तुंबवीणपे० कावणपे० मागहपे०जल्लपे०?, णो तिण? समढे, ववगतको उहल्ला गं तेमणुयगणा पण्णत्ता समणा'उसो!। अस्थि णं भंते ! एगुरूयदीवे सगडाति वा रहाति या जाणाति वा जुग्गाति वा गिल्लीति वा बिल्लीति वा पिपिल्लीइ वा पवहणाणि वा सिवियाति वा संदमाणियाति वा?, णो तिणट्टे समझे. पादचारविहारिणो णं ते मणुस्सगणा पण्णता समणाउसो! । अस्थि णं भंते! एगूरुयदीवे आसाति या हत्थीति या उद्दाति वा गोणाति वा महिसाति वा खराति वा घोडाति वा अजाति था एलाति वा', हंता अस्थि, नो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति । अत्यि णं भंते! एगूस्यगदीवे दीवे सीहाति वा बग्घाति वा बिगाति वा दीवियाइ वा अच्छाति वा परच्छाति वा परस्सराति वा TAMOCRECSCkACROSkeche 0% + ~306~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - प्रत प्रतिपत्ती मनुष्या - श्रीजीवाजीवाभि मलयनिरीयावृत्तिः सूत्रांक [११] -- - - सू०१११ ॥१५२॥ -- दीप - अनुक्रम तरच्छाति वा पिडालाइ वा सुणगाति वा कोलसुणगाति वा कोतियाति वा ससगाति वा चित्तलाति वा चिल्ललगाति वा?, हंता अस्थि, नो वेध ते अण्णमण्णस्स लेसि वा मणुयाणं किंचि आवाहं वा पवार या मुख्याति या छविच्छेदं या करति, पगतिभदका णं ते सावयगणा पष्णता सषणाउसो! । अधि णं मंते! पगुरूपदीये दीवे सालीति वा बीटीति गोधूमाति या जवाति वा तिलाति वा इदतिया?, हंना अस्थि, जो चेवणं सिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्यमागछति । अस्थि भो! एगृहयदीवे दीवे गत्ताइ वा दरीति वा घंसानि वा भिगति घा उचाएति वा विसमेति वा विझलेति या धूलीलिया रेणूनि वा पंकेइ वा चरणीति चा?, यो तिणट्टे समडे, एगळयदीवे गंदीवे बहसमरमणिजे भूमिमागे पप्णसे समणासो! । अस्थि मंते! एगरुयदीवे दीवे खाति चा कंटपति बाहीरपनि बा सकरानि वा लणकयवराति वा पत्तकयवराइ वा असुतीति था पूतियाति वा बुदिभगंधाइ वा अधोक्वाति वा?, णो निणद्वे समढे, ववगवखाणुकंटकहीरसवरतणकयवरपसकयवरजतिपूनियन्निगंधमचोक्वपरिवजिए णं एगुरुवदीवे पण्णसे समणाउसो! । अस्थि णं अने! गुरुयड़ीदे दीये दंसाति था मसगाति वा पिसुयाति वा जूताति वा लिपखाति वा ढंकुणाति था?, गो निणटेसमटे, अवगतदंसमसगपिसुतजूनलिकावडंकुणपरिवजिए णं एगुरुपदीये पणते समणाउसो! । अत्धि णं भंते! गगुरुयदीवे अहीद वा - [१४५] CXRACK -- ॥१५२॥ 2-54-- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~307~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] अयगराति वा महोरगाति वा?, हंता अस्थि, नो चेव णं ते अन्नमन्नस्स तेसिं वा मणुयाणं किंचि आबाहं था पचाई वा छविच्छेयं वा करति, पगइभद्दगा गं ते वालगगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते! एगुरुयदीवे गहदंडाति वा गहमुसलाति वा गहगजिताति वा गहजुद्धाति वा गहसंघाडगाति वा गहअवसब्बाति वा अम्भाति वा अन्भरुक्खाति वा संझाति वा गंधवनगराति वा गजिताति वा विजताति वा उकापाताति वा दिसादाहाति वा णिग्याताति वा पंसुविट्ठीति वा जुवगाति वा जक्खालित्ताति वा धुमिताति वा महिनाति वा रउग्घाताति वा चंदोवरागाति वा सरोवरागाति वा चंदपरिवेसाइ वा सूरपरिवेसाति वा पडिचंदाति वा पडिसूराति वा इंदधणूति वा उद्गमच्छाति वा अमोहाइ वा कविहसियाइ वा पाईणवायाइ वा पडीणवायाई वा जाव सुद्धवाताति वा गामदाहाति वा नगरदाहाति वा जाव सण्णिवेसदाहाति वा पाणवतजणक्खयकुलक्खयधणक्खयवसणभूतमणारितात वा?, णो तिणटे समढे । अत्थि णं भंते! गगुरुयदीवे दीवे डिंबाति वा डमराति वा कलहाति वा बोलाति वा खाराति वा वेराति वा विरुद्धरजाति वा?, णो तिणढे समढे, ववगतडिंबडमरकलहबोलखारवेरविरुद्धरज विवजिता णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो।। अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीये दीवे महाजुहाति वा महासंगामाति बा महासत्थनिवयणाति वा महापरिसवाणाति वा महारुधिरवाणाति वा नागवाणाति वा खेण C5% % ~ 308~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ३ प्रतिपत्ती मनुष्या सूत्रांक [११] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः %ALE उद्देशः १ सू०१११ ॥१५३॥ दीप अनुक्रम [१४५] वाणाइ वा तामसवाणाइ वा दुभूतियाइ वा कुलरोगाति वा गामरोगाति वा णगररोगाति वा मंडलरोगाति वा सिरोवेदणाति वा अच्छिवेदणाति वा कपणवेदणाति वा णकवेदणाइ वा दंतवेदणाइ वा नखवेदणाइ वा कासाति वा सासाति वा जराति वा दाहाति वा कच्छृति था खसरातिवा कुद्धाति वा कुडाति वा दगराति वा अरिसाति वा अजीरगाति वा भगंदराइ वा इदग्गहाति वा खंदग्गहाति वा कुमारग्गहाति वा णागग्गहाति वा जक्श्वग्गहाति वा भूतग्गहाति वा उब्वेयग्गहाति या धणुग्गहाति वा एगाहियग्गहाति वा बेयाहियगहिताति वा तेयाहियगहियाइ वा चाउत्थगाहियाति चा हिययमलाति वा मत्थगमूलाति वा पासमूलाइ वा कुच्छिमूलाइ वा जोणिमलाइ वा गाममारीति वा जाव सन्निवेसमारीति वा पाणक्खय जाय वसणभूतमणारितातिवा?, णो तिणट्टे समझे, बवगतरोगायंका णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगुरूयदीचे दीये अतिवासाति वा मंदवासाति वा सुट्ठीइ वा मंदबुट्ठीति वा उद्दवाहाति या पवाहाति वा दगुब्भयाइ वा दगुप्पीलाइ वा गामवाहाति वा जाव सन्निवेसवाहाति वा पाणक्वयक जाव वसणभूतमणारिताति वा?, णो तिण? समढे, ववगतदगोवाया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! । अस्थि णं भंते! एगुरूयदीवे दीवे अयागराति वा तम्बागराइ वा सीसागराति वा सुवपणागराति वा रतणागराति वा वइरागराइ वा वसुहाराति वा हिरणवासाति वा सुवषण KABRAHARAXCX ॥१५३।। अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~309~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------- ----------- उद्देशक: [(मनुष्य)], ------- --------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] R- 54X**% वासाति वा रयणवासाति वा बदरवासाति वा आभरणवासाति वा पत्तवासाति वा पुष्फवासाति वा फलवासाति वा बीयवासा० मल्लवासा गंधवासा वण्णवासा० चुण्णवासा० खीरवुट्ठीति वा रयणवुट्ठीति वा हिरण्णबुट्ठीति वा सुवण्ण तहेव जाव चुपणवुट्ठीति वा सुकालाति वा दुकालाति वा सुभिक्खाति वा भिक्खाति वा अप्परघाति वा महग्घाति वा कयाइ वा महाविकयाइ वा सपिणहीइ वा सचयाइ वा निधीइ वा निहाणाति वा चिरपोराणाति या पहीणसामियाति वा पहीणसेउयाइ वा पहीणगोत्तागाराई वा जाई इमाई गामागरणगरखेडकन्धडमडंबदोणमुहपट्टणासमंसंवाहसन्निवेसेस सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरचउमुहमहापहपहेसु णगरणिमणसुसाणगिरिकंदरसन्तिसेलोवहाणभवणगिहेसु सन्निक्खित्ताई चिट्ठति, नो तिण? समटे । एगुरुयदीवे ण भंते! ढीवे मणुयाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जहनेणं पलिओवमस्स असं. खेजइभागं असंखेजतिभागेण ऊणगं उक्कोसेण पलिओवमस्स असंखेजतिभागं । ते भंते ! मणुया कालमासे कालं किचा कहिं गच्छति कहिं उववजंति ?, गोषमा! ते णं मणुया छम्मासाबसेसाउया मिहणनाई पमति अउणासीई राइंदियाई मिहणाई सारकम्वति संगोविंति य, सारवियत्ता २ उस्ससित्ता निस्ससित्ता कासित्ता छीतित्ता अकिहा अन्वहिता अपरियाविया [पलिओवमस्स असंग्विजइभागं परियाविय] सुहंसुहेणं कालभासे कालं किया अन्नयरेसु देवलोएसु -X-456789 दीप अनुक्रम [१४५] 84- - 2-% SACRERAK EAT ~310~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: K प्रत ३ प्रतिपत्ती मनुष्या % श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरोचावृत्तिः सूत्रांक [१११] उद्देशः१ सू०१११ दीप अनुक्रम [१४५] देवत्ताए उववत्तारो भवन्ति, देवलोयपरिग्गहा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । कहिणं भंते! दाहिणिहाणं आभासियमगुस्साणं आभासियदीवे णामं दीवे पण्णते?, गोपमा! जंबूदीवे दीचे चुहिमवंतस्स वासधरपब्वतस्स दाहिणपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतानो लवणसमुई तिन्नि जोयण सेसं जहा एगुरुयाणं गिरवसेसं सव्वं ॥ कहि भंते !! दाहिणिलार्ण गंगोलिमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स दाहिणणं घुल्लहिमवंतस्स वासधरपब्धयस्स उत्सरपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुदं तिपिण जोयणसताई सेसं जहा एगुरुयमणुस्साणं ॥ कहिणं भंते! दाहिणिल्लाणं बेसाणियमणुस्साणं पुरुछा, गोयमा! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासधरपब्वयस्स दाहिणपञ्चस्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुहं तिणि जोयण सेसं जहा एगुरुयाणं ॥ (सू०१११) 'एगोरुयदीवस्स णं भंते!' इत्यादि, एकोस्कद्वीपस्य णमिति पूर्ववन् भदन्त ! 'कीदृशः' क इव दृश्यः 'आकारभावप्रत्यवतारः भूम्यादिस्वरूपसम्भवः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम! एकोरुकद्वीपे 'बहुसमरमणीयः' प्रभूतसमः सम् रम्यो भूमिभागः प्रज्ञप्तः ।। 'से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा इत्यादिरुत्तरकुरुगमतावद्नुसतव्यो यावदनुसजनासूत्र, नवरमत्र नानात्वमिदं-मनुष्या अष्टौ | धनुःशतान्युजिता वक्तव्याश्चतुःषष्टिः पृष्ठकरण्डका:-पृष्ठवंशाः, बृहत्प्रमाणानां हि ते बहवो भवन्ति, एकोनाशीतिं च रात्रिन्दिवानि स्वापत्यान्यनुपालयन्ति, स्थितिस्तेषां जघन्येन देशोनः पल्योपमासयभागः, एतदेव व्याचष्टे-पल्योपमासमयभागन्यूनः, उत्कर्षतः ARORSC0C5% ॥१७४ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~311~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१४५] ४ा परिपूर्णः पल्योपमासयभागः ॥ 'कहि णं भंते' इत्यादि, क भदन्त ! दाक्षिणात्यानानाभापिकमनुष्याणामाभाषिकद्वीपो नाम 5 द्वीपः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य पूर्वस्माचरमान्तात् 'दक्षिणपूर्वेण दक्षिणपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं झुहिमवद्दष्ट्राया उपरि त्रीणि योजनशतान्ययगाह्यात्रान्तरे दंष्ट्राया उपरि* दाक्षिणात्यानामाभाषिकमनुष्याणामाभापिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञपः, शेषवतव्यता एकोरकवद्वक्तव्या यावस्थितिसूत्रम् ॥ 'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! दाक्षिणात्यानां नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गोलिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्थ पर्वतस्य 'दक्षिणेन' दक्षिणस्यां दिशि शुल्हहिमवतो वर्षधरपर्वतख पाश्चात्याशरमान्ताद् 'दक्षिणपश्चिमेन' दक्षिणपश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवगायात्रान्तरे दृष्टाया उपरि दाक्षिणात्यानां नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गोलिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, है शेषं यथैकोरुकाणां वधा वक्तव्यं याव स्थितिसूत्रम् ।। 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! वैशालिकमनुष्याणां वैशालिकद्वीपो नाम शाद्वीपः प्राप्तः , भगवानाह-गौतम ! जम्यूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन' दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य पा श्वात्याञ्चरमान्तादू 'उत्तरपश्चिमेन' उत्तरपश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवाह्यात्रान्तरे दंष्ट्राया उपरि वैशालिकमनु-| *घ्याणां वैशालिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, शेपसेकोरुकवद् वक्तव्यं यावस्थितिसूत्रम् ।। कहिणं भंते ! दाहिणिल्लाणं हयकपणमणुस्साणं हयकएगदीवे णाम दीवे पण्णते?, गोयमा! एगुरूयदीवस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुरं चत्तारि जोयणसपाइं ओगाहित्सा एल्थ गं दाहिणिलार्ण हयकपणमणुस्साणं हयकपणदीवे णाम दीवे पणत्ते, चत्तारि जोयणसयाई RANCHOCACANCE ~312~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], -------- ------------ उद्देशक: [(मनुष्य)], -- मूलं [११२-११३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११२ श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्देशः१ सु०११२ -११३] ॥१५५॥ गाथा आयामविक्वंभेणं चारस जोयणसया पन्नट्ठी किंचिविसेसूणा परिक्वेवेणं, से णं एगाए पउमवरवेतियाए अवसेसं जहा एगुरुयाणं । कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं गजकपणमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा! आभासियदीवस्स दाहिणपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुई चत्तारि जोयणसताई सेसं जहा हरकण्णाणं । एवं गोकपणमणुस्साणं पुरुछा । बेसाणितदीवस्स दाहिणपस्थिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुई चत्तारि जोयणसताई सेसं जहा हयकपणाणं । सकुलिकपणाणं पुच्छा. गोयमा! गंगोलियदीवस्स उत्तरपञ्चस्थिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुदं चत्तारि जोयणसताई सेसं जहा हरकण्णाणं ॥ आतंसमुहाणं पुच्छा, हतकण्णयदीवस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो पंच जोयणसताई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं आयंसमुहमणुस्साणं आयंसमुहदीवे णाम दीवे पण्णत्ते, पंच जोयणसयाई आयामविखंभेणं, आसमुहाईणं छ सया, आसकन्नाईणं सत्त, उकामुहाईणं अव, घणदताइणं जाव नव जोयणसयाई.-एगूरुयपरिक्वेवो नव येव सयाई अउणपन्नाई। चारसपन्नट्ठाई हयकपणाईणं परिक्खेवो ॥१॥ आर्यसमुहाईणं पन्नरसेकासीए जोयणसते किंचिविसेसाधिए परिक्वेवणं, एवं एतेणं कमेणं उवउचिऊण तव्या चत्तारि यत्तारि एगपमाणा, णाणसं ओगाहे, विक्खंभे परिक्खेवे पढमबीतततियचउक्काण उगहो विक्खंभो परिक्खेवो भणितो, चउत्थचउके छजोयणसयाई आयामविखंभेणं अट्ठारसत्ताणउते जोयणसते विक्खंभेणं । पंचम RAKA-OCAKACHECK दीप अनुक्रम [१४६ ॥१५५॥ -१५१] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~313~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], -------- ------------ उद्देशक: [(मनुष्य)], -- मूलं [११२-११३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११२ -११३] गाथा चउके सत्स जोयणसताई आयामविक्खंभेणं बावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिक्वेवणं । छट्टचउके अट्टजोयणसताई आयामविक्रखंभेणं पणुवीस गुणतीसजोयणसए परिक्वेवणं । सत्तमचउके नवजोयणसताई आयामविक्खंभेणं दो जोयणसहस्साई अट्ठ पणयाले जोयणसए परिक्वेवेणं । जस्स य जो विक्वंभो जग्गहो तस्स तत्तिओ चेव । पढमाझ्याण परिरतो जाण सेसाण अहिओ उ॥१॥ सेसा जहा एगुरूयदीवस्स जाव सुद्धदंतदीवे देवलोकपरिग्गहा गं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! । कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगुरूयमणुस्साणं एगुरुयदीये णामं दीये पपणते?, गोयमा! जंबूहीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वासधरपब्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई तिषिण जोयणसताई ओगाहित्सा एवं जहा दाहिणिल्लाण तहा उत्तरिल्लाण माणितव्वं, णवरं सिहरिस्स बासहरपब्वयस्स विदिसासु, एवं जाव सुद्धदतदीवत्ति जाव सेसं अंतरदीवका ॥ (सू०११२)। से किं तं अकम्मभूमगमणुस्सा?, २ तीसविधा पण्णसा, जहा-पंचहिं हेमवएहिं, एवं जहा पण्णवणापदे जाव पंचहिं उत्तरकुरूहिं, सेसं अकम्मभूमगा । से किं तं कम्मभूमगा?, २ पण्णरसविधा पण्णता, तंजहा-पंचहिं भरहेहिं पंचहिं एरवएहिं पंचहिं महाविदेहहिं, ते समासतो दुविहा पणत्ता, तंजहा-आयरिया मिलेच्छा, एवं जहा पण्णवणापदे जाव सेत्तं आयरिया, सेत्तं गम्भवतिया, सेत्तं मणुस्सा।। (स०११३) दीप अनुक्रम [१४६ - -१५१] ~314~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११२ -११३] गाथा दीप अनुक्रम [१४६ -१५१] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(मनुष्य)]. मूलं [११२-११३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः रीयावृत्तिः श्रीजीवा- 'कहि णं भंते!" इत्यादि क भदन्त हयकर्णमनुष्याणां कर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रशम: ?, भगवानाह - गौतम! एकोरकद्वीपस्व जीवाभि० / पूर्वस्माच्चरमान्ताद् उत्तरपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतान्यवगाद्यात्रान्तरे श्रद्धमिवाया उपरि जम्बुद्वीपवैदिकान्तादपि मलयगि- चतुर्योजनशतान्तरे दाक्षिणात्यानां कर्णमनुष्याणां कर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञतः, स च चत्वारि योजनशतान्यायामविष्कम्मेन द्वादश पञ्चषष्ठानि योजनशतानि किश्चिद्विशेपाधिकानि परिक्षेपेण, शेर्पा यधैकोरुकमनुष्याणां । एवमाभापिकद्वीपस्य पूर्वमाचरमान्तादक्षिणपूर्वस्यां दिशि चत्वारि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्यात्रान्तरे हिमवद्देशया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्ता चतुर्योजनशतान्तरे ४. गजकर्णमनुष्याणां राजकणों द्वीपो नाम द्वीपः प्रशतः, आयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं ह्यकर्णद्वीपवत्। नाङ्गोलिकद्वीपस्य पश्चिमाचरॐ मान्तादक्षिणपश्चिमेन चत्वारि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्याप्रान्तरे हिमवाया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्ता चतुर्यो जनशतान्तरे ॥ १५६ ॥ गोकर्ण मनुष्याणां गोकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञतः, आयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं हयकर्णद्वीपवत्। वैशालिकद्वीपस्य पश्चिमाथरमान्ताद् ४ उत्तरपश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रमवगाह्य चत्वारि योजनशतानि अत्रान्तरे हिमवश्या उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्ता चतुर्थी जनशता तु न्तरे दाक्षिणात्यानां शष्कुलीकण मनुष्याणां शष्कुली कर्णेद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, आयान विष्कम्भपरिधिपरिमाणं हवकर्णद्वीपवत् पद्मवरवेदिका वनपण्डमनुष्यादिखरूपं च समस्त कोरुकद्वीपवत्। एवमेतेनाभिलापेनामीपां हयकर्णादीनां चतुर्णी द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु पश्च योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य पञ्च योजनशतायामविष्कम्भा एकाशीत्यधिकप आदशयोजनशतपरिक्षेपाः पद्मव| वेदिकावनपण्डमण्डितश्राह्मप्रदेशा जम्बूद्वीप वेदिकान्तात्प ध्वयोजनशतप्रमाणान्तरा आदर्शमुख मेण्डमुखायोमुखगोमुखनामानाश्चत्वारो द्वीपा वक्तव्याः, तद्यथा ह्यकर्णस्य परत आदर्शमुख गजकर्णस्य परतो मेण्डमुखो गोकर्णस्य परतोऽयोमुखः शष्कुली कर्णस्य परतो गोमुखः । For P&False Cly अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - मनुष्योद्देशकः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 315~ ३ प्रतिपत्ती मनुष्याघि० उद्देशः १ । सू० ११३ ॥ १५६ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११२ -११३] गाथा दीप अनुक्रम [१४६ -१५१] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(मनुष्य)], मूलं [ ११२ ११३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जी०च० २७ एतेषामप्यादर्शमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो भूयोऽपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं लवणसमुद्रं पट् षड् योजनशतान्यवगाह्य पड्यो जनशतायामविष्कम्भाः सप्तनवत्यधिकाष्टादशयोजनशत परिक्षेपाः पद्मबरवेदिकापनपण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् पयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वमुखहस्तिमुखसिंह मुखच्या प्रमुखनामानञ्चत्वारो द्वीपा वक्तव्याः, तद्यथा - आदर्शमुखस्य परतोऽश्वमुखः, मेण्डभुखस्य परतो हस्तिमुखः, अयोमुखस्य परतः सिंहमुखः, गोमुखस्य परतो ज्याप्रमुखः । एतेषामश्वमुखादीनां चतुर्णां द्वीपानां परतो य थाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं सप्त सप्त योजनशतानि लवणसमुद्रभवगाह्य सहयोजनशतायामविष्कम्भास्त्रयोदशाधिकद्वाविंशनियोज नशतपरिश्याः पद्मवरवेदिकावनपण्डसमवगूढाः जम्बूद्वीपवैदिकान्तात्सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वकर्णेहरिकर्णाकर्णकर्णप्रावरणनामानश्चत्वारो द्वीपा बोध्या:, तद्यथा - अश्वमुखस्य परतोऽश्वकर्ण: हस्तिमुखस्य परतो हरिकर्णः सिंहमुखस्य परतोऽकर्ण: व्याघ्रमुखस्य परतः कर्णप्रावरणः, तत एतेषामप्यश्वकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकमष्टी अष्टौ योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्याष्ट्रयोजनशतायामविष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिकपञ्चविंशतियोजनशत परिक्षेपाः पद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकान्तादृष्टयोजनशतप्रमाणान्तरा उल्कामुखमेघमुख विद्युन्मुखविदन्याभिधानाश्चत्वारो द्वीपा वक्तव्याः, तद्यथा - अश्वकर्णस्य परत उल्कामुखः हरिकर्णस्य परतो मेघमुखः अकर्णस्य परतो विद्युन्मुखः कर्णप्रावरणस्य परतो विद्युद्दन्तः, एतेषामप्युका मुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं नव नव योजनशतानि वणसमुद्रमवगाह्य नवनवयोजनशतायामविष्कम्भाः। पञ्चचत्वारिंशदधिकाष्ठाविंशतियोजनशतपरिक्षेपाः पद्मवेदिकापण्डसमवगूढा जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् नत्र योजनशतप्रमाणान्तरा घनदन्तलष्टदन्तगूढदन्तशुद्धदृन्तनामानञ्चत्वारो द्वीपाः, तद्यथा - उल्कामुखस्य परतो धनदन्तः मेषमुत्रस्य परतो लष्टदन्तः विद्युन्मु For P&Pase Cnly ~ 316~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [११२-११३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवा सूत्रांक [११२ -११३] मलयगिरीयावृत्तिः गाथा खस्य परता गूढदन्तः विद्युदन्तस्य परत: शुद्धदन्तः । एतेषामेव द्वीपानामवगाहायाम विष्कम्भपरिरथपरिमाणसङ्ग्रहगाथाषटमाह-प-IK३ प्रतिपत्ती ढमंमि तिन्नि उ सया सेसाण सउत्तरा नव उ जाव । ओगाई बिक्खंभ दीवाणं परित्यं बोच्छं ॥ १ ॥ पढमचउक्परिरया बीयच मनुष्याउक्कस्स परिरओ अहिओ। सोलेहिं तिहि उ जोयणसएहिं एमेव सेसाणं ॥२॥ एगोरुयपरिखेयो नव चेव सवाई अउणपण्णाई। धिकारः बारस पण्णवाई हयकण्णाण परिक्खेवो ॥ ३ ॥ पणरस एकासीया आयंसनुहाण परिरओ होइ । अट्ठार सत्तनउवा आसमुहाणं | उद्देशः१ परिक्वेवो ॥४॥ बाबीसं तेराई परिखेवो होइ आसकन्नाणं । पणुवीस अउणवीसा उकामुहपरिरओ होइ ।। ५॥ दो चेव सहस्साई अडेव सया हवंति पणयाला । घणदंतहीवाणं विसेसमहिओ परिक्खेवो ॥६॥" व्याख्या-प्रथमे द्वीपचतुष्के चिन्यमाने त्रीणि योजनशतान्यवगाहनां-लवणसमुद्रावगाहं विष्कम्भं च, विष्कम्भग्रहणादायामोऽपि गृह्यते तुल्यपरिमाणत्वात् , जानीहि इति क्रियाशेष:, शेषाणां द्वीपचतुष्कानां शतोत्तराणि त्रीणि त्रीणि शतानि अवगाहनाविष्कम्भ तावजानीवाद् यावन्नव शतानि, तद्यथा-द्वितीयचतुष्के चत्वारि शतानि, तृतीये पञ्च शतानि, चतुर्थे पट् शतानि, पञ्चमे सप्त शतानि, षष्ठेऽष्टौ शतानि, सप्तमे नत्र शतानि, अत ऊर्दू द्वीपानामेकोरुकप्रभृतीनां परिरय' परिरयप्रमाणं वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-पढमचउके'त्यादि, 'प्रथमचतुष्के परिरयात्' प्रथमद्वीपच-18 |तुष्के परिरयपरिमाणान् द्वितीयचतुष्कस्त्र-द्वितीयद्वीपचतुष्टयस्य परिरयः-परिरयपरिमाणमधिकः षोडशैः षोडशोत्तरेखिभिर्योजनशतैः ||* 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण शेषाणां 'द्वीपानां' द्वीपचतुष्कानां परिरयपरिमाणमधिकं पूर्वपूर्वचतुष्कपरिरयपरिमाणादवसातव्यम् , एतदेव || चैतेन दर्शयति–एकोरुये'त्यादि 'एकोरुकपरिक्षेपे एकोस्कोपलक्षितप्रथमद्वीपचतुष्कपरिक्षेपे नव शतानि एकोनपञ्चाशानि-एको-Ix नपञ्चाशदधिकानि । ततत्रिपु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्लेषु 'हयकण्णाण मिति वचनात् हयकर्णप्रमुखाणां द्वितीयानां चतुणी | दीप अनुक्रम [१४६ -१५१] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-मनुष्योद्देशक: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~317~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], ----------------------- मूलं [११२-११३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [9] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११२ -११३] गाथा द्विीपानां परिक्षेपो भवति, स च द्वादश योजनशतानि पञ्चषष्टानि-पश्चषष्ट्यधिकानि । तत्रापि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु । प्रक्षिप्तेषु 'आयसमुहाणं ति आदर्शमुखप्रमुखाणां तृतीयानां चतुर्णा द्वीपानां परिरयपरिमाणं भवति, तम पञ्चदश योजनशतान्येकाशीराधिकानि । ततो भूयोऽपि त्रिषु योजनशतेपु पोडशोतरेषु प्रक्षिप्तेषु 'आसमुहाणं ति अश्वमुखप्रभृतीनां चतुर्धानां चतुणी द्वीपानां परिक्षेपः, तद्यथा-अष्टादश योजनशतानि सप्तनवतानि-सप्तनवत्यधिकानि । तेष्वपि त्रिपु योजनशतेषु पोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु 'आसकण्णाणं'ति अश्वकर्णप्रमुखाणां पञ्चानां चतुर्णा द्वीपानां परिक्षेपो भवति, तद्यथा-द्वाविंशनियोजनशतानि त्रयोदशानि-त्रयोदशाधिकानि । ततो भूयोऽपि त्रिपु योजनशतेपु पोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु 'उल्कामुखपरिरयः' उल्कामुखषष्ठद्वीपचतुष्कपरिरयपरिमाणं| भवति, तद्यथा-पञ्चविंशतियोजनशतानि एकोनत्रिशानि-एकोनत्रिंशदधिकानि । तत: पुनरपि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिमेषु 'घनदन्तद्वीपस्य' (पानां) घनदन्तप्रमुखसप्तमद्वीपचतुष्कस्य परिक्षेपः, तद्यथा-वे सहस्र अष्टौ शतानि पञ्चचलारिंशानि-पञ्चचखारिंशदधिकानि 'विसेसमहिओं' इति किश्चिद्विशेषाधिक: अधिकृतः परिक्षेपः, पञ्चचत्वारिंशानि किञ्चिद्विशेषाधिकानीति भावार्थः, इदं च पदमन्तेऽभिहितत्वात्सर्वत्राप्यभिसम्बन्धनीयं, तेन सर्वत्रापि किञ्चिद्विशेषाधिकगुक्तरूपं परिरयपरिमाणमवसातव्यं । तदेवप्रमेते हिमवति पर्वते चतमपु विदिक्ष व्यवस्थिताः सर्वसध्ययाऽष्टाविंशतिः, एवं हिमवतुल्यवर्णप्रमाणपग्रहदप्रमाणायामविष्कम्भावगा-18 हपुण्डरीकहदोपशोभिते शिखरिण्यपि पर्वते लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तराश्चतसृषु विदिक्षु एकोरुकादिनामानोऽक्षणापान्तरालायामविष्कम्भा अष्टाविंशतिसङ्ख्या द्वीपा वेदितव्याः, तथा चाह-“कहि णं भंते ! उत्तरिलाणं एगोरुयमणुस्साणं | एगोरुयदीवे णामं दीवे पण्णते ?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं सिहरिपब्बयस्स पुरच्छिमिलाओ चरिमंताओ दीप अनुक्रम [१४६-१५१] ~318~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(मनुष्य)], -------------------- मूलं [११२-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११२ प्रतिपक्षी देवाधि| कारः | उद्देशः१ सू०११६ -११३] गाथा श्रीजीवा- लवणसमुई तिनि जोयणसबाई ओगाहित्ता तस्थ णं उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे नाम दीवे पण्णते" इत्यादि सर्व जीवाभि०तदेव, नवरमुत्तरेण विभापा कर्तव्या, सर्वसषया षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः, उपसंहारमाह-'सेत्तमंतरदीवगा'चे एतेऽन्तरद्वीपकाः । | मलयगि- अकर्मभूमकाः कर्मभूमकाश्च यथा प्रज्ञापनायां प्रथमे प्रज्ञापनाख्ये पदे तथैव वक्तव्या यावत् 'सेत्तं चरित्तारिया सेमणुस्सा रीयावृत्तिः इति पदम् , इह तु पन्थगौरवभयान लिख्यत इति, उपसंहारमाह-'सेत्तं मणुस्सा' त एते मनुष्याः । तदेवमुक्ता मनुष्याः, सम्प्रति देवानभिधित्सुराह॥१५८॥ से किं तं देवा ?, देवा चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा-भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया बेमाणिया (सू०११४) से किं तं भवणवासी?, २ दसविहा पण्णत्ता, तंजहा-असुरकुमारा जहा पण्णवणापदे देवाणं भेओ तहा भाणितब्बो जाव अणुत्तरोववाइया पंचविधा पण्णत्ता, तंजहा-विजयवेजयंत जाव सव्वट्ठसिद्धगा, सेत्तं अणुत्तरोववातिया॥(सू०११५) कहिणं भंते ! भवणवासिदेवाणं भवणा पन्नत्ता, कहि णं भंते! भवणवासी देवा परिवसंति ?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए, एवं जहा पण्णवणाए जाव भवणवासाइता, त(ए)स्थ णं भवणवासीर्ण देवाणं सत्त भवणकोडीओ बावत्तरि भवणावाससयसहस्सा भवंतित्तिमक्खाता, तत्थणं यहवे भवणवासी देवा परिवसंति-असुरा नाग सुवन्ना य जहा पण्णवणाए जाव विहरति ।। (सू०११६) कहिणं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा प०?. पुच्छा, एवं जहा पण्णवणाठाणपदे दीप अनुक्रम [१४६ -१५१] ॥१५८॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् तृतीय-प्रतिपत्तौ मनुष्य: उद्देशक: परिसमाप्त: अथ देवाधिकार: वर्तते भवनवासिदेवानां भेद-प्रभेदा: एवं विविध-विषयाधिकार: ~ 319~ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --- ----------- उद्देशक: [(देव०)], -------- ------- मूलं [११४-११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 5 सूत्रांक [११४ -११७] जाव विहरंति ॥ कहि भंते ! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं भवणा पुच्छा, एवं जहा ठाण पदे जाव चमरे, तत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसति जाव विहरति ।। (सू०११७) 'से किं त' मित्यादि, अथ के ते देवाः १, सूरिराह-देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भवनवासिनो वानमन्तरा ज्योतिका बैनानिकाः, अमीषां च शब्दानां व्युत्पत्तिर्यथा प्रज्ञापनाटीकायां तथा वेदितव्या ॥ 'से किं तमित्यादि, अब के ते भवनवासिनः ?, सूरिराह-भवनवासिनो दशविधाः प्रज्ञप्ताः, एवं देवानां प्रज्ञापनागतप्रथमप्रज्ञापनाख्यपद इव ताव दो बक्तव्यो यावत्सर्वार्थदेवा इति ।। सम्प्रति भवनवासिनां देवानां भवनवसनप्रतिपादनार्थमाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! भवनवासिनो देवानां भवनानि प्रज्ञतानि , क भवन्त ! भवनवासिनो देवा: परिवसन्ति ?, भगवानाह-गौतम ! 'इमीसे 'मित्यादि, 'अस्याः' प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाया यत्र पथमास्महे रसप्रभाया: पृथिव्याः 'अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रवाहल्यायाः' अशीयुत्तरम्-अशीतिसहस्राधिक योजनशतसहनं बाहल्यं-पिण्डभावो यस्याः सा तथा, तस्या उपर्येक योजनसहस्रमवगाह्याधस्तादेकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्ये | 'अष्टसप्तते' अष्टसप्ततिसहस्राधिके योजनशतसहसे, 'अत्र' एतस्मिन् स्थाने भवनवासिनां देवानां सप्त भवनकोटयो द्विसप्ततिर्भबनावासशतसहस्राणि भवन्तीति आख्यातानि मया पैश्च तीर्थकद्भिः, तत्र सप्तकोट्यादिभावनैवं-पतु:पष्टिः शतसहस्राणि भवनानामसुरकुमाराणां चतुरशीतिः शतसहस्राणि नागकुमाराणां द्विसप्ततिः शतसहस्राणि सुवर्णकुमाराणां पण्णवतिः शतसहस्राणि वायुकुमाराणा, द्वीपकुमारादीनां पण्णां प्रत्येकं पदसम्मति: शतसहस्राणि भवनानां, तत: सर्वसषया यथोक्तं भवनसङ्ख्यानं भवति । I'ते णं भवणा' इत्यादि, तानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतत्वात् , णमिति वाक्यालद्वारे भवनानि बहिः 'वृत्तानि' वृत्ताकाराणि अन्तः । दीप अनुक्रम [१५२-१५५]] 44. % % ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११४ -११७] दीप अनुक्रम [१५२ -१५५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(देव०)], मूलं [११४- ११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवामि० ॥ १५९ ॥ समचतुरस्राणि अधस्तलभागेषु पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि, 'भवणवण्णओ भाणियन्त्रो जहा ठाणपदे जाव पडिरुवा' इति उक्तप्रकारेण भवनवर्णको भणितव्यो यथा प्रज्ञापनायां द्वितीये स्थानाख्ये पदे, स च तावद् यावत् 'पडिरुवा' इति पदं स मलयगि- चैवम् "उक्शिण्णंतरविलगंभीरखायपरिखा मागारहालयकवाडतोरणपरिवारदेस भागा जंतसयग्धिमुसलमुसंढिपरिवारिया अजोज्झा रीयावृत्तिः १ सयाजया सयागुप्ता अडयालकोट्टरइया अड्याळकवणमाला खेमा सिवा किंकरअमरदंडोवरक्खिया लाउलोइयमहिया गोसीससरसरतचंदणदर दिष्णपंचंगुलितला उवचियचंद कलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुदारदेसभागा आसतोस त्तविलबट्टवन्धारियमहृदामकलावा पंचवण्णसरसमुकपुष्फपुंजोबयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुतुरुधूवमघमर्धेतगंधुद्धयाभिरामा सुगन्धवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छरगणसंघसंविकिष्णा दिव्वतुडियसद्द संपणदिया सव्वरयणामया अच्छा सण्हा उण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्गला निष्का निकंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरसणिजा अभिरुवा पढिरुवा" इति अस्य व्याख्या उत्कीमिव उत्कीर्ण अतीव व्यक्तमिति भावः, उत्कीर्णमन्तरं यासां खातपरिखानां ता उत्कीर्णान्तराः किमुक्तं भवति ? - खातानां परिखाणां च स्पष्टवैवित्तयोन्मीलनार्थमपान्तराले महती पाली समस्तीति, खातानि च परिखाश्च खातपरिखाः उत्कीर्णान्तरा विपुलाविस्तीर्णा गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः खातपरिखा येषां भवनानां परितस्तानि उत्कीर्णान्तरविपुलगम्भीरखातपरिखानि खातपरिखाणां चार्य प्रतिविशेषः परिक्षा उपरि त्रिशालाऽपः सङ्कुचिता, खातं तूभयत्रापि सममिति, 'पागारट्टालककवाडपडिदुवारदेस भागा' इति प्रतिभवनं प्राकारेषु अट्टालककपाटतोरणप्रतिद्वाराणि अट्टालककपाटतोरणप्रतिद्वाररूपा देशभागा - देशविशेषा येषु तानि प्राकाराट्टालककपाटतोरणमतिद्वारदेशभागानि, तन्त्राट्टालकाः - माकारस्योपरि भूत्याश्रवविशेषाः कपाटानि - प्रतोलीद्वारसत्कानि, एतेन प्रतोत्यः For P&Palise City अत्र मूल - संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~321~ ३ प्रतिपत्तौ देवाधिंकारः उद्देशः १ सू० ११७ ॥ १५९ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ -११७] | सर्वत्र सूचिता अन्यथा कपाटानामसम्भवात् , तोरणानि-प्रतीतानि, तानि च प्रतोलीद्वारेषु, प्रतिद्वाराणि-मूलद्वारापान्तरालबचौनि | | लघुद्वाराणि । तथा 'जंतसयग्धिमुसलमुसंढिपरिवारिया' इति यत्राणि-नानाप्रकाराणि शतभ्यो-महावष्टयो महाशिला वा याः पातिताः सत्यः पुरुषाणां शतानि मन्ति मुशलानि-प्रतीतानि मुपण्ढय:-शस्त्रविशेषास्तैः परिवारितानि-समन्ततो चेष्टितानि अत एवायोध्यानि-परैयों बुमशक्यानि अयोध्यलादेव 'सदाजयानि' सदा-सर्वकालं जयो येषु तानि सदाजयानि सर्वकालं जयवन्तीति भावः, तथा सदा-सर्वकालं गुप्तानि प्रहरणैः पुरुपैश्च योद्धभिः सर्वतः-समन्ततो निरन्तरं परिवारिततया परेषामसहमानानां मनागपि प्रवेशासम्भवान् 'अडयालकोट्टरइया' इति अष्टाचलारिंशद्भेदमिन्नविच्छित्तिकलिता: कोष्ठका-अपवरका रचिताः स्वयमेव रचना प्राप्ता येषु तान्यष्टाचत्वारिंशत्कोष्ठकरचितानि, सुखादिदर्शनात्याक्षिको निधान्तस्य परनिपातः, तथाऽष्टाचत्वारिंशद्भेदभिन्न किच्छित्तयः कृता वनमाला येषु तानि अष्टचत्वारिंशत्कृतयनमालानि, अन्ये त्वभिदधति-अडयालशब्दो देशीवचनात् प्रशंसावाची, ततोऽयमर्थ:----'प्रशस्तकोष्ठकरचितानि प्रशस्तकृतवनमालानीति तथा क्षेमाणि' परकृतोपद्रवरहितानि, 'शिवानि' सदा मङ्गलोपेतानि, तथा किकरा:-किकरभूता येऽमरास्तैर्दण्दैः कृत्वा उपरक्षितानि-सर्वतः समन्ततो रक्षितानि किकरामरदण्डोपरक्षितानि, 'लाउल्लोइयमहिया' इति लाइयं नाम यद्भूमेगोमयादिना उपलेपनम् 'उल्लोइयं कुख्यानां मालस्य सेटिकादिभिः संभृष्टीकरणं लाइयोलोइयाभ्यां महितानि-पूजितानि लाइयोल्लोइयमहितानि, तथा गोशीण-गोशीर्षनामकेन चन्दनेन सरसरक्तचन्दनेन च | दर्दरेण-यहलेन चपेटाप्रकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला-हस्तका येषु तानि गोशीर्षसरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितलानि, तथा उपचिता-निवेशिताः चन्दनकलशा-मङ्गल्यकलशा येणु तानि उपचितचन्दनकलशानि, 'चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा' % दीप अनुक्रम [१५२-१५५]] % SACRE-% ~322~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - प्रत -- सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः - [११४ -११७] ॥१६॥ दीप अनुक्रम [१५२-१५५]] इति चन्दनवटै:-चन्दनकलशैः सुकृतानि शोभितानीति तात्पर्यार्थ: यानि तोरणानि तानि चन्दनपटसुकृतानि तोरणानि प्रतिद्वार- ३ प्रतिपत्ती देशभाग-द्वारदेशभागे येषु तानि चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागानि, तथा 'आसत्तोसत्तविपुलववग्धारियमल्लदामक- देवाधिलावा' इति आ-अवाक् अधोभूमौ सक्त-आसक्तो भूमौ लग्न इत्यर्थः ऊर्दू सक्त उत्सतः उहोचतले उपरि संबद्ध इत्यर्थः कार: विपुलो-विस्तीणों वृत्तो-वर्तुलः 'वग्धारिय' इति प्रलम्बितो माल्यदामकलाप:-पुष्पमालासमूहो येषु सानि आसक्तोरसक्तविपुलवृत्त- उद्दशः१ प्रलम्बितमाल्यदामकलापानि, तथा पञ्चवर्णेन सुरभिणा-सुरभिगन्धेन मुक्तेन-क्षिप्तेन पुष्पपुजलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितानि | सू०१५७ पञ्चवर्णसुरभिमुक्तपुष्पपुजोपचारकलितानि, तथा कालागुरु:-प्रसिद्धः प्रवर:-प्रधानः कुन्दुरुष्का-चीडा तुरुष्क-सिल्हकं कालागुरुश्च प्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्के च कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुप्काणि तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्ध उद्धृत-इतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिरामाणि-रमणीयानि कालागुरुनवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपमघमघायमानगन्धोद्धुताभिरामाणि, तथा शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धाः ते च ते वरगन्धाश्च-वासा: सुगन्धवरगन्धास्तेषां गन्धः स एष्वस्तीति सुगन्धवरगन्धगन्धिकानि 'अतोऽनेकस्वरा'दितीकप्रत्ययः, अत | 8| एव गन्धवर्तिभूतानि, सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पानीति भावः, तथाऽप्सरोगणानां सङ्गः-समुदायस्तेन सम्यग्रमणीय तया विकीर्णानि-व्याप्तानि अप्सरोगणसङ्घविकीर्णानि, तथा दिव्यानामातोद्यानां-वेणुवीणामृदङ्गानां ये शब्दास्सैः संप्रणदितानि-सम्यकोत्रमनोहारितया प्रकर्षेण सर्वकालं नदितानि-शब्दवन्ति दिव्यत्रुटितशब्दसंप्रणदितानि सर्वरत्नमयानि-सामना सामस्त्येन रत्नमयानि न त्वेकदेशेन सर्वरत्नमयानि-समस्त रत्नमयानि अच्छानि-आकाशस्फटिकवदतिखच्छानि लक्ष्णानि-लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्प-18| ॥१६०॥ मानि ऋक्षणदलनिष्पन्नपटवन् लण्हानि-ममृणानि घुण्टितपटबत् 'घटा' इति घृष्टानीव घृष्टानि खरशानया पाषाणप्रतिमावत् , 'महा'। अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~323~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ -११७] इति मृष्टानीव सृष्टानि सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमावदेव, अत एव नीरजांसि स्वाभाविकरजोरहितलात् 'निर्मलानि' आगन्तुकमलासम्भवात् 'निष्पङ्कानि कलङ्कविकलानि कर्दमरहितानि वा 'निकंकडच्छाया' इति निष्कङ्कटा-निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेति भावार्थ: छाया-दीप्तिर्येषां तानि निष्कङ्कट च्छायानि 'सप्रभाणि' स्वरूपतः प्रभावन्ति 'समरीचीनि' बहिर्विनिर्गतकिरणजालानि 'सोयोतानि' बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशकराणि 'प्रासादीयानि' प्रसादाय-मन:प्रसत्तये हितानि मनःप्रसत्तिकारीणीति भावः, तथा 'दर्शनीयानि' दर्शनयोग्यानि यानि पश्यतश्चक्षुपी न श्रमं गच्छत इति भावः, 'अभिरूवा' इति अभि-सर्वेषां द्रष्टयां मनःप्रसादानुकूलतवाऽभिमुखं रूपं येषां तानि अभिरूपाणि-अत्यन्तकमनीयानीत्यर्थः अत एव 'पडिरूवा' इति प्रतिविशिष्ट रूपं येषां तानि प्रतिरूपाणि, अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं येषां तानि प्रतिरूपाणि ॥ तदेवं भवनस्वरूपमुक्तमिदानीं यत्पृष्टं 'क भदन्त | भवनवासिनो देवाः परिवसन्तीति तत्रोचरमाह-तत्थ णं वहवे भवणवासी देवा परिवसति असुरा नागा भेदो भाणियब्धो जाव विहरंति एवं जा ठाणपदे वत्तब्बया सा भाणियब्वा जाव चमरेणं असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवस-11 ई' इति, 'तत्र' तेष्वनन्तरोदितखरूपेषु भवनेषु बहवो भवनवासिनो देवा: परिवसन्ति, तानेव जातिभेदत आह-'असुरा नागा' इत्यादि यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठ:--"असुरा नाग सुवण्णा विज अग्गी य दीव उदही य दिसिपवणथणियनामा दसहा एए भवणवा सी ॥ १॥ चूडामणिमउडरयणा १ भूसणनागफण २ गरुल ३ बइर ४ पुण्णकलसअंकउप्फेस ५ सीह ६ हयवर ७ गय ८ मगरंक||९ वरवद्धमाण १० निजुत्तचित्तचिंधगया सुरूवा महिडीया महजुइया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडगतुहियथंभियभुया अंगयकुंडलमट्ठगंडतलकण्णा पीढ़धारी विचित्तहत्याभरणा विचित्तमालामउली (मउडा) कल्लाणगपवरवस्थप दीप अनुक्रम [१५२-१५५]] %-515% 85%2595%252% ~324~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११४ -११७] दीप अनुक्रम [१५२ -१५५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(देव०)], मूलं [११४- ११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः ३ प्रतिपत्तौ देवाधिकारः उद्देशः १ ॥ १६१ ॥ श्रीजीवा-रिहिया कलाणगपवरमाणुलेवणवरा भासुरयोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघजीवाभि० णं दिव्वाप इडीए दिव्वाए जुईए दिव्वाए पहाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अचीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेस्साए दस दिसाओ मलयगिउनोवेमाणा, ते णं तत्थ साणं २ भवणावाससय सहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्त्रीणं साणं साणं तायत्तीसगाणं साणं खाणं रीयावृत्तिः लोगपालाणं साणं २ अग्गमहिसीणं साणं २ अणीयाणं साणं साणं अगियाहिवईणं साणं २ आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं भवणवासीणं देवाणं देवीण य आहेवथं पोरेवथं सामित्तं भट्टित्तं महयरगत्तं आणाईसरसेणावचं कारेमाणा पालेमाणा महया- ११ सू० ११७ SSयनगीयवाइयर्ततीतलतालपणमुइंग पडुप्पवाइयरवेणं दिव्बाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति" अस्य व्याख्या- 'असुराः' असु रकुमाराः, एवं नागकुमाराः सुवर्णकुमारा विद्युत्कुमारा अग्निकुमारा द्वीपकुमारा उदधिकुमारा दिकुमाराः पवनकुमाराः स्तनितकुमाराः, 'दशधा' दशप्रकारा: 'एते' अनन्तरोदिता असुरकुमारादयो भवनवासिनो यथाक्रमं चूडामणिमुकुटरत्नभूषणनियुक्तनागस्फटादिविचित्रचिह्नगताश्च तथाहि--असुरकुमारा भवनवासिनशूडामणिमुकुटरलाः, चूडामणिर्नाम मुकुटे रनं चिह्नभूतं येषां ते तथा, | नागकुमारा भूषणनियुक्तनागस्फटारूपचिह्नधराः, सुवर्णकुमाराः भूषणनियुक्त गरुडरूपचिह्नधराः, विद्युत्कुमाराः भूषणनियुक्तरूपचिहधराः, वज्रं नाम शक्रस्यायुधं, अग्निकुमारा भूषणनियुक्तपूर्णकलशरूपचिह्नधराः, द्वीपकुमारा भूषणनियुक्तसिंहरूपचिह्नधराः, उदधिकुमारा भूषणनियुक्तयवररूपचिधारिणः दिकुमारा भूषणनियुक्तराजरूपचिह्नधारिणः, वायुकुमारा भूषणनियुक्तमकररूपचिह्नधराः, । स्तनितकुमारा भूपणनियुक्तबर्द्धमानकरूपचिधारिणः भूषणमत्र मुकुटो द्रष्टव्योऽन्यत्र 'मउडवरवद्धमाणनिजुत्तचित्तचिंधगया ' इति पाठदर्शनाद्, वर्द्धमानकं - शरावसंपुढं पुनः सर्वे कथम्भूताः ? इत्याह- 'सुरूपाः' शोभनं रूपं येषां ते तथा अत्यन्तकमनीय ॥ १६१ ॥ Ja Ekemon in For P&Praise Cnly अत्र मूल - संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~325~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --- ----------- उद्देशक: [(देव०)], -------- ------- मूलं [११४-११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ -११७] रूपा इत्यर्थः, 'महिहिया महजुइया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा' इति प्राग्वत्, 'हारविराइयवच्छा' इति | हारविराजितं वक्षो येषां ते हारविराजितवक्षसः, 'कडगतुड़ियथंभियभुया' इति कटकानि-कलाचिकाभरणानि त्रुटितानि-वाहुरक्षकास्तैः स्तम्भिताविव स्तम्भिती भुजी येषां ते कटकवुटितस्तम्भितभुजाः, तथाऽङ्गवानि-बाहुशीर्षाभरणविशेषरूपाणि कुण्डले-कर्णाभ-18 रणविशेषरूपे, तथा मृष्टी-गृष्टीकृतौ गण्डौ-कपोलौ यैस्तानि मृष्टगण्डानि कर्णपीठानि-आभरणविशेषरूपाणि धारयन्तीत्येवंशीला अङ्गदकुण्डलमृष्टगण्डकर्णपीठधारिणः, तथा विचित्राणि-नानारूपाणि हस्ताभरणानि येषां ते विचित्रहस्ताभरणा:, तथा 'विचित्तमालामउलिमउडा' इति, विचित्रा माला-कुसुमस्रम् मौलौ-मस्तके मुकुटं च येषां ते विचित्रमालामौलिमुकुटाः, तथा कल्याणक-कल्याणकारि प्रवरं वस्त्रं परिहितं वैसे कल्याणकपत्रपरिहिताः, सुखादिदर्शनानिष्ठान्तस्यात्र पाक्षिकः परनिपातः, तथा कल्याणकं-कल्याणकारि यत् प्रवरं माल्यं-पुष्पदाम यथानुलेपनं तद्धरन्तीति कल्याणकप्रवरमाल्यानुलेपनधराः, तथा भाखरा-देदीप्यमाना बोन्दिःशरीरं येषां ते भास्वरवोन्दयः, तथा प्रलम्बत इति प्रलम्या या वनमाला तां धरन्तीति प्रलम्बवनमालाधराः, दिव्येन 'वर्णेन' कृष्णादिना 'दिव्येन गन्धेन' सुरभिणा 'दिव्येन स्पर्शन' मृदुस्निग्धादिरूपेण दिव्येन शक्तिविशेषमपेक्ष्य संहननेनेव संहननेन न तु सामात्संहननेन, देवानां संहननासम्भवात् , संहननं हि अस्थिरचनासके, न च देवानामस्थीनि सन्ति, तथा चोक्तं प्रागेव-देवा असंययणी तेसि नेव सिरा" इत्यादि, 'दिव्येन संस्थानेन' समचतुरस्ररूपेण भवधारणीयशरीरस्य, तेपामन्यसंस्थानासम्भवात् , 'दिव्यथा ऋद्ध्या' परिवारादिकया 'दिव्यया युत्या' इष्टार्थसंप्रयोगलक्षणया, 'धु अभिगमने' इतिवचनात् 'दिव्यया प्रभया' भवनावासगतया 'दिव्यया छायया' समुदायशोभया 'दिव्येनार्चिषा' स्वशरीरगतरत्रादितेजोज्वालया 'दिव्येन तेजसा' शरीरप्रभवेन 'दिव्यया दीप अनुक्रम [१५२-१५५]] SASRAEONE 1 ~326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११४ -११७] दीप अनुक्रम [१५२ -१५५] श्रीजीयाजीवाभि० "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [3]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... मलयगि रीवावृति ॥ १६२ ॥ - • उद्देशक: ((देव)], मूलं [१९४-१९७) - .......... .... आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः लेश्यया' देहवर्णसुन्दरतथा दश दिशः 'उद्योतयन्तः' प्रकाशयन्तः 'पभासेमाणा' इति शोभयन्तस्ते भवनवासिनो देवा णमिति वाक्यालङ्कारे 'तत्र' स्वस्थाने 'साणं साणं'ति स्वेषां स्वेपामात्मीयात्मीयानां भवनावासशतसहस्राणां स्वेषां स्वेषां सामानिकसहस्राणां स्वेषां स्वेषां त्रयस्त्रिंशकानां स्वेषां स्वेषां लोकपालानां स्वासां स्वासाम् 'अग्रमहिषीणा' पहराझीनां स्वेपः स्वेपामनीकानां स्वेषां स्वेषामनीकाधिपतीनां स्वेषां स्वेपामात्मरक्षदेवसहस्राणाम्, अन्येषां च बहूनां स्वस्वभवनावासनगरीवास्तव्यानां भवनवासिनां देवानां देवीनां च 'आहेवच्चमित्यादि, अधिपतेः कमै आधिपत्यं रक्षेत्यर्थः सा च रक्षा सामान्येनापि (आ) रक्षकेणैव क्रियते तत आह-पुरस्य पति: पुरपदिस्तस्य कर्म्म पौरपत्यं सर्वेषामासीयानामप्रेसरत्वमिति भावः तथाप्रेसरत्वं नायकत्वमन्तरेणापि नायकनियुक्त तथाविधगृहचिन्तकसामान्यपुरुषस्येव भवति ततो नायकत्वप्रतिपत्त्यर्थमाह- 'स्वामित्वं' स्वमस्यास्तीति स्वामी वद्भावो नायकत्वमित्यर्थः, तदपि च नायकत्वं कथञ्चित्पोषकत्वमन्तरेणापि भवति यथा हरिणयूथाधिपतेर्हरिणस्य, तत आह— 'भर्तृत्वं' पोषकत्वमत एव महत्तरकत्वं तदपि महतरकत्वं कस्यचिदाज्ञाविकलस्यापि संभवति यथा कस्यचिद्वणिजः स्वदासदासीवर्ग प्रति, तत आह- 'आणाईसरसेणावच्चे' आज्ञया ईश्वर आशेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः आज्ञेश्वरश्वासौ सेनापतिश्च आज्ञेश्वरसेनापतिस्तस्य कर्म्म आज्ञेश्वरसेनापत्यं स्वस्वसैन्यं प्रत्यद्रुतमाज्ञाप्राधान्यमिति भावः कारयन्तोऽन्यैर्नियुक्तकैः पुरुषैः पालयन्तः स्वयमेव महता रखेणेति योगः, 'आहय' इति आख्यानकप्रतिषद्धानि यदिवा 'अहतानि' अव्याहतानि नित्यानुबन्धीनीति भावः ये नाट्यगीते नाख्यं नृत्यं गीतं गानं यानि च वादितानि | तत्रीतलतालबुटितानि तत्री - वीणा तौ-हस्ततली ताल:- कंसिका बुटितानि-वादित्राणि, तथा यश्च वनमृदङ्गः पटुना पुरुषेण प्रवादितः, तत्र धनमृदङ्गो नाम घनसमानध्वनियों मृदङ्गः, तत एतेषां द्वन्द्वस्तेषां रवेण 'दिव्यान्' दिवि भवान् प्रधानानिति भावः भो For P&Praise Ch अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~327~ प्रतिपती देवाधि कारः उद्देश १ सु० ११७ ॥ १६२ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ----------- उद्देशक: [(देव०)], -------- ------- मूलं [११४-११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत -* सूत्रांक - [११४ -- -११७] - गाही भोगा:-शब्दादयो भोगभोगासान भुजमानाः विहरन्ति' आसते || "कहिणं भंते ! असुरफुमाराणं देवाणं भवणा पत्ता ?, कहि णं भंते ! असुरकुमारा देवा परिपसंति, एवं जा ठाणपए बत्तम्बया सा भाणियन्या जाव चमरे एल्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसति जाब विहरति” क भदन्त ! असुरकुमाराणां देवानां भवनानि प्रशतानि', तथा क भदन्त ! असुरकुमारा देवाः परिवसन्ति !, 'एवम्' उकेन प्रकारेण या स्थानपदे वक्तव्यता सा भणितव्या यावचमरः असुरकुभारेन्द्रः असुरकुमारराजा परिवसति यावद्विहरतीति, सा चैवम्-"गोयमा! इमीसे रवणापभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्समोगाहेत्ता हिट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजेचा माझे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोसट्ठी भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खाय, ते णं भवणा वाहि बट्टा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकष्णियासंठाणसंठिता उभिनंतरविउलगम्भीरखायपरिहा जाव पडिरुवा, एत्व णं असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता, एस्थ गं बहवे असुरकुमारा देवा परिवसंवि काला लोहियक्खथिबोहा धवलपुष्पदंता असियकेसा वामेयकुंडलधरा अचंदणाणुलित्तपत्ता ईसिसिलिंधपुएफपगासाई असंकिलिढाई सुहुमाई वस्थाई पबरपरिहिया पढमं वयं च समइकता विइयं च असंपत्ता भद्दे जोत्रगे वट्टमाणा तलभंगवतुडियवरभूसणनिम्मलमणिरव मंडियभुया दसमुदामंडियन्गहत्या चूडामणिचित्तचिंधगया सुरूवा महिडिया मह जुइया महाजसा महब्बला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कड़गतुडियर्थभियभुया जाव दस दिसाओ उजोवेमाणा पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं भवणाबाससयसहस्साणं जाव दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति, चमरयलियो य एत्य दुवे असुरकुमारिंदा असुरकुमाररायाणो परिवसंति काला महानीलसरिसा नीलगुलियगवलपगासा वियसियसयत्तनिम्मलई सिसियरत्ततंबनयणा गरुलाययत्रजुतुंगनासा उबचियसिलपवाल दीप अनुक्रम [१५२-१५५]] 4- जी०व०२८ 4LR- M 4 ~328~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], --- ----------- उद्देशक: [(देव०)], -------- ------- मूलं [११४-११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ -११७] श्रीजीवा- विफलसन्निभाधरोहा पंदुरससिसगलबिमलनिम्मल (दहियण) संखगोखीरकुंदधवलमुणालियादतसेढी हुयवहनिद्धतधोयतत्त्तवणिजरत्त- ३ प्रतिपत्ती जीवाभि तलतालुजीहा अंजणघणमसिणरुयगरमणिज्जनिद्धकेसा वामेयकुंडलधरा जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं देवाधिमलयगि-18 जाव भुंजमाणा विहरंति ॥ कहि णं भंते! दाहिणिलाणं असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता', कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला असुरकु-51 रीयावृत्तिःहमारा देवा परिवसंत, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिजेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए असीउत्तरजोयणसयसह-II उद्देशः१ ॥१६॥ सवाहलाए उवरि एगं जोयणसहस्समोगाहेत्ता हेवा चेगं जोयणसहस्सं वजेता मज्झे अट्टहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं दाहिणि- सू०११७ | हाणं असुरकुमाराण देवाणं चोत्तीसं भवणावाससबसहस्सा भवंतीति मक्खाय, ते णं भवणा बाहिं बट्टा सहेव जाब पडिरूवा, तत्थ | गं बहवे दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति काला लोहियक्खा तहेव मुंजमाणा विहरंति, अमरे य एत्थ अमुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिचसइ काले महानीलसरिसे जाव पभासेमाणे, से गं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं चसट्ठीए सामाणियसाहस्सीर्ण तायत्तीसाए तायचीमगाणं चडण्हं लोगपालाणं पंचण्डं अग्गमहिमीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्डं | अणियाहिवईणं चउण्हं चउसहीणं आदरखदेवसाहस्सीणं, अण्णेसि च यहूर्ण दाहिणिलाणं देवाणं देवीण य आहे बच्चं पोरेवचं जाव | | बिहरह" ।। इति, इदं प्राय: समस्तमपि सुगमं नवरं 'काला लोहियक्ख' इत्यादि, 'काला' कुष्णवर्णाः 'लोहियक्खाबबोहा' लो-| ४ाहिताक्षरमबद् बिम्नवच-बिन्धीफलवद् ओष्ठौ येषां ते लोहिताक्षविवौष्ठाः आरतीष्ठा इति भावः, धवला: पुष्पवत सामाकुन्दकतालिका इव दन्ता येषां ते धवलपुष्पदन्ताः, असिता:-कृष्णा: केशा येषां ते असित केशाः, दन्ता: केशाश्चामीषां क्रिया द्रष्टव्या ना स्वाभाविकाः, वैक्रियशरीरत्वान् , 'वामेयकुण्डलधराः' एककर्णावसक्तकुण्डलधारिणः, तथाऽऽण-सरसेन चन्दनेनानुलिप्तं गात्रं वैस्ते दीप अनुक्रम [१५२-१५५]] RECOM F-TKAR अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --- ----------- उद्देशक: [(देव०)], ---------- ------- मूलं [११४-११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ % -११७] 15655251%%20% % आर्द्रचन्दनानुलिप्तगात्राः, तथा ईषत्-मनाक 'शिलिन्ध्रपुष्पप्रकाशानि' शिलिन्ध्रपुष्पसदशवर्णानि 'असंक्लिष्टानि अत्यन्तसुखजनकतया मनागपि सक्ठेशानुत्पादकत्वात् 'सूक्ष्माणि' मृदुलधुरपानि अच्छानि चेति भावः वस्राणि प्रवरं सुशोभं यथा भवति एवं परिहिता:-परिहितवन्तः प्रवरवस्त्रपरिहिताः, तथा वयः प्रथम-कुमारत्वलक्षणमतिकान्तास्तत्र्वन्तवर्तिन इत्यर्थः, यत आह-द्वितीयं च-मध्यलक्षणं वयोऽसंप्राप्ताः, एतदेव व्यक्तीकरोति-भद्रे' अतिप्रशस्से यौबने वर्तमानाः 'तलभंगयतुडियवरभूसणनिम्मलमणिरयणमंडियभुया' तलभद्का-बाहाभरणविशेषाः शुटितानि-बाहुरक्षकाः, अन्यानि च यानि बराणि भूपणानि बाह्राभरणानि तेषु ये निर्मला मणय:-चन्द्रकान्ताद्या यानि रमानि-इन्द्रनीलादीनि तैर्मण्डिती भुजी येषां ते तथा, तथा दशभिर्मुद्राभिर्मण्डिती अग्र हस्तौ येषां ते (दश मुद्रा) मण्डिताग्रहलाः, 'चूडामणिचित्तचिंधगया' चूडामणिः-चूडामणिनामकं चित्रम्-अद्भुतं चिह्न गर्त-स्थितं येषां | हाते चूडामणिचित्रचिह्नगताः, चमरवलिसामान्यसूत्रे 'काला' कृष्णवर्णाः, एतदेवोपमानतः प्रतिपादयति-महानीलसरिसा' महानीलं यत्किमपि वस्तुजातं लोके प्रसिद्धं तेन सदृशाः, एतदेव व्याचष्टे-नीलगुटिका-नील्या गुटिका गवलं-माहिषं शृङ्गं तयोरिव प्रकाशःप्रतिभा येषां ते नीलगुटिकागवलप्रकाशाः, तथा विकसितशतपत्रमिव निर्मले ईपदेशविभागेन सिते रक्ते ताने च नयने येषां ते विकसितशतपत्रनिर्मलेषत्सितरक्तताम्रनयनाः, तथा गरुडस्येवायता-दीर्घा ऋज्वी-अकुटिला तुझा-उन्नता नासा-नासिका येषां ते गरुडायतर्जुतुङ्गनासाः, तथा ओयवियं-तेजितं यन् शिलाप्रवाह-विद्रुमं रत्नं यच्च बिम्बफलं तत्सन्निभोऽधर:-ओष्ठो येषां ते तथा, तथा पाण्डुरं न तु सन्ध्याकालमावि आरक्तं शशिशकलं-चन्द्रखण्डं, तदपि च कथम्भूतमित्याह-विमलं-रजसा रहितं कलङ्कविकलं वा तथा निर्मलो यो दधिधनः शमो गोक्षीरं यानि कुन्दानि-कुन्दफुसुमानि दकरजः-पानीयकणा मृणालिका च तद् धवला दन्तश्रे % % दीप अनुक्रम [१५२-१५५]] % 4-% ~330~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११४-११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४ श्रीजीवा- णियेषां ते तथा, विमलशब्दस्य विशेष्यास्परनिपातः प्राकृतत्वात , तथा हुतवहेन-श्वानरेण निर्मात सन् यद जायते धौत-निर्मल जीवाभितप्तम्-उत्तप्तं तपनीयम् आरक्त सुवर्ण सद्रक्तानि तलानि-हस्तपादतलानि तालुजिहे च येषां ते हुतबहनिर्मातधौततप्ततपनीयरक्त- मलयगि-IIतलतालुजिह्वाः, तथाऽजन-सौवीराजनं घन:-प्रावृट्कालभावी मेधस्तद्वन् कृष्णाः रुचकवद्-रुचकरब्रवद् रमणीयाः स्निग्धाचार रीयावृत्तिः केशा येप ते अजनघनकृष्णरुचकरमणीयस्निग्धकेशाः, शेषं प्राग्वत् ॥ चमरसूत्रे 'तिण्हं परिसाण मित्युक्तं ततः पर्षद्विशेषपरिज्ञा- प्रतिपत्ती देवाधि कारः उद्देशः१ सू०११७ % -११७] ॥१६४ानाय सूत्रमाह % % 4 % - दीप अनुक्रम [१५२-१५५]] चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो कति परिसातो पं०१, गो० तओ परिसातो पं०, तं०-समिता चंडा जाता, अभितरिता समिता मज्झे चंडा वाहिं च जाया । चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरपरिसाए कति देवसाहस्सीतो पण्णताओ?, मज्झिमपरिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ?, बाहिरियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! चमरस्स णं असुरिंदस्स २ अभितरपरिसाए चउबीसं देवसाहस्सीतो पपणत्ताओ, मज्झिमिताए परिसाए अट्ठावीसं देव०, बाहिरिताए परिसाए बत्तीस देवसा०॥ चमरस्सणं भंते! असुरिंदस्स असुररपणो अभितरिताए कति देविसता पण्णता?, मज्झिमियाए परिसाए कति देविसया पपणत्ता, बाहिरियाए परिसाए कति देविसता पण्णत्ता, गोयमा! चमरस्सणं असुरिंदस्स असुररपणो अभितरियाए परिसाए अबुट्टा देविसता पं० मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि 2 50 ॥१६४॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~331~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [११८] दीप अनुक्रम [१५६ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(देव०)], मूलं [११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः देवि० बाहिरियाए अढाइजा देवि० । चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए० बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? अभितरियाए परि० देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परि० देवीणं केवतियं० बाहिरियाए परि० देवीणं के० ?, गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स २ अभितरियाए परि० देवाणं अहाइजाइं पलिओ माई ठिई पं० मज्झिमाए परिसाए देवाणं दो पलिओ माई ठिई पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए देवाणं दिवहं पलि० अम्भितरियाए परिसाए देवीणं दिवहं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता मज्झिमियाए परिसाए देवीणं पलिओचमं ठिती पण्णसा बाहिरियाए परि० देवीणं अद्धपलिओयमं ठिती पण्णत्ता ॥ से केणद्वेणं भंते! एवं बुचति ? - चमरस्त असुरिंदस्स तओ परिसातो पण्णत्ताओ, तंजहा-समिया चंडा जाया, अभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया ?, गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररनो अभितरपरिसा देवा वाहिता हव्यमागच्छति णो अब्वाहिता, मज्झिमपरिसाए देवा वाहिता हव्यमागच्छंति अव्वाहितावि, बाहिरपरिसा देवा अन्वाहिता हव्यमागच्छति, अनुत्तरं चणं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया अनयरेसु उच्चावएस कजकोबेस समुप्पन्ने अनि तरिया परिसाए सद्धिं संमसंपुच्छणायहुले विहरह मज्झिमपरिसाए सद्धिं पयं एवं पर्वचेमाणे २ For P&Pealise Cinly ~ 332~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: AS प्रतिपत्ती प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥१५॥ [११८] K दीप अनुक्रम [१५६] विहरति बाहिरियाए परिसाए सर्दि पर्यडेमाणे २ विहरति, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुचड़चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररपणो तओ परिसाओ पपणत्ताओ समिया चंडा जाता, देवाधिअभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाता (स०११८)॥ कार: 'चमरस्स ण'मित्यादि, चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य 'कति' किवत्सङ्ख्याकाः पर्षदः प्राप्ताः १, भगवानाह-IN गौतम ! तिस्रः पर्पदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-समिता चण्डा जाता, तत्राभ्यन्तरिका पर्षन् 'समिता' समिताभिधाना, एवं मध्यमिका सू० ११८ चण्डा बाह्या जाता ॥ 'चमरस्स ण'मित्यादि, चमरस्स भदन्त ! असुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रशप्तानि ?, मध्यमिकायां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि?, बाह्यायां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि !, भगवानाहगौतम! चभरल्यासुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्पदि चतुर्विशतिर्देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, मध्यमिकायामष्टाविंशतिर्देवसहस्राणि, बायायां द्वात्रिंशदेवसहस्राणि प्रज्ञाप्तानि ॥ धमरस्स णं भंते ! इत्यादि, चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्थाभ्यन्तरिकायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि ? मध्यमिकायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञतानि ? बाहायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञमानि?, भगवानाह-गौत्तम! अभ्यन्तरिकायां पर्षदि अतृतीयानि देवीशतानि प्रक्षमा गि, मध्यमिकायां पर्षदि त्रीणि देवीशतानि प्रशसानि, बाह्यायां पर्षदि अर्द्धचतुर्थानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि | 'चमरस्स णं भंते !' इत्यादि, चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकाओं पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञाप्ता? मध्यमिकायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, एवं बाह्यपर्षद्विषयमपि प्रभसूत्रं वक्तव्यं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीना कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, एवं मध्यमिकाबाह्यपर्ष अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~333~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------------ उद्देशक: [(देव०)], ----------------------- मूलं [११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक % [११८] -% द्विषये अपि प्रभसूत्रे वक्तव्ये, भगवानाह-गौतम! चमरस्यासुरेन्द्रस्वासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानामतृतीयानि पल्यो पमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, मध्यमिकायां पर्षदि देवानां द्वे पल्योषमे स्थितिः प्रज्ञप्ता, बाह्यायां पर्षदि देवानां पढ़े पल्योपमं खितिः प्रज्ञप्ता, ४ तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां यर्द्धपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, मध्यमिकायां पर्षदि देवीनां पस्योपमं स्थितिः, प्रशता, बाह्यायां पर्षदि | है देवीनामर्द्धपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञाप्ता, इह भूयान् बाचनाभेद इति यथाऽवस्थितसूत्रे पाठनिर्णयार्थ सुगममपि सूत्रमक्षरसंस्कारमात्रेण विब्रियते । सम्प्रत्यभ्यन्तरिकादिव्यपदेशकारणं पिपलिकपुरिदमाह-से केणडेण मिलादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते ? चमरस्य असुरकुमारराजस्य तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा समिता चण्डा जाता, अभ्यन्तरा समिता मध्यमिका चण्डा बाह्या जाता भगवानाह-गौतम! | चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरपर्यत्का देवाः 'वाहिता' आहूताः 'हव्वं' शीवमागच्छन्ति नो 'अब्बाहिता' अनाहूताः, अनेन गौरवमाह, मध्यमपर्षगा देवा आहूता अपि शीघ्रमागच्छन्ति अनाहूता अपि, मध्यमप्रतिपत्तिविषयत्वात् , बाझपर्षगा देवा अनाहूताः शीघ्रमागच्छन्ति, तेषामाकारणलक्षणगौरवानह त्वात् , 'अदुत्तरं च णमित्यादि, 'अधोत्तरम्' अथान्यद् अभ्यन्तरत्वादिविषये कारणं गौतम! चमरोऽसुरेन्द्रोऽसुरकुमारराजोऽन्यतरेषु 'उच्चावचेषु' शोभनाशोभनेषु 'कजकोडंबेसु' इति कौटुम्बिकेषु कार्येषु कुटुम्ने भवानि कौटुम्बानि स्वराष्ट्रविषयाणीत्यर्थः तेषु कार्येषु समुत्पन्नेषु अभ्यन्तरिकया पर्षदा सार्द्ध संमतिसंप्रभबहुलश्चापि विहरति, सन्मत्याउत्तमया मत्या य: संप्रश्न:-पर्यालोचनं तद्वहुलश्चापि 'विहरति आस्ते, स्वल्पमपि प्रयोजनं प्रथमतस्तया सह पर्यालोच्य विदधातीति भावः, मध्यमिकया पर्षदा सार्द्ध यद्भ्यन्तरिकया पर्षदा सह पर्यालोच्य कर्तव्यतया निश्चितं पदं 'तापञ्चयन् विहरति' एवमिदमस्माभिः पर्यालोचितमिदं कर्त्तव्यमन्यथा दोष इति विस्तारयन्नास्ते, बाह्यया पर्षदा सह यदभ्यन्तरिकया पर्षदा सह पर्यालोचितं दीप अनुक्रम [१५६] R-540 म * AC ~334~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ...--------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८] दीप अनुक्रम [१५६] श्रीजीवा- मध्यमिकया सह गुणदोषप्रपञ्चकवनतो विस्तारित पदं तन् 'प्रचण्डयन् प्रचण्डयन् विहरति' आज्ञाप्रधानः सन्नवश्यं कर्त्तव्यत्तया प्रतिपत्ती जीवाभि निरूपयन् तिष्ठति, यथेदं युष्माभिः कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति, तदेवं या एकान्ते गौरवमेव केवलमईति यया च सहोत्तममतिला- देवाधिमलयगि- स्वल्पमपि कार्य प्रथमतः पर्यालोचयति सा गौरवविषये पर्यालोचनायां चात्यन्तमभ्यन्तरा वर्त्तते इत्यभ्यन्तरिका, या तु गौरवारे कारः रीयावृत्तिःशापोलोचितं चाभ्यन्तरिकया पर्पदा सह अवश्यकर्त्तव्यतया निश्चितं न तु प्रथमतः सा किल गौरवे पर्यालोचनायां च मध्यमे भागे उद्देशः१ वर्चत इति मध्यमिका, या तु गौरख न जातुचिदप्यर्हति न च यया सह कार्य पर्यालोचयति केवलमादेश एवं यस्मै दीयते सा गौर॥१६६ ॥ | सू०११८ वानहीं पर्यालोचनायाश्च वहि वे वर्चत इति बाह्या । तदेवमभ्यन्तरिकादिव्यपदेशनिबन्धनमुक्त, सम्पत्येतदेवोपसंहरनाह-से ए एण(तेण)टेण'मित्यादि पाठसिद्ध, यानि तु समिया पंडा जाता इति नामानि तानि कारणान्तरनिवन्धनानि, कारणान्तरं च ग्रन्थान्त-18 हरादवसातव्यं, अत्र सहणिगाथे-चवीस अनीसा बत्तीससहस्स देव चमरस्स । अबुट्ठा तिन्नि तहा अट्टाइजा य देविसया ॥१॥ अडाइजा य दोन्नि य दिवडपलियं कमेण देवठिई । पलियं दिवडमेगं अद्धो देवीण परिसासु ॥२॥". कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पण्णत्ता ?, जहा ठाणपदे जाव बली, एत्व वहरोयणिंदे वइरोषणराया परिवसति जाब विहरति । बलिस्स णं भंते। वयरोयर्णिदस्स बहरोयणरन्नो कति परिसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! तिषिण परिसा, तंजहा–समिया चंडा जाया, अभितरिया समिया मजिझमिया चंडा बाहिरिया जाया । बलिस्स णं बहरोयर्णिदस्स चहरो ॥१६६॥ यणरन्नो अभितरियाए परिसाए कति देवसहस्सा ? मज्झिमियाए परिसाए कति देवसहस्सा अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~335~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११९] जाव पाहिरियाए परिसाए कति देविसया पण्णत्ता?, गोयमा! बलिस्स णं बहरोयर्णिदस्स २ अभितरियाए परिसाए वीसं देवसहस्सा पण्णता, मज्झिमियाए परिसाए चउवीसं देवसहस्सा पणत्ता, बाहिरियाए परिसाए अट्ठाचीसं देवसहस्सा पण्णत्ता, अभितरियाए परिसाए अद्धपंचमा देविसता, मज्झिमियाए परिसाए चत्तारि देविसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अबुट्ठा देविसता पण्णत्ता, बलिस्स ठितीए पुच्छा जाव वाहिरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पपणत्ता?, गोयमा! बलिस्स णं वइरोयर्णिदस्स २ अभितरियाए परिसाए देवाणं अडुट्टपलिओवमा ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि पलिओवमाई ठिती पण्णता, पाहिरियाए परिसाए देवाणं अट्ठाइजाइं पलि ओवमाई ठिई पन्नसा, अम्भितरियाए परिसाए देवीणं अट्ठाइजाई पलिओवमाई ठिती पपणत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं दो पलिओचमाई ठिती पण्णत्ता, वाहिरियाए परिसाए देवीणं दिवढे पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, सेसं जहा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररपणो । (सू०११९) 'कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता' इत्यादि, क भदन्त ! उत्तराणामसुरकुमाराणां भवनानि प्रजातानि? इत्येवं यथा प्रज्ञापनायां द्वितीये स्थानाख्ये पदे तथा ताव कम्यं यावद्वलिः, अत्र बैरोचनेन्द्रो वैरोचनराजः परिवसति, तत ऊर्द्धमपि तावद्वक्तव्यं यावद्विहरति, तचैवम्-'कहिणं भंते ! उत्तरिहा असुरकुमारा देवा परिवसंति', गोयमा! जंबु CAREER दीप अनुक्रम [१५७ - - - ~336~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [११९] दीप अनुक्रम [१५७ SAX4 दीवे दी मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए असीउत्तरे जोयणसयसहस्सबाहलाए उवरि एग जोयणसहस्सं ३ प्रतिपत्तौ ओगाहेत्ता हेहा पेग जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अबहत्तरे जोयणसयसहस्से एत्य उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं तीसं भवणवा- देवाधिससयसहस्सा भवतीति मक्खायं, ते गं भवणा बाहिं बट्टा अंतो चउरंसा सेसं जहा दाहिणिलाणं जाव विहरंति, बली य एत्य वइ- कार रोयणिंदे वइरोयणराया परिवसइ काले महानीलसरिसे जाव पभासेमाणे, से णं तत्थ तीसाए भवणवाससयसहस्साणं सट्ठीए सा- उद्देशः१ माणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तहमणि- सू०११९ याणं सत्तहमणियाविईणं चउण्ड् य सट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसि च बहूणं उत्तरिलाणं असुरकुमाराण देवाणं दे-18 बीण य आहेवचं जाव विहरद" समस्तमिदं प्राग्वत् ।। सम्प्रति पर्षनिरूपणार्थमाह-'बलिस्स णं भंते! इत्यादि प्राग्वत् , नवरमिदमत्र देवदेवीस या स्थितिनानात्वम्-"वीस उ चवीस अट्ठावीस सहस्साण (होति ) देवाणं । अद्धपणचउद्धृट्टा देविसय बलिस्स परिसासु ॥ १॥ अद्भुह तिणि अडाइजाई (होति ) पलियदेवठिई । अडाइजा दोषिण य दिवडू देवीण ठिइ कमसो ॥२॥" कहि णं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णसा?, जहा ठाणपदे जाव दाहिणिल्लावि पुच्छियव्या जाव धरणे इस्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया परिवसति जाव विहरति॥धरणस्स भंते! णागकुमारिंदस्स नागकुमाररपणो कति परिसाओ? पं०, गोयमा तिण्णि परिसाओ, ताओ चेव जहा चमरस्साधरणस्स णं भंते ! णागकुमारिंदस्स णागकुमाररन्नो अभितरियाए परिसाए कति ||१६७ देवसहस्सा पनत्ता?, जाय पाहिरियाए परिसाए कति देवीसता पण्णता?, गोयमा! धरणस्स णं अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~337~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [31. ......................-- उद्देशक: [(देव)], .............-- मूलं [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२० CC दीप अनुक्रम [१५८] णागकुमारिंदस्स नागकुमाररपणो अभितरियाए परिसाए सर्टि देवसहस्साई मज्झिमियाए परिसाए सत्तरं देवसहस्साई बाहिरियाए असीतिदेवसहस्साई अभितरपरिसाए पपणत्तरं देविसतं पण्णत्तं मज्झिमियाए परिसाए पण्णासं देविसतं पण्णसं बाहिरियाए परिसाए पणवीसं देविसतं पण्णसं । धरणस्स णं रन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? वाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? अभितरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! धरणस्स रपणो अभितरियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं अद्धपलिओवर्म ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिती पपणत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं देसूर्ण अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अभितरियाए परिसाए देवीणं देसूर्ण अद्धपलिओवर्म ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं सातिरेर्ग चउन्भागपलिओवर्म ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं चउभागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अट्ठो जहा चमरस्स ॥ कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं जहा ठाणपदे जाव विहरति । भूयाणंदस्स णं भंते! णागकुमारिंदस्स णागकुमाररपणो अभितरियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्ण ~338~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ १२० ] दीप अनुक्रम [१५८] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(देव०)], मूलं [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीवावृत्तिः ॥ १६८ ॥ लाओ ?, प्रज्मियाए परिसाए कति देवसाहस्मीओ पण्णलाओ? बाहिरियाए परिसाए कह देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? अभितरियाए परिसाए कह देविसया पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए कह देविया पण्णत्ता? बाहिरियाए परिसाए कई देविसया पण्णत्ता ?, गोयमा ! भूयादस्त णं नागकुमरिंदस्स नागकुमाररनो अभितरियाए परिसाए पन्नासं देवसहस्सा पण्णत्ता, मझिमियाए परिसाए सहिं देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए सत्तरि देवसाहसीओ पण्णत्ताओ, अग्भितरियाए परिसाए दो पणवीसं देविसयाणं पण्णत्ता, मज्झि मियाए परिसाए दो देवीसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए पण्णत्तरं देविस पण्णत्तं । भूयानंदस्स णं भंते! नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं केव तियं कालं ठिती पणता ? जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?, गोयमा ! भूताणंदस्स णं अभितरियाए परिसाए देवाणं देणं पलिओयमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमयाए परिसाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवानं अपलिओ मं ठिती पण्णत्ता, अभितरियाए परिसाए अपलिओवमं टिती पण्णत्ता, मझिमियाए परिसाए देवीणं देणं अपलिओचमं किती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवी सारेगं भागपलिओवमं ठिली पण्णत्ता, अत्थो जहा चमरस्स, अवसेसाणं वेणु For P&False Cnly ३ प्रतिपत्ती देवाधि ~339~ कारः उद्देशः १ सू० ११९ ॥ १६८ ॥ w अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने स्खलनाः वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् सू० ११९ इति मुद्रितं, तद् अपि मुद्रण-दोष:, अत्र सू० १२० एव वर्तते Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत C- 25 सूत्रांक [१२० देवादीणं महाघोसपञ्जवसाणाणं ठाणपदवत्तब्बया गिरवयवा भाणियब्बा, परिसालो जहा धरणभूताणदाणं (सेसाणं भवणईणं) दाहिणिल्लाणं जहा धरणस्स उत्तरिहार्ण जहा भूताणंदस्स, परिमाणंपि ठितीवि ।। (सू०१२०) 'कहि णं भंते! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णता?' इत्यादि, क भदन्त ! नागकुमाराणां देवानां भवनानि प्रज्ञतानि?, एवं यथा प्रज्ञापनायां स्थानास्ये द्वितीयपदे तथा वक्तव्यं यावद् दाक्षिणात्या अपि प्रष्टच्या यावद्धरणोऽन्त्र नागकुमारेन्द्रो नागकुमार-14 | राजः परिवसति चावद्विहरवि, तचैवम्-'कहिणं भंते ! नागकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए. पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उयरिं एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठावि एगं जोयणसहस्सं यत्ता मझे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एस्थ णं नागकुमाराण देवाणं चुलसी भवणाबाससयसहस्सा भयंतीनिमक्वाय, ते गं भवणा बाहिं वट्टा जाव पडिरूवा, एत्य णं नागकुमाराणं देवाणं भवणा पणत्ता, सस्थ णं बहवे नागकुमारा देवा परिवसति महिडीया महलुतिया, सेसं जहा ओहियाणं जाब विहरंति, धरणभूयाणंदा एस्थ दुवे नागकुमारिंदा नागकुमाररायाणो परिवसंति महिडीया सेसं जहा ओहियाणं जाव वि हरति । कहिणं भंते! दाहिणिलाणं नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णता? कहि णं भंते ! दाहिणिला नागकुमारा देवा परिक्संति !, की गोयमा! जंबुद्दीवे दीये मंदरस्स पव्ययस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहलाए उवरि एग जोय णसहस्सं ओगाहेत्ता हेवा गं जोषणसहसं बजेता गज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एस्थ पं दाहिणिहाणं नागफुमाराणं देवाणं | चोथालीसं भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्याय, ते णं भवणा वादि बट्टा जाव पडिरूवा, एत्य शं दाहि णिहाणं नाराकुमारागं देवाण दीप अनुक्रम [१५८] 12-11-5 जी०च०२० ~340~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------------ उद्देशक: [(देव.)],, -------------------- मूलं [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२०] दीप श्रीजीवा- भषणा पन्नत्ता, एत्य णं वहवे दाहिणिला नागकुमारा परिसंति महिनीया जाय विहरति, धरणे एस्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया प्रतिपत्ती जीवाभि० परिवसइ महिडीए जाब पभासेमाणे, से गं तस्य चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं छहं सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए ताय- देवाधिमलयगि-हतीसगाणं चउण्डं लोगपालाणं ठण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं विहं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्डं अणियाहिवईणं चउवी-3 कारः रीयावृत्तिःसाए आयरस्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूर्ण दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव विहरंति" पाठसिद्धं ॥ उद्देशः१ ॥१६९॥ सम्प्रति पर्वनिरूपणार्थमाह-वरणास्स णं भंते !' इत्यादि, प्राग्वन् , नवरमत्राभ्यन्तरपर्यदि पष्टिदेवसहस्राणि मध्यमिकायां सप्तति- सू०१२० देवसहस्राणि बाधायामशीतिदेवसहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि पञ्चसप्ततं देवीशतं, 'मज्झिमियाए परिसाए पण्णासं देविसतं | पण्णत्तं' मध्यमिकायां पर्षदि पञ्चाशं देवीशसं बाझायां पञ्चविंद देवीशतं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां स्थितिः सातिरेकमईपल्योपमं मध्यनिकायाम पल्योपमं यायायां देशोनमपल्योपमं, तथाऽभ्यन्तरिकायर्या पर्पदि देवीनां सितिदेशोनमर्द्धपल्योपमं | मध्यमिकायां सातिरेकं चतुर्भागपल्योपमं वाह्यायां चतुर्भागपल्योपमं, शेष प्राग्वत् ॥ 'कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं नागकुमाराणं | भवणा पण्णत्ता जहा ठाणपदे जाय यिहरइति, क भदन्त ! उत्तराणां नागकुमाराणां भवनानि प्रज्ञप्तानि? इत्यादि यथा प्रज्ञा-1 अपनायां स्थानारये पदे सथा वक्तव्यं यावद्विहरतीति पर्द, तचैत्रम्-'कहिणं भंते ! उत्तरिल्ला नागकुमारा परिवसन्ति ?, गोयमा! - बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पञ्चयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए असीउत्तरजोगणसयसहस्सवाहल्लाए उचरि एगं जोयणसहसं ओगाहित्ता हेवा गं जोयणसहस्सं वजेत्ता मञ्झे अदृहत्तरे जोयणसयसहस्से, एस्थ णं उत्तरिल्लाणं नागकुमाराणं चत्तालीसं भवणा- १६९। वाससयसहस्सा हर्षतीतिमत्रखाय, ते णं भवणा बाहिं बट्टा सेसं जहा दाहि जिहाणं जाब विहरंति, भूयाणंदे एत्व नागकुमारिंदे नाग-1 अनुक्रम [१५८] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~341~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------------ उद्देशक: [(देव०)], ----------------------- मूलं [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२० दीप अनुक्रम [१५८] कुमारराया परिवसति महिडीए जाव पभासेमाणे, से गं चत्तालीसाए भवणावाससयसहस्साण सेस तं चैव जाव विहरद' इति निगदिसिद्धं ॥ पर्षन्निरूपणार्थमाह-'भूयाणंदस्स 'मित्यादि प्राग्वत् नवरमत्राभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्चाशद्देवसहस्राणि मध्यमिकायां | वष्टिदेवसहस्राणि बाह्यायां सप्ततिर्देवसहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि पञ्चविंशे देवीशते मध्यमिकायां परिपूर्णे द्वे देवीशते वाखायां पञ्चसप्ततं देवीशतं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां स्थितिदेशोनं पल्योपमं मध्यमिकायां सातिरेकमर्द्धपल्योपमं बाह्यायामर्द्ध पल्योपम, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां स्थितिर पल्योपमं मध्पनिकायां देशोनमर्द्धपल्योपनं बाहह्मायां सातिरेकं चतुर्भागपल्योशापम, शेष प्राग्वत् । 'अवसेसाणं वेणुदेवाईणं महाघोसपजवसाणाणं ठाणपयवत्तब्बया भाणियब्वा' इति, 'अवशेषाणां नागX कुमारराजश्यतिरिक्तानां वेणुदेवादीनां महाघोषपर्यवसानानां स्थानाण्यप्रज्ञापनागतद्वितीयपदक्तव्यता भणितम्या, सा चैवम्-"कहि | मीण भंते ! सुबन्नकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णता? कहिण भंते! सुवण्णकुमारा देदा परिवसंति ?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उपरि एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेढाबि एगं जोयणसहस्सं बजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयस हस्से, एस्थ णं सुवष्णकुमाराणं देवाणं वायत्तरी भवणावाससयसहस्सा भवतीतिमक्खाय, ते गं भवणा बाहिं वहा जाय पडिरूवा, एत्थ णं सुवण्णकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता, तत्थ णं बहये सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति महिडिया सेसं जहा ओहियाणं जाब विहरंति, वेणुदेये वेणुदाली एत्य दुवे सुवष्णकुमारिंदा सुवण्णकुमाररायाणो परिवसंति महिडिया जाब विहरति । कहिणं भंते ! दाहि18| णिलाणं सुषण्णकुमाराणं भवणा पण्णता ? कहि णं भंते ! वाहिणिल्ला सुवष्णकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उयरिं एर्ग जोयणसयसहस्सं ओगाहित्ता हेवा गं जोयणसहस्सं बजेता मझे अट्ठहत्तरे ~342~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२० ] दीप अनुक्रम [१५८] "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) उद्देशकः [(देव)]. श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १७० प्रतिपत्तिः [3], मूलं [ १२० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... .....आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ........ - जोयणस्यसहस्से, एत्थ णं वाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं अत्ती भवणावास सय सहस्सा भवतीतिक्वायं, ते णं भवणा वाहिं वहा जाय पडिहवा, एत्य णं दाद्दिणिहाणं सुवण्णकुमाराणं भवणा पण्णत्ता, एत्थ णं बहवे दाहिना सुवण्णकुमारा परिवसंति, वेणुदेवे एस्य सुवण्णकुमारिंदे सुवण्णकुमारराया परिवसति महिडिए जात्र पभासेमाणे, से णं तत्थ अट्ठत्तीसाए भवणावासलयसहस्ताणं जाव विहरति ।" पर्यद्वक्तव्यताऽपि धरणवन्निरवशेषा वक्तव्या । 'कहि णं भंते! उत्तरिहाणं सुवण्णकुमाराणं भवणा पन्नत्ता ? कहि णं भंते! उत्तरिहा सुचण्णकुमारा देवा परिवर्तति ?, गोत्रमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवी जाव मझे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ उत्तरिहाणं सुवण्णकुमाराणं देवाणं चोत्तीसं भवणावास सबसहस्सा भवतीतिनक्खायं, ते णं भवणा वाहि वट्टा जाव पडिरूवा, एत्थ णं बहुवे उत्तरिता सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति महिडिया जाव विहरति, वेणुदाली य एत्थ सुवण्णकुमारिंदे सुवण्यकुमारराया परिवसति महिडिए जाव पभासे ०, (से णं) तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससय सहस्साणं सेसं जहा नागकुमाराणं ।” पर्षेद्वक्तव्यताऽपि भूतानन्दवनिरवशेषा वक्तव्या । यथा सुवर्णकुमाराणां वक्तव्यता भणिता तथा शेषाणामपि वक्तव्या, नवरं भवननानात्वमिन्द्रनानाथं परिमाणनानाखं चैताभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यम् - "चडसट्ठी असुराणं चुलसीई चैव होइ नागाणं वावरिं सुवण्जे वाडकुमाराण छन्न उई || १ || दीवदिसा उदहीणं विज्जुकुमारिद्र्वणि यमग्गी । छपि जुबळयाणं वाबत्तरिमो सयसहस्सा ॥ २ ॥ चोत्तीसा १ चोयाला २ अ. छत्तीसं ३ च सयसहस्साई । पण्णा ४ चत्तालीसा १० दाहिणतो होंति भवणाई || ३ || तीसा १ चत्तालीसा २ चोत्तीसं ३ चैव सबसहस्साई । छायाला ४ छत्तीसा १० उत्तरतो होंति भवणाई || ४ || नमरे १ धरणे २ तह वेणुदेव ३ हरिकंत ४ अग्गिसी ५ य। पुण्णे ६ जलकंते या अभिए ८ लंबे व ९ घोसे य १० || ५ || बलि १ भूयानंदे २ वेणुदालि ३ हरिस्सह ४ अग्गिमाणव For P&Peale City ܕ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 343 ~ ३ प्रतिपत्ती देवाधि कारः उद्देशः १ सू० १२० ॥ १७० ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२० ] दीप अनुक्रम [१५८] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(देव०)], मूलं [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः ५ बिसि ६ । जछप्पन अभियवाण ८ पभंजणे ९ चैत्र महघोसे १० || ६ || चउसट्ठी सही खलु छब सहस्सा उ अमुरवजाणं सामाणिया उ एए चउरगुणा आयरक्खा ॥ ७॥” पर्षद्रकस्यताऽपि दाक्षिणात्यानां धरणवत्, उत्तराणां भूतानन्दवत् तथा चाह “परिसाओ सेसाणं भवणवणं दाहिगिहाणं जहा धरणस्स, उत्तरिहाणं जहां भूयानंदस्से "ति । तदेवं भवन (पति) वक्तव्य तोता, सम्प्रति बानमन्तरवव्यतामभिधित्सुराह--- कहि णं भंते! वाणमंतराणं देवाणं भवणा (भोमेजा नगरा) पण्णत्ता?, जहा ठाणपदे जाव विहरति ॥ कहि णं भंते! पिसावाणं देवाणं भवणा पण्णता?, जहा ठाणपदे जाव विहरति कालमहाकालाय तत्थ दुवे पिसायकुमाररायाणो परिवसंति जाब बिहरंति, कहि णं भंते! दाजिल्ला पिसाकुमाराणं जाव विहरंति काले य एत्थ पिसायकुमारिंदे पिसायकुमारराया परिवसति महहिए जाव विहरति ॥ कालस्व णं भंते! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो कति परिसाओ पण्णत्ताओ?, गोषमा ! निष्णि परिसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-ईसा तुडिया ददरहा, अभितरिया ईसा मजिशमिया तुडिया बाहिरिया दढरहा । कालस्स भंते! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो अभितरपरिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्ण ताओ? जाव बाहिरियाए परिसाए कई देविसया पण्णत्ता?, गो० कालस्स णं पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमार रायस्स अतिरियपरिसाए अटु देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ममिपरि वाणव्यन्तर- देवानां भेद-प्रभेदाः एवं विविध विषयाधिकारः For P&False Cnly ~344~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२१ ] दीप अनुक्रम [१५९] उपांगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(देव०)], मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १७१ ॥ "जीवाजीवाभिगम" साए दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ बाहिरियपरिसाए बारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ अभितरियाए परिसाए एवं देविसतं पण्णत्तं मज्झिमियाए परिसाए एवं देविसतं पण्णत्तं बाहिरि या परिसाए एवं देविसतं पण्णत्तं । कालस्स णं भंते! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं केयतियं कालं किती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? जाव बाहिरियाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! कालस्स णं पिसायकुमारिंदस्स farmarrot नंतर परिसाए देवाणं अपओिवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परि० देवाणं देणं अपलिओ मंठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परि० देवाणं सातिरेगं चभागपदिओवमं टिती पण्णत्ता, अभंतरपरि० देवीणं सातिरेगं च भागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमपरि० देवीणं चभागपलिओयमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरपरिसाए देवीणं देणं - भागपलिओ मंठिती पण्णत्ता, मज्झिमपरिसाए देवीणं चभागपलिओमं दिती पण्णत्ता, बाहिरपरिसाए देवीणं देणं चउन्भागपतिओवमं किती पण्णत्ता, अट्ठो जो चेव चमरस्स, एवं उत्तरस्सवि, एवं निरंतरं जाव गीयजसस्स ॥ ( सू० १२१ ) 'कहि णं भंते! वाणमंतराणं देवाणं भोमेज्जा नगरा पण्णत्ता?" क भदन्त ! बानमन्तराणां देवानां भौमेयानि नगराणि प्रज्ञ For P&Pealise Cly अत्र मूल - संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् Ja Edmon - ~ 345~ बुद% ३ प्रतिपत्तौ देवाधिकारः उद्देशः १ सू० १२१ ॥ १७१ ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------- ----------- उद्देशक: [(देव०)], ---- ------- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - 4 - प्रत * - * सूत्रांक [१२१] - दीप अनुक्रम [१५९] सानि', 'जहा ठाणपदे जाव विहरंति' इति, यथा स्थानाख्ये प्रज्ञापनायां द्वितीये पदे तथा वक्तव्यं यावद्विहरन्तीति, तथैर्व-गोकायमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रथणामयस्स कंडस जोयणसहस्सबाहजस्स उबरि एगं जोयणसय ओगाहेत्ता हेट्ठावि एग जोयराणसयं बजेत्ता मज्ने अढसु जोयणसएसु, एत्थ णं वाणमन्तरार्ण तिरियमसंखेजा भोमेजा नगरावाससयसहस्सा भवतीतिगक्खायं, ने भोमेजा नगरा बाहिं बहा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरफरिणयासंठाणसंठिया उकिणतरविउलगंभीरखायपरिहा पागारहालयकवाहाडतोरणपडिदुबारदेसभागा अंतसयग्धिमुसलमुसुंद्विपरियरिया अयोज्झा सयाजया सयागुत्ता अडयालकोहरदया अडयालकववणमाला हाखेमा सिवा किंकरामरदंडोवर क्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदरदिनपंचंगुलितला उबचियचंदणकलसा चंदणधडसु कयतोरणपदिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलबट्टबग्घारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमुगापुएफपुंजोययारफलिया कालागुरुपवरकुन्दुरुकालुरुकधूवमघमघेतर्गधुद्धयाभिरामा सब्बरवणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निर्णकाच्छाया सप्पभा समिरीया समोया पासाईवा दरसणिज्जा अभिरूवा पडिरुवा, एत्थ णं पाणमंतराणं देवाणं भोमेजा नगरा पपण ता, तत्थ णं वहवे वाणमंतरा देवा परिवसंति, जहा-पिसाया भूया जक्खा रक्खसा किंनरा किंपुरिसा भुयगपतिणो महाकाया गंधवगणा य निधणगंधब्बगीयरमणा अणपन्नियपणपन्निय इसिवाइय भूयबाइव कंदिय महाकं दिया य कुहंडपयंगदेवा चंचलचवलचि-1 पत्तकीलण पिया गहिरहसियगीयणचणरई वणमालामेलम उष्टकुंडलसक्छंदविउव्वियाभरणचारुभूसणधरा सम्बोउयसुरहि कुसुमरइयपलं सोहंतकंतवियसंतचित्तवणमालरइयवच्छा कामकामा कामरूबदेहधारी नाणाबिबण्णरागवरवत्थचिल्ललगनियंसणा विषिहदेसनेवत्थगहियवेसा पमुइयकंवप्पकलहकेलिकोलाहलप्पिया हासबोलबहुला असिमोग्गरसत्तिहत्था भणेगमणिरयणविविह (निजुत्त) चित्तचिंधगया ~346~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम [१५९] श्रीजीवा- सुरूवा महिड़िया महायसा जाव महासोक्खा हारविराइयवच्छा जाब दस दिसाओ उजोवेमाणा पभासेगाणा, ते णं तत्थ साणं साणं 8 प्रतिपच्ची जीवाभि० भोमेष्णनगरायाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहसीणं साणं साणं अगमहिसीणं साणं साणे परिसाणं साणं साणं अणीयाणी देवाधिमलयगि-1 साणं २ अणीयाहिवईणं सास साणं भावरक्सदेवसाहस्सीण, अन्नेसि च वहूर्ण पाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाब मुंज- II कारः रीयावृत्तिः माणा विहरति" प्रायः सुगर्म, नवरं 'भुयगवइणो महाकाया' इति, महाकाया--महोरगाः, किंविशिष्टाः' इत्याह-भुजगपतयः, 'गन्ध- उद्देशः१ दवंगणाः गन्धर्वसमुदायाः, किंविशिष्टाः' इत्याह-निपुणगन्धर्वगीतरतयः' निपुणा:-परमकौशलोपेता एवं गन्धर्वा-गन्धर्वजातीया सू०१२१ ॥१७२॥ देवास्तेषां यद् गीतं तत्र रतियेषां ते तथा, एते ब्यन्तराणामष्टौ मूलभेदाः, इमे चान्येऽवान्तरभेदा अष्टौ-'अणपन्निय'इत्यादि, कथम्भूता एते पोडशापीत्यत आह-'चंचलचवलचित्तकीलणदवप्पिया' चञ्चला-अनवस्थितचित्तास्तथा चलचपलम्-अतिशयेन चपलं यचित्र-नानाप्रकारं कीडनं यश्च चित्री-जानाप्रकारो द्रय:-परिहासस्ती पियौ येषां ते चलचपलचित्रक्रीडनद्रवप्रियाः, ततश्चचालशब्देन विशेषणसमासः, तथा 'गहिरहसियगीयनच्चणरई' इति गम्भीरेषु हसितगीतनर्त्तनेषु रतिषेपां ते तथा, तथा 'वणमालामेडमजलकुंड लसच्छंदविउब्धियाभरणभूसणधरा' इति बनमाला-धनमालामयानि आमेलमुकुटकुण्डलानि, आमेल:-आपीडशब्दस्य प्राकृतलक्षदणयशाद् आपीड:-शेखरकः, तथा स्वच्छन्द विकुर्वितानि यानि आभरणानि तैर्यचार भूपर्ण-मण्डनं तद्धरन्तीति वनमालाऽऽपीडमु कुटकुण्डलस्वच्छन्दविकुर्विताभरणचारभूषणधराः, लिहादिलादच् , तथा सर्व कै:-सर्वर्तुमाविभिः सुरभिकुसुमैः सुरचिता:-शोभनं 15| निर्तिताः तथा प्रलम्बत इति प्रलम्बा शोभत इति शोभमाना कान्ता-कमनीया विकसन्ती-अमुकुलिता अम्लानपुष्पमयी चित्रा- ॥१७२। नानाप्रकारा वनमाला रचिता बक्षसि यैस्ते सर्व कसुरभिकुसुमरचितप्रलम्बशोभमानकान्तविकसचित्रवनमालारचितवक्षसः, तथा कामं | अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~347~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव)], -------------------- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत हा-खेरछया गमो थेषां ते कामगमा:-खेच्छाचारिणः, कचित् 'कामकामाः' इति पाठः, कामेन-खेपछया कामो-मैथुनसेवा थेषां ते K कामकामा अनियतकामा इत्यर्थः, तथा कार्म-खेच्छया रूपं येषां ते कामरूपास्ते च ते देहाश्व कामरूपदेहातान् घरन्तीत्येवंशीला कामरूपदेहधारिणः, खेच्छाविकुर्चितनानारूपदेहधारिण इत्यर्थः, तथा नानाविधैर्वण रागो-रक्तता येषां तानि नानाविधवर्णरागाणि || हावराणि-प्रधानानि चित्राणि-नानाविधानि अद्भुतानि वा (वस्त्राणि) चेहलकानि-देशीवचनाद् देदीप्यमानानि नियंसर्ण-परिधानं येषां ते | नानाविधवर्णरागवरयाचेहलकनिवसनाः तथा विविधैर्देशनेपथ्येहीतो बेपो यैस्ते विविधदेशनेपध्यगृहीतवेपाः, 'पमुइयकंदप्पक लहकेलिकोलाहलप्पिया' कन्दर्पः-कामोद्दीपनं वचनं चेष्टा च कलहो-राटि: केलि:-क्रीडा कोलाहलो-चोल: कन्दर्पकलहकेलिकोहालाहलाः प्रिया येषां ते कन्दप्र्पकलहकेलिकोलाहलभियाः, तत: प्रमुदितशब्देन सह विशेषणसमासः, 'हासबोल बहुला' इति हास-18 बोलौ बहुलो-प्रतिप्रभूती येषां ते हासबोलबहुलाः, तथाऽसिमुद्रशक्तिकुन्ता हस्ते येषां ते असिमुद्रशक्तिकुन्तहस्ताः, 'प्रहरणात् सप्तमी चेति सप्तम्यन्तस्य पाक्षिकः परनिपातः, 'अणेगमणिरयणविविहनिजुत्तचित्तचिंधगया' इति, मणयः-चन्द्रकान्ताद्या रत्नानिकतनादीनि अनेकर्मणिरत्नविविध-नानाप्रकार नियुक्तानि विचित्राणि-नानाप्रकाराणि चिह्नानि गतानि-सितानि येषां ते तथा शेष प्राग्वत् ।। 'कहि णं भंते ! पिसायाणं देवाणं भोमेज्जा नगरा पण्णता? क भवन्त ! पिशाचानां देवानां भौमेयानि नगराणि प्रज्ञप्तानि ? इत्यादि, 'जहा ठाणपदे जाव विहरति' यथा प्रज्ञापनायां स्थानारये पदे तथा वक्तव्यं यावद्विहरन्तीति पदं, तोवं"कहि णं भंते ! पिसाया देवा परिबसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबालम्स उवरि एग जोवणसयं ओगाहेत्ता हेटा गं जोवणसयं वजेत्ता मञ्झे अहसु जोयणसएसु, पत्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेना भोमेजन ESCAKC- सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम [१५९] सर ~348~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम [१५९] प्रतिपत्तिः [3], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशकः [(देव)]. मूलं [ १२१ ] .....आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १७३ ॥ .......... गरावाससयसहस्सा भवतीति मक्खायं, ते णं भोमेजनगरा वाहिं बट्टा जो ओहिओ भोजनगरवण्णतो सो भाणियन्वो जान पडिरूवा, एत्थ णं पिसायाणं भोमेज्जनगरा पण्णत्ता, तत्थ णं बहुवे पिसाया देवा परिवर्तति महिड्डिया जहा ओहिया जाव विहति" सुगर्म, "काल महाकाला य एत्थ दुबे पिसाईदा पिसायरायाणो परिवसंति महिडिया जाब बिहरंति, कहि णं भंते! दाहिणिहाणं पिसा वाणं भोगेजा नगरा० चाहिं बट्टा जो ओहिओ भोमेजनगरवण्णतो सो भाणियच्च जान पहिरुवा, एत्थ णं पिसायाणं भोमेनगरा पण्णत्ता कहि णं भंते! दाद्दिजिल्ला पिसाया देवा परिवसंति ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाष पुढवीए रयणामयरस कंडस्स जोयणसहस्सवादहस्स उवरिं एवं जोयणसयं ओगाहेत्ता हावि एगं जोवणसयं वजेत्ता मध्झे अट्ठसु जोयणसएस एस्थ णं दाहिणिहाणं पिसायाणं देवाणं भोमेजा नगरा पण्णत्ता, तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति महिडिया जाय विहरति काले व तत्थ पिसाईदे पिसायराया परिवसति महिड्डिए जाब पभासेमाणे, से णं तत्व तिरियमसंखेजाणं भोमेज्जनगरावास सवसहस्ताणं चउन्हें सामाणियसाहस्तीणं चउन्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिहूं परिमाणं सत्तण्डं अणियाणं सत्तण्डं अणियादिवईणं सोलसन्हं आयरक्खदेवसाहस्तीर्ण अन्नेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं वाणमन्तराणं देवाणं देवीण य आहेवचं जाव विहरति" पाठसिद्धं ॥ सम्प्रति पर्यनिरूपणार्थमाह- 'कालरस णं भंते! पिसायदस्स पिसायरनो कति परिसाओ प ण्णत्ताओ ?, गोयमा ! तिष्णि परिसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-ईसा तुडिया दढरहा अभितरिया ईसा' इत्यादि सर्व प्राग्वत्, नवरमत्राभ्यन्तरिकायामष्टो देवसहस्राणि मध्यमिकायां दृश देवसहस्राणि बाह्यायां द्वादश देवसहस्राणि तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्यदि एकं देवीशतं मध्यमिकायामप्येकं देवीशतं वाह्यायामध्येकं देवीशतं अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां स्थितिरपल्योपमं मध्यमिकायां देशोनमर्द्ध For P&P Cy अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 349~ ३ प्रतिपत्तौ देवाधिकार: उद्देशः १ सू० १२१ ॥ १७३ ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ..............--- उद्देशक: (देव)], .............------- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत NON सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम [१५९] सपल्योपमं वासायां सातिरेकचतुर्भागपल्योपमं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां सातिरेक चतुर्भागपल्योपमं मध्यमिकायां चतुर्भाग-1 पस्योपमं वाहायां देशोनं चतुर्भागपल्योपमं, शेष प्राग्बत् । “कहि भंते! उत्तरिहाणं पिसायाणं भोमेजा नगरा पण्णता ?, कहिण भंते ! उत्तरिहा पिसाया देवा परिवसंति ?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे जहेब दाहिणिल्लाणं वत्तञ्चया तहेब उत्तरिल्लाणंपि, नवरं मन्दरस्स उत्तरेणं, महाकाले इत्य पिसाईदे पिसायराया परिवसति जाब विहरति" पाठसिद्ध, पर्षद्वक्तव्यताऽपि कालवन् , "एवं जहा पिसायाणं तहा भूयाणवि जाव गंधब्वाणं नवरं इंवेसु नाणत्तं भाणियवं, इमेण विहिणा-भूयाणं सुरूवपडिरूजा, जक्खाणं पुण्णभद्दमाणिभद्दा, रक्खसाणं भीसमहाभीमा, किंनराणं किंनरकिंपुरिसा, किंपुरिसाणं सप्पुरिसमहापुरिसा, गहोरगाणं अइकायमहाकाया, गंधब्वाणं सगीयरईगीयजसा-काले य महाकाले सुरूवपडिरूयपुण्णभद्दे य । अमरवइमाणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे ॥ १॥ किंनर किंपुरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे । अइकायमहाकाए गीयरई व गीयजसे ॥ २॥" सुगमम् , पर्षद्वक्तव्यताऽपि कालवनिरतरं वक्तण्या यावद्गीतयशसः ॥ तदेवमुक्ता वानमन्तरवक्तव्यता सम्प्रति ज्योतिष्काणामाह कहि णं भंते ! जोइसियाणं देवाणं विमाणा पणता? कहि णं भंते ! जोतिसिया देवा परिवसंति?, गोयमा! उपि दीवसमुदाणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुत्समरमणिलातो भूमिभागातो सत्तणउए जोपणसते उखु उप्पतित्सा दसुत्तरसया जोयणबाहल्लेणं, तत्थ ण जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेजा जोतिसियविमाणावाससतसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, ते णं विमाणा अद्धकविहकसंठाणसंठिया एवं जहा ठाणपदे जाच चंदमसूरिया य तत्व णं जोतिसिंदा जोतिसरायाणो ज्योतिष्क-देवानां भेद-प्रभेदा: एवं विविध-विषयाधिकार: ~350~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(देव०)], -------------------- मूलं [१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभिः मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [१२२] ॥१७४॥ दीप अनुक्रम [१६०] परिवति महिहिया जाव विदरंति ॥ सूरस्सणं भंते ! जोतिसिंदस्स जोतिसरणो कति प- ३ प्रतिपत्तौ रिसाओ पण्णसाजो?, गोयमा! तिपिण परिसाओ पण्णताओ, जहा-तथा तडिया पेचा, देवाधिअम्भितरया तुंबा मज्झिमिया तुडिया बाहिरिया पेचा, सेसं जहा कालस्स परिमाणं, ठितीवि । | कारः अहो जहा चमरस्ल । चंदस्सवि एवं चेव ।। (सू०१२२) उद्देशः१ 'कहि ण भंते! जोइसियाण'मित्यादि, क भदन्त ! ज्योतिप्कानां देवानां विमानानि प्रशतानि ? क भदन्त ! ज्योतिका देवाः सू०१२२ परिवसन्ति ?, भगवानाह-गौतम! अस्या रसप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिभागाद् रुचकोपलक्षितात् 'सप्तनवतिशतानि सप्तनवत्यधिकानि योजनशतान्यूईमुत्तुस-बुझाऽतिक्रम्य दशोत्तरयोजनशतबाहल्ये तिर्यगसहयेयेऽसलवेययोजनकोटीकोटीप्रमाणे ज्योतिविषये 'अत्र' एतस्मिन् प्रदेशे ज्योतिष्काणां देवानां तिर्यगसबे यानि ज्योति कविमानशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपैश्च तीर्थकगिः, तानि च विमानान्यकपित्थसंस्थानसंस्थितानि, अत्राक्षेपपरिहारौ चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकाया सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां सङ्ग्रहणिटीकायां चाभिहिताविति ततोऽवधार्यो, 'सबफालियामया' सर्वात्मना स्फटिकमयानि सर्वस्फटिकमयानि 'जहा ठाणपदे जाव चंदम-| सूरिया एस्थ दुवे जोइसिंदा जोइसरावाणो परिवसंति महिड्डिया जाब बिहरंति' यथा प्रज्ञापनायां स्थानाख्ये द्वितीये पदे तथा वक्तव्यं । यावचन्द्रसूर्यो, द्वावन ज्योतिष्येन्द्रौ ज्योतिष्कराजानी परिक्सतस्ततोऽप्यूई यावद्विहरन्तीति, एतवं-अभुग्गयभूसियपहसिया || ॥१७४।। इव विविहमणिकणगरयणभत्तिचित्ता वाउद्धय विजयवेजयंतीपडागछत्तातिछत्तकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघमाणसिहरा जालंतररयणा | पंजरुम्मिल्लियव्य मणिकणगथूभियागा वियसियसबवत्तपोंडरीया तिलगरवणचंदचित्ता नाणामणिमयदामालंकिया अंतो यहि च अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~351~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], .........---------------- उद्देशक: [(देव०)], ------------------- मूलं [१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२२] दीप अनुक्रम [१६०] सहा तवणिजरुइलवाछुयापत्थडा सुहफासा सस्सिरीया सुरुवा पासाईया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा, एत्थ णं जोइसियाण विमाणा | |पण्णत्ता, एत्थ णं जोइसिया देवा परिवसंति, तंजहा-बिहस्सती चंदसूरा सुकसणिच्छरा राहू धूमकेउबुहा अंगारका तत्तत्तवणिज्जकणगवण्णा जया तहा जोइसंमि चारं चरंति केऊ य गइरतीया अट्ठावीसइविहा य नक्खत्तदेवगणा नाणासंठाणसंठिया य पंचवण्णा य | तारगाओ ठियलेसाचारिणो अविस्साममंडलगई पत्तेयनामंकपायडियपिंधमउद्धा महिडिया जाव पभासेमाणा, सेणं तत्थ साणं साणं | विमाणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं| अणियाण साणं साणं अणियाहिबईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीण, अन्नेसिं च बहूणं जोइसियाणं देवाणं देवीण य आहेबर्थ | है। | जाव विहरति, चंदिमसूरिया य एत्थ दुवे जोइसिंदा जोइसियरायागो परिवसंति महिडिया जाव पभासेमाणा, ते गं तत्थ साणं साणं | जोइसियविमाणावाससयसहस्साणं चउण्हं चउई सामाणियसाहस्सीण चउहं चउण्हं अगमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्डं परिसाणं सत्तहँ अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिबईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च बहूर्ण जोइसियाणं देवाणं देवीण य आहेबच्चं | जाब विहरंति" इति, अभ्युद्ता-आभिमुण्येन सर्वतो गता उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा-दीप्तिस्तया सितानिधवलानि अभ्युदतोत्सृतप्रभासितानि, तथा विविधानां मणिकनकरजानां या भक्तयो-विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्राणि-आश्चर्यभूतानि [विविधमणिकनकभक्तिचित्राणि, 'वाउद्धयविजयवेजयंतीपागच्छत्तातिच्छत्तकलिया' वातोद्धृता-वायुकम्पिता विजय:--अभ्युदय-[R स्तत्संसूचिका वैजयन्त्यभिधाना या: पताकाः, अथवा विजय इति वैजयन्तीनां पार्थकर्णिका उच्यन्ते तत्मवाना वैजयन्यो विजयजयन्त्यः-पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः छत्राविच्छत्राणि-उपर्युपरि स्थितानि छत्राणि तैः कलितानि वातोबूतविजयवैजयन्दी-| EXCHERY जी०च०३० lation ~ 352~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२२ ] दीप अनुक्रम [१६०] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र -३ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(देव०)], मूलं [१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १७५ ॥ पताकाछत्रातिच्छत्रकलितानि 'तुङ्गानि' उच्चानि, तथा गगनतलम् - अम्बरतलमनुलिखन् - अभिलङ्घयन शिखरं येषां तानि गगनतलालिखच्छिखराणि, तथा जालानि - जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोकप्रतीतानि तदन्वरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तानि जालान्तररनानि तथा पञ्जराद् उन्मीलितवद् यथा हि किल किमपि वस्तु पञ्जराद्-वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद् वहिष्कृतमत्यन्तमनष्टच्छायत्वात् शोभते तथा ताम्यपि विमानानीति भाव:, तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तूपिका- शिखरं येषां तानि मणिकनकस्तूपिकानि, ततः पूर्वपदाभ्यां सह विशेषणसमासः, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादिषु प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकाश्च भित्रयादिषु पुण्ड्राणि रत्नमयाचार्द्धचन्द्रा द्वारादिषु तैश्वित्राणि विकसितशतपचपुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्र चित्राणि, तथा नानामणिमयीभिर्दामभिरलङ्कृतानि नानामणिमयदामालङ्कृतानि तथाऽन्तर्वहिश्र लक्ष्णानि - मसृणानि, तथा तपनीयं सुवर्णविशे| स्तन्मय्या रुचिराया वालुकायाः सिकतायाः प्रस्तरः- प्रवरो येषु तानि तपनीयरुचिरबालुकाप्रस्तटानि, तथा सुखस्पर्शानि शुभस्पशनि वा शेषं प्राग्वद् यावद् 'बहस्सइचंदा' इत्यादि, बृहस्पतिचन्द्रसूर्यशुक्रशनैश्वर राहुघूमकेतुयुधाङ्गारकाः तप्ततपनीय कनकवर्णाःईषत्कनकवर्णाः, तथा ये महा ज्योतिष्के ज्योतिश्चक्रे चारं चरन्ति केतवः ये च वाह्यद्वीपसमुद्रेष्यगतिरतिका: ये चाष्टाविंशतिविधा नक्षत्रदेवगणास्ते सर्वेऽपि नानाविधसंस्थानसंस्थिताः पशब्दात्तप्ततपनीय कनकवर्णाश्च, तारकाः पञ्चवर्णाः, एते च सर्वेऽपि स्थितलेश्या -अवस्थिततेजोलेश्याकाः, तथा ये चारिणः - चाररतास्तेऽविभागमण्डलगतिकाः, तथा सर्वेऽपि प्रत्येकं नामाङ्केन- स्वस्वनामाङ्कपातेन प्रकटितं चिह्नं मुकुटो येषां ते प्रत्येकं स्वनामाङ्कप्रकटितमुकुट चिह्नाः किमुक्तं भवति ?- चन्द्रस्य स्वमुकुटे चण्द्रमण्डलं लाञ्छनं खनामाकप्रकटितं सूर्यस्य सूर्यमण्डलं ग्रहस्य ग्रहमण्डलं नक्षत्रस्य नक्षत्रमण्डलं तारकस्य तारकाकारमिति, शेषं प्राग्वत् ॥ पर्वन्निरूपणार्थमाह For P&Pase Cly अत्र मूल - संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 353~ ३ प्रतिपत्तौ देवाधिकारः उद्देशः १ सू० १२२ ॥ १७५ ॥ y Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२२] दीप अनुक्रम [ १६० ] उपांगसूत्र- ३ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(देव०)], मूलं [१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः "जीवाजीवाभिगम" - 'सूरस्स णं भंते! जोइसिंदरस जोइसरण्णो कइ परिसाओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा ! तिन्नि परिसाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- तुंबा तुडिया पेचा, अभितरिया तथा मज्झिमिया तुडिया बाहिरिया पेचा, सेसं जहा कालस्स, अट्ठो जहा चमरस्स, चन्दस्तवि एवं चैव पाठसिद्धं ज्योतिष्कास्तिर्यग्लोक इति तिर्यगलोक प्रस्तावाद्दीपसमुद्रवतव्यतामाह कहि णं भंते! दीवसमुद्दा? केवइया णं भंते! दीवसमुद्दा ? केमहालया णं भंते । दीवसमुद्दा ? किंसंठिया णं भंते! दीवसमुद्दा ? किमाकार भावपटोयारा णं भंते! दीवसमुद्दा णं पन्नता ? गोयमा ! जंबुद्दीवाइया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणतो एकविहविधाणा वित्थारतो अणेगविधविधाणा दुगुणा गुणे पप्पाएमाणा २ पवित्थरमाणा २ ओभासमाणवीचीया बहुउप्पलपउमकुमुदणिसुभगसोगंधिय पोंडरीय महापोंडरीय सतपत्तसहस्स पत्तपष्फुल्ल केसरोवचिता पत्तेयं प तेयं परमवर वेश्या परिक्खित्ता पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता अस्सि तिरितलोए असंखेला दीवसमुद्दा सयंभुरमणपावसाणा पण्णत्ता समणाउसो ! | (सू० १२३ ) 'कहि णं भंते! दीवसमुद्दा' इत्यादि, 'क' कस्मिन् णमिति वाक्यालङ्कारे 'भदन्त !' परमकल्याणयोगिन् ! द्वीपसमुद्राः प्र शप्ताः ?, अनेन द्वीपसमुद्राणामवस्थानं पृष्टं, 'केवइया णं भंते! दीवसमुद्दा' इति 'कियन्तः कियत्सयाका णमिति वाक्यालङ्कारे | भवन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञता: ?, अनेन द्वीपसमुद्राणां सङ्ख्यानं पृष्ट, 'केमहालिया णं भंते! दीवसमुद्दा' इति किं महानालय आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपो येषां ते महालयाः किंप्रमाणमहालया णमिति प्राग्वद् द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ता: १, किंप्रमाणं द्वीपसमुद्राणां महत्त्वमिति For P&Palle Cinly तृतीय-प्रतिपत्तौ अत्र देवाधिकारः परिसमाप्तः अथ द्विप्-समुद्राधिकारः आरब्धः ~ 354~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------------------------- उद्देशक: [(दविप-समद्र)], ---------------------- मुलं [१२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१६१] श्रीजीवा- भावः, एतेन द्वीपसमुद्राणामायामादिपरिमाणं पृष्टं, तथा 'किंसंठिया णं भंते! दीवसमुदा' इति किं संस्थितं-संस्थानं येषां ते किं- प्रतिपत्ती जीवाभिसंस्थिता णमिति पूर्ववद् भवन्त! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ता: ?, अनेन संस्थानं पप्रच्छ, 'किमागारभावपडोयारा णं भंते! दीवसमुद्दादेवाधिमलयगि-1 पणत्ता' इति आकारभाव:-स्वरूपविशेषः कस्याकारभावस्य प्रत्यवतारो येषां ते किमाकारभावप्रत्यवताराः, बहुलग्रहणाद्वैयधिकरण्ये- कारः रीयावृत्तिः अपि समासः, णमिति पूर्ववद्, द्वीपसमुद्रा: प्रज्ञप्ता:?, किं स्वरूपं द्वीपसमुद्राणामिति भावः, अनेन स्वरूपविशेषविषयः प्रभः कृतः, उद्देशः१ 1 भगवानाह-गोयमे त्यादि, गौतम! जम्बूद्वीपादयो द्वीपा 'लवणादिकाः' लवणसमुद्रादिकाः समुद्राः, अनेन द्वीपानां समुद्राणां । | सू०१२३ ताचाविरुक्तः, एतचापृष्टमपि भगवता कथितमुत्तरत्रोपयोगिलात् गुणवते शिष्यायापृष्टमपि कथनीयमिति ख्यापनार्थ च, 'संठाणतो इत्यादि, 'संस्थानतः' संस्थानमाश्रित्य 'एगविहिविहाणा' इति एकविधि-एकप्रकारं विधानं येषां ते एकविधिविधानाः, एकस्वरूपा इति भावः, सर्वेषां वृत्तसंस्थानसंस्थितत्वाद्, 'विस्तारतः' विस्तारमधिकृत्य पुनरनेकविधिविधाना: अनेकविधानि-अनेकप्रकाराणि विधातनानि येषां ते तथा, विस्तारमधिकृत्य नानास्वरूपा इत्यर्थः, तदेव नागास्वरूपत्वमुपदर्शयति-'दुगुणादुगुणे पडुप्पाएमाणा २ पसावित्थरमाणा' इति, द्विगुणं द्विगुणं यथा भवति एवं प्रत्युत्पद्यमाना गुण्यमाना इत्यर्थः, 'प्रविस्तरन्तः' प्रकर्षण विस्तारं गच्छन्तः, तथाहि-जम्यूद्वीप एक लक्ष लवणसमुद्रो वेलक्षे धातकीखण्डश्चत्वारि लक्षाणीत्यादि, 'ओभासमाणवीचीया' इति अवभासमाना वीचयः-कल्लोला येषां ते अवभासमानवीचयः, इदं विशेषणं समुद्राणां प्रतीतमेव, द्वीपानामपि च येदितव्यं, वेष्वपि इदनदीतडागादिपुर कहोलसम्भवात् , तथा बहुभिरुत्पलपकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रः 'पफल'त्ति प्रफुलै:-विक-IM॥१७६ ।। सितैः 'केसरे'ति केसरोपलक्षितरुपचिता:-उपचितशोभाका बहूत्पलपयकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापौण्डरीकशतपत्रसह अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~355~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१६१] सपत्रप्रफुल्ल केसरोपचिताः, तत्रोत्पलं-गर्दमकं पञ-सूर्यविकासि कुमुदं-चन्द्रविकासि नलिनम्-पद्रक्तं पा सुभगं-पनविशेष: सौगधिकं-कल्हारं पौण्डरीक-सिताम्बुजं तदेव बृहत् महापौण्डरीकं शतपत्रसहस्रपत्रे-पद्मविशेषौ पनसक्याकृतभेदो, 'पत्तेयं २' इति | प्रतिशब्दोऽत्राभिमुख्य लक्षणेनाभिप्रती आभिमुख्ये' इति च समासस्ततो वीप्साविवक्षायां प्रत्येकशब्दस्य द्विवचनं पावरवेदिकापरि-12 क्षिप्ताः प्रत्येकं बनखण्डपरिक्षिप्ताश्च 'सयंभूरमणपजवसाणा' इति जम्बूद्वीपादयो द्वीपा: स्वयम्भूरमणद्वीपपर्यवसाना लवणसमुद्रादयः समुद्राः खयम्भूरमणसमुद्रपर्यवसाना अस्मिन् तिर्यग्लोके यत्र वयं स्थिता असाधेया द्वीपसमुद्राः प्रशता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! इह 'अस्सिं तिरियलोए' इत्यनेन स्थानमुक्तम् , 'असंखेजा' इत्यनेन सयान, 'दुगुणादुगुण मित्यादिना महत्त्वं 'संठाणतों इत्यादिना संखानम् ॥ सम्प्रत्याकारभावप्रत्यवतारं विवक्षुरिदमाह तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे णाम दीचे दीवसमुद्दाणं अम्भितरिए सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूयसंठाणसंठिते चट्टे रह चाकवालसंठाणसंठिते बढे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिते वहे पडिपुत्रचंदसंठाणसंठिते, एक जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिषिण जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणि य सत्तावीसे जोयणसते तिषिण य कोसे अट्ठावीसं च घणुसर्य तेरस अंगुलाई अद्धंगुलकं च किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पपणत्ते॥से णं एकाए जगतीए सव्यतो समंता संपरिक्खित्ते॥ सा णं जगती अट्ठ जोयणाई उडे उच्चत्तेणं मूले बारस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे अह जोयणाई विखंभेणं उपि चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं मूले विच्छिपणा मज्झे संखित्ता उपि तणुया ~356~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [१२४] ॥१७७॥ दीप अनुक्रम [१६२] गोपुच्छसंठाणसंठिता सब्बवइरामई अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिक- प्रतिपत्तौ कडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा ।। साणं | देवाधिजगती एकेणं जालकहएणं सव्यतो समंता संपरिक्खित्ता ॥ से णं जालकडए णं अद्धजोयणं उर्दु कारः उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं सन्चरयणामए अच्छे सण्हे लण्हे (जाव) [घढे मढे णीरए | उद्देशः१ णिम्मले णिप्पंके णिकंकडच्छाए सप्पभे [सस्सिरीए] समरीए सउज्जोए पासादीए दरिसणिजे सू०१२४ अभिरूवे पडिरूवे ॥ (सू०१२४) 'तत्थ ण मित्यादि, 'तत्र' तेषु द्वीपसमुद्रेषु मध्ये 'अयं यत्र वयं वसामो जम्बूद्वीपो नाम द्वीपः, कथम्भूतः ? इत्याह-सर्वद्वीपसमुद्राणां 'सर्वाभ्यन्तरकः' सर्वात्मना-सामस्त्येनाभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तर एव सर्वाभ्यन्तरकः, प्राकृतलक्षणात्स्वार्थे कात्ययः, केषां सर्वात्म-4 नाऽभ्यन्तरकः ?, उच्यते, सर्वद्वीपसमुद्राणां, तथाहि-सर्वेऽपि शेषा द्वीपसमुद्रा जम्बूद्वीपादारभ्यागमाभिहितेन क्रमेण द्विगुणद्विगुणवि-11 |स्तारास्ततो भवति सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरकः, अनेन जम्बूद्वीपस्यावस्थानमुक्तं, 'सब्वखुट्टाग' इति सर्वेभ्योऽपि शेषद्वीपसमुद्रेभ्यः | क्षुल्लको-लघुः सर्वक्षुल्लकः, तथाहि-सर्वे लवणादयः समुद्राः सर्वे च धातकीखण्डादयो द्वीपा जम्बूद्वीपादारभ्य द्विगुणद्विगुणायामविकम्भपरिधयस्ततः शेषद्वीपसमुद्रापेक्षयाऽयं लघुरिति, एतेन सामान्यत: परिमाणमुक्तं, विशेषतस्त्वायानादिगतं परिमाणमो वक्ष्यति, तथा वृत्तोऽयं जम्बूद्वीपो यतस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तैलेन पकोऽपूपस्तैलापूपः, तैलेन हि पकोडयूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो भवति न घृतपक ॥१७७।। इति तैलविशेषणं, तस्वेव यत्संखानं तेन संस्थितस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तोऽयं जम्बूद्वीपो यतो 'रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितः अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् जम्बुद्वीपस्य अधिकार: ~ 357~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२४] दीप अनुक्रम [१६२] हारथस्य-रथाङ्गस्य चक्रस्यावयवे समुदायोपचाराच्चक्रवालं-मण्डलं तस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितो रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितः, एवं वृत्तः पुष्करकणिकासंस्थानसंस्थितः पुष्करकर्णिका-पद्मवीजकोशः वृत्त: परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः पदद्वयं भावनीयम् , एलेन जम्बूहै द्वीपस्य संस्थानमुक्तम् ।। सम्प्रत्यायामादिपरिमाणमाह-एक णमित्यादि, एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन, आयामश्च विष्क म्भश्च आयामविष्कम्भ, समाहारो द्वन्द्वः, तेन, आयामेन विष्कम्भेन चेत्यर्थः, त्रीणि बोजनशतसहस्राणि पोडश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तविंशत्यधिके त्रयः क्रोशा अष्टाविंशम्-अष्टाविंशत्यधिक धनु:शतं त्रयोदशाङ्गुलानि अङ्गुिलं च किञ्चिद्विशेषाधिकमित्येतावान् | परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, इदं च परिक्षेपपरिमाणं 'विक्संभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होइ ।' इति करणवशाखयमानेतव्यं क्षेत्रसमासटीका वा परिभावनीया, तत्र गणितभावनायाः सविस्तरं कृतत्वात् ।। सम्प्रत्याकारभावप्रत्यवतारप्रतिपादनार्थमाह-'से ण'मि त्यादि, 'सः' अनन्तरोक्तायामविष्कम्भपरिक्षेपपरिमाणो जम्बूद्वीपो णमिति वाक्यालङ्कारे एकया जगत्या सुनगरप्राकारकल्पया 'सपार्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन 'संपरिक्षिप्तः' सम्बग्वेष्टितः ॥ 'साणं जगई इत्यादि, सा च जगती ऊर्चम-उच्चैस्खे नाष्टी योजनानि मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन मध्ये ऽष्टौ उपरि चत्वारि, अत एव मूले विष्कम्भमधिकृत्य विस्तीणों, मध्ये संक्षिप्ता त्रिभागोनत्वात् , उपरि तनुका, मूलापेक्षया त्रिभागमात्रविस्तारभावात् , एतदेवोपमया प्रकटयति-गोपुच्छसंठाणसंठिया गोपुच्छस्व संस्थानं गोपुच्छसंस्थानं तेन संस्थिता गोपुच्छसंस्थानसंस्थिता ऊकृतगोपुच्छाकारा इति भावः, 'सब्बवइरामई' सर्वो| सना-सामस्त्येन वनमयी-बअरमालिका 'अच्छा' आकाशस्फटिकवदतिस्वच्छा ‘सण्हा लण्हा' लक्ष्या-क्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्ना श्ललक्षणदलनिष्पन्नपटवत् 'लण्हा' ममृणा घुण्टितपटवत् 'घवा' घृष्टा इव घृष्टा खरशानया पाषाणप्रतिमावत् 'महा' मृष्टा इष मृष्टा सुकु ~358~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२४] दीप अनुक्रम [१६२ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १२४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १७८ ॥ मारशानया पाषाणप्रतिमावत् 'नीरजा' स्वाभाविकरजोरहितत्वात् 'निर्मला' आगन्तुकमलाभावात् 'निष्पङ्का' कलङ्कविकला कर्दमरहिता वा 'निकंकडच्छाया' इति निष्कङ्कटा निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेति भावार्थः छाया-दीप्तिर्यस्याः सा निष्टाया 'सप्रभा' स्वरूपतः प्रभावती 'समरीचा' बहिर्विनिर्गत किरणजाला, अत एव 'सोद्योता' बहिर्व्यवस्थितयस्तु स्तोमप्रकाशकरी 'प्रा-' सादीया' प्रसादाय मनःप्रसत्तये हिता तत्कारित्वात् प्रासादीया मनःप्रहत्तिकारिणीति भाव: 'दर्शनीया' दर्शनयोग्यायां पश्यतञ्चक्षुषी श्रमं न गच्छत इति 'अभिरुवा' इति अभि-सर्वेषां द्रष्टृणां मनः प्रसादानुकूलतयाऽभिमुखं रूपं यस्याः सा अभिरूपा, अत्यन्तकमनीयेति भावः, अत एव 'प्रतिरूपा' प्रतिविशिष्टम् असाधारणं रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा, अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा | 'सा णं जगती' इत्यादि, 'सा' अनन्तरोदितस्वरूपा णमिति वाक्यालङ्कारे जगती एकेन 'जालकटकेन' जालानि| जालकानि यानि भवनभिचिषु लोकेऽपि प्रसिद्धानि तेषां कटक:-समूहो जालकटको जालकाकीर्णा रम्यसंस्थानप्रदेशविशेषपङ्करिति भाव:, तेन जालकटकेन 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्ता | 'से णं जालकडए' इत्यादि, 'सः' जालकटक ऊर्द्धमुचैरत्वेनार्द्धयोजनं द्वे गव्यूवे विष्कम्भेन पञ्च धनुःशतानि, किमुक्तं भवति ? - जगत्या प्रायो बहुमध्यभागे सर्वत्र जालकानि तानि च प्रत्येकमूर्द्धमुचैस्त्वेन द्वे गव्यूते विष्कम्भतः पञ्चधनुःशतानीति, स च जालकटक: 'सव्वरयणामए' इति सर्वोलना रत्नमय: 'अच्छे सण्हे लहे जाव पडिरूये' इति यावच्छन्दकरणात् 'घट्टे मट्ठे नीरए निम्मले निष्पके निर्वाकये सप्पने समरीए सउज्जोर पासाइए दरिसणिजे अभिरू' इति परिग्रहः, एतेषां [ ग्रन्थानम् ५०००] पदानामर्थः प्राग्वत् ।। तीसे णं जगतीए उपि बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महई पउमवरवेदिया पं०, साणं पडमवरवे For P&Plenty ३ प्रतिपत्तौ देवाधिकारः उद्देशः १ सू० १२५ ~359~ ॥ १७८ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् eatyw Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] दिया अद्भजोयणं उ8 उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं सब्बरयणामए जगतीसमिया परिक्खेवेणं सब्वरयणामई०॥ तीसे णं पउमवरवेइयाए अयमेयारूवे वपणावासे पपणत्ते, तंजहा-बहरामया नेमा रिट्ठामया पइट्ठाणा बेरुलियामया खंभा सुवष्णरुप्पमया फलगा वइरामया संधी लोहितक्खमईओ सईओ णाणामणिमया कलेवरा कलेवरसंघाडा णाणामणिमया रूवा नाणामणिमया रूवसंघाडा अंकामया पक्खा पक्खचाहाओजोतिरसामया वंसा वंसकवेल्या य रययामईओ पहियाओ जातरूवमयीओ ओहाडणीओ बहरामयीओ उवरि पुन्छणीओ सव्वसेए रययामते साणं छादणे ।। सा णं पउमवरवेइया एगमेगेणं हेमजालेणं (एगमेगेणं गवक्खजालेणं) एगमेगेणं खिंखिणिजालेणं जाव मणिजालेणं (कणयजालेणं रयणजालेणं) एगमेगेणं पउमवरजालेणं सब्बरयणामएणं सब्यतो समंता संपरिक्खित्ता ॥ ते णं जाला तवणिजलंबसगा सुवण्णपयरगमंडिया णाणामणिरयणविविहहारहार उपसोभितसमुदया इसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुब्बावरदाहिणउत्तरागतेहिं वाहिं मंदागं २ एजमाणा २ कंपिजमाणा २ लंबमाणा २ पझंझमाणा २ सदायमाणा २ तेणं ओरालेणं मणुपणेणं कण्णमणणेब्बुतिकरणं सद्देणं सब्बतो समंता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उवखोभेमाणा उवा चिटुंति ॥ तीसे णं पउमवरवेड्याए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं यहवे हयसंघाडा गयसंधाडा नरसंघाडा किण्णरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधव्वसंघाडा वसहसंघाडा सब्बर %-15525 दीप अनुक्रम [१६३] *-*-% *- ~360~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रतिपत्तो हा देवाधि प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक उद्देश:१ सू०१२५ [१२५] ॥१७९॥ दीप अनुक्रम [१६३] यणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिकंकडच्छाया सप्पभा समिरिया सउज्जोया पासाईया दरसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे हयपतीओ तहेव जाव पडिरूवाओ । एवं हयवीहीओ जाव पडिरूवाओ। एवं हयमिहुणाई जाव पडिरूवाई। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तस्थ वेसे तहिं तहिं यहवे पउमलयाओ नागलताओ, एवं असोग० चंपग० चूयवण वासंतिक अतिमुत्तग० कुंद. सामलयाओ णिचं कुसुमियाओ जाच सुविहत्तपिंडमंजरिवर्डिसकधरीओ सब्वरयणामईओ सण्हाओ लण्हाओ घटाओ मट्ठाओ णीरयाओ जिम्मलाओ णिपंकाओ णिकंकडच्छायाओ सप्पभाओ समिरीयाओ सउज्जोयाओ पासाईयाओ दरिसणिजाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ ॥ [तीसे णं पउमवरवेझ्याए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे अक्खयसोत्थिया पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा] ॥ से केणद्वेणं (भंते) एवं बुचर-पउमवरवेइया पउमवरवेइया?, गोयमा! पउमवरवेइयाए तस्य तत्थ देसे तहिं तहिं वेदियासु वेतियाबाहासु वेदियासीसफलएसु वेदियापुडंतरेसु खंभेसु खंभवाहासु खंभसीसेसु खंभपुरंतरेसु मईसु सुईमुहेसु सफलएम सईपुढंतरेसु पक्खेसु पक्खवाहासु पक्खपेरंतरेसु बहूई उप्पलाई पउमाई जाव सतसहस्सपत्ताई सव्वरयणामयाई अच्छाई सण्हाई लण्हाई घट्ठाई मट्ठाई णीरयाई णिम्मलाई निप्पकाई निकंकड ॥१७९॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~361~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२५ ] दीप अनुक्रम [१६३ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः च्छाया सप्पभाई समिरीयाई सउज्जोयाई पासादीयाई दरिसणिजाई अभिहवाई पडिवाई महता २ वासिकच्छत्तसमयाई पण्णत्ताई समणाउसो !, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुदइ पउमचरवेदिया २ || पउमचरवेइया णं भंते । किं सासया असासया ?, गोयमा । सिय सासया सिय अ सासया ॥ से केणट्टेर्ण भंते! एवं बुच्चइ - सिय सासवा सिय असासया?, गोयमा ! दव्याए सासता वण्णवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपजवेहिं असासता से तेणट्टेणं गोयमा! एवं बुध - सिय सासता सिघ असासता ॥ पउमवरवेइया णं भंते! कालओ केवचिरं होति ?, गोयमा ! ण कयाचि णासि ण कयावि णत्थि ण कयावि न भविस्सति ॥ भुविं च भवति य भवि स्सति य धुवा नियया सासता अक्खया अब्वया अवट्टिया णिच्चा पउमवरवेदिया || (सू० १२५ ) 'ती से णं जगतीए' इत्यादि, 'तस्याः' यथोक्तरूपाया जगत्या: 'उपरि' उपरितने तले यो बहुमध्यदेशभागः, सूत्रे एकारान्तता | मागधदेशभापालक्षणानुरोधान् यथा 'कयरे आगच्छइ दित्तरुवे?' इत्यत्र, 'एत्थ ण'मिति 'अत्र' एतस्मिन् बहुमध्यदेशभागे णमिति पूर्ववत् महती एका पद्मवरवेदिका प्रज्ञप्ता मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः सा चोर्द्धमुचैस्त्वेनार्द्धयोजनं द्वे गव्यूते पश्च धनुःशतानि विष्कम्भेन 'जगतीसमिया' इति जगत्याः समासमाना जगतीसमा सैव जगतीसमिका 'परिक्षेपेण' परिरयेण यावान् जगत्या मध्यभागे परिरयस्तावान् तस्या अपि परिरय इति भावः, 'सर्वरक्षमयी' सामस्त्येन रखालिका 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं पाठतोऽर्थतश्च प्राग्वत् ॥ 'तीसे ण' मित्यादि, तस्या णमिति पूर्ववत् पद्मवर वेदिकाया: 'अयं वक्ष्यमाण: 'एतद्रूपः' एवंस्वरूपः 'वर्णा For P&False Cinly ~362~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: (दविप-समद्र)], -------------------- मुलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीया- जीवाभि० मलयगि- रीयावृत्तिः प्रत सूत्रांक % [१२५] ॥१८०॥ % -MA वासः वर्ण:--रावा यथावस्थितस्वरूपकीर्तनं तस्यावासो-निबासो प्रन्धपद्धतिरूपो वर्णावासो वर्णकनिवेश इत्यर्थः 'प्रज्ञप्तः' प्ररू- प्रतिपत्ती पितः, तद्यथेत्यादिना तदेव दर्शयति-'बइरामया नेमा' इति नेमा नाम पद्मवरवेदिकाया भूमिभागादूर्द्ध निष्कामन्तः प्रदेशाते देवाधिसवें 'वनमया' वचरनमयाः, धनशब्दस्य दीर्घत्वं प्राकृतत्वान् , एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं, रिष्ठमयानि प्रतिष्ठानानि-मूलपादाः 'वेरुलि- कारः यमया खंभा' इति वैडूर्यरत्नमयाः स्तम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि लोहिताक्षरत्नामिका: सूचयः फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभाव- उद्देशः१ हेतुपादुकास्थानीयास्ते सर्वे 'वाइरामया संधी' पत्रमयाः सन्धयः-सन्धिमेला: फलकानां, किमुक्तं भवति ?-वसरमापूरिताः फलकानां सूख१२६ सन्धयः 'नाणामणिमया कलेवरा' इति नानामणिमयानि कलेवराणि-मनुष्यशरीराणि नानामणिमयाः कलेवरसहाटा-मनुष्यशरीरयुग्मानि नानामणिमयानि रूपाणि-रुपकाणि नानामणिमया रूपसडाटा:-रूपयुग्मानि 'अङ्कामया पक्खा पक्खबाहातो यार इति अहोरनविशेषस्तन्मयाः पक्षास्तदेकदेशाः पक्षवाहयोऽपि तदेकदेशभूता एवाङ्कमयाः, आह च मूलटीकाकार:--"अङ्कमयाः प-14 क्षास्तदेकदेशभूताः, एवं पक्षवाहवोऽपि द्रष्टव्या" इति, 'जोईरसामया बंसा बंसकवेल्ल्या य' इति ज्योतीरसं नाम रनं तन्मया वंशा:-महान्तः पृष्ठवंशा: 'वंशकवेच्या य' इति महतां पृष्ठवंशानामुभयतस्तिर्यक् स्थाप्यमाना वंशाः कवेलुकानि-प्रतीतानि 'रय यामईओ पट्टियाओं' इति रजतमय्यः पट्टिका बंशानामुपरि कम्बास्थानीया: 'जायरूवमईओ ओहाडणीओ' जातरूपं-सुवर्णविX| शेषस्तन्मय्य: 'ओहाडणीओ' अपघाटिन्यः आच्छादनहेतुकम्बोपरिस्थाप्यमानमहाप्रमाणकिलिचस्थानीयाः, 'वइरामईओ उवरिं| छणीओ' इति 'बजमय्यो' बजरत्नामिका अवघाटनीनामुपरि पुन्छन्य:-निविडतरच्छादनहेतुश्मशतरतूणविशेषस्थानीयाः, उक्तं च || मूलटीकाकारेण-"ओहाडणी हीरग्गहणं महत् क्षुल्लकं तु पुञ्छनी इति, 'सब्यसेए रययामए साणं छाणे' इति, सर्वश्वेतं रजतमयं । दीप अनुक्रम [१६३] R % LaEcITH अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम्, यद् सू० १२६ मुद्रितं तद् अपि मुद्रण-दोषः, अत्र सू०१२५ एव वर्तते ~363~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मुलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१६३] पुन्छनीनामुपरि कवेलुकानामध आच्छादनम् ॥ 'साणमित्यादि, 'सा' एवं स्वरूपा णमिति वाक्यालक्कारे पद्मवरवेदिका तत्र तत्र, प्रदेशे एकैकेन 'हेमजालेन' सर्वासना हेममयेन लन्धमानेन दामसमूहेन एकैकेन 'गवाक्षजालेन' गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहेन एकैकेन 'किङ्किणीजालेन' किङ्किण्य:-क्षुद्रघण्टिका: एकैकेन घण्टाजालेन, किङ्किण्यपेक्षया किञ्चिन्महत्यो घण्टा घण्टाः, तथा एकैकेन 'मुक्ताजालेन' मुक्ताफलमयेन दामसमूहेन एकैकेन 'मणिजालेन' मणिमयेन दामसमूहेन एकैकेन 'कनकजालेन' कनकपीतरूपः सुवर्णविशेपस्तन्मयेन दागसमूहेन एकैकेन रबजालेन एकैकेन (वर) पद्मजालेन-सर्वरत्नमयपद्मासकेन दामसमूहेन 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सर्वासु विदिक्षु परिक्षिप्ता, एतानि च दामसमूहरूपाणि हेमजालादीनि जालानि लम्पमानानि वेदितव्यानि, तथा चाह--'ते णं जाला' इत्यादि, तानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्यान् , प्राकृते हि लिङ्गमनियतमिति, णमिति पूर्ववत् हेमजालादीनि कचिन् दामा इति पाठः तत्र ता हेमजालादिरूपा दामान इति व्याख्येयं, 'तवणिज्जलंबूसगा' तपनीयम्-आरक्तं सुवर्ण | तन्मयो लम्बूसगो-दानामप्रिमभागे मण्डनविशेषो येषां तानि तपनीयलम्बूसकानि 'सुवण्णपयरगमंडिया' इति पार्श्वत: सामस्त्येन | सुवर्णप्रतरकेण-सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि, 'नाणामणिरयणविविहहारद्धहार उवसोभियसमुदया' इति नानारूपाणां मणीनां रवानां च ये विविधा-विचित्रवर्णा हारा-अष्टादशसरिका अर्द्धहारा-नवसरिकास्तैरुपशोभित: समुदायो चेपां वानि, तथा 'ईसिमन्नमन्नमसंपत्ता' इति ईपत्-मनाग अन्योऽन्य-परस्परमसंप्राप्तानि-असंलमानि पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैर्वातैः 'मंदार्य मंदार्य' इति मन्दं मन्दम् एज्यमानानि-कम्प्यमानानि 'भृशाभीक्ष्ण्याविच्छेदे द्विः प्राक्तमयादेः' इत्यविच्छेदे द्विवेचनं यथा पचति पचतीत्यत्र, एवमुत्तरत्रापि, ईषत्कम्पनवशादेव च प्रकर्षत इतस्ततो मनाक् चलनेन लम्बमानानि प्रलम्बमाना नि, ततः जी०५०३१ JEscam ~364~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२५ ] दीप अनुक्रम [१६३ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥ १८१ ॥ श्रीजीवा- परस्परसंपर्कवशतः 'पझंझमाणा पझंझमाणा' इति शब्दायमानानि शब्दायमानानि 'उदारेण' स्फारेण शब्देनेति योगः, स च ७ ३ प्रतिपत्ती जीवाभि० * स्फारशब्दो मनःप्रतिकूलोऽपि भवति तत आह- 'मनोज्ञेन' मनोऽनुकूलेन तच मनोऽनुकूललं लेशतोऽपि स्यादव आह- 'मनोहमलयगि- * रेण' मनांसि श्रोतॄणां हरति आत्मवशं नयतीति मनोहरः, 'लिहादे'राकृतिगणत्वादच्प्रत्ययः तेन तदपि मनोहरत्वं कुतः १ इत्याहरीयावृत्तिः कर्णमनोनिर्वृति करेण 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनमिति वचनादू हेतौ तृतीया, ततोऽयमर्थः यतः श्रोतृकर्णयोर्मनसश्च निर्वृतिकरः सुखोत्पादकस्ततो मनोहरस्तेन, इत्थम्भूतेन शब्देन तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् 'सर्वतः' दिक्षु 'सम- * न्ततः विदिक्षु आपूरयन्ति शत्रन्तस्य शाविदं रूपं तत एव 'श्रिया' शोभयाऽतीव उपशोभमानानि उपशोभमानानि तिष्ठन्ति || 'तीसे ण'मित्यादि, तस्याः पद्मवनवेदिकायास्तत्र तत्र देशे २ 'तहिं तहिं' इति तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे, एतावता किमुक्तं भवति ?-यत्र देशे एकस्तत्रान्येऽपि विद्यन्त इति, बहवे 'हयसंघाडा' युग्मानि सङ्गादशब्दो युग्मवाची यथा साधुसङ्घाट इत्र, एवं गजनरकिंनर किंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभसङ्घाटा अपि वाच्याः, एते च कथम्भूताः ? इत्याह- 'सव्वरयणामया' सर्वासना रत्नमया: 'अच्छा' आकाशस्फटिकवदतिस्वच्छा: 'जाव पडिरुवा' इति यावत्करणात् 'सण्हा उण्हा घट्टा मठ्ठा' इत्यादिविशेपणकम्यकपरिग्रहस्तच प्राम्यत् । एते च सर्वेऽपि साटादयः सम्राटाः पुष्पावकीर्णका उक्ताः सम्प्रत्येतेषामेव हयादीनां पङ्कयादिप्रतिपा दनार्थमाह-एवं पंतीओ बीहीओ एवं मिहुणगा' इति यथाऽमीषां हयादीनामष्टानां सम्राटा उक्तास्तथा पङ्कयोऽपि वक्तव्या वीथयोऽपि मिथुनकानि च तानि चैवम् 'तीसे णं पडगवरवेश्याए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहुयाओ पंतीओ गयपतीओ' ॥ १८१ ॥ इत्यादि, नवरमेकस्यां दिशि या श्रेणिः सा पतिरभिधीयते, उभयोरपि पार्श्वयोरेकैक श्रेणिभावेन यच्छ्रेणिद्वयं सा वीथी, एते च वीथी Quer Education For evade & Peru Use Only मनुष्या० पद्मवरचे ~ 365~ दिकाव० उद्देशः १ सू० १२६ brary o अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप् - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् , मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने यत् सू० १२६ मुद्रितं तत् मुद्रण-दोष:, अत्र सू०१२५ एव वर्तते Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] पतिस लाटा हयादीनां पुरुषाणामुक्ताः, साम्प्रतमेतेषामेव हयादीनां स्त्रीपुरुषयुग्मप्रतिपादनार्थ मिहुणाई' इत्युक्तम् , उक्तेनैव प्रकारेण हयादीनां मिथुनकानि स्त्रीपुरुपयुग्मरूपाणि बास्यानि, यथा 'तस्थ तत्थ तहिं २ पैसे देसे बहूई हयमिहुणाई गयमिहुणाई' इत्यादि ।। 'तीसे णमित्यादि, तस्यां णमिति पूर्ववत् पाबवेदिकायां तत्र तत्र देशे २ 'तहिं २' इति तस्यैव देशव तत्र तत्रैकदेशे, अत्रापि तत्थ २ देसे २ तहिं २' इति वदता यत्रैका लता तत्रान्या अपि बलयो छताः सन्तीति प्रतिपादितं द्रष्टव्यं, 'बहुयाओ पउमलप्रयाओ' इत्यादि, बहवः 'पद्मलताः' पद्मिन्यः 'नागलताः' नागा-दुमविशेषाः त एव लतास्तिर्यकशास्त्राप्रसराभावात् नागलवाः, एवमशोकलताश्चम्पकलता वणलता:, चणा:-तरुविशेषाः, वासन्तिकलता अतिमुक्तकलताः कुन्दलता: श्यामलताः, कथम्भूता एता:? इत्याह-'नित्य' सर्वकालं षट्स्वपि ऋतुवित्यर्थः 'कुसुमिताः' कुसुमानि-पुष्पाणि संजातान्यास्थिति कुसुमिताः, तारकादिदर्शनाहा दिवप्रत्ययः, एवं नित्यं मुकुलिताः, मुकुलानि नाम कुड्मलानि कलिका इत्यर्थः निलं 'लवइयाओ' इति पल्लविताः, नित्यं 'थवाइयाओं इति स्तवकिताः, निलं 'गुम्मियाओ' इति गुस्मिताः, स्तबकगुल्मी गो(गु)च्छविशेषौ, नित्यं गुच्छाः, नित्यं यमलं नाम समानजातीययोतयोर्युग्मं तत्संजातमाथिति यमलिताः, नित्यं 'युगलिताः' युगलं सजातीयविजातीययोर्लतयोर्द्वन्द्वं, तथा 'नित्यं सर्वकालं फलभारेण नता-ईपन्नता नित्यं प्रणता-महता फलभारेण दूरं नताः, तथा नित्यं 'मुविभक्ते'त्यादि सुविभक्तिक:-सुविच्छित्तिकः प्रतिवि| शिष्यो मलरीरूपो योऽवतंसकस्तद्धरा:-तद्धारिण्यः । एप सर्वोऽपि कुसुमितलादिको धर्म एफैकस्या एकैकस्या लताया उक्तः, साम्प्रतं कासाभिल्लतानां सकलकुसुमितवादिधर्मप्रतिपादनार्थमाह-निच्चं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियविणमियपदाणमियसुविभत्तपडिमंजरिवर्डसगधरीउ' एताश्च सर्वा अपि लता एवंरूपाः, किरूपा:? इत्याह-सव्वरयणामईओ' सामना[४॥ दीप अनुक्रम [१६३] ~366~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] 8-2-5 दीप अनुक्रम [१६३] श्रीजीवा- रनमव्यः, 'अच्छा साहा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ अधुना पद्मवरवेदिकाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं जिज्ञासुः पृच्छति-'से||३प्रतिपत्तो जीवाभि केणडेणं भंते!' इत्यादि, सेशब्दोऽथशब्दार्थः, अथ 'केनार्थेन' केन कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते-पावरवेदिका पद्मवरवेदिकेति?, केणडे । मनुष्या० मलयगि- हाकिमुक्तं भवति-पद्मवरवेदिकत्येवंरूपस्य शब्दस्य तत्र प्रवृत्तौ किं निमित्तमिति १, एवमुक्ते भगवानाह-गौतम! पनवरवेदिकायां तत्र पद्मवरवे. रीयावृत्तिः तत्र प्रदेशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे 'वेदिकासु' उपवेशनयोग्यमत्तवारणरूपासु 'वेदिकाबाहासु' पेदिकापार्थेषु 'वेड्यापुडतरेसु ॥१८॥ | इति द्वे वेदिके वेदिकापुटं तेषामन्तराणि-अपान्तरालानि वेदिकापुटान्तराणि तेषु, तथा स्तम्भेषु सामान्यतः तथा 'स्तम्भवाहासु' उद्देश:१ स्तम्भपाश्चेषु 'खंभसीसेसु' इति स्तम्भशीपेंषु 'खंभपुडंतरेसु' इति द्वौ स्तम्भौ स्तम्भपुटं तेषामन्तराणि तेषु 'सूचीषु' फलकसम्ब- सू०१२६ न्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयासु तासामुपरीति तात्पर्यार्थः, 'सूइमुहेसु' इति यत्र प्रदेशे सूची फलक भित्त्वा मध्ये प्रविशति | | तत्प्रत्यासन्नो देशः सूचीमुखं तेषु, तथा सूचीफलकेपु-सूचीभिः संबन्धिता ये फलकप्रदेशातेऽप्युपचारात्सूचीफलकानि तेषु सूचीना-18 मध उपरि घ वर्तमानेषु, तथा 'सुईपुडतरेसु' इति द्वे सूच्यौ सूचीपुटं तेपामन्तरेषु, पक्षाः पक्षवाहा-वेदिकैकदेशातेषु बहूनि 'उत्सकलकानि' गर्दभकानि बहूनि 'पमानि' सूर्यविकासीनि बहूनि 'कुमुदानि' चन्द्रविकासीनि, एवं नलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहा-11 पुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्राण्यापि वाच्यानि, एतेषां च विशेषः प्रागेयोपदर्शितः, एतानि कथम्भूतानि ? इत्याह-'सर्वरत्नमयानि सर्वासना रत्नमयानि, 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् 'महयावासिकछत्तसमाणा' इति 'महान्ति' महाप्रमाणानि वापिकाणि-वर्षाकाले यानि पानीयरक्षणार्थ कृतानि तानि वार्षिकाणि तानि च तानि छत्राणि च तत्समानानि च प्रज्ञप्तानि हे श्रमण : ४ हे आयुष्मन् !, 'से एएणोणमित्यादि, तदेतेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते पनवरवेदिका पद्मवरवेदिकेवि तेषु तेषु यथोक्तरूपेषु ॥१८२॥ Jatic अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम्, मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने यत् सू० १२६ मुद्रितं तत् मुद्रण-दोषः, अत्र सू०१२५ एव वर्तते ~367~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- ---------- मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 64550-56 [१२५] दीप अनुक्रम [१६३] प्रदेशेषु यथोक्तरूपाणि पश्यानि पनवरवेदिकाशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमितिभावः, व्युत्पत्तिश्चैव-परावरा पद्मप्रधाना वेदिका पनवरवेदिका पनवरवेदिकेति ।। 'पउमपरवेझ्या णं भंते ! किं सासया?' इत्यादि, पद्मवरवेदिका णमिति पूर्ववत् किं शाश्वती उताशाश्वती!, आवन्ततया सूत्रे निर्देश: प्राकृतवान् , किं नित्या उतानित्येति भावः, भगवानाह-गौतम ! स्यात् शाश्वती स्वादशाश्वती-कथचिन्नित्या कथञ्चिदनियेत्यर्थः, स्वाच्छब्दो निपातः कथञ्चिदित्येतदर्थवाची ॥ 'से केणडेणं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! 'द्रव्यार्थतया द्रव्यास्तिकनयमतेन शाश्वती, द्रव्यास्तिकनयो हि द्रव्यमेव तात्त्विकमभिमन्यते न पर्यायान् , द्रव्यं चान्वयि परिणामित्वाद्, अन्यधा द्रव्यखायोगाद्, अन्वयित्वाच सकल कालभावीति भवति द्रव्यार्थतया शाश्वती, 'वर्णपर्यायैः' तदन्यसमुत्पद्यमानव विशेषरूपरेवं गन्धपर्याय रसपर्याय: स्पर्शपर्यायैः, उपलक्षणमेतत्तदन्यपुद्गलविचटनोचटनैश्वाशाश्वती, किमुक्तं भवति ?-पर्याया-| [स्तिकनयमतेन पर्यावप्राधान्यविवक्षायामशाश्वती, पर्यायाणां प्रतिक्षणभावितया कियत्कालभावितया या बिनाशिवान् , 'से एएणडेण'मित्यादि उपसंहारवाक्यं सुगर्म, इह द्रव्यास्तिकनयवादी स्वमतप्रतिस्थापनार्थमेवमाह-जात्यन्तासत उत्पादो नापि सतो बिनाशो, 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सत' इति वचनान् , यौ तु दृश्येते प्रतिवस्तु उत्पादविनाशौ तदाविर्भावतिरोभावमात्रं यथा| सर्पस्योरफणलविफणत्वे, तस्मात्सर्व वस्तु नित्यमिति । एवं च तन्मतचिन्तायां संशयः-किं घटादिवन्यार्थतया शाश्वती उत्त दासकलकालमेवरूपा? इति, ततः संशयापनोदार्थ भगवन्तं भूयः पृच्छति-पउमवरवेइया ण'मित्यादि, पावरवेदिका णमिति पूर्ववद् 'भदन्त !' परमकल्याणयोगिन् ! 'कियच्चिर' कियन्तं कालं यावद्भवति?, एवरूपा कियन्तं कालमवतिष्ठते ? इति, भगवानाइगौतम! न कदाचिन्नासीन, सर्वदेवासीदिति भावः, अनादित्वात् , तथा न कदाचिन्न भवति, सर्वदेव वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति Elimin * ~368~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] ॥१८३॥ दीप अनुक्रम [१६३] श्रीजीवा- भावः, सदैव भावात, तथा न कदानिन्न भविष्यति, किन्तु भविष्यचिन्तायां सर्वदैव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यं, अपर्यवसितत्वात. प्रतिपत्तों जीवाभि० तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय सम्प्रत्यस्तिरर्ष प्रतिपादयति-'भुवि चे'त्यादि, अभूच भवति च भविष्यति चेति, हा मनुष्या० मलयगि-है एवं त्रिकालावस्थायित्वाद् 'ध्रुवा' मेर्वा दिवद् ध्रुवलादेव सदैव स्वस्वरूपे नियता, नियतलादेव च 'शाश्वती' शश्वद्भवनखभावा, वनषण्डारीयावृत्तिः शाश्वतत्वादेव च सततगङ्गासिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि पौण्डरीकजद इबानेकपुद्गलबिचटनेऽपि तावन्मानान्यपुद्गलोश्चटनसम्भवाद् 'अक्षया धि० न विद्यते क्षयो-यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रंशो यस्याः साऽक्ष्या, अक्षयत्वादेव 'अव्यया' अव्ययशब्दवाच्या, मनागपि स्वरूपचलनस्य || उद्देशः १ जानुचिदप्यसम्भवान् , अव्ययत्वादेव खप्रमाणेऽवस्थिता मानुपोत्तरपर्वताद् बहिः समुद्रवन , एवं स्वस्वप्रमाणे सदाऽवस्थानेन सू० १२६ चिन्त्यमाना नित्या धर्मास्तिकायादिवत् ।। तीसे णं जगतीए उपि बाहिं पउमवरवेइयाए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते देसूणाई दो जोयणाई चकवालविक्वंभेणं जगतीसमए परिक्खेवेणं, किण्हे किण्होभासे जाव अणेगसगडरहजाणजुग्गपरिमोयणे सुरम्मे पासातीए सहे लण्हे घटे मढे नीरए निप्पंके निम्मले निकंकडछाए सप्पभे समिरीए सउज्जोए पासादीए दरिसणिजे अभिरुवे पडिरूवे ॥ तस्स णं वणसंहस्स अंतो बहसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते से जहानामए-आलिंगपुक्खरेति वा मुइंगपुक्खरेति वा सरतलेह वा करतलेइ वा आयंसमंडलेति वा चंदमंडलेति वा सूरमंडलेति उरभ ॥१८३॥ चम्मेति या उसभचम्मेति वा वराहचम्मेति वा सीहचम्मेति वा वग्घचम्मेति वा विगचम्मेति वा दी अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~369~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] वितचम्मेति वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते आवडपच्चावडसेढीपसेढीसोत्थियसोवत्थियपूसमाणवद्धमाणमच्छेडकमकरंडकजारमारफुल्लावलिपउमपत्तसागरतरंगवासंतिलयपउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं समिरीएहिं सउज्जोएहिं नाणाबिहपंचवण्णेहिं तणेहि य मणिहि य उवसोहिए तंजहा-किपहेहिं जाव सुकिल्लेहिं ॥ तत्व णं जे ते किण्हा तणा य मणी य तेसि र्ण अयमेतारूवे घण्णायासे पण्णत्ते, से जहानामए-जीमूतेति वा अंजणेति वा खंजणेति वा कजलेति वा मसीह वा गुलियाइ वा गवलेइ वा गवलगुलियाति वा भमरेति वा भमरावलियाति वाभमरपत्तगयसारेति वा जंबुफलेति वा अद्दारिद्वेति वा पुरिपुट्ठए (ति) वा गएति वा गयकलभेति वा काहसप्पेइ वा कण्हकेसरेइ वा आगासथिग्गलेति वा कण्हासोएति वा किण्हकणवीरेड वा कण्हवंधुजीवएति था, भवे एयारूचे सिया?, गोयमा ! णो तिणढे समढे, तेसि णं कण्हाणं तणाणं मणीण य इत्तो इट्टयराए चेव कंततराए चेव पिययराए चेव मणुण्णतराए चेव मणामतराए चेव वपणेणं पण्णत्ते ॥ तत्थ गंजे ते णीलगा तणा य मणी य तेसिणं इमेतारूचे वण्णावासे पणत्ते, से जहानामए-भिंगेइ वा "भिंगपत्तेति वा चासेति वा चासपिच्छेति वा सुएति वा सुयपिच्छेति वा णीलीति वा पीलीभेएति वा णीलीगुलियाति वा सामाएति वा उचंतएति वा वणराईद वा हलहरवसणेइ वा मोरग्गीवाति वा पारेवयगीवाति वा अयसिकुसुमेति वा अंजणकेसिगा RAKASCARSACAR ~370~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनपण्डा ॥ १८४॥ SC-SCRCRACK उद्देशः१ सू०१२६ कुसुमेति वा णीलुप्पलेति वा णीलासोएति वा णीलकणवीरेति वा णीलबंधुजीवएति वा, भवे एयारूवे सिता?, णो इणटे समढे, तेसि णं णीलगाणं तणाणं मणीण य एत्तो इतराए चेव कंततराए चेव जाय वष्णेणं पणते ॥ तत्थ जे ते लोहितगा तणा य मणी य तेसि णं अयमेयास्वे वण्णावासे पण्णते, से जहाणामए-ससकरुहिरेति वा उरभरुहिरेति वा पररुहिरेति वा वराहरुहिरेति वा महिसरुहिरेति बा बालिंदगोवएति वा बालदिवागरेति वा संशम्भरागेति वा गुंजद्धराएति या जातिहिंगुलुएति वा सिलप्पवालेति वा पवालंकुरेति वा लोहितक्खमणीति वा लक्खारसएति वा किभिरागेइ वा रत्तकंबलेइ वा चीणपिढरासीइ वा जासुयणकुसुमेह वा किंसुअकुसुमेह वा पालियाइकुसुमेह वा रतुप्पलेति चा रत्तासोगेति या रत्तकणयारेति वा रत्तवंधुजीवेद वा, भवे एयारवे सिया?, नो तिणढे समठे, तेसि लोहियगाणं तणाण य मणीण य एप्सो इट्टतराए चेव जाव वपणेणं पण्णत्ते ॥ तत्व णं जे ते हालिहगा तणा य मणी य तेसि णं अयमेयारूवे वण्णायासे पण्णत्ते, से जहाणामए-चंपए वा चंपगच्छल्लीइ वा चंपयभेएइ या हालिदाति चा हालिद्दभेएति वा हालिदगुलियाति वा हरियालेति वा हरियालभेएति वा हरियालगुलियाति वा चिउरेति वा चिउरंगरागेति वा बरकणएति वा वरकणगनिघसेति वा सुवपणसिप्पिएति वा वरपुरिसबसणेति वा सल्लइकुसुमेति वा चंपककुसुमेह या दीप अनुक्रम [१६४] ॥१८४॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~371~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] कुहुंडियाकुसुमेति वा (कोरंटकदामेइ वा) तडउडाकुसुमेति वा घोसाडियाकुसुमेति वा सुवष्णजूहियाकुसुमेति वा सुहरिन्नयाकुसुमेइ वा [कोरिंटवरमल्लदामेति वा] बीयगकुसुमेति वा पीयासोएति वा पीयकणवीरेति वा पीयबंधुजीएति वा, भवे एघारूवे सिया?, नो इणढ़े समढे, ते णं हालिद्दा तणा य मणी य एत्तो इट्टयरा चेव जाव वपणेणं पण्णत्ता ॥ तत्थ णं जे ते सुकिल्लगा तणा य मणी य तेसि णं अयमेयारूवे बण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामएअंकेति वा संखेति वा चंदेति वा कुंदेति वा कुसुमे(मुए)ति वा दयरएति वा (दहिघणेइ था खीरेइ वा खीरपूरेइ वा) हंसावलीति वा कोंचावलीति वा हारावलीति चा बलायावलीति वा चंदावलीति वा सारतियबलाहएति वा धंतधोयरुप्यपद्देश था सालिपिहरासीति वा कुंदपुप्फरासीति या कुमुयरासीति वा सुक्कछिवाडीति वा पेडणमिजाति वा बिसेति वा मिणालियाति वा गयदंतेति वा लवंगदलेति वा पोंडरीयदलेति वा सिंनुवारमल्लदामेति वा सेतासोएति वा सेयकणवीरेति वा सेयबंधुजीएइ वा, भवे एयारूवे सिया?, णो तिणडे समढे, तेसि णं सुकिल्लाणं तणाणं मणीण य एत्तो इहतराए चेव जाव वपणेणं पण्णत्ते ॥ तेसि णं भंते! तणाण यमणीण य केरिसए गंधे पण्णत्ते?, से जहाणामए-कोहपुडाण वा पत्तपुडाण वा चोयपुडाण चा तगरपुडाण वा एलापुडाण या [किरिमेरिपुडाण वा] चंदणपुडाण वा कुंकुमपुडाण वा उ SACARRORSC ~372~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनषण्डा धि.. उद्देशः१ सू०१२६ ॥१८५॥ दीप अनुक्रम [१६४] सीरपुडाण वा चंपगपुराण वा मरुयगपुडाण वा दमणगपुडाण वा जातिपुडाण वा जूहियापुडाण वा मल्लियपुडाण वा णोमालियपुडाण वा वासंतियपुडाण वा केयतिपुडाण वा कप्पूरपुडाण वा अणुवायंसि उभिज्जमाणाण य णिभिजमाणाण य कोजमाणाण वा रुविजमाणाण वा उकिरिजमाणाण वा विकिरिजमाणाण वा परिभुजमाणाण वा भंडाओ वा भंडं साहरिजमाणाणं ओराला मणुण्णा घाणमणणिन्युतिकरा सब्बतो समंता गंधा अभिणिस्सवंति, भये एयारवे सिया', णो तिणढे समढे, तेसि णं तणाणं मणीण य एत्तो उ इतराए चेव जाव मणामतराए चेव गंधे पण्णत्ते । तेसि णं भंते! तणाण य मणीण य केरिसए फासे पण्णते?, से जहाणामए-आईणेति वा रूएति वा बूरेति वा णवणीतेति वा हंसगन्भतूलीति वा सिरीसकुसुमणिचतेति वा वालकुमुदपत्तरासीति वा, भवे एतारूचे सिया ?, णो तिणहे समहे, तेसिणं तणाण य मणीण य एसो इतराए चेव जाव फासेणं पण्णत्ते।तेसि र्ण भंते! तणाणं पुव्यावरदाहिणउत्तरागतेहिं बाएहिं मंदार्य मंदायं एइयाणं वेड्याणं कंपियाण खोभियाण चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे पपणत्ते?, से जहाणामए-सिवियाए वा संदमाणीयाए (वा) रहवरस्स वा सछत्तस्स सज्झयस्स सघंटयस्स सतोरणवरस्स सणंदिघोसस्स सखिखिणिहेमजालपेरंतपरिखित्तस्स हेमवयखेस (चित्तविचित्त) तिणिसकणगनिजुत्तदाफयागस्स सुपिणिद्धारकर्म ॥१८५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~373~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१२६]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] CRICKS डलधुरागस्स कालायसमुकयणेमिजंतकम्मस्स आइपणवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलणरछेयसारहिसुसंपरिगहितस्स सरसतयत्तीसतोरण(परि)मंडितस्स सकंकडवर्डिसगस्स सचावसरपहरणाघरणहरियस्स जोहजुद्धस्स रायंगणसि वा अंतेपुरंसि वा रम्मंसि वा मणिकोहिमतलंसि अभिक्खणं २ अभिघहिजमाणस्स बा णियहिजमाणस्स वा [परूढवरतुरंगस्स चंडवेगाइहस्स] ओराला मणुपणा कण्णमणणिबुतिकरा सब्बतो समंता सद्दा अभिणिस्सवंति, भवे एतारूवे सिया?, णो तिणढे समढे, से जहाणामए-बेयालियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छिताए अंके सुपरष्टियाए वंदणसारकाणपडिपहियाए कुसलणरणारिसंपगहिताए पदोसपचूसकालसमपंसि मंद मंदं एइयाए वेड्याए खोभियाए उद्दीरियाए ओराला मणुपणा कपणमणणिबुतिकरा सब्बतो समंता सद्दा अभिणिस्सवंति, भवे पयारूवे सिया?, णो तिणट्टे समठे, से जहाणामए-किपणराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा गंधव्वाण वा भद्दसालवणगयाण या नंदणवणगयाण वा सोमणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण वा हिमवंतमलयमंदरगिरिगुहसमपणागयाण वा एगतो सहितार्ण संभुहागयाणं समुचिट्ठाणं संनिविद्वाणं पमुदियपक्कीलियाणं गीयरतिगंधव्यहरिसियमणाणं गेज पळ कत्थं गेयं पयचिद्धं पायविद्धं उक्खित्तयं पवत्तयं मंदाय रोचियावसाणं सत्तसरसमपणागयं अट्ठरससुसंपउत्तं छद्दोसविप्पमुकं एकारसगुणालंकारं अद्वगुणोववेयं गुंजंतवंसकुहरोचगूद ~374~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -6 प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १८६॥ R [१२६] Rok दीप अनुक्रम [१६४] रत्तं तित्याणकरणसुद्धं मधुरं समं सुललियं सकुहरगुंजंतवंसतंतीसुसंपउत्तं तालसुसंपउत्तं ताल- ३ प्रतिपत्तौ समं (रयसुसंपउत्तं गहसुसंपउत्तं)मणोहरं मउयरिभियपयसंचारं सुरभि सुणति वरचारुरूवं मनुष्या० दिव्वं नह सज्ज गेयं पगीयाणं, भवे एयारूवे सिया?, हंता गोयमा! एवंभूए सिया॥ (मू०१२६) वनपण्डा'तीसे जगतीए' इत्यादि, तस्या णमिति पूर्ववत् जगत्या उपरि पद्मवरवेदिकाया बहिर्वती प्रदेश: 'तत्र' तस्मिन् णमिति || धि पूर्ववत् , महानेको वनपण्डः प्रज्ञप्तः, अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरुदाणां समूहो बनपण्डः, आह च मूलटीकाकार:-'एगजाई-18 उद्देशः १ पहिं रक्षेहि वणं अगेगजाईएहिं उत्तमेहि रुक्षेहि वणसंडे' इति, स चैकैको देशोने द्वे योजने विष्कम्भतो जगतीसमक: परिक्षेपेण सू०१२६ परिरयेण । कथम्भूत:? इत्याह-'किण्हे' इत्यादि, इह प्रायो वृक्षाणां मध्यमे बसि वर्तमानानि पत्राणि नीला (कृष्णा)नि तद्योगाद् बनखण्डोऽपि कृष्णः, न चोपचारमात्रात्कृष्ण इति व्यपदेशः किन्तु तथाप्रतिभासनात् , तथा चाह-कृष्णावभासः' यावति भागे कृष्णानि पत्राणि सन्ति तावति भागे स वनखण्डः कृष्णोऽवभासतेऽतः कृष्णोऽवभासो यस्यासौ कृष्णावभासः, तथा हरितत्वमति-18| कान्तानि कृष्णत्वमसंप्राप्तानि पत्राणि नीलानि तद्योगाद् वनखण्डोऽपि नीलः, न चैतदप्युपधारमात्रेणोच्यते किन्तु तथाऽवभासात् , तथा चाह-नीलावभासः, समास: प्राग्वत् , यौवने तान्येव पत्राणि किशलयलं रकत्वं चातिकान्तानि ईपद्धरितालाभानि पाण्डूनि सन्ति हरितानीत्युपदिश्यन्ते, ततस्तद्योगाद्वनपण्डोऽपि हरितः, न चैतदुपचारमात्रं, किन्तु वधाप्रतिभासोऽप्यस्ति तथा चाह--हरितावभासः, तथा बाल्यादतिक्रान्तानि वृक्षाणां पत्राणि शीतानि भवन्ति ततस्तद्योगाद् वनषण्डोऽपि शीतः, न चासौ न गुणतः किन्तु ॥१८६॥ गुणत एव, तथा चाह-शीतावभासः' अधोभागवत्तिनां व्यन्तराणां देवानां देदीनां च तयोगे शीतवातसंस्पर्श: ततः स शीतो अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~375~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मुलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [१२६] - - -*- - धनषण्डोऽवभासते इति, तथा एते कृष्णनीलहरितवर्णा यथा (तः) स्वस्मिन् रूपेऽत्यर्थमुरकटाः सिग्धा भण्यन्ते सीमाश्च सतस्तद्योगाद्वनखण्डोऽपि स्निग्धस्तीत्रश्वोक्तः, न चैतदुपचारमात्रं, किन्तु तथा प्रतिभासोऽपि तत उर्फ स्निग्धावभासस्तीबावभास इति, इहावभासो भ्रान्तोऽपि भवति यथा मरुमरीचिकामु जलावभासः ततो नावभासमात्रोपदर्शनेन यथाऽवस्थितं वस्तुस्वरूपमुक्तं वर्णितं भवति किन्तु | यथाखरूपप्रतिपादनेन ततः कृष्णलादीनां तथास्यरूपप्रतिपादनार्थमनुवादपुरस्सरं विशेषणान्तरमाह-'किण्हे किण्हच्छाये' इत्यादि, | कृष्णो बनखण्डः, कुत: ? इत्याह-कृष्णच्छाय:, 'निमित्त कारणहेतुपु सर्वासां विभक्तीनां पायो दर्शन'मितिवचनाद्वेतौ प्रथमा, ततोऽ-17 यमर्थ:-यस्मात् कृष्णा छाया-आकारः सर्वाविसंवादितया तस्य तस्माकृष्णः, एतदुकं भवति-सर्वाविसंवादितथा तन्न कृष्ण आकार उपलभ्यते, न च भ्रान्तापभाससंपादितसत्ताक: सर्वाचिसंवादी भवति, ततस्तत्ववृत्या स कृष्णो न धान्तावभासमात्रयवस्थापित इति, एवं नीलो नीलच्छाय इत्याद्यपि भावनीयं, नवरं शीत: शीतच्छाय इत्यत्र छायाशब्द आवपप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः, 'घणकडिय|डच्छाए' इति यह शरीरस्य मध्यभागे कटिस्ततोऽन्यस्यापि मध्यभाग: कटिरिव कटिरित्युच्यते, कटितटमित्र कटितटं घना-अन्यान्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशतो निविडा कटितटे-मध्यभागे छाया यस्य स घनकटितटलछायः, मध्यभागे निविडतरपछाय इत्यर्थः, कचित्पाठः 'घनकडियकडच्छाए' इति, तत्रायमर्थ:-कटः सजादोऽस्पति कटितः फटान्तरेणोपरि आवृत इत्यर्थः कटितश्चासौ कटच | कदितकटः धना-निविडा कटितकटस्वाधोभूमौ छाया यस्य स घनकटित कट-छायः अत एव रम्यो-रमणीयः, तथा महान्-जलभारावनतः प्राथूटकालभाषी मेघनिकुरम्बो-गोषसमूहतं भूतो-गुणैः प्राप्तो महामेघनिकुरम्यभूत: महामेघवृन्दोपम इत्यर्थः । 'ते णं | पायवा' इत्यादि, 'ते' वनपण्डान्तर्गताः पादपा 'मूलवन्तः' मूखानि प्रभूतानि दूरावगाढानि च सन्त्येषामिति मूलवन्तः, कन्य एपा-| - - * दीप अनुक्रम [१६४] C - MRP * X. Jansar ~376~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक धि० [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा- मस्तीति कन्दवन्तः, एवं स्कन्धवन्तस्त्वग्वन्तः शालावन्तः प्रवालवन्त: पत्रवन्तः पुष्पवन्त: फलवन्तो बीजवन्त इत्यपि भावनीयं, तत्र प्रतिपत्ती जीवाभि मूलानि-प्रसिद्धानि यानि कन्दस्याधः प्रसरन्ति कन्दास्तेपां मूलानामुपरिवर्तिनस्तेऽपि प्रतीताः, स्कन्धः-स्धुडं यतो मूलशाखाः प्रभवन्ति, मलय गि-1 लक-ठही शाला-शाखा प्रबाल:-पल्लवाङ्कर: पत्रपुष्पफलपीजानि सुप्रसिद्धानि, सर्वत्रातिशायने कचिद्भनि वा मतुपप्रत्ययः, 'अणुपु वनखण्डारीयावृत्तिःव्वसुजाइरुइलवट्ठभावपरिणया' इति आनुपूा-मूलादिपरिपाट्या सुपु जाता आनुपूर्वीसुजाता रुचिला:-खिग्धतया देदीप्यमान॥१८७। छविमन्तः, तथा वृत्तभावेन परिणवा वृत्तभावपरिणताः, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च शाखाभिः प्रशाखाभिश्च उद्देशः१ १ प्रसूता यथा वर्तुला: संजाता इति, आनुपूर्वीसुजाताच ते रुचिराश्च ते च ते वृत्तभावपरिणताच आनुपूर्वीसुजातरुचिरवृत्तभावपरिणताः,18 सू०१२६ है तथा ते पादपाः प्रत्येकमेकस्कन्धाः, (समासान्तइन ) प्राकृते वाऽस्य स्त्रीलमिति 'एगखंधी' इति पाठः, तथाऽनेकाभिः शाखाभिः प्रशापाखाभिश्च मध्यभागे विटपो-विस्तारो येषां तेडनेकशाखाप्रशाखा विटपाः, तथा तिर्यग्वाहुयप्रसारणप्रमाणो व्यामः अनेकैर्नरव्यामैः-पुरुष१व्यामैः सुप्रसारितैरग्राह्यः-अप्रमेयो घनो-निविडो विपुलो-विस्तीर्णः स्कन्धो येषां ते अनेकनरव्यामनुप्रसारिताबाह्यपनविपुलवृत्त स्कन्धाः, तथाऽपिछद्राणि पत्राणि येषां ते अच्छिद्र पत्राः, किमुक्तं भवति ?-न तेषां पत्रेषु वातदोषत: कालदोपतो वा गहरिकादिरी-1 तिरुपजायते, न तेषु पन्त्रेषु छिद्राणि भवन्तीत्यच्छिद्रपत्राः, अथवा एवं नामान्योऽन्यं शाखाप्रशाखानुप्रयेशात्पत्राणि पत्राणामुपरि जा-IA तानि येन मनागप्यपान्तरालरूपं छिद्रं नोपलक्ष्यत इति, तथा चाह–'अविरलपत्ता' इति, अत्र हेतौ प्रथमा ततोऽयमर्थ:-यतोऽवि-13 भरलपत्रा अतोऽच्छिद्रपनाः, अबिरलपत्रा अपि कुतः इत्याह-'अवातीनपत्राः' बातीनानि-बातोपहतानि बातेन पातितानीत्यर्थः ॥१८७ ॥ न बासीनानि अवातीनानि पत्राणि येषां ते तथा, किमुक्तं भवति ?- तत्र प्रबलो बात: खरपरुपो वाति येन पत्राणि त्रुटिला भूमी अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~377~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 4. प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] निपतन्ति, ततोऽवातीनपत्रसादविरलपत्रा इति, अग्छिद्रपत्रा इत्यत्र प्रथमव्याख्यानपक्षमधिकृत्य हेतुमाह-अणईइपत्ता' न विद्यते ईति:-इरिकादिरूपा येषां तान्यनीतीनि अनीतीनि पत्राणि येषां ते अनीतिपत्राः, अनीतिपत्रवाचाच्छिद्रपत्राः, 'निहुयजर ढपंडुरपत्ता' इति नि तानि-अपनीतानि जरठानि पाण्डूनि पत्राणि येभ्यस्ते नि तजरठपाण्डपत्राः, किमुक्तं भवति ?-यानि वृक्षस्थानि जरठानि पाण्डूनि पत्राणि तानि वातेन निर्दूय निर्दूय भूमौ पात्यन्ते भूमेरपि च प्रायो निय निर्दूयान्यत्रापसार्यन्त इति, 'नवहरियभिसंतपत्तंधयारगंभीरदरसणिज्जा' इति नवेन-प्रसप्रेण हरितेन-नीलेन भासमानेन-स्निग्धत्वचा दीप्यमानेन पत्रमारेण-दलसञ्चयेन यो जातोऽन्धकारस्तेन गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः सन्तो दर्शनीया नबहरितभासमानपत्रान्धकारगम्भीरदर्शनीयाः, तथा उपविनिर्गतै:-निरन्तरविनिर्गतैनबतरुणपल्लवैः तथा कोमलैः-मनोजैरुज्वलै:-शुद्धैश्चलद्रिः-ईपत्कम्पमानैः किशलयैः-अवखाविशेषोपेतैः हा पल्लवबिशेपैः सथा सुकुमारैः प्रवालै:-पल्लवारैः शोभितानि वराङ्कराणि-वरारोपेतानि अग्रशिखराणि येषां ते उपविनिर्गतनवतरुणपत्र पल्लवकोमलोजवलचलकिशलयसुकुमारप्रवालशोभितबराङ्करामशिखराः, इहादुरप्रवालयोः कालकृतावस्थाविशेषाद्विशेषो भावनीयः, 'निच्छ कुसुमिया निच्च मउलिया निच्चं लवइया निचं थवइया निच्चं गोच्छिया निचं जमलिया निच्च जुयलिया निश्च विणमिया निच्चं पणमिया निश्चं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुगलियविणमियपणमियसुविभत्तप(पि)डिमंजरिवडंसगधरा' इति पूर्ववत्, तथा शुकवाणिमनशलाकाकोकिलकोरकभिकारकफोडलजीवंजीवकनन्दीमुखकपिलपिङ्गलाक्षकारण्ड वचक्रवाककलहंससारसाख्यानामनेकेषां शकुनगणानां मिथुन:-स्त्रीपुंसयुग्मैचिंचरित-इतस्ततो गतं यच शब्दोन्नतिकम्-उन्नतशब्दक दामधुरस्वरं प नादिसं-लपितं येषु से तथा, अत एव सुरम्या:-सुष्टु रमणीयाः, अत्र शुका:-कीराः बहिणो-मयूरा मदनशलाका ~378~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१२६]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा- शारिका कोकिलाऽपि चक्रवाककलहंससारसा:-प्रतीताः, शेपास्तु जीवविशेषा लोकतो वेदितव्याः, तथा संपिण्डिताः-एकत्र पिण्डी-13 प्रतिपत्ती जीवाभिभूता दृप्ता-मदोन्मत्ततया दर्पाध्माता भ्रमरमधुकरीणां पहकरा:-समता:, 'पहकरओरोहसंघाया' इति देशीनाममालावचनात् , यत्रा मनुष्या० मलयगि- ते संपिण्डितरप्तमधुकरभ्रमरमधुकरीपह कराः, तथा परिलीयमानाः-अन्यत आगत्यागल्य अयन्तो मत्ता: पद्पदाः कुसुमासवलोला:-13वनखण्डारीयावृत्तिः किल्कपानलम्पटा मधुरं गुमगुमायमानाः गुञ्जन्तश्व-शब्दविशेषं च विद्धाना देशभागेषु तस्मिन् तस्मिन् देशभागे येषां ते परि-19 धिक लीयमानमत्तपट्पदकुसुमासक्लोलमधुरगुमगुमायमानगुञ्जन्तदेशभागाः, गमकत्वादेवमपि समासः, ततो भूयः पूर्वपदेन सह विशेष-8 उद्देशः १ ॥१८८॥ णसमासः, तथाऽभ्यन्तराणि-अभ्यन्तरवानि पुष्पाणि फलानि च पुष्पफलानि येपां ते तथा, 'बाहिरपत्तच्छन्ना' इति वहिःपत्र--सू०१२६ श्छन्ना-व्याप्ता बहिःपत्रछनाः, तथा पत्रैश्च पुष्पैच 'अवच्छन्नपरिच्छन्ना' अत्यन्तमाच्छादिताः, तथा 'नीरोगाः' रोगवर्जिताः | 'अकण्टका' कण्टकरहिताः, मैतेषु मध्ये बबूलकादिवृक्षाः सन्तीति भावः, तथा स्वादूनि फलानि येपो ते खादुफलाः, तथा नि-18 ग्धानि फलानि येषां ते स्निग्धफलाः, तथा प्रत्यासनैन नाविधैः-नानाप्रकारैर्गुच्छैः-गृन्ताकीप्रभृतिभिर्गुस्नैः-नवमालिकादिभिर्मण्डपैः| द्राक्षामण्डपफैरुपशोभिता नानाविधगुच्छगुल्ममण्डपकशोभिवाः, तथा विचित्र:-नानाप्रकारैः शुभैः-मङ्गलभूतैः केतुभिः-ध्वजैहुलाव्याता विचित्रशुभकेतुबहुला:, तथा 'वाविपुक्खरिणीदीहियासु य निवेसियरम्मजालघरगा' पाप्य:-चतुरस्राकारास्ता एवं वृत्ताः पुष्करिण्यः यदिवा पुष्कराणि विद्यन्ते यासु ताः पुष्करिण्यः दीपिका-जुसारिण्य: वापीपुष्करिणीपु दीपिकासु च मुष्ठ निवेशितानि रम्याणि जालगृहकाणि येषु ते वापीपुष्करिणीदीपिकामुनिवेशितरम्यजालगृहकानि, तथा पिण्डिता सती निहोरिमा-n दूरे विनिर्गच्छन्ती पिण्डिमनीहारिमा तां सुगन्धि-सद्गन्धिको शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा शुभसुरभिमनोहरा तां ॥१८॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~379~ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मुलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] 44 *च 'महया' इति प्राकृतत्वाहितीयार्थे तृतीया महतीमित्यर्थः, गन्धप्राणि बावद्भिर्गन्धपुद्गलैर्गन्धविषय भ्राणिरुपजायते सावती गन्धपु गलसंइतिरुपचाराद् गन्धप्राणिरित्युच्यते तो निरन्तरं मुश्चन्तः, तथा 'सुहसेउकेउबहुला' इति शुभा:-प्रधानाः सेतवो-मार्गा आलवालपाल्यो वा केतवो-यजा बहुला-अनेकरूपा येषां ते तथा, 'अणेगरहजाणजुग्गसिबियसंदमाणिपडिमोयणा' इति, तथा रथा द्विविधा:-कीडारथाः सामरथाश्च, थानानि सामान्यतः, शेपाणि वाहनानि, युग्यानि-गोलविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि | वेदिकोपशोभितानि जम्पानानि शिबिका:-कूटाकारणाच्छादिता जपानविशेषाः स्वन्दमानिका:-पुरुषप्रमाणा जम्पानविशेषा:, अनेकेपां रथादीनामधो विस्तीर्णत्वात् प्रतिमोचनं येपु ते तथा, 'पासाइया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्यन् ॥ 'तस्स णं वणसंडस्से त्यादि, तस्य णमिति पूर्ववद् गनरण्डस्य 'अन्तः' मध्ये बहुसमः सन् रमणीयो बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्राप्तः, किंविशिष्टः । इत्याहहासे जहा नामए' इत्यादि, 'तत्' सकललोकप्रसिद्ध यथेति दृष्टान्तोपदर्शने नामेति शिधामणगे 'ए' इति वाक्यालकारे 'आलिंग पुक्खरेइ वा' इति आलिङ्गो-मुरजो वाचविशेषस्तस्य पुष्कर-चर्मपुटकं तत् किलात्यन्तसममिति तेनोपमा क्रियते, इतिशब्दाः है| सर्वेऽपि स्वस्खोपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तिद्योतका: वाशब्दाः समुचये मृदङ्गो-लोकप्रतीतो मर्दलस्तस्य पुष्करं मृदङ्गपुष्करं परिपूर्ण-पानीकायेन भृतं तडाग-सरस्तस्य तलं-उपरितनो भागः सरस्तलं करतलं प्रतीतं, चन्द्रमण्डलं च यद्यपि तत्ववृत्त्या उत्तानीकृत कपित्याकारद्रपीठभासादापेक्षया वृत्तालेखमिति तद्गतो दृश्यमानो भागो न समतलस्तथाऽपि प्रतिभासते समतल इति तदुपादानम् , आदर्शमण्डलं, सुप्रसिद्धम् , 'उरभचम्मेइ 'त्यादि, अन सर्वत्रापि 'अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते' इति विशेषणयोगः, उरभ्रः-करणः पृपभवराहसिंहव्याघ्रगला: प्रतीताः द्वीपी-चित्रकः, एतेषां प्रत्येक चर्म अनेकैः शङ्कप्रमाणैः कीलकसहजै:-महडिः कीलकैरताडितं प्रायो, दीप अनुक्रम [१६४] Re ~380~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १२६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १८९ ॥ Ja Edcum | मध्यक्षामं भवति न समतलं तथारूपतडाकासम्भवात् अतः शङ्कुग्रहणं, विततं विततीकृतं ताडितमिति भावः यथाऽत्यन्तं बहुसमं भवति तथा तस्यापि वनपण्डस्यान्तर्यसमो भूमिभागः, पुनः कथम्भूतः ? इत्याह- 'नाणाविहपंचवन्नेहिं मणीहिं तणेहि य उवसोभिए' इति योगः, नानाविधा - जातिभेदान्नानाप्रकारा ये पञ्चवर्णा मणयस्तृणानि च तैरुपशोभितः, कथम्भूतैर्मणिभिः ? इत्याह - 'आवडे 'त्यादि, आवर्तादीनि मणीनां लक्षणानि तत्रावर्त्तः प्रतीत एकस्यावर्त्तस्य प्रत्यभिमुख आवर्त्तः प्रत्यावर्त्तः श्रेणिः- तथाविधबिन्दुजातादेः पक्तिः तस्याच श्रेय विनिर्गताऽन्या श्रेणिः सा प्रश्रेणिः स्वस्तिकः प्रतीतः सौवस्तिकपुष्पमाणयौ-लक्षणविशेषौ लोकाप्रत्येतव्यवर्द्धमानकं शरावसंपुढं मत्स्यकाण्डकमकराण्डके - प्रतीते 'जारमारे' ति लक्षणविशेषौ सम्यग्मणिलक्षणवेदिनो लोकाद्वेदि तथ्यौ, पुष्पावलिपद्मपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापद्मताः प्रतीतास्तासां भक्त्या विडिया चित्रम्-आलेखो येषु ते आवर्त्तप्रत्यावर्त्तमे जिप्रश्रेणि स्वस्तिक सीवस्तिकपुष्प माणववर्धमान कमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पावलिपद्मपत्र सागरतरङ्ग वासन्तीपद्म उताभक्तिचित्रा★ खैः किमुक्तं भवति ? - आवर्त्तादिलक्षणोपेतैः तथा सच्छायैः सवी- शोभना प्रभा - कान्विर्येषां ते सत्यभातैः 'समरीएहि 'ति समरी3 चिकैः - वहिर्विनिर्गत किरणजालसहितैः 'सोद्योतैः' बहिर्व्यवस्थित प्रत्यासन्नवस्तुस्तोमप्रकाशकरोद्द्योतसहितैः एवंभूतैर्नानाजातीयैः पञ्चवर्णैर्मणिभिस्तृणैवोपशोभितः, तानेव पच वर्णानाह—'तंजहा कण्हे' इत्यादि । 'तत्थ ण'मियादि तत्र तेषां पञ्चवर्णानां म जीनां तृणानां च मध्ये णमिति वाक्यालङ्कारे ये ते कृष्णा मणयस्तृणानि च ये इत्येव सिद्धे ये ते इति वचनं भाषाक्रमार्थ, तेषां णमिति पूर्ववत् 'अयम्' अनन्तरमुद्दिश्यमानः 'एतद्रूपः' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपः 'वर्णावासः' वर्णकनिवेश: प्रप्तः, तयथा -' से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम-'जीमूत' इति 'जीमूतः' बलाहकः, स चेह प्रावृप्रारम्भसमये जलभृतो वेदितव्यः, For P&Pale Cly ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या० वनखण्डाधि० उद्देशः १ सू० १२६ ~381~ ॥ १८९ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् tay w Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२६ ] दीप अनुक्रम [१६४ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १२६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तस्यैव प्रायोऽतिकालिमसम्भवात् इतिशब्द उपमाभूतवस्तुनामपरिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एवं सर्वत्रेतिवाशब्दौ द्रष्टव्यो, 'अञ्जनं' सौवीराञ्जनं रत्रविशेषो वा 'खञ्जनं' दीपमल्लिकाम: 'कजल' दीपशिखापतितं 'मषी' तदेव क ताम्रभाजनादिपु सामग्रीविशेषेण बोलितं मपीगुलिका पोलितकज्जलगुटिका, कचित् 'मसी इति मसीगुलिया इति वेति न दृश्यते, गवलं - माहिषं शृङ्गं तदपि चोपरितनत्यग्भागापसारणेन द्रष्टव्यं तत्रैव विशिष्टस्य कालिम्नः सम्भवात् तथा तस्यैव माहिषशृङ्गस्य निविडतरसार निर्वर्त्तिता गुडिका गवलगुडिका 'भ्रमरः प्रतीतः 'चमरावली' भ्रमरपङ्किः 'भ्रमरपतङ्गसारः' अमरपक्षान्तर्गतो विशिष्टकालिमोपचितः प्रदेश: 'जम्बूफल' प्रतीतम् 'आर्द्रारिष्टः' कोमलकाकः 'परपुष्टः' कोकिलः गजो गजलमा प्रतीत: 'कृध्ष्णसर्पः कृष्णवर्णसजातिविशेष: 'कृष्णकेसरः' कृष्णकुलः 'आकाशविगलं' शरदि मेवविनिर्मुक्तमाकाशखण्डं तद्वत्कृष्णमतीव प्रतिभातीति तदुपादानं, कृष्णा शोककृष्णकणवीरकृष्णवन्धुजीवाः अशोककणवीरबन्धुजीववृक्षभेदाः, अशोकादयो हि पञ्चवर्णा भवन्ति ततः शेषवर्णव्युदासार्थं कृष्णग्रहणम्, एतावत्युक्ते गौतमो भगवन्तं पृच्छति' भत्रे एवावे' इति भवेन्मणीनां तृणानां च कृष्णो वर्ण: 'एतद्रूपः' जीमूतादिरूपः ?, भगवानाह - गौतम! 'नायमर्थः समर्थः ' नायमर्थ उपपन्नो यदुतैवंभूतः कृष्णो वर्णों मणीनां तृणानां च, किन्तु ते कृष्णा मणयस्तृणानि च 'इतः' जीमूतादेः 'इष्टतरका एव' कृष्णवर्णेनाभीप्सिततरका एव तत्र किञ्चिदकान्तमपि केपाञ्चिदितरं भवति ततोऽकान्तवान्यवच्छित्त्यर्थमाह-'कान्ततरका एवं' अतिस्निग्धमनोहारिका लिमोपचिततया जीमूतादेः कमनीयतरका एव, अत एव 'मनोज्ञतरकाः' मनसा ज्ञायन्ते - अनुकूलतया स्वप्रवृत्तिविषयत्रियन्त इति मनोज्ञा-मनोऽनुकूलास्ततः प्रकर्षविवक्षायां तरप्रत्ययः, तत्र मनोज्ञतरमपि किञ्चिन्मध्यमं भवति ततः सर्वोत्कर्षप्रतिपादनार्थमाह- 'मन आपतरका एव' द्र Fir P&Perse City ~382~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १९० ॥ 1 वनखण्डा धि उद्देशः १ सू० १२६ तॄणां मनांसि आनुवन्दि प्राप्नुवन्ति आवशतां नयन्तीति मन आपास्ततः प्रकर्षविवक्षायां तरपुप्रत्ययः, प्राकृतत्वाथ पकारस्य सकारे १३ प्रतिपत्तौ मणामतरा इति भवति । तथा 'तत्थ ण'मित्यादि तत्र तेषां मणीनां तृणानां च मध्ये ये ते नीला मगवस्तृणानि च तेषामयमेत- मनुष्या० द्रूप: 'वर्णावासः' वर्णक निवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथा--' से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम 'भृङ्गः' कीटविशेष: पक्ष्मलः भृङ्गपत्र - तस्यैव भृङ्गाभिधानस्य कीटविशेषस्य पक्ष्म 'शुकः' कीर: 'शुकपिच्छे' शुकस्य पत्रं 'चापः' पशिविशेषः 'चापपिच्छे' चापपक्षः 'नीली' प्रतीता 'नीलीभेदः' नीलोच्छेदः 'नीलीगुलिया' नीलीगुटिका 'श्यामाकः ' धान्यविशेषः 'उच्चतमेवा' इति 'उच्च अन्तगः' दन्तरागः 'वनराजी' प्रतीता हलवरी - बलदेवस्तस्य वसनं हलधरवसनं तच किल नीलं भवति, सदैव दधास्वभावतया हल- 2 धरस्य नीलवखपरिधानात् मयूरमीवापारापतीवासीकुसुमवाणकुसुमानि प्रतीवानि, अत ऊर्द्ध कचित् 'इंदनीलेइ वा महानीले वा मरगवेद वा' तत्र इन्द्रनील महानीलगरकता रत्नविशेषाः प्रतीताः, अञ्जनकेशिका - वनस्पतिविशेषस्तस्याः कुतुममञ्जनकेशिकाकुसुमं 'नी| लोत्पलं' कुवलयं नीलाशोकनीलकणीरनीलबन्धुजीवा अशोकादिवृक्षविशेषाः, 'भवे एयारूवे' इत्यादि ग्राम्यद् व्याख्येयम् । तथा 'तत्थ णमित्यादि, तत्र तेषां मणीनां मध्ये ये ते लोहिता मणयस्तृणानि च तेषामयमेतद्रो वर्णावासः प्रज्ञतः, तद्यथा' से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम शशकरुधिरमुरध-करणस्तस्य रुधिरं वराहः - शुकरस्तस्य रुधिरं मनुष्यरुधिरं महिपरुधिरं च प्रतीतं, एतानि हि किल शेषरुधिरेभ्यो लोहितवर्णोत्कटानि भवन्ति तत एतेषामुपादानं, 'बालेन्द्रगोपकः' सयोजात इन्द्रगोपकः, स हि प्रवृद्धः सन्नीपरपाण्डुरक्तो भवति ततो वाणम् इन्द्रगोपकः प्रथमप्रावृट्कालभावी कीटविशेषः 'बालदिवाकरः' प्रथममुद्गच्छन् १ ॥ १९० ॥ सूर्य: 'सन्ध्याभ्ररागः' वर्षासु सन्ध्यासमयभावी अभ्ररागः गुञ्जा-ठोकप्रतीता तस्या भद्वै रागो गुजार्द्धरागः, गुखावा हि अर्द्ध अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~383~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२६ ] दीप अनुक्रम [१६४] Jan Ebertor “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः मतिरक्तं भवति अर्द्धगतिकृष्णं ततो गुजार्द्धपहणं, जपाकुसुम किंशुकक्कुसुमपारिजातकुसुमजासहिङ्गुलका:-प्रतीताः 'शिलाप्रवाल" बालनामा र विशेष: प्रत्रालाङ्कुरः तस्यैव स्त्रविशेषस्य प्रत्रालाभिवस्वाङ्कुरः, स हि प्रथमोतलेनात्यन्तरक्तो भवति तवस्तदुपादानं, लोहिताक्षमणिनीम रत्नविशेषः, लाक्षारसकुमिराग रक्त कम्बलचीन पिष्टराशिरतोत्पल रक्ताशोक रक्तकणवीररतवन्धुजीवाः प्रतीताः 'भवे एयारूवे' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तत्थ णमित्यादि तत्र तेषां मणीनां तृणानां च मध्ये ये हरिद्रा मणयस्तृणानि च तेषामयमेतद्रूपो 'वर्णावासः' वर्णकविशेष: प्रज्ञप्तः, तद्यथा - 'से जहा नाम ए इत्यादि, स यथा नाम - चम्पकः सामान्यतः सुवर्णचम्पको वृक्ष: 'चम्पकच्छली' सुवर्णचम्पकत्वक 'चम्पकभेदः' सुवर्णचम्पकच्छेदः 'हरिद्रा' प्रतीता 'हरिद्राभेदः' हरिद्राच्छेदः 'हरिद्रागुलिका' हरिद्रासारनिवर्तिता गुलिका 'हरितालिका' पृथ्वीविकाररूपा प्रतीता 'हरितालिकाभेदः' हरितालिकाच्छेदः 'हरितालिकागुलिका' हरितालिका सार निर्वर्त्तिता गुटिका 'चिकुरः' रागद्रव्यविशेष: 'चिकुराङ्गरागः' चिकुरसंयोगनिमित्तो वस्त्रादौ रागः, वरकनकस्यजालसुवर्णस्य यः कपपट्टके निधर्षः स वरकनकनिघर्षः, बरपुरुषो वासुदेवस्तस्य वसनं धरपुरुषवसनं तद्धि fro पीतमेव भवतीति तदुपादानम्, अ ( स ) लकी कुसुमं लोकतोऽयसेयं 'चम्पककुसुम' सुवर्णचम्पककुसुमं 'कूष्माण्डीकुसुमं पुष्पफलीकुसुमं कोरण्टकःपुष्पजातिविशेषस्तस्य दाम कोरण्टकदाम तडवडा आउली तस्याः कुसुमं वाकुसुमं घोपातकीकुसुमं सुवर्णयूथिकाकुसुमं च प्रतीतं सुहरिण्यका-वनस्पतिविशेषस्तस्याः कुसुमं सुहरिण्यकाकुसुमं वीयको वृक्षः प्रतीतस्तस्य कुसुमं वीयककुसुमं पीताशोकपीतकणवीरपीतवन्धुजीवाः प्रतीताः 'भवे एयारूचे' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तत्थ ण' भित्यादि, तेषां मणीनां तृणानां च मध्ये ये ते शुड़ा मणयस्तृणानि च तेषामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रप्तः, वयथा-'से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम- 'अङ्कः' रत्न For P&Praise Cnly ~384~ wyg Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ ---------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा- विशेषः शचन्द्रकुमुदोदकरजोदधिषनक्षीरक्षीरपूरकोचावलिहारावलिहंसावलिवलाकावलयः प्रतीताः 'चन्द्रावली' तडाकादिपु प्रतिपत्तौ जीवाभि जलमध्यप्रतिविम्बितचन्द्रपक्तिः 'सारइयचलाहगेइ वा' इति शारदिक:-शरत्कालभावी बलाहको-मेघ: 'धंतधोयरुष्पपट्टेड वेति, मनुष्या० मलयगि- मात:-अग्निसंपर्केण निर्मलीकृतो धौतो-भूतिखरण्टितहलसन्मार्जनेनातिनिशितीकृतो यो रूप्यपट्टो-रजतपत्रं स मातधौतरूप्यपट्टः, बावनखण्डारीयावृत्तिःअन्ये तु व्याचक्षते-मातेन-अग्निसंयोगेन यो धौत:-शोधितो रूप्यपट्टः स ध्मातरूप्यपट्टः, शालिपिष्टराशि:-शालिक्षोदपुञ्जः | NI धि० शकुन्दपुष्पराशिः कुमुदराशिश्च प्रतीतः, 'सुक्छेवाडियाइ वा' इति छेवाडी नाम-बल्लादिफलिका, सा च कचिदेशविशेषे शुष्का का उद्देशः१ ॥ १९१॥ सती शुक्ला भवति ततस्तदुपादानं, 'पेहुणमिंजियाइ वा' इति पेहुणं-मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्तिनी मिजा पेहुणमिश्चिका सा चाति- सू०१२६ शुक्छेति तनुपन्यासः, विसं-पद्मिनीकन्दः मृणालं-पातन्तुः, गजदुन्तलवङ्गदलपुण्डरीकदलश्वेतकणवीरश्वेतवन्धुजीवाः प्रतीता:, भवेयारूवे' इत्यादि प्राग्वत् । तदेवमुक्तं वर्णवरूपं, सम्प्रति गन्धस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह-'तेसि णं मणीणं तणाण य' इत्यादि, हा तेषां मणीनां तृणानां च कीदृशो गन्धः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाइ–से जहा नाम ए' इत्यादि, प्राकृतत्वात् 'से' इति बहुवचनार्थः, वे यथा नाम गन्धा अभिनि:अवन्तीति सम्बन्धः, को-गन्धद्रव्यं तस्य पुटाः कोष्टपुटातेषां, वाशब्दाः सर्वत्रापि समुचये, इहैकस्य | पुटस्य न तादृशो गन्ध आयाति द्रव्यस्खाल्पत्वात् ततो बहुवचनं, तगरमपि गन्धद्रव्यम् , 'एला' प्रतीता: 'चोयगं' गन्धद्रव्यं चम्प कदमनककुमचन्दनोशीरमरुत्रकजातीयूधिकामल्लिकारमानमल्लिकाकेतकीपाटलानत्रमालिकाबासक'राणि प्रतीतानि नवरमुशीर-वीरपाणीमूलं मानमहिका-मानयोग्यो मल्लिकाविशेषः एतेपामनुवाते-आनायकविवक्षितपुरुषाणामनुकूले वाते वाति सति 'उद्भिद्यमा-IN९१ नानाम्' उद्घाट्य मानानां, चशब्दः सर्वत्रापि समुचवे, 'निर्भिद्यमानानां नितरां-अतिशयेन भिद्यमानानां 'कोहिन्जमाणाण वा' % Jamsin अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~385~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- ----------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] -- दीप अनुक्रम [१६४] इति, इह पुटैः परिमितानि यानि कोष्टादिगन्धद्रध्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणोपचारात्कोप्टपुटानीत्युच्यन्ते तेषां 'कुदृचमानानाम्' उदूखले कुट्टयमानानां 'रुविजमाणाण वा' इति सक्ष्णखण्डी क्रियमाणानाम् , एतच विशेषणद्वयं कोष्टादिव्याणामबसेयं, तेषामेव प्रायः कुट्टनश्लक्ष्णखण्डीकरणसम्भवान्, न तु यूथिकादीनाम्, 'उकिरिजमाणाण वा' इति क्षुरिकादिभिः कोष्टादिपुटानों कोप्यादिद्रव्याणां वा उत्कीर्यमाणानां 'विक्खरिजमाणाण वा' इति 'विकीर्यमाणानाम्' इतस्ततो विप्रकीर्यमाणानां परिभुजमाणाण वा' परिभोगायोपभुज्यमानानां, कचित्पाठः 'परिभाएजमाणाण वा' इति, तत्र 'परिभाज्यमानानां' पार्श्ववर्तिभ्यो मनाग २ दीयमानानां 'भंडाओ भंडं साहरिजमाणाण वा' इति 'भाण्डात्' स्थानादेकरमाद् अन्यद् भाण्ड-भाजनान्तरं संहिय|माणानाम् 'उदाराः' स्फाराः, ते चामनोशा अपि स्पुरत आह-'मनोज्ञाः' मनोऽनुकूलाः, तब मनोज्ञत्वं कुतः । इत्याह-'मनोहराः' मनो हरन्ति-आत्मवशं नयन्तीति मनोहराः, यतस्ततो मनोहरवं कुतः? इत्याह-याणमनोनितिकरा:, एवंभूताः 'सर्वतः' सर्वासु विच 'समन्ततः' सामरलेन गन्धाः 'अभिनिःस्रवन्ति' जिघ्रतामभिमुखं निस्सरन्ति, एवमुक्ते शिष्यः पृच्छति-भवे ए. यारूवें' इत्यादि प्राग्वत् ।। तेषां मणीनां तृणानां च कीदृशः स्पर्शः प्रज्ञाम: ?, भगवानाह-गौतम ! 'से जहा नाम ए' इत्यादि, तद्यथा--'अजिनकं' चर्ममयं वखं रूतं च प्रतीतं 'बूरः' बनस्पतिविशेषः 'नवनीत ब्रक्षणं हंसगर्भतूली शिरीपकुसुमनिचयश्च प्रतीतः 'बालकुमुदपत्तरासीइ वेति बालानि-अचिरकालजातानि यानि कुमुदपत्राणि तेषां राशिबालकुंमुदपत्रराशिः, कचित् | बालकुसुमपत्रराशिरिति पाठः, 'भवे एयारूवे' इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तेसि भंते ! इत्यादि, तेषां भदन्त ! तृणानां पूर्वा-16 परदक्षिणोत्तरागतैर्यानैः 'मन्दायं मन्दाय'मिति मन्द मन्दम् 'एजितानां' कम्पितानां 'व्येजिताना विशेषतः कम्पितानाम्, एत-| ~386~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------------------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] धि० दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा- हादेव पर्यायशब्देन व्याचष्टे-कम्पितानां तथा 'चालितानाम् इतस्ततो विक्षिप्तानाम् , एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे-स्पन्दिताना तथा प्रति त्तौ जीवाभि०संघट्टितानां' परस्परं घर्षयुक्तानां, कथं घहिता: ? इत्याह-क्षोभितानां संस्थानाचालितानां, स्वस्थानाचालनमपि कुतः ? इत्याह-IN मनुष्या० मलयगि-18 'उदीरितानाम्' उत्पावल्येनेरिताना-प्रेरिताना, कीरशः शब्दः प्रज्ञतः ?, भगवानाह-'गोयमें त्यादि, गौतम! स यथानामक:-13 वनखण्डारीयावृत्तिः शिविकाया वा स्पन्दमानिकाया वा रथस्य वा, तत्र शिविका-जम्पानविशेषरूपा उपरिच्छादिता कोष्ठाकारा, तथा दीर्घो-जम्पान विशेषः पुरुषस्य स्वप्रमाणावकाशदायी स्यन्दमानिका, अनयोश्च शब्दः पुरुषोत्पाटितयोः क्षुद्रहेमघण्टि कादिचलनवशतो वेदितव्यः उद्देशः १ ॥१९२॥ रथचेह सागरथः प्रत्येयो, न क्रीडारथः, तस्यायेतनविशेषणानामसंभवात् । तस्य च फलकवेदिका यस्मिन् काले (यः) पुरुपस्तदपेक्षया | सू०१२६ कदिप्रमाणाऽवसेया, तस्य च रथस्य विशेषणान्यभिधत्ते–'सच्छत्तस्से'त्यादि, सच्छत्रस्य सध्वजस्य 'सघण्टाकस्य' उभयपाश्ची-| बलम्बिमहाप्रमाणघण्टोपेतस्य सपताकस्य सह तोरणबरं--प्रधानं तोरणं यस्य स सतोरणवरस्तस्य सह नन्दियोपो-द्वादशतूर्यनिनादो यस्य स सनन्दियोपसस्य, तथा सह किङ्किणीभि:-क्षुद्रघण्टाभिर्वर्तन्त इति सकिङ्किणीकानि यानि हेमजालानि-देममयदामसमू-18 हास्तैः सर्वासु विक्ष पर्यन्तेपु-बहिःप्रदेशेषु परिक्षिप्तो-व्याप्तः सकिङ्किणीकहेमजालपर्यन्तपरिक्षिप्रस्तस्य, तथा हैमवत-हिमवत्पर्वत-18 भाषि चित्रविचित्रं-मनोहारिचित्रोपेतं तैनिशं-तिनिशदारसम्वन्धि कनकनियुक्त-कनकविच्छुरितं दारु-काष्ठं यस्य स हैमवतचित्रवि-12 चित्र निशकनकनियुक्तदारस्तस्य, सूत्रे च द्वितीयककारः खार्थिकः पूर्वस्य च दीर्घ प्राकृवत्वात् , तथा सुत्र-अतिशयेन सम्यक् पिन-16 अमरकामण्डलं धूध यस्य स सुपिनद्धारकमण्डलधूष्कस्तस्य, तथा कालायसेन-लोहेन सुष्टु-अतिशयेन कृतं नेमेः-वाहपरिधेर्यनत्य | च-भरकोपरि फळकचकवालस्य कर्म यस्मिन् स कालायससुकृतनेमियन्त्रकर्मा तस्य, तथा आकीर्णा-गुणप्तिा ये परा:-प्रधा-| अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~387~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 10 प्रत सूत्रांक [१२६] - दीप अनुक्रम [१६४] नास्तुरगास्ते सुप्तु-अतिशयेन सम्यक् प्रयुक्ता-योत्रिता यस्मिन् स आकीर्णवरतुरगसुसंयुक्तः, प्राकृतत्वाद् बहुव्रीहाबपि निष्टान्तस्य परनिपातः, तथा सारथिकर्मणि ये कुशला नरास्तेषां मध्ये इतिशयेन छेको-दशः सारथि लेन सुषु सम्बपरिगृहीतस्य, तथा सरसयबत्तीसतोणमंडियस्स' इति शराणां शतं प्रत्यक थेपु तानि शरशतानि तानि च नानि द्वात्रिंशतोगानि च-पाणायाः | शरशतद्वात्रिंशत्तोणानि तैमण्डितः शरशतद्वात्रिंशत्तोणमण्डितः, किगुक्तं भवति ?-एवं नाम तानि द्वाविंशच्छरशतवृतानि तूणानि रथस्य ! सर्वतः पर्यन्तेष्ववलम्बितानि यथा नानि तस्य सङ्गामायोपकस्पितन्यातीय मण्डनाय भवन्तीति, तथा कट-कवचं मह काट यस्य । हैस सकङ्कटः सकङ्कटोऽवतंसः-दोखरो यस्य स सकटावतंसलस्य, तथा सह चापं येषां ते सचापा ये शरा यानि च कुन्तभडिमुप दिप्रभुतीनि नानाप्रकाराणि यानि च कवचरयेट कप्रमुखाणि आवरणानि नै त:-परिपूर्णः, तथा योधानां युद्धं तन्निमित्तं सद्यः प्रगुगीभूतो यः स योधयुद्धसजः, ततः पूर्वपदेन सह विशेषणसमासः, तस्वेत्थंभूतस्य राजाङ्गणे अन्तःपुरे बा रम्ये वा मणिकुहिमतलेमणिबद्धभूमितले अभीक्ष्णसभीक्ष्ण मणिको(कु)हिमतलप्रदेशे सजायणप्रदेशे या अभिपट्टि जमाणस्से'ति अभिघट्टयमानस्य वेगेन गच्छतो ये उदारा-मनोज्ञाः कर्णमनोनिवृतिकराः सर्वतः समन्तान् शब्दा अभिनिस्सरन्ति, 'भवे एयारूबे सिया' इति 'स्यान्' कथञ्चिद् भवेद् एतापस्तेषां भणीनां राणानां च शब्दः ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, पुनरपि गौतमः प्राह-स यथा नामक:-प्रात: स ध्यायां देवतायाः पुरतो या वादनायोपस्थाप्यते सा किल मङ्गलपाठिका तालाभावे च बायते इति विताले-तालाभावे भवतीति बैनालिकी तस्या पैतालिक्या-वीणाया 'उत्तरामन्दा मुच्छियाए' इति मूर्छनं मूसा संजाताऽस्या इक्ति मूच्छिता उत्तरमन्दवा-उत्त रमन्दाभिधानया मूर्छ नया गान्धारस्वरान्तर्गतया सप्तम्या मूर्षिता उत्तरमन्दामूछिता, किमुक्तं भवति ?-गान्धारस्वरस्य सप्तमूजी०च०३३/ ~388~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२६ ] दीप अनुक्रम [१६४ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १२६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १९३ ॥ । च्र्छना भवन्ति, तद्यथा “नंदी य खुट्टिमा पूरिमा य चोत्थी अ सुगंधारा उत्तरगन्धारावि य हवई सा पंचमी मुच्छा ॥ १ ॥ सुदुमुत्तर आयामा हट्टी सा नियमसो उ बोद्धव्या । उत्तरमंदा य तहा हवई सा सत्तमी मुच्छा ॥ २ ॥ अथ किस्वरूपा मूर्च्छना: १, उच्यते, गान्धारादिस्वरूपामोचनेन गायतोऽतिमधुरा अन्यान्यस्वरविशेषा यान् कुर्वन्नास्तां श्रोतून मूर्च्छितान करोति किन्तु स्वयमपि मूत इव तान् करोति यदिवा स्वयमपि साक्षान्मूर्च्छा करोति तथा चोक्तम्- "अननस रविसे से उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया कत्तावि मुच्छितो इव कुणए मुन्छे व सोवेति ॥ १ ॥ " गान्धारस्वरान्तर्गतानां च मूर्च्छनानां मध्ये सप्तमी उत्तरमन्दाभिधाना मूर्च्छना किलातिप्रकर्षप्राप्ता ततस्तदुत्पादनया च मुख्यवृत्त्या वादयिता मूच्छितो भवति, परमभेदोपचारात् वीणाऽपि मूर्च्छितेत्युक्ता, साऽपि 8 यथङ्के सुप्रतिष्ठिता न भवति सतोन मूर्च्छनाप्रकर्षं विद्धाति तत आह-अङ्के स्त्रिया: पुरुषस्य वा उत्सङ्गे सुप्रतिष्ठितायाः, तथा कुशलेनवादननिपुणेन नरेण पुरुषेण नार्या वा सुष्ठु अतिशयेन सम्यग् गृहीतायाः, तथा चन्दनस्य सारः चन्दनसारस्तेन निर्मापितो यः कोणोवादनदण्डस्तेन परिघट्टिताया: संस्पृष्टायाः 'पश्चूसकालसमयंसि' इति 'प्रत्यूषकालसमये' प्रभातवेलायां कचित् 'पुण्वरत्तावरतकालसमसि' इति पाठस्तत्र प्रदोषसमये प्रातः समये चेत्यर्थः, 'मन्दं मन्दं शनैः शनैः 'एजिताया' चन्दनसारकोणेन मनाक् कम्पिताया: 'व्येजितायाः' विशेषतः कम्पितायाः, एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे - पालितायास्तथा पट्टितायाः, ऊयोगच्छता चन्दनसार- 4 कोणेन गाढतरं वीणादण्डेन सह तत्र्याः स्पृष्टाया इत्यर्थः तथा 'स्पन्दितायाः' नखाप्रेण स्वरविशेषोत्पादनार्थमीपचालितायाः 'क्षो भिताया:' मूच्छी प्रापिताया थे 'उदारा' मनोज्ञाः कर्णमनोनिर्वृतिकराः सर्वतः समन्ताच्छा अभिनिस्सरन्ति 'स्यात्' कथञ्चिद् भवेदेतद्रूपस्तेषां गुणानां मणीनां च शब्दः १, भगवानाह - नायमर्थः समर्थः पुनरपि गौतमः प्राह स यथा नामक:- किंनराणां वा For P&Palle Cinly ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या० वनखण्डा धि० ~389~ उद्देशः १ सू० १२६ ॥ १९३ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप् समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१६४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १२६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः किंपुरुषाणां वा महोरगाणां वा गन्धर्वाणां वा, वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः किंनरादयो व्यन्तरविशेषाः तेषां कथम्भूतानाम् ? इत्याह-- 'भद्रशालवनगतानां वा' इत्यादि, तत्र मेरोः समन्ततो भूमौ भद्रशालवनं प्रथम मेखलायां नन्दनवनं शिरसि चूलिकायाः पाश्रेषु सर्वतः पण्डकवनं 'महाहिमवंत मलयमन्दर गिरिगुहा समन्नागयाणं' इति महाहिमवान् हैमवत क्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वर्षधरपर्वतः उपलक्षणं शेषवर्षधरपर्वतानां मलयपर्वतस्य मन्दरगिरेश्व- मेरुपर्वतस्य च गुहा समन्वागतानां वाशब्दा विकल्पार्थाः, एतेषु हि स्थानेषु प्रायः किंनरादयः प्रमुदिता भवन्ति तत एतेषामुपादानम्, 'एगतो सहियाणं'ति एकस्मिन् स्थाने सहितानां समुदितानां 'समुहागयाणं'ति परस्परसंमुखागतानां संमुखं स्थितानां नैकोऽपि कस्यापि पृष्ठं दत्त्वा स्थित इत्यर्थः, पृष्ठदाने हर्षविवासोत्पत्तेः, तथा 'समुविद्वाणं सम्यक् परस्परानावाच्या उपविष्टाः समुपविष्टास्तेषां समुपविष्टानां तथा 'संनिविद्वाण' निति सम्यक् स्वशरीरानायाधया न तु विषमसंस्थानेन निविष्टाः संनिविष्टास्तेषां 'पमुइयपक्कीलियाणं'ति प्रमुदिताः - प्रहर्षे गताः प्रक्रीडिता:- क्रीडितुमारब्धअन्तस्ततो विशेषणसमासस्तेषां तथा गीते रतिर्येषां ते गीतरतयो गन्धर्व नाट्यादि तत्र हर्पितमनसो गन्धर्वतमनसस्ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासस्तेषां गद्यादिभेदादष्टविधं गेयं तत्र गयं यत्र स्वरसधारेण गद्यं गीयते यत्र तु पयं-वृत्तादि गीयते तत्पथं यत्र कधिकादि गीयते तत्कथ्यं, पदवद्धं यदेकाक्षरादि यथा ते ते इत्यादि पादवद्धं यद् वृत्तादिचतुर्भागमात्रे पदे बद्धम्, 'उक्खित्ताय'मिति उक्षिप्तकं प्रथमतः समारभ्यमाणं, दीर्घत्वं ककारात्पूर्वं प्राकृतवान् एवमुत्तरत्रापि द्रव्यं, 'प्रवृत्तक' प्रथमसमारम्भादूर्द्धमाक्षे पपूर्वकप्रवर्त्तमानं 'मंदाय 'मिति मन्दकं मध्यभागे सकलमूर्च्छनादिगुणोपेतं मन्दं मन्दं संचरन तथा 'रोइयावसानं'ति रोचितंसम्यग्भावितमवसानं यस्य तद् रोचितावसानं शनैः शनैः प्रक्षिप्यमाणस्वरं यस्य गेयस्यावसानं तद् रोचितावसानमिति भावः, तथा For P&Praise City ~390~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] % दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा- सप्तस्वरसमन्वागत' सप्त स्वराः पहजादयः, उक्तञ्च-सजे रिसह गंधारे, मझिमे पंचम सरे । धेवए चेव नेसाए, सरा सत्त वि-1 प्रतिपत्ती जीवाभिनयाहिया ॥ १॥" ते च सप्त स्वरा: पुरुषस्य स्त्रिया या नाभीतः समुन्वन्ति सत्त सरा नाभीतो' इति पूर्वमहर्षिवचनान , तथाऽष्टभी मनुष्या० मलयगि- रसै:-क्षारादिभिः सम्यक् प्रकण युक्तमष्टरससंप्रयुक्त, तथा एकादश अलङ्काराः पूर्वान्तर्गते स्वरप्राभृते सभ्यगभिहिताः, तानि वनखण्डारीयावृत्तिःच पूर्वाणि सम्प्रति व्यवकिमानि सत: पूर्वेभ्यो लेशतो विनिर्गतानि यानि भरतविशाखिटप्रभुतीनि तेभ्यो वेदितव्या:, 'छद्दोस- धि विष्पमुकति पनि देपिविनमुक्त पदोपविषमुक्त, ते च पड् दोषा अमी-भीयं दुबमुप्पिकर उत्तालं कागस्सरमणुणासं च'। उक्त ॥१९॥ -भीयं दुयमुपिच्छत्थमुत्ताल च कमसो मुपोचव्यं । काकस्सरमणुनासं दोसा होति शेयस्स ।। १॥"तत्र 'भीतम्' 'उत्रस्तं, किमुक्तं भवति ?-यदुअस्तेन मनसा गीयते तङ्गीतपुरुपनिवन्धनधम्मांनुवृत्तवाझौतमुच्यते, 'हुतं यत्त्वरित गीयते, 'उपिच्छे' नाम | आकुलम् , 'उक्तन-आहित्य पिच्छं च आउलं रोसभरियं च" अस्थायमर्थ:-आहित्यमुप्पिक्छ च प्रत्येकमाकुल रोपभृतं वोच्यत इति, आकुलता च श्वासेन प्रष्टच्या सथा पूर्वसूरिभियाख्यानात , उक्त व मूलटीकायाम्- उपिच्छं श्वासयुक्त"मिति, तथा| उन-पावल्येनातितालमखानतालं या उत्ताल, अक्ष्णस्वरेण काकस्वरं, सानुनासिकमनुनासं, नासिकाविनिर्गतखरानुगतमिति भावः,] तथा 'अहगुणोववेयमिति अष्टभिर्गुणैरुपेतमष्टगुणोपेतं, ते चाष्टावमी गुणाः-पूर्ण रिक्कमलकृतं व्यक्तमविपु(यु)ष्टं मधुरं समं सल-1 लितं च, तथा चोक्तम्-'पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहेव अविपु(घु)ई । महुरं सम सललियं अट्ठ गुणा होति गेयस्स ॥१॥" तत्र यत्स्वरकलाभिः पूर्ण गीयते तत्पूर्ण, गेवरागानुरक्तेन यद् गीयते तद्रक्तम् , अन्योऽन्यस्वरविशेषकरणेन थवलकृतमेव गीयते तदल-15 वृत्तम् , अक्षरस्वरस्फुटकरणतो व्यक्तं, विस्वरं क्रोशतीव विपु(घु)ष्ट न विधुष्टमविपु(घु)ई, मधुरस्वरेण गीयमानं मधुरं कोकिलारत- ॥१९४॥ KAK-4-५५ 2-% अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~391~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] बत् , तालवंशस्वरादिसमनुगतं सगं, तथा यत्खरघोलनाप्रकारेण ललतीब तत् सह ललितेनेति सललितं, यदिया यच्छ्रोत्रेन्द्रियस्य | शब्दस्पर्शनमतीव सूक्ष्म गुल्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत् सललितम् ॥ इदानीमेतेषामेवाष्टानां गुणानां मध्ये कियतो गुणान् है अन्यच्च प्रतिपिपादयिपुराह-रत्तं तिहाणकरणसुद्ध'मित्यादि, 'रक्त' पूर्वोक्तखरूपं तथा च 'त्रिस्थानकरणशुद्ध त्रीणि स्थानानिउरमभूतीनि तेषु फरगोन--क्रियया शुद्ध त्रिस्थानकरणशुद्ध, तद्यथा-उरःशुद्धं कण्ठशुद्धं शिरोविशुद्ध च, तत्र यदि उरसि स्वरः ख-13 भूमिकानुसारंग विशान्टो भवति तत उरोविशुद्ध, स एवं यदि फण्ठे वर्तितो भवति अस्फुटि तश्च ततः कण्ठविशुद्ध, यदि पुनः शिरः प्रामः सन् सानुनासिको भवति तत: शिरोविशुद्ध, यदिवा यद् उर:कण्ठशिरोभिःोमणाऽव्याकुलित विशुद्धैर्गीयते तद् उर:कण्ठशिरोविशुद्धलाप्रिस्थानाकरणपिशुद्ध, तथा सहरो गुजन् यो वंशो यत्र तबीतलताललयामहसुसंप्रयुक्तं भवति सकुहरे बंशे गुजति । सध्यां च वाधमानायां यत्तत्रीस्वरेणाविरुद्धं तत् सकुहरगुञ्जशतबीसुसंप्रयुक्त, तथा परस्पराहतहस्ततालस्वरानुबत्ति यद् गीतं तत्तालसुसंप्रयुक्तं, यन् मुरजकंसिकादीनामातोयानामाहतानां यो ध्वनियंध नृत्यन्त्या ननक्या: पापोरक्षेपस्तेन समं तत्तालसुसंप्रयुक्त, तथा शृङ्गमयो द्वारुमयो वंशमयो वाऽङ्गलिकोश स्तेनाहताथास्तव्याः स्वरप्रकारो लाखभनुसरद् गेय लयसुसंप्रयुक्तं, तथा य: प्रथमं शतक्यादिभिः खरो गृहीतसन्मार्गानुसारि प्रहसुसंप्रयुक्तं, तथा 'महरमिति मधुरं प्राग्बन्, तथा 'सम'मिति तालवंशस्वरादिसमनुगतं समं सललितं प्राग्वद् अत एव मनोहरं, पुनः कथम्भूतम् ? इत्याह-'मउयरिभियपयसंचार' तत्र मृदु-मृदुना वरेण युक्तं न | निमुरेण तथा यत्र स्वरोऽक्षरेपु-घोलनास्वरविशेषेषु संचरन रागेऽतीव प्रतिभासते स पदस चारो रिभितमुच्यते मृदुरिभितपदेषु गेय| निवद्धेषु सञ्चारो यत्र गेये तत् मृदुरिभितपदसणारं, तथा 'सुरई' इति शोभना रतिर्वस्मिन् श्रोतृणां तत्सुरति, तथा शोभना नतिः दीप अनुक्रम [१६४] - - -- -- Jatician ~392~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मलयगि प्रत सूत्रांक [१२६] ३ प्रतिपत्तौ | मनुष्या वनखण्डाधि० उद्देशः१ सू०१२७ दीप अनुक्रम [१६४] श्रीजीवा-शरचनातोऽवसाने यस्मिन् तत्सुनति, तथा वरं-प्रधानं चारु-विशिष्टचह्निमोपेतं रूपं-स्वरूपं बस तद् वरचारुरूप 'दिव्यं प्रधानं नृत्यं जीवाभि गेयं प्रगीतानां-गानानुसारध्वनिय(म)तां चारश: शब्दोऽतिमनोहरो भवति 'स्यान्' कथञ्चिद् भवेद् एतद्रूपस्तेषां तृणानां मणीनां च शब्दः, एवमुक्ते भगवानाह-गौतम! स्यादेवंभूतः शब्द इति ।। रीयावृत्तिः तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे २ तहिं तहिं यहवे खुट्टाखुड़ियाओ वावीओ पुक्खरिणीओ गुं जालियाओ दीहियाओ (सरसीओ) सरपंतियाओसरसरपंतीओ बिलपंतीओअच्छाओसण्हाओ रयतामयकूलाओ वइरामयपासाणाओतवणिजमयतलाओ बेरुलियमणिफालियपडलपचोयडाओ णवणीयतलाओ सुवष्णसुम्भ(ज्झ) रययमणिवालुयाओ सुहोयारासु उत्ताराओ णाणामणितित्थसुबद्धाओचाम(चउ)कोणाओ समतीराओ आणुपुव्यसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओसंछपणपत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पलकुमुयणलिणसुभगसोगंधितपोंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तफुल्लकेसरोबइयाओ उपयपरिभुजमाणकमलाओअच्छविमलसलिल पुषणाओ परिहत्वभमतमच्छकच्छमअणेगसउणमिहुणपरिचरिताओ पसेयं पत्तेयं पउमवरवेदियापरिक्वित्ताओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्विसाओ अप्पेगतियाओ आसवोदाओ अप्पेगलियाओ वारुणोदाओ अप्पेगतियाओ खीरोदाओ अप्पेगतियाओ घओदाओ अप्पेगतियाओ [इक्खु खो(दो)दाओ (अमयरससमरसोदाओ) अप्पेगतियाओ पगतीए उद्ग(अमय)रसेणं पण्णताओ पासाइयाओ ४, तासि णं खुद्धि १९५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~393~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) ht प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६५ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः याणं वावीणं जाव बिलपतियाणं तत्थ २ देसे २ तहिं २जाव बहवे तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा - वइरामया नेमा रिट्ठामया पतिद्वाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पामया फलगा बहरामया संधी लोहितक्खमईओ सईओ णाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणवाहाओ । तेसि णं तिसोवाणपडिख्वगाणं पुरतो पत्तेयं २ तोरणा पं० ॥ ते णं तोरणा णाणामणिमयखंभेसु उवविसणिविद्या विहितवता विविहारास्ववचिता ईहामिय उस भसुरगणर मगर विहग वालनकिरणररुरुसरभचमरकुंजरवणलय पडलय भत्तिचित्ता संभुग्गयवहर वेडियापरिगताभिरामा विजाहरजमलजुयलजंत जुन्ताविव अधिसहस्समालणीया भिमाणा भिभिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहासा सस्सिरीयरूवा पासातिया ४ || तेसि णं तोरणाणं उपि बहवे अट्टमंगलगा पण्णत्ता-सोत्थियसिरिवच्छ मंदियावसचद्धमाण महा सण कलस मच्छपणा सव्वरतणामया अच्छा सहा जाव परूिवा ॥ तेसि णं तोरणाणं उपिं बहवे किण्हचामरज्झया नीलचामरज्झया लोहियचामरज्झया हारिचामरज्झया सुकिल्लयामरज्झया अच्छा सहा रुप्पपट्टा वरदंडा जलयालगंधीया सुरुवा पासाइया ४ ॥ तेसि णं तोरणाणं उपिं बहवे छत्ताइछत्ता पडागाइडागा घंटाजुयला चामरजुयला उप्पलहत्थया जाव सयसहस्सवत्तहत्थगा सव्वरयणामया For P&Praise Chy ~394~ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६५] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १९६ ॥ “जीवाजीवाभिगम" Ja Erin - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः) अच्छा जाव पहिया । तासि खुडियाणं याचीणं जाव विलपतियाणं तत्थ तत्थ देसे २ तर्हि या जियइकन्यया जगतिपश्वधा शुरुपव्वया दगमंडवा दगमंचका दुगाका गायगा ऊसा खुट्टा बडगा अंदोलगा पक्खंदोलगा सच्चरवणामया अच्छा जाय परुिवा || तेसु उपाय जाब दोलए बहवे हंसासणाई कोचासणाई रुसणाई उण्णवासगाई पणवासणाई बीहागाई महासणाई पक्वासणाई मगरासजाई उसमासगाई तीहासणाई परमाताई दिसायासणाई सव्वरयणामाई अच्छाई हाई हाई हाई महाई जीरयाई निम्नलाई निष्पंकाई निकंकडच्छायाई सप्पभाई सम्मि याई ओपाई पादीयाई दरिसनिनाई अभिख्याई पडिवाई | तस्स र्ण वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे २ तहिं हि बहवे आलिवर माहिधरा कर्यादिधरा दयाचरा अच्छणघरा पेच्छणघरा मज्जणधरगा सावरगा नव्नघरगा मोहनचरगा सालघरगा जालघरगा कुसमघरगा चित्तघरगा inr आवरणा सव्वरयणानया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिमला frrier freeडच्छाया सप्पभा सम्मिरीया सज्जोया पासादीया दरिसणिजा अभिहवा पडिख्या || तेसु णं आलिघरएस जाव आयंसघरएस बहई हंसासणाई जाब दिसासोबत्यासणारं सव्वरयणामयाई जाव पडिवाई | तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे २ तहिं प्रतिपक्षी मनुष्या० वनखण्डाधि० उद्देशः १ सू० १२७ ~ 395~ ॥ १९६ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: S H C - प्रत सूत्रांक - - [१२७] - तहिं बहवे जाइमंडवगा जूहियामंडवगा मल्लियामंडवगा शवमालियामंडवगा वासंतीमंडबगा दधिवासुपामंडवगा रिल्लिनंडवगा तंबोलीभंडवगा मुद्दियामंडवगा पागलयानंडवगा अतिमुत्तमंडवगा अकोलामंडवगा मालुवामंडवगा सामलयामंडकमा णिचं कुसुमिया णिचं जाय पडिरूवा ॥ तेसु णं जातीभंडवासु बहवे पुढविसिलापत्या पणता, संजहा-हंसासणसंठिता कोंचासणसंठिता भरलासगसंठिना उग्णयासणसंठिा पणयासणसंठिता दीहासणसंठिता भदासणसंठिता पक्वासणसंठिता मगरासगसंठिता उसभासणसंठिता सीहासणसंठिता पशुमाससंठिता दिसासोत्थिवासणसंठिता पं० तत्व बहये परसपणासगविसिट्ठसंठाणसंठिया पपणत्ता समणाउसो! आइण्यगरूयवरणवणीतलफासा नया सबरयणाभवा अच्छा जाव पडिरूवा । तस्थ णं पहवे वाणभंतरा देवा देवीओय आसयंति सयंति चिट्ठति णिसीदति तुयइंति रमति ललंति कीलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिपणाणं सुपरिकंनाणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पचणभवमाणा विहरति ।। नीसे गं जगतीए 'उपि अंतो पउभवरवेदियाए एत्य णं एगे महं वणसंडे पण देणाई दो जोषणाई विश्वभेणं बेड्यासमपूर्ण परिक्खेवेणं किण्हे किण्होभासे धगयाओ (मणि)नगसद्दविहणो णेययो, सत्य पहये थाणमंतरा देवा देवीओ य आलयंति सर्वति चिट्ठति णिसीयंति तु यहति रमंति - - दीप अनुक्रम [१६५] - - --- --- - ~396~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १९७ ॥ ललति कीडंति मोहंति पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्ताणं सुभाणं कंताणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पचणुग्भवमाणा विहरंति ॥ (मृ० १२७) 'तरसणं वणसंडस्से' त्यादि, तस्य णमिति वाक्यालङ्कारे वनखण्डस्य मध्ये तत्र तत्र देशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे 'बहूईओ' इति ब्रह्रयः 'खुड्डा खुड्डियाओ' इति क्षुल्लिकाः क्षुल्लिका लघवो लघव इत्यर्थः, 'वाय' चतुरस्राकाराः 'पुष्करिण्यः' वृत्ताकाराः अथवा पुष्कराणि विद्यन्ते यासु ताः पुष्करिण्यः 'दीर्घिकाः' सारिण्यस्ता एव वक्रा गुञ्जालिकाः, बहूनि केवल केवलानि पुष्पावकीर्णॐ कानि सरांसि सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतवान्, बहूनि सरांसि एकपङ्कया व्यवस्थितानि सरः पङ्किस्ता बचः सरःपङ्कयः, तथा येषु सरस्तु पङ्कथा व्यवस्थितेषु क्रूपोदकं प्रणालिकया संचरति सा सरःसरःपकिस्ता बह्नयः सरःसरःपङ्कयः, तथा बिलानीव बिलानि - कूपास्तेषां पङ्कयो विलपङ्कयः, एताश्च सर्वा अपि कथम्भूता: ? इत्याह- 'अच्छा' स्फटिकबहिर्निर्मलप्रदेशाः 'श्लक्ष्णाः' ऋक्ष्णपुङ्गलनि४ ष्पादितबहिः प्रदेशाः, तथा रजतमयं रूप्यमयं कूलं यासां ता रजतमयकूलाः, तथा समं - अगर्त्तासद्भावतोऽविषमं तीरं दीरावर्चिजलापूरितं स्थानं यासां ताः समतीराः, तथा वश्रमयाः पाषाणा यासां ता वचनयपाषाणा:, तथा तपनीयं - हे विशेषस्तपनीयं तपनीयमयं तलं - भूमितलं यासां तास्तपनीयतलाः, तथा 'सुवण्णसुज्झरययवालुयाओ' इति सुवर्ण - पीतकान्तिहेम सुज्झं रूप्यविशेषः रजतं प्रतीतं तन्मध्यो बालुका यासु ताः सुवर्णसुज्झरजतवालुकाः, 'वेरुलियमणिफालिहपडलपचोयडाओ यत्ति बैडूर्यमणिमयानि स्फाटिकपटलमयानि प्रत्यवतटानि सटसमीपवर्त्तिनोऽत्युन्नतप्रदेशा यासां ता वैदूर्यमणिस्फटिकपटलपत्यवतटाः 'सुहोयारासु उत्तारा' इति सुखेनावतारी - जलमध्ये प्रवेशनं यासु ताः स्ववताराः तथा सु-सुखेन उत्तारो - जलमध्याद्वहिर्विनिर्गमनं यासु ताः For P&Pealise Cinly ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनखण्डा धि० उद्देशः १ सू० १२७ ~ 397~ ॥ १९७ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् by w Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: LADALA प्रत सूत्रांक [१२७] 6 दीप अनुक्रम [१६५] सुखोत्तारा: ततः पूर्वपदेन विशेषणसनास: 'नाणामणितित्थसुबद्धाओं' इति नानामणिभि:-नानाप्रकारैर्मणिभिस्तीर्थानि सुबद्धानि यासा ता नानामणितीर्थसुबद्धाः, अत्र बहुत्रीहावपि कान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात्प्राकृतशैलीवशाद्वा, 'चउकोणाओ' इति चत्वारः कोणा यस्यां सा चतुष्कोणाः एतच विशेषणं वापी: कूपांश्च प्रति द्रष्टव्यं, तेषामेर चतुष्कोणत्वसम्भवान् न शेषाणां, तथा|2 आनुपूण-क्रमेण नीचैनीस्तरभावरूपेण मुष्टु-अतिशयेन यो जातो वप्रः-केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीर-अलब्धस्थानं शीतलं | जलं यासु ता आनुपूर्यसुजातवागम्भीरशीतलजला: 'संछाणपत्तभिसमुणालाओ संछनानि-जलेनान्तरितानि पत्रविसमृणालानि यासु ताः संझनपत्रविसमृणाला;, इह विसमृणालसाहचर्यात्पत्राणि-पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, विसानि-कन्दा मृणालानि-पद्मनाला:, तथा बहुभिरुत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रकेसरफुल्लोपचिताः, तथा षट्पदैः-भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कमलानि उपलक्षणमेतत् कुमुदादीनि च यासु ताः षट्पदपरिभुज्यमानफमलाः, तथाऽच्छेन-स्वरूपतः स्फटिकवाछुद्धेन विमलेन-आगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णा अच्छविमल सलिलपूर्णाः, तथा 'पडिहत्या' अतिरेकिता: अतिप्रभूता इत्यर्थः “पडिहत्यमुद्भुमायं अहिरेइयं च जाण आजण्णं" इति वचनात् , उदाहरणं चात्र-"धणपडिहत्थं गयणं सराई नवसलिलसुट्ट(उडु)मायाई । अहिरेइयं महं उण चिंताएँ मणं तुहं विरहे ॥१॥" इति, भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यत्र ताः पडिहत्यभ्रमन्मत्स्यकच्छपाः, तथाऽनेकैः-शकुन मिथुनकैः प्रविचरिता-इतस्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ता अनेक शकुनमिथुनकप्रविचरिताः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, एता वाप्यादयः सरस्सरःषतिपर्यवसाना: प्रत्येकं प्रत्येकमिति, एकमेकं प्रति प्रत्येकम् , अत्राभिमुख्य प्रतिशब्दो न बीप्लाविवक्षायां, पश्चात्प्रत्येकशब्दख द्विचामिति, पावरवेदिकया परिक्षिमाः प्रत्येक वनपण्डपरिक्षिताच, 'अप्पेगतियाओ' इत्यादि, अपि ढाथै बाढमेकका:-काश्चन 2-64-5 ~398~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------------------- मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 2% % प्रत सूत्रांक [१२७] M श्रीजीधा- दावाप्यादय भासवमिय-चन्द्रहासाविषरमा लमिव उदयासांता आल मोदकाः, अप्येकका वारुगस्य वारुणसमुद्रस्येव 'उदकं यासा प्रतिपत्ती जीकाभिक ता बारु गोदका, भयेका श्रीरभिबोदके याला ता: झीरोदकाः, अध्येकका धृतमिबोदके यासा ता पृतोदकाः, अध्येककाः क्षोद | | मनुष्या० मलयगि- व-इक्षुरस पदके यासा वा ओरोकाः, अधेकका अमृतरससमरस मुदकं यास ता अमृतरससमरखोदकाः, अध्येकका अमृत- वनखण्डा. रीयावृत्तिः दारसेन स्वाभाविकेन प्रता:, 'पानाईया(ओ)मादि विशेषग च तुष्टयं प्राग्वन , तासां क्षुलिकाना यावद्रिलपङ्गीनां प्रत्येक २ चतुर्दिशि | वि० चत्वारि, एकस्यां दिशि कमावान्, 'त्रिसोपानप्रतिरूपाणि' प्रतिविशिष्ट रूपं येषां तानि प्रतिरूपकाणि त्रयाणां सोपानानां ११९८ ॥ समाहारबिसोपानं विसोपानानि च तानि प्रतिरूपकाणि चेति विशेष ग ल मासः, विशेषणस्य परनिपातः प्राक्तत्वात , तानि प्रज्ञनानि सू०१२७ तेषां च विसोपानप्रतिरूपकाणाम् 'अयं परमाणः 'एतद्रूप:' अनन्तरं वश्यमागत रूपः 'वर्गावासः' वर्गकनिवेश: प्रज्ञतः, तद्यथा -वज़मयाः' बजरनमया मानेरू निझामन्तः प्रदेशा: 'रिछमयाः रिचरत्नमयाः 'प्रतिष्ठाना' त्रिसोपानमूलपादा वै|स्यमयाः सम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि-विसोपानाअभूतानि वनमयानि व वरनापूरिताः सम्बया-फलकद्वयापान्तरालप्रदेशाः18 लोहिताक्षमच्यः सूच्या-फलकय सम्बन्धविघटनाभावहेतु पादुकास्थानीयाः नानामगिम या अवलम्ब्यन्ते इति अवलम्बना-अवतरतामुत्तरता चालम्पने हेतुभूता अबलम्बनमाहातो विनिर्गताः केचिद्वयवाः अवलंबणवाहाओ' इति अबलम्बनबाहा अपि नानामणिमयाः,11 अवलम्बनवाहा नाम उभयोः 'उभयोः पार्वयोरवलम्यनाश्रयभूता मित्तयः, पासाईयाओ' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण-18 मित्यादि, सेपां त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां प्रत्येकं प्रत्येक तोरणानि प्रशतानि, तेषां च तोरणानामयमेतद्रूपो 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः ॥१९८॥ प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'ते ण तोरणा नाणामणिमया' इत्यादि, तानि तोरणानि नानामणिमयानि, मणयः-चन्द्रकान्तादयः, विविध म-12 दीप अनुक्रम [१६५] - 53 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~399~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], ---- --------- मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] 96 दीप अनुक्रम [१६५] मणिमयानि, नानामपिणमयेषु स्तम्भेषु 'उपविष्टानि' सामीप्येन स्थितानि, तानि च कदाचिञ्चलानि अथवाऽपदपतितानि वाऽऽशवेरन् तत आह-सम्यग-निश्चलतयाऽपदपरिहारेण च निविष्टानि ततो विशेषणसमासः उपविष्टसन्निविष्टानि 'विविहमुत्तरोचिया' इति । विविधा-विविधविच्छित्तिकलिता मुक्का-मुक्ताफलानि 'अंतरे ति अन्तराशब्दोऽगृहीतवीप्सोऽपि सामाद्वीप्सां गमयति, अन्तरा २ ओचिया' आरोपिता यत्र तानि तथा, 'विविहतारारूबोवचिया' इति विविधैस्तारारूपैः-तारिकारूपैरुपचितानि, तोरणेषु हि शोभा तारका निबध्यन्ते इति लोकेऽपि प्रतीतं इति विविधतारारूपोपचितानि, 'ईहामिगउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिंनर-1 रुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता' इति ईहामृगा-वृका व्याला:-श्वापदभुजगाः, ईहामृगषभतुरगनरमकरविहग-5 व्यालकिनररुरुसरभकुचरवनलतापालतानां भक्या-विच्छित्त्या विचित्रं-आलेखो येषु तानि तथा, स्तम्भोगताभिः-स्तम्भोपरिष-13 तिनीभिर्वचरनमयीभिर्वेदिकाभिः परिगतानि सन्ति यानि अभिरमणीयानि तानि साम्भोगतवअवेदिकापरिगताभिरामाणि, तथा 'विजाहरजंतजुत्ताविव अच्चीसहस्समालिणीया' इति विद्याधरयोर्यद् यमलं-समरेणीकं युगलं-द्वन्द्व विद्याधरयमल युगलं तेषां यत्राणि-प्रपञ्चायुक्तानीय, अचिंषां सहस्रैर्मालनीयानि-परिवारणीयानि अर्थिःसहस्रमालनीयानि, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम प्रभा-18 समुदायोपेतानि येनैवं संभावनोपजायते यथा नूनमेतानि न स्वाभाषिकप्रभासमुदयोपेतानि किन्तु विशिष्टविद्याशक्तिमत्पुरुषविशेषप्रपञ्चयु-12 क्तानीति, 'रूवगसहस्सकलिया' इति रूपकाणां सहस्राणि रूपकसहस्राणि तैः कलितानि रूपकसहस्रकलितानि 'भिसमाणा'इति दीप्यमा-3 नानि 'भिम्भिसमाणा' इति अतिशयेन दीप्यमानानि 'चक्खुल्लोयणलेसा' इति चक्षुः कर्तृ लोकने-अवलोकने लिसतीव-दर्शनीयत्वाति शयत: श्लिष्यतीव यत्र तानि चक्षुर्लोकनलेसानि 'सुहफासा' इति शुभस्पर्शानि सशोभाकानि रूपाणि यत्र तानि सश्रीकरूपाणि, जी०च०३४ R-54-CONGRESO २% ~ 400~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [ १६५ ] "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१२७] - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १९९ ॥ Ja Er ......... - • 'पासाइया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'वेसिं तोरणाणं उवरिं अट्ठट्ठमंगले त्यादि सुगमं, नवरं 'जाब पडिरुवा' इति यावत्करणात् 'घट्टा मट्टा नीरया' इत्यादिपरिग्रहः ॥ 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहवः 'कृष्णचामरध्वजाः' कृष्णचामरंयुक्ता ध्वजाः कृष्णचामरध्वजाः एवं बहवो नीलचामरध्वजा लोहितचामरध्वजा हारिद्रचामरध्वजाः शुकुचामरध्वजाः, कथम्भूता इत्याह एते सर्वेऽपि ? इवि, अत आह— 'अच्छा' आकाशस्फटिकवदतिनिर्मलाः 'कृष्णाः' कृष्णपुद्गलस्कन्धनिर्मार्पिता 'रूप्यपट्टा' इति रूप्योरूप्यमयो वज्रमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येषां ते रूप्यपट्टा: 'वइरदंडा' इति वज्रो-वज्ररत्नमवो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवर्ती येषां ते वज्रदण्डाः, तथा जलजानामिव - जलजकुसुमानां पद्मादीनामिवामलो-निर्मलो न तु कुद्रव्यगंधसम्मिश्र यो गन्धः स विद्यते येषां ते ज लजामलगन्धिका 'अतः अनेकस्वरा' दितीकप्रत्ययः, अत एव सुरम्याः, 'पासादीया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहूनि 'छत्रातिच्छत्राणि छत्रात्- लोकप्रसिद्धादेक सङ्ख्या कादतिशायीनि सियानि त्रिसङ्ख्यानि वा छत्रातिच्छत्राणि, ब्रह्मयः पताकाभ्यो- लोकप्रसिद्धाभ्योऽतिशायिन्यो दीर्घत्वेन विस्तारेण च पताकाः पताकातिपताका, बहूनि घण्टा युगलानि बहूनि चामरयुगलानि बहवः 'उत्पलहस्तकाः' उत्पलाख्यजलजकुसुमसमूहविशेषाः एवं पद्महस्तका बहवो नलिनहस्तका बहवः सुभगहस्तका बहवः सौगन्धिकहस्तका बहवः पुण्डरीकहस्तका बहवः शतपत्रहस्तकाः वहवः सहस्रपत्रहस्तकाः, उत्पलादीनि प्रागेव व्याख्यातानि एते च छत्रासिच्छत्रादयः सर्वेऽपि सर्वरत्नमयाः 'जाब पडिरुवा' इति यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा उण्हा' इत्यादि विशेषण कदम्बकपरिग्रहः ॥ 'तासि णमित्यादि, तासां क्षुल्लिकानां वापीनां यावलिपङ्कीनाम्, अत्र यावच्छन्दात् पुष्करिण्यादिपरिग्रहः, अपान्तरालेषु तत्र तत्र देशे। वस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे व उत्पातपर्वता-पत्रागत्य बहवो व्यन्तरदेवा देव्य विचित्रक्रीडानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयन्ति For P&P Cy ३ प्रतिपत्त मनुष्या० विजयद्वाराधि० उद्देशः १ सू० १२७ ~ 401 ~ ॥ १९९ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् मूल- संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र विजयद्वार अधिकार : नास्ति Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- ---------- मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: xA414 प्रत सूत्रांक [१२७] 'नियइपब्वया' इति नियत्या-नयत्येन पर्वता नियतिपर्वताः, कचिन् 'निययपब्बया' इति पाठस्तत्र नियताः-सदा भोग्यत्वेनावस्थिताः पर्वता नियतपर्वताः, यत्र वानमन्तरा देवा देण्यश्च भवधारणीयेन चैक्रियशरीरेण प्रायः सदा रममाणा अवतिष्ठन्ते इति भावः, 'जगतीपर्वतकाः' पर्वतविशेषा: 'दारुपर्वतका' दारुनिर्मापिता इव पर्वतकाः 'दगमंडवगा' इति 'दकमण्डपका' स्फटिकमण्ड|पकाः, उक्तं च मूलटीका-दकमण्डपकाः स्फाटिकमण्डपका" इति, एवं दकमञ्चका दकमालका दकप्रासादाः, एते च दकम|ण्डपादयः केचित् 'उसडा' इति उत्सृता उच्चा इत्यथैः, केचिन् 'खुडा' इति क्षुल्ला लघवः कचित् 'खडख(ह)डगा' इति लघव आ| यताश्च, तथा अन्दोलकाः पक्ष्यन्दोलकाच, तन्त्र यत्रागत्य मनुध्या आसानमन्दोलयन्ति ते अन्दोलका इति लोके प्रसिद्धाः, यत्र तु पक्षिण आगत्यात्मानमन्दोलयन्ति ते पक्ष्यन्दोलकाः, ते चान्दोलका: पक्ष्यन्दोलकाश्च तस्मिन् वनपण्डे तत्र तत्र प्रदेशे वानमन्तरदेवदेवीक्रीडायोग्या बहवः सन्ति, ते चोत्पातपर्वतादयः कथम्भूताः ? इत्याह-सवरत्नमयाः' सर्वात्मना रनमयाः, 'अच्छा सोहा' इत्यादि विशेषणजातं पूर्ववत् ।। 'तेसु णमित्यादि, तेयु उत्पातपर्वतेषु यावत्पक्ष्यन्दोलकेपु, यावत्करणान्नियतिपर्वतकादिपरिग्रहः, बहूनि | पाहंसासनानि तत्र थेपामासनानामधोभागे हंसा व्यवस्थिता यथा सिंहासने सिंहाः तानि हसासनानि, एवं कौचासनानि गरुडाहासनानि च भावनीयानि, उन्नतासनानि नाम यानि उच्चासनानि प्रणतासनानि-निन्नासनानि दीर्घासनानि-शय्यारूपाणि भद्रासनानि वेषामधोभागे पीठिकावन्धः पक्ष्यासनानि येपामधोभागे नानास्वरूपाः पक्षिणः, एवं मकरासनानि सिंहासनानि च भावनीयानि, पभासनानि-पयाफाराणि आसनानि 'दिसासोवस्थियासणाणि' येपामधोभागे दिक्सौवस्तिका आलिखिताः सन्ति, अत्र यथाक्रममासनानां साहिका सदाहणिगाथा-"हंसे १ कोंचे २ गाढे ३ उग्णय ४ पणए य ५ दीह ६ भद्दे य ७ । पक्खे ८ मयरे ९ दीप अनुक्रम [१६५] *4464 ~ 402~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ ----------- मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] - - दीप अनुक्रम [१६५] श्रीजीवाउसहे १० सीह ११ दिसासोव]स्थि १२ वारसमे ॥ १॥" एतानि सर्वाण्यपि कथम्भूतानि ? इत्यत आह–'सब्बरयणामया' इत्यादि प्रतिपत्ती जीवाभि प्राग्वत् ॥ 'तस्स णं वणसंडस्से त्यादि, प्राग्यन् तस्य वनखण्डस्य मध्ये तत्र तत्र प्रदेशे तस्यैव देशस्थ तत्र तत्रैकदेशे बहूनि 'आलि-131 मनुष्या० मलयगि- गृहकाणि' आलि:-वनस्पतिविशेषस्तन्मयानि गृहकाणि मालिरपि-वनस्पतिविशेषस्तन्मयानि गृह काणि मालिगृहका णि कदलीगृहकाणिविजयद्वारीयावृत्तिःलतागृहकाणि प्रतीतानि 'अच्छणघरका' इति अवखानगृह काणि येषु चदा तदा वाऽऽगत्य बहवः मुखासिकयाऽवसिष्ठन्ते, प्रेक्षणक-1 राधि गृहाणि यत्रागत्य प्रेक्षणकानि विदधति निरीक्षन्ते च, मजनकगृहकाणि यत्रागत्य स्वेच्छया मजनं कुर्वन्ति प्रसाधनगृहकाणि यवागत्या ॥२० ॥ उद्देशः१ खं परं च मण्डयन्ति गर्भगृहका गि-गर्भगृहाकाराणि, 'मोहणघरगा' इति मोहणं-मैथुनलेवा "रमियमोहारयाई" इति नाममाला सू०१२७ वचनात् , तत्प्रधानानि गृहकाणि मोहनगृहकाणि वासभवनानीति भावः, 'शालागृहकाणि पट्टशालाप्रधानानि गृहकाणि 'जालगहकाणि' जालकयुक्कानि गृहकाणि 'कुसुमगृहकाणि' कुमुभप्रकरो पचितानि गृहकाणि "चित्रगृहकाणि' चित्रप्रधानानि गृहकाणि गन्धर्वगृहकाणि' गीतनृत्याभ्यासयोग्यानि गृहकाणि 'आदर्शगृहकाणि' आदर्शमयानीव (आदर्श) गृहकाणि, एतानि च कथम्भूतानि ? *इत्यत आह-'सब्बरयणामया' इत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ।। 'तेसु णमित्यादतेषु आलिगृहकेषु, यावच्छब्दान्मालिगृहकादि | परिग्रहः, बहूनि हसासनानि इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तस्स णमित्यादि, तस्य वनखण्डस्य मध्ये तत्र देशे तस्यैव देशस्य तन्त्र तत्रैकदेशे दाबहवो जातिमण्डपका यूथिकामनुपका मल्लिकामण्डपका नवमालिकामण्डपका वासन्तीमण्डपका दधिवासुका नाम वनस्पतिविशे पस्तन्मया मण्डपका दधिवासुकमण्डपकार, सूरिल्लिरपि वनस्पतिविशेषस्तन्मया मण्डपकाः सूरिलिमण्डपकाः, ताम्बूली-नागवल्ली तन्मया मण्डपकास्ताम्बूलीमण्डपकाः, नागो-दुमविशेषः स एव लता नागलता, इह यस्य तिर्यक् तथाविधा शाखा प्रशाखा न अमृता Kr laElcom अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र विजयद्वार-अधिकारः नास्ति ~ 403~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- ----------- मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] सा लतेत्यभिधीयते, नागलतामयमण्डपकाः, अतिमुक्तकमण्डपकाः, 'अफोया' इति वनस्पतिविशेषस्तन्मया भण्डपका अप्फोयामण्डपकाः, मालुका-एकाथिकफला वृक्षविशेषास्तयुक्ता मण्डपका मालुकामण्डपकाः, एते च कथम्भूताः इत्याह-सवरयणा-15 मया' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तेसु ण'मित्यादि, वेषु जावीयमण्डपेषु यावन्मालुकामण्डपेषु, यावत्करणाद् यूथिकामण्डपकादिपरिग्रहः, बहवः शिलापट्टका: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-अप्येकका हंसासनवत्संस्थिता सासनसंस्थिताः यावदप्येकका दिक्सौयतिकासनसंस्थिताः, मायावत्करणात् 'अप्पेगइया कोंचासणसंठिया अप्पेगइया गरुडासणसंठिया अप्पेगश्या उन्नयासणसंठिया अप्पेगश्या पणयासणसंठिया अप्पेगइया भद्दासणसंठिया अपेगइया पक्खासणसंठिया अप्पेगइया मयरासणसंठिया अप्पेगइया उसभासणसंठिया अप्पेगइया | सीहासणसंठिया अप्पेगइया पउमासगसंठिया अप्पेगइया दीहासणसंठिया' इति परिग्रहः, अन्ये च बहवः शिलापट्टका यानि | विशिष्टचिह्नानि विशिष्टनामानि च वराणि-प्रधानानि शयनानि आसनानि च तद्वत्संस्थिता वरशयनासनविशिष्टसंखानसंस्थिताः, क-15 चिन् 'मांसलसुघुडविसिट्ठसंठाणसंठिया' इति पाठस्तत्रान्ये च बहवः शिलापटुका मांसला इव मांसला: अकठिना इत्यर्थः सुघुष्टार है|इव सुघुष्टा अतिशयेन ममृणा इति भावः विशिष्टसंस्थानसंस्थिताश्च 'आईणगरूयबूरनवणीयतूलफासा मउया सब्बरयणामया | अच्छा' इत्यादि प्राग्वन , तत्रैनेषु उत्पातपर्वतादिगतहंसासनादिपु यावन्नानारूपसंस्थानसंस्थितपूधियीशिलापट्टकेपु णमिति पूर्ववद् प-1 हवो वानमन्तरा देवा देव्यश्च यथासुखमासते 'शेरते' दीर्घकायप्रसारणेन वर्तन्ते, न तु निद्रां कुर्वन्ति, तेषु देवयोनिकतया निद्राया *अभावात् , 'तिष्ठन्ति' अर्द्धस्थानेन वर्तन्ते 'निषीदन्ति' उपविशन्ति 'तुबदृति' इति लग्वर्त्तनं कुर्वन्ति बामपार्वतः परावृस्य दक्षि-14 णपार्थेनावतिष्ठन्ति दक्षिणपार्वतो वा परावृत्त्य बामपानावतिष्ठन्ति रमन्ते' रतिमाबध्नन्ति 'ललन्ति' मनईप्सितं यथा भवति | दीप अनुक्रम [१६५] Joice ~ 404~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ ----------- मूलं [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत राधिक सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६५] श्रीजीवा-इतथा वर्तन्त इति भावः 'क्रीडन्ति' यथासुखमितस्ततो गमनविनोदेन गीतन्यादिविनोदेन वा तिन्ति 'मोहन्ति' मैथुनसेवां कुर्वन्ति,11३ प्रतिपत्ता जीवाभि०६इत्येवं 'पुरा पोराणाग'मित्यादि, 'पुरा' पूर्व प्राग्भवे इति भावः कृतानां कर्मणामिति योगः, अत एव पौराणानां सुचीर्णानां-सुच-दामनुष्या० मलयगि-1रितानामितिभावः, इह सुचरितजनितं कर्मापि कावें कारणोपचारात्सुचरितमिति विवक्षित, ततोऽयं भावार्थ:-विशिष्टतथाविधधानु- विजयद्धा रीयावत्तिः ठप्टानविषयाप्रमादकरणक्षान्त्यादिसुचरितानामिति, तथा सुपराक्रान्तानाम् , अत्रापि कारणे कार्योपचारात् सुपराक्रान्तजनितानि कर्माण्येव । सुपराकान्तानि इत्युक्तं भवति, सफलसत्वमैत्रीसत्यभाषणपरद्रव्यानपहारसुशीलादिरूपसुपराक्रमजनितानामिति, अत एव शुभाना-1 उद्देशः १ ॥२०१॥ शुभफलानाम् , इह किञ्चिदशुभफलमपीन्द्रियमतिविपर्यासात् शुभफलमाभाति ततस्तात्त्विकशुभत्वप्रतिपत्यर्थमस्यैव पर्यायशब्दमाह- सू० १२५ कल्याणानां तत्ववृत्त्या तथाविधविशिष्टफलदायिनाम् , अथवा कल्याणानाम्-अनर्थोपशमकारिणा, कल्याण-कल्याणरूपं फलविहापाक 'पञ्चणुभवमाणा' प्रत्येकमनुभवन्तः–'विहरन्ति' आसते । तदेवं पद्मवरवेदिकाया बहियों बनखण्डतद्वक्तव्यतोक्ता, सम्प्रति तस्या एव पनपवेदिकाया अर्वाग् जगत्या उपरि यो वनखण्डतद्वक्तव्यतामभिधित्सुराह-तीसे णं जगतीए' इत्यादि, तस्या जरागत्या उपरि पद्मवरवेदिकाया 'अन्तः' मध्यभागे अत्र महानेको वनपण्डः अज्ञप्तः 'देसोणाई दो जोयणाई विक्खंभेण'मित्यादि सर्व बहिर्बनखण्डवदविशेषेण वक्तव्यं, नवरमत्र मणीनां तृष्णानां च शब्दो न वक्तव्यः, पद्मत्ररवेदिकान्तरिततया तथाविधवाताभावतो मराणीनां तृणानां च चलनाभावतः परस्परसंघर्षाभावात् , तथा चाह-"वणसंडवष्णतो सद्दवजो जाब बिहरंति" इति । सम्पति जम्बूद्वीपस्य द्वारसयाप्रतिपादनार्थमाह ॥२०१॥ वहीवस्स णं भंते दीवस्स कति दारा पण्णत्ता गोयमा! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तंजहा अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् मूल-संपादने अत्र शिर्षक-स्थाने एका स्खलना दृश्यते-अत्र विजयद्वार-अधिकारः नास्ति ~ 405~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८ -१२९] बिजये बेजयंते जयंते अपराजिए ॥(सू०१२८) कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजये नाम दारे पण्णसे?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पुरस्थिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अपाधाए जंबहीवे दीव पुरच्छिमपेरंते लवणसमुद्दपुरच्छिमद्धस्स पञ्चस्थिमेणं सीताए महाणदीए उपि एत्थ णं जंबदीवस्स दीवस्त विजये णामं दारे पण्णसे अट्ट जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं तावतियं चेव पवेसेणं सेए वरकणगथूभियागे ईहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिषगररुरुसरभचमरकुंजरवणलतपउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गतबहरवेदियापरिगताभिरामे विजाहरजमलजुयलजलजुत्ते इव अचीसहस्समालिणीए रूवगसहस्सकलिते भिसिमाणे भिम्भिसमाणे चक्खुल्लोयणलेसे सुहफासे सस्सिरीयस्वे वण्णो दारस्स (तस्सिमो होइ) तं०-बहरामया णिम्मा रिद्वामया पतिवाणा वेरुलियामया खंभा जायरूवोवचियपवरपंचवणमणिरयणकोहिमतले हंसगन्भपए एलुए गोमेजमते इंदक्खीले लोहितक्खमईओ दारचिडाओ जोतिरसामते उत्तरंगे वेरुलियामया कवाडा वरामया संधी लोहितवमईओ सूईओ गाणामणिमया सरगना बरामई अग्गलाओ अग्गलपासाया वारामई आवत्तणपेढिया अंकुत्तरपासते णिरंतरितघणकवाडे भित्तीसु चेव भित्तीगुलिया छप्पण्णा तिणि होति गोमाणसी तत्तिया णाणामणिरयणवालरूवगलीलहियसालिभंजिया बहरामए कृडे रययामए उ दीप अनुक्रम [१६६-१६७] SAKACANCRECARAMAKA5 अथ विजय-द्वाराधिकार: आरब्ध: ~406~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८-१२९] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपक्षी मनुष्या० विजयद्वा राधि. उद्देशः१ सू०१२८ ॥२०२॥ - दीप अनुक्रम [१६६-१६७] स्सेहे सव्वतवणिजमए जल्लोए णाणामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहितक्खपहिवंसगरयतभोम्मे अंकामया पक्ववाहाओ जोतिरसामया बंसा बंसकवेलुगा य रयतामयी पहिताओ जायख्वमती ओहाडणी बहरामयी उवरि पुच्छणी सव्वसेतरययमए च्छायणे अंकमतकणगाडतवणिजथूभियाए सेते संखतलविमलणिम्मलदधिधणगोखीर फेगरययणिगरप्पगासे तिलगरयणचंदचित्ते णाणामणिमयदामालंकिए अंतो य बहिं च सण्हे तवणिज रुइलवालुयापत्थडे सुहफासे सस्सिरीयस्वे पासातीए ४॥ विजयस्स णं दारस्स उभयो पासिं दुहतो णिसीहियाते दो दो चंदणकलसपरिवाडीओ पण्णताओ, ते णं चंदणकलसा वरकमलपहाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा चंदणकयचच्चागा आबद्धकंठेगुणा पउमुप्पलपिहाणा सय्यरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा महता महता महिंदकुंभसमाणा पण्णसा समणाउसो! । विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहतो णिसीहिआए दो दो णागदंतपरिवाडीओ, ते णं णागदंतगा मुत्ताजालंतरूसितहेमजालगवक्खजालखिखिणीघंटाजालपरिक्खित्ता अब्भुग्गता अभिणिसिट्ठा तिरियं सुसंपगहिता अहेपण्णगद्धरूवा पण्णगद्धसंठाणसंठिता सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा महता महया गयदंतसमाणा प० समणाउसो! ॥ तेसु ण णागदतएमु बहवे किण्हसुत्सबद्धवग्घारितमहलदामकलावा जाव सुकिल्लमुत्तबद्धवग्घारियमल्लदामकलावा ।। ते णं दामा तवणिजलंचूसगा CAROKACACASCRX 4-ASCAML ॥२०२॥ IX अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 407~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- ---------- मूलं [१२८-१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [१२८ -१२९] 496-- 21R सुवण्णपतरगमंडिता णाणामणिरयणविविधहारद्धहार (उचसोभितसमुदया) जाव सिरीए अतीव अतीव उपसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति ॥ तेसि णं णागदंतकाणं उवरिं अपणाओ दो दो णागदंतपरिवाडीओ पण्णत्ताओ, तेसि णं णागदंतगाणं मुत्ताजालंतरूसिया तहेब जाव समणाउसो! । तेसु णं णागदंतएम बहवे रयतामया सिकया पण्णत्ता, तेसु णं रयणामएम सिफएसु बहवे वेरुलियामतीओ धूवघडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-साओ णं धूवघडीओ कालागुरुपवरकुंदरुकतुरुकधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामाओ सुगंधवरगंधगंधियाओ गंधवहिभूयाओ ओरालणं मणुण्णणं घाणमणणिब्बुइकरणं गंधणं तप्पएसे सय्यतो समंता आपूरेमाणीओ आपूरेमाणीओ अतीव अतीव सिरीए जाव चिट्ठति ॥ विजयस्स णं दारस्स उभयतो पासिं दुहतो णिसीधियाए दो दो सालिभंजियापरिवाडीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं सालभंजियाओ लीलहिताओ सुपयट्ठियाओ सुअलंकिताओ णाणागारयसणाओ णाणामल्लपिणद्वि(द्वि)ओ मुट्ठीगेझमज्झाओ आमेलगजमलजुयलवहिअन्भुण्णयपीणरचियसंठियपओहराओ रत्सावंगाओ असियकसीओ मिदुविसयपसत्थलक्वणसंवेल्लितग्गसिरयाओ इसिं असोगवरपादवसमुट्टिताओ वामहत्वगहितग्गसालाओ ईसिं अडच्छिकडक्वविद्विएहिं लूसेमाणीतो इव चक्खुल्लोयणलेसाहिं अण्णमण्णं खिजमाणीओ इव पुढविपरिणाभाओ सासयभावमुष 195%454 दीप अनुक्रम [१६६-१६७] KET ~ 408~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [१२८ 2 श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥२०३॥ प्रतिपत्तो | मनुष्या० विजयद्वाराधिक उद्देशः१ सू०१२९ -2-8 -१२९] *-* गताओ चंदाणणाओ चंदविलासिणीओ चंदडसमनिडालाओ चंदायिसोमदसणाओ उक्का इव उज्जोएमाणीओ विजघणमरीचिमूरदिप्पंततेयअहिययरसंनिकासाओ सिंगारागारचारुबेसाओ पासाइयाओ ४ तेयसा अतीव अतीव सोभेमाणीओ सोभेमाणीओ चिट्ठति ।। विजयस्स णं दारस्स उभयतो पासिं दुहतो णिसीहियाए दो दो जालकडगा पपणता, ते णं जालकडगा सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ।। विजयस्स णं दारस्स उभओपासिं दुहओ णिसीधियाए दो दो घंटापरिवाडिओ पण्णत्ताओ, तासिक घंटाणं अयमेयारूचे घण्णावासे पपणते, संजहा-जंचूणतमतीओ घंटाओ बहरामनीओ लालाओ णाणामणिमया घंटापासगा तबणिजामतीओ संकलाओ रयतामतीओ रजूओ ॥ ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ हंसस्सराओ कोचस्सराओ णंदिस्सराओ णंदिघोसाओ सीहस्सराओ सीहघोसाओ मंजुस्स. राओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ सुस्सरणिग्घोसाओ ते पदेसे ओरालेणं मणुपणेणं कण्णमणनिव्युइकरेण सरेण जाच चिट्ठति ॥ विजयस्स णं दारस्स उभओपासिं दुहतो णिसीधिताए दो दो वणमालापरिवाडीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं वणमालाओ णाणादुमलताकिसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरिभुजमाणकमलसोभंतसस्सिरीयाओ पासाईयाओ ते पएसे उरालेणं जाव गंधेणं आपूरेमाणीओ जाव चिट्ठति (सू०१२९) ।। - दीप अनुक्रम [१६६ AKACCAREKAMACACAKKA * K-4-% -१६७]] न।।।२०३॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 409~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -95-RSS प्रत सूत्रांक [१२८ *CROCKS -१२९] 'जंबुद्दीवस्स णं भंते!" इत्यादि, जम्बूद्वीपस्य णमिति प्राग्वत् भदन्त! द्वीपस्य कति द्वाराणि प्रज्ञमानि ?, भगवानाह-गौतम! चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-विजयं वैजयन्तं जयन्तमपराजितं च ॥ 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञमं?, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमेणंति पूर्वस्यां दिशि पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्रप्रमाणया 'अबाधया' अपान्तरालेन यो जम्बूद्वीपस्य 'पुरच्छिमे पेरते' इति पूर्वः पर्यन्तो लवणसमुद्रपूर्वार्द्धस्य 'पञ्चस्थि-18 मेणं'ति पश्चिमे भागे शीताया महानद्या उपरि 'अत्र' एतस्मिन् प्रदेशे जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम् , अष्टौ योजनानि उच्चस्त्वेन चलारि योजनानि विष्कम्भेन, 'तावइयं चेव पवेसेण ति तावन्त्येव चत्वारीत्यर्थः योजनानि प्रवेशेन, कथम्भूतमित्यर्थः, 'सेए' इत्यादि, 'श्वेतं' वेतवर्णोपेतं बाहत्येनाङ्करत्रमयत्वात् 'वरकणगथूभियाए' इति वरकनका-तरकनकमयी स्तू-/५ पिका-शिखरं यस्य तद् वरकनकस्तूपिकाकम् , हामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गयवरवेश्यापरिगयाभिरामे विजाहरजमल जुगलजंतजुत्ते इव अचीसहस्समालणीए रूवगसहस्सकलिए भिसमाणे भिभिसमाणे चक्म्युल्लोवणलेसे सुहफासे सस्सिरीयरूवे' इति विशेषणजातं प्राग्वत् । 'वण्णो दारस्स तस्सिमो होइ' इति 'वर्णः वर्णकनिवेशो द्वारस्य 'तस्य विजयाभिधानस्य 'अयं वक्ष्यमाणो भवति, तमेवाह-'तंजहे'त्यादि, तन्यथा-वनमया नेमा-भूमिभागादूर्ब निष्कामन्तः प्रदेशा रिष्ठमयानि प्रतिष्ठानानि-मूलपादाः 'वेरुलियरुइलखंभे इति वैडूर्या-बैडूर्यरत्नमया रुचिराः स्तम्मा यस्य तद् वैडूर्यरुचिरस्तम्भ 'जायख्वोवचियपवरपंचवण्णमणिरयणकुट्टिमतले' इति जातरूपेण-सुवर्णेनोपचितैः-युक्तैः प्रवरैः -प्रधानैः पञ्चवर्णैर्मणिभिः-चन्द्रकान्तादिभिः रक्षः-कर्केतनादिभिः कुट्टिमतलं-बद्धभूमितलं यस्य तत्तथा 'हंसगम्भमए एलुगे' दीप अनुक्रम [१६६-१६७] ESS-4555 ~ 410~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२८ -१२९] दीप अनुक्रम [१६६ -१६७] प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१२८- १२९] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः ॥ २०४ ॥ * इति हंसगर्भो - रत्रविशेषस्तन्मय एलुको देहली 'गोमेज्जमयइंदकीले' इति गोमेयकरत्नमय इन्द्रकीलो लोहिताक्षरमथ्यौ द्वारपिण्डौ (चेट्यौ)-द्वारशाखे 'जोइरसामए उत्तरंगे' इति ज्योतीरसमयमुत्तरङ्ग-द्वारस्योपरि तिर्यग्व्यवस्थितं काष्ठं बैडूर्यमयौ कपाटी | लोहिताक्षमय्यो-लोहिताक्षर वालिफाः सूचय: - फलकद्वयसम्बन्धविघटना भावहेतुपादुकास्थानीया: 'बहरामया संधी' वज्रमयाः 'सन्धयः सन्धिमेला : फलकानां, किमुक्तं भवति ? - रत्नापूरिताः फलकानां सन्धयः, 'नानामणिमया समुरगया' इति समुद्रका इव समुङ्गकाः-सूतिकागृहाणि तानि नानामणिमयानि 'वइरामया अग्गला अम्गलपासाया' अगठा:- प्रतीवाः अर्गला प्रासादा यत्राला नियम्यन्ते, आह च मूलटीकाकार:- "अर्गला प्रासादा यन्त्रार्गला नियम्यन्ते" इति एतौ द्वावपि वचनमयौ, 'रययामयी आवत्तणपेढिया' इति आवर्त्तनपीठिका यत्रेन्द्रकीलिका, उक्तं च मूलटीकायाम् — “आवर्त्तनपीठिका यत्रेन्द्रकीलको भवति " 'अंकुत्तरपासाए' इति अङ्का अङ्करत्नमया उत्तरपार्श्वी यस्य तद् अङ्कोत्तर पार्श्व 'निरंतरियघणकवाडे' इति निर्गता अन्तरिका-छध्वन्तररूपा ययोस्तौ निरन्तरिकौ अत एव घनौ कपाटौ यस्य तन्निरन्तरचनकपाटं 'भित्तिसु चैव भित्तिगुलिया छप्पण्णा तिन्नि होति' इति तस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोभित्तिषु-भित्तिगता भित्तिगुलिका:-पीठक संस्थानीयास्तिस्रः षट्पञ्चाशतः षट्पञ्चाशत्रिकमाणा भवन्ति, 'गोमाणसिया तत्तिया' इति गोमानस्य:- शय्या: 'तत्तिया' इति तावन्मात्राः षट्पञ्चाशनिकसङ्ख्याका इत्यर्थः 'नानामणिरयणवालरूवगलीलडियसालभंजियाए' इति इदं द्वारविशेषणं, नानामणिरत्नानि नानामणिरत्नमयानि व्यालरूपकाणि | लीलास्थितशालभञ्जिकाच-लीलास्थित पुत्रिकाञ्च यस्य तत्तथा 'वइरामए कूडे' वज्रमयो-वचरत्नमयः कूटो - माडभागः रजतमय उत्सेधः शिखरम् आह च मूलटीकाकार:- "डो- माढभाग उच्छ्रयः शिखरमिति, केवलं शिखरमत्र तस्यैव माडभागस्य सं For P&Praise Cly प्रतिपत्तौ मनुष्या० विजयद्वाराधि० उद्देशः १ सू० १२९ ~ 411~ ॥ २०४ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् by Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८ -१२९] बन्धि द्रष्टव्यं न द्वारा, तस्य प्रागेवोक्तत्वात् , 'सव्वतवणिजमए उल्लोए' सर्वांसना तपनीयमय उल्होक:-उपरिभागः 'नानामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमे' इति, मणयो-मणिमया वंशा येषां तानि मणिमयवंशकानि लोहिताक्षा -लोहिताक्षमयाः प्रतिवंशा येषां तानि लोहिताक्षप्रतिबंशकानि रजता-रजतमयी भूमिर्वेषां तानि रजतभूमानि, प्राकृत वारसमासान्तो। |मकारस्य च द्विलं, मणिवंशकानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि रजतभूमानि नानामणिरानि-नानामणिरत्नमयानि जालपजराणि-वा भाषरपर्यायाणि यस्मिन् द्वारे तत्तथा, पदानामन्यथोपनिपात: प्राकृतवान् , 'अंकमया पक्खा पक्खयाहामो जोईरसामया वंसा वंसकबेलुगा य रययामईओ पट्टियाओ जायरूवमईओ ओहाडणीओ वइरामईओ उवरिपुंछणीओ सव्वसेयरययामए छा(य)' इति पद्मवरवेदिकावड़ावनीयम् , 'अंकमयकणगडतवणिज्जथूभियागे' इति अङ्कमयं-बाहुल्येनाङ्करत्नमयं पक्षवाहादीनामङ्करनात्मकत्वात् कनक-कनकमयं कूट-शिखरं यस्य तत् कनककूटं तपनीवा-चपनीयमयी स्तूपिका-लघुशिखररूपा यस्य तत्तपनीयस्तूपिकाकं, ततः पदत्रयस्य पद्यमीलनेन कर्मधारयः, एतेन यत् प्राक् सामान्यत उरिक्षप्तं 'सेए वरकणगथूभियागे' इति तदेव प्रपञ्चतो भावितमिति । सम्प्रति तदेव श्वेतवमुपसंहारव्याजेन भूय उपदर्शयति-'सेए' श्वेत, श्वेतलमेवोपमया द्रढयति-संखतलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफेणरययनिगरप्पगासे' इति विमलं-विगतमलं यत् शहतलं शङ्खस्योपरितनो भागो यश्च निर्मलो दधियनोघनीभूतं दधिगोक्षीरफेनो रजतनिकरच तद्वत्प्रकाश:-प्रतिमता यस्य तत्तथा, 'तिलगरयणद्धचंदचित्ते' इति तिलकरत्नानि-पुण्डविशेषासैरर्द्धचन्द्रश्च चित्राणि-नानारूपाणि तिलकार्द्धचन्द्रचित्राणि, कचित् 'संखतलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफेणरययनियरप्पगासद्धचित्ता' इति पाठस्तत्र पूर्ववत् पृथक् पृथग व्युत्पत्तिं कृत्वा पञ्चात्पदद्वयस्य २ कर्मधारयः, 'नाणामणिदामालंकिए' नाना दीप अनुक्रम [१६६ * -१६७]] isit95 जी० २०३५ Jival ~ 412~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२८ -१२९] दीप अनुक्रम [१६६ -१६७] प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....... “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१२८- १२९] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २०५ ॥ | मणयो - नानामणिमयानि दामानि - मालास्तैरलङ्कृतं नानामणिदामालङ्कृतम् अन्तर्बहिश्व 'श्लक्ष्णं' क्ष्णपुद्गलस्कन्ध निर्मार्पितं 'तवणिजवालुयापत्थडे' इति तपनीया: - तपनीयमय्यो वा वालुकाः सिकतास्तासां प्रस्तटः-प्रस्तारो यस्मिन् तत्तथा, 'सुहफासे सस्तिरीयरूबे पासाईए जाव पछिरू' इति प्राग्वत् ॥ 'विजयस्स णं दारस्से' त्यादि, विजयस्य णमिति प्राग्वत् द्वारस्य उभयोः पार्श्वयोरेकैकनैषेधिकीभावेन 'दुहतो' इति द्विधातो द्विप्रकारायां नैषेधिक्यां, नैषेधिकी-निपीदनस्थानम् उक्तं च मूलटीकाकारेण नैषेधिकी निपीदनस्थान" मिति प्रत्येकं द्वौ द्वौ चन्दनकलशौ प्रज्ञप्तौ ते च चन्दनकलशा: 'वरकमलपइद्वाणा' इति वरं प्रधानं यत्कमलं तत्प्रतिष्ठानं आधारो येषां ते वरकमलप्रतिष्ठानाः, तथा सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णा चन्दनकृतचर्चाका:- चन्दनकृतोपरागाः 'आविद्धकंठेगुणा' इति आविद्ध: - आरोपितः कण्ठे गुणो-रक्कसूत्ररूपो येषु ते आविद्धकण्ठेगुणाः कण्ठे कालवत्सप्तम्या अलुक्, 'पउप्पलपिहाणा' इति पद्ममुत्पलं च यथायोगं पिधानं येषां ते पद्मोत्पलपिधानाः 'सम्बरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा' इति प्राग्वत् 'महयामहया' इति अतिशयेन महान्तो महेन्द्रकुम्भसमानाः, कुम्भानाभिन्द्र इन्द्रकुम्भो राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशन्दस्य पूर्वनिपातः, महांचासौ इन्द्रकुम्भत्र्य तस्य समाना महेन्द्रकुम्भसमाना महाकलशप्रमाणाः प्रज्ञप्ताः हे भ्रमण हे आयुष्मन्! || 'विजयस्स पण'मित्यादि, विजयस्व द्वारस्य उभयोः पार्श्वयोरेकैकनैवेधिकीभावेन द्विधातो नैषेधिक्यां द्वौ द्वौ 'नागदन्तको 'नर्कुटकी अङ्कटकावित्यर्थः प्रज्ञप्तौ ते च नागदन्तका 'मुत्ता जालंतरूसियहेमजालगवक्खजालखिंखिणीजालपरिक्खित्ता' इति मुक्ताजालानामन्तरेषु यानि उत्सृतानि - लम्बमा - नानि हेमजालानि - हेममयदामसमूहाः यानि च गवाक्षजालानि - गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहाः यानि च किङ्किणी- क्षुद्रघण्टा किङ्किणीजालानि - क्षुद्रघण्टा ( सङ्गाता ) स्लैः परिक्षिप्ताः सर्वतो व्याप्ताः 'अन्भुग्गया' इति अभिमुखमुद्रता अभ्युद्गता अप्रिमभागे मनागू उन्नता For P&Praise Cinly ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वारवर्णनं उद्देशः १ सू० १२९ ~ 413~ ॥ २०५ ॥ way w अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८ -१२९] इति भावः 'अभिनिसिहा' इति अभिमुखं-बहि गाभिमुखं निसृष्टाः अभिनिसृष्टाः 'तिरियं सुसंपग्गहिया' इति तिर्यग-भित्तिप्रदेशे सुप्तु अतिशयेन सम्यग्-मनागप्यचलनेन परिगृहीताः सुसंपरिगृहीताः 'अहेपन्नगद्धरूबा' इति अध:-अधस्तनं यत्पन्नगस्य-सर्पस्यार्द्ध तस्येव रूप-आकारो येषां ते तथा अधःपन्नगाईवदतिसरला दीर्घाश्चेति भावः, एतदेव ब्याचष्टे- पन्नगाड़संस्थानसंस्थिताः अधःपन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिताः 'सव्यवइरामया' सर्वात्मना वजमयाः 'अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् , 'महयामहया' इति अतिशयेन 'गजदन्तसमानाः' गजदन्ताकारा: प्रज्ञमा हे अमण ! हे आयुष्मन् ! ॥'तेसु णं नागदतएसु' इत्यादि, तेषु च नागदन्तकेषु बहवः कृष्णसूत्रे बद्धाः 'वग्धारिया' इति अवलम्बिताः 'माल्यदामकलापाः' पुष्पमालासमूहा बहवो नीलसूत्रबद्धा माल्यदामकलापाः, एवं लोहितहारिद्रशुक्लसूत्रबद्धा अपि बाल्याः ॥ ते णं दामा' इत्यादि, तानि दामानि 'तबनिजलंवूसगा' इति तपनीय:-तपनीयमयो लम्बूसगो-दाम्रामश्रिमभागे प्राङ्गणे लम्बमानो मण्डनविशेषो गोलकाकृतिर्येषां तानि तपनीयलम्बूसकानि 'सुवगणपयरगमंडिया'इति पार्श्वत: सामस्त्येन सुवर्णप्रतरेण-सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि 'नानामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुदया' इति नानारूपाणां मणीनां रवानां च ये विविधा-विचित्रवर्णा हारा-अष्टादशसरिका अर्बहारा-नवसरिकास्तैरुपशोभित: समुदायो येषां तानि तथा 'जाब सिरीए अतीव उवसोभेमाणा चिटुंति' अत्र यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो| द्रष्टव्य:- ईसिमण्णमण्णमसंपत्ता पुरुवावरदाहिणुत्तरागपहिं बाएहि मंदाय मंदायमेइजमाणा पलंबमाणा पलंबमाणा परंभ(झंझ)माणा परंभ(झंझ)माणा ओरालेणं मणुभेणं मणहरेणं कण्णमणनियुइकरेणं सहेणं ते पएसे सव्वतो समंता आपूरेमाणा आपूरेमाणा सिरीए उवसोभेमाणा वसोभेमाणा चिट्ठति । एतच प्रागेच पद्मवरवेदिकावर्णने ब्याख्यातमिति भूयो न व्याख्यायते ॥ 'तेसि णं नागद %- दीप अनुक्रम [१६६-१६७] %AD ACCE% ~414~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१२८ -१२९] दीप अनुक्रम [१६६ -१६७] श्रीजीवा "जीवाजीवाभिगम" जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ २०६ ॥ - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१२८- १२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) * ताणमित्यादि, तेषां नागदन्तानामुपरि अन्यौ द्वौ नागदन्तको प्रज्ञप्ती, तेच नागदन्तका: 'मुसाजालतरूसियहेमजालगवक्ख जाल' इत्यादि प्रागुक्तं सर्व द्रष्टव्यं यावद् गजदन्तसमानाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन्! ॥ 'तेसु णं णागदंतएसु' इत्यादि तेषु नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि सिक्कानि प्रज्ञप्तानि तेषु च रजतमयेषु सिक्केषु बहवो 'वैडूर्यरत्नमय्यो' वैडूर्यरनात्मिकाः 'धूपघट्यो' धूपघटिकाः प्रज्ञप्ताः, ताञ्च धूपघटिका : 'कालागुरुपवर कुंदुरुक्क तुरुकधूयमघमतगंधुदुयाभिरामा कालागुरुः प्रसिद्धः प्रवरः प्रधानः कुन्दुरुष्क: पीडा तुरुष्कं सिल्हकं कालागुरु प्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्के व कालागुरुप्रवरकुन्दुरुतुरु काणि तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्ध उद्भुत - इतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिरामाः कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्क धूम मच मचायमानगन्धोद्धु ताभिरामाः, तथा शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धास्तं च ते वरगन्धास्तेषां गन्धः स आस्वस्तीति सुगन्धवरगन्धिकाः 'अतोऽनेकस्वरादि' तीकप्रत्ययः, अत एव गन्धवर्त्तिभूताः- सौरभ्यवत्तिभूताः सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पाः 'उदारेण' स्फारण 'मनोज्ञेन' मनोऽनुकूलेन, कथं मनोनुकूलत्वम् ? अत आह-प्राणमनोनिर्वृतिकरण हेतौ तृतीया यतो घ्राणमनोनिर्वृतिकरस्ततो मनोशस्तेन गन्धेन तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् आपूरयन्त्य आपूरयन्त्यः अत एव श्रियाऽतीव शोभमानास्तिष्ठन्ति ॥ 'विजयरस णं दारस्से'त्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः | पार्श्वयोरेकैकनैपेधिकीभावेन द्विधातो-द्विप्रकारायां नैषेधिक्यां द्वे द्वे शालभञ्जिके प्रज्ञप्ते, ताम्र शालभञ्जिका लीलया ललिताङ्ग नित्रेशरूपया स्थिता लीला स्थिताः 'सुपइडियाओ' इति सुधु-मनोज्ञतया प्रतिष्ठिताः सुप्रतिष्ठिताः 'सुअलंकियाओ' इति सुष्ठु अतिशयेन रमणीयतथाऽलङ्कृताः खलङ्कृताः 'नाणाविहरागवसणाओं' इति नानाविधो- नानाप्रकारो रागो येषां तानि नानाविधरागाणि तानि वसनानि - वस्त्राणि संवृततया यासां ता नानाविधरागवसना: 'रत्तावंगाओं' इति रक्तोऽपाङ्गो-नयनोपान्तं यासां ता रक्तापाङ्गाः 'असिय For P&Praise City ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वावर्णनं ~415~ उद्देशः १ सू० १२९ ॥ २०६ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [१], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८ SACROCEXSI -१२९] केसीओ' इति असिता:-कृष्णाः केशा यासां ता असितकेश्यः 'मिउधिसयपसस्थलक्खणसंवेल्लियग्गसिरयाओं मृदबः-कोमला विशदा-निर्मला: प्रशस्तानि-शोभनानि अस्फुटितत्वप्रभृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशस्तलक्षणाः संवेलित-संवृतमनं येषां शेखरककरपणात् ते संवेल्लितायाः शिरोजा:-केशा वासां ता मृदुविशदप्रशस्तलक्षणसंवेलितामशिरोजाः 'नाणामल्लपिणद्धाओ' इति नानारूपाणि माल्यानि-पुष्पाणि पिनद्धानि-आबिद्धानि यासां ता नानामाल्यपिनद्धाः, निष्टान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात् , 'मुढिगेज्झसु मज्झा' इति मुष्टियाचं सुष्ठ-शोभनं मध्यं-मध्यभागो यास ता मुष्टियाासुमध्या: 'आमेलगजमलजुगलवट्टियअदभुषणयपीलणरइयसंठियपओहराओ' पीनं-पीवरं रचितं संस्थित-संस्थानं यकाभ्यां तो पीनरचितसंस्थितौ आमेलक-आपीडः शेखरफ इत्यर्थः तस्य यमलं-समश्रेणीकं युगलं तद्वन् वर्तिती-बद्धस्वभावाबुपचित कठिनभावाविति भावः अभ्युन्नती पीनरचितसंस्थितौ च पयोधरौ यासां तालथा, 'ईसिं असोगवरपायवसमुडियाओ' इति ईपन्-मनाम् अशोकवरपादपे समवस्थिता-आश्रिता ईपरशोकबरपादपसमवस्थिताः, तथा वामहस्तेन गृहीतमय शालाबा:-शाखाया अर्धादशोकपादपस्य यकाभिस्ता बामहन्तगृहीताप्रशाला:, 'ईसिं अडच्छिकडक्खचिहिए हिं लूसेमाणीओ विवे'ति ईपन्-मनाम् 'अर्जु'तिर्यरचलितम् अनि येषु कटाक्षरूपेषु चेप्रितेपु तेर्मुष्णन्त्य इव सुरजनानां मनांसि 'चक्षुल्लोयणलेसेहि य अण्णमण्णं विज्झेमाणीओ इव' अन्नमन्नं-परस्परं चक्षुषां लोकनेन-अबलोकनेन लेशा:-संभोषास्ते विध्यमाना इय, किमुक्तं भवति एवं नाम तात्तिर्यग्वालिताक्षि कटाक्षः परस्परमबलोकमाना अवलिप्तन्ते कथा नूनं है परस्परसौभाग्यासहनत स्तियवलिताक्षिकटाक्षः परस्परं खियन्त इवेति 'पुढविपरिणामाओं' इति पृथिवीपरिणामरूपाः शावतभाव| मुपागता विजयद्वारवत् 'चंदाणणाओं' इति चन्द्रवद् आनन-मुख यासां ताश्चन्द्रानना: 'चंदविलासिणीओ' इति चन्द्रवन्मनोहर -- दीप अनुक्रम [१६६-१६७] - --- ~ 416~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१२८-१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मलयगि- मान प्रत सूत्रांक [१२८-१२९] श्रीजीवा- विलसन्तीत्येवंशीलाचन्द्रविलासिन्यः 'चंदद्धसमनिडालाओं' इति चन्द्राङेन-अष्टमीचन्द्रेण सम-समान ललाटं यासां ताश्चन्द्रार्द्ध- प्रतिपत्ती जीवाभि समललाटाः 'चंदाहियसोमदसणाओं' इति चन्द्रादप्यधिकं सोम-सुभगं कान्तिमदर्शनं-आकारो यासां तास्तथा, उल्का इव द्योत- मनुष्या माना: 'विजुघणमरीचिसूरदिपंततेयअहिययरसन्निकासाओं' इति विद्युतो ये घना-बहुलतरा मरीचयस्तेभ्यो यच सूर्यस्य || | विजयदाः रीयावृत्तिः दीप्यमानमनावृतं सेजस्तस्मादप्यधिकतरः सन्निकाश:-प्रकाशो बासा तास्तथा 'सिंगारागारचारुवेसाओ' इति शृङ्गारो-मण्डनभूष- वर्णनं दणाटोपस्तरप्रधान आकार-आकृतिर्यासा ताः शृङ्गाराकाराः चारु वेषो-नेपथ्यं यासां ताश्चारुवेपास्ततः कर्मधारये शृङ्गाराका- उद्देशः १ ॥२०७॥ रचारवेषाः 'पासाईयाओं' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ।। 'विजयरस णं दारस्से'त्यादि, विजयस्य द्वारस्य उभयोः सू०१२९ पार्श्वयोरेकै कनैपेधिकीभावेन 'द्विधातो' द्विप्रकारायां नैधिक्यां द्वौ द्वौ जालकटको प्रज्ञप्ती, 'ते णं जालकडगा'इत्यादि, होतेच जालकटकाकीर्णा रम्यसंस्थानाः प्रदेशविशेषाः 'सबरयणामया अच्छा सहा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ॥ विजयस्से'त्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोद्विधातो नैषेधिक्या द्वे द्वे घण्टे प्रक्षने, तासां च घण्टानामयमेतपः 'वर्णा-1 वासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञपः, तद्यथा-जाम्बूनदमय्यो घण्टाः बामदयो लाला: नानामणिमया घण्टापाः तपनीयमय्यः शृ बला यासु ता अवलम्बितास्ति मुन्ति रजतमग्यो रञ्जव: ।। 'ताओणं घंटाओ' इत्यादि, ताश्च घण्टा: 'ओघस्वराः' ओपेन-प्रवाकारण खरो यासा ता ओघस्वराः, मेघस्वातिदीर्घः स्वरो यासा ता मेघस्वराः, हंसस्पेव गधुरः खरो यास ता हंसखराः, एवं क्रोध स्वराः, सिंहस्येव प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यासां ताः सिंहस्वराः, एवं दुन्दुमिस्वरा नन्दिस्वराः, द्वादशतूर्यसझातो नन्दिः, नन्दिवद् घोषो || २०७॥ CI-निनादो यासा ता नन्दियोषाः, मनु:-प्रियः स्वरो यासां ता मजुखराः, एवं मञ्जपोषाः, किंबहुना', सुखराः सुखरघोषाः, दीप अनुक्रम [१६६-१६७] 29-9-59-2-56 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 417~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- ---------- मूलं [१२८-१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] दीप अनुक्रम [१६८] ओरालेण मित्यादि प्राग्वत् ।। 'विजयस्स णमित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पाश्वयोदिधातो मैपेधिक्या है । वनमाले प्रशप्ते, ताश्च वनमाला नानाढमाणां नानालतानां च ये किशलयरूपा अतिकोमला इत्यर्थः पाडवास्तैः समाकुला:-सम्मिश्राः 'छप्पयपरिभुजमाणसोभतसस्सिरीया' इति पट्पदैः परिभुज्यमाना सती शोभमाना पट्पदपरिभुज्यमानशोभमाना अत एव सश्रीका ततः पूर्वपदेन | विशेषणसभासः, 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वन् । विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं तुहतो णिसीहियाए दो दो पगंठगा पण्णता, ते णं पगंठगा चत्तारि जोपणाई आयामविक्र्वभेणं दो जोयणाई बाहल्लणं सम्यवइरामता अच्छा जाय पडिरूवा । तेसि णं पयंठगाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा पपणासा, ते णं पासायवडिंसगा चत्तारि जोयणाई उह उच्चत्तेणं दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गयमसितपहसिताविव विविहमणिरयणभत्तिचित्ता चाउद्धयविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिछत्तकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघमाण(णुलिहंत)सिहरा जालंतररयणपंजरुम्मिलितव्य मणिकणगभियागा वियसियसयवत्तपोंडरीयतिलकरयणद्वयंदचित्ता पाणामणिमयदामालंकिया अंतो य बाहिं च सहा तवणिजाइलबालुयापत्थडगा सुद्ध(ह)फासा मस्सिरीयरूवा पासातीया ४॥ तेसि णं पासायवडेसगाणं उन्होया पउमलता जाव सामलयाभत्तिचित्ता सब्बतवणिजमता अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसि णं पासायडिंसगाणं पत्तेयं पत्तेयं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पपणत्ते, से जहा -%A5% SCRE ~418~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३०] दीप अनुक्रम [१६८ ] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ २०८ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१३०] आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित णामए आलिंगपुक्खरेति वा जाव मणीहिं उबसोभिए, मणीण गंधो वण्णो फासो य नेयव्वो । तेसि णं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियाओ पण्णताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ जोयण आयामविक्रमेणं अजोयणं बाहल्लेणं सव्वरयणामईओ जाव पडिवाओ, तासि णं मणिपेडियाणं उबरिं पत्तेयं २ सीहासणे पण्णसे, तेसि णंसीहासणाणं अथमेयाचे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजा-तवणिज्ञमया चक्कवाला रयतामया सीहा सोवणिया पादा णाणामणिमयाई पायवीडगाई जंबूणयमताई गसाई वतिरामया संधी नाणामणिमए वेथे, ते णं सीहासणा ईहामियउसभ जाव पउमलयभत्तिचित्ता ससारसारोवइयविविह्मणिपण पायपीटा अच्छरगमिउमसूरगनवतयकु संतलिचसीह केसरपच्चुत्थताभिरामा उपचियखोमदुगुपच्छिणा सुविरचितरयत्ताणा रत्तंसुयसंबुया सुरम्मा आईणगरुयबूरणवनीततूलमउयफासामउया पासाईया ४॥ तेसि णं सीहासणाणं उपिं पत्तेयं पत्तेयं विजयसं पण्णसे, ते णं विजयद्सा सेता संखकुंददगरयअमतमहिय फेणपुंज सन्निकासा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसि णं विजयसाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामया अंकुसा पण्णत्ता, तेसु बहूरामएस अंकुसे पत्तेयं २ कुंभिका मुत्तादामा पण्णत्ता, ते णं कुंभिका मुत्तादामा अन्नेहिं चहिं चउहिं तदचप्पमाणमेत्तेहिं अद्धकुंभिकेहिं मुत्तादामेहिं सव्वतो समता संपरिक्खित्ता, २८ ~ 419~ ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वारवर्णनं उद्देशः १ सू० १३० ॥ २०८ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१३० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] तेणं दामा तवणिजलंबूसका सुवपणपयरगमंडिता जाव चिट्ठति, तेसिणं पासायवडिंसगाणं उपि यहवे अट्ठमंगलगा पपणत्ता सोत्थिय तधेव जाव छत्ता ।। (सू०१३०) 'विजयस्स णमित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोर्विधातो नैषेधिक्या द्वौ द्वौ प्रकण्ठको प्रज्ञप्तौ, प्रकण्ठको नाम पीठविशेषः, आह च मूलटीकाकार:-"प्रकण्ठौ पीठविशेषौ,” चूर्णिकारस्त्वेवमाह-आदर्शवृत्तौ पर्यन्तावनतप्रदेशो पीठो प्रकण्ठावि"ति, वे च प्रकण्ठकाः प्रत्येक चलारि योजनानि 'आयामविष्कम्भेन' आयामविष्कम्भाभ्यां द्वे योजने बाहल्येन 'सब्यवइरामया' इति र सर्वात्मना ते प्रकण्ठका वनमया: 'अच्छा सण्हा य' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण पकंठयाण'मित्यादि, तेषां च प्रकण्ठकानामुपरि प्रत्येक प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, प्रासादावतंसको नाम प्रासादविशेषः, उक्तं च मूलटीकायां-प्रासादावतंसकः | प्रासादविशेष" इति, व्युत्पत्तिश्चैवम्-प्रासादानामवतंसक इव-शेखरक इव प्रासादावतंसकः, ते च प्रासादावतसंकाः प्रत्येकं चत्वारि योजनान्यूर्द्ध मुञ्चैस्त्वेन वे योजने आयामविष्कम्भाभ्याम् , 'अभुग्गयमूसियपहसियाविवेति अभ्युद्ता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिनता उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा तथा सिता इव-बद्धा इव तिष्ठन्तीति गम्यते, अन्यथा कथमिव तेऽत्युचा | निरालम्बास्तिष्ठन्तीति भावः, अथवा प्रबलश्वेतप्रभापटलया प्रहसिताविव प्रकर्षण हसिताविष, तथा 'विविहमणिरयणभत्तिचित्ता' विविधा अनेकप्रकारा ये मणयः-चन्द्रकान्ताद्या यानि च रजानि-कतनादीनि तेषां भक्तिभि:-विच्छित्तिभिश्चित्रा-नानारूपा आश्व वन्तो वा नानाविधमणिरत्नभक्तिविचित्राः 'वाउद्धयविजयवेजयंतीपडागछत्तातिछत्तकलिया' वातोद्भूता-बायुकम्पिता विजयः |-अभ्युदयस्तसंसूचिका वैजयन्तीनामानो (नामयो) या पताकाः, अथवा विजया इति वैजयन्तीना पार्श्वकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना बैजवन्त्यो। दीप अनुक्रम [१६८] - र ~420~ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३०] दीप अनुक्रम [१६८ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १३० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥ २०९ ॥ श्रीजीवा- * विजयवैजयन्त्यः पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः, छत्रातिद्यत्राणि उपर्युपरिस्थितान्यातपत्राणि तैः कलिता वातोद्भूतविजयवैजीवाभि० | जयन्तीपताकाछत्रातिच्छत्रकलिताः 'तुङ्गाः' उथा उचैस्त्वेन चतुर्योजनप्रमाणलात्, अत एव 'गगणतलमणुलिहन्तसिहरा' इति, मलयगि- गगनतलम् - अम्बरम् अनुलिखन्ति-अभिलङ्घयन्ति शिखराणि येषां ते गगनतलानुलिखच्छिखराः, तथा जालानि - जालकानि यानि रीयावृत्तिः * भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि येषु ते जालान्तररनाः, सूत्रे चात्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात्, ॐ तथा पञ्जराद् उन्मीलिता इव-बहिष्कृता इव यथा हि किल किमपि वस्तु वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद् वहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायं भवति एवं तेऽपि प्रासादावतंसका इति भाव:, तथा मणिकनकानि - मणिकनकमय्यः स्तूपिका:-शिखराणि येषां ते मणिकनकस्तूपिकाः, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकरत्नानि भित्यादिषु पुण्ड्रविशेषा अर्द्धचन्द्रा द्वारादिषु तैचित्रा नानारूपा आश्चर्यभूता विकसितशत पत्रपुण्डरीकतिलकार्द्धचन्द्र चित्रा: अन्तर्बहिश्च ( नाना-अनेकप्रकारा ये चन्द्रकान्ताया मणयस्तन्मयानि तत्प्रधानानि यानि दामानि पुष्पमालास्तैरलङ्कृताः) श्लक्ष्णाः मसृणाः, तथा तप| नीयं सुवर्णविशेषस्तन्मय्या वालुकायाः प्रस्तदं प्रतरो येषु ते तपनीयवालुकाप्रस्तटाः 'सुहासा सस्तिरीयरूवा पासाईया' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां च प्रासादावतंसकानाम् 'उल्लोकाः' उपरितनभागाः पद्मलताभक्तिचित्रा अशोक लताभक्तिचित्राश्च|म्पकलताभक्तिचित्राभूतलताभक्तिचित्रा वनलताभक्तिचित्रा वासन्तिकलताभक्तिचित्राः सर्वासना तपनीयमयाः 'अच्छा सण्हा जाव पडिरुवा' इति विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि तेषां प्रासादावतंसकानामन्तर्बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहा नामए आलिंगपुक्खरे इ वा' इत्यादि समस्तं भूमिवर्णनं मणीनां वर्णपञ्चकसुरभिगन्धशुभस्पर्शवर्णनं प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या० विजयद्वावर्णनं उद्देशः १ सू० १३० ~421~ ॥ २०९ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् M Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 4-NAGACK सूत्रांक [१३०] दीप अनुक्रम [१६८] तेषां प्रासादावतंसकानामन्तबहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं (मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताल मणिपीठिका योजनमायामविष्कम्भेन अष्ट योजनानि बाहल्येन सर्वरत्नमय्यो यावत्प्रतिरूपाः तासां मणिपीठिकानामुपरि) सिंहासनं प्रज्ञाप्त, तेषां च सिंहासनानामयमेतद्रूपो 'वर्णावासों' वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-रजतमयाः सिंहा तैरुपशोभितानि सिंहासनानि 'सौवर्णिका' सुवर्णमयाः पादाः तपनीयमयानि चकलानि-पादानामधःप्रदेशाः भवन्ति [मुक्तानानामणिमयानि पादानामधःप्रदेशाः] प्रयुक्ता, ना-18| नामणिमयानि 'पादशीर्षकाणि पादानामुपरितना अवयवविशेषा जाम्बूनदमयानि गात्राणि ईपदच्छाः 'वज्रमया' बनरनापूरिताः 'सन्धयः' गात्राणां सन्धिमेला नानामणिमयं 'वे' न्यूतं वानमित्यर्थः, आह च चूर्णिकृत्-वेये वाणवतेण"मित्यादि, तानि च सिंहासनानि ईहामृगधभतुरगनरमकरव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुलरवनलतापद्मलताभक्तिचित्राणि 'ससारसारोवचियविविहम|णिरयणपादपीढा' इति, सारसार:-प्रधानप्रधानविविधैर्मणिरत्रैरुपचितैः पादपीठैः सह यानि तानि तथा, प्राकृतत्वाच्च उपचितशब्द स्यान्तरुपन्यासः, 'अच्छरमउयमसूरगनवतयकुसन्तलित्तकेसरपञ्चत्थुवाभिरामा इति, आस्तरक-आच्छादनं मृदु येषां मसूर-| ४ काणां तानि आस्तरकमृदूनि, विशेषणस्य परनिपात: प्राकृतखात्, नवा खग येषां ते नवत्वच: कुशान्ता-दर्भपर्यन्ताः, नवत्वचश्च ते कुशान्ताश्च नवत्व शान्ताः प्रत्यमत्वग्दर्भपर्यन्तरूपाणि लतिकोमलानि लित्तानि-नम्र(मन)शीलानि च केसराणि, कचित् सिंहकेसरेति पाठस्तत्र सिंहकेसराणीव केसराणि मध्ये मसूरकाणां तानि नवत्वकुशान्तचिल्ल(लित्त)केसराणि, सिंहकेसरेति पाठपक्षे एकस्य केसरशब्दस्य शाकपार्थिवादिदर्शनाल्लोपः, आस्तरकमृदुभिर्मसूरकर्नवत्वकशान्तलिच(स)केसरैः प्रत्यवस्तृतानि-आच्छादितानि सन्ति यानि | अभिरामाणि तानि तथा, विशेषणपूर्वापरनिपातो यादृच्छिकः प्राकृतलात्, 'आईणगायबूरनवणीयतुलफासा' इति आजिनक ~422~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] दीप अनुक्रम [१६८] श्रीजीवा- चर्ममयं वस्त्रं तच्च स्वभावादतिकोमलं भवति रुतं-कर्पासपक्ष्म बूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीत-प्रक्षणं तूल-अर्कतूलं तेषामिव स्पशों प्रतिपत्ती जीवाभि येषां तानि तथा, तथा सुविरचितं रजस्वार्थ प्रत्येकमुपरि येषां तानि सुविरचितरजस्त्राणानि 'उवचिय(खोम)दुगुलपट्टपडिच्छायणे मनुष्या० मलयगि- इति उपचितं-परिकम्मितं यत्क्षौम दुकूल-कासिकं वस्त्रं तत्प्रतिच्छादन-रजनाणस्योपरि द्वितीयमाच्छादनं प्रत्येक येषां तानि तथा, विजयद्वारीयावृत्तिः तत उपरि 'रत्तंसुयसंवुया' इति रक्तांशुकेन-अतिरमणीयेन रक्तेन बनेग संघृतानि-आच्छादिवानि रक्तांशुकसंवृतानि अत एव सुर रवर्णनं ॥२१ ॥ IS म्याणि 'पासाइया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां च सिंहासनानामुपरि प्रत्येक प्रत्येक विजयदूष्य-वस्त्रवि-1 शेष: प्रज्ञप्तः, आह च मूलटीकाकार:-"विजयदूप्यं वस्त्र विशेष" इति । 'ते णमित्यादि, तानि च विजयदूष्याणि 'शङ्खकुन्द | सू०१३० सदकरजोऽमृतमथितफेनपुञ्जसन्निकाशानि' शङ्कः प्रतीतः कुन्देति-कुन्दकुसुमं दकरज:-उदककणा: अमृतस्य-क्षीरोदधिजलस्य म थितस्य यः फेनपुजो-डिण्डीरोल्करस्तत्सभिकाशानि-तत्समप्रमाणि, पुनः कथम्भूतानि ? इत्यत आह-'सब्बरयणामया' सर्वात्मना रत्नमयानि 'अच्छा सम्हा जाव पडिरूवा' इति विशेषणकदम्यक प्राग्वत् ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां-सिंहासनोपरिस्थितानां विजय दूष्याणां प्रत्येक प्रत्येक बहुमध्यदेशभागे बसमया: वनरत्नासका: 'अङ्कशाः' अङ्कुशाकारा मुक्तादामावलम्बनाश्रयभूताः प्रज्ञाप्ताः, तेषु च हवनमयेवड्दुशेषु प्रत्येक प्रत्येक 'कुम्भा' मगधदेशप्रसिद्ध कुम्भप्रमाणमुक्तामयं मुक्तादाम प्रज्ञप्तं, तानि च कुम्भाप्राणि मुक्तादामानि 8 प्रत्येकं प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भि: कुम्भात्रैर्मुक्तादामभिस्तदोश्चप्रमाणमात्रैः 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तानि, 'ते ॥२१० दामा तवणिजलंवूसगा नाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुदाया ईसिमन्नमशमसंपत्ता पुवावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहि । lantic अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 423~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मुलं [१३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: F प्रत सूत्रांक -294 [१३०] -2. दीप अनुक्रम [१६८] मंदाय मंदाय एइजमाणा २ वेइज्जमाणा २ पकंपमाणा पकंपमाणा पझंझमाणा पझंझमाणा ओरालेणं मणुण्णणं मणहरेणं कण्णमणनि व्वुइकरेणं ते पएसे सब्बतो समता आपूरेमाणा सिरीए उबसोभमोणा चिट्ठति" ॥ विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो तोरणा पण्णता, ते णं तोरणा णाणामणिमया तहेव जाव अट्ठमंगलका य छत्तातिछत्ता ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो सालभंजिताओ पण्णताओ, जहेवणं हेडा तहेव ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो णागर्दतगा पण्णता, तेणं णागदतगा मुत्ताजालंतरूसिया तहेव, तेसु णं णागदंतएसु बहवे किण्हे सुत्तबट्टबग्धारितमल्लदामकलावा जाव चिट्ठति ।। तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो हयसंघाडगा पणत्ता सम्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, एवं पंतीओ बीहीओ मिहुणगा, दो दो पउमलयाओ जाव पडिरूवाओ तेसि ण तोरणाणं पुरनो (अक्वाअसोवत्थिया सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा) तेसि गं तोरणाणं पुरतो दो दो चंदणकलसा पण्णत्ता, ते णं चंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा तहेव सय्वरयणामया जाव पडिरूवा समणाउसो! । तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो भिगारगा पणत्ता बरकमलपइट्टाणा जाव सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिख्या महतामहतामतगषमुहागितिसमाणा पण्णत्ता समणाउसो! ।। तेसि गं तोरणाणं पुरतो दो दो आतंसगा पण्णता, तेसि णं आतंसगाणं अयमेयारूवे वपणावासे पपणत्ते, तंजहा-तवणिजमया पयंठगा बेरु ' जी० च०३६ ~424~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 'मीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [१३१] प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वारवर्णनं उद्देशः१ सू०१३१ ॥२११॥ दीप अनुक्रम लियमया छाहा (धंभया) बहरामया वरंगा णाणामणिमया वलक्खा अंकमया मंडला अणोघसियनिम्मलासाए छायाए सव्वतो चेव समणुबद्धा चंदमंडलपडिणिकासा महतामहता अद्धकायसमाणा पण्णता समणाउसो! ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो वइरणाभे धाले पण्णते, ते णं थाला अच्छतिच्छडियसालितंदुलनहसंदट्ठबहपडिपुण्णा चेव चिट्ठति सबजंबूणतामता अच्छा जाव पडिरूवा महतामहता रहचकसमाणा समणाउसो! ॥ तेसिणं नोरणाणं पुरतो दो दो पातीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं पातीओ अच्छोदयपडिहत्याओ णाणाविधपंचवण्णस्स फलहरितगस्स बहुपडिपुण्णाओ विव चिट्ठति सन्वरयणामतीओ जाव पडिरूवाओ महयामहया गोकलिंजगचकसमाणाओ पपणत्ताओ समणाउसो! । तेसि गं तोरणाणं पुरतो दो दो सुपतिट्ठगा पण्णना, ते णं सुपतिट्टगा णाणाविध(पंचवण्ण)पसाहणगभंडविरचिया सब्बोसधिपडिपुण्णा सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ।। तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो मणोगुलियाओ पण्णत्ताओ । तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता, तेसु णं सुवण्णाप्पामएसु फलएसु बहवे बहरामया णागवंतगा मुत्साजालंतसिता हेमजाब गयंदगसमाणा पण्णत्ता,तमु णं बहरामएसु णागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पण्णत्ता, तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे बायकरगा पपणत्ता ॥ ते णं वायकरगा किण्हसुत्तसिकगवत्थिया जाव सुफिलमुत्तसिकगवस्थिया सब्वे [१६९] ॥२११॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~425~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत * सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम 222-%22%- वेरुलियामया अच्छा जाय पडिरूवा ॥ तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो चित्ता रयणकरंडगा पण्णत्ता, से जहाणामए-रपणो चाउरंतचकवहिस्स चित्ते रयणकरंडे वेरुलियमगिफालियपडलपचोयडे साए पभाए ते पदेसे सव्वतो समंता ओभासह उलोवेति तायेश पभासेति, एवामेव ते चित्तरपणकरंडगा पण्णता वेरुलियपडलपचोयडा साए पभाए ते पदेसे सव्वतो समता ओभासेति ।। तसिणं लोरणाणं पुरतो दो दो हयकठगा जाय दो दो उसमकंठगा पण्णत्ता सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । तेसु ण हयकंठए सु जाव उसमकंठरसु दो दो पुष्फचंगेरीओ, एवं मल्लगंधचुण्णवल्याभरणचंगेरीओ सिद्धस्थचंगेरीजो लोमहत्थचंगेरीओ सब्बरयणामतीओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरनो दो दो पुप्फपडलाइं जाव लोमहस्थपडलाई सब्बरयणामयाई जाव पडिरूवाई । तेसिणं तोरणाणं पुरतो दो दो सीहासणाई पपणत्ताई, तेसि णं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णसे तहेव जाय पासातीया ४ ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो कप्पछदाछत्ता पण्णता, ते णं छत्ता बेरुलियभिसंतविमलदंडा जंबूणयकन्निकावइरसंधी मुत्ताजालपरिगता अट्ठसहस्सवरचणसलागा दहरमलयसुगंधी सम्वोउअसुरभिसीयलच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चंदागारोवमा वहा । तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो चामराओ पपणत्ताओ, ताओ णं चामराओ (चन्दपभवहरवेरुलियनानामणि [१६९] --5 15%%%* ~426~ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------------------------- उद्देशक: [(दविप-समद्र)], ---------------------- मुलं [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवा प्रत -% जीवाभि मलयगि प्रतिपत्ती मनुष्या. [विजयद्वा वर्णनं । उद्देशः१ १९१ सूत्रांक रीयावृत्तिः [१३१] ॥२१२॥ दीप अनुक्रम रयणखचियदंडा) णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणि जुजलविचित्तदंडाओ चिलिआओ संखंककंददगरयअमयमहियफेणपुंजसपिणकासाओ सुहुमरयतदीहवालाओ सब्बरयणामताओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ।। तेसि गं तोरणाणं पुरतो दो दो तिल्लसमुग्गा कोट्ठसमुग्गा पत्तसमन्गा चोयसमुग्गा तयरसमुग्गा एलासमुग्गा हरियालसमुग्गा हिंगुलयसमुग्गा मणोसि लासमुग्गा अंजणसमुग्गा सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ (मू०१३१) 'विजयसपामित्याटिबिजयस्य द्वारस्योभयोः पार्थयोर्विधासो धिक्यां वेतोरणे प्रशसे. तानि च तोरणानि नानामणि- मयानीत्यादि तोरणवर्णनं निरवशेष प्राग्वन् । 'तेसि णमित्या दि, तेषां तोरणानां पुरतोद्वेदे शालभजिके प्रज्ञले, शालभन्जिकाव नं प्राग्वन् । 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां द्वौ द्वौ नागदन्तको प्रज्ञतो, तेषां च नागदन्तकानां वर्णनं यथाऽधस्तादनन्तरमुक्त तथा बक्तव्य, नवरमत्रोपरि नागदन्तका न वक्तव्या अभावान् ॥ 'तेसि ॥'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वा हयसंघाटकौ द्वौ द्वौ गजसवाटको द्वौ द्वौ नरसञ्चाटको द्वौ दी किन्नरसलाटको द्वौ द्वौ किंपुरुषसक्वाटको द्वौ द्वौ महोरगसङ्गाट को द्वौ द्वौ गन्धर्वसजाटको द्वौ द्वौ वृषभसवाटको, एते च कथम्भूताः' इत्याह-सबरयणामया अच्छा सहा' इत्यादि प्राग्वत् , एवं पलिबीथीमिथुन कान्यपि प्रत्येकं वाक्यानि ॥ 'तेसिं तोरणाण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे पद्मलते यावत्करणाद् द्वे द्वे नागलते द्वे द्वे अशोकलते केंद्र चम्पकलते द्वे द्वे चूतलते द्वे द्वे वासन्तीलते द्वे वे कुन्दलते द्वे द्वे अतिमुक्तकलते इति परिग्रहः, द्वे श्यामळते, एताश्च कथम्भूताः? इत्या- ह-निञ्चं सुकुमियाओ' इत्यादि यावत्करणात् 'निश्च मउलिया निचं लवइयाओ निच्चं वइयाओ निच गोच्छियाओ निश्चं जमलियाओ नित्र । । [१६९] २१२॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~427~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- ----------- मूलं [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम विणमियाओ (निश्चं पणमियाओ) निषं सुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीओ निच्चं कुसुमियमउलियलवश्यथवइयनिगोरिछयविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीओ' इति परिगृह्यते, अस्य व्याख्यानं प्राग्वत् । पुन: कथम्भूताः' इत्याह-सव्वरयणामया जाव | पडिरूवा' इति, अत्रापि यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणकदम्बकपरिग्रहः स च प्राग्वद्भावनीयः ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्रौ द्वौ चन्दनकलशौ प्रज्ञप्ती, वर्णकश्च चन्दनकलशानां वरकमलपइट्ठाणा' इत्यादिरूपः सर्वः प्राक्तनो वक्तव्यः ।। 'तेसि | Xणमित्यादि, वेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ भृङ्गारको प्रज्ञप्ती, तेषामपि चन्दनकलशानामिव वर्णको वक्तव्यः, नवरं पर्यन्ते 'मत्तगय महामुहागिइसमाणा पण्णत्ता समगाउसो!' इति वक्तव्यं 'मत्तगयमहामुहागिइसमाणा' इति मत्सो यो गजस्तस्य महद्-अतिविशालं यन्मुखं तस्याकृति:-आकारस्तत्समाना:-तत्सदृशाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वाबादर्शकौ प्रज्ञप्तौ, तेषां चादर्शकानामयमेतद्रूप: 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-तपनीयमया: 'प्रकण्ठकाः' पीठ-R दिकविशेषाः 'वैर्यमयार्थभया' आदर्शकगण्डप्रतिवन्धप्रदेशाः, आदर्शकगण्डाना मुष्टिग्रहणयोग्याः प्रदेशा इति भावः, वनरत्नमया वराङ्गा गण्डा इत्यर्थः, 'नानामणिमया वलक्षाः' वलक्षो नाम शृङ्खलादिरूपमवलम्बनम् , अङ्कमयानि-अङ्करबमयानि मण्डलानि यत्र प्रतिबिम्बसंभूति: 'अणोहसियणिम्मलाए छायाए' इति, अवघर्षणमवधर्षितं, भावे क्तप्रत्ययः, भूत्यादिना निमजनमित्यर्थः, अवधर्षितस्याभावोऽनवधर्षितं तेन निर्मला अनवधर्पितनिर्मला तया छायथा समनुबद्धाः 'चंदमंडलपडिनिकासा' इति चन्द्रमण्डलसहशा: 'महयामहया' अतिशयेन महान्त: 'अर्द्धकायसमानाः' द्राः शरीराचप्रमाणाः प्रमता हे श्रमण! हे आयुष्मन ! ॥ तेसि | पण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो वे द्वे वचनामे स्थाले प्रज्ञप्ते, वानि च खालानि [तिष्ठन्ति] 'अच्छतिच्छडियसालितंदुलनहसं-IAN [१६९] ~428~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगि- रीयावृत्तिः सूत्रांक [१३१] ॥ २१३॥ दीप अनुक्रम दद्वपडिपुण्णा इव चिहति' अच्छा-निर्मला: शुद्धस्फटिकवविच्छटिता अत एव नखसंदष्टा:-नखाः संदृष्टा मुसलादिभिक्षुम्बिता प्रतिपत्तो येषां ते तथा, भार्यादिदर्शनात्परनिपातो निष्ठान्तस्य, अच्छैनिन्छटितैः शालितन्दुले खसंदृष्टैः परिपूर्णानीव अच्छत्रिच्छटितशालित- मनुष्या० न्दुलनखसंदष्टपरिपूर्णानीव पृथिवीपरिमाणरूपाणि तानि तथा खितानि केवलमेवमाकाराणीत्युपमा, तथा चाह-सव्वजंबूनदमया' विजयद्वासर्वासना जम्बूनदमयानि 'अच्छा साहा' इत्यादि प्राग्वत् 'महयामहया' इति अतिशयेन महान्ति रथचकसमानानि प्रज्ञप्तानि वर्णन हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसि ण'मियादि, तेषां तोरणानां पुरतो वे द्वे 'पाईओ' इति पायौ प्रज्ञप्ने, ताश्च पात्र्यः 'अच्छोदक- उद्देशः१ पडिहत्थाओ' इति स्वच्छपानीयपरिपूर्णाः 'नाणाविहस्स फलहरियस्स बहुपडिपुण्णाओ विवे'ति अत्र षष्ठी तृतीयाथें बहुवचने १३१ चैकवचनं प्राकृतत्वात् , नानाविधैः 'फलहरितैः' हरितफलैर्बहु-प्रभूतं प्रतिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, न खलु तानि फलानि जलं वा किन्तु तथारूपाः शाश्वतभावमुपगताः पृथिवीपरिणामास्तत उपमानमिति, 'सम्बरयणामईओ' इत्यादि प्राग्वत् , 'महयामहया' इति अति-18 शयेन महत्यो गोकलिख (र) चक्रसमानाः प्रज्ञता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ सुप्रतिष्ठको आधारविशेषौ प्रज्ञप्ती, ते च सुप्रतिष्ठकाः [सु] सर्वोपधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पञ्चवर्णैः प्रसाधनभाण्डेन बहुपरिपूर्णा इस तिष्ठन्ति, अ-IRAL बापि तृतीयार्थे षष्ठी बहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात् , उपमानभावना प्राग्वत् , 'सब्बरयणामया' इत्यादि तथैव ॥ 'तेसि 'मि- 11 त्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो वे दे मनोगुलिके प्रशन्ने, मनोगुलिका नाम पीठिका, उक्तं च मूलटीकायां-'मनोगुलिका पीठिके"ति, ताश्च मनोगुलिकाः सर्वासना 'वैडूर्यमय्यो' वैडूर्यरात्मिका: 'अच्छा' इत्यादि प्राग्बत् ॥ 'तासु णं मणोगुलियासु वह ॥२१३ ॥ इत्यादि, तासु मनोगुलिकासु बहूनि सुवर्णमयानि रूप्यमयानि च फलकानि प्रज्ञप्तानि, तेषु सुवर्णरूप्यमयेषु फलकेषु बहवो बनमयाः | [१६९] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~429~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % % प्रत 30-2 सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम नागदन्तकाः' अङ्कटकाः प्राप्ताः, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि 'रजतमयानि' रूप्य यानि सिककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु च रजतमयेषु सिककेषु बहवो 'वातकरकाः' जलशून्या: करका इत्यर्थः प्रज्ञाप्ताः ।। 'ते णमित्यादि ते वातकरका: 'कृष्णसूत्रसिकगवस्थिताः' इति, आच्छादनं गवस्था:(ता:) संजाता एबिति गवस्थिताः कृष्णसूत्रै:-कृष्णसूत्रमयैर्गवस्यैरिति गम्यते, सिककेषु गवस्थिताः | | कृष्णसूत्रसिक्कावस्थिताः, एवं नीलसूत्रसिक्कगवस्थिता इत्याद्यपि भावनीयं, ते च वासकरकाः सर्वात्मना वैदूर्यमया अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ 'चित्री' चित्रवर्णोपेतावाश्चर्यभूतौ वा रत्नकरण्डको प्रज्ञप्ती, 'से जहा नामए इत्यादि, स यथा नाम-राज्ञश्चतुरन्त चक्रवर्तिनः, चतुर्यु-पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपेषु पृथ्वीपर्यन्तेषु चक्रेण वर्तितुं शीलं यस्य तस्य 'चित्र' आश्चर्यभूतो नानामणिमयत्वेन नानाव? वा 'वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडे' इति वाहुल्येन वैडूर्यमणिमयः, तथा 'स्फाटिकपटलप्रत्यवतः स्फाटिकपटलमयाच्छादनः 'साय पभाए' इति स्वकीयया प्रभया 'तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समसन्ततः' सामस्येनावभासयति, एतदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे-उद्योतयति तापयति प्रभासति, 'एवमेवे'त्यादि सुगमम् ॥ 'तेसि तोरणाण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ 'हयकण्ठी' हयकण्ठप्रमाणौ र अविशेषौ प्रज्ञाप्ता, एवं गजकिनरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्व वृषभकण्ठा अपि वाच्याः, उक्कं च मूलटीकायां-"यकण्ठौ हयकण्ठप्रमाणौ रनविशेषी," एवं सर्वेऽपि कण्ठा बाच्या इति, तथा चाह 2-'सव्वरयणामया' सर्वे 'रत्नमयाः' रबविशेषरूपा 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे पुष्प चङ्गेयौं प्रज्ञप्ती, एवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलोमहस्तकचङ्गेयोऽपि वक्तव्याः, एताश्च सर्वा अपि सर्वात्मना रत्नमव्या, 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ एवं पुष्पादीनामष्टानां पटलकान्यपि द्विद्विसङ्ख्याकानि वाच्यानि ॥ तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणाना पुरतो वे द्वे । [१६९] ~430~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- सिंहासने प्रज्ञप्ते, तेषां च सिंहासनानां वर्णकः प्रागुक्तो निरवशेपो बक्तव्यो यावद्दामवर्णनम् । तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो प्रतिपत्ती जीवाभिः दे द्वे 'रूप्यच्छदें' रूप्याच्छादने छत्रे प्रज्ञले, तानि च छचाणि पैडूर्यरत्नमयविमलदण्डानि जाम्बूनदकर्णिकानि 'वज्रसन्धीनि मनुष्या० मलयाग- वजरनापूरितदण्डशलाकासन्धीनि मुक्काजालपरिगतानि अष्टौ सहस्राणि-अष्टसहस्रसयाका घरकाञ्चनशलाका-बरकाञ्चनमय्यः श- पिजयद्वारायावृत्तिःलाका येषु तानि अष्टसहस्रवरकचनशलाकानि 'दहरमलयसुगन्धिसब्बोउयसुरहिसीयलच्छाया' इति दर्दर:-चीवरावनद्धं | रवर्णनं कुण्डिकाविभाजनमुखं तेन गालितास्तत्र पक्का वा ये मलय इति-मलयोझवं श्रीखण्डं तत्सम्बन्धिनः सुगन्धयो गन्धवासातद्वत्सर्वेषु ॥२१४॥ उद्देशः१ तुषु सुरभिः शीवला च छाया येषां तानि, तथा 'मंगलभत्तिचित्ता' तेषां अष्टानां मङ्गलानां भक्त्या-विशिष्टत्या चित्रं-आलेखोसू०१३१ ४ येषां तानि मजलभक्तिचित्राणि, तथा 'चंदागारोवमा' इति चन्द्राकार:-चन्द्राकृतिः स उपमा येषां तानि तथा चन्द्रमण्डलबहूतानीति | भावः ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे चामरे प्राप्ते, तानि च चामराणि 'चंदप्पभवइरवेरुलियनाणामणिरयणखचियदंडा' इति चन्द्रप्रभ:-चन्द्रकान्तो वनं वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभव अवैटूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु ते तथा, एवंरूपाश्चित्रा-नानाकारा दण्डा येषां चामराणां तानि तथा, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , तथा 'सुहुमरययदीहवालाओ | इति सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा वाला येषां तानि तथा, 'संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसंनिकासाओं' इति शङ्ख:-प्रती तोऽको-रत्नविशेषः कुन्देति-कुन्दपुष्पं दकरज:-उदककणा: अमृतमथितफेनपुज:-क्षीरोदजलमथनसमुत्थफेनपुजस्तेषामिव संनिकाश:४ प्रभा येषां तानि तथा, अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो धौ द्वौ 'तैलस मुगको' सुगन्धितैलाधारवि शेषौ, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकार्या-तैलसमुद्को सुगन्धितैलाधारौ” एवं कोष्टादिसमुद्रका अपि वायाः, अत्र [१६९] ॥२१४॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 431~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: A प्रत सूत्रांक [१३१] AAAXXX दीप अनुक्रम सङ्कह णिगाथा-तेल्लो कोहसमुग्गा पचे चोए य तगर एला या हरियाले हिंगुलए मणोसिला अंजणसमुन्गो ॥१॥" 'सब्ब। रयणामया' इति एते सर्वेऽपि सर्वात्मना रनमयाः 'अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राम्बत् ॥ विजये णं दारे अट्ठसतचकद्धयाणं अट्ठसयं मिगडयाणं अट्ठसयं गरुडझयाणं अट्ठसयं विगद्धयाणं (अट्ठसयं रुरुयज्झयाणं) अट्ठसतं छत्तज्झयाणं अट्ठसयं पिच्छ ज्झयाणं अट्ठसयं सउणि झयाणं अट्ठसतं सीहज्झयाणं अट्ठसतं उसभज्झयाणं अट्ठसत सेयाणं चउबिसाणाणं णागवरकेतृणं एवामेव सपुवावरेणं विजयदारे य आसीयं केउसहस्सं भवतित्ति मक्खायं ॥ विजये णं दारे णव भोमा पण्णत्ता, तेसि णं भोमाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता जाव मणीणं फासो, तेसि णं भोमार्ण उप्पिं उल्लोया पउमलया जाव सामलताभत्तिचित्ता जाव सव्वतवणिजमता अच्छा जाव पडिरूवा, तेसि णं भोमार्ण बहुमज्झदेसभाए जे से पंचमे भोम्मे तस्स णं भोमस्स बहुमझदेसभाए एस्थ णं एगे महं सीहासणे पण्णते, सीहासणवण्णतो विजयदसे जाव अंकुसे जाय दामा चिट्ठति, तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्व णं विजयस्स देवस्स चउपहं सामाणियसहस्साणं चत्तारि महासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं एत्य णं विजयस्स देवस्स चउपहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्तारि भद्दासणा पण्णत्ता, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपुरथिमेणं एत्थ विजयस्स देवस्स [१६९] ~ 432~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वारवर्णनं उद्देशः१ सू०१३२ सूत्रांक [१३] ॥२१५॥ दीप अनुक्रम [१७०] अभितरियाए परिसाए अट्ठण्हं देवसाहस्सीणं अट्ठण्हं भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, सस्स णं सीहासणस्स दाहिणेणं विजयस्स देवस्स मज्झिमियाए परिसाए दसहं देवसाहस्सीणं दस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपचत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स बाहिरियाए परिसाए बारसह देवसाहस्सीण वारस भद्दासणसाहस्सीओ पपणत्ताओ। तस्स णं सीहासणस्स पचस्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स सत्साह अणियाहिवतीण सत्त भदासणा पण्णत्ता, तस्स णं सीहासणस्स पुरस्थिमेणं दाहिणणं पञ्चस्थिमेणं उत्तरेणं एस्थ णं विजयस्स देवस्स सोलस आयरक्खदेवसाहस्तीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ पपणत्ताओ, तंजहा-पुरधिमेणं चत्तारि साहस्सीओ, एवं चउमवि जाव उत्सरेणं चत्तारि साहस्सीओ. अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पणत्ता ॥ (स०१३२) 'विजयेणं दारे' इत्यादि, तस्मिन् विजयेद्वारे 'अष्टशतम्' अष्टाधिकं शतं 'चक्रध्वजानां' चक्रालेखरूपचिह्नोपेतानां ध्वजानाम् , एवं मृगगरुडरुरुकछत्रपिच्छशकुनिसिंहवृषभचतुर्दन्तहस्तिध्वजानामपि प्रलोकमतशतमष्टशत वक्तव्यम् , 'एवामेव सपुवावरेणं' एवमेव अनेन प्रकारेण सपूर्वापरेण सह पूर्वैरपरैश्च वर्तत इति सपूर्वापरं सवानं तेन विजयद्वारे 'अशीतम्' अशीयधिकं केतुसहस्रं भवतीत्याख्यातं मयाऽन्यैश्च तीर्थकृतिः ॥ "विजयस्स णमित्यादि, विजयस्य द्वारस्य पुरतो नव भौमानि' विशिष्टानि स्थानानि प्रज्ञप्तानि, वेषां च भौमाना भूमिभागा उल्लोकाश्च पूर्ववद्वक्तव्याः, तेषां च भौमाना बहुमध्यदेशभागे यत्पश्चानं भौम तस्य बहुमध्यदेशभागे विजय अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् ~ 433~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- --------- मूलं [१३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३२] द्वाराधिपतिविजयदेवयोग्य सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तस्य च सिंहासनस्य वर्णनं विजयदूष्ण कुम्भारमुक्तादामवर्णनं प्राग्वत् , तस्य च सिंहासनस्य 'अपरोत्तरस्यां' वायव्यकोणे उत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां च विजयदवस्य संवन्धिनां चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रशतानि, तस्य सिंहासनस्य पूर्वस्याभन्न विजयस्व देवस्य चतसृणामप्रमहिषीणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणपूर्वस्यामानेयकोण इत्यर्थः, अत्र विजयदेवस्य 'अभ्यन्तरपर्षदाम्' अभ्यन्तरपर्षद्रूपाणामष्टानां देवसहस्राणां योग्यानि अष्टौ भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञातानि, तप सिंहासनस्य दक्षिणस्वां दिशि अत्र विजयदेवस्य मध्यपर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणापरस्यां दिशि नैरतकोण इत्यर्थः अत्र विजयदेवस्य बाह्यपर्पदो द्वादशानां देवसहस्राणां योग्यानि द्वादश भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञतानि । 'तस्स णं सीहासणस्से'यादि, तस्य सिंहासनस्य पश्चिमायां दिशि | अत्र विजयस्य देवस्य सम्बन्धिनां सप्तानामनीकाधिपतीनां योग्यानि सप्त भद्रासनानि प्रज्ञतानि, तस्य सिंहासनस्य 'सर्वतः' सर्वास | दिक्षु 'समन्ततः सामस्त्येन अत्र विजयस्य देवस्व संबन्धिनां षोडशानामात्मरक्षदेवसहस्राणां योग्यानि पोडश भद्रासनसहस्राणि | प्रजातानि, अवशेषेषु प्रत्येक प्रत्येक सिंहासनमपरिवारं सामानिकादिदेवयोग्यभद्रासनरूपपरिवाररहितं प्रशप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [१७०] 5 %- % विजयस्स णं दारस्स उवरिमागारा सोलसविहेहिं रतणेहिं उवसोभिता, तंजहा-रयणेहिं वयरेहिं वेलिएहिं जाव रिडेहिं ॥ विजयस्स णं दारस्स उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा पणत्ता, तंजहा-सोत्थितसिरिवच्छ जाव दप्पणा सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । विजयस्स णं 30 04-% ~ 434~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३३] दीप अनुक्रम [१७१] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ २१६ ॥ दारस्स उपिं बहवे कण्ट्चामरज्झया जाव सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । विजयस्स णं दारस्स उपि वहवे छत्तातिच्छता तहेव || (सू० १३३ ) 'विजयस्स णमित्यादि, विजयस्य द्वारस्य 'उवरिमाकारा' इति उपरितन आकार:-उत्तरङ्गादिरूपः षोडशविधै नैरुपशोभितः, तद्यथा - रत्रैः सामान्यतः कर्केतनादिभिः १ वचैः २ वैर्वैः ३ लोहिताक्षैः ४ मसारगः ५ हंसगर्भः ६ पुलकैः ७ सौगन्धिकैः ८ ज्योतीरसैः ९ अड्डे: १० जनैः ११ रजतैः १२ जातरूपैः १३ अखनपुलकैः १४ स्फटिकैः १५ रिष्ठैः १६ ॥ 'विजयस्त ण' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्य उपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि प्र०, तद्यथेत्यादिना तान्येवोपदर्शयति- 'सब्बरवणामया' इत्यादि प्राग्वत् ॥ सेकेणणं भंते! एवं बुवति ? - विजए णं दारे २, गोयमा बिजए णं दारे विजए णाम देवे महिडीए महज्जुतीए जाव महाणुभावे पलिओयमद्वितीए परिवसति, से णं तत्थ च सामाणियसाहस्सीणं चण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तियहं परिमाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्त अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं विजयस्स णं दारस्स विजयाए रायहाणीए अण्णेसिं च बहूणं विजयाए रायहाणीए बत्थच्वगाणं देवाणं देवीण य आहेवचं जाव दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरह, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुधति - विजये दारे विजये दारे, [अनुत्तरं च णं गोयमा ! विजयस्स णं द्वारस्स सासए णामधे पण्णत्ते जण्ण कयाइ णत्थि ण कयाइ ण भविस्सति जाब अवट्टिए णिचे विजए दारे] || (सू० १३४ ) ६ प्रतिपत्तौ मनुष्या० विजयद्वारवर्णनं उद्देशः १ सू० १३४ ~ 435~ ।। २१६ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '१' अत्र १ इति निरर्थकम् विजयदेवस्य अधिकार: आरब्धः Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मुलं [१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] - air दीप अनुक्रम [१७२]] A.COM 'से केणढणं भंते! एवं बुच्चई' इत्यादि प्रशसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गोयमे यादि, गौतम ! विजयेद्वारे विजयो नाम, प्राकृतलादू अव्ययलाग नामशब्दात्परस्प टावचनस्य लोपस्ततोऽयमर्थ:-प्रवाहतोऽनादिकालसन्ततिपतितेन विजय इति नाना देवः । 'महद्धिकः' महती कद्धिः-भवनपरिवारादिका यस्यासौ महर्दिक: 'महाद्युतिकः' महती गतिः शरीरगता आभरणगता च यस्थासौ। महाधुतिकः, तथा महद् बलं-शारीरः प्राणो यस्य स महावलः, तथा महद् यश:-ख्यातिर्यस्यासौ महायशाः, महेश इत्याख्या-प्रसिद्धियस्य स महेशाख्यः, अथवा ईशनमीशो भावे घप्रत्ययः ऐश्वर्यमित्यर्थः ईश ऐश्वर्य' इति वचनात् तत ईशनमैश्वर्य आत्मनः ख्याति अन्त-1 भूतण्यर्थतवा स्यापयति-प्रथयति यः स ईशाख्यः महांश्वासावीशाख्यश्च महेशाख्यः, कचिन् 'महासोक्खें' इति पाठस्तत्र महत् सौख्यं प्रभूतसद्वेयोदयवशाद् यस्य स महासौख्यः पल्योपमस्थितिक: परिवसति, स च तत्र चतुर्णी सामानिकसहस्राणां चतनृणामप्रमहिषीणां | सपरिवाराणां प्रत्येकमेकैकसहस्रसयपरिवारसहितानां तिसृणां अभ्यन्तरमध्यमबाह्यरूपाणां यथाक्रममष्टदशद्वादशदेवसहस्रसङ्घयाकानां पर्षदां सप्तानामनीकानां-हयानीकगजानीकरथानीकपदात्यनीकमहिपानीकगन्धर्वानीकनाट्यानीकरूपाणां समानामनीकाधिपतीनां घोडशानामामरक्षसहस्राणां विजयस्य द्वारस्य विजयाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां विजयराजधानीवास्तव्यानां देवानां देवीनां च 'आहेवश्चंति आधिपत्यम् अधिपतेः कर्म आधिपत्यं रक्षा इत्यर्थः, सा च रक्षा सामान्येनाप्यारक्षकेणेव क्रियते तत आह-पुरस्म पतिः पुरपतिस्तस्य कर्म पौरपत्यं सर्वेषामोसरत्वमिति भावः, तथाप्रेसरखं नायकत्वमन्तरेणापि स्वनायकनियुक्ततथाविधगृहचिन्तकसामान्यपुरुषस्येव (स्यात्) ततो नायकत्वप्रतिपत्त्यर्थमाह--'स्वामित्वं खमस्यास्तीति स्वामी तद्भावः स्वामित्वं नायकल मित्यर्थः, तदपि च नायकलं कदाचित्पोषकत्वमन्तरेणापि भवति यथा हरिणवूधाधिपतेर्ह रिणव तत आह-भर्तृत्व-पोषकलं 'शुन् धारणपोषणयोः' जी०व०३७ ~ 436~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३४] दीप अनुक्रम [१७२] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ २१७ ॥ इति वचनातू, अत एव महत्तरकत्वं तदपि पेह महत्तरकत्वं कस्यचिदाज्ञाविकलस्यापि भवति यथा कस्यचिद्वणिजः स्वदासदासीवर्ग प्रति तत आह- 'आणाईसरसेणावचं' आज्ञया ईश्वर आज्ञेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः आज्ञेश्वरवासौ सेनापतिश्व आज्ञेश्वरसेनापतिस्तस्य कर्म्म आज्ञेश्वरसेनापत्यं स्वसैन्यं प्रत्यद्भुतमाज्ञाप्राधान्यमिति भाव: 'कारयन्' अन्यैर्नियुक्तः पुरुषैः पालयन् स्वयमेव, महता रवेणेति योग: 'अहय'ति आख्यानकप्रतिवद्धानि यदिवा 'अहतानि' अव्याहतानि नित्यानि नित्यानुबन्धीनीति भावः ये नाट्यगीते नाट्यं यं गीतं गानं यानि च वादितानि 'तन्त्रीतलतालत्रुटितानि' तत्री-वीणा तली-हस्ततली ताल:- कंसिका बुटितानि वा दित्राणि, तथा यच धनसूदङ्गः पटुना पुरुषेण प्रवादितः, तत्र घनमृदङ्गो नाम घनसमानध्वनियों मृदङ्गस्तत एतेषां द्वन्द्वस्तेषां रवेण 'दिव्यान्' प्रधानाम् भोगा भोगाः शब्दादयो भोगभोगास्तान् भुञ्जानः 'विहरति' आस्ते 'से एएणद्वेण' निध्यादि, तत एतेन 'अर्थेन' कारणेन गौतम! एवमुच्यते-विजयद्वारं विजयद्वारमिति, विजयाभिधानदेवस्वामिकत्वाद विजयमिति भावः ॥ कहिणं भंते! विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी पण्णत्ता?, गोयमा ! विजयस्स णंदारस्स पुरत्थिमेणं तिरियमसंखेने दीवसमुद्दे वीतिवतित्ता अण्णंमि जंबुद्दीवे दीये बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी प० वारस जोयणसहस्साई आयामविक्रमेणं सत्ततीसजोयणसहस्साइं नव य अडयाले जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्वेवेणं पण ते || साणं एगेणं पागारेणं सव्वतो समता संपरिक्खित्ता । से णं पागारे सत्ततीसं जोयणाई अद्धजोयणं च उहूं उचशेणं मूले अडतेरस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झेत्थ For P& ~437~ प्रतिपत्तौ मनुष्या० विजयाराजधानी उद्देशः २ सू० १३५ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजया राजधानी-वर्णनम् | ॥ २१७ ॥ my Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ................... उद्देशक: [(दविप-समद्र)]. .......................- मल [१३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 4% प्रत सूत्रांक [१३५] दीप अनुक्रम [१७३] सकोसाई छजोयणाई विखंभेणं उपि तिण्णि सद्धकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं मूले विच्छिपणे मझे संखित्ते उप्पि तणुए बाहिं बहे अंतो चउरंसे गोपुच्छसंठाणसंठिते सव्यकणगामए अच्छे जाव पहिरवे ।। से णं पागारे णाणाविहपंचवण्णोहिं कविसीसएहिं जवसोभिए, तंजहा-किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहिं । ते णं कविसीसका अद्धकोसं आयामेणं पंचधणुसताई विखंभेणं देसोणमद्धकोर्स उखु उच्चत्तेणं सब्वमणिमया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ विजयाए णं रायहाणीए एगमेगाए पाहाए पणुवीसं पणुवीसं दारसतं भवतीति मक्खायं ॥ ते ण दारा बावढि जोयणाई अद्धजोयणं च उई उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च विखंभेणं तावतियं चेव पवेसेणं सेता बरकणगथूभियागा ईहामिय तहेव जधा विजए दारे जाव तवणिजवालुगपत्थडा सुहफासा सस्सि(म)रीए सरूवा पासातीया४। तेसि णं दाराणं उभयपासिं दुहतो णिसीहियाए दो बंदणकलसपरिवाडीओ पण्णत्ताओ तहेव भाणियब्वं जाव वणमालाओ ॥ तेसि णं दाराणं उभओ पासिं दुहतो णिसीहियाए दो दो पगंठगा पण्णत्ता, ते णं पगंठगा एकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं पन्नरस जोयणाई अह्राइजे कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ता सब्बवइरामया अच्छा जाव पटिरूवा । तेसि णं पगंठगाणं उप्पि पत्तेयं २ पासायवर्डिसगा पण्णत्ता ॥ ते णं पासायवडिंसगा एकतीसं जोयणाई कोसं च उहूं उच्चत्तेणं पन्नरस जोयणाई अहाइवे य कोसे आयामवि ACCESCC ~ 438~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 4 पर प्रत श्रीजीवाजीवाभिः मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [१३५] ॥२१८॥ दीप अनुक्रम [१७३] क्वंभेणं सेसं तं चेव जाव समुग्गया णवरं बहुवयणं भाणितव्वं । विजयाए णं रायवाणीए ए- प्रतिपत्तौ गमेगे दारे अट्ठसयं चकज्झयाणं जाव अट्ठसत सेयाणं चउविसाणाणं णागवरकेऊणं, एवामेव मनुष्या० स पुव्यावरण विजयाए रायहाणीए एगमेगे दारे आसीतं २ केउसहस्सं भवतीति मक्खायं ॥ बि विजयाजयाए णं रायहाणीए एगमेगे दारे (तेसि णं दाराणं पुरओ) सत्तरस भोमा पपणसा, तेसिणं राजधानी भोमाण (भूमिभागा) जल्लोया (घ) पउमलया० भत्तिचित्ता ॥ तेसि णं भोमार्ण बहुमज्झदेस- उद्देशः२ भाए जे ते नवमनवमा भोमा तेसि भोमाणं वहुमज्झदेसभाए पत्तेयं २ सीहासणा पण्णत्ता, सू०१३५ सीहासणवण्णओ जाच दामा जहा हेट्ठा, एत्थ णं अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णता । तेसि णं दाराणं उत्तिम (उबरिमा) गारा सोलसविधेहिं रयणेहिं उवसोभिया तं चेव जाव छत्ताइछत्ता, एवामेव पुब्वावरेण विजयाए रायहाणीए पंच दारसता भवंतीति मक्खाया ॥ (सू०१३५) 'कहि णं भंते ! विजयस्से यादि, क भदन्त ! विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम! विजयस्य द्वारस्य पूर्वस्यां दिशि तिर्यग् असोयान द्वीपसमुद्रान् 'व्यतित्रज्य' अतिक्रम्य अत्रान्तरे योऽन्यः जम्बूद्वीपः अधिकृतद्वीपतुल्याभि १ वृत्तिकारा अतिविशन्ति 'तोरणे' याविगाथात्रयं सूत्रादर्शगतं पर न काप्यादर्शन दृश्यत इद, अनेकेषु च स्थान पतिकारप्राप्तानागादानाभिदानी-17 न्तनप्राप्यावानी च परस्पर भिनतमत्वात, सूत्रपस्योवंचिश्यं न च वाश उपलभ्यते आदर्श इति निरुपाया वयं सत्रयोरेकनीफरणे. अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 439~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३५] धानः, अनेन जम्बूद्वीपानामप्यसयेयवं सूचयति, तस्मिन् द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य अत्रान्तरे विजयस्य देवस्य योग्या विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता मया शेपैश्च तीर्थऋद्भिः, सा च द्वादश योजनसहस्राणि 'आयामविष्कम्भेन' आयामविष्कम्भाभ्यां, सप्तदात्रिंशदू योजनसहस्राणि नव शतानि 'अष्टाचत्वारिंशानि' अष्टचत्वारिंशदधिकानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, इदं च परिक्षेपप-IX रिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्ठस्स परिरओ होई' इति करणवशात्स्ववमानेतव्यम् ॥ 'सा ण'मित्यादि, 'सा' विजयाभिधाना राजधानी णमिति वाक्यालवारे एकेन महता प्राकारेण 'सर्वतः' सर्वासु विक्षु 'समन्ततः' सामस्येन परिक्षिप्ता ।। 'से णमित्यादि, |स प्राकारः सप्तविंशतं योजनानामर्द्धयोजनमूईमुचैरत्वेन मूलेऽर्द्धत्रयोदश योजनानि विष्कम्भेन मध्ये पड़ योजनानि सक्रोशानि-एकेन । कोशेनाधिकानि विष्कम्भेन उपरि त्रीणि योजनानि सार्द्धकोशानि [योजनानि] सार्बोनि द्वादश अर्द्धकोशाधिकानि (द्वादश) विष्कम्भेन, मूले विस्तीणों मध्ये संक्षिप्तो, मूलविष्कम्भतोऽर्द्धस्य बुदितत्वात् , उपरि तनुको, मध्यविष्कम्भादप्यर्द्धस्य त्रुटितलात् , बहिर्मुत्तोऽन्तश्चतुरस्रो 'गोपुच्छसंस्थानसंस्थितः उद्धाकृतगोपुरछसंस्थानसंस्थितः 'सबकणगमए' सर्वासना कनकमय: 'अच्छे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ।। 'से णमित्यादि, स प्राकारो नानाविधानि च तानि पञ्चवर्णानि च नानाविधपञ्चवर्णानि तैः, नानाविधलं च पथवर्णापेक्षया कृष्णादिवर्णतारतम्यापेक्षया वा द्रष्टव्यं, पञ्चवर्ण त्वमेवोपदर्शयति-'किण्हेहिं' इत्यादि । 'ते णं कविसीसगा' इत्यादि, तानि कपिशीकाणि प्रत्येकमर्द्धकोश-धनु:सहस्रप्रमाणमायामेन-दैर्येण पञ्च धनु:शतानि 'विष्कम्भेन' विस्तारेण, देशोनमर्द्धकोशमूर्द्धगुच्चैस्लेन | सबमणिमया' इत्यादि सर्वासना मणिमया 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ।। 'विजयाए णं रायहाणीए' इत्यादि, |विजयाया राजधान्या एकैकस्वां बाहायां पञ्चविंश-पञ्चविंशत्यधिकं द्वारशतं २ प्रज्ञतं, सर्वसङ्ख्यया पञ्च द्वारशवानि ॥ ते णं दारा दीप अनुक्रम [१७३] - -- - --- - -- ~440~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ ---------- मूलं [१३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३५] प्रतिपत्ती | मनुष्या० विजया| राजधानी | उद्देशः २ सू०१३५ दीप अनुक्रम [१७३] श्रीजीवा- इत्यादि, तानि द्वाराणि प्रत्येक द्वाषष्टियोजनानि अयोजनं चोर्द्धमुचस्त्वेन, एकत्रिंशतं योजनानि कोशं च विष्कम्भतः, 'तावइयं | जीवाभि चव पवेसेणं' एतावदेव-एकत्रिंशद् योजनानि कोशं चेत्यर्थः प्रवेशेन, 'सेया बरकणगथूभियागा' इत्यादि द्वारवर्णनं निरवशेष तावमलयगि द्वक्तव्यं यावदनमालावर्णनम् ।। 'तेसि णं दाराणमित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनैवेधिकीभावेन 'द्विधातो' द्विरीयावृत्तिः शाप्रकारायां नैपेधियां द्वौ द्वौ 'प्रकण्ठको' पीठविशेषौ प्रज्ञप्तौ, ते च प्रकण्ठका: प्रत्येकमेकत्रिशतं योजनानि कोशमेकं च आयामविष्कम्भाभ्या, पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान बाहल्येन 'सब्बवइरामया' इति सर्वासना ते प्रकण्ठका वजरत्नमयाः 'अच्छा सण्हा' इत्यादि ॥२१९॥ विशेषणजातं प्राग्वत् ॥ तेसिं पगंठगाण'मित्यादि, तेषां प्रकण्ठकानामुपरि प्रत्येकं 'प्रासादावतंसकः' प्रासादविशेषः प्रज्ञप्तः ॥ तेणं कापासायषडेंसगा' इत्यादि, ते प्रासादावतंसका एकत्रिशतं योजनानि कोशं चैकभूईमुश्चस्त्वेन, पचदश योजनानि अतृतीयांश्च कोशान भायामविष्कम्भाभ्यां तेषां च प्रासादानाम् 'अब्भुग्गयमूसियपहसियाविव' इत्यादि सामान्यतः सरूपवर्णनम् उल्लोकवर्णनं | मध्यभूमिभागवर्णनं सिंहासनवर्णनं विजयदूष्यवर्णनं मुक्तादामोपवर्णनं च विजयद्वारवन् , शेषमपि तोरणादिकं विजयद्वारबदिमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यं, ता एव गाथा आद-'तोरणे'त्यादि गाथात्रयं, द्वारेषु प्रत्येकमेकैकस्या नैपेधिक्या वे तोरणे वक्तव्ये, तेपांच तोरणानामुपरि प्रत्येकमष्ठावष्टौ मङ्गलकानि, तेषां तोरणानामुपरि कृष्णचामरध्वजादयो ध्वजाः, तदनन्तरं तोरणानां पुरतः शालभञ्जिकाः तदनन्तरं नागदन्तकास्तेषु च नागदन्तकेषु दामानि ततो हयसङ्घाटादयः सबाटा वक्तव्याः ततो हयपङ्कथादयः पतयस्तदनन्तरं हयवीध्यादयो बीथयस्ततो हयमिथुनकादीनि मिथुनानि तत: पद्मलतादयो लताः ततः 'सोस्थिया' चतुर्दिक्सौवस्तिका वक्तव्यास्ततो वन्दनकलशास्तदनन्तरं भृङ्गारकास्तत आदर्शकास्ततः खालानि तत: पाव्यस्तदनन्तरं सुप्रतिष्ठानि ततो मनोगुलिकास्तासु 34 x ॥२१९॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~441~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३५ ] दीप अनुक्रम [१७३] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः 'वातकरकाः' वातभृताः करका वातकरका जलशून्या इत्यर्थः, तदनन्तरं चित्रा रत्नकरण्डकास्ततो यकण्ठा गजकण्ठा नरकण्ठा:, उपलक्षणमेतत् किंनरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभकण्ठकाः क्रमेण वक्तव्याः, तदनन्तरं पुष्पादिचङ्गेयों वक्तव्यास्ततः पुष्पादिपटल कानि ततः सिंहासनानि तदनन्तरं छत्राणि ततञ्चामराणि ततस्तैलादिसमुद्रका वक्तव्यास्ततो ध्वजाः तेषां च ध्वजानामिदं चरमसूत्रम् - 'एवामेव सपुब्वावरेणं विजयाए रायहाणीए एगमेगंसि दारंसि असीयं असीयं के सहस्सं भवतीति मक्खायें' तदनन्तरं भौमानि वक्तव्यानि, तत्सूत्रं साक्षादुपदर्शयति- 'तेसि णं दाराण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां पुरतः सप्तदश सप्तदश भौमान प्रहप्तानि तेषां च भौमानां भूमिभागा उद्घोकाच प्राग्वद्वक्तव्याः ॥ 'तेसि णं भोमाणमित्यादि तेषां च भौमानां बहुमध्यदेशभागे यानि नवमनवमानि भौमानि तेषां वहुमध्यदेशभागेषु प्रत्येकं विजयदेवयोग्यं ( सिंहासनं यथा ) विजयद्वारपञ्चमभौमे किन्तु सपरिवारं सिंहासनं वक्तव्यम्, अवशेषेषु च भौमेषु प्रत्येकं सपरिवारं सिंहासनं प्रज्ञप्तं, 'तेसि णं दाराणं उवरिमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उबसोभिता' इत्यादि प्राग्वत् ॥ विजयाए णं रायहाणीए चउद्दिर्सि पंचजोयणसताई अबाहाए, एत्थ णं चत्तारि वणसंडा प ण्णता, तंजा -- असोगवणे सत्तवण्णवणे चंपगवणे चूतवणे, पुरत्थिमेणं असोगवणे दाहिणेणं सतवण्णवणे पचत्थिमेणं चंपगवणे उत्तरेणं चूतवणे । ते णं वणसंडा साइरेगाई दुबालस जोयसहस्साई आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता पत्तेयं पत्तेयं पागार परिक्खित्ता fever किन्होभासा वणसंडवण्णओ भाणियन्वो जात्र बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य Fir P&Permalise City ~ 442~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------------------- मूलं [१३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत % श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ४३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनषण्डाधि० सूत्रांक % [१३६] | उद्देशः२ ॥१२॥ %-95% सू०१३६ आसयंति सयंति चिट्ठति णिसीदति तुयति रमंति ललंति कीलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिकताणं सुभाणं कम्मार्ण कडाणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणा विहरंति ॥ तेसि णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिंसगा पण्णत्ता. ते णं पासायवडिंसगा बावडिं जोयणाई अद्धजोयणं च उहूं उच्चसेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गतमूसिया तहेव जाव अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पणत्ता उल्लोया पउमभत्तिचित्ता भाणियव्वा, तेसि णं पासायवडेंसगाणं बहमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता वण्णावासो सपरिवारा, तेसि णं पासायवडिंसगाणं उपि वहये अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ तत्थ णं चत्तारि देवा महिहीया जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, तंजहा-असोए सत्तवपणे चंपए चूते ॥ तत्थ णं ते साणं साणं वणसंडाणं साणं साणं पासायवडेंसयाणं साणं सार्ण सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवचं जाब विहरति । विजयाए णं रायहाणीए अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पपणत्ते जाव पंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए तणसद्दविहणे जाव देवा य देवीओ य आसयंति जाव विहरति । तस्स णं बहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं एगे महं ओवरियालेणे पण्णत्ते वारस जोयणसयाई आयामक्खिंभेणं तिन्नि जोयणसहस्साई दीप अनुक्रम [१७४] % %A5% % का॥२२०॥ * अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~443~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मुलं [१३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३६]] दीप अनुक्रम [१७४] सत्त य पंचाणउते जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं अद्धकोसं वाहल्लेणं सब्बर्जबूणतामतेणं अच्छे जाव पडिरूवे ॥ से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते पउमवरवेतियाए वण्णओ वणसंडवपणओ जाव विहरंति, से गं वणसंडे देसणाई दो जोयणाई चक्कवालबिक्वंभेणं ओवारियालयणसमपरिक्वेवणं ॥ तस्स णं ओवारियालयणस्स चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वपणओ, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तेयं पत्तेयं तोरणा पण्णत्ता छत्तातिछत्ता ॥ तस्स णं उवारियालयणस्स उपि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पपणते जाव मणीहिं जबसोभिते मणिवण्णओ, गंधरसफासो, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं मूलपासायवडिंसए पण्णत्ते, से णं पासायवडिसए पावढि जोयणाई अदजोयणं च उड़े उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्रमेणं अन्भुग्गयमूसियप्पहसिते तहेव तस्स णं पासायवसिगस्स अंतो बहसमरमणिजे भूमिभागे पपणत्ते जाच मणिफासे उल्लोए ॥ तस्स गं बहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्सदेसभागे एत्य णं एगा महं मणिपेढिया पन्नत्सा, सा च एग जोयणमायामधिक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सब्वमणिमई अच्छा सण्हा । तीसे णं मणिपेडियाए उरि एगे महं सीहासणे पन्नत्ते, एवं सीहासणवपणओ सपरिवारो, तस्स णं पासायडिंसगस्स उपि बहवे अमंग -Error.krry- kARA%-55-%25 ~ 444~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------------------- मूलं [१३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक प्रतिपत्ती मनुष्या वनपण्डाधि उद्देशः२ * [१३६]] ॥२२१॥ *- - दीप अनुक्रम [१७४] &00% लगा नया छत्सातिछत्ता ।। से णं पासायवडिंसए अण्णेहिं चउहिं तदडुचत्तप्पमाणमेसेहिं पासायवसिएहिं सब्यतो समंता संपरिस्वित्ते, ते पां पासायवर्डिसगा एकतीसं जोयणाई कोसं च उई उच्चत्तेणं अद्धसोलसजोषणाई अदकोसं च आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गत सहेव, तमिणं पासायचडिंसयाण अंतो बहुसमरमणिजा भूमिभागा उल्लोया ।तेसि गं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं यहुमजप्रदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणं पपणतं, वण्णओ, तेसिं परिवारभूता भद्दासणा पण्णता, तेसि णं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ ते णं पासायडिंसका अपणेहिं चाहिं चउहिं तददुपत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडेंसरहिं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ता ।। ते णं पासायवसका अद्धसोलसजोयणाई अद्धकोसं च उई उच्चत्तेणं देमृणाई अह जोयणाई आयामयिक्खंभेणं अभुग्गय तहेव, तेसि पासायवडेंसगाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा उलोया, तेसि णं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहमझदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पउमासणा पनत्ता, तेसि णं पासायाणं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ ते णं पासायब.सगा अपणेहिं चउहिं तददुचत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायव.सएहिं सव्वतो समंता संपरिक्वित्ता ॥ ते णं पासायबडेसका देसूणाई अट्ट जोयणाई उई उच्चत्तेणं देसूणाईचत्सारि जोयणाई आयामविक्खंभेणं अभुग्गत भूमिभागा उल्लोया भदासणाई उवरि मंगलगा झया छत्तातिछत्ता, ते णं पासायव -* -* *-*-* ||२२१॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~445~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१३६]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३६]] दीप अनुक्रम [१७४] हिंसगा अण्णेहिं चाहिं तदडुचत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडिसएहिं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ता । तेणं पासायवडिंसगा देमूणाई चत्तारि जोयणाई उई उच्चत्तेणं देसूणाई दो जोयणाई आयामविखंभेण अन्भुग्गयमृसिया भूमिभागा उल्लोया पउमासणाई उवरि मंगलगा झया छत्ताइच्छत्ता ।। (सू०१३६) 'विजयाए णं रायहाणीए' इत्यादि, विजवाया राजधान्या: 'चउदिसिमिति चतस्रो दिशः समाहताश्चतुर्दिक तस्मिन् चतु दिशि-चतसृषु दिक्षु पञ्च पञ्च योजनशतानि 'अवाहाए' इति वाधनं बाधा-आक्रमणं तस्यामवाधान्यां कृलेति गम्यते, अपान्तबारालेषु मुक्लेति भावः, चत्वारो वनखण्डाः प्रज्ञप्ताः, 'तद्यथें त्यादि, तानेव वनपण्डान् नामतो दिग्भेदतश्च दर्शयति, अशोकवृक्षप्रधान वनमशोकवनम् , एवं सप्तपर्णवनं चम्पकवनं चूतवनमपि भावनीयं, 'पुठवण असोगवण मित्यादिरूपा गाथा पाठसिद्धा (भत्र तु न)। 'ते| पण वणसंडा' इत्यादि, ते वनखण्डा: सातिरेकाणि द्वादश योजनसहस्राण्यायामेन पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेन प्रत्येक प्रज्ञप्ताः प्रत्येक प्राकारपरिक्षिप्ताः, पुनः कथम्भूतास्ते वनषण्डाः ? इत्यादि पद्मबरबेदिकाबहिर्वनपण्डवत्ताबविशेषेण वक्तव्यं यावत् 'तत्थ णं बहवे बाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाब विहरंति' | 'तेसि णमित्यादि, तेषां वनपण्डानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रासादावतंसकाः प्राप्ताः, ते च प्रासादावतंसका द्वाषष्टियोजनान्यद्धयोजनं चोई मुजैस्लेन एकत्रिंशतं योजनानि कोशं च विष्कम्भेन 'अब्भुग्गयमूसियपहसियाविव' इत्यादि प्रासादावतंसकानां वर्णनं निरवशेष तावद्वक्तव्यं यावत्तन्त्र प्रत्येकं सिंहासनं सपरिवार । 'तत्व ण मित्यादि, तेपु वनपण्डेपु प्रत्येकमेकैकदेवभावेन चलारो देवा महर्द्विका यावत् 'महजुइया महायला महायसा महासोक्खा महाणु 5625 ~446~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीया सूत्रांक [१३६] र प्रतिपक्षी | मनुष्या० वनपण्डा धि उद्देशः२ सू०१२६ दीप अनुक्रम [१७४] दाभावा' इतिपरिपहः पल्योपमस्थितिका: परिवसन्ति, तद्यथा-'असोए' इत्यादि, अशोकवनेऽशोकः सप्तपर्णवने सप्तपर्णः चम्पकवने जीवाभि चम्पक: चूतबने चूतः ।। 'तेसि ण'मि(तत्थ ण ते इ) त्यादि, ते अशोकादयो देवास्तस्य बनखण्डस्य स्वस्थ प्रासादावतंसकर, सूत्रे मलयगि- बहुवचनं प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि वचनव्यत्ययो भवतीति, स्वेषां स्वेषां सामानिकसहस्राणां स्वास स्वासामनमहिषीणां सपरिवाराणां स्वास रीयावत्तिःत स्वासां पर्षदा खेपां खेषामनीकानां (अनीकाधिपतीनां) स्वेषां वेषागालरक्षकाणाम् आहेवचं पोरंवच मित्यादि प्राग्यन् ।। 'विजयाए ण मित्यादि, विजयाया राजधान्या अन्तर्वहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा इत्यादि वर्णनं प्राग्वत् ॥२२२॥ निरवशेष ताबद्वक्तव्यं यावन्मणीनो स्पर्शः, तस्य च बहुसभरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अन्न महद् एकमुपकारिका लयनं प्रशतं, राजधानीस्वामिसत्कप्रासादावतंसकादीन उपकरोति-उपष्टनातीत्युपकारिका-राजधानीस्वामिसत्कप्रासादावतंसकादीनां आपीठिका, अन्यत्र त्वियमुपकार्योपकारकेति प्रसिद्धा, उक्तञ्च-गृहस्थानं स्मृतं राज्ञागुपकार्योपकारका" इति, उपकारिकालयनमिव ४ उपकारिकालयनं तद् द्वादश योजनशतानि 'आयामविष्कम्भेन' आयामविष्कम्भाभ्या, त्रीणि योजनसहस्राणि सप्त योजनशतानि पञ्चनवतानि-पञ्चनवत्यधिकानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञाप्तानि, परिक्षेपपरिमाणं चेदं प्रागुक्तकरणवशात्स्वयमानेतव्यम् , अर्द्धकोशं-धनुःसहस्रपरिमाणं वाहल्येन 'सव्यजंवूणयामए' इति सामना जाम्बूनदमयम् , 'अच्छे इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ।। से ण'मित्यादि, 'तद्' उपकारिकालयनम् एकया पदावरवेदिकया तत्पृष्ठभाविन्या एकेन च वनपण्डेन 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः सानरत्येन संपरिक्षितं, पदावरवेदिकावर्णको वनषण्डवर्णकः प्राग्वन्निरवशेषो वक्तव्यो यावत् 'तत्थ बहये वाणमंतरा देवा काय देवीको बासयंति सयंति जाव विहरंति' इति ॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य उपकारिकालयनस्य 'चउदिसिं'ति चतुर्दिशि चतसृप %95%25 ॥२२२॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~447~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ---------- मूलं [१३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३६]] दीप अनुक्रम [१७४] । दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-प्रतिविशिष्टरूपाणि त्रिसोपानानि प्रज्ञप्तानि, त्रिसोपानवर्णकः | पूर्ववद्वक्तव्यः, तेषां च निसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येक प्रत्येक तोरणं प्रज्ञप्तं, तेषां च तोरणानां वर्णनं प्राग्वद्वक्तव्यम् ।। 'तस्स | णमिलादि, तस्य' उपकारिकालयनस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहानाभए' इत्यादि भूमिभागवर्णनं प्राग्वतावद्वालयं यावन्मणीनां स्पर्शः, तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽन्न महानेको मूलप्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, स च द्वापष्टियोजनानि अर्थ 'प योजनमूड मुचस्त्वेन, एकत्रिंशतं योजनानि कोशं चायागविष्कम्भाभ्याम , 'अन्भुम्गयमूसियपहसियाविवेत्यादि, तस्य वर्णनं मध्ये भूमिभागवर्णनं सिंहासनबर्णनं शेषाणि च भद्रासनानि तत्परिवारभूनानि विजयद्वारबहि:स्थितप्रासादबद्भावनीयानि ।। 'तस्स 'मित्यादि, तस्य मूलप्रासादावतंसकस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महती एका मणिपीठिका प्राप्ता, सा चैक योजनमायामविष्कम्भाभ्यामईयोजन बाहल्येन मवमणिमयी' इति सर्वात्मना मणिमयी 'अच्छा सहा' इत्यादि विशेषणकदम्यक प्राग्वत् ॥ 'तीसे णमित्यादि, तम्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेक सिंहासनं प्रज्ञान, तस्य च सिंहासनस्य परिवारभूतानि शेषाणि भद्रासनानि प्राग्वद्वक्तव्यानि ।। से णमित्यादि, स च मूलपासादावतंस कोऽन्यैश्चतुभिर्मूलप्रासादावतंसकैस्तदशिवप्रमाणमात्रै:-भूलपासादावतंसकाोश्चत्वप्रमाणैः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षितः, तदोषत्वप्रमाणमेव दर्शयति-एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं चैकमूर्द्धमुस्खेन, पश्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान आयामविष्कम्माभ्यां, सेपामपि 'अभुग्गयमूसियपह सियाविधे'त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्येभूमिभागवर्णनगुल्लोकवर्णनं च प्राग्वन् । 'तेसि णमित्यादि, तेषां प्रासादावतंसकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं | सिंहासन प्रज्ञप्तं, तेषां च सिंहासनानां वर्णनं प्राग्वत् , नवरमन सिंहासनानां शेषाणि परिवारभूतानि न वक्तव्यानि ॥ 'ते णं पासा 2 ~ 448~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३६ ] दीप अनुक्रम [१७४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १३६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २२३ ॥ यवडेंसया' इत्यादि ते प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंस कैस्तदद्धश्चलप्रमाणमात्रै:- मूलप्रासादावतंसकपरिवारभूतप्रासादावतंसकारण त्वप्रमाण मान्त्रैर्मूलप्रासादापेक्षया चतुर्भागमात्रप्रमाणैरित्यर्थः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्ताः, तदद्धचलप्रमाणमेत्र दर्शयति - 'ते णमित्यादि, ते प्रासादावतंसकाः पञ्चदश योजनानि अतृतीयांश्रक्रोशान ऊर्द्धमुचैस्त्वेन देशोनानि अष्टौ योजनानि आयामविष्कम्भाभ्यां सूत्रे च 'आयामविक्खंभेणं'ति एकवचनं समाहारविवक्षणात् एवमन्यत्रापि भावनीयम् एतेषामपि 'अब्भुग्गयमूसियेत्यादि स्वरूपवर्णनं मध्ये भूमिभागवर्णन मुलोक वर्णनं सिंहासनवर्णनं च प्रावत् केवलमत्रापि सिंहासनमपरिवारं वक्तव्यम् ॥ 'ते पण 'मित्यादि तेऽपि प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंस कैस्तदद्धोंचप्रमाणमात्रै :- अनन्तरोक्तशसादावतंसकाचलप्रमाणेमूलप्रासादापेक्षयाऽष्टभागमात्रप्रमाणैरित्यर्थः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्ताः, तदेव तदचखप्रमाणमात्रमुपदर्शयति- 'ते ण'मित्यादि, * ते प्रासादावतंसका देशोनानि अष्टौ योजनानि ऊर्द्धमुनेस्त्वेन देशोनानि चत्वारि योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां तेपामपि 'अनुगायमूॐ सियपहसियाविवेत्यादि स्वरूपादिवर्णनमनन्तरप्रासादावतंसकवन् ।। (एतयोः सूत्रयोर्मूलपाठो न दृश्यते) 'ते ण'मित्यादि, तेऽपि च प्रासा! दावतंसका अन्यैश्रतुर्भिः प्रासादावतंस कैस्तदद्वेषखप्रमाणमात्रैः - अनन्तरोक्तप्रासादावतंस काचित्प्रमाणमात्रै र्मूलप्रासादावतंसकापेक्षया * पोडशभागप्रमाणमात्रैरित्यर्थः सर्वतः समन्ततः संपरिक्षिमाः, तदद्धयत्यप्रमाणमेव दर्शयति- 'ते ण'मित्यादि, ते प्रासादावतंसका देशोनानि चत्वारि योजनान्युर्द्धमुचैस्लेन देशोने द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां तेषामपि स्वरूपवर्णनं मध्ये भूमिभागवर्णन मुलोकवर्णनं सिंहासनवर्णनं च परिवारवर्जितं प्राग्वत् तदेवं चतस्रः प्रासादावतंसकपरिपाट्यो भवन्ति, कचित्तित्र एव दृश्यन्ते न चतुर्थी || For P&Palle Cinly ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० सभावर्णनं ~449~ उद्देशः २ सू० १३६ ।। २२३ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप् समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - १५ -04-1 प्रत सूत्रांक - monemara AL- - v-27 [१३७] तस्सणं मूलपासायव.सगस्स उत्तरपुरस्थिमे णं एस्थ णं विजयस्स देवस्स सभा सुधम्मा पण्णशा अद्धत्तेरसजोयणाई आयामेणं छ सकोसाई जोयणाई विश्वंभेणं णव जोयणाई उई उच्चतेणं, अणेगखंभसतसंनिविट्ठा अन्भुग्गयसुकयवहरवेदिया तोरणवररतियसालभंजिया सुसिलिडविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्यवालियविमलखंभा णाणामणिकणगरयणखड्यउजलबहसमसुबिभत्तचित्त(णिचिय)रमणि नकुहिमतला ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिपणररुरुसरभचमरकुंजरवण लयपउमलयभत्तिचित्ता थंभुग्गयवइरवेझ्यापरिगयाभिरामा विज़ाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविव अचिसहस्तमालणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणी भिभिसमाणी चक्खुलोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा कंचणमणिरयणधूभियागा नाणाबिहपंचवषणघंटापडागपडिमंडिलग्गसिहरा धवला मिरीइकवचं विणिम्नुयंती लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरतचंदणदद्दरदिनपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपटियारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवद्वग्धारियमलदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिता कालागुरुपवर कुँगुरुकतुरुकधूवमघमतगंधुडुयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवद्विभूया अच्छरगणसंघसंविकिला दिब्बतुडियमधुरसद्दसंपणादया सुरम्मा सब्बरयणामती अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तीसे णं सोहम्माए सभाए तिदिसि तओ द्वारा पणत्ता॥ ते णं दारा पत्तेयं पत्तेयं दीप अनुक्रम [१७५] - - - m -- aan - सुधर्मा-आदि सभाया: वर्णनम् ~450~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३७] दीप अनुक्रम [१७५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र )], मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि मलयगि रीयावृत्तिः * ।। २२४ ।। दो दो जोयणाई उ उचलेणं एवं जोयगं विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेवा वरकणगधूभियागा जाब वर्णमालादाराओ । तेसि णं दाराणं पुरओ मुहमंडवा पण्णत्ता, ते मुहमंडवा अद्धतेरसजोवणारं जाणं जोषणाई सकोसाई विक्वं नेणं साइरेगाई दो जोयणाई उ उच्चतेगं मुहमंडवा अगवं भयसंनिविट्ठा जाव उल्लोया भूमिभागवणओ ॥ तेसि णं मुहमंवाणं वरं पतेयं पत्ते अट्ट संगला पण्णत्ता सोत्थिय जात्र मच्छ० ॥ तेसि णं मुहमंडणं पुरओ पत्ते पत्ते पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता, ते णं पेच्छाघरमंदवा अद्वतेरसजोयणाई आयामेणं जाव दो जोयणाई उहुंच जाय मणिफालो । तेसि णं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं बद्दरामयअग पण्णत्ता, सिणं बहरानपाणं अक्वाडगाणं पटुमज्झदेसभाए पत्तेयं २ मणिपीडिया पण्णत्ता, ताओणं णिपीटिवाओ जोयणमेगं जायामविवखंभेणं अद्धजोयणं बालेणं सव्वममिओ अच्छाओ जाव पडिहदाओ ॥ तासि णं मणिपीडियानं उपिं पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता, सीहाणपणओ जाय दामा परिवारो। तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं उपि अमंगलगा झया छत्तातिछता ॥ नेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरतो तिदिसिं तओ मणिपेडियाओ पं० ताओ मणिपेडियाओ दो जोयणाएं आयानविकखंभेणं जोवणं दाहल्लेणं सव्वमणिमतीओ अच्छाओ जाव परिवाओ ॥ तासि णं मणिपेडियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं चेइयथूमा पण्णत्ता, ते णं चेहयधूभा ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० सभावर्णनं उद्देशः २ सू० १३७ ~ 451~ ॥ २२४ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] दीप अनुक्रम [१७५] दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं सातिरेगाई दो जोयणाई उई उच्चत्तेणं सेया संखककुंददगरयामयमहितफेणपुंजसपिणकासा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसि जे चेयथूभाणं उप्पिं अट्ठह मंगलगा यहुकिपहचामरझया पण्णता छत्तातिछत्ता । तेसि णं चेतियथूभाणं चउद्दिसिं पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि मणिपतियाओ प०, ताओ णं मणिपेडियाओ जोयर्ण आयामविक्खंभेणं अद्वजोयणं बाहल्लेणं सबमणिमईओ ॥ तासि गं मणिपीढियाणं उपि पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि जिणपडिमाओ जिणुस्सेहपमाणमेत्ताओ पलियंकणिसण्णाओ धूभाभिमुहीओ सन्निविडाओ चिट्ठति, तंजहा-उसभा बदमाणा चंदाणणा वारिसेणा ॥ तेसि णं चेतियथूभाणं पुरतो तिदिसि पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियाओ पन्नत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ दो दो जोयणाई आयामविखंभेणं जोयणं पाहणं सव्वमणिभईओ अच्छाओ लण्हाओ साहाओ घट्टाओ महाओ णिप्पंकाओणीरयाओ जाव पडिरुवाओ । तासि णं मणिपेढियाणं उपि पत्तेयं पत्तेयं चेइयाक्वा पण्णत्ता, ते णं चेतियरक्ला अट्ठजोयणाई उहूं उच्चत्तेणं अद्धजोयणं उब्वेहेणं दो जोयणाई खंधी अदजोवर्ण विखंभेणं छजोयणाई विडिमा बहुमझदेसभाए अट्ठजोषणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई अजोयणाई सञ्चग्गेणं पणत्ताई। तेसि णं चेयरुक्खाणं अयमेतारूवे वपणावासे पण्णसे, तंजहा-बहरामया मूला रययसुपतिहिता विडिमा रिट्ठामयविपुल ~ 452~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 29 प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः KALA ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० सभावर्णन उद्देशा २ सू०१३७ सूत्रांक [१३७] - ॥२२५॥ -- -- कंदवेलियातिलग्बंधा सुजातरुवपढमगविसालसाली नाणामणिरयणविविधसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिजपत्तवेंटा जंयूणयरत्तम उयसुकुमालपवालपल्लवसोभंतवरंकुरग्गसिहरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरणमियसाला सच्छाया सप्पमा समिरीया सउज्जोया अमयरससमरसफला अधियं णयणमणणिब्युतिकरा पासातीया दरिसणिजा अभिरूवा पडिख्या ।। ते णं चेझ्याक्खा अन्नेहिं बहहिं तिलयलवयछत्तोवगसिरीससत्तवन्नदहिवनलोधवचंदणनीवकुडयकयंयपणसतालतमालपियालपियंगुपारावयरायरक्स्वनंदिरुक्वेहिं सव्वओ समता संपरिक्वित्सा ॥ ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा मूलवंतो कन्दमंतो जाव सुरम्मा ॥ तेणं तिलया जाव नंदिरुक्खा अन्नेहिं यहहिं पउमलयाहिं जाव सामलयाहिं सब्बतो समंता संपरिक्खित्सा, ताओ णं पउमलयाओ जाव सामलयाओ निच्चं कुसुमियाओ जाव पडिस्याओ ।। तेसि णं चेतियरुक्वाणं उप्पि बहवे अवमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ तेसि णं चेइयरुक्खाणं पुरतो तिदिसि तओ मणिपेढियाओ पपणत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्यमणिमतीओ अच्छा जाव पडिरुवाओ ॥ तासि गं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं माहिंदझया अट्ठमाई जोयणाई उई उच्चत्तेणं अद्धकोसं उब्वेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं वइरामयवलट्ठसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्टमहसुपतिहिता विसिद्धा अणेगवरपंचव दीप अनुक्रम [१७५] + - ॥२२५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 453~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - प्रत सूत्रांक %A9-%-5 --. [१३७] पणकुटभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा बाउहुपविजयवेजयंतीपडागा छत्तातिछत्सकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघमाणसिहरा पासादीया जाय पडिरूवा ॥ तेसि णं महिंदज्झयाणं उपि अट्टहमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ तेसि णं महिं दज्झयाणं पुरतो तिदिसि नओ गंदाओ पुक्षरिणीओ पं० ताओ णं पुक्खरिणीओ अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं सकोसाइंछ जोयणाई विखंभेणं दसजोयणाई उब्बेहेणं अच्छाओ सण्हाओ पुक्खरिणीवण्णओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेड्यापरिक्ग्वित्ताओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंरपरिक्खित्ताओ वण्णओ जाय पडिरुवाओ ॥ तेसिणं पुक्खरिणीणं पत्तय तिदिसि तिसोवाणपडिरूवगा पं०. तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्ण ओ, तोरणा भाणि यव्वा, जाव छत्तातिच्छत्ता सभाए णं सुहम्माए छ मणोगुलिसाहस्सीओ प. पणताओ, तंजहा-पुरस्थिमे णं दो साहस्सीओ पचत्थिमेणं दो साहस्सीओ दाहिणणं एगसाहस्सी उत्तरेणं एगा साहस्सी, तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुचण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता, तेसु णं सुवष्णरुप्पामएसु फलगेसु बहवे वइरामया णागदंतगा पण्णसा, तेसु णं वहरामएसु नागदतए बहवे किण्हसुत्तववरघारितमल्लदामकलावा जाय सुकिलबवग्धारितमल्लदामकलावा, ते णं दामा तवणिजलंबूसगा जाव चिट्ठति ॥ सभाए णं सुहम्माए छगोमाणसीसाहस्सीओ पण्णताओ तंजहा-पुरथिमेणं दो साहस्सीओ, एवं पञ्चस्थिमेणवि दाहिणणं सहस्सं एवं COMC दीप अनुक्रम [१७५] - 4-04-% --- ~454~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: RECORK * प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [१३७] - ॥२२६॥ - दीप अनुक्रम [१७५] उत्तरेणवि, तासु णं गोमाणसीसु बहवे सुवपणाप्पमया फलगा पं० जाव तेसु णं बहरामएसु प्रतिपत्ती नागदंतएम बहवे रयतामया सिकना पणत्ता, तेसु णं रयतामएसु सिकासु षहवे वेरुलि- मनुष्या यामईओ धूवघडिताओ पण्णत्ताओ, ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरुपवरकुंदरूकतुरुक्क जाव सभावर्णन घाणमणणिज्युहकरेणं गंधेणं सव्वतो समंता आपूरेमाणीओ चिट्ठति। सभाए णं सुधम्माए अंतो उद्देशा२ बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं फासो उल्लोया पउमलयभत्तिचित्ता जाव सब्य सू०१३७ तवणिजमए अच्छे जाव पडिरुचे॥ (सू०१३७) 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य मूलप्रासादावतंसकस्य 'उत्तरपूर्वस्याम् ईशानकोण इत्यर्थः, 'अन' एतस्मिन् भागे विजयस्य देवस्य योग्या है। सभा सुधर्मा नाम विशिष्टच्छन्दकोपेता साऽर्द्ध त्रयोदशयोजनान्यायामेन षट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेन नव योजनानि ऊर्द्ध मुच्चैस्वेन 'अणेगे'त्यादि अनेफेपु स्तम्भशतेषु सन्निविष्ठा अनेकस्तंभशतसन्निविष्ठा 'अब्भुग्गयसुकयवरवेझ्या तोरणवररइयसालभंजिया सुसिलिट्ठविसिहलहसंठियपसत्यवेरुलियविमलखंभा अभ्युद्गता-अतिरमणीयतया द्राणां प्रत्यभिमुखमुन्-प्राबल्येन सिता मुफतेव |सुकृता निपुणशिल्पिरचितेवेति भावः, अभ्युद्गता चासौ सुकृता च अभ्युद्गतसुकृता वनवेदिका-द्वारमुण्डकोपरि यसरममयी वेदिका तोरणं चाभ्युद्तमुकृतं यत्र सा तथा, तथा वराभिः-प्रधानाभिः रचिताभि:-विरचिताभिः रत्तिदाभिर्वा सालभन्जिकाभिः सुशिष्टा--संबद्धा विशिष्ट-प्रधान लष्ट-मनोज्ञं संस्थित-संस्थानं येषां ते विशिष्टलष्टसंस्थिता: प्रशस्सा:-प्रशंसास्पदीभूता बैडूर्यस्तम्भाः -वैडूर्यरत्नमयाः ॥२२६॥ स्तम्भा अस्यां सा पररचितशालभतिकामुश्लिष्टविशिष्टलष्टसंस्थितप्रशस्तवैदूर्यस्तम्भा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, तथा नानामणिकन-1 Jace अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~455~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- ----------- मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] दीप अनुक्रम [१७५] करत्नानि खचितानि यत्र स नानामणिकनकरत्नखचितः, निष्पान्तस्य परनिपातो भायर्यादिदर्शनात् , नानामणिकनकरत्नखचितः उ-15 दावलो-निर्मलो बहुसम:-अत्यन्तसमः सुविभक्तो निचितो-निविडो रमणीयश्च भूमिभागो यस्यां सा नानामणिकनकरत्नखचितोज्न लबहुसगसुविभक्त (निचितरमणीय) भूमिभागा ईहामिगउसहतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता' इति तथा स्तम्भोद्गतया-स्तम्भोपरिवर्तिन्या वनवेदिकया-वचरत्नमय्या येदिकया परिगता सती याऽभिरामा सम्भोगत-16 वनवेदिकापरिगताभिरामा विज्ञाहर जमलजुगलजंतजुत्ताविध अविसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिबा मिसमाणा मिम्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा' इति प्राग्वन् 'कंचणमणिरयणथूभियागा' इति काञ्चनमणिरजानां स्तूपिका-शिखरं यस्याः | सा काभानमणिरजस्तूपिकाका 'नाणाबिहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियगसिहरा' नानाविधाभिः-नानाप्रकाराभिः पञ्चवर्णाभिर्घण्टाभिः | लापताकाभिश्च परि-सामन्त्येन मण्डितमपशिखरं यस्याः सा नानाविधपश्चवर्णघण्टाचताकापरिमण्डितायशिखरा 'धवला' श्वेता मरीचिकवचं-किरणजालपरिक्षेपं विनिर्मुश्चन्ती 'लाउल्लोइयमहिया' इति लाइयं नाम यद् भूमेोमयादिना उपलेपनम् उल्लोइयं-कुव्यानां मालस्य च सेटिकादिभिः संमृष्टीकरणं लाउल्लोइयं वाभ्यामिव महिता-पूजिता लाउलोइयम हिता, तथा गोशीर्षेण-गोशीर्षनामचन्दनेन सरसरक्तचन्दनेन दईरेण-बहलेन चपेटाकारेण या दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला-हस्तका यत्र सा गोशीर्षकसरसरक्तचन्दनददरदत्तपमालितला, तथा उपचिता-निवेशिता बन्दनकलशा-मङ्गलकलशा वस्था सा उपचितवन्दनकळशा 'चंदणघडकयतो। रणपडिदुवारदेसभागा' इति चन्दनवटैः-चन्दनकलशैः सुकृतानि-मुष्ट कृतानि शोभनानीति तात्पर्यार्थः यानि तोरणानि तानि | चन्दनघटसुकृतानि तोरणानि प्रतिद्वारदेशभागे यस्यां सा चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागा, तथा 'आसत्तोसत्तववग्धारिय F%20 ~456~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३७] दीप अनुक्रम [१७५] “जीवाजीवाभिगम" - Jan Eber उपांगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा - 4 महदामकलावा' इति भा-अबाङ अधोभूमौ सक्त आसतो भूमौ लग्न इत्यर्थः ऊर्जा सक्त उत्सक्तः - उल्लोचतले उपरिसंवद्ध इत्यर्थः, जीवाभि० विपुलो - विस्तीर्णः वृत्तो-वल 'वारिय' इति प्रलम्बितो माल्यदामकलापः - पुष्पमालासमूहो यस्यां सा आसक्कत्सक्तविपुलवृत्तवमलयगि-ग्धारित माल्यदामकलापा, तथा पञ्चवर्णेन सरसेन सच्छायेन सुरभिणा मुक्तेन- क्षितेन पुष्पपुञ्ज लक्षणेनोपचारेण पूजया कलिता परीयावृत्तिः । ञ्चवर्णसरससुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलिता 'कालागुरुपवर कुन्दुरुका तुरुकवमघमत गंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवट्टि ॥ २२७ ॥ भूषा' इति प्राग्वन्, 'अच्छरगणसंघसंविकिष्णा' इति अप्सरोगणानां सङ्घः समुदायस्तेन सम्यग् रमणीयतया विकीर्णा व्याप्ता 'दिव्यतुडियसद्दसंपणादिया' इति दिव्यानां त्रुटितानां आसोद्यानां वेणुवीणामृदङ्गादीनां ये शब्दातैः सम्यक् - श्रोत्रमनोहारितया * प्रकर्षेण नादिया-शब्दवती दिव्यत्रुटितसंप्रणादिता 'अच्छा सण्हा जाव पडिवा' इति प्राग्वत् ॥ 'तीसे णं सभाए 'मियादि, स भायाः सुधर्मायाः 'त्रिदिशि' तिसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकद्वारभावेन त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - एक पूर्वस्यामेकं दक्षि स्यामेकमुत्तरस्याम् || 'ते णं दारा' इत्यादि, तानि द्वाराणि प्रत्येकं प्रत्येकं द्वे द्वे योजने ऊर्द्धमुचैस्लेन योजनमेकं विष्कम्भेन 'ताब| इयं चेवे 'ति योजनमेकं प्रवेशेन 'सेया वरकणगभूमियागा' इत्यादि प्रागुक्तं द्वारवर्णनं तदेवाद्वक्तव्यं यावद्वनमाला इति ॥ 'तेसि णमित्यादि तेषां द्वाराणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं मुखगण्डपः प्रज्ञतः, ते च मुखमण्डपा अर्द्धत्रयोदश योजनानि आयामेन, पड् योजनाति सक्रोशानि विष्कम्भेन, सातिरेके द्वे योजने ऊर्द्धमुचैस्त्वेन, एतेषामपि 'अणेगखंभसयसन्निविद्या' इत्यादि वर्णनं सुपयाः स भाया इव निरवशेषं द्रष्टव्यं तेषां मुखमण्डपानामुल्लोकवर्णनं बहुसमरमणीय भूमिभागवर्णनं च यावन्मणीनां स्पर्शः प्राग्वत् ॥ ' तेसि णमित्यादि तेषां मुखमण्डपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि - स्वस्तिकादीनि प्रज्ञतानि तान्येवाह - 'तंज' त्यादि एतच विशेषणं For P&Praise Cinly ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या० सभावर्णनं उद्देशः २ सू० १३७ ~ 457 ~ ।। २२७ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] दीप अनुक्रम [१७५] सासुधर्मासभाया अपि द्रष्टव्यम् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां मुखमण्डपानां पुरतः प्रलोकं २ प्रेक्षागृहमण्डपः प्रज्ञप्तः, तेऽपि च प्रेक्षागह मण्डपा अर्बत्रयोदश योजनान्यायामेन, सकोशानि धड़ योजनानि विष्कम्भेन, सातिरके वे योजने कई मुजैस्पेन, प्रेक्षागृहगण्डपानां च भूमिभागवर्णनं पूर्ववत्तावद्वाक्यं यावन्मणीनां स्पर्शः।। तेसि णमित्यादि, तेषां च यहुसमरमणीयानां भूमिभागागा बहुमध्यदेशभागे। प्रत्येक प्रत्येक बनमयः 'अक्षपाटक: चतुरस्राकारः प्रज्ञप्तः, तेषां चाक्षपाटकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येक मणिपीठिकाः प्रायाः, ताश्च मणिपीठिका योजनमेकमायामविच्कम्भाभ्यामईयोजनं वाहत्येन 'सब्वमणिमईओ' इति सर्वासना मणिमय्यः 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ।। 'तासि णमित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येक सिंहासन प्रज्ञतं, तेषां च सिंहासनाना। वर्णनं परिवारश्च प्राग्वद्वक्तव्यः, तेषां च प्रेक्षागृहमण्डपानामुपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि, कृष्णचामरध्वजादि | च प्राग्वद्वक्तव्यम् ॥ 'तेसि ण मित्यादि, तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं मणिपीठिकाः प्रशताः, ताश्च मणिपीठिका: - | त्येक द्वे द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनगेकं बाहल्येन सर्वात्मना मणिमय्यः अच्छा इत्यादि प्राग्यन् ॥ 'तासि जमित्यादि। | तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येक चैत्यस्तूपाः प्रज्ञताः, ते च चैत्यस्तूपाः सातिरेके द्वे योजने ऊर्द्धमुस्त्वेन द्वे योजने आया- II मविष्कम्भाभ्यां शाकुन्ददकरजोऽमृतमथिटफेनपुसंनिकाशा: सर्वात्मना रनमया अच्छाः लक्ष्या इत्यादि प्राग्वन् ॥ 'तेसि ण' मित्यादि, नेषां चैत्यस्तूपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि यहवः कृष्णचामरघजा इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तेसि 'मित्यादि, तेषां चैत्यरस्तूपाना प्रत्येक प्रत्येक 'चतुर्दिशि चतसृपु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकमणिपीठिकाभावेन चतस्रो मणिपीठिकाः प्राप्ताः, ताव मणिपीठिका योजनमायामविष्कम्भाभ्याम योजनं वाहल्येन सर्वासना मणिमय्य: अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तासि णमित्यादि, ~ 458~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] प्रतिपनी मनुष्या० समावर्णन उद्देशः२ सू०१३७ दीप अनुक्रम [१७५] श्रीजीवा दातासां मणिपीठिकानामुपरि एकैकस्या मणिपीठिकाया उपरि एककप्रतिमाभावेन चतसो जिनप्रतिमा जिनोत्सेधः-स्कर्पतः पञ्च धनु:- जीवाभि० शतानि जघन्यतः सप्त हस्ता:, इह तु पञ्च धनुःशतानि संभाव्यन्ते, 'पलियंकनिसन्नाओ' इति पर्यङ्कासननिषण्णाः स्तूपाभिमुख्य- मलयगि ४ स्तिष्ठन्ति, तद्यथा-पमा बर्द्धमाना चन्द्रानना वारिपेणा ।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानां पुरत: प्रत्येक प्रत्येक मणिपीठिका: रीयावृत्तिः प्रज्ञताः, ताश्च मणिपीठिका द्वे द्वे योजने आयाम विष्कम्भाभ्यां योजनमेकं वाहत्येन सर्वात्मना मणिमय्यः अच्छा इत्यादि प्राग्वत् । तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येक चैत्यवृक्षाः प्रशताः । ते चैत्यवृक्षा अष्टौ योजनान्यूद्धमुरुत्वेन अयोजनमुत्सेधेन उण्डत्वेन ॥ २२८॥ योजने उजैस्त्वेन स्कन्धः स एवाई योजनं विष्कम्भेन यावद्वहुमध्यदेशभागे कई विनिर्गता शाखा सा बिडिमा सा पड़ योजनान्यूद्ध मुञ्चैस्त्वेन, साऽपि चाई योजनं विष्कम्भेन, सर्वाग्रेण सातिरेकाण्यष्टौ योजनानि प्रज्ञमः । तेषां च चैत्यपृक्षाणामयमेतद्पो वर्णावासः ग्रामः, तद्यथा-'वइरामया मूला रययसुपइडिया विडिमा' वाणि--वरत्नमयानि मूलानि येषां ते पत्रमूलाः, तथा रजता रजतमयी सुप्रतिष्ठिता विडिमा-बहुमध्यदेशभागे अर्द्ध विनिर्गता शाखा येपां ते रजतसुप्रतिष्ठितविडिमा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयससमासः, 'रिहमयकंदवेरुलियरुचिरखंधी' रिखमयो-रिष्ठरत्रमयः कन्दो येषां ते रिठरत्नमयकन्दाः, तथा वैडूर्यो-वैडूर्यरत्रमयो रुचिर: स्कन्धो येषां ते तथा, तत: पूर्वपदेन कर्मधारयसमासः, 'सुजायवरजायरूवपढमगविसालसाला मुजातं-मूलद्रव्यशुद्धं वरं--प्रधानं| | बज्जातरूपं तदात्मका प्रथमका-मूलभूता विशाला शाला-शाखा येषां ते सुजातवर जातरूपप्रथमकविशालशाला: 'नानामणिरयणविवि-118 हसाप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिज्जपत्तवेंटा' नानामणिरजानां नानामणिरजामिका विविधाः शाखा: प्रशाखाश्च येषां ते तथा, वैडूर्याणि- वैडूर्यमयानि पत्राणि येषां ते तथा, तथा तपनीयानि-तपनीयमयानि पत्रवृन्तानि येषां ते तथा, ततः पूर्ववत्पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्म ॥२२ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 459~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३७] साधारयः, जाम्बूनदा-जाम्बूनदनामकसुवर्णविशेषमया रक्ता-रक्तवर्णा मृदबो-मनोज्ञाः सुकुमारा:-सुकुमारस्पर्शा ये प्रवाला-ईपटुन्मी लितपत्रभाषाः पहवाः-संजातपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा बराहुरा:-प्रथममुद्भिद्यमाना अडरास्तान् धरन्तीति जाम्बूनदरक्तमृदुसुकुमारप्रवालपल्लबारधराः, कचित्पाठः 'जंबूणयरत्तमध्यसुकुमालकोमलपवालपबङ्करग्गसिहरा' तत्र जाम्बूनदानि रक्तानि मृदूनि-अकठिनानि सुकुमाराणि-अकर्कशस्पानि कोमलानि-मनोज्ञानि प्रवालपल्लवाङ्कुरा:-यथोदितस्वरूपा अप्रशिखराणि च येषां ते तथा 'विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरेण नमियसाला विचित्रमणिरत्नानि-विचित्रमणिरत्नमयानि यानि सुरभीणि कुसुमानि | फलानि च तेषां भरेण नमिता-नाम प्राहिताः शाला:-शाखा येषां ते तथा, सती-शोभना छाया येषां ते सल्छायाः, तथा सतीशोभना प्रभा-कान्तिर्येषां ते सत्प्रभाः, सह उद्द्योतेन वर्तन्ते मगिरजानामुद्द्योतभावात् सोयोताः, अधिक-अतिशयेन नयनमनोनिवृतिकरा:, अमृतरससमरसानि फलानि येषां ते अमृतरससमकला: पासाईया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ।। 'ते ण चेह-| यरुक्खा' इत्यादि, ते चैत्यवृक्षा अन्यैर्बहुभितिलकलवङ्गत्रोपगशिरीपसप्तपर्णदधिपर्णलोधवचन्दननीपकुटजकदम्बपनसतालतमा| लप्रियालप्रियङ्गपारापतराजवृक्षनन्दिवृक्षः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिताः ॥ 'ते णं तिलगा' इत्यादि, ते तिलका यावन्नन्दिवृक्षा मूलवन्तः कन्दवन्त इत्यादि वृक्षवर्णनं प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं यावदनेकशकटरथयानशिविकास्यन्दमानिकाप्रतिमोचनासुरभ्या इति ।। 'ते णं तिलगा' इत्यादि, ते तिलका यावन्नन्दिपक्षा अन्याभिर्वहुभिः पद्मलताभिन गलताभिरशोकलताभिश्चम्पकलताभिधूतलताभिर्वनलताभिर्वासन्तिकालताभिरतिमुक्तकलताभिः कुन्दलताभिः श्यामलताभिः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्ताः, ताओ णं पउमलयाओ जाव सा-/ मलयाओ निचं कुसुमियाभो' इत्यादिलतावर्णनं वावद्वक्तव्यं यावत् 'पडिरूवाओं' इति, व्याख्या चास्य पूर्ववत् ।। 'तेसि ण'मित्यादि, दीप अनुक्रम [१७५] जीच०३९ ~ 460~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ ----------- मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: Kr प्रत सूत्रांक [१३७] दीप अनुक्रम [१७५] श्रीजीवा- तेषां चैत्यवृक्षाणामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि पूर्ववत्तावक्तव्यं यावद्यः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरत्न- प्रतिपत्ती जीवाभि मया यावत्पतिरूपका इति ॥ 'तेसि ॥'मित्यादि, तेषां चैत्यवृक्षाणां पुरतः प्रत्येकं प्रलोकं मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्व मणिपीठिका मनुष्या० मलयगि-18 योजनमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन सर्वासना मणिमय्यः, अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तासि णमित्यादि, तासां मणिपी- | सुधर्मारीयावृत्तिः है| ठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येक महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः, ते च महेन्द्रध्वजा 'अर्द्धाष्टमानि' सार्दानि सप्त योजनान्यूईमुस्लेन, अर्द्धकोश- सभाव० धनु:सहस्रप्रमाणमुद्वेधेन, अर्द्धकोश-धनु:सहस्रप्रमाणं 'विष्कम्भेन' विस्तारेण, 'वइरामयवट्टलहसंठियसुसिलिङपरिघट्टमहसुपइडिया' उद्देशः२ ॥२२९॥ इति वज़मया-वजरत्नमया: तथा वृत्त-वर्तुलं लघु-मनोझ संस्थितं-संस्थानं येषां ते वृत्तलष्टसंस्थिताः, तथा सुशिष्टा यथा भवन्ति एवं | सू०१३७ परिघृष्टा इव खरशानया पाषाणप्रतिमेव सुनिष्टपरिपृष्टाः मृष्टाः सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठिता मनागप्यचलनात् 'अणे-| गवरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा' अनेकवरैः-प्रधानैः पञ्चवर्णैः कुडभीसहरः-लघुपताकासहसैः परिमण्डिताः स तोऽभिरामा अनेकवरपञ्चवर्णकुडभीसहस्रपरिमण्डिताभिरामा: 'वाउद्धयविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगणतलहामणुलिहंतसिहरा पासाईया जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां महेन्द्रध्वजानामुपरि अष्टावष्टी मङ्गल-14 कानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि पूर्ववत् सर्व वक्तव्यं यावद्यः सहसपत्रकहतका इति ।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां महेन्द्रध्वजानां पुरत: प्रत्येकं प्रत्येक 'नन्दा' नन्दाभिधाना पुष्करिणी प्रज्ञप्ता, 'अर्द्धत्रयोदश' सार्दानि द्वादश योजनानि आयामेन, पद योजनानि सक्रोशानि विष्कम्भेन, दश योजनान्युवेधेन-उण्डलेन, 'अच्छाओ सहाओ रययमयकूडाओ' इत्यादि वर्णनं जगत्युपरि- ॥२२९ ॥ पुष्करिणीवन्निरवशेष वक्तव्यं यावन् 'पासाईयाओ उद्गरसेणं पन्नताओ' ताश्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्येक २ पावरवेदिकया प्रत्येक.२|| 8494 9425 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 461~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत F-बल सूत्रांक [१३७] *-* वनषण्टेन च परिक्षिताः, तासां च नन्दापुष्करिणीनां विदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि तेषां च वर्णन सोरणवर्णनं च प्राग्बत् ॥ 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायां पड़ (मनो) गुलिकासहस्राणि प्रज्ञापानि, तद्यथा-द्वे सहने पूर्वस्वा | दिशि द्वे पश्चिमायामेकं सहस्र दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्यामिति, एतासु च फलकनागदन्तकमाल्यदामवर्णनं प्राग्वत् ।। 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायां षड् गोमानसिका:-शय्यारूपाः स्थानविशेषास्तासां सहस्राणि प्रशतानि, तद्यथा-वे सहसे पूर्वस्यां | दिशि द्वे पश्चिमायामेकं दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्यामिति, तास्वपि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं धूपचटिकावर्णनं च विजयद्वारबन् । 'सभाए| Nणं सुहम्माए' इत्यादि उल्होकवर्णनं सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि भूमिभागवर्णनं च प्राग्वत् ॥ तस्स णं थहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्य णं एगा महं मणिपीडिया पण्णत्ता, साणं मणिपीढिया दो जोयणाई आयामविश्वंभेणं जोयणं थाहल्लेणं सम्वमणिमता ॥ तीसे गं मणिपीदियाए उपि एत्थ णं माणवए णाम चेइयग्वंभे पपणत्ते अट्ठमाई जोषणाई उई उनसेणं अडकोसं उब्वेहेणं अद्धकोसं विश्वंभेणं छकोडीए छलंसे छविग्गहिते वइरामयवद्दलदृसंठिते, एवं जहा महिंदज्झयस्स वणओ जाव पासातीए ॥ तस्स णं माणवकस्स चेतियखभस्स उरि छकोसे ओगाहित्ता हेहावि छक्कोसे वजेत्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एस्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पं०, तेसु णं सुवण्णरूप्पमएसु फलएसु बहये वइरामया णागर्दता पण्णत्ता, तेसु णं बहरामएसु नागदंतरसु बहवे रययामता सिकगा पण्णत्ता ॥ तेसु णं रपयाम - दीप अनुक्रम [१७५] % *-* % -*- % % 4X4%--* ~ 462~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३८] दीप अनुक्रम [१७६] प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २३० ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - Je Ecuar in सिकस बहवे वइरामया गोलबहसमुरगका पण्णत्ता, तेसु णं वइरामएस गोलबहसमुग्गए बहवे freeकहाओ संनिक्खित्ताओ चिति, जाओ णं विजयस्स देवस्स अण्णसिं च यहणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य अवणिजाओ बंदणिजाओ प्रर्याणिजाओ सकारणिजाओ सम्माणणिजाओ कलाणं मंगलं देवयं चेतियं पज्जुवासणिज्जाओ । माणवस्त्र णं चेतियखंभस्स बरं अमंगलगा झपा उत्तातिछत्ता ॥ तस्स णं माणवकस्स चेतियखंभस्त पुरच्छिमेणं एत्थ णं एगा महामणिपेढिया पं०, साणं मणिपेडिया दो जोयणाई आयामविक्संभेणं जोयणं वाहणं सव्वमणिमई जाब परिरूवा ॥ तीसे णं भणिपेडियाए उपिं एत्थ पर्ण एंगे महं सीहासणे पण्णत्ते, सीहासणवण्णओ ॥ तस्स णं माणवगस्स चेतियखंभस्स पचत्थिमेणं एत्थ णं एमा महं मणिपेडिया पं० जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोपणं बाणं सव्यमणिमती अच्छा तीसे णं मणिपेडियाए पि एत्थ णं एगे महं देवसयणिजे पण्णत्ते, तस्स णं देवस्यणिजस्स अयमेवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-नाणामणिमया परिपादा सोवणिया पादा नाणाममिया पायसीसा जंत्रणयमयाई गत्ताई बहरामया संधी णाणामणिमते चिचे रइयामता तुली लोहियक्मया विव्योयणा तवणिजमती गंडोवहाणिया, से णं देवसयणिजे उभओ विब्बोयणे दुहओ उष्ण मज्झेणयगंभीरे सालिंगणवद्दीए गंगापुलिनवालुउद्दालसालिसए ओतवितक्खो For P&Praise City 6 % % the ty of the the mo ~463~ ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० माणवक स्तम्भदेव शयनीयव उद्देशः २ सू० १३८ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ॥ २३० ॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत %25 सूत्रांक [१३८] 4% 82-%E4 - मदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे सुविरचितरयत्ताणे रत्तंसुवर्सवुते सुरम्मे आईशग समयूरणवणीचनूलफासमउए पासाईए॥ तस्स गं देवसयणिजस्स उत्तरपुरस्थिमे गं एस्थ णं महई एगा मणिपीठिका पण्णता जोयणमेगं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं पाहलेणं सबभगिमई जाव अच्छा ।। नीसे णं मणिपीढियाए उवि एणं महं खुए महिंदज्झए पपणते अट्ठमाई जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं अद्धकोसं उब्बेघेणं अद्धकोसं विश्व मेणं वेरुलियामयवद्दलहसंठिते तहेव जाव मंगला झया छसानिछत्ता।। तस्स णं खुहमहिंदज्झयस्स पचत्यिमेणं गत्थ णं विजयस्स देवस्स चुप्पालए नाम पहरणकोसे पण्णत्ते । तत्थ णं विजयस्स देवस्स फलिहरयणपामोक्खा बहवे पहरणरयणा संनिक्खित्ता चिट्ठति, उजलसुणिसियसुनिक्खधारा पासाईया || तीसे णं सभाए सुहम्माए उप्पि वहवे अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ।। (सू०१३८) 'तस्स णं बहुसमरमणीयस्स भूमिभागस्से'त्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्थ भूमिभागस्य वहुमध्यदेशभागे, अत्र महती एका मणिपीठिका प्रज्ञासा, द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यामेकं योजनं बाहल्येन सामना मणिमयी 'अच्छा' इत्यादि प्राग्बन् । 'तीसेस द्रोणमित्यादि, तस्वा मणिपीठिकाया उपरि महानेको माणवकनामा चैत्यस्तम्भः प्रज्ञप्तः, अष्टिमानि-साद्धीनि सप्त योजनान्यूज भुस्खेन अ कोश-धनु:सहस्रमानमुद्वेधेन, अर्द्धकोश विष्कम्भेन पडनिक:-पटकोटीकः पडिहिक: 'बदरामयवट्टलट्ठसंठिए' इत्यादि महेन्द्रध्वज-1 वद् वर्णनमशेषगस्यापि तावद्वक्तव्यं यावद् पहयो सहस्सपत्तहत्यगा सम्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा' इति ॥ 'तस्स ण'मि दीप अनुक्रम [१७६] - - % R - ~464~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८] दीप श्रीजीवा- त्यादि, तस्य माणवकस्य चैलास्तम्भस्योपरि षट् क्रोशान अवगाहा उपरितनभागात् षट् कोशान् वर्जविवेति भावः, अधस्तादपि षट् ३ प्रतिपत्ती जीवाभि क्रोशान् वर्जयित्वा मध्येऽर्द्धपञ्चमेषु योजनेषु बहरे 'मुवष्णरूप्पमया फलगा' इत्यादिफलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं सिकगवर्णनं च प्रा- मनुष्या० मलयगि- ग्वत् ।। 'तेसु णमित्यादि, तेषु रजतमयेषु सिक्केषु बहवो वशमया गोलवृत्ताः समुद्रकाः, तेषु च वनमयेषु समुद्केषु बहूनि जिनस-3 माणवकरीयावृत्तिः थीनि संनिक्षिमानि तिष्ठन्ति यानि विजयस्य देवस्थान्येषां च बहूनां वानमन्तराणां देवानां देवीनां चार्चनीयानि चन्दनतः वन्दनीयानि स्तम्भदेव स्तुत्यादिना पूजनीयानि पुरुषादिना माननीयानि बहुमानकरणत: सत्कारणीयानि वनादिना कल्याण मगलं दैवतं चैत्यमितिबुद्धया शयनीयव. ॥ २३१॥ पर्युपासनीयानि ।। 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य माण्णवकम्य चैत्यस्तम्भस्य पूर्वम्यां दिशि अत्र महतोका मणिपीठिका प्रज्ञता, योजनमेक- उद्देशः २ मायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहत्येन सर्वासना मणिमयी 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वन् । 'तीसे णमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाबासू०१३८ उपरि अन्न महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं तद्वर्णनं शेषाणि च भद्रासनानि तत्परिवारभूतानि प्राम्यन् ।। 'तस्स ण'मियादि, तस्य मागव नामश्चैत्यस्तम्भस्य पश्चिमायां दिशि अत्र महत्वका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, एक योजनमायामविष्कम्भाभ्याग योजनं बाहस्पेन 'सञ्चहै। मणिमयो' इत्यादि प्राग्वन् । 'तीसे णमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं (देव) शयनीयं प्रज्ञानं, तस्य च देवशयनीयपायायमेतद्रपः 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तपथा-नानामणिमया: प्रतिपादा:-मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादाः प्रतिपादाः 'सौवर्णिकाः' सुवर्णमया: 'दादा' मूलपानाः, जाम्बूनदमवानि गात्राणि-ईपादीनि बसमया बनरअपूरिताः सन्धयः, नानामणिमये चिच्चे' इति चिनं नाम न्युनं वानमियर्थः, नानामणिमयं मयुतं-विशिष्टवानं रजतमयी नली लोहिताक्षमयानि 'बिब्बो- F ॥२ ॥२३१॥ यणा' इति उपधानकानि, आह च मूलटीकाकार:-विबोयणा-उपधानकानि उच्यन्त" इनि, तपनीयमय्यो गण्डोपधानकाः ।। अनुक्रम [१७६] Jatics अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~465~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८] दीप अनुक्रम [१७६] से पां देवसयणिज्जे' इत्यादि, तद् देवशयनीयं 'सालिङ्गनवर्तिक' सह आलिङ्गनवा-शरीरप्रमाणेनोपधानेन यद् तत्तथा 'उ-12 भओवियोयणे' इति उभयतः--उभौ-शिरोऽन्तपादान्ताबाश्रिय विनोयो-उपधाने यत्र तद् उभयतोवियोवणं 'दुह तो उन्नते' इति । उभयत उन्नत माझेणयगंभीरे' इति, मध्ये च ननं निम्न त्वाद् गम्भीरं च महत्वात् नतगम्भीर गङ्गापुलिनपालुकाया अबदालो-विवलनं पाहादिन्यासेऽयोगमन मिति भावः तेन 'सालिसए' इति सशकं गङ्गापुलिनचालुकाबदालमर्श तथा 'ओयविय' इति विशिष्ट परिकर्मितं क्षौम-कार्पासिकं दुकलं-वयं तदेव पटु ओय विपक्षीमढुकूलपट्टः स पहिलादनं-आच्छादनं यस्य सत्तधा. 'आईणगरू-14 रायबरनवणीयतुलफासे' इति प्राग्वत् , 'रमुयसंवुए' इति रक्तांशुकेन संवृतं रक्तांशुसंवृतम् , अन एक सुरम्यं 'पासाइए' इत्यादि | पदचतुष्टयं प्राग्वन ।। 'तस्स णमित्यादि. तस्य देवशयनीयम् उत्तरपूर्वम्यां दिशि अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं वाहल्येन 'सत्रमणिमयी अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तीसे णमित्यादि. तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र क्षुल्लको महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः, तस्य प्रमाणं च वर्णकञ्च महेन्द्रवजवक्तव्यः । 'तस्स णमित्यादि, तस्य क्षुल्लकस्य महेन्द्रध्वजस्य पश्चिमायां दिशि अत्र विजयस्य देवस्य सम्बन्धी महान एकचोप्पालो नाम 'प्रहरणकोशः'प्रहरणास्थानं प्रज्ञानं, किंविशिष्टमित्याहसिचाइरामए अच्छे जाव पडिरूवे' इति सावत् ।। 'तत्य णमित्यादि, तत्र चोप्पालकाभिधाने प्रहरणकोशे यहूनि परिधरजप्रमुहखाणि प्रहरणरत्नानि संक्षिप्रानि तिष्ठन्ति, कथम्भूनानीयत आह-उज्जवलानि-निर्मलानि सुनिशितानि-अतितेजितानि अत एव तीक्ष्णधाराणि प्रासादीवानीत्यादि प्राग्वत ।। 'तीसे गं सभाए' इत्यादि. तस्याः सुधर्मायाः सभाया उपरि बहून्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि, इत्यादि सर्व प्राग्वत्तावक्तव्यं याबदहवः सहसपत्रहस्तकाः सर्वरत्नमया अच्छा यावरप्रतिरूपाः ॥ 4 * ~466~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१३९ ] दीप अनुक्रम [१७७] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः !!॥ २३२ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१३९] आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित सभाए णं सुधम्माए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं एगे महं सिद्धायतणे पण्णत्ते अडतेरस जोयणाई आयमे छजोयणाई सकोसाई विक्खंभेणं नव जोयणाई उहुं उच्चत्तेनं जाव गोमाणसिया वत्तब्वया जा चैव सहाए सुहम्माए वक्तव्यया सा चैव निरवसेसा भाणियच्या तदेव द्वारा मुहमंडवा पेच्छाघरमंडवा या धूमाचेयम्क्वा महिंदझया णंदाओ पुक्खरिणीओ, तओ य सुधम्माए जहा प्रमाणं मणगुलियाणं गोमाणसीया धूवयघडिओ तहेव भूमिभागे उल्लोए य जाव मणिफासे ॥ तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसनाएं एत्थ णं एगा महं मणिपेडिया पण्णत्ता दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोपणं वाहणं सव्वमणिमयी अच्छा, तीसे णं मणिपेडियाए उपि एत्थ णं एगे महं देवच्छंद पण्णत्ते दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई दो जोयणाई उहुं उच्चणं सव्वरयणाम अच्छे ॥ तत्थ णं देवच्छंद असतं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहृप्पमाण ताणं संणिवित्तं हि । तासि णं जिणडिमाणं अवमेधाख्वे वण्णावासे पण्णसे, तंजहातवणिजमता हत्थतला अंकामयाई णक्खाई अंतोलोहियखपरियाई कणगमया पादा कणगामया गोम्फा कणगामतीओ जंघाओ कणगामया जाणू कणगामया ऊरू कणगामयाओ गायलडीओ तवणिजमतीओ णाभीओ रिट्ठामतीओ रोमरातीओ तवणिज्ञमया चुचुया तवणिजमता सि रिवच्छा कणगमयाओ बाहाओ कणगमईओ पासाओ कणगमतीओ गीवाओ रिट्ठामते मंसु For P&Praise City ३ प्रतिपचौ मनुष्या० सिद्धायतनाधि० उद्देशः २ सू० १३९ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् सिद्धायतन अधिकार:, शाश्वत- जिनप्रतिमा अधिकार: ~467~ ॥ २३२ ॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- ----------- मूलं [१३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत - सूत्रांक [१३९] - सिलप्पवालमया उट्ठा फलिहामया दंता तवणिजमतीओ जीहाओ तवणिजमया तालुया कणगमतीओ णासाओ अंतोलोहितक्खपरिसेयाओ अंकामयाई अच्छीणि अंतोलोहितक्खपरिसेताई पुलगमतीओ दिट्ठीओ रिट्ठामतीओ तारगाओ रिट्ठामयाई अच्छिपत्ताई रिहामतीओ भमुहाओ कणगामया कवोला कणगामया सवणा कणगामया णिडाला वहा बहरामतीओ सीसघडीओ तवणिजमतीओ केसंतकेसभूमीओ रिटामया उवरिमुद्धजा । तासिणं जिणपडिमाणं पिट्टतो पत्तयं पसेयं छत्तधारपडिमाओ पपणत्ताओ, ताओ णं छत्तधारपडिमाओ हिमरततकदंदसप्पकासाई सकोरेंटमल्लदामचलाई आतपत्तातिं सलीलं ओहारमाणीओ चिट्ठति ॥ तासि णं जिणपडिमाणं उभओ पासिं पत्तेयं पत्तेयं चामरधारपडिमाओ पन्नत्ताओ. ताओ गं चामरधारपडिमाओ चंदप्पहवहरवेरुलियनाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जुजलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ संखककुंददगरयअमतमथितफेणपुंजसपिणकासाओ सुहमरयतदीहवालाओ धवलाओ चामराओ सलीलं ओहारेमाणीओ चिटुंति ॥ तासि णं जिणपडिमाणं पुरतो दो दो नागपडिमाओ दो २ जक्खपडिमाओ दो २ भूतपडिमाओ दो २ कुंडधारपडिमाओ विणओणयाओ पायवडियाओ पंजलिउडाओ संणिक्वित्ताओ चिट्ठति सव्वरयणामतीओ अच्छाओ सहाओ लण्हाओ घटाओ मट्ठाओ णीरयाओ णिप्पकाओ जाव पडिरूवाओ॥ तासिणं दीप अनुक्रम [१७७] %2F%25 - - - सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकार: ~ 468~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- ---------- मूलं [१३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति प्रत सूत्रांक [१३९] SC- C+ C दीप श्रीजीवा- जिणपडिमाणं पुरतो अहसतं घंटाणं असतं चंदणकलसाणं एवं अट्ठसतं भिंगारगाणं एवं ३ प्रतिपत्ती जीवाभि० आयंसगाणं थालाणं पातीणं सुपतिट्टकाणं मणगुलियाणं वानकरगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं मनुष्या० मलयगिहयकंठगाणं जाव उसकंटगाणं पुष्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुष्फपडलगाणं अट्ठसयं सिद्धायतरीयावृत्तिः तेल्लसमुग्गाणं जाव धूवगडच्छुयाणं संणिखितं चिट्ठति ॥ तस्स णं सिद्धायतणस्स णं उप्पि नाधिक बहवे अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता उत्तिमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिया | उद्देशः२ ॥२३३॥ तंजहा-यणेहिं जाब रिटेहिं ।। (म०१३९) सू०१३९ 'सभाए मिलयादि, सभायाः सुधाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञतम् , अर्द्धवयोदश योजनान्यायामेन पट सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भतो नव योजनान्यूईमुचैस्त्वेनेत्यादि सर्व सुधविक्तव्यं यावद् गोमानसीवक्तव्यता, तथा चाह---| हाजा चेव सभाए सुधम्माए वनव्वया सा चेव निरवसेसा भाणियवा जाव गोमाणसियाओ' इनि, फिमुक्तं भवति ?-यथा सुध-| आया: सभायाः पूर्वदक्षिणोत्तरवर्तीनि त्रीणि द्वाराणि, तेषां च द्वाराणां पुरतो मुखमण्डपाः, तेषां च मुखमण्डपानां पुरतः प्रेक्षागृह-|| मण्डपाः, तेषां च प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतश्चैत्यस्तूपाः सप्रतिमाः, तेषां च चैत्यस्तूपानां पुरतश्चैत्यवृक्षाः, तेषां च चैत्यक्षाणां पुरतो महेन्द्रध्वजाः, तेषां च महेन्द्रध्वजानां पुरतो नन्दापुष्करिण्य उक्ताः, तदनन्तरं च सभायां सुधर्मायां षड् गुलिकासहस्राणि षड् गो-18 मानसीसहस्राण्यप्युक्तानि तथाऽत्रापि सर्वमनेनैव क्रमेण निरवशेष वक्तव्यम् , उल्लोकवर्णनं बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णनमपि तथैव ।। तस्स 'मित्यादि, तस्य (सिद्धायतनख) बहुसमरमणीयस्य भूनिभागस्व बहुमध्यदेशभाने अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता द्वे अनुक्रम [१७७] K ॥२३३॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकारः ~469~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -- प्रत - - सूत्रांक [१३९] - योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं बाहल्येन सर्वमणिमयी अच्छा इत्यादि प्राग्वत् । तस्यान मणिपीठिकाया उपरि अत्र महानेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः सातिरेके द्वे योजने कई मुनेस्त्वेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां सर्वात्मना रत्नमया अक्छा इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तत्थ णमित्यादि, तत्र देवच्छन्दके 'अष्टशतम् अष्टाधिकं शतं जिनप्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमाणमात्राणां पञ्चधनुःशतप्रमाणानामिति भावः सन्निक्षि तिष्ठति ।। 'तासि णं जिणपडिमाण'मियादि, तासां जिनप्रतिमानामय मेतपो 'वर्णावासा' वर्णकनिवेश: प्रशाः, तपनीयमयानि हसतलपादृतलानि 'अङ्कमयाः' अङ्करत्नमया अन्त:-मध्ये लोहिताक्षरत्नप्रतिपेका नखाः, कनकमप्यो जङ्गाः, कनकमयानि जानृनि, कनकमया ऊरवः, कनकमय्यो गात्रयष्टयः, तपनीयमया नाभयः, रिष्ठरत्रमय्यो रोमराजयः, तपनीयमया: 'चुचकाः' स्तनाग्रभागाः, तपनीयमया: श्रीवृक्षाः (वत्साः) "शिलाप्रवालमया' विठुममया ओष्ठाः, स्फटिकमया दन्ताः। मनीयमथ्यो जिह्वाः, तपनीयमयानि तालुकानि, कनकमव्यो नासिका: अन्तर्लोहिताक्षरत्नप्रतिसेकाः, अङ्कमयानि अक्षीणि अन्तलों-1 हिताक्षप्रतिसेकानि. रिटरनमयोऽक्षिमध्यगतास्तारिकाः, रिटरनमयानि अक्षिपत्राणि, रिष्ठरत्नमय्यो ध्रुवः, कनकमयाः कपोला: कनकमयाः श्रवणा: कनकमय्यो ललाटपट्टिकाः, वनमय्यः शीर्यपदिका:. तपनीयमव्यः केशान्तकेशभूमयः, केशानामन्तभूमयः केशभूमयश्चेति भावः, रिटमया उपरि मूर्वजा:-केशाः, तासां जिनप्रतिमान पृष्ठत एकैका छत्रधरप्रतिमा हेमरजतकुन्देन्दु (समान) प्रकाश सकोरिंदमाल्यदामधवलमातपत्रं गृहीला सलीलं धरन्ती तिष्ठति | 'तासि ण जिणपडिमाण मित्यादि, तासां जिनप्रतिमानां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोढ़े द्वे चमरधारप्रतिमे प्रज्ञप्ते, 'चंदप्पभवइरवेरुलियनाणामणिरयणखचितदंडाओ' इति चन्द्रप्रभ:-चन्द्रकान्तो वत्रं वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभवनवैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु ते तथा, एवंरूपाश्चिना:-नानाप्र - दीप अनुक्रम [१७७] -- -- *- -- * ----- सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकार: ~ 470~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३९]] श्रीजीवा- कारा दण्डा येषां तानि तथा, सूत्रे स्त्रीवं प्राकृतवान्, 'सुहुमरययदीहवालाओ' इति सूक्ष्मा:-लक्ष्णा रजवस-रजतम्या वाला प्रतिपत्तौ जीवाभियेषां तानि तथा, 'संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निकासाओ धवलाओ चामराओ' इति प्रतीतं चामराणि गृहीत्वा सलील मनुष्या० मलयगि-18वीजयन्त्यतिप्ठन्ति ॥ तासि णमित्यादि, तासां जिनप्रतिमानां पुरतो वे द्वे नागप्रतिमे वेडे यक्षप्रतिमे दे भूतप्रतिमे द्वे || सिद्धायतरीयावृत्तिःकुण्डधारप्रतिमे संनिक्षिमे तिष्ठतः, ताश्च 'सम्बरयणामईओ अच्छाओं' इत्यादि प्रावत् ।। 'तत्थ णमित्यादि, तस्मिन्' देवच्छन्दके नवर्णन Mजिनप्रतिमानां पुरतोऽएशतं घण्टानामष्टशतं चन्दनकलशानामष्टशतं भृङ्गाराणामष्टशतभादर्शानामष्टशतं स्थालानामष्टशतं पात्रीणामष्ट- उद्देशः२ ॥२३४॥ शतं सुप्रतिष्ठानामष्टशतं मनोगुलिकाना-पीठिका विशेषरूपाणामष्टशतं वातकर काणामदशतं चित्राणां रत्नकरण्डकाणामष्टशतं हवक-18 | सू०१३९ ण्ठानामष्टशतं गजफण्ठानामष्टशतं नरकण्ठानामष्टशतं किंनरकण्ठानामष्टशतं किंपुरुपकण्ठानामष्टशतं महोरगकण्ठानामष्टशतं गन्धर्व कण्ठानामष्टशतं वृपभकण्ठानामष्टशतं पुष्पचोरीणामष्टशतं माल्यचजेरीगामष्टशतं चूर्गचङ्गेरीणामष्टशतं गन्धचङ्गेरीणामष्टशतं वनचङ्गेहरीणामष्टशतमाभरणचङ्गेरीणामष्टशतं लोन स्तचझरीणां लोमहस्तका-मयूरपिच्छपुश्चनिकाः अष्टशतं पुष्पपटल कानामष्टशतं माल्यभोपटलकानां मुत्कलानि पुष्पाणि प्रथितानि माल्यानि अष्टशतं चूर्णपटलकानाम् , एवं गन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थलोमहस्त कपटल कानामपि प्रत्येक प्रत्येकमष्टशतं वक्तव्यम् , अष्टशतं सिंहासनानाभष्टशतं छत्राणामष्टशतं चामराणामष्टशतं तैलसमुद्कानामष्टशतं कोष्ठसमुद्रकानामष्टशतं चोयकसमुद्रकानामष्टशतं वगरसमुद्कानामष्टशतमेलासमुद्गकानामष्टशतं हरितालसमुद्रकानामष्टशतं हिलकसमुद्कानामष्टशतं मनःशिलासमुद्रकानामष्टशतं अंजनसमुद्रकानां, सर्वाण्यप्येतानि तैलादीनि परमसुरभिगन्धोपेतानि द्रष्टव्यानि, अष्टशतं N ||२३४॥ ध्वजानाम् , अत्र सङ्ग्रहणिगाथे-बंदणकलसा भिंगारगा य आयंसगा य थाला य।पाईओ सुपइट्ठा मणगुलिया बायकरगा य ॥१॥ दीप अनुक्रम [१७७] * SEX D ataayurm अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकारः ~ 471~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: A% A 92 प्रत 5 सूत्रांक [१३९] % A % दीप अनुक्रम [१७७] चित्ता रयणकरंडा हयगयनरकंठगा य चंगेरी । पडला सिंहासणछत्तचामरा समुग्गयक(जु)या य ॥ २॥" अष्टशतं धूपकडुच्छुकानां संनिक्षिप्तं तिष्ठति ॥ तस्स ण'मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य उपरि अष्टावठी मङ्गलकानि, बजाछत्रातिछत्रादीनि तु प्राग्वत् ॥ तस्स णं सिद्धाययणस्स णं उत्तरपुरथिमेणं एत्थ णं एगा महं उचवायसभा पण्णत्ता जहा सुधम्मा तहेब जाव गोमाणसीओ उपवायसभाएवि दारा मुहमंडवा सव्वं भूमिभागे तहेव जाव मणिफासो (सुहम्मासभावत्तब्वया भाणियचा जाव भूमीए फासो)॥ लस्म णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमजादेसभाए एल्थ णं एगा महं मणिपेदिया पणत्ता जोयणं आयामविक्खंभेणं अहजोयणं पाहल्लेणं सब्वमणिमती अच्छा, नीसे णं मणिपेढियाए उपि एस्थ णं एगे महं देवसयणिजे पण्णत्ते, तस्मण देवसयणिजस्स वण्णओ, उववायसभाए णं उपि अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता जाव उत्तिमागारा, तीसे गं उववायसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एस्थ णं एगे महं हरए पण्णते, से णं हरए अद्भुतेरसजोयणाई आयामेणं छकोसातिं जोयणाई विक्वंभेणं दस जोयणाई उब्वेहेणं अच्छे सण्हे वणओ जहेब गंदाणं पुक्वरिणीणं जाव तोरणवपणओ, तस्स णं हरतस्स उत्सरपुरस्थिमेणं एत्थ णं एगा महं अभिसेयसभा पणत्ता जहा सभासुधम्मा तं चेव निरवसेसं जाव गोमाणसीओ भूमिभाए उल्लोए तहेव ॥ तस्स बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेडिया पणत्ता जोयणं आयामविक्खंभेणं 82%25 ESCESSAREESLA जीच०४० सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकार: ~472~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४० ] दीप अनुक्रम [१७८] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १४० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २३५ ॥ अजोयणं वाहणं सव्वमणिमया अच्छा ॥ तीसे णं मणिपेडियाए उपि एत्थ णं महं एगे सीहासणे पण्णत्ते, सीहासणवण्णओ अपरिवारो || तत्थ णं विजयस्स देवस्स सुबहु अभिसेके भंडे संणिक्खिसे चिट्ठति, अभिसेयसभाए उपि अट्टमंगलए जाव उत्तिमागारा सोलसविधेहिं रयणेहिं तीसे णं अभिसेयसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं एगा महं अलंकारियसभावत्वा भाणियन्वा जाव गोमाणसीओ मणिपेडियाओ जहा अभिसेयसभाए उपिं सीहासणं स(अ)परिवारं । तस्थ णं विजयस्म देवस्स सुबहु अलंकारिए भंडे संनिक्खिसे चिट्ठति, उत्तिमागारा अलंकारियo उपि मंगलगा झया जाब (छसाइछसा) । तीसे णं आलंकारियसहाए उत्तरपुरस्थि मेणं एत्थ णं एगा महं यवसातसभा पण्णत्ता, अभिसेयसभावत्तच्वया जाव सीहासणं अपरिवारं ॥ त(ए) स्थणं विजयस्स देवस्स एगे महं पोत्थघरपणे संनिक्खित्ते चिट्ठति, तस्थ णं पोत्थयरयणस्स अमेयाख्ये वण्णावासे पन्नत्ते, तंजहा -- रिट्ठामतीओ कंबियाओ [रयतामतातिं पत्तकाई रिट्ठामयातिं अक्खराई] तवणिजमए दोरे णाणामणिमए गंठी (अंकमयाई पत्ताई) वेरुलियमए लिप्पासणे तवणिजमती संकलr रिहमए छादने रिकामया मसी बहरामयी लेहणी रिट्ठामयाई अक्खराई after सत्थे वसायसभाए णं उपि अट्टमंगलगा झया छत्तातिछता उत्तिमागारेति । तीसे णं For P&Praise City ৩ । ৩% % % ~ 473~ ३ प्रतिपत्तौ तिर्यगधिकारे सि. द्धायतन वर्णनं उद्देशः २ सू० १४० अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत- जिनप्रतिमा अधिकार: ।। २३५ ॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- ---------- मूलं [१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 24- ORM सूत्रांक [१४० दीप अनुक्रम [१७८] चवसा(उववा)यसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एगे महं बलिपेढे पण्णत्ते दो जोयणाई आयामविखंभेणं जोयणं बाहलेणं सब्चरयतामए अच्छे जाव पडिरूवे ॥ एस्थ णं तस्स णं बलिपेढस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एगा महं णंदापुक्रवरिणी पपणत्ता जं चेव माणं हरयस्स तं चेव सव्वं ॥ (सू०१४०) । 'तस्स णमित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य उत्तरपूर्वस्यामत्र महत्येका उपपातसभा प्रज्ञप्ता, तस्याश्च सुधासभाया इव प्रमाणं त्रीणि ति द्वाराणि तेषां च द्वाराणां पुरतो मुखमण्डपा इत्यादि सर्व तावद्वक्तव्यं यावद् गोमानसीवर्णनं, तदनन्तरमुहोकवर्णनं ततो भूमिभा गवर्णनं तावद् यावन्मणीनां स्पर्शः, तथा चाह-'सुहम्मसभावत्तव्यया भाणियन्या जाव भूमीए फासों इति ।। 'तस्स णमित्यादि। तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽव महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, चोजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजन वाहल्येन सर्वात्मना मणिमयी अच्छा इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् , तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि अन्न महदेकं देवशयनीयं प्रज्ञ, तस्य स्वरूपवर्णनं यथा सुधर्मायां सभायां देवशयनीयस्य तस्य तथा द्रष्टव्यं, तस्या अपि उपपातसभाया उपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानी त्यादि प्राग्वत् ।। 'तीसे णमित्यादि, तस्या उपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महानेको हृदः प्रज्ञप्तः, अर्द्धत्रयोदश योजनाहान्यायामेन पड् योजनानि सक्रोशानि विष्कम्भेन दश योजनान्युद्वेधेन 'अच्छे सण्हे रययाकूले' इत्यादि नन्दापुष्करिणीवत्सर्व-| निरवशेपं वाच्यं, तथा चाह-आयामुन्वेहेणं विक्खंभेणं वन्नओ जो चेव नंदापुक्खरिणीण मिति ।। 'तीसे ण'मित्यादि, स हद १ अन्न प्रथनं जीर्णपुसतके नंदापुष्करिणी विवेचनं वर्तते पश्चात् बलिपीठस्य परं च टीकाया प्रथमं बलिपीठस्य पश्चात् नंदायाः, एतदनुसारेण मयाऽप्यत्रैयं लिक्षित २ असा वक्ष्यमाजव्याख्याया मूलपाठो न रदयते पुस्तकेषु. ADRASEA5% सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकार: ~ 474~ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------------------- मूलं [१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४० वर्णन दीप अनुक्रम [१७८] श्रीजीचा- एकया पायरवेदिकया एकेन च बनखण्डेन सर्वतः समन्तात्संपरिक्षितः, पद्मवरवेदिकाया वर्णनं बनपण्डवर्णनं च तावद् यावत्प्र तिपत्ती जीवाभि तत्थ णं वहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ व आसयंति जाव विह्नती'ति, तस्य इदस्य 'त्रिदिशि' तिसपु दिक्ष त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि | | तिर्यगधिमलयगि- प्रज्ञप्तानि, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां तोरणानां चे (वर्णनं पूर्ववत् ) 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य हदस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र कारे सिरीयावृत्तिः । महत्येकाऽभिषेकसभा प्राप्ता, साऽपि प्रमाणस्वरूपद्वारमुखमण्डपप्रेक्षागृह मण्डपचैत्यस्तूपवर्ण नादिप्रकारेण सुधीसभावाचावदक्तम्या या-14 डायतनबद् गोमानसीवक्तव्यता, तदनन्तरं तथैवोलोकवर्णनं भूमिभागवर्णनं च तावद् यावन्मणीनां स्पर्शः ॥ 'तस्स णमित्यादि, तस्य बहु॥२३६॥ समरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अन्न महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामईयोजनं बाहल्येन | सर्वात्मना मणिमयी 'अच्छा सहा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ।। 'तीसे णमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं | उद्देशः२ सू०१४० सिंहासनं प्रज्ञप्तं, सिंहासनवर्णकः प्राग्वन् , नवरमत्र परिवारभूतानि भद्रासनानि न वक्तव्यानि ॥'तत्व ण'मित्यादि, तस्मिन् सिंहा-16/ सने विजयस्य देवस्य योग्यं सुबहु 'अभिषेकभाण्डम्' अभिषेकोपस्करः संनिक्षिप्तः तिष्ठति, तस्याश्चाभिषेकसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि | अत्र महत्येकाऽलङ्कारसभा प्रज्ञप्ता, सा च प्रमाणस्वरुपद्वारत्रयमुखमण्डपप्रेक्षागृहगण्डपादिवर्णनप्रकारेणाभिषेकसभावत्तावद्वक्तव्या | यावंदपरिवारं सिंहासनम् ॥ 'तत्थ ण मिलादि, 'तत्र' सिंहासने विजयदेवस्य योग्यं सुबहु 'आलङ्कारिकम् अलङ्कारयोग्य भाण्ड संनिक्षिप्तं तिष्ठति ।। 'तीसे णमित्यादि, तस्या अलङ्कारसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका व्यवसायसभा प्रज्ञप्ता, सा चाभिषेकसभावत्प्रमाणस्वरूपद्वारश्रयमुखमण्डपादिवर्णकप्रकारेण तावक्तव्या यावदपरिवारं सिंहासनम् || 'एत्य णमित्यादि, 'अत्र' सिंहा- ॥२३॥ अत्र संबंधबुदितो रयते. SAR VIEEEEERUT अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकारः ~ 475~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४० दीप अनुक्रम [१७८] सने महदेकं पुस्तकरत्नं संनिक्षिप्रं तिष्ठति, तस्य च पुस्तकरजस्यायमेतद्रपः 'वर्णावासः' वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः–'रिष्ठमय्यौ' रिपरत्नासिके कम्पिके पुष्टके इति भावः, रजतमयो(तपनीयमयो)दवरको यत्र पत्राणि प्रोतानि सन्ति, नानामणिमयो प्रन्थिर्दवरकस्याची येन पत्राणि न निर्गच्छन्ति अङ्कमयानि' अङ्करन्नमयानि पत्राणि नानामणि (वैडूर्य)मयं लिप्पासनं-मपीभाजनमित्यर्थः, तपनीयमयी गृहला मषीभाजनसत्का रिष्ठरत्नमयमुपरितनं तस्य छादनं 'रिष्ठमयी' रिपुरनमयी मषी वनमयी लेखिनी रिठमयान्यक्षराणि धाम्भिक लेख्यं, तस्याश्च उपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि महदेकं बलिपीठं प्रज्ञान द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं बाहल्येन 'अच्छे सण्हे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ।। 'तस्स णमित्यादि, तस्य बलिपीठस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका नन्दापुष्करिणी प्रज्ञप्ता, सा च हृद-14 प्रमाणा, इदस्वेव च तस्वा अपि त्रिसोपानवर्णनं तोरणवर्णनं च प्राग्वत् ॥ तदेवं वत्र याहग्भूता च राजधानी विजयस्य देवस्य तद्देतद् उपवर्णितं, सम्पति विजयो देवस्तत्रोत्पन्नस्तदा यदकरोद् यथा च तस्याभिषेकोऽभवत्तदुपदर्शयति तेणं कालेणं तेणं समएणं विजए देवे विजयाए रायहाणीए उचवातसभाए देवसयणिजंसि देवदसंतरिते अंगुलस्स असंखेजतिभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उपवणे ॥ तए णं से विजये देवे अहुणोववपणमेत्तए चेव समाणे पंचविहाए पजत्तीए पजत्तीभावं गच्छति, तंजहा -आहारपजत्तीए सरीरपजसीए इंदियपज्जत्तीए आणापाणुपत्तीए भासामणपजत्तीए ॥तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहाए पजत्तीए पजत्तीभावं गयस्स इमे एयारूवे अज्झस्थिए चिंतिए पत्थिते मणोगए संकप्पे समुप्पजिस्था-किं मे पुव्वं सेयं किं मे पच्छा सेयं किं मे पुब्धि कर सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकारः, विजयदेव-अधिकारः ~ 476~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [१४१] SSC CASH ३ प्रतिपत्ती तिर्यगधिकारे विज. यदेवाभि पेकः उद्देशः२ सू०१४१ ॥२३७॥ णिजं कि मे पच्छा करणिज्जं किं मे पुबि वा पच्छा वा हिताए सुहाए खेमाए णीस्सेसयाते अणुगामियत्ताए भविस्सतीतिकटु एवं संपेहेति । तते णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववष्णगा देवा विजयस्स देवस्स इमं एतारूवं अज्झत्थितं चिंतियं पत्थियं मणोगयं संकल्प समुप्पपर्ण जाणित्ता जेणामेव से विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति तेणामेव उवागच्छित्सा विजयं देवं करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कद्द जएणं विजएणं बद्धाति जएणं विजएणं वद्धावेसा एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं विजयाए रायहाणीए सिद्धायतगंसि अट्ठसतं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं संनिक्खितं चिट्ठति सभाए य सुधम्माए माणवए चेतियखंभे वइरामएसु गोलबद्दसमुग्गतेसु बहओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ चिट्ठति जाओ णं देवाणुप्पियाणं अन्नेसिं च बहणं विजयरायहाणिवस्थव्वाणं देवाणं देवीण य अचणिजाओ वंदणिजाओ पूयणिज्जाओ सकारणिजाओ सम्माणणिजाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज़वासणिज्जाओ एतपणं देवाणुप्पियाणं पुब्बिपि सेयं एतपणं देवाणुपियाणं पच्छावि सेयं एतपणं देवा पुब्धि करणिज्जं पच्छा करणिज्जं एतपणं देवा पुब्वि वा पच्छा वा जाव आणुगामियत्ताते भविस्सतीतिक महता महता जय(जय)सई पउंजंति ॥तए णं से विजए देवे तेसिं सामाणियपरिसोववपणगाणं देवाणं अंतिए एयम8 सोचा णिसम्म हह तुह जाव हियते देवसयणिज्जा दीप अनुक्रम [१७९] ॥२३७॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~ 477~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- ----------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 2C%ARE सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] ओ अम्भुट्ठहरता दिब्बं देवदूसजुयलं परिहेइ २त्ता देवसयणिज्जाओ पञ्चोरुहइ २ हित्ता उपपातसभाओ पुरस्थिमेणं वारेण णिग्गच्छद २त्ता जेणेव हरते तेणेव उवागच्छति उवागरिछसा हरयं अणुपदाहिण करेमाणे करेमाणे पुरस्थिमेणं तोरणेणं अणुप्पविसति २त्सा पुरस्थिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहति २ हरयं ओगाहति २त्ता जलावगाहणं करेति २त्ता जलमजणं करेति २त्ता जलकिहुं करेति रत्ता आयंते चोक्खे परमसूतिभूते हरतातो पयुत्तरति २त्ता जेणामेव अभिसेयसभा तेणामेव उवागच्छति २त्ता अभिसेयसभं पदाहिणं करेमाणे पुरथिमिल्लेणं बारेणं अणुपविसति २त्ता जेणेव सए सीहासणे तेणेव उवागच्छति २त्ता सीहासणवरगते पुरच्छाभिमुहे सपिणसपणे। तते णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववपणगा देवा आभिओगिते देवे सहावेंतिरसा एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! विजयस्स देवस्स महत्थं महग्धं महरिह विपुलं इंदाभिसेयं उवट्ठयेह ॥ तते णं ते आभिओगिता देवा सामाणियपरिसोववपणेहिं एवं बुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ जाय हितया करतलपरिग्गहियं सिरसावसं मत्थए अंजलिं कह एवं देवा तहसि आणाए विणएणं वयणं पडिसुणतिरसा उत्तरपुरस्थिम दिसीभार्ग अवकर्मति २ सा बेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति २ सा संखेजाई जोयणाई दंडं णिसरति तं०-यणाणं जाध रिहाण, अहावायरे पोग्गले परिसाडंति २त्ता अहामुहमे पोग्गले परियायंति २ सा दोचंपि घेउ A +SONG 4 % विजयदेव-अधिकार: ~ 478~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ ----------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥२३८॥ ३ प्रतिपत्ती तिर्यगधिकारे विजयदेवाभिपेका उद्देश:२ | सू०१४१ दीप अनुक्रम [१७९] ब्वियसमुग्धाएणं समोहणति २त्ता अट्ठसहस्सं सोवपिणयाणं कलसाणं अट्ठसहस्सं झप्पामयाणं कलसाणं अट्ठसहस्सं मणिमयाणं अट्टसहस्सं सुवण्णरुप्पामयाणं अट्ठसहस्सं सुवण्णमणिमयाणं अट्ठसहस्सं रुप्पामणिमयाणं अट्ठसहस्सं सुवषणरुप्पामताणं अट्टसहस्सं भोमेजाणं अट्ठसहस्सं भिंगारगाणं एवं आयंसगाणं थालाणं पातीणं सुपतिट्टकाणं चित्तार्ण रयणकरंडगाणं पुष्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुष्फपडलगाणं जाव लोमहत्थगपडलगाणं असतं सीहासणाणं छत्ताणं चामराणं अवपडगार्ण बहकाणं तबसिप्पाणं खोरकाणं पीणकाणं तेल्लसमुम्गकाणं अट्ठसतं धूवकढच्छयाणं विउव्वंति ते साभाविए विउव्विए य कलसे य जाव धूवकडच्छुए य गेण्हंति गेण्हित्ता विजयातो रायहाणीतो पडिनिक्खमंति २ सा ताए उकिटाए जाव उडुताए दिवाए देवगतीए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुदाणं मज्झं मज्झेणं वीयीवयमाणा २ जेणेव खीरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता खीरोदगं गिण्हित्सा जातिं तत्थ उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताति तातिं गिण्हति २त्ता जेणेव पुक्खरोदे समुदे तेणेव उवागच्छंति २त्ता पुक्खरोदगं गेहंति पुक्खरोदगं गिणिहत्ता जाति तत्थ उप्पलाई जाच सतसहस्सपत्ताई ताई गिण्हंति २त्ता जेणेव समयखेत्ते जेणेव भरहेरवयातिं वासाई जेणेव मागधवरदामपभासाई तित्थाई तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागकिछत्ता तित्थोदगं गिण्हंति २त्ता तित्वमहियं गेण्हंति २त्ता जेणेच गंगासिं GAMACHAR ॥२३८॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~479~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] Ja Ekemon प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१४१] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः विजयदेव अधिकार: धुरतारतवतीसलिला तेणेव उवागच्छंत २ ता सरितोद्गं गेहति २ त्ता उभओ तडमहियं गेपति गेण्हित्ता जेणेव चुल्लहिमवंतसिहरियासधरपव्वता तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छिता सव्वतूवरे य सत्यपुष्फे व सवगंधे य सत्यमले य सव्वोसहिसित्थए गिव्हंति सव्योसहिसिद्धत्थए गिण्हित्ता जेणेव पउमदहपुंडरीयदहा तेणेव उवागच्छति तेणेव २ दहोदगं गेहंति जातिं तत्थ उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताई ताई गेव्हंति ताई गिन्हित्ता जेणेव हेमवयroraeाई वासाई जेणेव रोहियरोहितंससुवण्णकूल रुपकूलाओ तेणेव उवागच्छति २ ता सलिलोदगं गेहति २ त्ता उभओ तडमट्टियं गिण्हंति गेण्हित्ता जेणेव सद्दावातिमालवंतपरियागा पता तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता सम्यतुबरे य जाव सव्वोसहिसिद्ध पति, सिद्धत्थए य गेण्हित्ता जेणेव महाहिमवंत रुप्पिवासधरपव्वता तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता सम्बपुष्फे तं चैव जेणेव महापउमद्दहमहापुंडरीयदहा तेणेव जवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता जाई तत्थ उप्पलाई तं चैव जेणेव हरिवासे रम्मावासेति जेणेव हरकान्तहरिकंतणरकंतनारिकताओ सलिलाओ तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छता स लिलोदगं गेहंति सलिलोदगं गेण्हित्ता जेणेव विगडावइवावतिवहवेयहपच्वया तेणेव उवागच्छंति सव्यपुष्य तं चैव जेणेव णिसहनीलवंतवासहरपण्यता तेणेव उवागच्छति तेणेव उवा For P&False Cnly ~ 480~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ १४१ ] दीप अनुक्रम [१७९] श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २३९ ॥ “जीवाजीवाभिगम" प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित - उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१४१] आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः गच्छता सव्वतूवरे य तहेव जेणेव तिगिच्छिद्रह केसरिदहा तेणेव उपागच्छति २ सा जाई तत्थ उप्पलाई तं चैव जेणेव पुष्वविदेहावरविदेहवासाई जेणेव सीयासीओपाओ महाणईओ जहा गईओ जेणेव सव्वचक्कवद्विविजया जेणेव सव्वमागहवरदामपभासाई तित्थाई तहेव जहेव जेणेव सव्यवखापव्वता सव्वतुवरे य जेणेव सव्यंतरणदीओ सलिलोदगं गण्हति २ तं चैव जेणेव मंदरे पव्वते जेणेव भहसालवणे तेणेव उवागच्छंति सच्चतुवरे य जाव सवोसहिसिद्धत्थए गिण्हति २ सा जेणेव णंदणवणे तेणेव उवागच्छइ २ सा सव्वतुवरे जाव सव्वीस हिसिद्धस्थे य सरसं च गोसीसचंद्रणं गिण्हति २ त्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतुरे य जाय सच्चो सहि सिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणद्रामं गेव्हंति गेण्हित्ता जेणेव पंडगवणे तेणामेव समुवागच्छंति तेणेव समुवा० २त्ता सव्वतूवरे जाव सव्वीसहि featre सरसं च गोसीसचंद्रणं दिव्यं च सुमणोदामं ददरयमलयसुगंधिए य गंधे गेव्हंति २ ता तो मिलति २त्ता जंबूद्दीवस्स पुरथिमिल्लेणं दारेणं णिग्गच्छति पुरथिमिल्लेणं निग्गच्छिता ताए उकिडाए जाव दिव्वाए देवगतीए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुद्दाणं मज्झमझेणं arataयमाणा २ जेणेव विजया रायहाणी नेणेव उवागच्छति २ ता विजयं रायहाणि अणुपयाहिणं करेमाणा २ जेणेव अभिसेयसभा जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छंत २ ता करतलपरि For P&Pase Cinly ३ प्रतिपत्ती तिर्यगधि कारे विजयदेवाभिषेकः उद्देशः २ सू० १४१ ~ 481~ ॥ २३९ ॥ wy अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव अधिकार: Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] ग्गहितं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धाति विजयस्स देवस्स तं महत्थं महरघं महरिहं विपुलं अभिसेयं उवट्ठवेंति ॥ तते णं नं विजयदेवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ तिणि परिसाओ सत्त अणिया सत्त अणियाहिवई सोलस आयरकग्वदेवसाहस्सीओ अन्ने य यहवे विजयरायधाणिवत्थब्वगा वाणमंतरा देवाय देवीओ य तेहिं साभावितेहि उत्तरचे उब्बितेहिं य वरकमलपनिट्ठाणेहिं सुरभिवरवारिपडिपुणेहिं चंदणकयचचातेहिं आविद्धकंठेगुणेहिं पउमुप्पलपिधाणेहिं करतलसुकुमालकोमलपरिग्गहिएहिं अट्टसहस्साणं सोवपिणयाणं कलसाणं रूप्पमयाणं ताव अट्टसहस्साणं भोमेयाणं कलसाणं सब्बोदएहिं सब्यमहियाहिं सब्बतुवरहिं सव्वपुप्फेहिं जाव सम्वोसहि सिद्धथएहिं सम्विहीए सव्वजुत्तीए सब्यषलेणं सबसमुदाणं सब्वायरण सव्वविभूतिए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सब्योरोहेणं सब्बणाडएहिं सव्वषुप्फगंधमलालंकारविभूसाए सवदिव्वतुडियणिणाएणं महया इहीए महया जुत्तीए महया वलेणं महता समुदएणं महता तुरियजमगसमगपडप्पवादितरवेणं संखपणवपइह मेरिझल्लरिवरभुहिमुरवमुयंगदुंदुहिहुष्टुक्कणिग्घोससंनिनादितरवेणं महता महता इंदाभिसेगेणं अभिसिंचंनि । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स महता महता इंदाभिसेगंसि वट्टमार्णसि अप्पेगतिया देवा चोदगं णातिमष्ट्रिय पविरलफुसियं दिव्वं सुरभिं रयरेणुविणासणं गंधोद्गवासं % ACASSESCOREA % विजयदेव-अधिकार: ~ 482~ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥२४॥ प्रतिपत्ती है| तिर्यगधि कारे विजयदेवाभिपेकः उद्देशः२ %A5% सू०१४१ दीप अनुक्रम [१७९] वासंति, अप्पेगतिया देवा णिहतरयं णहरयं भट्टरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणि सभितरबाहिरियं आसितसम्मजितोवलितं सित्तसुइसम्मट्टरत्यंतरावणवीहियं करति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणि मंचातिमंचकलित करेति, अप्पेगतिया देवा विजय रायहाणिं णाणाविहरागरंजियऊसियजयविजयवेजयन्तीपडागातिपडागमंडितं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणिं लाउल्लोइयमहियं करैति, अप्पेगतिया देवा विजयं गोसीससरसरत्तचंदणदहरदिपणपंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजय उवचियचंदणकलसं चंदणघडमुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं आसत्तोसत्तविपुलबद्वग्धारितमल्लदामकलावं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं पंचवण्णसरससुरभिमुकपुष्फपुंजोययारकलितं करेति, अप्पेगइया देवा विजयं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूबडझंतमघमघेतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवहिभूयं करंति, अप्पेगइया देवा हिरणवासं वासंति, अप्पेगइया देवा सुवणवासं वासंति, अप्पेगइया देवा एवं रयणवासं वइरवासं पुष्फवासं मल्लवासं गंधवासं चुपणवासं वत्धवासं आहरणवासं, अप्पेगड्या देवा हिरण्णविधि भाइंति, एवं सुवण्णविधि रयणविधि वतिरविधि पुप्फविधि मल्लविधि चुण्णविधि गंधविधि बत्थविधि भाइंति आभरणविधि ॥ अप्पेगतिया देवा दुयं णविधि उबदसेंति अप्पेगतिया ॥२४ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~483~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ----------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------------------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] - विलंबितं णट्टविहिं उबदसेंति अप्पेगइया देवा इनविलंथितं णाम णविधि उवद मेंनि अप्पेगतिया देवा अंचियं णविधि उवदंति अप्पेगतिया देवा रिभितं णविधि उवदंसेंति अ० अंचितरिभितं णाम दिव्यं णविधि उवदंसेंति अप्पेगनिया देवा आरभडं णविधि उबदसति अप्पेगतिया देवा असोलं णविधि उपदमंनि अप्पेगनिया देवा आरभरभसोलं णाम दिवं णविधि उवदंति अप्पेगतिया देवा उप्पायणिवायपत्तं संकुचियपसारियं रियारियं भंतसंभंतं णाम दिब्ध णविधि उबईसेंति अप्पेगनिया देवा चम्विधं वातियं वादंति, तंजहाततं विततं पणं मुसिर, अप्पेगतिया देवा च दिन गेयं गातंति, जहा-उनि तयं पयसयं संदा रोइदावसाण, अप्पेगतिया देवा च उवि अभिणयं अभिणयंति, जहा-दिट्ठतिपं पारतिय सामन्तोवणिचालियं लोगमज्यावसापियं. अप्पेगनिया देवा पीणनि अपेगतिया देवा युकारेंति अप्पेगनिया देश तंडति अप्पेलानि अप्पेगनिया देवा पीगंति बुमारैतिनं वेति लासंति अपेगतिया देवा धुकारंति अप्पेगनिया देना अकोडंति अपेगतिया देवा वगंनि अप्पेगतिया देश तिवति दिति अप्पैगनिया देवा अफोरेंनि धग्गंति तिवति छिदंति अप्पेगतिया देवा हतहेसियं करेंति अप्पेगतिया देवा हविगु गुलाइयं करेंनि अप्पेगतिया देवा रहघणघणातियं करति अप्पेगतिया देवा हयहेमिय करनि इत्थिगुलगुलाइयं करति रघणघणाइयं करेंति दीप अनुक्रम [१७९]] - --- - - जी०स०४२ *- विजयदेव-अधिकार: ~484~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ ---------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्त विजयद विवाभिपेकः उद्देशः तू. १४१ RKKRANCH सूत्रांक [१४१] ॥२४१॥ दीप अनुक्रम [१७९] mammmnama अप्पगतिया देवा उकछोलेनि अप्पेगतिया देवा पच्छोलेंति [अप्पेगतिया देवा उकिदि करेंति] अप्पेगनिया देवा उकिट्टीओ करति अप्पेगतिया देवा उच्छोलेंति पच्छोलिंति उकिहिओ करेंनि अप्पेगतिया देवा सीहणादं करति अप्पेगतिया देवा पादददरयं करेंति अप्पेगनिया देवा भूमिचवंडं दलयंनि अप्पेगतिया देवा सीह नादं पादहरयं भूमिचवेडं दलयंति, अप्पेगतिया देवा हकारति अप्पंगतिया देवा युकारंनि अप्पेगनिया देवा थकारैति अप्पे० पुकारति अप्पेगतिया देवा नामाई सावति अप्पेगनिया देवा इकारनि चुकारेंति थक्कारेति पुकारनि णामाई सार्वति अप्पेगतिया देवा उपतंति अवेगनिया देवा णिवयंति अप्पेगनिया देवा परिवयंति अप्पेगतिया दवा पुष्पयंनि णिवयंति परिवयंति अप्पेगतिया देवा जलेति अप्पेगतिया देवा तवंति अप्पेगतिया देवा पनयंति अप्पेगतिया देवा जलंति तबंनि पनवंति अप्पेगहया देवा गजेंति अप्पेगडया देवा विजुयायंति अप्पेगइया देवा वासंति अप्पेगड्या देवा गर्जति विजुयायंति वासंति अप्पेगतिया देवा देव सन्निवायं करेंनि अप्पेगतिया देवा देवुकलियं करति अप्पेगड्या देवा देवकार कई करेंतिअप्पेगतिया देवा दुहह करेंति अप्पगलिया देवा देवमन्निवायं देवउकलियं देवकहकह देवदुहह करति अप्पेगलिया देवा देवुजोयं करति अप्रेगनिया देवा विजयारं करति अप्पंगनिया देवा चेल्लुकम्वेवं करेंनि अप्पेगतिया देवा देवुजोयं विजुनारं चेलुक्वेवं करति अपेगनिया देवा उपप marrieramananew- -04-0 - ॥२४१॥ imawaya --- - अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~485~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: *450+ -- प्रत -- सूत्रांक [१४१] --- % 0 दीप अनुक्रम [१७९] -%2 लहत्थगता जाव सहस्सपत्ता घंटाहत्वगता कलसहत्थगता जाव धूवकटुच्छहस्थगता हह तुट्टा जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया विजयाए रायहाणीए सव्वतो समंता आधानि परिधावति ।। तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ जाव सोलसआयरकग्वदेवसाहस्सीओ अपणे य बहवे विजयरायहाणीवत्थव्वा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहिं वरकमलपनिहाणेहिं जाव असतेणं सोवपिणयाणं कलसाणं तं चेव जाय अट्टसएणं भोमेजाणं कलसाणं सम्बोद्गेहिं सव्वमडियाहिं सब्वतुवरेहिं सव्वपुप्फेहिं जाव सब्बोसहिसिद्धथएहिं सब्बिडीग जाब निग्घोसनाइयरवेणं महया १६दाभिसेएणं अभिसिंचंनि २ पत्तेयं र सिरसावतं अंजलिं कह एवं वयासि-जय जय नंदा! जय जय महा! जय जय नंद भई ते अजियं जिणेहि जयं पालपाहि अजितं जिणेहि सत्तुपक्खं जितं पालेहि मित्तपक्वं जियमज्झ यसाहितं देव! निरुबसगं इंदो इव देवाणं चंद्रो इव ताराणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं भरहो इव मणुयाणं वहणि पलिओवमाई वहणि सागरोवमाणि चउपहं सामाणियसाहस्मीणं जाव आयरक्वदेवसाहस्सीणं विजयस्स देवस्स विजपाए रायहाणीए अण्णेसि च बहणं विजयरायहाणिवत्धव्याणं वाणमंतराणं देवाणं देवीण य आहेबचं जाव आणाईसरसेणायचं कारेमाणे पालेमाणे विहराहित्तिकद्द महता २ सद्देणं जयजयस पउंजंति ॥ (म०१४१)॥ RAKASXX विजयदेव-अधिकार: ~486~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] श्रीजी तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि, तस्मिन काले लम्बिन समय विजयो देव उपपातसभायां देवशयनीय देवयान्तरित प्रतिपत्ती जीवाभि- प्रथमतोऽजुल्लासपेयभागमात्रयाइयगाहनया समुत्पन्नः ।। 'सरण गित्यादि, सुगमं नवरमिह भाषामनःपर्याप्योः समानिकालान्तरन्यविजयदेमलयगि- प्रायः शेषपर्याग्निकालान्तरापेक्षया सोकत्वादेफलेच विपक्षणमिति पंचविहाए पत्नत्तीय पत्तिभावं गन्छ' इत्युक्तम् । 'तएवाभिषेकः रीयावृत्तिःणमित्यादि, ससस्य विजयस्य देवका प्रध्यविधया पर्याया पर्याप्तभावं गतस्य सनोऽयम-एताप: संकल्पः समुदपयत. कथम्भूत: | उद्देशः इत्याह-'मनोगतः' मनसि गतो-व्यवस्थितो नाद्यापि वत्रमा प्रकाशित स्वरूप इति भावः, पुनः कथम्भूतः १ इत्याह-'आध्या-- सू०१४१ ॥२४२ त्मिकः' आमन्यधि अध्यायं तन्त्र भव आध्यामिक आलविषय इति भावः, सहस्पश्च द्विधा भवति-कश्चिदध्यात्मिकोऽपरश्च चिन्ता-1 मकः, तवायं चिन्तात्मक इति प्रतिपादनार्थमाह--'चिन्तितः' चिन्ता संजाताऽग्मिनिति चिन्तिनश्चिन्तात्मक इति भावः, सोऽपि कश्चिदभिलाषालको भवति कश्चिदन्यथा, तत्रायमशिलापात्मकतया चाह-प्रार्थने प्रार्थो णिजन्तानच् प्रार्थः संजातोऽस्मिन्निति प्रार्थितो| ऽभिलापात्मक इति भावः, फिस्वरूपः ? इत्याह-कि म' इत्यादि, कि 'मे' मम पूर्व करणीयं कि मे पश्चारकरणीयं, तथा कि मे पूर्व कर्तुं श्रेयः किं में पञ्चाकर्तुं श्रेयः, तथा कि में पूर्वमपि च पञ्चादपि च हिताय भावप्रधानोऽयं निर्देशो हितत्वाय-परिणामसुन्दर तायै सुखाय-शम्र्मणे क्षेमायेति अयमपि भावप्रधानो निदेश: संगतत्वाय, निःश्रेयसाय-निश्चित कल्याणाय अनुगामिकतायै-परम्पसरया शुभानुबन्धसुखाय भविष्यतीति ।। 'तए णमित्यादि, 'ततः' एलचिन्तासमनन्तरमेव दिव्यानुभावतो विजयस्य देवस्य 'सामाणियपरिसोबवन्नगा देवा' इति सामानिकाः पपंदुपपन्न काश्च-अभ्यन्तरादिपर्पदुपगताः 'इमम् अनन्तरोक्तम् 'एतद्रूपम्' अनन्त Til२४२॥ रोक्तिस्वरूपमाध्यामिक चिन्तितं प्रार्थितं मनोगतं सङ्कल्प समभिज्ञाय 'जेणेवेति यत्रै विज यो देवस्त त्रैवोपागच्छन्ति, उपागम्य च अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~ 487~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 11 प्रत सूत्रांक [१४१] करयलपरिग्गहिय'मित्यादि द्वयोर्हस्तयोरन्योऽन्यान्तरितालिकयोः संपुटरूपतया यदेकर मीलनं सा अञ्जलिस्तां करतलाभ्यां परिगृहीता-निष्पादिता करतलपरिगृहीता ताम् , आवर्तनमावतः शिरस्यावतों यस्याः सा शिरस्यावा, कण्ठेकाल उरसिलोमे त्यादिवनलक्समासः, तामत एव मस्तके कृत्वा जयेन विजयेन वापयन्ति-जय वं देव! विजय खं देवइत्येवं वर्धापयन्तीत्यर्थः, तत्र जय:-परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्र, विजयस्तु-परेपामसहमानानामभिभवोत्पादः, जयेन विजयेन च वापयिता एवमवादिपु:-'एवं खलु देवाणुपियाण'मित्यादि पाठसिद्धम् ।। 'तए णमित्यादि, 'ततः' एतद्वचनानन्तरं विजयो देवस्तेपां सामानिकप दुपपन्नकाना-सामानिकानां पर्पदुपपन्न कानां च देवानामन्ति के एनमर्थ 'श्रुत्वा' आकर्य 'निशम्य' नये परिणमय 'हतुहचित्तमाणदिए' इति दृष्टतुष्टोऽनीच तुष्ट इति भावः, अथवा हलो नाम विस्मयमापन्नो यथा शोभनमहो! एतैरुपदिष्पमिति, 'तुष्टः' सोपं कृतवान् यथा भव्ययभूद् यदेतैरिरथमुपदिष्टमिति, तोषवंशादेव चित्तमानन्दित-स्फीतीभूतं 'टुणदु ममृद्धी' इति वचनात , यस्य इस चित्तानन्दितः, भायर्यादिदर्शनात्पानिको निष्ठान्तस्य परनिपात: मकार: प्राकृन खानलाषणिकस्तत: पदत्रयस्य पद्वय २ मीलनेन कर्मा धारयः, 'पीइमणे' इति प्रीतिर्मनसि यस्यासी प्रीतिमना जिनप्रतिगाऽचनविषयवहुमानपरायणमना इति भावः, ततः क्रमेण बहुमानोहत्कर्षवशान 'परमसोमणस्मिए' इति शोभनं मनो वस्यामौ सुमनामनन्य भावः मौमनग्यं परमं च नन् सौमनम्यं च परमसौमनस्य सातत्मजातमस्मिन्निति परमसीमनभ्यितः, एतदेव व्यक्तीकुर्वन्नाइ-हरिसबमविषयमाणहियए' हवशेन विस-पंद्-विस्तारयायि। हृदयं यस्य स हर्षवशत्रिसप्पंदव: देवशयनीबादभ्युनिष्ठति, अभ्युग्धाय च देवदूप्यं परिधने, परिधाय च उपपातमभानः पूर्वद्वारेण निर्गपठति, निर्गय च यत्रीय प्रदेशे जदतत्रोपागन्छनि, उपागला जदननु दक्षिणी कुला पूग तोर गेन नदमनुप्रविशति, पविश्य च दीप अनुक्रम [१७९] । WHEN विजयदेव-अधिकार: ~ 488~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ ----------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] श्रीजीवा- प्रत्यवरोहति, मध्ये प्रविशतीति भावः, प्रत्यबरुह्य च इदमवगाहते, अवगाहा जलमजनं करोति, कृत्वा च क्षणमात्रं जलक्रीडा प्रतिपत जीवाभि करोति, तत: 'आयते' इति नवानामपि श्रोतसां शुद्धोदकप्रक्षालनेनाऽऽचान्तो-गृहीताचमनश्वोन:-वल्पस्यापि शङ्कितमलस्यापनय- विजयदमलयगि- नात् , अत एव परमशुचिभूतो हदात् प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रैव प्रदेशेऽभिषेकसभा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्याभिषेकसभामनुप्रद-15 चाभिषेकः रीयावृत्तिः [क्षिणीकुर्वन पूर्वद्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव च मणिपीठिकाया उपरि सिंहासनं तत्रोपागच्छति, उपागल उद्देशः २ सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्णः ॥ 'तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य सामानिकाः पर्षदुपपन्नकाच देवाः 'आ सू०१४१ ॥२४३॥ |भियोगिकान्' अभियोजनमभियोगः, प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यमाणत्वमिति भावः, अभियोगे नियुका आभियोगिकास्तान देवान 'श ब्दायन्ते' आकारयन्ति, शब्दायित्वा च तानेत्रमदादिपु:-'क्षिप्रमेव' शीघ्रमेव भो देवानां प्रिया:! विजयस्य देवस्य 'महार्थ' महान | Bअों -मणिकनकरबादिक रपयुभपमानो यस्मिन् स महार्थस्तं महाथै, तथा महान् अर्थ:-पूजा यत्र स महासं, मह-उत्सवमर्हतीति महाईस्तं 'विपुलं' विस्तीर्ण शकाभिषेकवद् इन्द्राभिषेकमुपस्थापयत ॥ 'तए णं ते' इत्यादि, ततस्ते आभियोगिका देवाः सामानिकपर्पदुपपन्न कवरेवमुक्ताः द्वितुट्टचित्तमाणं दिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसबसविसापमाणहियया करवलपरिग्गहियं दसपाह सिरसावत मस्यए अंजलिं कह' इति पूर्ववन , विनयेन वचनं 'प्रतिशृण्वन्ति' अभ्युपगच्छन्ति, कथम्भूतेन विनयेन ? इत्याह-एवं देवा तहत्ति आणाए' इति हे देवाः ! एवं-यथैव यूयमादिशत तथैवाज्ञया-युष्मदादेशेन कुर्म इत्येवरूपण प्रतिश्रुत्य वचनमुत्तरपूर्व दिग्भागमीशानकोणमित्यर्थः तस्यात्यन्तप्रशस्तत्वात् 'अपामन्ति' गच्छन्ति अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घानेन-वैक्रियकरणाय प्रयत्नविशे- ॥२४३॥ पण 'समोहर्णति' समवहन्यन्ते समबहता भवन्तीत्यर्थः, समवहताश्चात्मप्रदेशान् दूरतो विक्षिपन्ति, तथा चाह-संखेजाणि जो Jaticumeani अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~ 489~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः विजयदेव अधिकार: | यणाणि दंड निसरंति' दण्ड इव दण्ड आयतः शरीरवाहस्यो जीवप्रदेशसमूहस्तं शरीरस्य बहिः सोयानि योजनानि यावत् 'निसृजन्ति' निष्काशयन्ति, निसृज्य च तथाविधान् पुद्गलानाददते, एतदेव दर्शयति तद्यथा- 'रत्नानां' कर्केतनादीनां १ वाणां २ र्याणां ३ लोहिताक्षाणां ४ मसारगडानां ५ हंसगर्भाणां ६ पुलकानो ७ सौगन्धिकानां ८ ज्योतीरसानाम् ९ अञ्जनानाम् १० अखनपुलकानां १९ रजतानां १२ जातरूपाणाम् १३ अङ्कानां १४ स्फटिकानां १५ रिष्ठानां १६ यथावादरान असारान् पुगलान, परिशातयन्ति यथासूक्ष्मान् सारान पुलान् पर्याददते, पर्यादाय च चिकीर्षितरूपनिर्माणार्थ द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यन्ते समवहत्य यथोक्तानां रत्नादीनां योग्यान् यथावादरान पुलान परिशातयन्ति यथासूक्ष्मानाददते आदाय च 'अष्टसहस्रम् ' अष्टाधिकं सहस्रं सौवर्णिकानां फलानां विकुर्वन्ति १ अष्टसहस्रं रूप्यमयानाम् २ अष्टसहस्रं मणिमयानाम् ३ अष्टसहस्रं सुवर्णरूप्यमयानाम् ४ अष्टसहस्रं सुवर्णमणिमयानाम् ५ अष्टसहस्रं रूप्यमणिमयानाम् ६ अष्टसहस्रं सुवर्णरूप्यमणिमयानाम् ७ अनुसहस्रं भौ | मेयानाम् ८ अष्टसहस्रं भृङ्गाराणाम् ९, एवमादर्शस्थालपात्रीसुप्रतिष्ठमनोगुलिका वातकरक चित्ररत्नकरण्डकपुष्पचङ्गेरीयावहोमहस्तचपुष्पपटलका व होमस्तकपटलकसिंहासनच्छत्रचामरसमुद्रकम्यजधूपकच्छुकानां प्रत्येकं प्रत्येक मष्टसहस्रं विकुर्वन्ति, विकुत्रिया 'ताए | उकिट्टाए' इत्यादि पूर्व व्याख्यातार्थ यत्रैव क्षीरोदसमुद्रस्तत्रागच्छन्ति, आगत्य च क्षीरोदकं गृहन्ति, यानि च तत्र उत्पलानि पद्मानि | कुमुदानि नलिनानि सुभगानि सौगन्धिकानि पुण्डरीकाणि महापुण्डरीकाणि शतपत्राणि सहस्रपत्राणि शतसहस्रपत्राणि च तानि गृहन्ति, गृहीत्वा पुष्करोवे समुद्रे समागत्य तनोदकमुत्पलादीनि च गृहन्ति, तदनन्तरं यत्रैव समयक्षेत्रं यत्रैव भरतैरावतानि क्षेत्राणि यन्त्रैव च तेषु भरतैरावतेषु वर्षेषु मागधवरदामप्रभासाख्यानि तीर्थानि तत्रैवोपागत्य तीर्थोदकं तीर्थमृत्तिकां च गृह्णन्ति ततो गङ्गा For P&Praise Cinly ~ 490 ~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] श्रीजी-15सिन्धुरक्तारक्तवतीपु महानदीपु नगुदकमुभयतटमृत्तिका च गृह्णन्ति, ततः शुहिमवच्छिखरिपु समागत्य सर्वतुवरान-पायान सर्वाणित प्रतिपत्ती जीवाभिजातिभेदेन पुष्पाणि सर्वान गन्धान्' गन्धवासादीन सर्वाणि माल्यानि-प्रथितादिभेदभिन्नानि सर्वोषधीः सिद्धार्थकांच गृहन्ति । मलयगि- हीला तदनन्तरं पाहदपुण्डरीकहदे पूपागत्य तदुदक मुत्पलादीनि च गृहन्ति, सत्तो हैमवतैरण्यवतेपु वपु रोहितारोहितांशासु वण- बाभिषेक रीयावृत्तिः कूलारूप्यकूलासु महानदीपु नयुदकमुभयतदमृत्तिकां तदनन्तरं शब्दापाविचिकटापातिवृत्तवैतादयेषु सर्वनुबरादीन ततो महाहिम हाउद्देशः२ विधिवपंधरपर्वतेपु सर्वतुबरादीन ततो महापद्ममहापौण्डरीकडूदेषु इदोदकमुत्पलादीनि च तदनन्तरं हरिवारम्यकवपु हरकान्ता- सू०१४१ ॥२४४।। हरिकान्तानरकान्तानारीकान्तामु महानदीषु सलिलोदकम् उभयतटमृत्तिकां च ततो गन्धापातिमाल्यवत्पर्यायवृत्तवैताइयेषु सर्वतुवरादीन है। ततो निषधनीलवर्षधरपर्वतेषु सर्वतुवरादीन तदनन्तरं तद्गतेपु तिगिच्छिके सरिमहादेषु हदोदक मुत्पलादीनि च ततः पूर्वविदेहापरविदेहेषु शीताशीतोदामहानदीषु नादकम उभयतटमृत्तिकां च तदनन्तरं सर्वेषु चक्रवत्तिविजेतव्येषु मागधबरदामप्रभासाख्यतीर्थेषु । तीर्थोदकानि तीर्थमृत्तिकाश्च ततः सर्वेषु वक्षस्कारपर्वतेषु सर्वतुवरादीन् तदनन्तरं सर्वास्वन्तरनदीपु नगुदकमुभयतटमृत्तिकाश्च ततो। मन्दरपर्वते भद्रशालवने सर्वतुवरादीन ततो नन्दनबने सर्वतुवरादीन सरसं च गोशीर्षचन्दनं ततः सौमनसबने सर्वतुवरादीन सरसं च गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च सुमनोदाम गृहन्ति, ततः पण्कवने सर्वतुवरपुष्पगन्धमाल्यसरसगोशीपचन्दनदिव्य सुमनोदामानि 'दद्दरमलए | सुगंधिए व गिण्हंति' इति दर्दर:-चीवरावनकुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितं तत्र पकं वा यन्मलयोद्भवतया प्रसिद्धत्वान्मलयं-श्रीखण्डं येपु तान 'सुगन्धान' परमगन्धोपेतान गन्धान गृहन्ति, गृहीत्वा एकत्र मिलन्ति, मिलित्वा तया उत्कृष्टया दिव्यया देवगल्या यत्रैव | |विजया राजधानी यन्नैव विजयो देवस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च करतलपरिगृहीतां शिरस्थावर्तिका मस्तकेऽजलि कृत्वा विजयं देवं जयेन R॥२४४॥ RRC अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~491~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] ------ विजयेन बर्दापयन्ति, वज्रपयित्वा महाथै महाधैं महाहै विपुलमिन्द्राभिषेकयोग्यं श्रीरोदकादि उपनयन्ति' समर्पयन्ति ।। 'तए ण'मित्यादि, ततो णमिति वाक्याल कारे तं विजयं देवं चत्वारि देवसामानिक सहस्राणि चतम्रोऽयमहिन्यः सपरिवारास्तिमः पर्पदो यथाक्रममष्टदशद्वादशदेवसहस्रपरिमाणाः सप्तानीकानि सप्तानीकाधिपतयः पोडश आत्मरक्षदेवनहलागि, अन्ये च यहवो विजयराजधानीचातव्या वानमन्तरा देवा देव्यश्च तै:-तगतदेवजनप्रसिद्धः स्वाभाविककुर्षिकैश्च नरकमलनिस्थानः सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णेश्चन्दनकृतचचाकै: 'आविद्धकण्ठेगुणैः' आरोपितकण्ठे रक्तसूचसन्तुभिः पद्मोत्यलपिचानः मुनु मार करत लपरिगृहीतैरनेकसह सक्यैः कलशैरिति | गम्यते, तानेब विभागतो दर्शयनि-अष्टसहस्रेण सौत्रर्णिकानां कन्टशानाम् , अश्वहण रुप्यमवानान , अष्टमहनेग मणिमयानाम् , अष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमयानाम् , अष्टसहस्रग सुवर्णमणिमयानाम् , अष्टमहोगमध्यमणिमयानाम् , अष्टसहस्रण सुवर्णरूप्यमणिमयानाम , अष्टमहरेण भौमेयानो, सर्वस हरयाऽएभिः सहश्चतुःपष्टयधिकैः, तथा सर्वोदकः' सर्वतीर्थनद्याशुदकैः सर्वतुवरैः सर्वपुष्पैः सर्वगम्यैः सर्वगापैः सर्वोपधिसिद्धार्थ फैश्च सर्वर्या' परिवारादिकया 'सर्वद्यत्या' यथाशक्ति विस्फारितेन शरीरतेजसा 'सर्वबलेन' मामस्येन वस्त्रहम्न्यादिसैन्येन 'सर्वसमुदयेन' स्वखाभियोग्यादिसमस्त परिवारण 'मादरेण ममग्नयावन्छक्तितोलनेन 'सर्वविभूत्या' सम्बान्वन्तरक्रियकरणगाविवाहारवाद्विसम्पदा, तथा 'सर्वविभूषया' प्रावल्डकिफारोदारशृङ्गारकरणेन 'सव्यसंभमेण ति: सवोत्कृष्टन संभ्रमेण, सर्वोत्कृप्रसंधभी नाम इह स्वनायकविषयबहुमानख्वापनार्थपरा खनायककार्यसम्पादनाय यावच्छक्ति त्वरितख-IN रिता प्रवृत्तिः, सर्वपुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालकारेण, अत्र गन्धा-बासा माल्यानि-पुष्पदामानः अलङ्कारा-आभरणानि ततः समाहारो द्वन्द्वः, ततः सर्वदिध्यत्रुटितानि तेषां शब्दाः सर्वदिव्यत्रुटितशब्दास्तैः मह सर्वशब्देन विशेषणसमासः, 'सम्बदिब्बतुडियसहनि दीप अनुक्रम [१७९] --2-- 1%-20 Eical विजयदेव-अधिकार: ~492~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] श्रीजीवा- नाएणमिनि सर्वाणि च तानि दिव्यत्रुटितानि च-दिव्यतूर्याणि च, एषामेकत्र मौलनेन यः संगतो नितरां नादो-महान घोपः सर्व-14 प्रतिपत्तो जीवाभि दिव्यत्रुटित शब्दसंनिनादस्तेन, इह तुल्येष्वपि सर्वशब्दो दृष्टो यथाऽनेन सबै पीतं पृतमिति, तत आह–'महया इड्डीए' इत्यादि, विजयदेमलयगि- महत्या यायच्छक्तितुलितया 'ऋदया' परिवारादिकया 'महया जुईए' इत्याद्यपि भावनीयं, तथा महना-स्फूर्तिमता बराणां-प्रधारीयावृत्तिः नानां त्रुटितानां-आतोयानां यमकसमर्क-एककालं पटुभिः पुरुयैः प्रवादितानां यो रबस्तेन, एतदेव विशेषेणाचष्टे-'संखपणवपड- उद्देशः२ सहभेरिझल्लरिखरमुहिड्डुकमुरवमुइंगदुंदुहिनिग्घोससंनिनादितरवेणं' शजः प्रतीत: पणवो-भाण्डानां पटहः-प्रतीत: भेरी-रका सू०१४१ मलरी-चावनद्धा विस्तीर्णा वलयरूपा बरमुही-काहला हुइक्का-महाप्रमाणो मर्दलो मुरजः स एव लघुर्मूदगो दुन्दुभि:-मेर्याकारा सङ्कटमुखी, तासा द्वन्द्रः, नामां निपो-महान ध्वानो नादितं च घण्टायामित्र पादनो तरकालभाषी सततध्वनितलमणो यो रवतेन महता महना इन्द्राभिषेकेणाभिपिश्चति ।। 'तए ण'मित्यादि, ततो णमिति पूर्वधन नम्प विजयस्य देवस्य 'महया' इति अतिशयन महति इन्द्राभिषेके वर्तमानेऽप्येकका देवा विजयां राजधानी, सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतखानतोऽयमर्थ:-बिजयायां राजधान्यां नात्युदके प्रभून जलसंपहभावतो वैरपोपपत्ते: नातिमृत्तिके अतिमृत्तिकाया अपि कदमम पलायां उत्साहद्भिजनकलाभावात् 'पविरलफिसिय मिति अविरलानि-धन भावे कर्दमसम्भवान् प्रकर्षेण यावता रेणवः स्थगिता भवन्ति नावन्मात्रेणोत्कर्षेण स्पृष्टानि-स्पर्शनानि यत्र वर्षे तन् प्रविरलस्पृष्टं 'रयरेणुविणामणेति लक्षणतरा रेणुपुद्गला रजस्त एव स्थला रेणवः रजामि च रेणवश्च रओरेणबस्तेषां वि नाशनं रसोरेणुविनाशनं दिव्यं प्रयानं सुरभिगन्धोदकच वर्षन्ति, अप्येकका विजयां राजधानी समानामपि 'निहतरजसं निहतं ॥२४५॥ सालो सम्यां सा निहतर जास्ता, तन्त्र निहनत्वं रजसः क्षणमात्रमुस्थानाभावेनापि संभवनि तत आह-'नटरजम' नष्ट-सर्वथाऽदश्यी-16 दीप अनुक्रम [१७९] k अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~ 493~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] भूतं रजो यत्र [पन्या ७०००] सा नपुरजास्ता, तथा भ्रएं-बातोततया राजधान्या दूरतः पलायितं रजो यस्याः सा भ्रष्टरजास्ताम् , एतदेकार्थिकडूयेन प्रकटयति--प्रशान्तर जसं उपशान्तर जसं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा विजया राजधानीम् 'आसियसमजियोवलितं सितं सुइसम्महारय] रस्थंतरायण वीहियं करेंति' इति आसितमुद करछटेन समाजित कचरशोधनेन उपलिममिव | गोमयादिनोपलिम, तथा सिक्तानि जलेनात एव सुचीनि-पवित्राणि संमृष्टानि-कचवरापनबनेन रश्यान्तराणि आपणत्रीथय इव-हट्ट-|| मार्गा इव आपणवीधयो रथ्याविशेषाश्च यस्यां सा तथा तां कुर्वन्ति, अध्यकका देवा मञ्चातिम कलितां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा नानाविधा विशिष्ठा रागा येषु ते नानाचिरागा नानाविरागैसलाकृतैः-उद्धा कृतयः पताकातिपनाकाभिश्च मण्डिता कुर्वन्ति, अप्ये का देवा लाउलोइयमहितां गोशीर्षसरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपचालितला कुर्वन्ति, अप्येकका देवा विजयां राजधानीमुपचितचन्दनकलशां कुर्वन्ति अध्येकका देवा चन्दनपट सुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागां कुर्वन्ति, अध्ये क का देवा विजयाँ राजधानीमासिक्कोसक्त विगुलवृत्तवग्धारितमापदामकलापां कुर्वन्ति, अयेकका देवा विजया राजधानी पञ्चवर्ण सुरभिमुफपुष्पपु जोपचारकलितां कुर्वन्ति, है अप्येकका देवा विजयां राजधानी कालागुरु प्रबरकुन्दुरुल्क तुकबूममय नघायमाना गन्धोद्धताभिरामा सुगन्धबरगन्धगन्धिको गन्धव-13 तिभूतां कुर्वन्ति, एतेषां च पदानां व्याख्यानं पूर्ववत् , अध्येकका देवा हिरण्यवर्षे वर्षन्ति, अन्येकका: सुवर्णवर्षमप्येकका आभरणवर्ष (रनवर्षमप्येकका वनवर्पमप्येकका:) पुष्पवर्षमप्येकका माल्यवर्प मप्येककाधू वर्ष वर्ष (आभरणवर्ग ) वर्षन्ति, अप्येकका देवा हिरण्यविधि-हिरण्यरूपं मङ्गलप्रकारं 'भाजयन्ति' विप्राणयन्ति शेषदेवेभ्यो ददतीति भावः, एवं सुवर्णरत्राभरणपुष्पमाल्यगन्धचूर्णवस्त्रबिधिभाजनमपि भावनीयम् ।। 'अप्पेगड्या देवा दुयं नट्टविहिं उवदसेंति' इत्यादि, इह द्वात्रिंशन्नाट्य विधयः, ते च येन क्रमेण 30%ANE दीप अनुक्रम [१७९] RESTEE-25- विजयदेव-अधिकार: ~ 494~ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९]] श्रीजीवा- भगवनो बर्द्धमानस्वामिनः पुरतः सूर्याभदेथेन भाविता राजप्रश्नीयोराङ्गे दर्शितास्तेन क्रमेण सिनेय जनानुग्रहार्थमुपदश्यन्ते, उप- प्रतिपत्ती जीवाभिमस्तिकलीवरसनन्दावर्तबर्द्धमानकभद्रासनकलशमत्स्यदर्पणरूपाष्टमङ्गलाकाराभिनयात्मकः प्रथमो नाट्यविधिः १, द्वितीय आवर्तन यावत व विजयदेमलयनि- णिपतिश्रेणिस्वस्तिकपुष्पमाणवकबर्डमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पावलिपद्मपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापद्मलताभक्तिचित्रा भावाभिषेका रीयावृत्तिानयात्मकः२, तृतीय ईहामृगपभतुरगनरमकरविहगव्याल किन्नरहरुलरभचमरकुसरवनलताघालताभकिनचित्रात्मकः३, चतुर्थ उद्देशः २ च(तश्च) कविधातोच (ता)कएकतश्चक्रवाल द्विधातश्चक्रयालचक्रार्द्धचक्रवालाभिनयात्मकः ४, पञ्चमभन्द्रावलिपविभक्तिसूर्याचलिभाविभक्ति- सू०१४१ ॥२४६॥ यात्रलिपविभक्तिहंसावलीप्रविभक्तिसारावलिपविभक्तिमुक्तावलिअविभक्तिरनाबलिप्रविभक्तिपुष्पात्रलिअधिभक्तिनामा ५, पप्रचन्द्रोहमा विभक्तिसूर्योद्गमप्रविभक्त्यभिनयामक उद्गमनोमनाविभक्तिनामा ६, सप्तमश्चन्द्रागमनसूर्यागमन विभक्त्यभिनयामक आगमनागमनप्रविभक्तिनामा ७, अष्टमश्चन्द्रावरणप्रविभक्तिसूर्यावरणप्रविभव्यभिनयात्मक आवरणावरणप्रविभक्तिनामा ८, नवमश्चन्द्रासमयनप्रविभतिसूर्यास्तमयनप्रविभक्त्यभिनयात्मकोऽस्तगयनास्तमयनप्रविभक्तिनामा ५, दशमञ्चन्द्रमण्डलपविभक्तिसूर्यमण्डलपविभक्तिनागभण्डलपविभक्तियक्षमण्डलपविभक्तिभूतमण्डलपविभक्त्यभिनयात्मको मण्डलप्रविभक्तिनाना १०, एकादश भरपभमण्डलपविभक्तिसिंहमण्डलाविभक्तियविलम्बितगजविलम्बितहविलसितगजविलसितमत्तयषिलसितमत्तगजविलसितमत्तय विलम्वितमत्तगजविलम्बिताभिनयों द्रुतविलम्बितनामा ११, द्वादश: सागरप्रविभक्तिनागप्रविभक्त्यभिनयासकः सागरनागपत्रिभक्तिनामा १२, त्रयोदशो नन्दानविभ[क्तिचम्पाप्रविभक्त्यभिनयासको नन्दाचम्पाप्रविभक्त्यात्मक: १३, चतुर्दशो मत्स्याण्डकप्रविभक्तिमकराण्डकप्रविभक्तिजारप्रविभक्तिमार- २४६॥ विभक्त्यभिनयासको मत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारप्रविभक्तिनामा १४, पञ्चदशः क इति ककारप्रविभक्तिः ख इति स्वकारप्रविभ AKAL अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~ 495~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] दाक्तिर्ग इति गकारप्रविभक्तिर्ष इति चकारप्रविभक्तिई इति उकारप्रविभक्तिरित्येवं क्रमभाबिककारादिप्रविभक्त्यभिनयामकः ककारखकाभारगकारधकारककारप्रविभक्तिनामा १५, एवं पोडशश्चकारछकारजकारझकारत्रकारप्रविभक्तिनामा १६, सप्तदशः टकारठकारडकारहMकारणकारप्रविभक्तिनामा १७, अष्टादशस्तकारधकारदकारधकारनकारप्रविभक्तिनामा १८, एकोनविंशतितमः पकारफकारबकारभका रमकारप्रविभक्तिनामा १९, विंशतितमोऽशोकपल्लवनविभक्त्याम्रपल्लवप्रविभक्तिजम्बूपल्लवप्रविभक्तिकोशाम्बपल्लवप्रविभत्यभिनयासकः पल्लव २ प्रविभक्तिनामा २०, एकविंशतितमः पद्मलताप्रविभत्त्यशोकलताप्रविभक्तिचम्पकलताप्रविभक्तिचूसलतापविभरितवनलताप्रविभक्तिवासन्तीलताप्रविभक्त्यतिमुक्तलताप्रविभक्तिश्यामलताप्रविभक्यभिनयात्मको लताप्रविभक्तिनामा २१, द्वाविंशतितमो द्रुतनामा २२, त्रयोविंशतितमो विलम्बितनामा २३, चतुर्विंशतितमो द्रुतविलम्बितनामा २४, पञ्चविंशतितमः अश्चितनामा २५, पडिशतितमो रिभितनामा २६, सप्तविंशतितमोऽश्चितरिभितनामा २७, अष्टाविंशतितम आरभटनामा २८, एकोनत्रिंशतमो भसोलनामा | २९, त्रिशत्तम आरभटभसोलनामा ३०, एकत्रिंश उत्पातनिपातप्रसक्तसंकुचितप्रसारितरेकरचितभ्रान्तसंभ्रान्तनामा ३१ द्वात्रिंशत्त| मस्तु चरमचरमनामानिबद्धनामा, स च सूर्याभदेवेन भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः पुरतो भगवतश्चरमपूर्वमनुष्यभवचरमदेवलोकभवचरमच्यवनचरमगर्भसंहरणचरमभरतक्षेत्राबसपिणीतीर्थकरजन्माभिषेकचरमवालभावचरमयौवनचरमकामभोगचरमनिष्कमणचरमतपश्चरणचरमज्ञानोत्पादचरमतीर्थप्रवर्तनचरमपरिनिर्वाणाभिनयालको भावितः ३२ । तत्रैतेषां द्वात्रिंशतो नाट्यविधीनां मध्ये कांश्चन नाट्यविधीनुपन्यस्पति-अप्येकका देवाः तंदुतनामक द्वाविंशतितम नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति, एवमध्येकका विलम्बितं नाट्यविधि मुपदर्शयन्ति, अप्येकका दुतविलम्बितं नाट्यविधि, अप्येकका अञ्चितं नाट्यविधि, अध्येकका रिमितं नाट्यविधि, अप्सेकका अ-I जीच०४२ विजयदेव-अधिकार: ~496~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ ---------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 1k प्रतिपत्ती प्रत सूत्रांक [१४१] वाभिषेकः | उद्देशः २ सू०१४१ - श्रीजीवा|चितरिमितं नाट्यविधि, अप्येकका आरभर्ट नाट्यविधि, अप्येकका भसोलं नाट्यविधि, अप्येकका आरभटभसोलं नाट्यविधिमुप कका आरभटभसोल नायविस जीवामि० दर्शयन्ति, अप्येकका देवा उत्पातनिपातम् उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् स उत्पातनिपातस्तं, एवं निपातोत्पातं सङ्कुचितप्रसारित मलयगि-18रियारिय'मिति गमनागमनं भ्रान्तसम्भ्रान्तं नाम, नाट्यविधि-सामान्यतो नर्त्तनविधि द्वात्रिंशद्विध्युत्तीर्णमुपदर्शयन्ति । अप्येकका रीयावृत्तिः दादेवाश्चतुर्विध वाद्यं वादयन्ति, तयथा-'ततं' मृदङ्गपटहादि 'विततं' वीणादिकं 'घन' कंसिकादि 'शुपिरं' काहलादि, अप्येकका ॥२४७॥ देवाश्चतुर्विधं गेयं गायन्ति, तद्यथा-'उत्क्षिप्त प्रथमतः समारभ्यमाणं 'प्रवृत्तम् उत्पावस्थातो विक्रान्तं मनाम्भरेण प्रवर्त्तमान मन्दायमिति-मध्यभागे मूर्छनादिगुणोपेततया मन्दं मन्दं पोलनात्मकं 'रोचितावसान'मिति रोचितं-यथोचितलक्षणोपेततया | भावितं सत्यापितमितियावद् अवसानं यस्य तद् रोचितावसानं । अप्येककाश्चतुर्विधमभिनयमभिनयन्ति, तद्यथा-वाान्तिकं प्रतिश्रुतिक सामान्यतोविनिपातिक लोकमध्यावसानिकमिति, एतेऽभिनयविधयो नाट्यकशलेभ्यो बेदितन्याः, अप्येकका देवाः | 'पीनयन्ति' पीनमात्मानं कुर्वन्ति स्थूला भवन्तीति भावः, अप्येकका देवाः 'ताण्डवयन्ति' ताण्डवरूपं नृत्यं कुर्वन्ति, अप्येकका| देवाः 'लास्ययन्ति' लास्वरूपं नृत्यं कुर्वन्ति, अप्वेकका देवाः 'छुकारेंति' छुत्कारं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा एतानि पीनत्वादीनि चत्वार्यपि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा उच्छलन्ति अप्येकका देवाः प्रोच्छलन्ति अप्येकका देवाविपदिको छिन्दन्ति अध्येककास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा हयहेषितानि कुर्वन्ति अप्येकका देवा हस्तिगडगडायितं कुर्वन्ति अप्येकका रथपणपणायितं कुर्वन्ति अप्येकका देवास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अध्येकका देवा आस्फोटयन्ति, भूम्यादिकमिति गम्यते, अप्येकका देवा वलान्ति, | [अप्येकका देवाः सिंहनादं नदन्ति अप्येकका देवाः पाददर्दरकं कुर्वन्ति अप्येकका देवा भूमिचपेटा ददति-भूमि पपेटयाऽऽस्फाल दीप अनुक्रम [१७९] - Jasool अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~497~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % 0 प्रत % 2 सूत्रांक [१४१] % % यन्तीति भावः, अप्येकका देवा महता महता शब्देन 'रवन्ते' शब्दं कुर्वन्ति अप्येकका देवाचत्वार्यपि सिंहनादादीनि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा 'हक्कारेंति' हकारं कुर्वन्ति अप्येकका देवाः 'वुकारेंति' मुखेन वुकारशब्दं कुर्वन्ति अप्थेकका देवाः 'थक्कारेंति' थक इत्येवं महता शब्देन कुर्वन्ति अप्येककास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा अवपतन्ति अप्येकका देवा उत्पतन्ति अप्येकका देवा: परिपतन्ति-तिर्यग्निपतन्तीत्यर्थः अप्येकका देवावीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येककाः 'ज्वलन्ति' ज्वालामालाकुला भवन्ति अग्येकका देवा: 'तपन्ति' तप्ता भवन्ति अप्येककाः प्रतपन्ति अप्येकका देवावीण्यपि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा गर्जयन्ति अप्येकका: "विजुयारंति' विधुवं कुर्वन्ति अयेकका देवा वर्ष वर्षन्ति अप्येककास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवोत्कलिका || कुर्वन्ति-देवानां वातस्येवोत्कलिका देवोत्कलिका तां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवकहकहं कुर्वन्ति--प्रभूतानां देवानां प्रमोदभरवशतः | खेच्छावचनोल: कोलाहलो देवकहकहस्तं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवदुहुदुहु के कुर्वन्ति-दुदुहकमित्यनुकरणवचनमेतत् , अप्येक-1 कात्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवाश्चेलोरक्षेपं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा बन्दनकलशहस्तमता:-वन्दनकलशा हस्ते गता येषां ते वन्दनकलशहस्तगताः, अप्येकका देवाः भृङ्गारकलशहस्तगताः, एवमादर्शस्थालपात्रीसुप्रतिष्ठकवातकरकचित्ररत्नकरण्डकपुष्पचङ्गेरीयावलोमहस्तपङ्गेरीपुष्पपटलकयावलोमहस्तपटलकसिंहासनचामरसैलसमुद्रकवावदजनसमुदकधूपकबुच्छुकहस्तगताः प्रत्येकमभिलाप्याः, हतुडे'त्यादि यावस्करणात् 'हहुतुहचित्तमाणंदिया पीतिमणा परमसोसणस्सिया हरिसवसविसपमाणहियया' इति परिग्रहः, सर्वतः समन्ताद् आधावन्ति प्रधावन्ति ।। 'तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाह्त्सीओ' इत्याद्यभिषेकनिगमनसूत्रमाशीर्वादसूत्रं च पाठसिद्धम् ।। दीप अनुक्रम [१७९] % SC % % % % 4 C4%850 विजयदेव-अधिकार: ~ 498~ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगि-1 सूत्रांक [१४२] ३ प्रतिपत्ती विजयदे वकृता जिनपूजा उद्देशः२ सू०१४२ रीयावृत्तिः ॥२४८ ॥ दीप अनुक्रम [१८०] तए णं से विजए देवे महया २ इंदाभिसेएणं अभिसित्ते समाणे सीहासणाओ अम्भुढेव सीहासणाओ अब्भुटेता अभिसेयसभातो पुरस्थिमेणं दारेण पडिनिक्वमति २त्ता जेणामेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति २ ता आलंकारियसभं अणुप्पयाहिणीकरमाणे २ परथिमेणं दारेणं अणुपविसति पुरथिमेणं दारेणं अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति २त्ता सीहासणवरगते पुरस्थाभिमुहे मषिणसपणे, तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोवधषणगा देवा आभिओगिए देवे सहावेंति २एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! विजयस्स देवस्स आलंकारियं भंडं उवणेह, तेणेव ते आलंकारियं भंडं जाव उवट्ठति ॥ तए से विजए देवे तपढमयाए पम्हलमालाए दिव्याए सुरभीए गंधकासाईए गाताई लहेति गाताई लहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गाताई अणुलिंपति सरसेणं गोसीसचंदणेणं गाताई अणुलिंपेत्ता ततोऽणतरं च णं नासाणीसासवायवज्झं चक्खुहरं वण्णफरिसजु हतलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखइयंतकम्मं आगासफलिहसरिसप्पभं अहतं दिवं देवदसजुयलं णियंसेइ णियंसत्ता हारं पिणिद्वेइ हारं पिणिवेत्ता एवं एकावलिं पिर्णिधति एकावलि पिणिधेत्ता एवं एतेणं अभिलावेणं मुत्तावलिं कणगावलिं रयणावलिं कडगाई तुडियाई अंगयाई केयूराई दसमुदिताणतक कडिसुतकं तेअस्थिसुत्तगं मुरविं कंठमुरवि पालंयसि minimirmire ॥२४८॥ Escam अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~ 499~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: MSRORS प्रत सूत्रांक [१४२] कुंडलाई चूडामणिं चित्तरयणुक्कडं मउड पिजिंधेड पिणिधित्ता गंठिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं चउब्विहेणं मलेणं कप्पाक्वयंपिव अप्पाणं अलंकियविभूसितं करेति, कप्परक्वयंपिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करेता दर्डरमलयसुगंधगंधितेहिं गंधेहिं गाताई सकिडति २त्ता दिवं च सुमणदाम पिणिद्धति ॥ तए णं से विजए देवे केसालंकारेणं वत्थालंकारेणं मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेण चउबिहेणं अलंकारेणं अलंकिते विभूसिए समाणे पंडिपुष्णालंकारे सीहासणाओ अभुट्टेइ २त्ता आलंकारियसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारेण पडिनिक्खमति २ ता जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छति २त्ता ववसायसभं अणुप्पदाहिणं करेमाणे २ पुरस्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविमति २त्ता जेणेव सीहासणे नेणेव उवागच्छति २त्ता सीहासणवरगते पुरस्थाभिमुहे सपिणसपणे । तते णं तस्स विजयस्स देवस्स आहिरोगिया देवा पोत्थयरयणं उवणेति ।। तए णं से विजए देवे पोत्थयरयणं गेण्हति रत्ता पोत्यथरयणं मुयति पोत्धयरणं मुएत्ता पोत्थयरयणं बिहाडेति पोन्धयरयणं विहाडेता पोत्थयरयणं वाएति पोत्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं गरिम'लावितो यावर 'करेता' इत्ययं पाढोऽअतिरितसूत्रस्य दावेव सयले व्याख्यानुसारेण. १ असा व्याख्यान रयते. दिने 'त्यादि यवन। करेना इख पाठः पाण्याने दृश्यते, केसासकारेणं' इत्यादि यावत् विभूमिए गमाणे इत्येतस्य व्यापाऽपि न दृश्यते । गंटिगे त्यादि यावत करेला' इत्येतस्य पांडपुण्णालंकारे' इत्येतेन सह संबंधो दृश्यते व्याख्यानुसारेण. ४ अयं पुस्तकदयेऽप्यत्रैव रायतेऽतोऽहं व्याख्यानुसारेण मूलपाटे कत्तुं न शक्तोऽभूवम् . दीप अनुक्रम [१८०] -- *- - * विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~500~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगि-1 रीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती विजयदे वकृता K जिनपूजा उद्देशः २ सू०१४२ सूत्रांक [१४२] ॥२४९॥ दीप अनुक्रम [१८०] यवसायं पगेण्हति धम्मियं ववसायं पगेण्हित्ता पोत्थयरयणं पडिणिक्खियेह रसा सीहासणाओ अन्भुट्ठति २त्ता ववसायसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिणिक्खमहरसा जेणेव गंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २त्ता गंदं पुक्खरिणिं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति २ ता पुरथिमिल्लेणं तिसोपाणपडिरूवगएणं पञ्चोरुहति २त्ता हत्थं पादं पक्खालेति २त्ता एगं महं सेतं रयतामयं विमलसलिलपुपणं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारं पगिण्हति भिंगारं पगेण्हित्सा जाई तत्थ पुष्पलाई पउमाई जाव सतसहस्सपत्ताई ताई गिण्हति २त्ता गंदातो पुस्खरिणीतो पचुत्तरेइ २ ता जेणेव सिद्वायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ जाव अण्णे य वहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य अप्पेगइया उप्पल हथगया जाव हस्थगया विजयं देवं पिट्ठतो पिट्टतो अणुगच्छंति ।। तए तस्स विजयस्स देवस्स बहवे आभिओगिया देवा देवीओ प कलसहत्यगता जाय धूवकडच्छयहत्थगता विजयं देवं पिट्टतो २ अणुगच्छति । तते णं से विजा देवे चर्हि सामाणियसाहस्सीहिं जाव अपणेहि य बहहिं वाणमंतरेहिं देवेहि प देवीहि य सहि संपरिबुडे सविहीए सबजुत्तीए जाव णिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव सिद्धाययणे तेणेव उवागच्छति २सा सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे २ पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणु अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~501~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- -------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत CLASSA सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम [१८०] पविसित्ता जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छति २त्ता आलोए जिणपडिमाणं पणामं करेति २त्ता लोमहत्थगं गेण्हति लोमहत्वगं गेण्हित्ता जिणपडिमाओ लोमहत्थएणं पमजति २त्ता सुरभिणा गंधोदएणं पहाणेति २त्ता दिव्वाए सुरभिगंधकासाइए गाताई लहेति २त्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गाताणि अणुलिंपइ अणुलिंपेत्ता जिणपडिमाणं अहयाई सेताई दिव्याई देवदूसजुयलाई णियंसेइ नियंसेत्ता अग्गेहिं बरेहि य गंधेहि य मल्लेहि य अञ्चेति २त्ता पुष्कारहणं गंधारुहणं मल्लारुहर्ण वपणारहणं चुपणारहणं आभरणारुहणं करेति करेत्ता आसत्तोसत्तविउलबद्दवग्धारितमल्लदाम० करेति २ सा अच्छेहिं सण्हेहिं [ सेएहिं ] रययामएहिं अच्छरसातंदुलेहिं जिणपडिमाणं पुरतो अट्टमंगलए आलिहति सोत्थियसिरिवच्छ जाच दप्पण अट्टटर्मगलगे आलिहति आलिहिता कयग्गाहम्गहितकरतलपन्भट्ठविप्पमुफेण दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलितं करेति २त्ता चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवगंधुत्तमाणुविद्धं धूमवहिं विणिम्मुयंतं वेरुलियामयं कडुच्छुयं पग्गहित्तु पयत्तेण धूवं दाऊण जिणवराणं अट्ठसयविसुद्धगंधजुत्तेहिं महावित्तेहिं अत्यजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं संथुणइ २त्ता सत्तट्ट पयाई ओसरति सत्तट्टपयाई ओसरिता वामं जाणुं अंचेइ २ ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिवाडेइ तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणि Jatacamil विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~502~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥२५॥ ३ प्रतिपत्ती विजयदेवकृता जिनपूजा उद्देशः२ सू०१४२ [१४२] दीप अनुक्रम [१८०] यलंसि णमेइ नमित्ता इसिं पशुण्णमति २त्ता कडयतुडियर्थभियाओ भुयाओ पडिसाहरति २त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं क्यासी-मोऽत्थु णे अरिहंताणं भगवंताणं जाब सिद्धिगणामधेयं ठाणं संपत्ताणं निकट वंदति णमंसति वंदिता णमंसित्ता जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छति २त्ता दिव्वाए उदगधाराए अन्भुक्खति २ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचगुलितलेणं मंडलं आलिहति २त्ता वबए दलयति चचए दलयित्सा कयग्गाहरगहियकरतलपन्भट्ठविमुक्केण दसवण्णणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोक्यारकलियं करेति २त्ता धूवं दलयति २ जेणेव सिद्धायतणस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छति २त्ता लोमहत्थयं गेपहइ २ दारचेडीओ य सालिभंजियाओ य वालस्वए य लोमहत्वएणं पमजति २ बहुमज्नदेसभाए सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं अणुलिंपति २ चच्चए दलयति २ पुष्फारुणं जाव आहरणारहण करेति २ आसत्तोसत्तविपुल जाव मल्लदामकलावं करेति २ कयग्गाहग्गहित जाव पुंजोवयारकलितं करेति २ धृवं दलयति २ जेणेव मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेच उवागच्छति २त्ता बहुमज्झदेसभाए लोमहत्येणं पमजति २ दिवाए उदगधाराए अभुक्खेति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं आलिहति २ चचए दलयति २ कयग्गाह जाव धूवं दलयति २ जेणेव मुहमंडवगस्स पञ्चस्थिमिल्ले दारे तेणेव ॥ २५०॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ट्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~503~ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम [१८०] उवा० लोमहत्थगं गेण्हति २ दारचेडीओ य सालिभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थगेण पमजति २दिव्वाए उदगधाराए अभुक्खेति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं जाव चच्चए दलयति २ आसत्तोसत्त० कयग्गाह० धूवं दलयति २ जेणेव मुहमंडवगस्स उत्तरिल्ला णं खंभपंती तेणेध उवागच्छइ २ लोमहत्वगं परा सालभंजियाओ दिवाए उदगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं पुप्फामहणं जाब आसत्तोसत्त० कथग्गाह धूवं दलयति जेणेव मुहमंडवस्स पुरस्थिमिल्ले दार तं बसचं भाणियब्वं जाब द्वारस्स अचणिया जेणेच दाहिणिल्ले दारे तं चेव जेणेव पेच्छाघरमंडधस्स बहुमज्झदेसभाए जेणेव बरामए अक्वाडए जेणेव मणिपेढिया जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति र लोमहत्वगं गिण्हति लोमहत्थगं गिमिहत्ता अक्खाडगे च सीहासणं च लोमहत्वगेण पमजति २त्ता दिव्याए उदगधाराए अन्भु पुप्फारुणं जाव धूवं दलयति जेणेच पेच्छाघरमंडवपञ्चथिमिल्ले दारे दारञ्चणिया उत्सरिल्ला खंभपंती तहेव पुरस्थिमिल्ले दारे तहेव जेणेव दाहिणिल्ले दारे तहेव जेणेव चेतियथूभे तेणेव उवागच्छति २त्ता लोमहत्वगं गेण्हति २त्ता चेतियथुभं लोमहत्वएणं पमजति २दिव्बाए दग० सरसेण पुप्फारहणं आसत्तोमत्त जाच धूवं दलयति २ जेणेव पञ्चत्थिमिल्ला मणिपेडिया जेणेच जिणपडिमा तेणेव उवागच्छति जिणपडिमाए आलोए पणामं करेइ २त्ता लोमहत्वगं गेण्हति २त्ता तं विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~ 504~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४२ ] दीप अनुक्रम [१८०] "जीवाजीवाभिगम" श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ।। २५१ ।। - उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र ) ]. मूलं [१४२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः चैव सवं जं जिणपडिमाणं जाव सिद्धिगइनामधेनं ठाणं संपत्ताणं वंदति णमंसति, एवं उत्तरिल्लाएवि एवं पुरथिमिलाएवि एवं दाहिणिल्लाएवि, जेणेव बेइयरुक्खा दारविही य मणिपेढिया जेणेव महिंदज्झए दारविही, जेणेव दाहिणिल्ला नंदापुक्खरणी तेणेव उवा० लोमहत्वगं गेति चेतियाओ य तिसोपाणपडिरूवए य तोरणे य सालभंजियाओ य बालस्वर य लोमहस्थपण पमज्जति २ ता दिव्याए उदगधाराए सिंथति सरसेणं गोसीसचंद्रणेणं अणुलिंपति २ पुष्कारहणं जाय धूर्व दलयति २ सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणं करेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला viryaरिणी तेणेव उवागच्छति २त्ता तहेव महिंदज्या चेतियो चेति पञ्चत्थि मिला मणिपेडिया जिणपडिमा उत्तरिल्ला पुरथिमिल्ला दक्खिणिल्ला पेच्छाघरमं वस्सवि तब जहा दक्खिणिहस्स पचत्थिमिले दारे जाव दक्खिणिल्ला णं भपंती मुहमंडवस्सवि तिन्हं दाराणं अचणिया भणिऊणं दक्खिणिल्ला णं खंभांनी उत्तरे द्वारे पुरच्छिमे दारे सेसं तेणेव कमेण जात्र पुरथिमिल्ला णंदापुक्खरिणी जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारेत्थ गमणाए || तणं तस्स विजयरस चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ एयप्पभितिं जाय सव्विहीए जाव णाइयरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छति २त्ता तं णं सभं सुधम्मं अणुष्वयाहिणीकरेमाणे २ पुरथिमिले अणुपविसति २ आलोए जिणसकहाणं पणामं करेति २ जेणेव मणिपेडिया For P&Pealise Cinly ३ प्रतिपत्तौ विजयदे वकृता जिनपूजा उद्देशः २ सू० १४२ ~ 505~ ।। २५१ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव कृता जिन-पूजा-अधिकार ays Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] - - दीप अनुक्रम [१८०] जेणेव माणवचेतियक्खंभे जेणेव बहरामया गोलवदृसमुग्गका तेणेव उवागच्छति २ लोमहत्त्वयं गेण्हति २त्ता वइरामा गोलबद्दसमुग्गए लोमहत्वएण पमजह २त्ता वरामए गोलवहसमुग्गए विहाडेति २त्ता जिणसकहाओ लोमहत्थएणं पमन्वति २ता सुरभिणा गंधोदएणं तिसत्तखुत्तो जिणसकहाओ पक्ग्वालेति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपइ २त्ता अग्गेहिं बरेहिं गंधेहिं मल्लेहि य अचिणति २त्ता धूर्व दलयति २त्ता वइरामएसु गोलवसमुग्गएम पडिणिक्विवति २त्ता माणवकं चेतियखभं लोमहत्थएणं पमजति २ दिवाए उदगधाराए अन्भुक्वेइ २ चा सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयति २ पुष्फारुहणं जाव आसत्तोसत्त० कयग्गाह धूवं दलपनि २ जेणेव सभाए मुधम्माए बहमनदेसभाए तं व जेणय सीहासणे तेणेव जहा दारचणिता जेणेव देवसयणिजे चेव जेणेव खुदागे महिंदज्झए तं चेव जेणेव पहरणकोसे चोप्पाले तेणेव उवागच्छति २ पत्तेयं २ पहरणाई लोमहत्थाणं पमजति पमलित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं तहेव सव्वं सेसंपि दक्षिणदारं आदिका तहेवणेयव्वं जाव पुरमिछमिल्ला गंदापुक्वरिणी सन्याणं सभाणं जहा सुधम्माए सभाए तहा अञ्चणिया उववायसभाए णवरि देवसयणिजस्स अचणिया सेसासु सीहासणाण अचणिया हरयस्न जहा गंवाए पुक्खरिणीए अचणिया, ववसायसभाए पोत्थयरयर्ण लोम० दिव्याए उदगधाराण सरसेणं गोसीसचंदणेणं विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~5064 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 4 4 प्रत प्रतिपत्ती विजयदे श्रीजीवाजीवाभि मलयनिरीयावृत्तिः विकृता सूत्रांक [१४२] 20-4-720- 2 जिन पूजा उद्देशः२ सू०१४२ १२५२॥ अणलिंपति अग्गोहिं वरेहि गंधेहि य मल्लेहि य अचिणति २त्ता [मल्लेहि सीहासणे लोमहत्थएणं पमजति जाव धूर्व दलयति सेर्स तं चेव णंदाए जहा हरयस्स तहा जेणेव पलिपीठं तेणेव उवागमति २सा अभिओगे देवे सहावेति २त्ता एवं वयासी-बिप्पामेव भो देवाणपिया! विजयाए रायहाणीए सिंघाडगेसु य तिएसु य याउकेसु य चचरेसु य चतुमुहेसु य महापहपहेसु य पासामु य पागारेसु य अदालएसु य चरियासु य दारेस य गोपुरस य तोरणेसु च बावीसुध पुकम्बरिणीमु य जाब विलपंतिगासु य आरामेसु य उजाणेसु य काणणेसु य बणेसु य वणसंडेसु य वणराइसु य अचणियं करेह करेत्ता ममेयमाणत्तियं खिप्पामेव पचप्पिणहता ते आभिओगिया देवा विजगणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा जाव हतुवा विणएणं पडिसुणेनि २ सा विजयाए राबहागीर सिंघाडगेसु य जाव अचणियं करता जेणेव विजार देवे देणेव उवागच्छन्ति २ चा एयमाणत्तियं पचप्पिणति ॥लए णं से विजए देवे तेसिणं आभिओगियाणं देवाणं अंतिए एवमटुं सोचा णिसम्म हहतुद्वचित्तमाणंदिय जाथ हयहिया जेणेव गंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २त्ता पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं जाव हत्थपायं पक्खालेति २त्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए अंदापुक्खरिणीओ पसरति २त्ता जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारेत्य गमणाए । तए णं से विजए देवे चउहिं सामाणियसाह दीप अनुक्रम [१८०] -2- - २५२ ॥ E NE अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~507~ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ----------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------ ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत A सूत्रांक [१४२] स्सीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सविडीए जाच निग्घोसनाइयरवेणं जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव उवागच्छति २त्ता सभं सुधम्म पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति २सा जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छति २सा सीहासणवरगते पुरच्छाभिमुहे सण्णि सपणे ।। (मू०१४२) 'तए ण'मित्यादि, ततः स विजयो देवो वानमन्तरैः 'महया २' इति अनिशयेन महता इन्द्राभिषेकेणामिपिक्तः सन सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायाभिषेकसभात: पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य यौवालङ्कारसभा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यालङ्कारिकसभामनुप्रदक्षिणीकुर्वन पूर्वद्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य च यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव च सिंहासनं तत्रोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः संनिषण्णः, ततस्तस्य विजयस्य देवस्याभियोग्या देवा सुबहु 'आलङ्कारिकम्' अलङ्कारयोग्यं भाण्टमुपनयन्ति ।। 'तए ण'मित्यादि, तत: स विजयो देवस्तस्मथमतया तस्यामधारसभायां प्रथमतया पक्ष्मला च सा मुकुमारा च पक्षमलसुकुमारा तथा 'सुरभिगन्धकापायिक्या' सुरभिगन्धकषायद्रव्यपरिकम्मितवा लघुशाटिकयेति गम्यते गात्राणि रूक्षयति रुक्षयित्वा सरसेन गोशीर्षचन्दनेन गात्राण्यनुलिम्पति अनुलिप्य देवदूष्ययुगलं निधन इति योगः, कथम्भूतः ? इत्याह-नासानीसासवाय-| बझं नासिकानिःश्वासवातवाहां, एतेन शक्ष्णतामाह, 'चक्षुहर' चक्षुहरति-आत्मवशं नयति विशिष्टरूपातिशयकलित त्याचक्षुरं 'वर्णस्पर्श युक्तम्' अतिशाबिना वर्णेनातिशायिना स्पर्शेन युक्तं 'हयलालापेलवाइरेग'मिति हयलाला-अश्वलाला तस्या अपि पेलवमतिरेकेण हबलालापेलवातिरेकं नाम नाग्नैकाध्ये समासो बहुल'मिति समासः, अतिविशिष्टमृदुल लघुत्वगुणोपेतमिति भावः | दीप अनुक्रम [१८०] NSWER जीच०४३ विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~508~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम [१८०] श्रीजीवा-11धवलं-घेतं कनकखचितानि-विकछुरितानि अन्तकर्माणि-अचलयोनलक्षणानि यख तत् कनकसवितातकर्म आकाश- ३ प्रतिपदी जीवाभिक स्फटिक नाम-अतिखच्छस्फटिकविशेषस्तत्समप्रभ दिव्यं 'देवदूष्ययुगल' देववस्व युग्मं निवस्ते' परिथत्ते, परिधाय हारादीन्या-IRI विजयदेमलयगि-1 भरणानि पिनाति, सत्र हारः-अष्टादशसरिक: अर्द्धहारो-नवसरिकः एकावली-विचित्रमणिका मुक्तावली-मुक्ताफलमयी|BI यकृता रीयावृत्तिः कनकावली-कनकमणिमयी प्रालम्वः-तपनीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र आसनः प्रमाणेन स्वप्रमाण आभरणविशेष: कट-3 जिनपूजा कानि-कलाचिकाभरणानि त्रुटितानि-वाहुरक्षकाः अङ्गदानि-बाह्वाभरणविशेपा 'दशमुद्रिकाऽनन्तक' हस्ताङ्गुलिसम्बन्धि उद्देशः२ ॥२५॥ ४ मुद्रिकादशकं 'कुण्डले' कर्णाभरणे चूडामणिमिति-चूडामणि म सकलपार्थिवरत्न सर्वसारो देवेन्द्रमनुष्येन्द्रमूर्द्धकृतनिवासो निः- सू०१४२ शेपापमङ्गलाशान्तिरोगप्रमुखोपापहारकारी प्रवरलक्षणोपेतः परममङ्गलभूत आभरणविशेषः 'चित्तरयणसंकर्ड मउड मिति चित्राणि-नानाप्रकाराणि वानि रबानि तैः सङ्कटः चित्ररत्नसङ्कटः प्रभूतरननिचयोपेत इति भावः । 'तं दिव्यं सुमण दाम'ति में 'दिव्यां' प्रधानां पुष्पमालाम् । 'तए णं से विजए' इत्यादि, ग्रन्थिम-प्रथनं ग्रन्थस्तेन निर्वृत्तं प्रन्थिमं 'भावादिनः प्रत्ययः' यत् सूत्रादिना प्रध्यते तद् प्रन्थिममिति भावः, भरिमं यद् प्रन्थितं सद् वेष्ट्यते यथा पुष्पलम्बूसको गण्डूक इत्यर्थः, पूरिनं येन | वंशशलाकादिमयपञ्जरी पूर्यते, सालिम यत्परस्परतो नालसवातेन सङ्घात्यते, एवंविधन चतुर्विधेन माल्येन कल्पवृक्षमिवामानम-11 लङ्कृतविभूषितं करोति कृत्वा परिपूर्णालङ्कारः सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायालङ्कारसभातः पूर्वेण द्वारेण निर्गय यत्रैव व्यवसाय-15 ॥२५३।। सभा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनबरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्णः । 'तए णमित्यादि, ततस्तस्व विजयस्य देवस्याभियोग्याः पुस्तकर नमुपनयन्ति ।। 'तए णमित्यादि, ततः स विजयो देवः पुस्त करनं गृहाति गृहीला पुस्तकरजमुत्सङ्गादाविति गम्यते मुञ्चति ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~509~ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत -RE सूत्रांक [१४२] 0 % 8 मुक्त्वा विघाटयति विघाख्यानुप्रवाचयति अनु-परिपाट्या प्रकर्पग-विशिष्टार्थाचगमरूपेण वाचयति पाचविला 'धाम्भिक' धर्मानुगत व्यवसाय व्यवस्थति, कर्तुमभिलपतीति भावः, व्यवसायसभायाः शुभाध्यषसायनिबन्धनत्वात् , क्षेत्रादेरपि कर्मक्षयोपशमादि-1 हेतुत्वान् , उक्तश्च-उदयक्खयखओबसमोवसमा जंच कम्मुणो भणिया । दवं खेत् काल भवं च भावं च संपप्प ॥ १॥" इति, धामिर्क व व्यवसायं व्यवसाय पुस्त करने प्रतिनिक्षिपत्ति प्रतिनिक्षिप्य सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय व्यवसायसभातः पूर्वद्वारेण विनिर्गमछति विनिर्गत्य यौन व्यवसायसभाया एवं पूर्वा नन्दापुष्करिणी तत्रैवोपागमति उपागत्य नन्दा पुष्करिणीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन पूर्वतोरणेनानुप्रविशति प्रविश्य पूर्वेण त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति, मध्ये प्रविशतीति भावः, प्रत्यवरुद्ध हस्तपादी प्रक्षालयति प्रक्षाल्यै कं महान्तं श्रेतं रजतमयं विमलसलिलपूर्ण मत्तकरिमहामुखाकृतिसमानं भूषारं गृहाति गृहीत्वा यानि तत्रोपलानि पानि कुमुदानि नलिनानि यावत् शतसहस्रपत्राणि तानि गृहाति गृहीत्वा नन्दात: पुष्करिणीतः प्रत्युत्तरति प्रत्युत्तीर्य यत्रैव सिद्धायतनं तत्रैव प्रधावितवान गमनाय ।। 'तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य चत्वारि सामानिकदेवसहस्राणि चतसः सपरिवारा अपमहिप्य: तिस्रः पर्पदः सप्तानीकानि समानीकाधिपतयः पोडशात्मरक्षवेवसहस्राणि अन्ये च बहवो विजयराजधानीवास्तव्या वानमन्तरा देवाश्च देव्या अध्येकका उत्पलहस्तगता अप्येककाः पद्महस्तगता अध्येकफाः कुमुदहस्तगताः एवं नलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रशतसहसपत्रहस्तगताः क्रमेण प्रत्येक वाकयाः, विजयं देवं पृष्ठतः । पृष्ठतः परिपाट्येति भावः अनुगच्छन्ति ।। 'तए णमित्यादि, ततस्तस्य विजयस्व देवस्य यहब आभियोग्या देवा देव्यश्च अप्येकका बन्दनकलशहस्तगताः अध्येकका भूङ्गारहस्तगताः अप्येकका आदर्शहस्तगताः एवं खालपात्रीसुप्रतिष्ठवातकरकचित्ररत्नकरण्डक दीप अनुक्रम [१८०] % % - - -- विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~510~ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४२ ] दीप अनुक्रम [१८०] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [ ( द्वीप- समुद्र)], मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० पुष्पचङ्गेरीयावहो महस्तचङ्गेरीपुष्पपटल कया व होमहस्तपटल कसिंहासनच्छत्रचामर तेल समुद्रयावद जनसमुद्रकधूपक कहस्तगताः क्र मेण प्रत्येकमालाप्याः, विजयं देवं पृष्ठतः पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति । ततः स विजयो देवतुर्भिः सामानिकसहस्रैचतसृभिः सपरिवाराभिरमलयगि· श्रमहिषीभिस्तिभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः पोडशभिरामरक्षदेव सहस्त्रैरन्यैश्च बहुभिर्विजयराजधानीवास्तव्यैवरीयावृत्तिः + नमन्तरैर्देवैर्देवीभिः सार्द्धं संपरिवृतः सर्व 'जाब निग्घोसनादितरवेण मिति यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः सब्बजुईए सम्वबलेणं सव्वसमुदपणं सव्वभूई सम्वसंभमेणं सवपुष्पगंधमहालंकारेण सव्वतुडियसनिनाणं महया इडीए महया ॥ २५४ ॥ जुईए मया वलेणं महया समुदणं महया वरतुडियजमग सभगपडुप्पवाइयरवेणं संखपणचपड मेरिझहरिखरमुहुहुदुभिनिग्घोसनादितरवेणं' अस्य व्याख्या प्राग्वत् । यत्रैव सिद्धायतनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिद्धायतनमनुप्रदक्षिणीकुर्वन पूर्वेद्वारेण प्रविशति, प्रविश्यालोक्य जिनप्रतिमानां प्रणामं करोति कृत्वा यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव देवच्छन्दको यत्रैव जिनप्रतिमास्तत्रोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृशति परासृश्य च जिनप्रतिमाः प्रमार्जयति प्रसार्थं दिव्ययोदकधारया स्नपयति रूपयित्वा सरसेनाद्रेण गोशीर्षचन्दनेन गात्राण्यनुलिम्पति, अनुलिप्य 'अहतानि' अपरिमलितानि दिव्यानि देवदूष्ययुगलानि 'नियं सति परिधापयति परिधाप्य 'अप्रैः' अपरिभुक्तैः 'वरैः' प्रधानैर्गन्धैर्माल्यैश्चार्चयति । एतदेव सविस्तरमुपदर्शयति-पुष्पारोपणं | माल्यारोपणं वर्णकारोपणं चूर्णारोपणं गन्धारोपणम् आभरणारोपणं (च) करोति कृत्वा तासां जिनप्रतिमानां पुरतः 'अच्छे' स्वच्छैः 'श्लक्ष्णैः' मसृणै रजतमयैः, अच्छो रसो येषां तेऽच्छरसाः, प्रत्यासन्नवस्तुप्रतिविम्बाधारभूता इवातिनिर्मला इति भावः ते च ते तन्दुलाबाच्छर सतन्दुला, पूर्वपदस्य दीर्घान्तता प्राकृतत्वान् यथा 'वइरानया नेमा' इत्यादी, तैरष्टाष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गल For P&Penalise Cinly अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव कृता जिन पूजा-अधिकार ~511~ प्रतिपत्तौ विजयदे वकृता जिनपूजा उद्देशः २ सू० १४२ ।। २५४ ।। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], ------ ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] कान्यालिखति, आलिख्य 'कयग्गाहगहिय'मित्यादि मैथुनप्रथमसंरम्भे मुखचुन्वनाद्यर्थ युवत्याः पञ्चाङ्गुलिभिः केशेषु ग्रहणं कचग्राहस्तेन कचाहेण गृहीतं करतलाद्विमुक्तं सत् प्रभ्रष्टं करतलप्रभ्रष्टविमुक्तं, प्राकृतत्वादेवं पदव्यत्ययः, तेन 'दशार्द्धवर्णेन पञ्चवर्णेन 'कुसुमेन' कुसुमसमूहेन 'पुष्पपुजोपचारकलितं' पुष्पपुज एवोपचार:-पूजा पुष्पपुखोपचारस्तेन कलितं-युक्तं करोति, कृत्वा च 'चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंड' चन्द्रप्रभवनवैडूर्यमयो विमलो दण्डो यस्य स तथा तं काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रं कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपेन गन्धोत्तमेनानुविद्धा कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपगन्धोत्तमानुविद्धा, प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययः, तां धूपत्ति विनिर्मुञ्चन्तं वैडूर्यमयं धूपकडुच्छुक प्रगृह्य प्रयतो धूपं दत्त्वा जिनवरेभ्यः, सूत्रे पष्ठी प्राकृतत्वात् , साष्टानि पदानि पश्चाद| पसृत्य दशाङ्गुलिमञ्जलिं मस्तके कृत्वा प्रयत: 'अहसयविसुद्धगंठजुत्तेहिं' इति विशुद्धो-निर्मलो लक्षणदोषरहित इति भावः यो प्रन्थः-शब्दसंदर्भस्तेन युक्तानि विशुद्धग्रन्थयुकानि अष्टशतं च तानि विशुद्धग्रन्थयुक्तानि च तैः 'अर्थयुक्तैः' अर्थसारैः अपुनरुक्तैः। महावृत्तः, तथाविधदेवलब्धेः प्रभाव एषः, संस्तौति संस्तुत्य वाम जानुं 'अञ्चति' उत्पाटयति दक्षिणं जानुं धरणितले 'निवाडेई' इति निपातयति लगयतीत्यर्थः 'त्रिकत्वः' तीन वारान मूर्बानं धरणितले 'नमेइ'त्ति नमयति नमयित्वा चेषत्प्रत्युन्नमयति, ईषत्प्रत्युग्नम्य कटकत्रुटितस्तम्भितौ भुजौ 'संहरति सक्कोचयति, संहृत्य करतलपरिगृहीतं शिरस्थावत मस्तकेऽजलि कृत्वैवमबादीन्-'नमोऽत्यु ण'मित्यादि, नमोऽस्तु णमिति वाक्यालङ्कारे देवादिभ्योऽतिशयपूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तेभ्यः, सूत्रे षष्ठी "छद्विविभत्तीएँ भन्नई चउत्थी" इति प्राकृतलक्षणात् , ते चाईन्सो नामादिरूपा अपि सन्ति ततो भावात्प्रतिपस्यर्थमाह-भगवद्भ्यः' भगः-समयैश्वर्यादिलक्षणः स एषागस्तीति भगवन्तस्तेभ्यः, आदि:-धर्मस्य प्रथमा प्रवृत्चिस्तत्करणशीला आदिकरास्तेभ्यः, तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति दीप अनुक्रम [१८०] *24 -- विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~512~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्रतिपत्ती विजयदे| वकृता जिनपूजा उद्देशः २ सूत्रांक [१४२] सू०१४२ दीप अनुक्रम [१८०] श्रीजीवा-18तीर्थ तस्करणशीलास्तीर्थकरातेभ्यः, स्वयं-अपरोपदेशेन सम्यग्वरबोधिप्रात्या बुद्धा मिध्यात्वनिद्रापगमसम्बोधेन स्वयंसंबद्धास्तेभ्यः जीवाभि० तथा पुरुषाणामुत्तमाः पुरुषोत्तमाः, भगवन्तो हि संसारमप्यावसन्तः सदा परार्थव्यसनिन उपसर्जनीकृतस्वार्थी उचितक्रिया- मलयगि- वन्तोऽदीनभावाः कृतज्ञतापतयोऽनुपहत्तचित्ता देवगुरुबहुमानिन इति भवन्ति पुरुषोचमास्तेभ्यः, तथा पुरुषाः सिंहा इव कर्मगजान् रीयावृत्तिः प्रति पुरुषसिंहास्तेभ्यः, तथा पुरुपा वरपुण्डरीकाणीव संसारजलासङ्गादिना धर्मकलापेनेति पुरुषवरपुण्डरीकाणि तेभ्यः, तथा पुरुषा। वरगन्धहस्तिन इव परचक्रदुर्भिक्षमारिप्रभृतिक्षुद्रगजनिराकरणेनेति पुरुषवरगन्धहस्तिनस्तेभ्यः, तथा लोको-भष्यसरवलोकसतस्य । ॥२५५॥ सकलकल्याणैकनिवन्धनतया भव्यखभाषेनोत्तमा लोकोत्तमास्तेभ्यः तथा लोकस्य-भव्यलोकस्य नाथा-योगक्षेमतो लोकनाथास्तेभ्यः, तत्र योगो-बीजाधानोद्भेदपोषणकरणं क्षेम-तदुपद्रवाद्यभावापादनं, तथा लोकस्य-प्राणिलोकस्य पञ्चास्तिकायासकस्य वा हितोपदेशेन | सम्यकप्ररूपणया वा हिता लोकहितास्तेभ्यः, तथा लोकस्य-देशनायोग्यस्य विशिष्टस्य प्रदीपा-येशनांशुभिर्यथाऽवस्थितवस्तुप्रकाशका| लोकप्रदीपालेभ्यः, तथा लोकस्य-उत्कृष्टमते व्यसवलोकस्य प्रद्योतनं प्रद्योतः प्रद्योतकत्व-विशिष्टज्ञानशक्तितत्करणशीला लोकप्रयो। तकराः, तथा च भवन्ति भगवत्प्रसादात् तत्क्षणमेव भगवन्तो गणभृतो विशिष्टज्ञानसम्पत्समन्विता यदशाद्' द्वादशाङ्गमारचयन्तीति तेभ्यः, तथाऽभयं-विशिष्टमासनः स्वास्थ्य निःश्रेयसधर्मभूमिकानिबन्धनभूता परमा धृतिरिति भावः, तद् अभयं ददतीत्यभयदास्तेभ्यः, सूत्रे च कप्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृत लक्षणवशात् , एवमन्यत्रापि, तथा चक्षुरिव चक्षुः-विशिष्ट आमधर्मस्तत्त्वावबोधनिबन्धन श्रद्धास्वभावः, श्रद्धाविहीनस्याचक्षुष्मत इव तत्वदर्शनायोगात् , तददातीति चक्षुर्दास्तेभ्यः, तथा मागों-विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः | स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषस्तं ददतीति मार्गदास्तेभ्यः, तथा शरणं-संसारकान्तारंगतानामतिप्रबलरागादिपीडितानां समाश्वसनस्थान C0 R ॥२५५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~513~ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम [१८०] कल्पं तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसानं तद्ददतीति शरणदास्तेभ्यः, तथा बोधि:-जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिस्ता तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनरूपां ददतीति बोधिदारसेभ्यः, तथा धर्म-चारित्ररूपं ददतीति धर्मदास्तेभ्यः कथं धर्मदा: इत्याह-धर्म दिशन्तीति धर्मादेशकास्तेभ्यः, तथा धर्मस्य नायका:--स्वामिनस्तद्वशीकरणात्तत्फलपरिभोगाच धर्मनायकास्तेभ्यः, धर्मस्य सारथय इव सम्यकप्रवर्तनयोगेन धर्मसारथयस्तेभ्यः, तथा धर्म एवं वर-प्रधानं चतुरन्तहेतुत्वात् चतुरन्तं २ चक्रमिव चतुरन्तचक्रं तेन वर्तितुं शीलं येषां ते धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिनस्तेभ्यः, तथाऽप्रतिहते-अप्रतिस्खलिते ायिकत्वाद् वरे-अधाने ज्ञानदर्शने धरन्तीति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरा|भ्यः, तथा छादयति-आवरयतीति छदा-पातिकर्मचतुष्टयं व्यावृत्तं-अपगतं छा येभ्यस्ते व्यावृत्तछयानस्तेभ्यः, तथा रागद्वेष#कषायेन्द्रियपरीपहोपसर्गपातिकर्मशत्रून जितवन्तो जिनाः अन्यान् जापयन्तीति जापकास्तेभ्यो जिनेभ्यो जापकेभ्यः, तथा भवा-1 हाण स्वयं तीर्णा अन्यांश्च तारयन्तीति तीर्णास्तारकास्तेभ्यः, तथा केवलवेदसा अवगततत्त्वा बुद्धा अम्यांश्च बोधयन्तीति बोधकातेभ्यः | मुक्ता:-कृतकल्या मितितार्था इति भावः, अन्यांश्च मोचयन्तीति मोचकास्तेभ्यः, सर्वज्ञेभ्य: सर्वदर्शिभ्यः, शिव-सर्वोपद्रवरहितत्वात् | अचलं' स्वाभाविकप्रायोगिकचलनक्रियाव्यपोहात् 'अरुज' शरीरमनसोरभावेनाऽऽधिव्याध्यसम्भवात् अनन्त-केवलासनाऽनन्तलात् 'अक्षय' विनाशकारणाभावात् 'अब्याबा' केनापि विवाधयितुमशक्यत्वान् न पुनरावृत्तिर्यस्मात्तदपुनरावृत्ति, सिध्यन्ति निष्ठितार्था भवन्त्यस्यामिति सिद्धिः-लोकान्तक्षेत्रलक्षणा सैव गम्यमानत्वाद् गतिः सिद्धिगतिः २ रिति नामधेयं यस्य तस्सिद्धिगतिनामभधेयं, तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थान-व्यवहारत: सिद्धक्षेत्रं निश्चयतो यथाऽवस्थितं खं स्वरूपं, स्थानस्थानिनोरभेदोपचारातु सिद्धिगतिनाम धेयं तत्संप्राप्तेभ्यः । एवं प्रणिपात्तदण्डकं पठिला 'वंदा नमसई' इति वन्दते-ताः प्रतिमाश्चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्करोति विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~ 514~ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम [१८०] श्रीजीवा- पश्चात्प्रणिधानादियोगेनेत्येके, अन्ये लभिद्धति-विरतिमवामेव प्रसिद्धश्चैत्यवन्दनविधिरन्येषां तथाऽभ्युपगमे कायोत्सर्गासिद्धेरिति व-18 प्रतिपची जीवाभि० न्दिते सामान्येन, नमस्करोत्याशयवृद्धेरुत्थाननमस्कारेणेति, तत्त्वमन भगवन्तः परमर्षयः केवलिनो विदन्ति, ततो वन्दित्वा नमस्थित्वा विजयदेमलयगि- । यत्रैव सिद्धायतनस्य बहुमध्यदेशभागस्तत्रैवोपागच्छति उपागल्य बहुमध्यदेशभागं दिव्ययोदकधारया 'अभ्युक्षति' अभिमुखं सिञ्चति, वकृता रीयावृत्तिःअभ्युक्ष्य सरसेन गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलं ददाति, दत्त्वा कचनाहगृहीतेन करतलप्रभ्रष्टविमुक्तेन दशार्द्धवर्णेन 'कुसुमेन' कुसुम- जिनपूजा जातेन पुष्पपुलोपचारफलितं करोति कला धूपं ददाति, दत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं गृह्णाति, उहेशः२ ॥२५॥ | गृहीत्वा तेन द्वारशाखाशालभजिकाव्यालरूपकाणि च प्रमार्जयति, अमृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षणं गोशीर्षचन्दनचर्थी पुष्पाद्या-10 सू०१४२ रोपणं धूपदानं करोति, ततो दक्षिणद्वारेण निर्गस्य यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृशति, परामृश्य च बहुमभ्यदेशभागं लोमहस्तकेन प्रमार्जयति, प्रमृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षणं सरसेन गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलं मण्डलमालिखति, कचनाहगृहीतेन करतलमभ्रष्टविमुक्केन दशावणेन कुसुमेन पुष्पपुजोपचारकलितं करोति, कृत्वा धूपं ददाति, दत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पश्चिमं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तपरामर्शनं, तेन च लोमह्स्तकेन द्वारशाखाशालभतिकाव्यालरूपकप्रमार्जन, उदकधारयाऽभ्युक्षणं गोशीर्षचन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं करोति, कृत्वा यत्रै दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्योत्तरद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववद् द्वारार्च निकां करोति, कृत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पूर्वद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववत्तत्राप्यर्च निकां करोति, कला च दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य यत्रैव दाक्षिणात्य द्वारं तत्रोपाग का॥२५६॥ छति, सपागत्य पूर्ववत्तत्र पूजा विधाय तेन द्वारेण विनिर्गत्य यत्रैव दाक्षिणात्यः प्रेक्षागृहमण्डपो यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य Jal अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~ 515~ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४२ ] दीप अनुक्रम [१८०] प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... Ja Eben i “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)]. मूलं [१४२] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः बहुमध्यदेशभागो यत्रैव वज्रमयोऽशपाटको यत्रैव च मणिपीठिका यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृशति, परामृश्याक्षपादकं भणिपीठिकां सिंहासनं च प्रमार्जयति प्रमाज्योंदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनचच पुष्पपूजां धूपदानं च करोति, कृत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृह मण्डपस्योत्तरद्वारं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववहाराचैनिकां करोति कृत्वा यत्रैव दाक्षिणा त्यस्य प्रेक्षागृह मण्डपस्य पूर्वद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्वद्वारार्धनिकां करोति कृत्वा यत्रैव तस्य दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृह मण्डप दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य तत्राचैनिकां कृत्वा यत्रैव दाक्षिणात्यव्यस्तम्भसत्रोपागच्छति, उपागत्य स्तूपं मणिपीठिकां च लोमहस्तकेन प्रभृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षति सरसगोशीपचन्दनचच पुष्पाद्यारोहणधूपदानादि करोति कृत्वा च यंत्र पा खात्या मणिपीठिका यत्रैव च पाश्चात्या जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति, उपागत्य जिनप्रतिमाया आलोके प्रणामं करोतीत्यादि पूर्ववद् यावनमस्त्रिला यत्रवोत्तरा जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति, उपागत्य तत्रापि यावन्नमस्थित्वा यत्रैव पूर्वा जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति उपागल्य पूर्ववद् यावन्नमस्थित्वा यत्रैव दाक्षिणात्या जिनप्रतिमा पूर्ववत् सर्व तदेव यावन्नमस्त्रित्वा यत्रैव दाक्षिणात्य चैत्यवृक्षस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववदनिकां करोति, कृत्वा च यत्रैव महेन्द्रष्वजस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववदनिकां विधाय यत्रैव दाक्षिणात्या नन्दापुष्करिणी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृशति, परामृश्य तोरणानि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि शालभञ्जिकाव्यालरूपकाणि च प्रमार्जयति, प्रमाज्ये दिव्ययोदकधारया सिध्यति, सिक्ला सरगोशीर्षचन्दनपञ्चाङ्गुलित दानपुष्पाद्यारोहणधूपदानादि करोति, कृत्वा च सिद्धायतनमनुप्रदक्षिणीकृत्य यंत्रवोत्तरा नन्दापुष्करिणी स तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववत्सर्वं करोति, कृत्वा चौतराहे माहेन्द्रध्वजे तदनन्तरमोत्तराहे चैत्यवृक्षे तत भत्तराहे चैत्यस्तूपे, ततः पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणजिनप्रतिमासु पूर्ववत्सर्वा वक्तव्यता वक्तव्या, विजयदेव कृता जिन पूजा-अधिकार For P&Praise City ~516~ y Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --- -------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम [१८०] श्रीजीवा-1 तदनन्तरमौत्तराहे प्रेक्षागृहमण्डपे समागच्छति, तत्र दाक्षिणात्ये प्रेक्षागृहमण्डपे पूर्ववत्सर्व वक्तव्यं, तत उत्तरद्वारेण विनिर्गयौत्तराहे प्रतिपत्त जीवाभिमुखमण्डपे समागच्छति, तत्रापि दाक्षिणात्यमुखमण्डपवत्सर्वं कृत्वोत्तरद्वारेण विनिर्गमा सिद्धायतनस्य पूर्वद्वारे समागच्छति, तत्रार्च-11 | विजयदेमलयगि- निको पूर्ववत्कृत्या पूर्वस्य मुखमण्डपस्व दक्षिणोत्तरपूर्वद्वारेपु क्रमेणोक्तरूपां पूजां विधाय पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य पूर्वप्रेक्षामण्डपे समागत्य [] वकृता रीयावृत्तिःपूर्ववदर्च निकां करोति, तसः पूर्वप्रकारेणैव क्रमेण चैत्यस्तूपजिनप्रतिमाचैत्यश्नमाहेन्द्रध्वजनन्दापुष्करिणीनां ततः सभायां सुधर्माया। | जिनपूजा पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यालोके जिनसभा प्रणाम करोति, कृत्वा च यन्त्र माणवक-15 उद्देशः २ ॥२५७॥ त्यस्तम्भो यत्र बसमया गोलवृत्ताः समुद्र कास्त नागत्य समुद्रकान् गृहाति, गृहीला च विघाटयति, विघाटा लोमहस्तकेन प्रमार्जयति, सू०१४ प्रमायौंदकधारयाऽभ्युक्षति, अभ्युक्ष्य गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, ततः प्रधानैर्गन्धमान्यैरर्थयति, अर्चयित्वा धूपं दहति, तदनन्तरं भूयोऽपि वनमयेषु गोलवृत्तसमुद्र केषु प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य तान् वनमयान गोलवृत्तसमुद्रकान स्वस्थाने प्रतिनिक्षिपति, प्रतिनिक्षिप्य तेषु। पुष्पगन्धमास्यवस्त्राभरणान्यारोपयति, ततो लोमहस्तकेन माणवक चैत्यस्तम्भ प्रमार्योदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति, कृत्वा सिंहासनप्रदेशे समागत्य सिंहासनस्य लोमहस्तकेन प्रमार्जनादिरूपां पूर्ववदर्चनिको करोति, कृत्वा यत्र मणिपीठिका यत्र च देवशयनीयं तत्रोपागत्य मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य च प्राग्वदर्च निकां करोति, तत उक्तप्रकारेणैव क्षुल्लकेन्द्रध्वजपूजां करोति, कृत्वा च यत्र चोप्पालको नाम प्रहरणकोशस्तत्र समागत्य लोमहसोन परिघरत्रप्रमुखाणि प्रहरणरजानि प्रमार्जयति, प्रमाज्योंदकधारयाऽभ्युक्षणं चन्दनचर्चा पुष्पाचारोपणं धूपदानं करोति, कृत्वा सभायाः सुधर्माया बहुमध्यदेशभागेऽर्च निकां पूर्ववत्करोति, कुला सभाया: सुधर्माया दक्षिणद्वारे समागत्यार्च निकां पूर्ववत्करोति, ततो दक्षिणद्वारे विनिर्गच्छति, इत ऊई यथैव सिद्धायत-16 P ॥२५७। Jansar अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ट्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~517~ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम [१८०] नानिष्कामतो दक्षिणद्वारादिका दक्षिगनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना पुनरपि प्रविशत उत्तरनन्दापुष्करिणीप्रभूतिका उत्तरान्ता ततो द्वितीय है। वार निकामतः पूर्वद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानार्च निका वक्तव्या तथैव मुधर्माया: सभाया अप्यन्यूनातिरिक्ता द्रष्टव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिण्या अनिका कृलोपपातसभा पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य च मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य तदनन्तरं बहुमध्यदे-17 शभागे प्राग्वदर्चनिको विद्याक्ति, नतो दक्षिणद्वारेण समागल्य सस्वार्च निकां कुरुते, अत ऊर्द्धमत्रापि सिद्धायतनबदक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्चनिका वक्तव्या । ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतोऽपक्रम्य इदे समागत्य पूर्ववत्तोरणार्थनिकों करोति, कला पूर्वद्वारेणाभिषेकसभायां प्रविशति, प्रविश्य मणिपीठिकायाः सिंहासनस्याभिषेकमाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य च पूर्ववदर्चनिको क्रमेण | करोति, तदनन्तरमत्रापि सिद्धायतनबदक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्थनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीत: पूर्वद्वारेण व्यवसायसभां प्रविशति प्रविश्य पुस्तकरत्नं लोमहस्तकेन प्रमृत्योदकधारयाऽभ्युध चन्दनेन चर्चयित्वा बरगन्धमाल्यैरर्च यिखा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति. तदनन्तरं मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेणार्च निकां करोति, तदनन्तरम-10 वापि सिद्धायवनबदक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानार्च निका वक्तव्या, नतः पूर्वनन्दापु-करिणीतो बलिपीठे समागत्य तस्य बहुमध्यदेशभागे पूर्ववदर्च निकां करोति, कृत्वा चोत्तरपूर्वस्यां नन्दापुष्करिण्यां समागत्य तस्यान्तोरणेषु पूर्ववर्चनिको कृलाऽऽभियोगिकान देवान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीन-'खिप्पामेवे त्यादि सुगम यावन् 'एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणति' नवरं शृङ्गाटकत्रिकोण स्थान त्रिक-यत्र रथ्यानयं मिलति चतुष्क-चतुष्पथयुक्तं चत्वरं-बहुरध्यापातस्थानं चतुर्मु-यस्माचतसृप्वपि दिक्षु पन्थानो निस्सरन्ति महापथो-राजपथः शेषः सामान्यः पन्थाः प्राकार:-प्रतीत; अट्टालका:-प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषाः चरिका-अष्टह विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~ 518~ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] सू० १४२ दीप अनुक्रम [१८०] श्रीजीवा-दासप्रमाणो नगरमाकारान्तरालमार्गः द्वाराणि- प्रासादादीनां गोपुराणि-प्राकारद्वाराणि तोरणानि-द्वारादिसम्बन्धीनि आगत्य रमन्तेऽत्र ३ प्रतिपत्तौ जीवाभिमाधषीलतागृहादिषु दम्पत्य इति स आरामः पुष्पादिसवृक्षसलमुत्सवादी बहुजनोपभोग्यमुद्यानं सामान्यवृक्षगृन्दं नगरासन्न काननं || | विजयदेमलयगि- नगरविप्रकृष्ट वनं एकानेकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो बनपण्डः एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनराजी ।। 'तए ण'मित्यादि, ततः स बिजयो वकृता रीयावृत्तिःहादेवो बलिपीठे बलिविसर्जनं करोति, कुल्ला च यत्रैबोत्तरनन्दापुष्करिणी तत्रोपागच्छति, उपागत्योत्तरपूर्वी नन्दा पुष्करिणी प्रदक्षिणीकु- जिनपूजा सर्वन पूर्वतोरणेनानुप्रविशति, अनुप्रविश्य पूर्वत्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य हस्तपादौ प्रक्षालयति, प्रक्षाल्य नन्दापुष्क- उद्देशः२ ॥२५८॥ रिणीतः प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य चतुर्भिः सामानिकसहस्रश्चतमृभिरप्रमहिपीभिः सपरिवाराभिस्तिमृभिः पर्षद्भिः समभिरनीकैः सप्तभि-11 रनीकाधिपतिभिः षोडशभिरामरक्षदेवसहखैरन्यैश्च बहुभिर्विजयराजधानीवास्तव्यैर्वानमन्तरैर्देवैर्देवीभिश्च साद संपरिखतः सर्वा याबदू दुन्दुभिनिर्घोषनादितरवेण विज याया राजधान्या मध्यंमध्येन चौब सभा सुधर्मा तत्रोपागच्छति, उपागलय सभा सुधी पूर्वद्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः | | सन्निषण्णः ।। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरछिमेणं पत्तेयं २ पुवणत्थेसु भहासणेसु णिसीयंति । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पुरथिमेणं पत्तेयं २ पुषणत्धेसु भहासणेमु णिसीयंति। तए णं तस्स विजयस्स २५८॥ देवस्स वाहिणपुरस्थिमेणं अभितरियाए परिसाए अट्ट देवसाहस्सीओ पत्तेयं २ जाब णिसी CASESS अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~519~ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------- ---------- मूलं [१४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४३] - - दीप अनुक्रम यंति । एवं दक्खिणेणं मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ जाय णिसीदति । दाहिणपचस्थिमेणं याहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पत्तेजाव णिसीदति । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पचत्थिमेणं सत्त अणियाहिवती पत्तेयं २ जाव णिसीयंति । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पुरस्थिमेणं दाहिणेणं पचस्थिमेणं उत्तरेणं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तेयं २ पुब्वणत्थेसु महासणेमु णिसीदंति, तंजहा-पुरस्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ जाव उत्तरेणं ४ ॥ ते णं आयरक्खा सन्नद्धवद्धवम्मियकवया उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्धगेबेजविमलवरचिंधपहा गहियाउहपहरणा तिणयाई तिसंधीणि बहरामया कोडीणि धणूई अहि गिज्झ परिपाइयकंडकलावा णीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो चारूपाणिणो चम्मपाणिणो खग्गपाणिणो दंडपाणिणो पासपाणिणो णीलपीयरत्राचावचारुचम्मखग्गदंडपासवरधरा आयरक्रवारक्खोवगा गुत्ता गुत्तपालिता जुत्ता जुत्तपालिता पत्तेयं २ समयतो विणयतो किंकरभूताविष चिट्ठति । विजयस्स गं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णसा?, गो०! एग पलिओवमं ठिती पण्णता, विजयस्स णं भंते! देवस्स सामाणियाणं देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता?, एग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, एवंमहिडीए एवंमहजुतीए एवंमहत्यले एवंमहायसे एवंमहामुक्खे एवंमहाणुभागे विजए देवे २॥ (सू०१४३) -- [१८१] - % जीच०४४४ E5 ~ 520~ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- --------- मूलं [१४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४३] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- ततस्तस्य विजयप देवस्यापरोत्तरेण-अपरोत्तरस्यां दिशि एवमुत्तरस्यानुत्तरपूर्वम्यां दिशि च चत्वारि २ सामानिकदेवसहस्राणि चतुर्दा प्रतिपत्ती जीवाभिः भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पूर्वस्यां दिशि चतस्रोऽपमहिप्यश्चतुर्यु भद्रासनेषु निषीदन्ति, ततस्तस्य विजयस्य विजयदेमलयगि- देवस्य दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरिकायाः पर्षदोऽष्टौ देवसहस्राणि अष्टासु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य दक्षिणस्यांका वपरिवाररीयावृत्तिः दिशि मध्यमिकाया: पर्षदो दश देवसहस्राणि दशसु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पश्चिमायां दिशि बा- स्थित्यादिः शायाः पर्षदो द्वादश देवसहस्राणि द्वादशसु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पश्चिमायां दिशि समानीकाधि- उद्देशः२ ॥२५९॥ पतयः सप्तसु भद्रासनेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवम्य सर्वतः समन्तान् सर्वासु दिक्षु सामस्त्येन पोडश आत्मरक्षकदेवसहस्राणि सू०१४३ दापोडशसु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति, तद्यथा-चत्वारि सहस्राणि चतुर्यु भद्रासनसहखेषु पूर्वस्यां दिशि, एवं दक्षिणस्यां दिशि, एवं प्रत्येकं पश्चिमोत्तरयोरपि ।। ते चामरक्षाः सन्नबद्धवर्मितकवचाः, कवचं-तनुत्राणं वर्म-लोहमयकुतूलिकादिरूपं संजातमस्मिन्निति वमितं सन्नद्धं शरीरे आरोपणान पद्धं गाढतरबन्धनेन बन्धनान् वर्मितं कवचं यैस्ते सन्नपद्धर्मितकवचाः, 'उप्पीलियसरासणपट्टिया' इति उत्पीडिता-गाढीकृता शारा अस्यन्ते-क्षिप्यन्तेऽस्मिन्निति शरासन:-इपुधिस्तम्य पट्टिका येस्त्पीडितशरासनपट्टिकाः 'पिणद्धगेवेजविमलवरचिंधपट्टा' इति पिनत प्रवेय-प्रीवाभरणं विमलबरचिह्नपदृश्व गैस्ते पिनद्धबरबविमलवरचिह्नपट्टा: 'गहियाउहपहरणा' इति आयुध्यसेऽनेनेत्यायुध-खेटकादि प्रहरण-असिकुन्ताहि, गृहीतानि आयुधानि प्रहरणानि च यैस्ते गृहीतायुधप्रहरणा: 'त्रिनतानि' आदिमध्यावसानेषु नमनभावान् 'त्रिसन्धीनि' आदिमध्यावसानेषु सन्धिभावान् , यन्त्रमयकोटीनि धषि अभिगुह्म 'परियाइयकंडकलावा' इति पर्यात्त काण्डकलापा विचित्रकापडकलापयोगान् , केचित् 'नीलपाणय' इनि नील: काण्डकलाप [१८१] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~521~ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- --------- मूलं [१४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत LOMAC सूत्रांक [१४३] दीप अनुक्रम इति गम्यते पाणी येषां ते नीलपाणयः, एवं पीतपाणयः रक्तपाणय:, चापं पाणी येषां ते चापपाणयः, चारु:-प्रहरणविशेषः पाणौ येषां ते चारुपाणयः, चर्म-अङ्कमाल्योराच्छादनरूपं पाणी येषां ते चर्मपाणयः, एवं दण्डपाणयः खड्गपाणयः पाशपाणयः, एतदेय ||3|| च्या चष्टे-यथायोगं नीलपीतरक्तचापचारुचर्मदण्डपाशवरा आत्मरक्षाः, रक्षामुपगच्छन्ति-तदेकचित्ततया तत्परायणा वर्तन्त इति रक्षोपगा: 'गुप्ताः' न स्वामिभेदकारिणः तथा गुप्ता-पराप्रवेश्या पालि:-सेतुर्वेषां ते गुप्तपालिकाः, तथा 'युक्ताः सेवकगुणोपेततयो-| चिताः तथा युक्ता-परस्परं बद्धा न तु बृहृदन्तराला पालिर्येषां ते युक्तपालिकाः, प्रत्येक प्रत्येक समयत:-आचारत आचारेणेत्यर्थः बिनयतश्च किङ्करभूता इव तिष्ठन्ति, न खलु ते किङ्कराः, किन्तु तेऽपि मान्याः, तेषामपि पृथगासननिपातनात् , केवलं ते तदानीं | निजाचारपरिपालनतो विनीतत्वेन च तथाभूता इव तिष्ठन्ति तदुक्तं किङ्करभूता इवेति | 'तए णं से विजए' इत्यादि सुप्रतीतं यावद्विजयदेववक्तव्यतापरिसमामिः ।। तदेवमुक्ता विजयद्वारवक्तव्यता. सम्प्रति वैजयन्तद्वारवक्तव्यतामभिधित्सुराह कहिणं भंते ! जंबुद्दीवस्स वेजयंते णामं दारे पण्णते?, गोयमा! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स दक्षिणेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अबाधाए जंबुद्दीवदीवदाहिणपरंते लवणसमुद्ददाहिणद्वस्स उत्तरेणं एत्थ णं जंबुद्दीवस्स २ वेजयंते णामं दारे पण्णसे अट्ट जोयणाई उई उच्चत्तेणं सवेव सब्बा वत्तब्वता जाव णिचे । कहि णं भंते ! रायहाणी?, दाहिणे णं जाव वेजयंते देवे २॥ कहिणं भंते! जंबुद्दीवस्स २ जयंते णाम दारे पण्णत्ते?, गोयमा! वहीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स पञ्चत्थिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई जंबुद्दीवपञ्चत्थिमपेरंते लवणसमुद्दपचत्थिमद्धस्स पुर [१८१] % ~522~ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१४४-१४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [१४४ -- प्रतिपत्ती वैजयन्तादीनि द्वा राणि सू०१४४ द्वारान्तरं | उद्देशः २ सू०१४५ - -१४५] श्रीजीवा- छिमेणं सीओदाए महाणदीए उपि एस्थ णं जंबुद्दीवस्स जयंते णाम दारे पण्णत्ते, तं चेव से जीवाभि पमाणं जयंते देवे पचत्थिमेणं से रायहाणी जाव महिहीए ॥ कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स अपरामलयगि-14 इए णाम वारे पपणते?, गोयमा! मंदरस्स उत्तरेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अथाहाए जंबुरीयावृत्तिः दीवे २ उत्तरपेरते लवणसमुदस्स उत्तरद्धस्स दाहिणणं एस्थ णं जंबुद्दीवे २ अपराहए णामं दारे पणते तं व पमाण, रायहाणी उत्तरेणं जाव अपराइए देवे, चउण्हवि अपणंमि जंबुद्दीवे ॥ 1॥२६॥ (सू०१४४) जंबुद्दीवस्त णं भंते! दीवस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पपणते?, गोयमा। अउणासीति जोयणसहस्साई बावणं च जोयणाई देसूर्ण च अद्धजोयणं दारस्स य२ अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ॥ (सू०१४५) 'कहिणं भंते' इत्यादि सर्व पूर्ववत् , नबरमन्त्र वैजयन्तस्य द्वारस्य दक्षिणतस्तिर्यगसहयेयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिक्रम्येति वक्तव्यं, शेष प्राग्वत् ।। एवं जयन्तापराजितद्वारवक्तव्यताऽपि वाच्या, नवरं जयन्तद्वारस्य पश्चिमायां दिशि, अपराजितद्वारस्योत्तरतस्तिर्यगसयेयान द्वीपसमुद्रान् व्यतित्रज्येति वाच्यम् ॥ सम्प्रति विजयादिद्वाराणां परस्परमन्तरं प्रतिपिपादयिषुरिदमाह-'जंबुद्दीवस्स | 'मित्यादि, जम्बूद्वीपस्य णमिति प्राग्वन् भदन्त ! द्वीपस्य सम्बन्धिनो द्वारस्य च द्वारस्य चैतत् कियत्प्रमाणाबाधया-अन्तरित्वा प्रतिघातेनान्तरं प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! एकोनाशीतियोजनसहस्राणि द्विपञ्चाशद् योजनानि देशोनं चाईयोजनं द्वारस्य च द्वारस्य चाबाधयाऽन्तरं प्रशतं, तथाहि-चतुर्णामपि द्वाराणां प्रत्येकमेकैकस्य कुख्यस्य द्वारशाखापरपर्यायस्व बाहल्यं गन्यूतं द्वाराणां च वि दीप अनुक्रम [१८२ 170-2 -१८३] JaEST अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~523~ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१४४-१४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -- - - प्रत सूत्रांक [१४४-१४५] |स्तारः प्रत्येकं २ चत्वारि २ योजनानि, ततश्चतुर्वपि द्वारेषु सर्वसङ्ख्यया कुख्य द्वारप्रमाणमष्टादश योजनानि, जम्बूद्वीपस्य च परिधिस्तिस्रो लक्षाः षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके ११६२२७ कोशत्रयं ३ अष्टाविंशं धनुःशतं १२८ त्रयोदशाङ्गुलानि एकमर्धाङ्गुल १३॥ मिति, असमाञ्च जम्बूद्वीपपरिधेः सकाशात्तानि कुड्यद्वारपरिमाणभूतान्यष्टादश योजनानि शोध्यन्ते, शोधितेषु च तेपुर परिधिसत्को योजनराशिरेवरूपो जात:-तिम्रो लक्षा: षोडश सहस्राणि द्वे शते नवोत्तरे ३१६२०९, शेषं तथैव, ततो योजनराशेश्चतुभिभीगो हियते, लब्धानि योजनानामेकोनाशीतिः सहस्राणि द्विपञ्चाशदधिकानि गम्यूतं चैकं ७९०५२ को० १, यानि च। परिधिसत्कानि त्रीणि गव्यूतानि तानि धनुस्खेन क्रियन्ते लब्धानि धनुषा पट् सहस्राणि, यदपि च परिधिसत्कमष्टाविंशं धनुःशतं | तदप्येतेपु धनुःषु मध्ये प्रक्षिप्यते, ततो जावो धनराशिरेकषष्टिः शतान्यष्टाविंशत्यधिकानि ६१२८, एपां चतुर्भािगो हियते, लब्धानि | धनुपां पश्चदश शतानि द्वात्रिंशदधिकानि १५३२, यान्यपि च त्रयोदशाङ्गुलानि तेषामपि चतुर्भिर्भागो हियते, लब्धानि त्रीणि अङ्ग-15 लानि, एतदपि सर्व देशोनमेकं गब्यूतमिति लब्धं देशोनगईयोजनं, उक्तं च-कुंड्दुवारपमाणं अट्ठारस जोयणाई परिहीए । सोपहिय चउहि विभत्तं इणमो दारंतरं होई ॥ १॥ अउणासीइ सहस्सा बावण्णा अद्धजोयणं नूर्ण । दारस्स य दारस्स य अंतरमेयं |विणिद्दिष्ट ।। २ जंबुद्दीवस्स ण भंते ! दीवस्स पएसा लवणं समुदं पुट्ठा?, हंता पुट्ठा । तेणं भंते ! किं जंबुद्दीवे २ कुड्यद्वारप्रमाणमाद योजनानि परिधेः । शोधयित्वा बभबिके इदं द्वारान्तरे भवति ॥ १॥ एकोनाशीतिः सहस्राणि विपणन अयोजनमून द्वारस्य वारस्य बान्तरमेतत् बिनिदिष्ट ॥२॥ दीप अनुक्रम [१८२-१८३] 454545% 6-4%2 ~524~ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- --------- मूलं [१४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 69 प्रत सूत्रांक [१४६] दीप अनुक्रम [१८४] श्रीजीवा- लवणसमुद?, गोयमा! जबुद्दीवे दीवे नो खलु ते लवणसमुद्दे ।। लवणस्म णं भंते ! समुहस्स पदेसा ३ प्रतिपत्तो जीवाभि जंबूडीवं दीर्थ पुट्ठा?, हंता पुट्ठा । ते णं भंते ! किं लवणसमुदे जंबूहीवे दीवे?, गोयमा! लषणे णं स्पोत्पामलयगिते समुदे नो खलु ते जंबुद्दीवे दीने ॥ जंबुद्दीवेणं भंते! दीये जीवा उद्दाइत्ता २ लवणसमुद्दे तपृच्छा रीयावृत्तिः पचायति?, गोषमा! अत्धेगतिया पञ्चायति अत्थेगतिया नो पञ्चायति ॥ लवणे णं भंते ! समुदे उद्देशः२ जीवा उदाइसा २ जंबुद्दीवे २ पचायंति?, गोयमा! अन्धेगतिया पचायंनि अत्थेगतिया नोप सू०१४६ ॥२६१॥ वायति ।। (मु०१४६) 'जंबूद्दीवस्म णं भंते !' इत्यादि, जम्बूद्वीपख णमिति पूर्ववत् भदन्त ! द्वीपस्य 'प्रदेशाः' स्वसीमागतचरमरूपा लवणं समुद्र 'स्पृष्टाः? कतरिक्तप्रत्ययः, स्पृष्ठपन्तः, काका पाठ इति प्रार्थत्वावगतिः, पुल्छतधायमभिप्राय:-यदि स्पृष्ठास्तहिं वक्ष्यमाणं पृच्छयते | Mनो चेत्तर्हि नेति भावः, भगवानाह-इंतेत्यादि, 'हन्त' इति प्रत्यवधारणे स्पृष्टाः । एवमुक्ते भूयः पृच्छति-ते णमित्यादि, ते भ-* दन्त ! स्वसीमागत चरमरूपाः प्रदेशाः किं जम्बूद्वीपः ? किंवा लवणसमुन्द्रः, इह यद् येन संस्पृष्ट तत्किञ्चित्तवृषपदेशमझुवानगुपलधं यथा मुराष्ट्रेभ्यः संकान्तो मगधदेशं मागध इनि, किश्चित्पुनर्न तवपपदेशभाग यथा तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाऽङ्गुलिज्येष्ठैवेति, इहापि |च जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा लवण समुद्रं स्व न्तसनो ख्यपदेशचिन्तायां संशय इति प्रभः, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीप एवं णमिति | निपातस्यावधारणार्थत्वात् ते चरमप्रवेशा द्वीपो, जम्बूद्वीपसीमावर्तित्वान् , न खलु ते जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा लवणसमुद्रः, (न ते) जम्बूद्वी-IM॥२६१।। पसीभानमतिक्रम्य लवणसमुद्रसीमानमुपगताः किन्नु स्वमीमागता एत्र लवणसमुद्रं स्पृष्टवन्तस्तेन तटस्थतया संस्पर्शभावान् तर्जन्या | अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 525~ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४६ ] दीप अनुक्रम [१८४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], मूलं [ १४६ ] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित संस्पृष्टा ज्येष्ठाङ्गलिरिव ते स्वव्यपदेशं भजन्ते न व्यपदेशान्तरं तथा थाह न खलु ते जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा लवणसमुद्रः । एवं 'लवणस्स णं भंते! समुदस्स पदेसा' इत्यादि लवणविषयमपि सूत्रं भावनीयम् || 'जंबुद्दीवे णं भंते!' इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे ये जीवास्ते 'उद्दाइता' इति 'अवद्राय २' मृत्वा २ लवणसमुद्रे 'प्रत्यायान्ति' आगच्छन्ति ?, भगवानाह - गौतम! अस्तीति निपातोऽत्र बहुर्थः, सन्त्येकका जीवा ये 'अदद्रायावाय' मृत्वा २ लवणसमुद्रे प्रत्यायान्ति सन्येकका ये न प्रत्यायान्ति, जीवानां तथा तथा स्वस्वकम्मैवशतया गतिवैचियसम्भवान् । एवं बणसूत्रमपि भावनीयं ॥ सम्प्रति जम्बूद्वीप इति नाम्रो निबन्धनं जिज्ञासिषुः प्रभं करोति सेकेणणं भंते! एवं चनि जंबूदीव २१, गोयमा ! जंबुद्दीचे २ मंदरस्स स्स उत्तरेण णीवंत दाहिणं मालवंतस्स वक्वारपव्वयस्स पञ्चत्थिमेणं गंधमायणस्स वक्खारपन्चयस्स पुरत्थमेणं एत्थ उत्तरकुरा णाम करा पण्णत्ता पाईणपडीणायना उदीर्णदाहिणचिच्छिण्णा अद्वदसंाणसंहिता एकारस जोयणसहस्साई अट्ट वायाले जोयणसते दोषिण य एकोणवीसविभागे जोयणस्स विक्खंभेणं ॥ तीसे जीवा पाईणपटीणायता दुहओ वक्खारपव्वयं पुट्टा, पुर freely aste पुरथिमि वक्खारपन्वतं पुट्टा पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए पचत्थिमिद्धं वक्खाrasai पुट्टा, ari जोयणसहस्सारं आयामेणं, तीसे धणुपद्धं दाहिणेणं सद्धिं जोयणसह For P&False City ~ 526~ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक प्रतिपत्ती उत्तरकुरुमा वर्णनं उद्देशः २ सू०१४७ [१४७] ससाई यतारि य अहारसुत्तरे जोयणसने दुवाल स य एकूणवीसतिभाए जोयणस्स परिक्वेवेणं पण्णत्ते ॥ उत्तरकुराए णं भंते! कुराए करिसए आगारभावपडोयारे पण्णसे?, गोयमा। बहसमरमणिज्जे भूमिभागे पपणले, से जहा णाम ए आलिंगपुक्खरेति वा जाव एवं एकोयदीववतब्वया जाव देवलोगपरिग्गहा गं ते मणुयगणा पण्णता समणाउसो!, णवरि हम णाणतंउधणुसहस्समूसिता दोछप्पना पिट्ठकरंडसता अट्ठमभत्तस्स आहारट्टे समुप्पजति तिषिण पलिओवमाई देसूणाई पलिओवमस्सासंखिजहभागेण ऊणगाई जहन्नेणं तिन्नि पलिओवमाई उकोसेणं एकूणपण्णराइंदियाई अणुपालणा, सेसं जहा एगूरुयाणं ।। उत्तरकुराए णं कुराए छविहा मणुस्सा अणुसजंति, तंजहा-पम्हगंधा १ मियगंधा २ अम्ममा ३ सहा ४ तेयालीसे ५ सणिचारी ६ (सू०१४७) 'सेकेणडेणं भंते ! इत्यादि, अथ केन 'अर्थेन' केन कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते जम्बूद्वीपो द्वीप: इति, भगवानाह ॥२६२॥ दीप अनुक्रम [१८५]] १ यद्यपि सूपकारः जहा एगोरुपमतम्यवेति वाक्येनातिदिश्यते उत्तरकुरखरूपमशेष तथापि व्याख्यातमत्राशेष तत्, म कोशकद्वीपखवायसरे तांतशोऽपि व्याख्यातो वर्णनस्य, व्याख्यायकसूरिभिधान्यत्रातिदिश्यते कल्पमाविवर्णने यथोत्तरकुरुष्विति नात्र तं मूलसूत्रं न च परावर्तिता व्याख्या, परमेतदनुमीयते गन्त X टीकाकृद्धि प्राप्ता आदी अनव कल्पवृक्षादिवर्णनयुकाः प्रथमोपस्थितिकोरुकवर्णनस्थाने च ता हिता अति विष्टाः स्युः, चिन्यमेतावदेवात्र यन सूत्रकारल्याडवर्णनीय-12 पदार्थातिदेशस्तव सूत्रे, तत्र सामान्येन वर्णनं स्वादन विशेषेणेति युक्त विवेचनमन्त्र तत्रभवदीयादानुसारेण वा, अत एवात्र प्रतिमूत्रं प्रतीकातिमेलयगिरिशदानाम् . ॥२६२॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् उत्तरकुरु-देवकुरु अधिकारस्य विशद्-वर्णनं आरभ्यते ~ 527~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७ ] दीप अनुक्रम [१८५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र )], मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जम्बूद्वीपे णमिति बाक्यालङ्कारे द्वीपे मन्दरपर्वतस्य 'उत्तरेण' उत्तरतः नीलयतो वर्षधरपर्वतस्य 'दक्षिणेन' दक्षिणतो गन्धमादनस्य वक्षस्कार पर्वतस्य 'पुरत्थिमेणं'ति पूर्वस्यां दिशि माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमायाम् 'अत्र' एतस्मिन् प्रदेशे उत्तरकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञप्ताः, सूत्र एकवचननिर्देशोऽकारान्ततानिर्देशश्च प्राकृतत्वात्, ताञ्च कथम्भूताः ? इत्याह- 'पाईणे' त्यादि. प्राचीनापाचीनायता उदग्दक्षिणविस्तीर्णा अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिता एकादश योजनसहस्राण्यष्ट्र योजनशतानि 'द्विचत्वारिंशानि ' द्विचखारिंशदधिकानि द्वौ चैकोनविंशतिभागी योजनस्य 'विष्कम्भेन' दक्षिणोत्तरतया विस्तारेण, तथाहि - महाविदेहे मेरोरुत्तरत उत्तरकुरवो दक्षिणतो दक्षिणकुरवः, ततो यो महाविदेहक्षेत्रस्य विष्कम्भस्तस्मान्मन्दरविष्कम्भे शोधिते यदवशिष्यते तस्यार्द्ध यावत्परिमाणमेतावत्प्रत्येकं दक्षिणकुरूणामुत्तरकुरूणां च विष्कम्भः उक्तं च-- "बदेहा विक्खभा मंदरविक्खंभसोहियङ्कं जं कुरुवित्रखभं जाण" इति, स च यथोक्तप्रमाण एव, तथाहि महाविदेहे विष्कम्भन्त्रयस्त्रिंशद् योजनसहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि योजनानां चतस्रः कलाः ३३६८४ क० ४, एतस्मान्मेरुविष्कम्भो दृश योजनसहस्राणि शोध्यन्ते १०००० स्थितानि पश्चात्रयोविंशतिः सहस्राणि पट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि योजनानां चतस्रः कलाः २३६८४ ० ४, एतेषाम लच्चान्येकादश सहस्राणि अष्टौ शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि योजनानां द्वे च कले ११८४२०२ ॥ 'ती' इत्यादि, तासामुत्तरकु रूणां जीवा उत्तरतो नीलवर्षेघरसमीपे प्राचीनापाचीनायता उभयतः पूर्वपश्चिमभागाभ्यां वक्षस्कारपतिं यथाक्रमं माल्यवन्तं गन्धमादनं च 'स्पृष्टा' स्पृष्टवत्ती, एतदेव भावयति - 'पुरथिमिलाए' इत्यादि, पूर्वया 'कोय्या' अग्रभागेन पूर्व वक्षस्कारपर्वतं माल्यवदभिधानं 'स्पृष्टा' स्पृष्टवती 'पश्चिमया' पश्चिमविलम्बिन्या कोट्या भिकारपर्वतं गन्धमादनाख्यं स्पृष्टा सा च जीवा For Pare & Personalise Cindy ~ 528~ www Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [१४७] ॥२६३॥ दीप अनुक्रम [१८५]] आयामेन त्रिपञ्चाशद् योजनसहस्राणि, कथमिति चेदुच्यते-इह मेरोः पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि भद्रशालवनस्य यदायामेन परिमाणं प्रतिपसौ यच मेरोविष्कम्भस्य तदेकन मीलितं गन्धमादनमाल्यवद्वक्षस्कारपर्वतमूलपृथुत्वपरिमाणरहितं यावत्प्रमाणं भवति तावदुत्तरकुरूणां उत्तरकुरुजीबायाः परिमाणम्, उक्तं च-मंदरपुम्वेणायय बावीस सहस्स भहसालवणं । दुगुणं मंदरसहियं दुसेलरहियं च कुरुजीवादी वर्णनं ॥१॥" तच्च यथोक्तप्रमाणमेव, तथाहि-मेरोः पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि प्रत्येक भद्रशालवनस्य वैयपरिमाणं द्वाविंशनियोजनसहसाणि, ततो द्वाविंशतिः सहस्राणि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जालानि चतुश्चत्वारिंशन सहम्माणि ४४१००, मेरोश्च पृथुत्वपरिमाणं दश योज- सू०१४७ नसहखाणि १००००, तानि पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि ५४०००, गन्धमादनस्य माल्यवतश्च वक्षस्कारपर्वतस्य प्रत्येक मूले पृथुत्वं पञ्च योजनशतानि, ततः पञ्च शतानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातं योजनसहन, तन् पूर्वराशेरपनीयते, जातानि त्रिपञ्चाशद् योजनसहमाणि ५३०५० ॥ 'तीसे धणुपट्ट'मियादि, तासागुत्तरकुरूणां धनुःपूर्ण 'दक्षिणेन' दक्षिणतः, तञ्च | पष्टियोजनसहवाणि चत्वारि योजनशतानि अष्टादशोत्तराणि द्वादश एकोनविंशतिभागा योजनस्य परिक्षेपेण, द्वयोरपि हि गन्धमादनमाल्यवद्वक्षस्कारपर्वतयोरायामपरिमाणमेकत्र मीलितमुत्तरकुरूणां धनुःषष्ठपरिमाणं, "आयामो मेलाणं दोण्ह व मिलिओ कुरुण धणुप?" इति वचनान् , गन्धमादनस्य माल्यवतश्च वक्षस्कारपर्वतस्य प्रत्येकमायामपरिमाणं त्रिंशद् योजनसहस्राणि द्वे शते नवोत्तरे षट् च कलाः ३०२०९क०६, उभयोश्व मिलित आयामो यथोक्तपरिमाणो भवति ६०४१८ क. १२॥ 'उत्तरकुराए णं भंते ! इत्यादि, उत्तरकुरूणां भडन्त ! कुरूणां, सूत्रे एकवचनं प्राकृतवान् , कीदृश आकारभावम्ब रूपम्य प्रन्यवनास-सम्भवः प्राप्तः ?, भगबानाहौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभाग उत्तरकुरूणां प्रज्ञप्तः, से जहानामए--आलिंगपुकवरेइ वा इत्यादि जगत्युपरि बनप-18 Elican अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~529~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र )], मूलं [ १४७ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः ण्डवर्णकरत्तावद्वयं यावतृणानां च मणीनां च वर्णो गन्धः स्पर्शः शब्द सवर्णकः परिपूर्ण उक्तो भवति, पर्यन्तसूत्रं चेदम्-'दिव्वं न स गेयं पगीयाणं भवे एयारूये ?, हंना सिया' इति । 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवे 'खुड्डा खुड्डियाओ वायीओ' इत्यादि, तथा त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि तोरणानि पर्वतका पर्वतकेच्या सनानि गृहकाणि गृहेष्वासनानि मण्डपका मण्डपेषु पृथिवीशिलापट्टकाः पूर्ववद् वक्तव्याः, तदनन्तरं चेदं वक्तव्यम्' तत्थ णं बहवे उत्तर| कुरा मणुस्सा मणुरसीओ व आसयंति सति जान कहाणं फलवित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणा विहरन्ति एतव्याख्याऽपि प्राग्वत् 'उत्तरकुराए णं भंते! कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु णमिति पूर्ववन् कुरुपु तत्र तत्र देशे 'तहिं तहिं' इति तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्र| देशे बहवः सरिकागुरुमाः नवमालिकागुल्माः कोरण्डगुल्माः बन्धुजीवकगुल्माः मनोवयगुल्मा: वीयकगुल्मा: बाणगुल्माः (कणवीरगुरुमाः) कुब्जकगुल्माः सिन्दुवार गुरुमाः जातिगुल्माः मुनरगुल्मा यूथिका गुल्मा: महिकागुल्मा: वासन्तिकगुल्माः वस्तुलगुरुमाः कस्तूलगुरुमाः सेवालगुल्मा: अगस्त्यगुस्माः मगदन्तिगुरुमाः चम्पकगुल्माः जातिगुल्माः नवनातिकागुरुमाः कुन्दगुल्मा: महाकुन्दगुल्माः, सरिकादयो लोकतः प्रत्येतव्याः गुल्मा नाम स्वस्कन्धवहुकाण्डपत्रपुष्पफलोपेताः, ततः सर्वत्र विशेषणसमासः, सरिकादीनां चेमास्तिस्रः सङ्ग्रहणिगाथा: "सेरियए नोमालिय कोरंटयबन्धुजीवगमणोजा बीवयवाणयकणवीरकुज तह सिंदुवारे य ॥ १ ॥ जाईमोग्गर तह जूहिया व तह महिया य वासंती धुलथुलसेवालगत्थिमगदंतिया चेव ॥ २ ॥ चंपकजाईनवनाइया व कुंदे तहा महाकुंदे एवमणेगागारा हवंति गुम्मा मुबा ॥ ३ ॥" "ते णं गुम्मा' इत्यादि, 'ते' अनन्तरोदिता णमिति वाक्यालङ्कारे गुल्मा: 'दशार्द्धवर्ण' पश्यवर्ण 'कुसुम' जातायेकवचनं कुसुमसमूहं 'कुसुमयन्ति' उत्पादयन्तीति भाव:, येन कुसुमोत्पादनेन कुरूणां बहुसमरम For P&Praise City ~530~ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम श्रीजीवा-रणीयो भूमिभागो 'वायविहुयग्गसालेहिं ति बातेन विधुताः-कम्पिता वातविधुनाताश्च ना अपशाखाश्च वातविधुतानशाखास्ताभिः, मूत्रे प्रतिपत्तौ जीवाभिस्त्य निर्देश: प्राकृतलान् , मुक्तो यः पुष्पपुलः स एत्रोपचार:-पूजा मुक्तपुष्पपु जोपचारतेन कलितः भियाइतीव उपशोभमानस्तिष्ठति ॥ उत्तरकुरुमलयगि-18 उत्तरकुराएणं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य २ देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे यहूनि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतलान् , हरुतालवनानि | वर्णनं रीयावत्तिःदकतालबनानि मेरुतालबनानि शालबनानि सरलवनानि सम्पर्णवनानि पूगीफलीवनानि खरीबनानि नालिकेरीवनानि कुशविकुशवि- उद्देशः२ शुद्धवृक्षमूलानि, ते च वृक्षाः मूलमंतो कंदमंतो इत्यादि विशेषण जातं जगत्युपरिवनपण्टकवर्णकवतावत्परिभाषनीयं यावद् 'अणेगसग-1 सू०१४७ 11२६४।। राजाणजोग्गगिल्लिथिलिसीयसंदमाणपडिमोयणेसु रम्मा पासाईया दरसणिजा अभिरुवा पहिरूवा' इति, भेरुतालादयो वृक्षजातिवि-||3|| शेपाः शालादयः प्रतीता: ।। 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे | वर उद्दाला: कोदाला मोहालाः कृतमाला तृत्तमाला वृत्तमाला दन्तमाला: शृङ्गमाला: शङ्खमाला: श्वेतमाला नाम 'दुमगणाः' ४ इमजातिविशेषसमूहा: प्रज्ञप्ताः तीर्थकरगणधरैः हे श्रमण! हे आयुप्मन् , ते च कथम्भूता: ? इत्याह-कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला इत्यादि प्राग्वद् यावत् 'पडिमोयणा सुरम्मा' इति ।। 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्त्र तत्र तत्र प्रदेशे यह्वस्तिलका लवकाः छत्रोपगाः शिरीपाः सप्तपर्णाः लुब्धाः धवाः चन्दना: अर्जुना: नीपाः कुट जाः कदम्बा: पनसाः शालाः तमाला: प्रियालाः प्रियङ्गवः पारापता राजवृक्षा नन्दिवृक्षाः, तिल कादयो लोकप्रतीताः, एते कथम्भूताः? इत्याह-कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला इत्यादि सर्व प्राग्वद् यावत 'पडिमोयणा सुरम्मा' इति ।। 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुपु । ॥॥२६४ ॥ तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तन्त्र तत्र प्रदेशे बहवः पद्मलता नागलता अशोकलताश्चम्पकलताभूतलता बनलता वासन्तिकलता-10 [१८५]] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~531~ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५ ] "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [3]. उद्देशकः [(द्वीप समुद्र)]. मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः जी०च० ४५ - • | अतिमुक्तकछताः कुन्दलताः श्यामलताः, एताः सुप्रतीताः, 'निचं कुसुमियाओं' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ज्ञात्र पडिरूवाओं' इति ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो धनराजयः प्रज्ञप्ताः, इदैकानेकजातीयानां वृक्षाणां पङ्कयो वनराजयस्ततः पूर्वी कसूत्रेभ्योऽस्य भिन्नार्थतेति न पौनरुक्त्यं, ताञ्च बनराजयः प्रज्ञताः कृष्णा: कृष्णाविभासा इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् तावद्वक्तव्यं यावत् 'अणेगरजाणजुग्गगिह्निथिडिसीय संमाणियपडिमोयणाओ सुरम्माओ जाव पडिरूबाओ' इति । 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो मत्ताङ्गका नाम द्रुमगणाः प्रज्ञता हे भ्रमण ! हे आयुष्यम्!, किंविशिष्टास्ते ? इत्याह-यथा से चंदप्यभमणिसाग' इत्यादि, यथा चन्द्रप्रभादयो मद्यविधयो बहुप्रकारास्तत्र चन्द्रस्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा, मणिशलाकेव मणिशलाका, वरं च तत् सीधु च वरसीधु, बरा च सा वारुणी च वरवारुणी 'सुजाबपुत्रपुष्पफलचोयनिजास सारब हुदम्ब जुतिसंभारकालसंघिय आसव' इति इहासवः पत्रादिवासक द्रव्य भेदादनेकप्रकार:, तथा चोकं प्रज्ञापनायां ठेश्यापदे रसचिन्तावसरे पत्तासवेइ वा पुष्फासवेइ वा फलासवेइ वा चोयासवे वा' ततोऽत्र निर्याससारशब्दः पत्रादिभिः सह प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः, पत्रनियससारः पुष्पनिर्याससारः फलनिर्याससारश्रोयनिर्याससारः, तत्र पत्रनिर्यासो धातकीपत्ररसस्तत्प्रधान आसवः पत्रनिर्याससारः एवं पुष्पनिर्याससारः फलनियससारश्च परिभावनीयः, चोयो गन्धद्रव्यं तन्निर्याससारधोयनिर्याससारः, सुजाता:- सुपरिपाकागताः, 'बहुद्रव्ययुक्तिसंभारा' इति बहूनां द्रव्याणामुपगृहकाणां युक्तयो - मीडनानि तासां संभारः प्राभूत्यं येषु ते बहुद्रव्ययुक्तिसंभाराः पुनः कथम्भूता: ? इत्याह- कालसं धिय' इति कालसन्धिताः सन्धानं सन्धा काले-योचित सन्धा कालसन्धा सा संजातैषामिति फालसन्धिता, तारकादिदर्शनादि For P&P Cy ~ 532~ - M Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ १४७ ] दीप अनुक्रम [१८५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र )], मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः ।। २६५ ।। श्रीजीवा- तप्रत्ययस्ततः पदद्वयपदद्वयमीलनेन विशेषणसमासः, सुजातपत्रपुष्पफलचोयनिर्याससार बहुद्रव्ययुक्तिसम्भारका सन्धितासवाः, मधुजीवाभि० मेरको मद्यविशेषौ, 'रिष्ठरत्नवर्णाभा' रिष्ठा या शास्त्रान्तरे जम्बूफलकलिकेति प्रसिद्धा, दुग्धजातिः - आस्वादतः क्षीरसदृशी, प्रसन्नामलयगि- ४ सुराविशेषः, नेलकोऽपि सुराविशेषः, शतायुर्नाम या शतवारान् शोधिताऽपि स्वस्वरूपं न जहाति, 'खज्जूरमुद्दियासार' इति अरीयावृत्तिः ॐ त्रापि सारशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, खर्जूरसारो मृडीकासारः, तत्र ण (मू) उदलखर्जूरसार निष्पन्न आसव विशेषः खर्जूरसारः, मृद्वीका - द्राक्षा तरसारनिष्पन्न आसवविशेषो मृद्वीकासारः, कापिशायितं मद्यविशेषः, सुपक:- सुपरिपाकागतो यः क्षोदरस इक्षुरसस्त निष्पन्ना १४ वरसुरा सुपकक्षोदरसवरसुरा, कथम्भूता एते मद्यविशेषाः ? इत्याह- 'वन्नगंधरसफासजुत्तबलविरियपरिणामां' वर्णेन सामर्थ्यादतिॐ शायिना एवं गन्धेन रसेन स्पर्शेन च युक्ताः सहिता बलवीर्यपरिणामा-यहेतवो वीर्यपरिणामा येषां ते तथा, किमुक्तं भवति ?परमातिशयसंपन्नैर्वर्णगन्धरसस्पर्शैर्बलहेतुभिर्षीर्यपरिणामै ओपेता इति पुनः किंविशिष्टाः ? इत्याह- 'बहुप्रकारा:' बहवः प्रकारा येषां जातिभेदेन ते बहुप्रकाराः, तथैव मत्ताङ्गका अपि द्रुमगणा मद्यविधिनोपपेता इति योगः, किंविशिष्टेन मद्यविधिना ? इत्यत आह'अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए' इति न एकः अनेक:, तत्रानेकः अनेकजातीयोऽपि व्यक्तिभेदाद्भवति तत आह-यहु-प्रभूतं विविधो-जातिभेदान्नानाप्रकारो बहुविविधः प्रभूतजातिभेदतो नानाविध इति भावः स च केनापि निष्पादितोऽपि संभाव्यते तत आह विश्रसया-स्वभावेन तथाविधक्षेत्रादिसामग्रीविशेषजनितेन परिणतो न पुनरीश्वरादिना निष्पादितो विसापरिणतः, ततः पदत्रयस्य पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्म्मधारयः, सूत्रे च स्त्रीत्वनिर्देश: प्राकृतत्वात् ते च मद्यविधिनोपपेता न ताडादिवृक्षा इवाङ्कुरादिषु किन्तु फलेषु तथा चाह - 'फलेहिं पुण्णा वीसंदंति' अन सप्तम्यर्थे तृत्तीया 'व्यत्ययोऽप्यासा' मिति वचनात् फलेषु मद्यविधिभिरिति गम्यते 'पूर्णाः' Ja Ecoma in ३ प्रतिपत्ती उत्तरकुरुवर्णनं उद्देशः २ सू० १४७ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 533 ~ ।। २६५ ॥ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------- ---------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [१४७] संभृताः 'विष्यन्दन्ति' स्रवन्ति, सामर्थ्यात्तानेवानन्तरोदितान् मद्यविधीन , कचित् 'विसद्देति' इति पाठस्तत्र विकसन्तीति व्याख्येयं, दकिमुक्तं भवति ?-तेषां फलानि परिपाकागतमद्यविधिभिः पूर्णानि स्फुटित्वा तान् मद्यविधीन मुञ्चन्तीति, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला:, मूलवन्त' इत्यादि प्राम्वद् यावत्प्रतिरूपका इति १ । 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो भृङ्गाङ्गका नाम द्रुमगणा: प्रज्ञता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! 'जहा से' इत्यादि, यथा ते करकपटककलशकर्करीपादकाचनिकाउदङ्गवा नीसुप्रतिष्ठकविष्टरपारीचषकभृङ्गारककरोटिकासरकपरकपात्रीस्थालमल्लकचपलितदकवारकविचित्रपट्टकशुक्तिचारुपीनका भाजनविधयः, एते प्रायः प्रतीताः, नवरं पादकाञ्चनिका-पादधाबनयोग्या काञ्चनमयी पात्री उदको-येनोदकमुदच्यते वा नीलन्तिका सरको-वंशमयच्छिकाः शिकाकृति: अप्रतीता लोकतो विशिष्टसंप्रदाबादाऽवसातव्याः, कथम्भूताः' इत्याह 3 -काञ्चनमणिरमभक्तिचित्राः, पुनः कथम्भूताः' इत्याह-बहुप्रकारा: एकैकस्मिन् विधाववान्तरानेकभेदभावात् , तथैव ते भृङ्गाङ्गका अपि दुमगणा: 'अणेगबहुविविहविस्ससापरिणयाए' इत्यस्य व्याख्या पूर्ववत् भाजनविधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपाः २ ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तन्त्र तत्र प्रदेशे बहवस्तुदिताङ्गका नाम मगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन !, 'जहा से' इत्यादि, यथा ते आलिझाप(मुख)म-15 दङ्गपणवपटहदर्दरककरटिडिण्डिमभम्भाहोरम्भाकणिताखरमुखीमकुन्दशलिकापिरलीवशकपरिवादिनीवंशवेणुवीणासुघोषाविपञ्चीमहती-| ISI कच्छभीरिगसिका, तत्रालिजय वाद्यत इति आलिजयः मुरवः-वाद्यविशेषः, एष यकारान्तशब्दः, मृदङ्गो-लघुमर्दलः, पणवो-भाण्ड पटहो लघुपटहो वा पटहः-प्रतीत:, दर्दरकोऽपि तथैव, करटी-सुप्रसिद्धा, डिण्डिम:-प्रथमप्रस्तावनासूचकः पणवविशेषः, भम्भा-14 AGAR दीप अनुक्रम [१८५]] ~534~ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा- टका, होरम्भा-महाटका, कणिता-काचिद् वीणा, खरमुखी-काहला, मकुन्दो-मरुजवाद्यविशेषो योऽभिलीनं प्रायो पाद्यते, श- ३ प्रतिपत्ती जीवाभि०||शिका-लघुशखरूपा तस्याः खरो मनाक् तीक्ष्यो भवति नतु शङ्खस्येवातिगम्भीरः, पिरलीवनको तृणरूपवायविशेषौ, परिवादिनी-18 उत्तरकुरूमलयगि-1 सप्तस बीवीणा वंश:-प्रतीतो वेणुः-शविशेषः सुघोषा-वीणाविशेषः, विपञ्ची-तस्त्री वीणा महती-शततत्रिका, कच्छभी रिगसिका वर्णनं रीयावृत्तिः लोकतः प्रत्येतव्या, एताः कथम्भूताः ? इत्याह-'तलतालकंसतालसुसंपउत्ता' तल-हस्तपुटं ताला:-प्रतीताः कांस्थताला:-कंसा-1 | उद्देशः२ लिया एतैः 'सुसंप्रयुक्ताः' सुष्टु-अतिशयेन सम्यग्-यथोक्तनीत्या प्रयुक्ता:-संबद्धा आतोद्यविधयः-आतोषभेदाः, पुनः कथम्भूताः सू०१४७ ॥२६॥ इत्याह-निउणगंधब्बसमयकुसलेहि फंदिया इति, निपुणं यथा भवति एवं गन्धर्वसमये-नाट्यसमये कुशलास्तैः स्पन्दिताव्यापारिता इति भावः, पुनः किंविशिष्टाः ? इत्याह-'त्रिस्थानकरणशुद्धाः' आदिमध्यावसानरूपेषु त्रिपु स्थानेषु करणेन-क्रियया यथोक्तबादनक्रियया शुद्धा अवदाता न पुनरवस्थानव्यापारणरूपदोषलेशेनापि कलकिताः, तथैव ते तुटिताङ्गका अपि हुमगणा अनेकबहुविविधविससापरिणतेन, अस्प व्याख्यानं प्राग्वन्, 'ततबिनसघन पिरेण ततं-वीणादिकं विततं-पटहादिकं पन-कांस्यतालादि शुपिरं-वंशादि, एतद्रूपेण चतुर्विधेनातोद्यविधिनोपपेताः, कुशविकृशविशुद्धवृक्षमूला: मूलवन्त इत्यादि प्रारबद् बावत्प्रतिरूपकाः ३ । 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो दीपशिखा नाम हुमगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! यथा तत् सन्ध्याविरागसमये' सन्ध्यारूपो विरुद्धस्तिमिररूपलाद्रागः सन्ध्याविरागस्तत्समवे-तवसरे नव* निधिपते:-चक्रवर्तिन इव दीपिकाचक्रवालवृन्द-हस्खो दीपो दीपिका तासां चकवालं-सर्व परिमण्डलरूपं वृन्दं दीपिकाचक्रवालवृन्द, कथम्भूतमित्याह-'प्रभूतवत्ति' प्रभूता-बहुसङ्ख्याकाः स्थूरा वा वर्तयो यत्र तत्तथा, तथा 'पलित्तनेहति पर्याप्त:-प्रतिपूर्णः स्नेह: REC-2-5 ॐ4%95 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~535~ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], ------ ---------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] लादिरूपो यस्य तन् पर्याप्तस्नेह, धणिउजालिए' इति धणियं-अत्यर्थमुज्वालितम्, अत एव तिमिरमर्दक-तिमिरनाशकं, पुनः | किविशिष्टमित्याह-कणगनिगरणकुसुमियपारियातगवणप्पगासे' कनकस्य निगरणं कनकनिगरणं मालितं कनकमिति भावः | | कुसुमितं च तत्पारिजातकवनं च कुसुमितपारिजातकवनं ततो द्वन्द्वसमासस्तद्वत्प्रकाश:-प्रभा आकारो यस्व तत्कनकनिगरणपारिजातकुसुमवनप्रकाशम् , एतावता समुदायविशेषणमुक्तम् , इदानी समुदायसमुदायिनोः कश्चिद्भेदभे)द इति ख्यापयन् समुदायविशेषणमेव | विवक्षुः समुदायिविशेषणान्याह-'कंचणमणिरयणे'त्यादि, दीपिकाभिः शोभमानमिति सम्बन्धः, कथम्भूताभिर्दापिकाभिः? अत आह-काश्चनमणिरत्नानां काञ्चनमणिरत्रमया विमला:-स्वाभाविकागन्तुकमलरहिता महार्हा-महोत्सवाहाः विचित्रा-विचित्रवर्णोपेता दण्ठा यास ताः काञ्चनमणिरत्नविमलमहार्ह विचित्रदण्डास्ताभिः, तथा सहसा-एककालं मालिताश्च ता उत्सर्पिताश्च वर्तुत्सर्पगेन सहसाप्रचालितोत्सपिताः, स्निग्ध-मनोहरं तेजो यासा ता: स्निग्धतेजसः, तथा दीप्यमानो-रजन्या भावान विमलोऽत्र धूल्याद्यपपगमेन प्रहगणो-प्रहसमूहस्तेन समा प्रभा यासां ता दीप्यमानविमलमहगणसमप्रभाः, ततः पद्यपदद्वयमीलनेन कर्मधारयसमासः, सहसापबालितोत्सर्पितस्निग्धतेजोदीप्यमानविमलग्रहगणसमप्रभास्ताभिः, तथा वितिमिराः करा यस्थासौ बितिमिरकरः स चासो सूरश्च वितिमिरकरसूरस्त स्खेव यः प्रसरति उद्द्योत:-प्रभासमूह तेन 'चिल्लियाहिति देशीपदमेतद् दीप्यमानाभिरित्यर्थः, चाला एव यदुजवलं प्रहसितमिव प्रहसितं वेनाभिरामा-अभिरमणीया ज्वालोज्वलप्रहसिताभिरामास्ताभिः, अत एव शोभमानाभिः शोभमानाः, तथैव दीपशिखा अपि दुमगणा अनेकबहुविविधविश्रसापरिणतोद्योतविधिनोपेताः, कुशविकुश विशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् यावन् प्रतिरूपा इति ४॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे laEcuamiER ~ 536~ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- ---------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत वर्णनं सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा- बहवो ज्योतिषिका नाम ढुमगणा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! यथा तद् अचिरोद्गर्त शरदि सूर्यमण्डलं यदिवा यथैतद् उल्का- ३ प्रतिपत्तौ जीवाभिः सहस्रं यथा वा दीप्यमाना विद्युत् अथवा यथा निर्धूमज्वलित उज्ज्वल:-उद्गता ज्वाला यस्य स तथा हुतवहः, सूत्रे च पदोपन्यासव्य- उत्तरकुरुमलयगि- त्ययः प्राकृतलात् , तत: सर्वेषामेषां द्वन्द्वः समासः, कथम्भूता एते? इत्याह-निद्धतधोये'त्यादि, निर्मातेन-नितरामग्निसंयोगेन | रीयावृत्तिःायद् धौत-शोधितं तप्तं च तपनीयं ये च किंशुकाशोकजपाकुसुमानां विमुकुलितानां-विकसितानां पुजाः ये च मणिरत्नकिरणाः यश्च | | उद्देशः२ ॥२६७॥ जात्यहिकुलकनिकरस्तद्रूपेभ्योऽप्यतिरेकेण-अतिशयेन यथायोग वर्णतः प्रभया च रूपं-स्वरूप येषां ते निर्मातधौततप्ततपनीयकिंशु |सू०१४७ काशोकजपाकुसुमविगुकुलितपुजमणिरत्नकिरणजात्यहिङ्गलकनिकररूपातिरेकरूपाः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथैव ते ज्योति-10 पिका अपि हुमगणा अनेकबहुविविधविश्रसापरिणतेनोद्योतविधिनोपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् याव-| त्प्रतिरूपाः ५ ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुगु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवश्चित्राङ्गका नाम दुमगणाः प्रज्ञता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! यथा तन् प्रेक्षागृह विचित्रं-नानाविधचित्रोपेतम् , अत एव रम्यं-रमयति मनासि द्रष्णामिति रम्य, बाहुलकान् कर्तरि यप्रत्ययः, बराच ताः कुसुमदाममालाच-पथितकुसुममाला वरकुसुमदाममालास्ताभिरजपलं वे-15 दीप्यमानलादू वरकुसुमदाममालोजवलं, तथा भावान-विकसिततया मनोहरतया च देदीप्यमानो मुक्तो यः पुष्पपुजोपचारतेन क-ICI लितं भास्वन्मुक्तपुष्पपुजोपचारकलितं, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथा विरहितानि-विरलीकृतानि विचित्राणि यानि माल्यानि प्रथितपुष्पमालास्तेषां यः श्रीसमुदयस्तेन प्रगल्भ-अतीव परिपुष्ट विरल्लितविचित्रमाल्यश्रीसमुदयप्रगल्भ, तथा प्रन्धिर्म-यत् सूत्रेण प्र-18॥२६॥ थितं वेष्टिम-पत्पुष्पमुकुट इव उपर्युपरि शिखराकृल्या मालास्थापनं पूरिम-यलघुकिछद्रेषु पुष्पनिवेशेन पूर्यते सहातिम-यत्पुष्पं पुष्पेण Jantaciorit अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~537~ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] परस्परं नालप्रवेशेन संयोज्यते, प्रन्थिमं च वेष्टिमं च पूरिमं च सङ्घात्तिमं चेति समाहारो द्वन्द्वस्तेन मास्येन छेकशिल्पिना-परमदक्षण शिल्पिना विभागरहितेन यद् यत्र योग्यं प्रन्धिर्म वेष्टिमं पूरिमं सङ्घातिमं च तत्र तेन सर्वत:-सर्वासु दिक्षु समनुबद्धं. तथा प्रविरलैः -लम्बमानैः, तत्र विरलत्वं मनागप्यसंहतत्वमात्रेण भवति ततो विप्रकृष्टत्वप्रतिपादनार्थमाह-विप्रकृष्टैः-बृहदन्तरालैः पञ्चवर्णैः कुसुम-15 दामभि: शोभमानं 'वणमालाकयग्गए चेवेति वनमाला-चन्दनमाला कृताइ यस्य तद् वनमालाकृतामं तथाभूतं सद् दीप्यमानं, तथैव चित्राङ्गका अपि नाम द्रुमगणा अनेकबहुविविधविखसापरिणतेन प्रन्थिमवेष्टिमपूरिमसङ्घातिमेन चतुर्विधेन माल्यविधिनोपपेता: कुशविकुशविशुद्धबृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि यावत्पतिरूपकाः ६॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे चित्ररसा नाम हुमगणा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन !, यथा तत्परमानं-पायसं भवेदिति सम्बन्धः, किंविशिष्टमित्याह-ये सुगन्धा:-प्रवरगन्धोपेता:, समासान्तविधेरनित्यत्वादतपस्य समासान्तस्याभावो यथा सुरभिगन्धेन वारिणा इत्यत्र, वरा:-प्रधाना दोषरहितक्षेत्रकालादिसामग्रीसंपादितामलामा इति भावः, कमलशालितन्दुलाः, यच विशिष्ट-विशिप्टगवादिसम्बन्धि निरुपहतमिति-पाकादिभिरविनाशितं दुग्धं ते रार्द्ध-पर्क परमकलमशालिभिः परमदुग्धेन च यथोचितमात्रापाकेन । निष्पादितमित्यर्थः. तथा शारदं घृतं गुडः खण्ड मधु वा शर्करापरपर्यायं मेलितं यत्र तत् शारदघृतगुडखण्डमधुमेलित, निष्ठान्तस्य परनिपातः प्राकृतलात मुखादिदर्शनाद्वा, अत एवातिरसमुत्तमवर्णगन्धवत् , यथा वा राशचक्रवर्तिनो भवेत् कुशलैः सूपपुरुषः-सूपकारैः पुरुषैः सजितो-निष्पादित: चतुष्कल्पसेकसिक्त इबौदनः, चत्वारश्च कल्पा: सेकविषया रसवतीशास्त्राभिज्ञेभ्यो भावनीयाः, स चौदनः किंविशिष्टः इत्याह-कलमशालिनिर्वतित:-कलमशालिमयो विपको-विशिष्टपरिपाकमागतः, 'सबाप्फमिउविसयसक AAMA-CASS ~ 538~ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम श्रीजीवा-मालसिरथे' इति समापानि-बाष्पं मुश्चन्ति मृदूमि-कोमलानि चतुष्कल्पसेकादिना परिकर्मितलाम विशदानि सर्वथा तुषादिमलापग-161३ प्रतिपत्ती जीवाभि. मात् सकलानि-परिपूर्णानि सिस्थूनि यत्र स सबापमृदुविशदसकलसिस्थुः, अनेकानि यानि शालनकानि-पुष्पफलप्रभुतीनि तIT उत्तरकुरुमलयगि- संयुक्त-समुपेतोऽनेकशालनकसंयुक्तः, तथा चामोदक इति सम्बन्धः, किंविशिष्टः ? इत्याह-परिपूर्णानि-समतानि द्रव्याणि-एला-का वर्णन रीयावृत्तिः प्रभृतीनि उपस्कृतानि-नियुक्तानि बत्र स परिपूर्णद्रव्योपस्कृतः, निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् , सुसंस्कृतो-यथोक्तमात्रानि-18| उद्देशः२ परितापादिना परमसंस्कारमुपनीतः, वर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तबलवीर्यपरिणाम इति वर्णगन्धरसस्पर्शी: सामयादतिशायिभिर्युक्ताः-सहिता || |सू०१४७ 11२६८|| बलवीयहेतवः परिणामा यस्य स तथा, अतिशाबिभिवर्णादिभिर्बलवीर्यहेतुपरिणामैश्वोपपेता इति भावः, तत्र धर्म-शारीरं वीर्य-मान्त-18 रोत्साहः, 'इंदियबलपुहिवद्धणे' इति, इन्द्रियाणां-चक्षुरादीनां बलं-स्वस्वविषयग्रहणपाटवमिन्द्रियबलं तस्य पुष्टि:-अतिशायी पोप इन्द्रियवलपुष्टिस्तां वर्धयति, नन्दादिलादनः, इन्द्रियबलपुष्टिवर्द्धनः, तथा क्षुञ्च पिपासा च क्षुत्पिपासे तयोर्मथनः क्षुत्पिपासामथनः, तथा प्रधान:-कथितो यो गुढो या कथितं-प्रधानं खण्डं यदिवा कथिता प्रधाना मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा यच प्रधानं घृतं तानि उपनीतानि-योजितानि यस्मिन् स प्रधानकथितगुडखण्डमत्स्यण्डीघृतोपनीतः, निष्ठान्तस्य परनिपातोऽवापि सुखादिदर्शनात, स ताइव मोदकः लक्ष्यसमितिगर्भ:-अतिक्ष्णकणिकामूलदलः प्रज्ञतः, तथैव चित्ररसा अपि दुमगणा अनेकबहुविविधविस्रसापरिणतेन भोजनविधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्तो यावत्प्रतिरूपाः ७ ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, पत्तरकुरुषु कुरुपु | तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो मण्यङ्गका नाम हुमगणा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, यथा ते हारोऽहारो ॥२६८।। वेष्टनं मुकुटः कुण्डलं बामोत्तको हेमजालं मणिजालं कनकजालं सूत्रक मुशीकटकं खुडकाम(का ए)कावलिः कण्ठसूत्रं मकरिका उरस्क marathayum [१८५]] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~539~ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः न्धप्रैवेयकं श्रोणीसूत्रकं चूडामणिः कनकतिलकं फुलकं सिद्धार्थकं कर्णपाली शशी सूर्यो वृषभश्चक्रकं तलभङ्गकं तुडितं हस्तमालकं ह कं केयूरं वलयं प्रालम्बमकुलीयकं लक्षं दीनारमालिका काची मेखला कलापः प्रतरं प्रातिहार्थकं पादोवलं चण्टिका किङ्किणी रत्रोरुजालं वरनूपुरं चरणमालिका कनकनिगरमालिकेति भूषणविधयो बहुप्रकाराः एते च लोकतः प्रत्येतव्याः कथम्भूता: १ इत्याहकाध्वनमणिरत्नभक्तिचित्राः, तथैव ते मण्यङ्गका अपि मगणा अनेक बहुविविधविश्वासापरिणतेन भूषणविधिनोपेताः कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला यावत्प्रतिरूपा इति ८ । 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो गेहाकारा नाम दुमगणाः प्रज्ञता है गण! हे आयुष्मन! यथा ते प्राकाराट्टालकच रिकाद्वारगोपुरप्रासादाकाशतलमण्डपैकशालकद्विशालक त्रिशाल चतुःशाल कगर्भगृह मोहनगृह भीगृह चित्रशालमालिक भक्तिगृह वृत्त यत्र चतुरानन्यावर्त्तसंस्थितानि पाण्डुरतम्य मुण्डमालहर्म्य, अथवा धवलगृहाणि अर्द्धमागधविभ्रमाणि शैलसुस्थितानि अर्द्धशैलसुस्थितानि कूटाकारायानि सुविधिकोष्ठकानि तथाऽनेकानि गृहाणि शरणानि उयनानि 'अप्येगे' इति भवनविकल्या अत्र बहुविकल्पाः एतेषां च परस्परं विशेषो वास्तुवियातोऽव सातव्यः कथम्भूता एते ? इत्याह- 'बिडंगे 'त्यादि, विटङ्कः कपोतपाली जालवृन्द- गवाश्वसमूहः निर्यूहो-गृहकदेशिविशेष: अपवरक:-प्रतीतः चन्द्रशालिका-शिरोगृहं एवंरूपाभिर्विभक्तिभिः कलिताः, तथैव गृहाकारा अपि मगणा अनेकवहुविविधविश्रसापरिणतेन भवनविधिनेति सम्बन्धः किंविशिष्टेन? इत्याह- सुहारुहणसुहोत्ताराए' इति सुखेनारोहणं ऊर्द्ध गमनं सुखेनोत्तारः - अधस्तादवतरणं यस्य दर्दरसोपानपङ्कयादिभिः स सुखारोहसुखोत्तारखेन, तथा सुखेन निष्क्रमणं प्रवेशश्च यत्र स सुखनिष्क्रमणप्रवेशस्तेन, कथं सुखारोह सुखोत्तारः ? इत्याह- दर्दरसोपानपङ्किकलितेन हेती तृतीया, ततोऽयमर्थः यतो दर्दरसोपानपङ्गिक For P&Praise Cinly ~ 540~ www Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ १४७ ] दीप अनुक्रम [१८५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र )], मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा- लितस्ततः सुखारोहसुखोत्तारः, 'पतिरिकसुहविहाराए' प्रतिरिक्ते- एकान्ते सुखविहार: अवस्थानशयनादिरूपो यत्र प्रतिरिक्तमुखविजीवाभि० 12 हारस्तेनोपपेता, सर्वत्र स्त्रीत्खनिर्देश: प्राकृतत्वात् कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलबन्त इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपकाः ९ । 'उत्तरकु मलयगिराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवोऽनन्नका नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता है। रीयावृत्तिः श्रमण ! हे आयुष्मन्!, 'जहा से' इत्यादि, आजिनकं नाम चर्ममयं वस्त्रं क्षौमं - कर्पासिकं कम्बलः - प्रतीतः दुकूलं वखजातिविशेष: ॥ २६९ ॥ कौसेयं प्रसरितन्तु निष्पन्नं कालमृगपट्टः- कालमृगचर्म अंशुकवीनांशुकानि - दुकूलविशेषरूपाणि पट्टानि प्रतीतानि आभरणचित्राणि आभरणैश्चित्राणि विचित्राणि आभरणचित्राणि 'सह' इति ऋक्ष्णानि कल्याणकानि - परमवस्त्रलक्षणोपेतानि गम्भीराणि-निपुणशिल्पिनिष्पादिततयाऽलक्ष्धस्वरूपमध्यानि 'नेहल'त्ति स्नेहलानि-स्निग्धानि 'गया (ज) लानि' उद्देश्यमानानि परिधीयमानानि वा गर्जयन्ति, शेर्पा सम्प्रदायादवसातत्र्यं तदन्तरेण सम्यक् पाठशुद्धेरपि कर्तुमशक्तत्वात् वस्त्रविधयो बहुप्रकारा भवेयुर्वरपट्टनोगता:-प्रसिद्धतत्तत्पत्तनविनिर्गता 'विविधवर्णरागकलित ' विविधैर्वणविविध रागैः-मधिष्ठारागादिभिः कलिताः, तथैवाननका अपि द्रुमगणा अनेकवहुविविधवि सापरिणतेन वस्त्रविधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलबन्त इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपा: १० । 'उत्तरकुराए णं भंते! कुराए मणुयाण मित्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु भदन्त ! 'मनुजाना' मनुष्याणां कीदृशः कीदृश आकारभाव:, प्रत्यवतारस्वरूपसम्भव इति भाव:, प्रज्ञयः ?, भगवानाह - गौतम! 'ते ण'मिति पूर्ववम् मनुष्या 'अतीव' अतिशयेन सोमं दृष्टिसुभगं चारु रूपं येषां तेsataसो मचारुरूपा: 'भोगुत्तमगयलक्खणा' इति उत्तमशब्दस्य विशेषणस्यापि परनिपातः प्राकृतस्यान् उत्तमाय ते भोगाय उत्तमभोगासङ्गतानि सत्संसूचकानि लक्षणानि येषां ते उत्तमभोगगतलक्षणाः, तथा भोगेः सभीका :- सशोभाका भोगसश्रीका:, तथा सुजातानि For P&Paley अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 541 ~ ३ प्रतिपत्ती उत्तरकुरुवर्णनं उद्देशः २ सू० १४७ ४ ॥ २६९ ॥ eaty w Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र )], मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः ||| Au यथोक्तप्रमाणोपपत्रत्वेन शोभनजन्मानि यानि सर्वाणि उर: शिरःप्रभृतीन्यङ्गानि तैः सुन्दरम-समयं वपुर्येषां ते सुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गाः, 'सुपइडियकुम्मचारुचरणा' इति सुष्ठु - शोभनं यथा भवति एवं प्रतिष्ठिताः कूर्म्मवदुन्नतत्वेन चारवञ्चरणाः पादा येषां ते सुप्रतिष्ठित कर्मचारुचरणा: 'रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालको लतला' इति रकं - लोहितमुत्पलपत्रम् सुदु मार्दवोपेतमकर्कश मिति भावः तचासुकुमारमपि संभवति यथा ष्टष्टपाषाणप्रतिमा तत आह-सुकुमारं - शिरीषकुसुमवदुकठिनं कोमलं मनोक्षं चरणतलं *येषां ते रक्तोत्पलपत्रमृदु सुकुमारकोमलताः तथा 'नगनगर मगरसागर चकंकहरं कलक्खणंकिय चलणा' नगः- पर्वतः नगरमकरसागरचक्राणि - प्रतीतानि अङ्कधरः- चन्द्रमा अङ्कः तस्यैव लाञ्छनं मृगः एवंरूपाणि यानि लक्षणानि तैरङ्कितौ चरणौ येषां ते नगनगरमकर सागर चक्राङ्कधरा लक्षणाङ्कितचरणा:, 'अणुपुञ्चसुसाहयंगुलीया' इति पूर्वस्याः पूर्वस्या अनु लघव इति गम्यते अनुपूर्वाः, किमुक्तं भवति ? - पूर्वस्याः पूर्वस्था उत्तरोत्तरा नवं नखेन हीनाः “नहं नहेण हीणाओ” इति सामुद्रिकशास्त्रवचनात् सुसंहता:-सुशिष्टा अलयो येषां ते अनुपूर्व सुसंहता कुलीकाः, 'उन्नयतणुतंवनिद्धनखा' उन्नता ऊ नतास्तनवस्ताम्रा: 'स्निग्धाः' स्निग्धच्छाया नखाः पादगता इति सामर्थ्यलभ्यं तद्वर्णनाधिकाराद् येषां ते उन्नततनुतान्त्रस्निग्धनखाः, 'संठियसुसिलिङगूढगुल्फा' सम्यक्स्वरूपप्रमाणतया स्थिती संस्थितौ सुष्टि-मांसली गुल्फौ -गुलुको येषां ते संस्थितष्टिगूढगुल्फा:, 'एणी कुरुविंदवत्तवाणुपुब्वजंघा' इति एण्या इव-हरिण्या इव कुरुविन्दस्यैव वर्त्त-सूत्रवलन तस्येव वृत्ते वर्तुळे आनुपूर्व्येण - क्रमेण ऊर्द्ध स्थूरे स्थूरतरे इति गम्यं जते येषां ते एणीकुरुविन्दवर्त्त वृत्तानुपूर्वजाः 'समुग्गनिमग्गगूढजाणू समुद्रकस्येव समुद्रकपक्षिण इव निमझे- अन्तः प्रविष्टे गूढे - मांसलत्वादनुद्धते जानुनी - अष्ठीवन्तौ येषां ते समुद्रनिमन्नगूढजानवः, 'गयससणसुजायसन्निभोरू' गजो इसी श्वसिति - प्राणित्यनेनेति ~542~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- ---------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा- श्वसन:-गुण्डादण्डः गजस्य श्वसनो गजश्वसनस्तस्य सुजातस्य-सुनिष्पन्नस्य सन्निभी ऊरू येषां ते गजश्वसनसुजातसन्निभोरवः, सुजा- ३ प्रतिपत्ती जीवाभिवशब्दस्य विशेषणस्यापि सतः परनिपातः प्राकृतत्वात् , 'घरवारणमत्ततुल्लविक्कमविलासियगई अत्रापि मत्तशब्दस्य विशेष्यात्पर- उत्तरकुरुमलयगि-1 निपातः प्राकृतलान् , मत्तो-मदोन्मत्चो यो वर:-प्रधानो भद्रजातीयो वारणो-हस्ती तस्य तुल्य:-सदृशो विक्रमः-पराक्रमो बिलासितामा वर्णन रीचावृत्तिःला-चिलास: संजातोऽस्या विलासिता तारकादिदर्शनादितप्रत्ययः विलासवती गति:-मनं येषां ते वरवारणमत्ततुल्यविक्रमविलासित- उद्देशः२ गतयः, 'पमुइयवरतुरगसीहवरवट्टियकडी' प्रमुदितो-रोगशोकायुपद्रवाभावात् , कचित्पुनरेवं पाठः पमुइयवरतुरगसिंहअइरेगव- सू०१४७ हियकडी' तत्र प्रमुदितयो-रोगशोकागुपद्रवरहितत्वेनातिपुष्टयोर्वरयोस्तुरगसिहयो: कट्याः सकाशादतिशयेन वनिता-वृत्तिः (ता) काटियपां रो प्रमुदितवरतुरगसिंहातिरेकर्तितकटयः, 'वरतुरवसुजायगुज्झदेसा' वरतुरगस्लेव सुजात:-संगुप्तस्पेन सुनिप्पनो गुपदेशो येषां ते वरतुरगसुजातगुणदेशाः, पाठान्तरं पिसत्यवरतुरगगुज्झदेसा' व्यक्तं, 'आइण्णहयच निरुवलेवा' आकीर्णो-गुणैाप्तः । स चासौ हयश्च आकीर्णहयस्तद्वन्निरुपलेपा-लेपरहितशरीरमला:, यथा जात्याश्वो मूत्रपुरीपाद्यनुपलिमगानो भवति तथा तेऽपीति भावः, 'साहयसोणंदमुसलदप्पणनिगरियवर कणगछरुसरिसवरवइरवलियमझा' संहृतसौनन्दं नाम ऊहाँकतमुदूपलाकृति कार्य वच मध्ये तनु उभयोः पार्वयोवृहन् , मुसलं-प्रतीतं, दर्पणशब्देनेहावयवे समुदायोपचारादर्पणगण्डो गृह्यते, तथा यन्निगरित-सारीकृतं बरकनकं तस्य-तन्मयं सरु:-खङ्गादिमुष्टिनिगरितवरकनकत्सरुस्तैः सदृशः तेषामिवेत्यर्थः, तथा वरवनस्पेव क्षामो बलितो-वलयः ।। संजाता अस्य बलिस:-बलियोपेतो मध्यो-मध्यभागो येषां ते संहतसोनन्दमुसलदार्पणनिगरितवरकनकत्सरसहशवरवञ्जवलितमध्याः 'झसविहगसुजायपीणकुच्छी' झपो-मत्स्य: पक्षी-प्रवीतस्तयोरिव सुजाती-सुनिष्पन्नौ जन्मदोषरहिताविति भावः पीनौ-उपचिती। अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~543~ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- -------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------ ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत % सूत्रांक [१४७] -25 कुक्षी येषां ते मरम्पपक्षिसुजानपीनकुक्षयः, 'झपोदरा' अपस्येवोदरं येषां ते झपोदराः, 'सुइकरणा' इति शुचीनि-पवित्राणि निरूपलेपानीति भावः करणानि-चक्षुरादीनीन्द्रियाणि येषां ते शुचिकरणा:, कचिदेव पम्हवियडनाभा' इति पाठस्तव पद्मवद् विकटा-बितीर्णा नाभिर्येषां ते पनबिकटनाभाः, अत एव निर्देशादनाम्यपि समासान्त:, एवगुत्तरपदेऽपि, 'गंगावत्तयपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणवोहियअ(आ)कोसायंतपउमगंभीरवियडनाभा' गमावर्तक इत्र दक्षिणावर्ती तर बैरिव तरहैस्तिमृभिर्यलिभिर्भरा तरङ्गभङ्गरा रविकिरी:-सूर्यकरैस्तरुणं-नवं तत्प्रथमं तत्कालमियर्थः यद्बोधितं-उन्निद्रीकृतमत एवं 'आकोसायंत' इत्याकोशायमानं विकधीभवलियर्थः पयं तद्वद् गम्भीरा च विकटा च नाभियेषां ते गङ्गावर्तकप्रदक्षिणावर्ततयाभररविकिरणतरुणयोधिताकोशाय-14 मानपद्मगम्भीरविकटनामा:, 'उजुयसमसहियसुजायजञ्चतणुकसिणनिद्ध आइज्जलडहसुकुमालमि उरमणिज्जरोमराई' र जुका-न व का समान काप्युदन्तुरा सहिता-सन्तता न खपान्तरालव्यवच्छिन्ना सुजाता-जन्मा न तु कालादिवैगुण्याहुर्जन्मा अत एव जाया-IR प्रधाना तन्वी न तु स्थूरा कृष्णा न तु मर्कटवर्णा, कृष्णमपि किञ्चिन्निःनिकं भवति तन आह-निग्धा आदेया-दर्शनपथमुपगता |R सती उपादेया मुभगा इति भावः, एतदेव विशेषणद्वारेण समर्थयते-लउहा' सलवणिमा अत एवं आदेया, तथा सुकुमारा-अकठिना, तत्राकठिनमपि किधिकर्कशस्पर्श भवति तत आह-मृद्वी अत एव रमणीबा-रख्या रोमराजि:-तनहपजियेषां ते जुकसससहितमुजाखजात्यानुफुण स्निग्धादेवलदाह सुकुभारमृदुरमणीयरोनराजयः, 'सन्नयपासा' सम्बग-अयोऽयःक्रमेण नती पाच येते सन्नतपार्थाः अधोऽव:कमानतपार्या इत्यर्थः, नथा 'संगयपासा' इति संगती-देहप्रमाणोचिती पात्री येषां ने समसपार्था अत एष मुन्दरपार्थाः 'सुजायपासा' इति सुनिश्पत्नपार्थाः "मियमाइयपीणरइयपासा' मितं-परिमितं यथा भवसि देहानुसारेणेत्यर्थः आयता-दीयौं पीनी दीप अनुक्रम * -0 %%8 [१८५]] 2 -% जी०च०४६ - % ~ 544~ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: जीवाभिः प्रत सूत्रांक HI [१४७] सू०१४७ दीप श्रीजीवा-3 उपचिती मांसलाविति भाव: रचितौ-स्वस्वनामकर्मोदयनिर्वतितौ रतिदी वा-रम्यौ पाचौं येषां ते तथा, 'अकरंडयकणगरुयगनिम्म- प्रतिपत्ती लसुजायनिरुवहयदेहधारी' अविद्यमानं-मांसलतयाऽनुपलक्ष्यमाणं करण्डक-पृष्ठवंशास्तिकं यस्य देहस्य सोऽकरण्डकस्तं कनकस्येव देवकुर्वमलयगि- कचको-रचिर्यस्य स कनकरुधिस्तं निर्मल-स्वाभावाविकागन्तुकमलरहितं सुजातं-वीजाधानादारभ्य जन्मदोषरहितं निरुपहतं-ब- [धिकारः रीयावृत्तिः रादियंशायुपद्रवरहितं देहं धारयन्तीत्येवंशीला अकरण्तककनकरुचकनिर्मल सुजाननिरुपहनदेहधारिणः 'कणगसिलायलुज्जलपसस्थ उद्देशः२ समतलोवचियविच्छिन्नपिहुलवच्छा' कनकशिलातलवदुचलं च-निर्मलं प्रशस्तं च-अतिप्रशम्यं समतलं-न विषमोन्नत उपचितं॥२७१॥ मांसलं विस्तीर्णम्-उधोऽपेक्षया पृथुलं दक्षिणोतरतो वक्षो येषां ते कनकशिलातलोज्वलाशलसमतलोपचितविस्तीर्णपृथुलवक्षसः 'सिरिवच्छंकियवच्छा' इति श्रीवृशेणाङ्कितं-लान्छितं वक्षो येषां ते श्रीवृक्षलाञ्छितवक्षस: 'जुगसन्निभपीणरइयपीवरपउडुसंठि| यमुसिलिडविसिषणविरमुत्रद्धसंधी पुरवरफलिहवट्टियभुया' युगसन्निभौ-वृत्ततया आपततया च यूपतुल्यौ पीनौ-उपचितौ|4 रितिदी-पश्यता दृष्टिमुखदी पीवरप्रकोप्टी-अकृशकलाचिकौ संस्थितौ-विशिष्टसंस्थानी सुनिता:-संगता: विशिष्टा:-प्रधाना: घना-1 निविडा: स्थिरा-मातिश्लथाः सुबद्धाः-वायुभिः सुन्नु नद्धाः सन्धयः-सन्धानानि ययोसो तथा पुरवरपरिघवन्-महानगरार्गलाबद् ! वर्तितौ च याहू येषां ते युगसन्निभपीनरतिदपीवरप्रकोष्ठसंस्थितमुश्लिष्टविशिष्टयनखिरसुवसन्धिपुरवरपरिषवर्तितभुजाः, पाठान्तरं । 'जुगसन्निभपीणरइयपउट्ठसंठियोपचियषणविरमुबद्धसुनिगूढपक्संधी' युगसग्निभी वर्तुलत्वेन पीनी रतिदौ प्रकोष्ठौ येषां ते तथा, तथा संस्थिताः-सम्यस्थिता उपचिता--मांसला धना-निबिडाः स्थिरा-अचाल्याः, कुत.? इत्याह-सुबद्धा-दृढवन्धनबद्धा निगूढा-17 ॥२७१॥ मांसलवादनुपलक्ष्याः पर्वसन्धयो हतादिगता येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, 'भुवगीसरविपुलभोगआयाणफलि-11 अनुक्रम [१८५]] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~545~ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] हिउच्छूढदीहबाह' भुजगेश्वरो-नागराजस्तस्य यो विपुलो-महान् भोगो-देहो भुजगेश्वरविपुलभोगः तथा आदीयते-द्वारस्थगनाथ ।। गृह्यत इत्यादानः स चासौ परिघश्न आदानपरिषः 'उच्छूढ'त्ति अवक्षिप्तः-अर्गलास्थानानिष्कासितो द्वारपृष्ठभागे दत्त इत्यर्थः, दतः। पूर्वपदेन विशेषणसमासः, विशेषणस्य परनिपात: प्राकृतत्वात् , भुजगेश्वरबिपुलभोगश्च आदानपरिधावक्षिप्तश्च ताविव दीर्थों बाहू । येषां ते तथा, 'रत्ततलोवतियमांसलसुजायअच्छिद्दजालपाणी' रक्ततलौ-लोहिततलौ अबपतितौ--कमेण हीयमानोपचयौ मृदुको -कोमलौ मांसलौ सुजाती-जन्मदोषरहितौ अच्छिद्रजालो-अङ्गल्यन्तरालसमूहरहितौ पाणी-हस्ती येषां ते तथा, पाठान्तरं रत्ततलोवश्यमसलसुजायपसत्वलक्खणअच्छिद्दजालपाणी' तत्र प्रशस्तलक्षणौ-शुभचिह्नाविति व्याख्येयं, शेष तथैव, 'पीवरकोमलवरंगुलीया' इति पीवरा:-स्वशरीरानुक्रमोपचयाः कोमला--मूदवो वरा:-प्रशस्तलक्षणोपेता अङ्गुलयो येषां ते पीपरकोमलवराङ्गुलिकाः, | पाठान्तरं 'पीवरवट्टियसुजायकोमलवरंगुलीया' व्यक्तम् , 'आयवतलिणसुइरुइलनिद्धनखा' आताम्राईपद्रताः तलिना:-प्रतला: शुचय:-पवित्रा रुचिरा-दीक्षा: निग्धा-अरूक्षा नखा:-कररुहा येषां ते तथा आताप्रवलिनशुचिकचिरनिग्धनखाः, 'चंदपाणिलेखा' चन्द्र इव चन्द्राकारा पाणौ रेखा येषां ते चन्द्रपाणिरेखाः, एवं सूर्यपाणिरेखाः शलपाणिरेखाश्चक्रपाणिरेखा दिसौवस्तिको-दिझोक्षको दक्षिणावर्त्तः स्वस्तिक इत्यन्ये स पाणौ रेखा येषां से दिक्सौवतिकपाणिरेखाः, एनदेवानन्तरोक्तं विशेषणपश्चकं तत्प्रशस्तताप्रकर्षप्रतिINपादनाय सङ्कहबचनेनाह-चन्द्रसूर्यशङ्खचक्रदिक्सौवस्तिकरेखाः, एतदनन्तरं कचिदेवं पाठ:---रविससिसंखवरचकसोस्थियविभिन्न मुबिरइयपाणिरेहा' व्यक्तो नवरं विभक्ता-विभागवत्यः सुविरचिताः-मुष्ठ कृवाः स्वकीयकर्मणा 'अणेगवरलक्खणुत्तमपसस्थसुइहारइयपाणिलेहा' अनेकै:-अनेकसीवर:-प्रधानलेक्षणैरुत्तमाः प्रशस्ता:-प्रशंसासदीभूताः शुचय:-पवित्रा रचिताः-खकर्मणा निष्पा ~546~ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- दिताः पाणिरेखा थेपां ते अनेकवर लक्षणोत्तमप्रशस्लशुचिरचितपाणिरेखाः, 'वरमहिसवराहसिंहसद्दलउसभनागवरपडिपुष्णवि- प्रतिपत्तो जीवाभि उलखंधा' वरमहिषः-प्रधानसौरभेय: बराह:-शूकरः सिंह:-केशरी शार्दूलो-व्याघ्रः ऋषभो-वृषभः नागवर:-प्रधानो गजः, एपा-हादेव कुर्व मलयगि-15 मिव प्रतिपूर्णः-स्वप्रमाणेनाहीनो विपुलो-विस्तीर्णः स्कन्धः-अंशदेशो येषां ते वरमहिषवराहसिंहशार्दूलपभनागवरप्रतिपूर्णविपुल- धिकारः रीयावृत्तिः स्कन्धाः 'चउरंगुलसुष्पमाणकंवुवरसरिसगीवा' चतुरङ्ग-स्वाङ्गुलापेक्षया चतुरङ्गुलपमितं सुप्नु-शोभनं प्रमाणं यस्याः सा चतुर- उद्देशः २ अलसुप्रमाणा कम्बुवरसहशी-उन्नततया वलियोगेन च प्रधानशकसन्निभा श्रीवा येषां ते चतुरङ्गुल सुप्रमाणकम्बुवरसदृशनीवाःहसू०१४७ ॥२७२॥ CI मसलसंठियसहलविपुलहणुया' मांसलं-उपचितमांसं सम्यक स्थितं संस्थितं विशिष्ट स्थानमित्यर्थः प्रशस्तं प्रशस्यलक्षणोपेतत्वान् । शार्दूलस्येव-व्यावस्येव विपुलं-विस्तीर्ण हनुकं येषां ते तथा, 'अवढियसुविभत्तमंसू' अवखितानि-अद्धिष्णूनि सुविभक्तानिविविक्तानि चित्राणि-अतिरम्यतयाऽमृतानि इमभूणि-कूर्चकेशा येषां तेऽवस्थितसुविभक्तचित्रमभवः 'ओयवियसिलप्पवालविंवफलसन्निभाधरोहा' ओयवियं-परिकर्मितं यत् शिलारूपं प्रवालं विहुममित्यर्थः बिम्बफलं--गोल्हाफलं तयोः सन्निभो रक्ततया उन्नतमध्यतयाऽधरओष्ठः-अधस्तनो दन्तरछदो येषां ते तथा, 'पंडुरससिसगल विमलनिम्मलसंखगोखीरफेणकुंददगरयमुणालिया-1 धवलदंतसेढी' पाण्डुरं-अकलकं यत् शशिशकलं-चन्द्रखण्डं विमल-आगन्तुकमलरहितो निर्मल:-स्वभावोत्थमलरहितो यः शङ्गः। गोभीरफेनः प्रतीतः शुन्द-कुन्दकुसुमं दुकरज-उदककणा: मृणालिका-विशं, एतद्वद्भवला दन्तश्रेणियेषां ते पाण्डुरशशिशकलविमलनिर्मलगोक्षीरफेनकुन्ददकरजोमृणालिकाधवलदन्तश्रेणयः 'अखंडदंता' इति अखण्डा:-सकला दन्ता येषां ते अखण्डदन्ताः 'अ-11॥ प्फुडियदंता' अकुटिता-अजर्जरा राजिरहिता दन्ता येषां ते अस्फुटितदन्ताः, तथा सुजाता-जन्मदोषरहिता दन्ता व ने सुजा 264 [१८५]] %- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~547~ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], ------ ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] तदन्ताः, तथाऽविरला-पना दन्ता येषां ते अविरलदन्ताः, 'एगदंतसेढीविव अणेगदंता' एकाकारा दन्तश्रेणियेषां ते तथा ते इव | परस्परानुपलक्ष्यमाणदन्तविभागत्वाद् अनेके दन्ता येषां ते अनेकदन्ताः, एवं नामाविरलदन्ता यथाऽनेकदन्ता अपि सन्त एकाकार-18 दन्तपतय इव लक्ष्यन्न इति भावः, 'हुयवहनिद्धंतधोवतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा' हुतबहेन-अमिना निर्मातं सद् यत् । धौत-शोधितमलं तप्नं गपनीयं-सुवर्णविशेषस्तद्वद् रक्ते नले-हस्ततले तालु-काकु जिह्वा च-रसना येषां ते हुतवहनिर्मातधौतप्तमतपनीयरक्ततलतालुजिताः 'गरुलायय उतुंगनासा' गरुडस्येवायता-दीर्घा वरची-अवका तुझा-उन्नता नासा-नासिका येषां ते | गरुडायतकजुतुङ्गानासा: 'कोकासियधवलपत्तलच्छा' कोकासिते-पप्रवद्विकसिते धवले कचिद्देशे पत्रले-पक्ष्मवती अभिणी-लो-| चने येषां ते कोकासितववलपत्राक्षाः, एतदेव स्पष्टयति-विष्फालियपुंडरीयनयणा' विस्फारित-रविकिरणैर्विकासितं बरपुण्डरीके | -सितपनं तद्वनयने येषां ते विस्फारितगुण्डरीकनयनाः, कचिन् 'अबदालियपुंडरीयनयणा' इति पाठस्तत्रापि अवदालित-रविकिरणैर्विकासित मिति व्यास्येयं, 'आणामियचावरुइलतणुकसिणनिद्धभुया' आनामित्तं-पन्नामितमारोपितमिति भावः यच्चापंधनुस्तद् विरे-संस्थानविशेषभावतो रमणीये तनू-तनु के अक्षणपरिमितवालपपासकलान् कृष्णे-परमकालिमोपेते खिग्धे-मिग्धच्छाये ध्रुवो येषां ने आनामितचापरुचिरतनुकृष्णग्धिधकाः, कचिपाठः-आणामियचारुरुचिलकिण्हमराईमंटियसंगयआययसुजायभुमका' मा भानामितचापवद् रुचिरे कृष्णाभराजीव संस्थिते संगते-यथोक्तप्रमाणोपपने आयते-नी सुजाते-मुनिष्पन्ने | जन्मदोपरहितत्वा भुत्रौ येषां वे तथा, कचित्पुनरेवं पाठः-आणामियचावरुइलकिण्हरभराइतणुकसिणनिशुपया' तत्रानामितचापबद् रुचिरे-मनोशे कृष्णाभ्रराजीव-कालमेघरेखेव तनू-ननुके कृष्णे-काले स्निग्धे-सगछाये ध्रुवौ येषां ते तथा, 'आलीणपमा दीप अनुक्रम [१८५]] -- -- E % 2 3 ~548~ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा- जुत्तसवणा' आलीनौ न तु टप्परौ प्रमाणयुक्तौ-प्रमाणोपेतो अवणौ-कर्णी येषां ने आलीनप्रमाणयुक्तश्रवणा:, अत एव 'सुस- ३ प्रतिपत्तौ जीवाभिवणा' शोभनभवणा: 'पीणमंसलकवोलदेसभागा' पीनौ-अकुशौ यतो मांसलौ-उपचिनी कपोलदेशो-गण्डभागौ मुखस्य देशभागौद देवकुर्वमलयगि-1 येषां ते पीनमांसलकपोलदेशभागाः, अथवा कपोलयोदेंशभागाः कपोलदेशभागाः कपोलावयवा इत्यर्थः पीना-मांसलाः कपोलदेशभागा धिकारः रीयावृत्तिः येषां ते पीनमांसलकपोलदेशभागा: 'निव्वणसमलट्ठमट्टचंदद्धसमनिडाला' निर्बण-विस्फोटकादिक्षतरहितं समं-अविषमं अत एवं उद्देशः२ ल-मनोज्ञ मृष्टं-मसणं चन्द्रार्द्धसम-शशधरसमपविभागसदृशं ललाट-अलकं येषां ते निर्वगसमलष्टचन्द्रार्द्धसमललाटाः, सूत्रे 'निहा॥२७३॥ लेति प्राकृतलक्षणवशान , 'उडुवइपडिपुण्णसोमवयणा' प्राकृतलात्पदव्यत्ययः, प्रतिपूर्णोदुपति रिव--सम्पूर्णचन्द्र इव सोमं-सश्रीकं वदनं - ता येषां ते प्रतिपूर्णोडुपतिसोमबदनाः, 'घणनिचियसुबलक्खणुन्नयकूडागारनिहरिडियसिरा' पनं-अतिशयेन निचितं धननिचितं | प्रास-अतिशयेन यद्धानि-अवसितानि लक्षणानि यत्र तत् सुवद्धलक्षणं, उन्नत-मध्यभागे उच्च यस्कूटं तस्याकारो-मूर्तिस्तन्निभमुन्नतकूटाका-15 रसदृशमिति भावः पिण्डिनं-स्पकर्मणा संयोजितं शिरो येषां ते धननिचितसुबदलाणोन्नत फूटाकारनिभपिण्डितशिरस: 'छत्ताकारुत्तमंगदेसा' छत्राकार उत्तमाङ्गरूपो देशो येषां ते छत्राकारोत्तमाङ्गदेशाः 'दाडिमपुफापगासतवणिज्जसरिसनिम्मलसुजायकेसंतकेसभूमी' दाडिमपुष्पप्रकाशा-दाडिमपुष्पप्रतिमास्तपनीयसदृशाश्च निर्मला-आगन्नुकस्वाभाविकमलरहिताः केशान्ताः केशभूमिश्चकेशोत्पत्तिस्थानभूता मस्तकत्लग येषां ते दाडिमपुष्पप्रकाशतपनीयसदृशनिर्मलसुजानकेशान्तकेशभूमय: 'सामलिबोंडघणछोडियमि उविसयपसत्वसुहमलक्खणसुगंधसुन्दरभुयमोयगभिंगनीलकजलपहट्ठभमरगणान कुरवनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसि-18|॥२७३ ।। हरया' शाल्मली-पक्षविशेषः स च प्रतीत एव तस्य बोण्ड-फलं तदुच्छोटिता अपि धनं-अतिशयेन निचिता: शाल्मलीबोण्डघननि Jaticiary अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~549~ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- ---------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] चितरछोटिताः, सोहफेशपाशं न कुर्वन्ति परिज्ञानाभावात् , केवलं छोटिता अपि तथास्वभावतया शाल्मली बोण्डाकारवद् पननि[चिता अवतिष्ठन्ते तत्त एतद्विशेषणोपादानं, तथा मृदवः-अकर्कशा विशदा-निर्मला: प्रशस्ला:-प्रशंसास्पदीभूताः सूक्ष्मा:-सक्ष्णाः लक्षणा-लक्षणवन्तः सुगन्धा:-परमगन्धकलिता अत एव सुन्दराः, तथा भुजमोचको-रत्नविशेषः भृक्ष:-प्रतीतः नीलो-मरकतमणिः। | कजलं-प्रतीतं प्रहधः-प्रमुदितो भ्रमरगणः प्रहष्टभ्रमरगणः, प्रहयो हि भ्रमरगणस्तारुण्यावस्थायां भवति तदानी चासिकृष्ण इति प्रह-14 प्रहण, तद्वस्निग्धा भुजमोचक अनीलकजलप्रष्टभ्रमरगणस्निग्धाः, तथा निकुरम्बा-निफरम्बीभूताः सन्तो निचिता न तु वि-16 स्तृताः सन्तः परस्परसंहता निकुरम्बनिचिता ईषत्कुटिलाः प्रदक्षिणावर्ताश्च मूर्द्धनि शिरोजाबाला येषां ते शाल्मलीयोण्डयननि-1 चितच्छोटितमृदुविशदप्रशससूक्ष्मलक्षणसुगन्धसुन्दरभुजमोचकभृङ्गनीलकजलप्रहपभ्रमरगण स्निग्धनिकुरम्बनिचितप्रदक्षिणावर्त्तमूर्द्धशि- । रोजाः, 'लक्षणवंजणगुणोववेया लक्षणानि-खस्तिकादीनि व्यञ्जनानि-मपतिलकादीनि गुणा:-क्षान्त्यादयस्तैरुपपेता-युक्ता लक्षणव्यजनगुणोपपेता: 'सुजायसुविभत्तसुरूवगा' सुजातं-सुनिष्पन्नं जन्मदोपरहितत्वान् सुविभक्त-अङ्गप्रत्यङ्गोपाङ्गानां यथोक्तवैविक्त्यभावात् सुरूपं-शोभनं रूपं समुदायगतं येषां ते सुजातमुविभक्तसुरूपका: 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'उत्तरकुराए णं भंते! कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु भदन्त ! कुरुपु मनुजीनां कीदृश आकारभावप्रत्यवतारः स्वरूपसम्भव इति भावः प्रज्ञप्तः?, भगवानाह-गौतम ! ता मनुष्यः सुजातसर्वाङ्गसुन्दर्य:-सुजातानि-यथोक्तप्रमाणोपेततया शोभनजन्मानि यानि सर्वाण्यशानि-उदरप्रभूतीनि तैः सुन्दर्य:-सुन्दराकाराः सुजातसर्वाङ्गसुन्दर्यः 'पहाणमहेलागुणजुत्ताओ' प्रधाना-अतिशायिनो ये महेलागुणा:-प्रियंवदत्तभर्तचित्चानुवर्चकत्तप्रभृतयस्तैर्युक्ता-उपपेता: प्रधानमहेलागुणयुक्ताः 'कंतविसयमिउसुकुमालकुम्मसंठिवियसि AAAAA दीप अनुक्रम [१८५]] CXCCC ~550~ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- ---------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा-मोहचलणा' कान्ती-कमनीयौ विशदौ-निर्मलौ मृदू-अकठिनौ सुकुमारी-अकर्कशी फूर्मसंस्थित्ती-फूर्मपदुन्नती विशिष्टौ-विशिष्टलक्ष- प्रतिपतौ जीवाभि |णोपेतौ चरणी यासा ताः फास्तविशदमदुसुकुमारकूर्मवदुन्नतसंस्थितविशिष्टचरणा: 'उज्जुमउयपीवरपुढसाहयंगुलीओ' ऋजयः-1 देवकुर्वमलयगि- अबका मृदय:-अकठिनाः पीवरा-अकृशाः पुष्टा-मांसलाः संहता:-सुनिष्ठा अङ्गुलयो वासा ता ऋजुमृदुकपीवरपुष्टसंहताङ्गुलयः धिकारः रीयावृत्तिः 'उन्नयरतियतलिनतंवसुइनिद्धनखा' उन्नता-उर्द्धनता रतिदा-रमणीयास्तलिना:-प्रतलास्ताम्रा-ईपद्रक्ताः शुचय:-पवित्राः स्निग्धाः-18 उद्देश:२ स्निग्धरछाया नया यासां ता उन्नतरतिदनलिनताम्रशुचिस्निग्धनखाः 'रोमरहियवट्टलट्ठसंठियअजहन्नपसस्थलक्खणजंघाजुयला ॥ २७४॥ सू०१४७ रोमरहितं वृत्त-वर्तुलं लष्ठसंस्थित-मनोज्ञसंस्थानं क्रमेणोई स्थूरस्थूरतरमिति भावः, अजघन्यप्रशस्त लक्षणं-जघन्यपदरहित शेषप्रश18 तरक्षणाङ्कित जङ्घायुगलं यासा ता रोमरहि तवृत्तलष्टसंस्थिताजघन्यप्रशतलक्षणजवायुगला: 'सुनिम्मियगूढ जाणुमंडलसुबद्धा' सुप्ठ-1 अतिशयेन निर्मित: सुनिर्मितः एवं सुगूढ़-मांसलतयाऽनुपलक्ष्यमाणं जानुमण्डलं सुबद्धं-स्नायुभिरतीव बद्धं यासा ता: सुनिर्मितसुगूढजानुमण्डलमुपयाः, मुबद्ध शब्दस्य निष्वान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् प्राकृतत्वाद्वा, 'कयलीखंभातिरेगसंठियनिव्वणसुकुमाल-1 मउयकोमल अइविमलसमसंहतसुजायबट्टपीवरनिरंतरोरू' कदलीस्तम्भाभ्यामतिरेकेण-अतिशायितया संस्थितं-संस्थानं य-18 योस्तो कदलीस्तम्भातिरेकसंस्थिती निर्बणी-विस्फोटकादिकृतक्षतरहितौ सुकुमारौ-अकर्कशी मृदू-अकठिनी कोमली-दृष्टिसुभगौ अतिविमलौ-सर्वथा स्वाभाविकागन्तुकमललेशेनाप्यकलकिती समसंहती-समप्रमाणौ सन्तौ संहतो समसंहती सुजाती-जन्मदोपर४ाहिती वृत्ती-वर्तुली पीवरी-मांसली निरन्तरी-उपचितावयवतयाऽपान्तरालवर्जितो ऊरू यासां ता: कदलीसम्भातिरेफसंस्थितनिर्मणसु-181॥२७४। कुमारमृदुकोमलातिविमलसमसंहतसुजातवृत्तपीचरनिरन्तरोरव: 'पट्टसंठियपसत्यविच्छिण्णपिहुलसोणीओ' पट्टवतू-शिलापट्टकादि-1 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 551~ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- ---------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] वत् संस्थिता पट्टसंस्थित्ता प्रशस्ता प्रशस्तलक्षणोपेत त्वाद् विस्तीर्णा ऊर्ध्वाधः पृथुला दक्षिणोत्तरतः श्रोणि:-कटेरप्रभागो यासां ताः पट्टस-10 स्थितविस्तीर्णपृथुलोणय: 'वयणायामप्पमाणदुगुणियविसालमसलसुबद्धजहणवरधारणीओ' बदनस्य-मुखस्यायामप्रमाण-द्वाद-15 शाङ्गुलानि तस्माद् द्विगुणित-द्विगुणप्रभाणं सद् विशालं वदनायामप्रमाणद्विगुणितविशालं मांसलमप्युपचितं सुबद्ध-अतीव सुबद्धावयम् | न तु श्वथमिति भावः जघनवरं-वरजघनं, वरशब्दस्य विशेषणस्यापि सतः परनिपात: प्राकृतलात्, धारयन्तीत्येवंशीला बदनायामप्रमाणद्विगुणितविशालमांसलसुवद्धजयनवरधारिण्यः बिजविराइयपसत्थलक्खणनिरोदरतिवलीविणीयतणुनमियमज्झियाओं वनस्येव विराजितं वनविराजितं प्रशस्तानि लक्षणानि यत्र तत् प्रशस्तलक्षणं निरुदरं-विकृतोदररहितं त्रिवलीविनीतं-तिस्रो बलयो |विनीता-विशेषतः प्रापिता यत्र तत् त्रिवलीविनीतं तनु-कृशं नतं तनुनतमीपन्नतमित्यर्थः मध्यं यासां ता वनविराजितप्रशस्तलक्षणनिरुदरत्रिवलीविनीततनुनतमध्यकाः 'उज्जुयसमसंहियजच्चतणुकसिणनिद्धआएजलडहसुविभत्तसुजायसोभतरुइलरमणिज्जरोम-18 राई' ऋजुका-न वका समा-न काप्युदन्तुरा संहिता-सन्तता न लपान्तरालव्यवच्छिन्ना जात्या-प्रधाना तन्वी न तु स्थूरा कृष्णा न मर्कटवर्णा स्निग्धा-स्निग्धच्छाया आदेया-दर्शनपथप्राप्ता सन्ती उपादेया सुभगेति भावः, एतदेव समर्थयति-लटहा-सलवणिमाऽत एव | आदेया सुविभक्ता-सुविभागा सुजाता-जन्मदोषरहिता अत एव शोभमाना रुचिरा-दीपा रमणीया-द्रष्टुमनोरमणशीला रोमराजि र्यासां ता नजुकसमसहितजात्यतनुकृष्णस्निग्धादेवलट हसुविभक्त सुजातशोभमानरुचिररमणीयरोमराजयः गंगावत्तपयाहिणावत्त तरंगभंगुररविकिरणतरुणपोहियआकोसायंतपउमगंभीरबियडनाभा' इति पूर्ववन्, 'अणुव्भडपसत्थपीणकुच्छीओ' भनुदा-अनुदाबणा प्रशस्ता-प्रशस्तलक्षणा पीना कुक्षिर्यास ता अनुबटप्रशस्तपीनकुक्षयः सन्नयपासा संगतपासा सुंदरपासा सुजायपासा मिय 1 ~552~ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- ---------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा- माइयपीणरइयपासा अकरंडयकणगरुयगनिम्मलमुजायनिरुवायगायलट्ठीओ' इति पूर्ववत्, 'कंचणकलससुप्पमाणसमसंहितसुजा-1-प्रतिपनी जीवाभिनयलढचूचुयआमेलगजमलजुगलबट्टियअन्भुन्नयरइयसंठियपओहराओं काथनकलशाविष काञ्चनकलशौ सुप्रमाणौ-स्वशरी-10 | देवकुर्व मलयगि- रानुसारिप्रमाणोपेतौ समो-नैको हीनो नैकोऽधिक इति भावः संहितौ-संतती अपान्तरालरहिताविति भावः सुजाती-जन्मदोषर- धिकारीयावृत्तिःहितौ लष्टी-मनोज्ञौ चूचुक आमेलक:-आपीडकः शेखरो ययोती चूचुकापीडको 'जमलजुगले'ति यमलयुगलं-समवेणीकयुगलरूपी | उद्देशः२ ॥ १७५॥ वर्तिताविव वर्तितौ कठिनाविति भावः अभ्युन्नती-पत्युरभिमुखमुन्नती रतिद-रनिकारि संस्थितं-संस्थानं ययोसी रतिदसंस्थिती पयो सू०१४७ धरौ यासा ताः काञ्चनकलशसुप्रमाणसमसंहितसुजातलष्टचूचुकापीडयमलयुगलवर्तिताभ्युन्नतरतिदसंस्थितपयोधरा: 'अणपव्यतणयते गोपुच्छबट्टसमसहितनमियआएज्जललियबाहाओं आनुपूर्येण-क्रमेण तनुको आनुपूर्व्यतनुको अत एव गोपुच्छवद् वृत्तौ-वर्तुली। सौ-समप्रमाणौ संहिती-स्वशरीरसंश्लिष्टौ नतो स्कन्धदेशस्य नतत्वान् आदेयौ-अतिसुभगतयोपादेयौ ललितौ-मनोज्ञचेष्टाकलितो बाहू यासां ता आनुपूर्व्यतनुगोपुच्छवृत्तसंहितनतादेयललितवाहवः 'तंबनहा' ताम्रा-ईपद्रक्ता नखा:-कररुहा यासां तास्ताम्रनखाः मसलग्गहत्था' मांसलौ अग्रहस्तौ बाह्वयभागवर्तिनौ हस्तौ बासा ता मासलाग्रहस्ता: 'पीवरकोमलवरंगुलीया' पीवरा-उपचिताः कोमला:-सुकुमारा बरा:-प्रमाणलक्षणोपेततया प्रधाना अङ्गुलयो वासा ता: पीवरकोमलवराङ्गुलिका: 'निद्धपाणिरेहा' निग्धाः । पाणी रेखा यासां ताः तथा, रविससिसंखचासोत्थियविभत्तविरइयपाणिलेहा' इति पूर्ववत् 'पीणुनयकक्खवक्खवस्थिप्पएसा पीना-उपचितावयवा उन्नता-अभ्युन्नता: कक्षावक्षोवस्तिरूपाः प्रदेशा यासां ताः पीनोन्नतकक्षावक्षोवस्तिप्रदेशा: 'पडिपुण्णगलक ॥२७५॥ बोला' प्रतिपूर्णी गलकपोली च यासा तास्तथा 'पउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा' पूर्ववत् 'मसलसंठियपसरथहणुया' मांसलम् | अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~553~ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- ---------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [9] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] -उपचितमांसं संस्थितं-विशिष्टसंस्थान प्रशस्त-प्रशस्खलक्षणोपेतं हनुकं यासा ता मामलसंस्थितप्रशस्तहनुका: 'दाडिमष्फप्पगासपीवरप्पवराहरा दाडिमपुष्पप्रकाशः पीवरः प्रवर:-सुभगोऽधरो यास ता दाडिमपुष्पप्रकाशपीवर प्रवराधराः 'सुंदरोत्तरोडा' व्यक्त 'दहिदगरयचंदकुंदवासंतियमउलधवल अच्छिद्दविमलदसणा' दधि-प्रतीतं दकरज-उदककणाः चन्द्र:-प्रतीतः कुन्द:-कुसुमं बास|न्तिकामुकुलबासन्तिकाकलिका तबला अपिछद्रा:-छिद्ररहिता बिमला-मलरहिता दशना-दन्ता यासा ता दधिदकरजचन्द्रकुन्दवासन्तिकामुकुलधवलाच्छिद्रविमलदशना: 'रत्तुष्पलपत्तमउयसूमालतालुजीहा' रक्तोत्पलवद् रक्तं मृदु-अकठिन सुकुमारंअकर्कशं तालु जिला प यासा ता रक्तोत्पलसूदुसुकुमारतालुजिहा: 'कंणइरमुकुल अकुडियअम्भुग्गयउजुतुंगनासा' कणयराअतिस्निग्धतया श्लक्ष्णलक्ष्णखेद कणाकीर्णा मुकुला-नासापुटद्वयत्रापि यथोक्तप्रमाणत या संपत्ताकारतया च मुकुलाकारा अभ्युद्गताअभ्युन्नता जुका-सरला तुझा-उच्चा नासा यासा तास्तथा, 'सारयनवकमलकु यकुवलयविमुक्कदलनिगरसरिसलक्खणंकियकंतनयणाओ' शारद-शरमासभाबि यन्नव-प्रत्यय कमल-पां कुमुदं-कैरवं कुवलयं-नीलोत्पलं तेर्विमुक्तो यो दलनिकरस्तत्सदृशे, किमुकं भवति ?-एवं नामायतदीचे मनोहारिणी नग्रने यन् शारदान्नवात् कमलाद्वा कुमुदादा कुवलयाद्वा उत्पता पत्रद्वयमिवावस्थितमाभातीति, लक्षणाकिते-प्रशस्त लक्षणोपेते नयने यासां ताः शारदनवकमलकुमुदकुवलयविमुकदलनिकरमहशलक्षणाङ्कितनयनाः, एनदेव किञ्चिद्विशेषार्थमाह-पत्तलचपलायंततंबलोयगाओ' पत्रले-पक्ष्मवती चपलायमाने ताने-कचित्प्रदेशे ईषद्क्ते लोचने यासां ताः पत्रलचपलायमानताम्रलोचना: 'आणामियचावरुइल किण्हभराइसंठियसंगयभागय मुजायभुमया अल्ली गपमा यजुत्तसवणा' इति पूर्ववन् , पीणमहरमणिज्जगंडलेहा' पीना-टपचिता भृष्टा-ममृणा रमणीया-रम्या गण्डोखा- बोलपाली यास ताः पीनमृष्टरमणीयगण्ड ~554~ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] ॐX % श्रीजीवा- लेखा: 'चउरंसपसस्थसमनिडाला' चतुरस्र-चतुष्कोण प्रशस्त-प्रशस्तलक्षणोपेतं सम-अधिस्त या दक्षिणोत्तरतया च तुल्याप्रमाणे प्रतिपत्तौ जीवाभिललाटं यासां ताश्चतुरस्रप्रशस्तसमललाटा: 'कोमुईरयणिकरविमलपडिपुण्णसोमवयणा' कौमुदी-कात्तिकी पौर्णमासी तस्यां रज- देवकुर्वमलयगि-15निकर इन विमल प्रतिपूर्ण सोमं च बदनं यासा ता: कौमुदीरजनिकरविमलप्रतिपूर्णसोमबदनाः, सोमशब्दस्य परनिपातः प्राकृतवान, IBाधिकार यावृत्तिः छत्तुन्नयउत्तमंगाओं छत्रयन्मध्ये उन्ननमुत्तमाएं यासां ताश्छत्रोन्नतोत्तमाना: 'कुडिलसुसिणिद्धदीहसिरयाओ' कुटिलाः सु-14 उद्देशः२ स्निग्धा दीर्घाः शिरोजा यासां ताः कुटिलमुस्निग्धदीर्घशिरोजाः, छत्रध्वजयूपस्तूपदामनीकमण्डलुकलशवापीसौवस्तिकपताकायवमत्स्य सू०१४७ 11२७६॥ कूर्मरथवरमकरशुकस्थालाङ्कशाप्टापदसुप्रतिष्ठकमयूरश्रीदामाभिषेकतोरणमेदिन्युधिवरभवनगिरिवरादर्शललितगजवृषभसिंहचामररूपा-16 णि उत्तमानि-प्रधानानि प्रशस्तानि-सामुद्रिक शास्त्रेषु प्रशंसास्पदीभूतानि द्वात्रिंशतं लक्षणानि धारयन्तीति छत्रचामरयावदुत्तमप्रशस्तद्वात्रिंशहक्षणधराः 'हससरिसगतीओ' हंस स्व सहशी गतिर्यासो वा हंससदशगतयः, कोकिलाया इव या मधुरा गीस्तया सु-IA स्वरा: कोकिलामधुरगी:सुस्वराः, तथा कान्ता:-कमनीयाः, तथा सर्वस्य-तत्प्रत्यासन्नवर्सिनो लोकस्यानुमता:-संमता न मनागपि देण्या: इति भावः, व्यपगतवलिपलिताः, तथा व्यङ्गदुर्वर्णव्याधिदौर्भाग्यशोकमुक्ताः, स्वप्रेऽपि तेषामसम्भवात् , खभावत एव शृंगार:-शृङ्गाररुपश्चारु:-प्रधानो वेषो यासां ताः स्वभावकारचारुवेषाः, तथा 'संगयगयहसियभणियचेद्वियविलाससंलावणिउणजुत्तोवयार-IN कुसला' सङ्गतं-सुनिष्टं यद् गत-गमनं हंसीगमनवत् हसितं-हसनं कपोलविकासि प्रेमसंदर्शि च भणितं-भणनं गम्भीर-मन्मथोदीपि च चेष्ठितं-चेष्टनं सकाममङ्गप्रत्यङ्गोपदर्शनादि विलासो-नेत्रविकारः संलाप:-पल्या सहासकामखहदयालार्पणक्षम परस्परसं-| 19॥२७६ ॥ भाषणं निपुणः-परमनैपुण्योपेतो युक्तश्च यः शेष उपचारस्तत्र कुशलाः संगतगतहसितभणितचेष्टितविलाससलापनिपुणयुक्तोपचार दीप अनुक्रम [१८५]] 4-64% % *% अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~555~ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------ ---------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम कलिताः, एवंविधविशेषणाश्च स्वपति प्रति द्रष्टव्या न परपुरुष प्रति, तथा क्षेत्रवाभाव्यत: प्रतनु कामतया परपुरुष प्रति तासामभिलापासम्भवान् , पूर्वोक्तमेवा) संपिण्ड्याह-वरस्तनजपनबदनकरचरणनयनलावण्यवर्णयौवनविलासकलिता नन्दनवनचारिण्य इवाप्स-| रसः, 'अच्छेरपेच्छणिज्जा' इति आश्चर्यप्रेक्षणीयाः 'पासाईयाओं' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वन् । सम्प्रति स्त्रीपुंसविशेषमन्तरेण सामान्यतस्तत्रतामनुष्याणां स्वरूपं प्रतिपिपादयिपुरिदमाह-'ते णं मणुया ओहस्सरा' इत्यादि, ते उत्तरकुरुनिचासिनो मनुष्या ओघ:१ प्रवाही स्वरो येषां ते ओधस्वराः, हंसस्येव मधुरः खरो येषां ते हंसस्वराः, कौश्वस्येवाप्रयासविनिर्गतोऽपि दीर्घदेशव्यापी खरो पार ते क्रौञ्चस्वराः, एवं सिंहवरा दुन्दुभिस्वरा नन्दिस्वराः, नन्द्या इव धोप:-अनुनादो येषां ते नन्दीघोषाः, मजु:-प्रियः खरो पां ते मञ्जस्वराः, मॉंपो येषां ते मजुधोपाः, एतदेव पदद्वयेन व्याचष्टे-सुस्वरा: सुखरनिर्घोषाः 'परमुप्पलगंधसरिसनीसाससुर| भिवयणा' पद्म-कमलमुत्पलं-नीलोत्पलं अथवा पग-पनकाभिधानं गन्धद्रव्यं उत्पलम्-उत्पलकुष्ठ तयोर्गन्धेन-सौरभ्येण सदृशःसमो यो निःश्वासन सुरभिगन्धि वदनं-मुखं येषां ते पद्मोपलगन्धसरशनिःश्वाससुरभिवनाः, तथा छबी-उविमन्त उदात्तवर्णया सुकुमारया च त्वचा युक्ता इति भावः 'निरायंकउत्तमपसत्थअइसेसनिरुवमतणू निरातङ्का-नीरोगा उत्तमा-उत्तमलक्षणोपेता | अतिशेषा-कर्मभूमकमनुष्यापेक्षयाऽतिशायिनी अत एव निरुपमा-उपमारहिता तनु:-शरीर येषां ते निरातकोत्तमप्रशस्तातिशेषनि-1 रुपमतनयः, एतदेव सविशेषमाह-'जल्लमलकलंकसेयरयदोसवजियसरीरनिरुवलेवा' वाति च' लगति चेति जल:-पुपोवरादित्वान्निष्पत्तिः खल्पप्रयत्नापनेयः स चासौ मलश्च जल्लमलः स च कलई च-दुष्टतिलकादिकं चित्रादिकं वा स्वेदश्च-प्रस्वेदः रजश्च-1 रेणुषो-मालिन्यकारिणी चेष्टा तेन वर्जितं निरुपलेपं च-मूत्रविष्ठागुपलेपरहितं शरीरं येषां ते जहमलकलङ्कखेदरजोदोपवर्जित [१८५]] ~556~ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा- निरुपलेपशरीरा:, सूत्रे च निरुपलेपशब्दस्य परनिपात: प्राकृत खात्, 'छायाउजोवियंगमंगा' छायथा-शरीरप्रभवा उयोतित- प्रतिपत्ती जीवाभि म ङ्गमङ्गम्-अङ्गप्रत्यङ्गं येषां ते तथा, 'अनुलोमवाउवेगा' अनुलोमः-अनुकूलो वायुवेग:-शरीरान्तर्वर्तिवातजवो येषां ते अनुलोम- देवकुर्वमलयगि- वायुवेगाः, वायुगुल्मरहितोदरमध्यप्रदेशा इति भावः, आह च मूलटीकाकार:-उदरमध्यप्रदेशे वायुगुल्मो येषां तेषामनुलोमोमाधिकारः रीयावृत्तिः बायुवेगो न भवति, तदभावाच तेषामनुलोमो भवति वायुवेगो मिथुनाना"मिति, काहणी' इति कला-पक्षिविशेषस्तस्येव प्रहणि:-४ उद्देशः२ गुदाशयो नीरोगवर्जस्कतया येपां से कपहणयः, 'कवोयपरिणामा' कपोतस्येव-पक्षिविशेषम्य परिणाम-आहारपाको येषां ते क-18 सू०१४७ ॥२७७॥ पोतपरिणामाः, कपोतन्य हि जाठराग्निः पापाणलवानपि जरयतीति अतिः, एवं नेपामप्यत्यर्गलाहारग्रहणेऽपि न जातुचिप्यजीर्णदोषा भवन्तीति, 'सउणिपोसपिठंतरोरुपरिणया' इति शकुनेरिव-पक्षिण इव पुरीपोत्सर्गे निपतया 'पोसंति पोस:-अपानदेशः 'पुसउत्समें पुरीपमुत्सृजन्त्यनेनेति व्युत्पत्तेः, तथा लघुपरिणामतया पृष्ठं च प्रतीतं अन्तर च-पृष्ठोदरयोरन्तराले पावित्यर्थः करू चेति | द्वन्द्वः ते परिणता येषां ते शकुनिपोसषुष्ठान्तरोरुपरिणताः, निष्टान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनान, 'बिग्गहियउन्नयकुच्छी' वि-II प्रहिता-मुष्टि प्राला उन्नता च कुभिर्येषां ते विग्रहितोन्नतकुनयः, वर्षभनाराचं संहननं येषां ते वर्षभनाराचसंहननाः, तथा सम चतुरमं च तम् संस्थानं च समचतुरमसंस्थानं तेन संस्थिताः समचतुरखसंस्थानसंस्थिताः, पधनु:सहस्रोच्छ्रिता:-त्रिगव्यूतप्रमाणोसामनायाः, तथा तेपागुत्तरकुमवास्तव्याना मनुष्याणां दे पृष्ठकरण्डकशते पट्पञ्चाशे-पट्पञ्चाशदधिके प्रज्ञो तीर्थकरगणधरः।। 'ते णं| दामणुया' इत्यादि, ते उत्तरकुरुवातल्या मनुजाः प्रकृत्या-स्वभावेन भद्रका:-अपरानुपनामहे तुकायवाड्मनश्चेष्ठाः, तथा प्रकृत्या-स्वभावेन ॥२७७ ।। न तु परोपदेशतः परेभ्यो भयसो योपशान्ताः, तथा प्रकृत्या-स्वभावेन प्रतनब:-अतिमन्दीभूताः क्रोधमानमायालोभा येषां ते प्रक KOCHECCANCHAR अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~557~ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] CSC-CA दीप अनुक्रम तिप्रतनुक्रोधमानमायालोभाः, अत एव मृदु-मनोज्ञं परिणामसुखावहमिति भावः यन्मार्दवं तेन संपन्ना मृदुमार्दवसंपन्ना न कपटमार्दवो-10 पता: 'अल्लीणा' इति आ-समन्तात्सर्वासु क्रियासु लीना-गुमा आलीना नोवणचेष्टाकारिण इत्यर्थः, भद्रका:-सकल तत्क्षेत्रोचितकल्या-है। भागिनः विनीता-वृहत्पुरुषविनयकरणशीला: अल्पेन्टा-मणिकनकादिविषयप्रतिवन्धरहिता अत एवासन्निधिसञ्चया-न विद्यते सन्निधिरूपः सञ्चयो येषां ते तधा, "विडिमंतरपरिवसणा' बिडिमान्तरेषु-शाखान्तरेषु प्रासादाद्याकृतिपु परिवसनं-आकालमावासो येषांक ते विडिमान्तरपरिवसना: 'जहिच्छियकामकामिणो' यथेप्सितान् मनोवाञ्छितान कामान-शब्दादीन कामयन्त इत्येवंशीला यथेप्सितकामकामिनः, ते उत्तरकुरुवातव्या मिति पूर्ववन् मनुजाः प्रज्ञता हे श्रमण! हे आयुष्मन! | 'तेसि णं भंते!' इत्यादि, तेषां भदन्त ! उत्तरकुरुवास्तव्यानां मनुष्याणां 'केवाइकालस्सति सप्तम्य) पप्ती कियति काले गते भूय आहारार्थः समुत्पद्यते-आहारलक्षणं प्रयोजनमुपतिष्टते?, भगवानाह-गौतम! 'अष्टमभक्तस्य अत्रापि सप्तम्यर्थे षष्टी अष्टमभक्तेऽतिक्रान्ते आहारार्थः समुत्पयते ।। 'ते णं भंते !' इत्यादि. ते उत्तरकुरुवातम्या भनुन्त ! मनुष्याः किमाहारमाहारयन्ति ?, भगवानाह-गौतम! पृथिवीपुष्प फलाहारा:-पृथिवीपुष्पफलानि च कल्पद्रुमाणामाहारो येषां ते तथा ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसि णं भंते हा इत्यादि, तस्या मदन्त ! पृथिव्याः कीटश आखादः प्रज्ञतः , भगवानाह-गौतम! 'से जहा नामए' इत्यादि, तन्-लोके प्रसिद्ध यथा नाम 'ए' इति वाक्यालङ्कारे ऽखण्डमिति या, इतिशब्द उपमाभूतवस्तुनामपरिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्दो विकल्पने, एवं सर्वत्र, गुद्ध इति वा शर्करा इति वा, इयं शर्करा काशादिप्रमवा द्रष्टव्या, मत्स्य ण्डिका इति या, मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा, पप्पटमोदक इति वा विसकन्द इति वा पुप्पोत्तरेति वा पनोत्तरेति वा विजया इति वा महाविजया इति वा उपमा इति वा अनुपमा इति वा, पप्प [१८५]] CAL ~ 558~ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा टमोदकादयः खाय विशेषा लोकतः प्रत्येतव्याः, चाउरके वा गोखीरें' इत्यादि बा, चातुरक्य-चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तं सर्व- प्रतिपत्ती जीवाभिन पुण्डनेशोद्भवेक्षचारिणीनामनामशानां कृष्णानां यक्षीरं तदन्यान्याभ्यः कृष्णगोभ्य एव यथोक्तगुणाभ्यः पानं दीयते, तत्क्षीरमध्यवभूता-18दवकुबमलयगि-18 भ्योऽन्याभ्यस्तरक्षीरमप्यन्याभ्य इति चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तं, एवंभूतं यचातुरक्यं गोक्षीरं खण्डगुडमत्स्यण्डिकोपनीत-खण्डगु-131 राधिकारः रीयावृत्तिः इमत्स्पण्डिका उपनीता यत्र तत्तथा, मुखादिदर्शनान्निष्टान्तस्य परनिपातः, खण्डादिभिः सुरसता प्रापितमिति भावः, 'मदग्गिकढिए' उद्देशः २ मन्दमग्निना कथितं मन्दाग्निकथितम् , अत्यग्निकथितं हि बिरसं विगन्धादि च भवतीति मन्दग्रहण, वाचतिशयप्रतिपादनार्थमेवाहासू० १४७ ॥२७८॥ -वर्णेन-सामध्यादतिशायिना अन्यथा वर्णोपादाननैरर्थक्यापत्तेः उपपेतं-युक्तं, एवं गन्धेन रसेन स्पर्शन चातिशायिनोपपेतं, एवमुक्ते। गौतम आह-भगवन् ! भवेदेतपः पृथिव्या आस्वादः ?, भगबानाह-गौतम ! नायमर्थ: समर्थः, तस्याः पृथिव्या इतो-गुडखण्डशर्करादेरिटतर एव, यावरकरणान् कंततराए चेव पियतराए चेव मणामतराए चेति परिग्रहः, आस्वादः प्रज्ञप्तः ।। पुष्पफलादीनामा स्वादनं पृच्छन्नाह-'तेसिणं भंते ! पुष्फफलाण' मित्यादि, तेपो कल्पपादपसलकानां पुष्पफलानां कीदृश आस्वादः प्रज्ञप्तः ?, भहै गवानाह-गौतम! 'से जहा नामए' इत्यादि तद्यथा नाम राज्ञः, स च राजा लोके कतिपयदेशाधिपतिरपि प्राप्यते तत आह-18 चतुरन्तचक्रवर्तिन:-चतुर्यु अन्तेपु त्रिसमुद्रहिमवत्परिच्छिन्नेषु चक्रेण वर्तितुं शीलं यस्यासौ चक्रवर्ती तसा कल्याण-एकान्तसुखा वह भोजनं शतसहस्रनिष्पन्नं-लक्षनिष्पन्नं वर्णेनातिशायिनेति गम्यते, एवं गन्धेन रसेन स्पर्शनोपपेतं, आस्वादनीयं सामान्येन विस्वा-* *दनीयं विशेषतस्तद्रसप्रकर्षमधिकृत्य दीपनीयमभिवृद्धिकरं, दीपयति हि जाठराग्निमिति दीपनीय, बाहुलकात्कयनीयप्रत्ययः, ए २७८ ।। दर्पणीय मुत्साहवृद्धिहेतुत्वान् , मदनीय मन्मथजननात् , बृहणीयं धातूपचयकारित्वात् , सर्वाणीन्द्रियाणि गात्रं च प्रहादयतीति स CARD-CLOCAL अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 559~ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------ ---------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] - वेन्द्रियगानप्रहादनीय, वैशयेन तत्प्रहादहेतुत्वात् , एवमुक्ते गौतम आह-भगवन् ! भवेदेतद्पः पुष्पफलानामास्वादः १, भगवानाहगौतम! नायमर्थः समर्थः, तेषां पुष्पफलानामितश्चक्रवत्तिभोजनादिएतरादिरेवास्वादः प्रज्ञप्तः ॥ 'ते णं भंते!' इत्यादि, ते भदन्त ! मनुजास्त-अनन्तरोदितस्वरूपमाहारमाहार्य 'क वसती' कस्मिन्नुपाये 'उपयान्ति ?' उपगच्छन्ति, भगवानाह-गीतम! 'वृक्षगृहा-| लया' वृक्षरूपाणि गृहाणि आल्या-आश्रया येषां ते वृक्षगृहालयास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे प्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'ते णं भंते। इत्यादि, ते भदन्त ! वृक्षाः 'किंसंस्थिताः' किगवसंस्थिताः प्रज्ञता:?, भगवानाह-गौतम! अप्येकका: कूटाकारसंस्थिताः शिखरा-11 कारसंथिता इत्यर्थः अप्येकका: प्रेक्षागृहसंस्थिताः अध्येककाश्छन्नसंस्थिताः अप्येकका वजसंस्थिता: अप्येककाः सूपसंस्थिताः अप्येककास्तोरणसं खिता: अध्येकका गोपुरसंस्थिताः, गोभिः पूर्यत इति गोपुरं-पुरद्वार, अध्येकका वेदिकासंस्थानसंस्थिताः, वेदिका-उप|वेशनयोग्या भूमिः, अप्येककाचोपालसंखिता इत्यर्थः, घोप्पालं नाम मनवारणं, अग्येकका अट्टालकसंस्थिताः अट्टालक:-प्राकारस्पो-1 पर्याश्रयविशेषः, अप्येकका वीथीसंस्थिता: वीथी-मार्गः, अध्येककाः प्रासादसंस्थिताः, राज्ञां देवतानां च भवनानि प्रासादाः उत्सेधबहुला वा प्रासादास चोभयेऽपि पर्यन्तशिखराः, हयं-शिखररहितं धनवता भवन, अप्येकका गवाक्षसंस्थिताः, गवाक्षो-वातायन, अध्येकका? वालाप्रपोतिकासंस्थिताः, वालाप्रपोतिका नाम तडागादिषु जल स्योपरि प्रासादा, अध्येकका बलभीसंस्थिताः, वलभी-गृहाणामाकछा-1 दन, अप्येकका परभवन विशिष्टसंस्थानसंस्थिताः, वरभवनं सामान्यतो विशिष्टं गई तस्येव यद् विशिष्ठं संस्थानं तेन संस्थिताः, शुभा | शीतला च छाया येषां ते शुभशीतलच्छायाले द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता हे अमण! हे आयुष्मन् ! ।। 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु गृहाणि वाऽस्मद्गृहकल्पानि गृहायतनानि-तेषु गृहेषु देषां मनुष्याणामायतनानि-गमनानि गृहायतनानि ?,] दीप अनुक्रम [१८५]] - - - - - - - * ~ 560~ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक उद्देशः२ [१४७] स०१४७ दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा- भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समथों, वृक्षगृहालयास्ते मनुजाः प्रज्ञता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ॥ 'अस्थि णं भंते !' इत्यादि, प्रात जीवाभि० | सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु प्रामा इति वा यावत्सन्निवेशा इति वा, यावत्करणानगरादिपरिग्रहः, तत्र असन्ति बुझ्षादीन गु- दवकुर्वमलयगि- गानिति यदिवा गम्या:-शाखप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति ग्रामाः, न विद्यते करो येषु तानि नकराणि, नखादय इति नि- धिकारः रीयावृत्तिः पातनान्नयोऽनादेशाभावः, निगमा:-प्रभूतबणिग्वर्गावासाः, पाशुप्राकारनिवद्धानि खेटानि. अलपाकारवेष्टितानि कर्वटानि, अर्द्धगृती-10 यगम्यूतान्तर्यामरहितानि मडम्बानि, 'पट्टणाइ नि पढ़नानि पत्तनानि बा, उभयत्रापि प्राकृतखेन निर्देशस्य समानखान , तत्र यन्नी-पा ॥२७९॥ भिरेच गम्यं तत्पनं. यत्पुनः शकटै|ट कैनौभित्र गम्यं तत्पत्तनं यथा भगकन्छ, उन च-पत्तनं शकटैगम्यं, घोट कैनोंभिरेव । च । नौभिरेव नु यगम्य, पट्टनं तत्प्रचक्ष्यते ॥ १॥" द्रोणमुखानि-बाहुल्येन जलनिर्गमप्रवेशानि, आकरा-हिरण्याकरादयः, आअमा:-नापसावसथोपलभिता आश्रयाः, संवाधा-यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशाः, राजधान्यो यत्र नकरे पत्तनेऽन्यत्र वा स्वयं राजा वसति, सनिवेशा इति-सन्निवेशो यत्र सार्थादिरावासिनः, भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समों, यद-यस्मान्ने पिछतकामगामिन:-14 ४ान इच्छित-इच्छाविषयीकृत नेछित, नायं न किन्तु नशब्द इत्यत्रा(ना)देशाभायो यथा 'नके द्वेषम्य पर्याया' इत्यत्र, नेच्छित-इच्छाया | अविषयीकृतं काम-खेच्छया गच्छन्तीत्येवंशीला नेछितकामगामिनले मनुजाः प्रज्ञप्ता हे अमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु 'असयः' अस्युपलक्षिताः सेवकाः पुरुषाः, मयीति वा मध्युपलक्षिता लेखनजीविनः, कृपिरिति कृषिकर्मोपजीविनः, 'पणीति पणितं पण्यमिति वा क्रयविक्रयोपजीविनः, वाणिज्यमिति वाणिज्यकलोपजीविनः', भगवा-11 नाह-गौतम! नायमर्थः समर्थो, व्यपगतासिमषीकृपिपण्यवाणिज्यास्ते मनुजाः प्रशला हे अमण! हे आयुष्मन! ॥ 'अस्थि णं भंते'। *--46-4364 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 561~ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७ ] दीप अनुक्रम [१८५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र )], मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरु कुरुपु हिरण्यमिति वा हिरण्यं अघटितं सुवर्ण कांस्यं - कांस्यभाजनजातिः 'इस'मिति वा दृष्यं वखजातिः, मणिमौक्तिकशङ्ख शिलाप्रवालसत्सारस्वापतेयानि वा, तत्र मणिमौक्तिकाशिलाप्रवालानि प्रतीतानि सद्-विद्यमानं सारं - प्रधानं स्वापतेयं धनं सत्सारस्वापतेयं भगवानाह - हन्ता ! अस्ति. 'नो चेव ण'मियादि, न पुनस्तेषां मनुजानां तद्विपयस्तीत्रो ममत्वभावः समुत्पद्यते, मन्दरागादित्तया विशुद्धाशयत्वात् ॥ 'अस्थि णं भंते!" इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरु कुरुषु राजेति वा राजा चक्रवर्ती वलदेववासुदेवो महामाण्डलिको वा युवराज इति वा उस्थिताशन: ईश्वरो-भोगिकादि, अणिमाद्यविधैश्वर्ययुक्त ईश्वर इत्येके तलवर इति वा, तलवरो नाम परितुष्टनरपतिप्रदत्तराजूत सौवर्णपट्ट विभूषितशिराः कौटुम्बिक इति वा, कतिपयकुटुम्बप्रभुः कौटुम्बिकः, माम्बिक इति वा यस्य प्रत्यासन्नं ग्रामनगरादिकमपरं नास्ति तत्सर्वतन्निं जनाश्रयविशेषरूपं मद स्वाधिपतिर्माम्बिकः इभ्य इति वा, इमो-हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमतीतीभ्यः यत्सत्कपुजीकृत हिरण्यरत्नादिव्येणान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते सोऽधिकतरद्रव्यो वा इभ्य इत्यर्थः श्रेष्ठीति वा श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गः पुरयेष्ठो वणिग्विशेषः श्रेष्ठी, सेनापतिरिति वा हस्त्यश्वरथपदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुः सेनापतिः, सार्थवाह इति वा, "पौणिमं धरिगं मेजं पारिष्ठं चैव दव्वजायें तु । घेत्तृणं लाभत्थं वञ्चइ जो अन्नदेसं तु ॥ १ ॥ नित्रवहुमओ पसिद्धो दीणामाहाण वच्छलो पंथे । सो सत्यवाहनामं घणो व्व लोए समुम्बइ ॥ २ ॥" एतडक्षणयुक्तः सार्थवाहः, भगवानाह - गौतम! नायमर्थः समर्थो व्यपगत सत्कारा १ गणनं धरिमं मेयं परिच्छेयं चैव द्रव्यजातं तु गृहीत्वा लाभार्थ जति योऽन्यदेशं तु ॥ १ ॥ बहुमतः प्रसिद्धी दीनानाथानां वत्सलः पथि । स सार्थ वाहनामधन इव लोके समुद्रहति ॥ २ ॥ Fir P&Pale Cnly ~ 562~ watyw Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा व्यपगता रद्धिः-विभवैश्वर्य सत्कारम-सेव्यतालक्षणो येभ्यस्ते तथा उत्तरकुरुवास्तव्या मनुजाः प्रज्ञता हे श्रमण! हे आयुष्मन ! 118 प्रतिपत्ती जीवाभि० 'अस्थि णं भंते' इलयादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुपु दास इति बा, दास:-आमरणं क्रयक्रीतः, प्रेष्य इति वा, प्रेष्य:- देवकुर्वमलयगि-1 प्रेषणयोग्यः, शिष्य इति वा, शिष्य:-उपाध्यायस्योपासकः, भृतक इत्ति था, भृतको-नियतकालमधिकृत्य घेतनेन कर्मकरणाय धृतः,IIधिकारः रीयावृत्तिा भागिल्लए'ति वा भागिक इति धा, भागिको नाम द्वितीयांशस्य चतु(शस्य वा ग्राहकः, कर्मकारपुरुष इति वा, कर्मकारो लोहा- उद्देशः२ हिरादिः कर्मकार: ?, भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समों, व्यपगताभियोग्यास्ते मनुजाः प्रजाताः, अभिमुखं कर्मसु युज्यते व्यापार्यत ॥२८॥ सू०१४७ इति वाऽभियोग्यस्तस्य भावः कर्म का आभियोग्य, 'व्य जनाद् यपंचमस्य सरूपे वा' इत्येकस्य यकारस्य लोपः, व्यपगतमाभियोग्य येभ्यसे तथा हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, अस्ति भवन्त ! उत्तरकुरपु कुरुपु मातेति वा पितेति वा ] भ्रातेति वा भगिनीति वा भाति वा सुत इति या दुहितेति वा स्नुपेति बा?, तत्र माता-जननी पित्ता-जनकः सहोदरो-भ्राता सहोदरी-भगिनी वधू:-भार्या मुत:-पुत्रः सुता-दुहिता पुत्रवधूः-स्नुपा, भगवानाह-हन्त ! अस्ति, तथाहि-या प्रसूते सा जननी, कायो बीजं निषिक्तवान् स पिता विवक्षित: पुरुषः, सहजातो यो भ्राता एकमातृपितृ कत्वान् , इतरा तस्य भगिनी, भोग्यत्वाद् भार्या, स्वमातापित्रोः स पुत्र इतरा दुहिता, स्वपुत्रभोग्यत्वात्सपेति, 'नो चेव ण मित्यादि, न पुनस्तेषां मनुजानां ती प्रेमरूपं बन्धनं स-1 IAमुत्पद्यते, तथा क्षेत्रस्वाभाव्यात् प्रतनुप्रेमबन्धनास्ते मनुजगणाः प्रज्ञता हे अमण! हे आयुष्मन् ! ।। 'अस्थि भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु अरिरिति वा-शत्रुः वैरीति वा-जातिनियद्धवैरोपेतः, घातक इति वा, घातको योऽन्येन घातयति, वधक इति वा, वधक:-स्वयं हन्ता, प्रत्यनीक इति वा, प्रत्पनीक:-छिद्रान्वेषी, प्रत्यमित्र इति वा, प्रयमित्रो यः पूर्व मित्रं भूत्वा पश्चाद-| SADHAN अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 563~ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] Viमित्रो जातः १, भगवानाह-नायमर्थः समर्थों, व्यपगतवैरानुबन्धास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु मित्रमिति वा मित्रं-मेहविषयः, वयस्य इति वा-सभानवया गाढतरस्नेहविषयः, | सखा इति वा-समानखानपानो गाढतमस्नेहस्थानं, सुहृदिति वा, सुहन्-मित्रमेव सकलकालमव्यभिचारि हितोपदेशदाथि प, साग|तिक इति वा, साङ्गतिकः-सङ्गतिमात्रघटित: ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थों, व्यपगतस्नेहानुरागास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ।। 'अस्थि पां भंते !' इत्यादि, अस्ति भदन्त : उत्तरकुरुपु कुरुपु आवाहा इति वा' आहूयन्ते स्वजनास्ताम्बूलदानाय यत्र स आवाह:-विवाहात्पूर्वस्ताम्बूलदानोत्सवः, वीवाहा इति वा, वीवाहः-परिणयनं, यज्ञा इति घा, यज्ञा:-प्रतिदिवसं खखेष्ट देवता| पूजाः, भाद्वानीति बा, श्राद्ध-पितक्रिया, थालीपाका इति वा, स्थालीपाक:-प्रतीतः, मृतपिण्डनिवेदनानीति वा-मृतेभ्यः श्मशाने तृतीयनवमादिषु दिनेषु पिण्डनिवेदनानि मृतपिण्डनिवेदनानि, चूडोपनयनानीति बा, चूडोपनयनं-शिरोमुण्डनं, सीमन्तोन्नयनानीति | वा, सीमन्तोन्नयनं-गर्भस्थापनं १, भगवाना-नायमर्थः समर्थो, व्यपगतापाहवीवाहयज्ञश्राद्धस्थालीपाकमृतपिण्डनिवेदनास्ते मनुजाः | प्रज्ञप्ता हे अमण! हे आयुष्मन् ! || 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु नटप्रेक्षेति वा नटा-नाटकानां नादयितारस्तेषां प्रेक्षा नटप्रेक्षा, नृत्यप्रेक्षेति वा, नृत्यन्ति स्म नृत्या-नृत्यविधायिनस्तेषां प्रेक्षा नृत्यप्रेक्षा इति वा, जलप्रेक्षेति बा, जला-वरनाखेलका राजस्तोत्रपाठका इत्यपरे तेषां प्रेक्षा जलप्रेक्षा, मलप्रेक्षेति बा, मल्ला:-प्रतीवाः, मौष्टिकप्रेक्षेति वा, मौष्टिका: महविशेषा एप ये भु| टिभिः प्रहरन्ति, विडम्बकप्रेक्षेति वा, विडम्बका-विदूषका नानावेपकारिण इत्यर्थः, कथकप्रेक्षेति बा, कथका: प्रतीता:, पुर्वकोक्षेति वा, प्लवका ये उत्प्लुत्य गर्तादिकं झम्पामिर्लयन्ति नयादिकं वा तरन्ति रोपां प्रेक्षा प्लवकप्रेक्षा, लासकप्रेक्षेति वा, लासका ये रास % - AMROCCORD -- - - - ~564~ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा- कान् गायन्ति जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डास्तेषां प्रेक्षा लासकप्रेक्षा, आख्यायकप्रेक्षेति वा ये शुभाशुभमाख्यान्ति ते आख्यायकास्तेषां प्रतिपत्तो जीवाभिप्रेक्षा आख्यायकमेक्षा, लप्रेक्षेति बा, लगा ये महावंशाप्रमारुह्य नृत्यन्ति तेषां प्रेक्षा लङ्गप्रेक्षा, महमेशति वा, ये चित्रपट्टिकादि-10 देवकुर्वमलयगि- हस्ता भिक्षां चरन्ति ते महारतेषां प्रेा मोक्षा, 'तूणइलपेच्छाइ वा इति तूणाला-तूणाभिधानवाद्यविशेषयन्तस्तेषां प्रेक्षा तूणइ-18धिकारः रीयावृत्तिःप्रेक्षा, तुम्बवीणाप्रेनेति वा, तुम्बयुक्ता वीणा येषां ते तुम्ववीणा:-तुम्बबीणावादकासपा प्रेक्षा, 'कावपिच्छाइ वे'ति कावा:-काव- उद्देशः२ ॥२८ ॥ डिवाहका रोपां प्रेक्षा, मागधप्रेश्नति बा, गागधा-बन्दिभूतास्तेषां प्रेक्षा मागधग्रेनेति वा ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थो, व्यपग-10 सू०१४७ तकौतुकाने मनुजगणाः प्रज्ञमा हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरु कुरुषु इन्द्रमह है इति वा, इन्द्रः-दशकस्तस्य महः-प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः, स्कन्दमह इति बा, स्कन्द:-कार्तिकेयः, रुद्रमह इति वा, रुद्रः प्रतीतः, शिवमह इति बा, शिवो-देवताविशेषः, वैश्रमणमह इति वा, वैश्रमण:-उत्तरदिग्लोकपालः, नागमह इति वा, नागो-भवनपतिविशेषः, यक्षमह इति वा भूनमह इति वा, यक्षभूतौ-व्यन्तरविशेषौ, मकुन्दमह इति वा. मकुन्दो-बलदेवः, कूपमह इति वा तडाकमह इति वा नदीमह इनि वा इदमह इति वा पर्वतमह इति वा वृक्षमह इति वा चैत्यमह इति वा स्तूपमा इनि वा?, कूषादयः प्रतीताः, भगवानाह-नायमर्थः समर्थी. व्यपगतमहम हिमाले मनुजाः प्रशला हे श्रमण! हे आयुष्मन ! ।। 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, सन्ति हा भवन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु शकटानीति वा, शकटानि-प्रतीतानि, रथा बा, रथा द्विविधा-यानरथाः सामरथाच, तत्र सङ्कामरथस्य | प्राकारानुकारिणी फलकमयी वेदिकाऽपरस्य तु न भवतीति विशेषः, यानानीति वा, यानं-व्यादि. युग्यानीति वा, युग्यं-गोलविषयप्रसिद्ध ॥२८१ द्विहस्तप्रमाणं चतुरनवेदिकोषशोभितं जम्पानं, गिलय इति बा, गिहिई तिन उपरि कोहररूपा या मानुषं गिलतीव, थिल्लय इति वा, CAN Jantacid अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 565~ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत AMACHAR सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] लाटानां यद अहुपाहाणं रूढ़ तदन्यविषये चिल्लिरित्युच्यते, शिविका इति वा, शिपिका-फूटाकाराच्छादितो जम्पानविशेषः, सन्दमाणिया इति वा. सन्दमाणिया-पुरुषप्रमाणो जम्पानविशेषः, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, पादविहारचारिणरते मनुजा: प्रज्ञप्ता हे अगण! हे आयुप्मन् । 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! अश्वा इति वा हस्तिन इति वा उष्ट्रा इति वा गात्र इति वा महिपा इति वा खरा इति वा घोटका इति वा?, इह जात्या आशुगमनशीला अश्वाः शेषा घोटकाः, खरा-भाः, अजा इति वा एडका इति वा?, भगवानाहहन्त सन्ति, न पुनस्तेषां मनुजानां परिभोग्यतया 'हव्वं' शीत्रमागच्छन्ति ।। 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु गाव इति वा, गाव:-बीगव्यः, महिण्य इति वा उष्टय इति वा अजा इति वा एडका इति वा', हन्त ! सन्ति, न पुनस्तेषां मनुष्याणामुपभोग्यतया हव्यं शीप्रमागच्छन्ति ।। 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुमपु कुरुपु सिंहा इति वा, सिंहः-पश्चाननः, ब्याना इति वा, व्याघ्रः-शार्दूलः, वृका इति वा, द्वीपिका इति वा बीपिका:-चित्रकाः, परक्षा इति वा, परस्सरा इति वा, परस्सरो-गण्डः, शृगाला इति वा, विडाला इति वा, शुनका इति वा, कालशुनका इति वा, को कन्तिका इति वा, को कन्तिकालकडिकाः, शशका इति वा, चिल्लला इति वा, चिल्ल-आरण्यक: पशुविशेष: ?, भगबानाह-हन्त ! सन्ति, न पुनस्से परस्परस्था | तेषां वा मनुजानां काश्चिदाबाधां वा प्रवायां वा छविच्छेदं वा कुर्वन्ति, प्रकृतिभद्रकासे श्वापद्गणाः प्रज्ञता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! । 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु शालय इति वा ब्रीहय इति वा गोधूमा इति वा यवा इति वा तिला इति वा इश्क्षव इति वा?, हन्त ! सन्ति न पुनस्तेषां मनुष्याणां परिभोग्यतया 'हवं' शीघ्रमागच्छन्ति । 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु स्थाणुरिति वा कण्टक इति वा हीरमिति बा, हीर-लघु कुत्सितं तृणं, शकरेति वा, शर्करा-कर्क CN ~566~ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीजीवा-प रकः, तृणकपवर इति वा पत्रकचवर इति वा अशुचीति वा, अशुचि-विगन्धं शरीरमलादि, प्रतीति वा, पति-फुथित स्वस्वभावच-1 प्रतिपत्ती जीवाभिमालितं त्रिवासरवट कादिवत् , दुरभिगन्धमिति वा, दुरभिगन्धं मृत कलेवरादिवत् , अचोक्ष-अपवित्रमस्थ्यादिवत् ?, भगवानाह-नायमर्थः देवकुर्वमलयगि- समों, व्यपगतवाणुकण्टकहीरशकरातणकचवरपत्रकचपराशुचिपूतिदुरभिगन्धाचोक्षपरिवर्जिता उत्तरकुरवः प्राप्ताः हे श्रमण! हेाधिकारः रीयावृत्तिः युष्मन् ! ।। 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु, गर्भत्ति वा, गर्ता-महती सहा, दरीति वा, दरी-मूपि- उद्देशः २ कादिकृता लम्बी खडा, घसीति वा, घसी-भूराजि:, भृगुरिति वा, भृगुः-प्रपातस्थानं, विपममिति बा, विषम-दुरारोहावरोहस्थानं, ॥२८२॥ सू०१४७ धूलिरिति वा पत इति वा, धूलीपको प्रतीती, चलणीति वा, चलनी-चरणमात्रस्पर्शी कर्दमः १, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, उत्त-16 रकुरुपु कुरुपु बहुसमरमणीयो भूभागः प्रज्ञमो हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ।। 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! इंसा इति वा मसका इति वा ढङ्कणा इति वा, कचित् पिशुगा इति वा इति पाठस्तत्र पिशुकाः-चंचढादयः, यूका इति वा लिक्षा इति वा ?, भग-11 शबानाह-नायमर्थः समर्थो, व्यपगतोपद्रवाः खलु उत्तरकुरवः प्रज्ञप्ता हे अमण ! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति | भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु अहय इति वा अजगरा इति वा महोरगा इति वा ?, हन्त ! सन्ति न पुनस्तेऽन्योऽन्यस्य तेषां वा भनुजानां | काश्चिदाबाधां व्यायामां या छविच्छेदं वा कुर्वन्ति, प्रकृतिभद्रकास्ते व्यालकगणा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि णं भंते | इत्यादि, सन्ति (मदन्त): उत्तरकुरुषु कुरुषु प्रहदण्डा इति वा, दण्डाकारव्यवस्थित्ता प्रहा ग्रहदण्डा: ते चानर्थोपनिपातहेतुतया प्रतिषेध्या | इन स्वरूपतः, एवं ग्रहमुशलानीति वा, ग्रहगर्जितानि-ग्रहचारहेतुकानि गर्जितानि, इनानि स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्यानि, प्रहयुद्धानीति | N २८२॥ वा, ग्रहयुद्धं नाम यदेको प्रहोऽन्यस्य प्रहस्य मध्येन याति, प्रहसवाट का इति वा, प्रहसङ्घाटको नाम प्रयुग्मं, प्रहापसव्यानीति वा । PROGrace Lanthan अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~567~ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: न प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम अनाणीति वा, अभ्राणि-सामान्याकारेण प्रतीतानि, अभ्रवृक्षा इति वा, अभ्रवृक्षा-वृक्षाकारपरिणतान्यभ्राणि, सन्ध्या इति वा सन्ध्याकाले नीलायभ्रपरिणतिरूपा प्रतीतैव, गन्धर्वनगराणि-सुरसदनप्रासादोपशोभितनगराकारतया तथाविधनभःपरिणतपुद्गलराशिरूपाणि, एतान्यपि तत्र स्वरूपतोऽपि न भवन्ति, गजितानीसि वा विद्युत इति वा, गर्जितानि विद्युतश्च प्रवीताः, उल्कापाता इति वा, उल्कापाता-योनि संमूहितचलननिपतनरूपाः, दिग्दाह इति वा, दिग्दाहा-अन्यतरस्यां दिशि छिन्नमूलज्वलनवालाकरालिताम्बरप्रतिभासरूपाः, निर्घाता इति वा, निर्घातो-विद्युत्नपातः, पांशुवृष्टय इति वा, पांमुवृष्टयो-धूलिवर्षाणि, यूपका इति वा, यूपकाः 'संझाछेया चरणो य' इत्यादिनाऽऽवश्यकपन्न प्रतिपत्तव्याः, वक्षदीप्तकानीसि घा, यक्षदीप्तकानि नाम नभसि रश्यमानाप्रिसहित: पिशाचः | ट्रामिकेति वा रूक्षा प्रविरला धूमाभा धूमिका, महि केनि वा, स्निग्धा घना घनत्वादेव भूमौ पतिता साईतृणादिदर्शनद्वारेणोपलक्ष्य*माणा महिका, रजउद्घाता-रजस्वला दिशः, चन्द्रोपरागा इति चा सूर्योपरागा इति वा, चन्द्रोपराग:-चन्द्रग्रहण सूर्योपराग:-सूर्य महणं, शह गर्जितविद्युदुल्कादिग्दाहनिर्घातपांशुष्टियूपकयक्षदीमकधूमिकामहिकारजउद्घाता: स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्याः, चन्द्रसूर्यग्रहणे | त्यनापनिपातहेतुतया, स्वरूपतन्तयोः प्रतिपेदुमशक्यवान , जम्बूद्वीपगतौ हि चन्द्रौ सूर्यो वा तत्प्रकाशयतः, एकस्य चन्द्रस्य ग्रहणे | सकलमनुष्यलोकवर्तिनां चन्द्राणामेकस्य सूर्यस्य ग्रहणे सकलमनुष्यलोकवर्तिनां सूर्याणां ग्रहणमत इह क्षेत्र इव तत्रापि स्वरूपतश्चन्द्रसूर्योपरागप्रतिषेधासम्भवः, चन्द्रपरिवेषा इति वा सूर्यपरिवेषा इति वा, चन्द्रसूर्यपरिवेघाश्चन्द्रादित्ययो: परितो वलयाकारपरिणतिसपाः प्रतीता एव, प्रतिचन्द्रा इति वा प्रतिसूर्या इति वा, प्रतिचन्द्र-उत्पातादिसूचको द्वितीयश्चन्द्रः, एवं द्वितीयः सूर्गः प्रतिसूर्यः, इन्द्रधनुरिति वा उदकमत्स्य इति वा, इन्द्रधनु:-प्रतीतं, तस्यैव खण्डमुदकमत्स्यः, कपिहसिवानीति वा, कपिहसितानि-अकस्मान 95 [१८५]] जी०४८ ~ 568~ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] “जीवाजीवाभिगम" श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २८३ ॥ - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र )], मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भति लीमरूपाणि, अमोघा इति वा, अमोघा :- सूर्यविम्बस्याधः कदाचिदुपलभ्यमान शकटोद्धिसंस्थिता श्यामादिरेखा, एते चन्द्रपरिषेपादयः स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्याः, प्राचीनवाता इति वा अपाचीनवाता इति या यावत् शुद्धवाता इति वा, यावत्करणादक्षिणवातादिपरिग्रहः, एतेऽसुखहेतवो विकृतरूपाः प्रतिषेध्याः नतु सामान्येन, पूर्वादिवातस्य तत्रापि सम्भवान्, ग्रामदादा इति वा नकरदाहा इति यावत्संनिवेशदाहा इति यावत्करणान्निगमदाहखेटदाहादिपरिग्रहः, दाहकृतश्च प्राणक्षय इति वा भूतक्षय इति वा कुलक्षय इति वा एते स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्याः, तथा चाह भगवान् गौतम ! नायमर्थः समर्थ, केपाविनहेतुतया केषाञ्चित्स्वरूपतच तत्र नेपामसम्भवाम् || 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त उत्तरकुरुषु कुरुपु डिम्बानीति वा, डिम्बानि - स्वदेशोत्था विद्वत्राः, डमराणीति वा, उमराणि - परराजकृता उपद्रवाः, कलहा इति वा, कलहा - वाग्युद्धानि, बोला इति वा, बोल:-आर्त्तानां बहूनां कलकलपूर्वको मेलापकः, क्षार इति वा, क्षारः परस्परं मात्सर्य, वैराणीति वा, वैरं परस्परमसहनतया हिंस्यहिंसकभावाध्यवसायः, महायुद्धानीति वा महायुद्ध - परस्परं मार्यमाणमारकतया युद्धं, महासङ्ग्रामा इति वा, महासन्नाहा इति वा, महासङ्ग्रामश्वेटिककोणिकवन्, महासन्नाहो बृहत्पुरुषाणामपि बहूनां यः सन्नाहः, महापुरुषनिपतनानीति वा प्रतीतं महाशस्त्रनिपतनानीति वा महाशस्त्रनिपतनं पनागवाणादीनां दिव्यास्त्राणां प्रक्षेपणं, नागवाणादयो हि बाणा महाशस्त्राणि तेषामद्भुतविचित्रशक्तिकत्वात्, तथाहि नागवाणा धनुष्यारोपिता वाणाकारा मुक्ता सन्तो जाज्वल्यमानासह्योल्कादण्डरूपास्ततः परशरीरे सङ्क्रान्ता नागमूर्तीभूय पाशत्वमुपगच्छन्ति, तामसवाणाश्च पर्यन्ते सकलसङ्ग्रामभूमित्र्यापि महान्धतमसरूपतया परिणमन्ते, उक्तञ्च - "चित्रं श्रेणिक ! ते वाणा, भवन्ति धनुराश्रिताः । उकारूप गच्छन्तः शरीरे नागमूर्त्तयः ॥ १ ॥ क्षणं वाणाः क्षणं दण्डाः क्षणं पाशत्वमागताः For P&Pase Cinly ३ प्रतिपत्ती देवकुर्व धिकारः उद्देशः २ सू० १४७ ~569~ ॥ २८३ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत A सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] आकरा ह्यखभेदास्ते, यथाचिन्तितमूर्तयः ।। २॥" इत्यादि, भगवानाह-नायमर्थः समों, व्यपगतडिम्बइमरकलहबोलक्षारवैरास्ते हामनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन ! ।। 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु दुर्भूतानीति बा, दुर्भूतं अशिर्व, कुलरोगा इति वा मण्डलरोगा इति वा शिरोवेदनेति वा अक्षिवेदनेति वा कर्णवेदनेति वा नखवेदनेति वा दन्तवेदनेति वा| काश इति वा श्वास इति वा शोष इति वा वर इति वा दाह इति वा कच्छूरिति वा खसर इति वा कुष्ठमिति वा अर्श इति वा अजीर्णमिति वा भगन्दर इवि वा इन्द्रग्रह इति वा स्कन्धप्रद इति वा कुमारसह इति वा नागप्रह इति वा यक्षग्रह इति वा भूतग्रह इति वा धनुर्मह इति या उद्वेग इति वा एकाहिका इति वा पाहिका इति वा च्याहिका इति वा चतुर्थका इति वा हृदयशलानीति ४वा मस्तकझूलानीति वा पार्श्वशूलानीति वा कुक्षिशूलानीति वा योनिशूलानीति वा प्राममारिरिति वा नकरमारिरिति वा निगममादारिरिति वा यावत्सन्निवेशमारिरिति वा, यावत्करणात् खेडकर्बटादिपरिग्रहः, मारिकृतशाणिक्षय इति वा जनक्षय इति वा धनक्षय इति वा कुलक्षय इति वा व्यसनभूतमनार्यतेति वा!, भगवानाह-नायमर्थः समर्थों, व्यपगतरोगातङ्कास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे अमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसि ण' मित्यादि, तेषामुत्तरकुरुवास्तव्यानां भदन्त ! मनुष्याणां कियन्तं कालं स्थिति:-अवस्थानं प्रज्ञप्ता ?, भग-18 वानाह-गौतम! जघन्येन देशोनानि त्रीणि पल्योपमानि, तत्र न ज्ञायते कियता देशेनोनानि? तत आह-पल्योपमस्यासोयभागेनोनानि, उत्कर्षतः परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि ॥ 'ते णं भंते' इत्यादि, ते उत्तरकुरुवास्तव्या भदन्त ! मनुजा: कालमासे 'कालं' |मरणं कला क गच्छन्ति ', एतदेव व्याचष्टे-कोत्पयन्ते ? इति, भगवानाह-गौतम! ते मनुजाः षण्मासावशेषायुपः कृतपरभवायुबन्धाः स्वकाले युगलं प्रसूत्रते, प्रसूय एकोनपञ्चाशतं रात्रिन्दिवानि तद् युगलमनुपालयन्ति, अनुपाल्य काशित्वा भुस्खा जृम्भयित्वा ~570~ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: . प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥२८४॥ धिकारः [१४७] दीप अनुक्रम 'अक्लिष्टाः' स्वशरीरोत्थशरहिता: 'अव्यथिताः परेणानापादितदुःवा: 'अपरितापिताः' स्वत: परतो वाऽनुपजाल कायमनःपरि- प्रतिपत्ती तापाः कालमासे कालं कला 'देवलोकेषु' भवनपत्याचाश्रयेपूत्पद्यन्ने, 'देवलोगपरिग्गहिया ण'मिति देवलोको-भवनपत्याथाश्रय-1 देवकुर्वरूपस्तथाक्षेत्रखाभाव्यतस्तद्योग्यायुर्वन्धनेन परिगृहीतो यैस्ते देवलोकपरिगृहीताः, निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात्, णमिति I वाक्यालकारे, ते मनुजा: प्रज्ञप्ता हे अमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'उत्तरकुराए णं भंते' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुपु भदन्त ! 'कति- उद्देशा विधाः' जातिभेदेन कतिप्रकारा मनुष्या: 'अनुसजन्ति ? सन्तानेनानुवर्त्तन्ते, भगवानाह-गौतम! पड्डिधा मनुजा अनुसजन्ति सू०१४७ तद्यथा-पद्मगन्धा इत्यादि, जातिवाचका इमे शब्दाः । अत्र विनेयज नानुग्रहायोत्तरकुरुविषयसूत्रसङ्कलनार्थ सङ्ग्रहणिगाथात्रयमाह"उसुजीवाधणुपट्ट भूमी गुम्मा य हेरुदाला। तिलगलयात्रणराई रुक्खा मणुया य आहारे ॥ १॥ गेहा गामा य असी हिरण राया। य दास माया य । अरिवरिए य मित्ते विवाहमहनलगडा व ॥२॥ आसा गावो सीहा साली खाणू य गदसाही। गहजुरोगठिइ उबट्टणा य अणुसजणा चेव ॥ ३॥ अस्य व्याख्या-प्रथमभुत्तर कुरुविषयमिपुजीवाधनुःपृष्ठप्रतिपादकं सूत्र, तदनन्तरं | भूमिरिति भूमिविषय सूत्र, ततो 'गुम्मा' इति गुल्मविषय, तदनन्तरं हेरुतालवनविषयं, तत: 'उद्दाला' इति पदालादिविपर्य, तदनन्तरं 'तिलग' इति तिलकप दोपलक्षितं, ततो लताविषय, तदनन्तरं वनराजीविषयं, तत: 'रुक्खा' इति दशविधकल्पपादपविषया| दश सूत्रदण्डकाः, 'मणुया य' इति त्रयो मनुष्यविषयाः सूत्रदण्डकास्तद्यथा-आयः पुरुषविषयो द्वितीय: स्त्रीविषवस्तृतीयः सामान्यत | उभयविषय इति, तत: 'आहार' इति आहारविषयः, तदनन्तरं 'गेहा' इति गृहविषयौ द्वौ दण्डको, आद्यो गृहाकारवृक्षाभिधायी ॥२८४ । अपरो गेहावभावविषय इति, ततः 'गामा' इति ग्राभायभावः, तबनन्तरमसीति अस्याद्यभावविषयः, ततो हिरण्यादिविषयः, तद-18 [१८५]] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~571~ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], ------ -------- मूलं [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५]] नन्तरं राजायभावविषयः, ततो दासायभावविषयः, ततो मात्रादिविषयः, तदनन्तरम रिवैरिप्रभृतिप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं मित्रायभावविषयः, तदनन्तरं विवाहपदोपलक्षितस्तत्प्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं महप्रतिषेधविषयः, ततो नृत्यपदोपलक्षित: प्रेक्षाप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं शकटाविप्रतिषेधविषयः, ततोऽश्वादिपरिमोगप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं स्त्रीगव्यादिपरिभोगप्रतिषेधविषयः, ततः सिंहादिश्वापदविषयः, तदनन्तरं शास्यायुपभोगप्रतिषेधविषयः, ततः स्थाण्वादिप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं गादिप्रतिषेधविषयः, ततो दंशायभावविपयः, ततोऽयादिविषयः, तदनन्तरं 'गह' इति प्रहदण्डादिविषयः, ततः 'जुद्ध' इति युद्धपदोपलक्षितो हिम्बादिप्रतिषेधविषयः। सूत्रदण्डकः, ततो रोग इति रोगपदोपल मितो दुर्भूतादिप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं स्थितिसूर्य, ततोऽनुषजनसूत्रमिति ॥ सम्प्रत्युत्तरकुरुभावियमकपर्वतवक्तव्यतामाह कहिणं भंते ! उत्तरकुराए कुराए जनगा नाम दुवे पचता पन्नत्सा?, गोयमा! नीलवंतस्स वासघरपब्वयस्स दाहिणणं अट्ठचोसीसे जोयणसते चत्तारियसत्तभागे जोयणस्स अबाधाए सीताए महाणईए (पुथ्वपच्छिमेणं) उभओ फूले, इत्व णं उत्तर कुराए जमगा णाम दुवे पन्वता पण्णता एगमेगं जोयणसहस्सं उर्दु उचत्तेणं अट्ठाइजाई जोयणसताणि उब्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसहस्सं आयामविश्वभेणं मझे अट्ठमाई जोयणसताई आयामविखंभेर्ण उवरिं पंचजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं मूले तिपिण जोयणसहस्साइं एगं च वावडिं जोयणसतं किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं मज्झे दो जोपणसहस्साई तिन्नि य यावत्तरे जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्वेवणं CSC-C4 ~572~ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -64 % प्रत % श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥२८५॥ सूत्रांक [१४८] ४३ प्रतिपत्ती | यमकप|र्वताधि उद्देशा सू०१४८ %A5%2584545% 02-%%% पन्नत्से उचरिं पन्नरसं एक्कासीते जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, मूले विच्छिपणा मज्झे संखित्ता उपि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता सबकणगमया अच्छा सण्हा जाव पबिरुवा पत्तेयं २ पउमवरचेड्यापरिक्खित्ता पत्तेयंरवणसंडपरिक्वित्ता, घण्णओ दोण्हवि, तेसि णं जमगपब्बयाणं उपि बहसमरमणिले भूमिभागे पपणते वणओ जाव आसयंति०॥ तेसि णं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं २ पासायवाडेंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवठेसगा वावडिं जोयणाई अद्धजोयणं च उई उच्चत्तेणं एकत्तीसं जोयणाई कोसं च विक्वंभेणं अभुग्गतमूसिता वण्णओ भूमिभागा उल्लोता दो जोयणाई मणिपेढियाओ वरसीहासणा सपरिवारा जाव जमगा चिट्ठति ॥से केणटेणं भंते! एवं चुचति जमगा पश्चता? २, गोयमा! जमगेसु णं पब्बतेसु तत्थ तस्थ देसे तहिं तहिं बहुइओ खुडाखुडियाओ वावीओ जाव बिलपंतिताओ, तासु णं खुडाखुड्डियासु जाव विलपंतियासु बदई उप्पलाई २ जाच सतसहस्सपत्ताई जमगप्पभाईजमगवषणाई, जमगा य एस्थ दो देवा महिड्डीया जाव पलिओबमद्वितीया परिवसंति, ते णं तस्थ पसेयं पत्तेयं चउण्डं सामाणियसाहस्सीणं जाव जमगाण पव्ययाणं जमगाण य रायधाणीणं अपणेसिं च वहणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवयं जाय पालेमाणा विहरंति, से तेणढणं गोयमा! एवं जमगपब्वया २, अदुत्तरं च णं गोयमा! जाव णिचा दीप अनुक्रम [१८६] % - - ॥२८५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 573~ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------ ---------- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४८] दीप अनुक्रम [१८६] ॥ कहिणं भंते! जमगाणं देवाणं जमगाओ नाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! जमगाणं पचयाणं उत्तरेणं तिरियमसंखेने दीवसमुद्दे वीइवतित्ता अण्णमि जंबूद्दीवे २ वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थ णं जमगाणं देवाणं जमगाओ णाम रायहाणीओ पण्णताओ वारस जोयणसहस्स जहा विजयस्स जाव महिड्डिया जमगा देवा जमगा देवा ॥ (सू०१४८) 'कहि णं भंते ! इत्यादि, क भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ ?, भगवानाह-गौतम! नीलवतो वर्षधर-17 पर्वतस्य दाक्षिणात्याचरमान्तात्-चरमरूपात्पर्यन्तादृष्टौ योजनशतानि चतुत्रिंशदधिकानि चतुरश्च योजनस्य सतभागान् अवाधया कत्वा-अपान्तराले मुक्वेति भावः, अत्रान्तरे शीताया महानद्या: 'पूर्वपश्चिमेन' पूर्वपश्चिमयोर्दिशोरुभयोः कूलयो: 'अन' एतस्मिन् प्रदेशे यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रशभौ, तदाथा-एक: पूर्वकूले एक: पश्चिमकूले, प्रत्येक चैक योजनसहस्रमुञ्चैस्त्वेन, अर्द्धतृतीयानि यो-10 जनशतान्युद्वेधेन-अवगाहेन, मेरुव्यतिरेकेण शेषशाश्वतपर्वतानां सामविशेषेणोवैस्त्वापेक्षया चतुर्भागत्यावगाहनाभावान् , मूले एकयोजनसहस्रं विष्कम्भतः १०००, मध्ये ऽर्द्धाष्टमानि योजनशतानि ७५०, उपरि पञ्च योजनशतानि ५००, मूले त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाप-द्वापयधिकं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञतौ ३१६२, मध्ये द्वे योजनसहने त्रीणि योजनशतानि | द्वासमतानि-द्वासप्तत्यधिकानि ३३७२ किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञमौ, उपरि एक योजनसहलं पञ्च चैकाशीतानि-एकाशीत्यधिकानि योजनशतानि किचिद्विशेषाधिकानि १५८१ परिक्षेपेण, एवं च ती मूले विस्तीणों मध्ये सजिलो उपरि च तनुकावत एवं गोपुच्छसंस्थानसंस्थिती, 'सव्यकणगमया' इति सर्वासना कनकमयो 'अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् , तौ च प्रत्येकं | 2042- 454 ~574~ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- --------- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४८] उद्देशः२ दीप अनुक्रम [१८६] श्रीजीवा- 12प्रत्येक पावरवेदिकया परिक्षिप्ती प्रत्येक २ बनखण्डपरिक्षिती, पावरवेदिकावर्णको बनखण्डवर्णश्च जगत्युपरिपवरवेदिफावनष-11३ प्रतिपत्ती जीवाभि ण्ड वर्णकवद्' वक्तव्यः ।। 'तेसि णं जमगपव्ययाण'मित्यादि, यमकपर्वतयोरुपरि प्रत्येक बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, भूमि-51 यमकपमलयांग- भागवर्णनं से जहानामए आलिंगपुक्खरेह वा' इत्यादि प्राग्वत्ताबद्वक्तव्यं यावद् 'बाणमंतरा देवाय देवीओ य आसयंति सयंति जाय। |र्वताधिक रीयावृत्तिःकापचणुभवमाणा विहरति । तेसि णमित्यादि, तयोर्वहुसगरमणीययोभूमिभागयोहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येक प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, तौ च प्रासादावतंसको द्वापष्टियोजनान्ययोजनं चोर्द्धमुस्त्वेन, एकत्रिंशद् योजनानि कोशं चैकं विष्कम्भेन, अध्भुग्ग-15 ॥२८६॥ सू०१४८ Nयमूसियपर सिया इत्यादि यावत् पडिरूवा' इति प्रासादावतंसकवर्णनमुहोचवर्णनं भूमिभागवर्णनं मणिपीठिकावर्ण सिंहासनवर्णन विजयदूष्यवर्णनमशवर्णनं दामवर्णनं च निरवशेष प्राग्वद्वक्तव्यं, नबरमत्र मणिपीठिकायाः प्रमाणमायामविष्कम्भाभ्यां वे योजने, थाहल्येने योजनं, शेषं तथैव । तेसि णं सिंहासणाणमित्यादि, तयोः सिंहासनयोः प्रत्येकम् 'अवरुत्तरेण"ति अपरोत्तरस्यां बाय-16 | व्यामित्यर्थः उत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां च दिशि, अत एतासु तिमृपु दिक्षु 'यमकयो।' यमकनाम्रोधमकपर्वतस्वामिनोवयोः प्रत्येक प्रत्येक |चतुर्णा सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रजातानि, एवमनेन क्रमेण सिंहासनपरिवारो वक्तव्यो यथा प्रावि-10 |जयदेवस्य ।। 'तेसि णमित्यादि, तयोः प्रासादावतंसकयोः प्रत्येक गुपर्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि इत्याद्यपि प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं या-13 वत् 'सयसहस्सपत्तगा' इति पदम् ।। सम्प्रति नामनियन्धनं पिपुच्छिपुरिदमाह-अथ 'केनार्थेन केन कारणेन एवमुच्यते--यमकहापर्वतौ यमकपर्वती ? इति, भगवानाह-गौतम! यमकपर्वतयोः णमिति वाक्यालङ्कारे क्षुल्लकक्षुल्लिकासु बापीपुष्करिणीषु यावदिलप-31 ॥२८६॥ जिषु बहूनि यावत्सहस्रपत्राणि 'यमकप्रभाणि' यमका नाम-शकुनिविशेपास्तत्प्रभानि-तदाकाराणि, एतदेव व्याचष्टे-यमकवर्णाभानि Jamsairat CockikCROGRA अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 575~ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४८] दीप अनुक्रम [१८६] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], मूलं [१४८] ..आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. - यमकर्णसदृशवर्णानीत्यर्थः, 'यमको च' यमकनामानौ च तत्र तयोर्यमकपर्वतयोः स्वामित्वेन द्वौ देवौ महर्द्धिकी यावन्महाभागी पस्योपमस्थितिको परिवसतः, तौ च तत्र प्रत्येकं चतुर्णी सामानिकसहस्राणां चतसृणामप्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणामभ्यन्तरमध्यमबाह्यरूपाणां यथासङ्ख्यदशद्वादशदेव सहस्रयाकानां पदां समानामनीकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां पोडशानामात्सरश्नदेवसहस्राणां 'जमगपव्ययाणं जमगाण य रायहाणीण' मिति स्वस्व स्वस्य यमकपर्वतस्य स्वस्य स्वस्य यमिकाभिधाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां वाणमन्तराणां देवानां देवीनां च स्वस्वयमिकाभिचराजधानी वास्तव्यानामाधिपत्यं यावद्विहरतः यावत्करणान् पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तमित्यादिपरिग्रहः ततो यमकाकारयमक वर्णोत्पलादियोगाय मकाभिधदेवस्वामिकत्वाच्च तौ यमकपर्वतावित्युच्येते तथा चाह - 'से एएणद्वेणमित्यादि ॥ सम्प्रति यमिकाभिधराजधानीस्थानं पृच्छति कहि णं भंते' इत्यादि के भदन्त ! यमकयोदेवयोः सम्बन्धिन्यो यभिके नाम राजधान्या प्रज्ञती ?, भगवानाह - गौतम! यमकपर्यंतयोरुत्तरतोऽन्यस्मिन्नयतमे जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्यान्त्रान्तरे यमकयोर्देवयोः सम्बन्धित्यो यमिके नाम राजधान्यौ प्रज्ञप्ते, ते चाविशेषेण विजयराजधा नीसदृशे वक्तव्ये । सम्प्रति हृदयकव्यतामभिधित्सुराह- कहि णं भंते । उत्तरकुराए २ नीलवंत दणामं दद्दे पण्णत्ते ?, गोयमा ! जमगपञ्चयाणं दाहिणेणं अचोत्तीसे जोयणसते चसारि सत्तभागा जोगणस्स अवाहाए सीताए महाणईए बहुमज्झदेस भाए, एत्थ र्ण उत्तरकुराए २ नीलवंतद्दहे नामं दहे पन्नते, उत्तरदक्खिणाघए पाईणपडीणविच्छिन्ने एवं जोयणसहस्सं आयामेणं पंच जोयणसताई विक्खं मेणं दस जोयणाई उच्चेहेणं अच्छे सण्छे रयतामत For P&Praise City ~576~ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- --------- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक प्रतिपत्ती | नीलबद्र दाधि उद्देशः२ सू० १४९ [१४९] ।। २८७॥ दीप अनुक्रम [१८७] PRAK कूले चउकोणे समतीरे जाव पडिरूवे उभओ पासिं दोहि य पउमवरवेदयाहिं वणसंडेहिं सव्यतो समंता संपरिक्खिसे दोण्हवि बण्णओ। भीलवंतदहस्स णं दहस्स तस्थ २ जाय बहवे तिसोवाणपडिरूवगा पपणत्ता, चपणओ भाणियब्बो जाव तोरणत्ति ॥ तस्स णं नीलवंतद्दहस्स णं दहस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ णं एगे महं पउमे पणते, जोयणं आयामविखंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धजोयणं पाहल्लेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं दो कोसे ऊसिते जलंतातो सातिरेगाई दसद्धजोयणाई सब्वग्गेणं पपणत्ते ॥ तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवे वपणावासे पण्णते, तंजहा-बहरामता मूला रिहामते कंदे वेरुलियामए नाले वेरुलियामता बाहिरपत्ता जंबूणयमया अम्भितरपत्ता तबणिजमया केसरा कणगामई कपिणया नाणामणिमया पुक्वरस्थिभुता ।। सा णं कपिणया अजोयणं आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं सध्यप्पणा कणगमई अच्छा सण्हा जाच पडिरूबा ॥ तीसे णं कपिणयाए उवरिं बहुसमरमणिज्जे देसभाए पपणत्ते जाव मणीहिं ॥ तस्स णं बहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खभेणं देसूर्ण कोसं उई उच्चत्तेणं अणेगखंभसतसंनिविट्ठ जाव वणओ, तस्स णं भवणस्स तिदिसिं ततो दारा पण्णता पुरथिमेणं दाहिणेणं उत्तरेणं, ते णं दारा पंचधणुसयाई उर्दू उच्चत्तेणं | ॥२८७॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~577~ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [ १४९ ] दीप अनुक्रम [१८७] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र )], मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अढाइलाई धणुसताई विक्खंभेणं तावतियं चैत्र पवेसेणं सेया वरकणगथुभियागा जाव वणमालाउति । तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते से जहा नामए-आलिंगपुत्रखरेति वा जाव मणीणं वण्णओ || तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झ सभाए एत्थ णं मणिप्रेढिया पण्णत्ता, पंचघणुसयाई आयामविक्खंभेणं अड्ढाइलाई घणुसताई बाहलेणं सव्वमणिमई । तीसे णं मणिपेडियाए उवरि एत्थ णं एगे महं देवसयणिजे पण्णत्ते, देवसयणिजस्स चण्णओ ॥ से णं पउमे अण्णेणं असणं तद्वत्तप्पमाणमेत्तार्ण परमाण तो समता संपरिक्खिते ॥ ते णं पउमा अद्धजोयणं आयामविखंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्वेवेणं कोर्स बाहल्लेणं दस जोयणाई उच्वेहेणं कोसं कसिया जयंताओ साइरेगाई ते दस जोयणाई सम्वरणं पण्णत्ताई ॥ तेसि णं परमाणं अवमेयात्वे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजावइरामया मुला जाव णाणामणिमया पुक्खरत्थिनुगा । नाओ णं कण्णियाओ को आयामविक्रभेणं तं तिगुणं स० परि० अद्धको बाहल्लेणं सव्वकणगामईओ अच्छाओ जाव पडि वाओ ॥ तासि णं कण्णियाणं पि बहुसमरमणिजा भूमिभागा जाव मणीणं वण्णो गंधो फासो ॥ तस्स पर्ण पउमस्स अवरुत्तरेण उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतदहस्स कुमारस्स चण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि परमसाहसीओ पण्णत्ताओ एवं (एतेणं) सब्बो परिवारो For P&P Cy ~578~ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- --------- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [१४९] ३॥ २८८॥ नवरि पउमाणं भाणितब्बो ॥ से णं पउमे अण्णेहिं तिहिं पउमवर परिक्वेबेहिं सब्बतो समंता १३ प्रतिपत्तो संपरिक्खित्ते, तंजहा-अभितरेणं मज्झिमेणं याहिरएणं, अभितरएणं पउनपरिक्षेचे वत्तीसं नीलवद्रपउमसयसाहस्सीओ प०, मजिसमए णं पउमपरिक्खेवे चत्तालीसं पउभसयसाहस्सीओ पं० दाधिक बाहिरए णं पउमपरिक्खेवे अडयालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णताओ, एवामेव सपुव्यावरेणं उद्देशः २ एगा पउमकोडी वीसं च पउमसतसहस्सा भवंतीति मक्खाया।से केपट्टेणं भंते! एवं वुचति सू०१४९ णीलवंतहहे दहे?, गोयमा! णीलवंतद्दहे णं तत्थ तत्थ जाई उप्पलाईजाय सतसहस्सपत्ताई नीलवंतप्पभातिं नीलवंतदहकुमारे यसो चेव गमो जाब नीलवंतदहे २॥ (मू०१४९) 'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु नीलवनदो नाम हदः प्रज्ञमः ?, भगवानाह-गौतम! यमकपर्वतयोदक्षिणाघरमान्तादुर्वाग् दक्षिणाभिमुखमष्टौ 'चतुस्विंशानि' चतुर्विंशदधिकानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्यावाधया कृवेति गम्यते अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, अत्रान्तरे शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे 'एस्थ णति एतस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरूपु कुरषु नीलबदूरदो नाम हदः प्रज्ञाप्त:, स च किंविशिष्टः ? इत्याह-उत्तरदक्षिणायत: प्राचीनापाचीनविस्तीर्णः, उत्तरदक्षिणाभ्यामबयवाभ्यामायत उत्तरदक्षिणायतः, प्राचीनापाचीनाभ्यामवयवाभ्यो विस्तीर्णः प्राचीनापाचीनविस्तीर्णः, एक योजनसहस्रमायामेन, पञ्च | योजनशतानि विष्कम्भतः, दश योजनान्युद्वेधेन-उण्डलेन, 'अच्छः' स्फटिकवद्भहिनिमलप्रदेश: लक्षणः' शक्ष्णपुद्गलनिर्मापितबहि:-H॥२८८ ॥ प्रदेशः, तथा रजतमयं-रूप्यमयं कूलं यस्यासौ रजतमयकूलः, इत्यादि विशेषणकदन्यकं जगत्युपरिवाप्यादिवत्तावद्वक्तव्यं यावदिद। दीप अनुक्रम [१८७] ar ~579~ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४९ ] दीप अनुक्रम [१८७] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र )], मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः जी० ४९ पर्यन्तपदं 'पडित्थभमंत मच्छ कच्छप अणेगस उणमिहुणपरियरिए' इति 'उभओपासे' इत्यादि, स च नीलवन्नामा हृदः शीताया महानद्या उभयोः पार्श्वयोर्वहिर्विनिर्गतः, स तथाभूतः सन्नुभयोः पाश्वयोर्द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्याम्, एकस्मिन् पार्श्वे एकया पद्मवरवेदिकया द्वितीये पार्श्वे द्वितीयया पद्मवरवेदिकयेत्यर्थः एवं द्वाभ्यां वनपण्डाभ्यां 'सर्वतः सर्वासु दिनु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तः पद्मवश्वेदिकावनपण्डवर्णकञ्च प्राग्वत् ॥ नीलवंतदहस्त णं दहस्स तस्थ तत्थे'त्यादि, नीलबद्स्य णमिति वाक्यालङ्कारे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहूनि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि- प्रतिविशिष्टरूपकाणि त्रिसोपानानि प्रज्ञतानि, वर्णकस्तेषां प्राग्वद्वक्तव्यः || 'तेसि णमित्यादि तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं तोरणं प्रज्ञानं, 'ते णं तोरणा' इत्यादि तोरणवर्णनं पूर्ववत्तावद्वक्तभ्यं यावन् 'बहवो सबसहस्सप सत्यगा' इति पदम् || 'तस्स णमित्यादि, तस्य नीलवन्नाम्नो हृदस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महद्देकं पद्मं प्रज्ञप्तं योजनमायामसो विष्कम्भतआयोजन बाहुल्येन दश योजनानि 'उद्वेधेन' उण्डलेन जलपर्यन्ताद् द्वौ क्रोशन्तिं सर्वांत्रेण सातिरेकाणि दश योजनशतानि प्रज्ञतानि ॥ ' तस्स ण' मित्यादि, तस्य पद्मस्य 'अर्थ' वक्ष्यमाण: 'एतद्रूपः' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपः 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-मयं मूलं रिष्ठरत्रमयः कन्दो वैज्ञरक्रमयो नालः, बेट्र्र्यरक्रमयानि ब्राह्मपत्राणि, जाम्बूनदमयान्यभ्यन्तरपत्राणि, तपनीयमयानि केसराणि कनकमयी पुष्करकर्णिका, नानामणिमयी पुष्कर स्थिबुका | 'सा णं कण्णिया अद्ध' मित्यादि, सा कर्णिकाऽर्द्धयोजनमायामविष्कम्भाभ्यां कोशमेकं वादस्वतः सर्वांना कनकमयी अच्छा यावत्प्रतिरूपा यावत्करणात् मण्हा उण्हा घट्टा मट्ठा नोरया' इत्यादि परिमहः । 'ती से णं कण्णिवाए' इत्यादि, तस्याः कर्णिकाया उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तद्वर्णनं च 'ले जहानामम् आलिंगपुक्खरेइ वेत्यादिना प्र For P&Pase Cnly ~ 580~ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- --------- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ३ प्रतिपत्तौ नीलबद्रदाधिक उद्देशः२ सू०१४९ सूत्रांक [१४९] दीप अनुक्रम [१८७] श्रीजीवा- दान्धेन विजयराजधान्या उपकारिकालयनस्येव तावद्वक्तव्यं यावन्मणीनां स्पर्शवक्तव्यतापरिसमाप्तिः ।। 'तस्स णमित्यादि, तस्य बहु- न्धेन विजयराजधा जीवाभि समरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महदेकं भवनं प्रज्ञा कोशमायामतोऽर्द्धकोशं विष्कम्भतो देशोनं क्रोशमूर्द्धमुच्चैस्लेन, मलयगि- ४ अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टमित्यादि तद्वर्णनं विजयराजधानीगतसुधर्मसभाया इव तावद्वक्तव्यं यावदिदं सूत्रं "दिव्वतुडियसहसंपणदिते' रीयावृत्तिः इति, तदनन्तरं सूत्रमाह-'सव्वरयणामए' इत्यादि सर्वासना रत्नमयम् अच्छं यावत्प्रतिरूपं, यावत्करणात् 'सण्हे लण्हे घडे महे' इत्यादिपरिग्रहः । तस्स णमित्यादि तस्य भवनस्य 'त्रिदिशि' तिसुपु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकद्वारभावेन त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तयथा ॥२८९ ॥ ४/-पूर्वस्यामुत्तरस्यां दक्षिणस्याम् ॥ 'ते णं दारा' इत्यादि, तानि द्वाराणि पभधनु:शतानि ऊर्जुमुजैस्लेन, अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि | विष्कम्भेन, तावदेव-अर्द्धतृतीयान्येव धनुःशतानीति भावः प्रवेशेन । 'सेयावरकणगथूभिया' इत्यादि द्वारवर्णनं विजयद्वारस्येव | तावविशेषेणावसातव्यं यावत् 'वणमालाओ' इति बनमालावतव्यतापरिसमाप्तिः ।। 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य भवनस्य उल्लोचोड|न्तर्थहुसमरमणीयो भूमिभागो मणीनां वर्णगन्धरसस्पर्शवर्णनं प्राग्वत् ।। 'तस्स णमित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे मणिपीठिका प्रज्ञमा, पचधनुःशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि बाहल्येन सर्वासना मणिमयी | अच्छा यावत्प्रतिरूपा इति प्राग्वन् । 'तीसे णमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपयंत्र महदेकं देवशयनीयं प्रज्ञप्तं, शयनीयवर्णकः प्राग्वत् । 'तस्स णमित्यादि, तस्य भवनस्य उपर्यष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानीत्यादि पूर्ववचावद्वक्तव्यं यावदहवः सहस्रपत्रहस्तका इति ।। 'से णमित्यादि, तत्पनामन्येनाष्टशतेन पनानां तदद्धाचलप्रमाणमात्राणां-तस्य मूलपाप्रमाणस्थाई तदर्दू तच्च तद् उच्चत्वप्रमाणं च तदद्धोंचत्वप्रमाणं तन मात्रा येषां ते तानि तथा तेषां, 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तं । तद् ne अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~581~ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------ ----------- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४९] दीप अनुक्रम [१८७] 984ACC-A जलप्रमाणमेव तेषां भावयति-ते णं पउमा' इत्यादि, तानि पद्मानि प्रत्येकमर्द्धयोजनमायामविष्कम्भाभ्यां क्रोशमेकं वाइल्येन। दश योजनशतानि उद्वेधेन कोशमेक जलपर्यन्तादुच्छ्रितं सातिरेकाणि दश योजनशतानि सर्वांप्रेण ।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां पचानामयमेतपो वर्णावास: प्रज्ञप्तः, वनमयानि मूलानि रिष्ठरत्नमयाः कन्दाः वैडूर्यरत्नमया नालाः तपनीयमयानि बाह्यपत्राणि जाम्बूनदमयानि अभ्यन्तरपत्राणि तपनीयमयानि केशराणि कनकमय्यः कर्णिकाः नानामणिमयाः पुष्करस्थिभुगाः ॥ 'ताओ णं कणियाओ' इत्यादि, ता: कर्णिकाः कोशमायामविष्कम्भाभ्यामर्दकोश बाहल्येन सर्वात्मना कनकमय: 'अच्छाओ जाव पडिरूवाओं इति प्राग्वत् ।। 'तासि णं कणियाण मित्यादि, तासां कर्णिकानामुपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रशप्तः, तस्य वर्णकः पूर्ववत्ता४ाबद्वक्तव्यो यावन्मणीनां स्पर्शः ॥ तस्स णमित्यादि, तस्य मूलभूतपदास्य 'अपरोत्तरेण' अपरोत्तरस्यां, एवमुत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्या, सर्वसङ्कलनया सिमप दिक्षु अत्र नीलवतो नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य चतुर्णा सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि पद्मसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । 'एतेण मित्यादि, एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन यथा विजयस्य सिंहासनपरिवारोऽभिहितस्तबेहापि पनपरिवारो वक्तव्यः, ताथा-पूर्वस्यां दिशि चतसृणामप्रमहिपीणां योग्यानि चत्वारि महापानि, दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरपर्षदोऽष्टानां देवसहस्राणां योग्यान्यष्टौ पद्मसहस्राणि, दक्षिणस्यां मध्यमपर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश पद्मसहस्राणि, दक्षिणापरस्यां बाह्य-५ पर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणां द्वादश पद्मसहस्राणि, पश्चिमायां समानामनीकाधिपतीनां योग्यानि सप्त महापद्यानि प्रशतानि, तदनन्तरं तस्य द्वितीयस्य पद्मपरिवेपस्य पृष्ठतश्चतस्पु दिक्षु षोडशानामामरक्षकदेवसहस्राणां योग्यानि षोडश पद्मसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-चलारि पड़ासहस्राणि पूर्वयां दिशि चत्वारि पद्मसहस्राणि दक्षिणस्यां चत्वारि पद्मसहस्राणि पश्चिमायां चत्वारि पद्मसह ~582~ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- ---------- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक दाधिक [१४९] दीप अनुक्रम [१८७] श्रीजीवा- नाण्युत्तरस्यामिति । तदन मूल साण्युत्तरस्यागिति । तदेवं गूलपास्य त्रयः पद्मपरिवेषा अभूवन , अन्येऽपि च प्रयो विद्यन्त इति तत्प्रतिपादनार्थमाह-से ||३ प्रतिपत्ती जीवाभि०४ पउमें इत्यादि, तत् पहामन्यैरनन्तरोक्तपरिक्षेपत्रिकव्यतिरिक्तैत्रिभिः पद्मपरिवेषैः 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्तता' सामस्त्येन नीलबद्रमलयगि | संपरिक्षिप्तं, तद्यथा-अभ्यन्तरेण मध्यमेन वाझेन च, तत्राभ्यन्तरे पद्मपरिक्षेपे सर्वसङ्ख्यया द्वात्रिंशत्पद्मशतसहस्राणि प्रजातानि रीयावृत्तिः ३२०००००, मध्ये पद्मपरिक्षेपे चत्वारिंशत् शतसहस्राणि ४००००००, बाह्ये पद्मपरिशेपेऽष्टाचत्वारिंशत्पद्मशतसहस्राणि ४८००००० प्रज्ञप्तानि । 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण 'सपुवावरेणीति सह पूर्व यस्य येन वा सपूर्व सपूर्व च तद् अपरं च सपू- सू०१४९ ॥२९॥ पिरं तेन, पूर्वापरसमुदायेनेत्यर्थः, एका पद्मकोटी विंशतिश्च पद्मशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपैश्व तीर्थकृद्भिः, एतेन सर्वतीभार्थकृतामविसंवादिवचनतामाह, कोट्यादिका च सङ्या स्वयं मौलनीया, द्वात्रिंशदादिशतसहस्राणामेकत्र मीलने यथोक्तसयाथा अ-11 वश्यं भावात् ।। सम्प्रति नामान्वर्थ पिच्छिपुराह–से केणटेणं भंते!' इत्यादि, अथ केनार्थेनैवमुच्यते नीलबड्दो नीलवद्हदः ? इति, भगवानाह-गौतम! नीलवद्हदे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहूनि 'उत्पलानि' पद्मानि यावसहस्रपत्राणि नीलवद्हदप्रभाणि-नीलवन्नाम इदाकाराणि 'नीलवद्वर्णानि नीलवन्नामवर्षधरपर्वतस्तद्वर्णानि नीलानीति भावः, नीलबन्नामा च नागकुमारेन्द्रो नागकुमारराजो महर्द्धिक इत्यादि यमकदेक्वन्निरवशेष बक्तव्यं यावद्विहरति, ततो यस्मात्तद्गतानि पद्मानि नीलवर्णानि नीलवन्नामा च तदधिपतिर्देवस्ततस्तद्योगादसौ नीलवन्नामा इदः, तथा चाह–से एएणडेण'मित्यादि । 'कहि । णं भंते ! नीलबंतदहस्से'त्यादि राजधानीविषयं सूत्र समस्तमपि प्राग्वत् ॥** नीलवंतद्दहस्स णं पुरथिमपञ्चस्थिमेणं दस जोयणाई अबाधाए एस्थ णं दस दस कंचणगप MOCRACCE ॥२९ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् XX [मूल-१८८] कहि णं भंते! नीलवंतस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो नीलवन्ता नाम रायहाणी? ....रायहाणी नीलवंतद्दहस्सुत्तरेणं अन्नंमि जंबुद्दीवे दिवे बारस जोयण सहस्साई जहा विजयस्स ~583~ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], ------ -------- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५०] दीप अनुक्रम [१८९] ब्बता पण्णत्ता, ते णं कंचणगपब्वता एगमेगं जोयणसतं उहुं उच्चत्तेणं पणवीसं २ जोयणाई उब्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं मझे पण्णत्तरि जोयणाई [आयाम]विक्खंभेणं उवरिं पण्णास जोयणाई बिक्खंभेणं मूले तिपिण सोले जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं मजझे दोन्नि सत्ततीसे जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं उवरिं एगं अट्ठावर्ण जोयणसतं किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उपि तणुया गोपुग्छसंठाणसंठिता सव्वकंचणमया अच्छा, पत्तेयं २ पउमवरवेतिया० पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्ता ॥ तेसि णं कंचणगपव्वताणं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव आसयंति० तेसि णं० पत्तेयं पत्तेयं पासायच.सगा सहयावढि जोयणाई उहुं उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं मणिपेढिया दोजोयणिया सीहासणं सपरिवारा॥ से केणटेणं भंते! एवं बुचति-कंचणगपब्बता कंचणगपब्वता?, गोयमा! कंचणगेसु णं पश्यतेसु तत्व तत्थ वावीसु उप्पलाई जाच कंचणगवपणाभाति कंचणगा जाव देवा महिड्डीया जाय विहरंति, उत्सरेणं कंचणगाणं कंचणियाओ रायहाणीओ अपर्णमि जंबू० तहेव सव्वं भाणितव्वं ।। कहि णं भंते! उत्तराए कुराए उत्तरकुरूहहे पण्णत्ते?, गोयमा! नीलबंतहहस्स दाहिणणं अद्धचोत्तीसे जोयणसते, एवं सो चेव गमो णेतव्यो जो णीलवंतहहस्स सब्वेसिं सरिसको दहसरिनामा य देवा, सब्वेसि पुरथिमपचत्थिमेणं ~584~ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ----- ---------- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५०] CANCY दीप अनुक्रम [१८९] श्रीजीवा- कंचणगपब्बता दस २ एकप्पमाणा उत्तरेणं रायहाणीओ अपकमि जंबुद्दीवे । कहि णं भंते ! 18३ प्रतिपत्ती जीवाभि चंददहे एरावणदहे मालवंतबहे एवं एकेको यव्यो ।। (म० १५०) दाकाञ्चनपमलयगि- 'नीलवंतदहस्स णमित्यादि, नीलवतो हदस्य 'पुरस्थिमपञ्चत्थिमेणं ति पूर्वस्या पश्चिमायां च दिशि प्रत्येक दश दश योज 10वंताधिक रीयावृत्तिः नान्यबाधया कृलेति गम्यते, अपान्तराले मुक्खेति भावः, दश दश काञ्चनपर्वता दक्षिणोत्तरश्रेण्या प्रज्ञाप्ताः, ते च काचनका: प-10 181 उद्देशः२ हार्वता: प्रत्येकमेकं योजनशतमूर्ख मुस्त्वेन पञ्चविंशतियोजनान्युरोधेन मूले एक योजनशतं विष्कम्भेन मध्ये पञ्चसप्ततियोजनानि विष्क-15 सू० १५० ॥२९१॥ *म्भेन उपरि पञ्चाशद् योजनानि विष्कम्भेन, मूले त्रीणि पोडशोत्तराणि योजनशतानि ३१६ किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण मध्ये द्वे समर्विशे योजनशते २२७ किञ्चिद्विशेषोने परिक्षेपेण उपर्येकमष्टापश्चाशं योजनशतं १५८ किञ्चिद्विशेषोनं परिक्षेपेण, अत एव दामूले विस्तीर्णा मध्ये सद्धिमा उपरि तनुकाः अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वासना कनकमया: 'अच्छा जाब पडिरूवा' इति | प्राग्बत् । तथा प्रलोकं प्रत्येक पायरयेविकया परिक्षिप्ता: प्रत्येक प्रत्येकं वनपण्डपरिभिप्ताश्च, परावरवेदिकावनपण्डवर्णनं प्राग्वत् ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां काभानपर्वतानामुपरि बहुसमरमणीया भूमिभागाः प्रज्ञप्ताः, तेषां च वर्णनं प्राग्यत्तावद्वक्तव्यं यावत्तृणानां मणीनां च शब्दवर्णनमिति ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येक प्रासादावतंसकाः प्रज्ञप्ताः, प्रासादवक्तव्यता यमकपर्वतोपरि प्रासादावतंसकयोरिव निरवशेषा वक्तव्या यावत्सपरिवारसिंहासनवक्तव्यतापरिसमाषिः ।। सम्प्रति नामान्वर्थ पिपृच्छिषुरिदमाह-'से केणडेण मित्यादि प्राग्वन्नवरं यस्मादुत्पलादीनि काञ्चनप्रभानि काश्चननामानश्च | देवास्तन्न परिवसन्ति ततः काञ्चनप्रभोत्पलादियोगान् काचनकाभिधदेवस्वामिकत्वाच्च ते काचनका इति, तथा चाह-'से एएणद्वे अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~585~ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५० ] दीप अनुक्रम [१८९ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र )], मूलं [१५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः णमित्यादि । काञ्चनिकाञ्च राजधान्यो यमिकाराजधानीबद् वक्तव्याः ॥ 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उ तरकुरुषु कुरुषु उत्तरकुरुहदो नाम हदः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह - गौतम ! नीलवतो हृदस्य दाक्षिणात्या चरमपर्यन्तादष्टौ 'चतुस्त्रिंशानि' चतुखिंशद्धिकानि योजनशतानि चतुरश्र योजनस्य सप्तभागान् अबाधया कृत्वेति गम्यते शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे अत्रोउत्तरकुरुनामा हृदः प्रज्ञप्तः यथैव प्राग् नीलवतो हृदस्यायाम विष्कम्भोद्वेधपद्मव रवेदिकावनपण्डत्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणमूलभूतमहापद्माष्टशतपद्मपरिवारपद्मशेषपद्मपरिक्षेपत्रयवक्तव्यतोका तथैवेाव्यन्यूनातिरिक्ता वक्तव्या ॥ नामकरणं पिच्छिपुरियमाह - 'से केणद्वेणं भंते!' इत्यादि प्राग्वन्नवरमुत्पलादीनि यस्माद् 'उत्तरकुरुहदप्रभाणि' उत्तरकुरुदाकाराणि तेन तानि तदाकारयोगात् उत्तरकुरुनामा च तत्र देवः परिवसति तेन तयोगाद् हवोऽप्युत्तरकुरुः, न चैवमितरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः, उभयेषामपि नानामनादिकालं तथा प्रवृत्तेः एवमन्यत्रापि निर्दोषता भावनीया, उत्तरकुरुनामा च तत्र देवः परिवसति तद्वक्तव्यता च नीलवन्नागकुमारवक्तव्या, ततोऽप्यसावुत्तरकुरुरिति राजधानीवक्तव्यता काञ्चनकपर्वतवक्तव्यता च राजधानीपर्यवसाना प्राग्वत् ॥ चन्द्र दव| कव्यतामाह - 'कहि णं भंते!' इत्यादि प्रनसूत्रं सुगनं, भगवानाह - गौतम ! उत्तरकुरुइदस्य दाक्षिणात्याशरमान्तादर्वाग् दक्षिणस्यां दिशि अष्टौ चतुस्त्रिंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्यावाधया कृलेति शेषः शीवाया महानद्या बहुमध्यदेशभागे 'अत्र' | अस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरुषु कुरुषु चन्द्रवो नाम इदः प्रज्ञतः अस्यापि नीळवद् हदस्येवायामविष्कम्भोद्वेषपावरवेदिकावनषण्डत्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणमूलभूत महापद्माष्टशतपद्मपरिचारपद्मशेषपद्मपरिक्षेपत्रयवक्तव्यता वक्तव्या, नामान्वर्थसूत्रमपि तथैव, नवरं यस्मादुत्पलादीनि 'चन्द्रहृदप्रभाणि चन्द्राकाराणि चन्द्रवर्णानि चन्द्रनामा च देवस्तत्र परिवसति तस्माच्चन्द्रहृदाभोत्पलादियो For P&Praise Cly ~ 586~ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [१५०] ॥२९२॥ -०८- दीप अनुक्रम [१८९] मागाच्चन्द्रदेवस्वामिकत्वाश चन्द्रहद इति, चन्द्राराजधानीवक्तव्यता का भानपर्वतवक्तव्यता च राजधानीपर्यवसाना प्राग्वत् ।। साम्प्र-18/३ प्रतिपच्चों |तमैराबतहदवक्तव्यतामाह-कहिण भंते' इत्यादि प्रभसूत्र पाठसिद्धं, निर्वचनमाह-गौतम! चन्द्र हदस्य दाक्षिणात्याधरमान्ताद-18| काञ्चनपबांग दक्षिणस्यां दिशि अष्टौ चतुर्विंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्थावाधया कृत्वे ति शेषः शीताया महानया वंताधि बहुमध्यदेशभागे 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे ऐरावतहदो नाम हदः प्रज्ञप्तः, अस्यापि नीलवन्नाम्रो हपस्येवायामविष्कम्भादियतव्यता परिक्षेप-18 उद्देशा२ पर्यवसाना बक्तव्या, अन्वर्धसूत्रमपि तथैव, नवरं यस्मादुत्पलादीनि ऐरावतहदप्रभाणि, ऐरावतो नाम हस्ती तद्वर्णानि च ऐरावतश्च है। सू०१५० नामा तत्र देवः परिवसति तेन ऐरावतहद इति, ऐरावताराजधानी विजयराजधानीवन् काञ्चनकपर्वतवक्तव्यतापर्यवसाना तथैव ।। अधुना माल्यवनामहदबक्तव्यतामाह-कहि णं भंते' इत्यादि सुगर्म, भगवानाह-गौतम! ऐरावत हदस्य दाक्षिणात्याचरमान्तादगि दक्षिणस्यां दिशि अष्टौ चतुस्विंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान योजनस्य अबाधया कृलेति शेषः शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे 'अत्र एतस्मिन्नबकाशे उत्तरकुरुपु कुरुपु माल्यवन्नामा हदः प्रज्ञप्तः, स च नीलबद्दयवदायाम विष्कम्भादिना तावद्वक्तव्यो यावत्पद्मवक्तव्यतापरिसमाप्तिः, नामान्वर्थसूत्रमपि तथैव यस्मादुत्पलादीनि 'माल्यवहदप्रभाणि' माल्यवइदाकाराणि, माल्यवन्नामा वक्षस्कारपर्वतस्तद्वर्णानि-तद्वर्णाभानि माल्यवन्नामा च तत्र देवः परिवसति तेन मास्यवद्द इति, भास्यवतीराजधानी विजयाराजधानीवद् वक्तव्या काश्चनकपर्वतवक्तव्यताऽवसाना प्राग्वत् ।। सम्प्रति जम्यूयश्वकल्यतामाहकहिणं भंते ! उत्तरकुराए २ जंबुसुदंसणाए जंबुपेढे नाम पेढे पण्णत्ते?, गोयमा! जब्दीवे २ ॥ २९२॥ मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतस्स वासघरपब्वतस्स दाहिणणं मालवंतस्स वक्खा CREACINE -2 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~587~ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [१९०] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], मूलं [१५१] आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित रपव्ययस्स पञ्चत्भ्रिमेणं गंधमादणस्स वक्रखापव्वयस्स पुरस्थिमेणं सीताए महानदीए पुरत्थि - मिल्ले कूले एत्थ उत्तरकुरुकुराए जंबूपेढे नाम पेढे पंचजोयणसताई आयामविक्खंभेणं पण्णरस एक्कासी जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं बहुमज्झदेसभाए बारस जोयणाई बाहूलेणं तदातरं चणं माताए २ पदेसे परिहाणीए सब्बेसु चरमंतेसु दो कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते सच्चजंत्रणतामए अच्छे जाव पडिरूवे ॥ से णं एगाए परमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवतो समता संपरिवखेत्ते वण्णओ दोपहवि । तस्स णं जंबुपेढस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवापडवा पण्णत्ता तं चैव जाव तोरणा जाव चत्तारि छत्ता || तस्स णं जंबूपेदस्स उपि बहुसमरमणि भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरेतिवा जाव मणि० ॥ तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता अह जोयणाई आयामविभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं मणिमती अच्छा सण्हा जाय पडिरूवा ॥ तीसे णं मणिपेडिया softwer is जंबूसुदंसणा पण्णत्ता अजोयणाई उ उच्चतेणं अजोय उच्णं दो जोयणातिं खंधे अड जोषणाएं विक्खंभेणं छ जोयणाई विडिमा बहुम सभाए अट्ट जोयणाई विक्खभेणं सातिरेगाई अह जोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ता, बहरामयमूला रयतसुपतिद्वियविडिमा, एवं चेतियस्वण्णओ जाव सब्बो रिट्ठामयविलकंदा For P&Praise Cinly ~588~ धू %%%% Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---- ------- मूलं [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत CSCADE प्रतिपत्ती जम्बूपीठाधिकारः उद्देशः२ सू०१५१ सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [१९०] श्रीजीवा-IN वेरुलियरुइरक्खंधा सुजायवरजायस्वपढमगविसालसाला नाणामणिरयणविविहसाहप्पसाहजीवाभि वेरुलियपत्ततवणिजपत्राविंटा जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवंकुरधरा विचित्तमणिरयणसुरमलयगि- हिकुसुमा फलभारनमियसाला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया अहियं मणोनिव्युइरीयावृत्तिः __करा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा।। (सू०१५१) ॥२९३॥ 'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भवन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरकुरुपु जम्वाः सुदर्शनायाः, जम्वा हि द्वितीयं नाम सुदर्शनेति तत | | उक्तं सुदर्शनाया इति, जम्वाः सम्बन्धि पीठं जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरपूर्वेण | उत्तरपूर्वस्यां नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य 'दक्षिणेन' दक्षिणतो गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य 'पूर्वेण' पूर्वस्यां दिशि मास्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमायां शीताया महानद्याः पूर्वस्यामुत्तरकुरुपूर्वार्द्धस्य बहुमध्यदेशभागे 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरुषु कुरुषु जम्बा: सुदर्शनापरनामिकाया जम्बूपीठं प्रज्ञप्तं, पञ्च योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यामेकं योजनसहस्रं पञ्चैकाशीतानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषाधिकानि १५८१ परिक्षेपेण, बहुमध्यदेशभागे द्वादश योजनानि बाहत्येन, तदनन्तरं च मात्रया २ परिहीयमानं चरमपर्यन्तेषु द्वौ कोशी बाहल्येन सर्वासना जाम्बूनदमयम् , 'अच्छे' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत्, उक्तश्च- जंबूनयामयं जंबूपीढमुत्तरकुराएँ पुब्बद्धे । सीयाए पुबद्धे पंचसयायामविक्संभं ॥ १॥ पन्नरसेकासीए साहीए परिहिमझवाहलं । जोयणदुछक्कमसो हायंततेसु दो कोसा ॥ २॥" से णमित्यादि तत्' जम्बूपीठमेकया पद्मवरवेदिकया एकेन बनखण्डेन 'सर्वतः' सर्वासु | दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन परिक्षिप्त, वेदिकावनषण्डयोर्वर्णकः प्राग्यद्वक्तव्यः । तस्य च जम्बूपीठस्य चतुर्दिशि एकैकस्यां दिशि | GACANCCASct ॥२९३ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~589~ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [१९०] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र )], मूलं [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः एकैक त्रिसोपानप्रतिरूपकभावेन चत्वारि विसोपानप्रतिरूपकाणि- प्रतिविशिष्टरूपाणि त्रिसोपानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - एक पूर्वस्थामेकं दक्षिणस्यामेकं पश्चिमायामेकमुत्तरस्याम् || 'तेसि ण'मित्यादि तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणामयमेतद्रो वर्णावासः प्रज्ञमः, तद्यथा-वमया नेमा भूमेरुर्द्धमुद्रच्छन्तः प्रदेशा इत्यादि जगत्युपरिवाप्यादित्रि सोपानवत्तावद्वक्तव्यं यावन्नानामणिमयाम्यवलम्बनानि अवल म्वनवादाच, तोरणान्यपि प्रायद्वाच्यानि । 'तस्स णं जंबूपेढस्स णमित्यादि, जम्बूपीठस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, सच से जहानामए आलिंगपुक्खरे वा इत्यादि विजयाराजधान्युपकारिकालयवन्तावद्वक्तव्यो यावन्मणीनां स्पर्शवण्यतापरिसमाप्तिः, यायच बहवो वानमन्तरा देवा देव्यश्वासते शेरते याबद् विहरन्तीति । 'तस्स णमित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमि - भागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञता, अष्टौ योजनान्यायानविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहस्येन सर्वासना मणिमयी 'अच्छा जान पडिया' इति प्राग्वत् ॥ 'तीसे ण'मित्यादि, तस्था मणिपीठिकाया उपरि बहुमध्यदेशभागे, अत्र महती जम्बूः सुदर्शना प्रज्ञप्ता, अष्टौ योजनान्यूर्द्धमुम्बैस्लेन, अर्द्धयोजनमुद्वेधेन, द्वे योजने स्कन्धः षड् योजनानि विडिमा - ऊर्द्ध | विनिर्गता शाखा बहुमध्यदेशभागे अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकान्यष्टौ योजनानि 'सर्वांमेण' उद्वेधोचैस्त्वपरिमाणमीलनेन, तस्याश्च जम्ब्वा वज्रमयानि मूलानि यस्याः सा श्रमयमूला 'श्ययसुपइडियविडिमा' इति रजता रजतमयी सुप्रतिष्ठिता विडिमा बहुमध्यदेशभागे ऊर्द्ध विनिर्गता यस्याः सा रजतसुप्रतिष्ठित बिडिमा, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, 'रिट्ठामयविजलकंदा वेरुलियरुइलखंधा' रिष्ठमयो - रिष्ठरत्नमयः (विपुलः) कन्दो यस्याः सा रिवरत्नमयकन्दा तथा वैढूर्यरवमयो रुचिरो - दीप्यमानः स्कन्धो यस्याः सा बैडूर्यरुचिरस्कन्धा ततः पूर्वपदेन कर्मधारयसमासः, 'सुजायवरजायरूत्र पढमगविसालसाला' सुजातं -मूल Fir P&Permalise City ~ 590~ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --- ------- मूलं [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५१] ॥२९४॥ दीप अनुक्रम [१९०] श्रीजीया द्रव्यशुद्धं बरं-प्रधानं यत् जातरूपं सदामकाः प्रथमका-मूलभूता विशाला: शाला:-शाखा यस्याः सा सुजातवरजातरूपप्रथमकवि- प्रतिपत्ती जीवाभिमशालशाला: 'नाणामणिरयणविविहसाहप्पसाहबेरुलियपत्ततवणिजपत्तविंटा' नानामणिरत्नाना-नानामणिरत्नामिका विविधा जम्बूपीठामलयगि-18 15 शाखाप्रशाखा यस्याः सा तथा तथा वैडूर्याणि-वैतर्यरत्रमयानि पत्राणि यस्याः सा तथा तपनीयानि-तपनीयमयानि पत्रवृन्तानि यस्याःधिकारः रीयावृत्तिःसा तथा, ततः पदद्वय २ मीलनेन कर्मधारयः नानामणिरत्रविविधशाखाप्रशाखावैडूर्यपत्रतपनीयपत्रपन्ताः, अपरे सौवर्णिक्यो मूल-181 उद्देशः २ | शाखा: प्रशाखा रजतमध्य इत्युचुः, 'जंबूणयरत्तमजयसुकुमालपवालपलवकुरधरा' जाम्बूनदनामकसुवर्णविशेषमया रक्ता-रक-16 सू०१५१ वर्णा मृदवो-मनोज्ञाः सुकुमारा:-सुकुमारस्पर्शा ये प्रवाला-ईपदुन्मीलितपत्रभावाः पहबाः संजालपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा वराकुरा: प्रथममुद्भिद्यमाना अडरास्ताम् धरन्तीति जाम्बूनदरक्तमृदुकसुकुमारप्रवालपल्वाङ्कुरधराः, कचित्पाठः-जंयुनयरत्तमध्यसुकुमालकोहैं। मलपलबकुरग्गसिहरा' तत्र जाम्बूनदानि रक्तानि मृदूनि-अकठिनानि मुकुमाराणि-अकर्कशस्पर्शानि कोमलानि-मनोज्ञानि प्रवालप-16 लवाङ्करा-यथोदितस्वरूपा अप्रशिखराणि च यस्याः सा तथा, अन्ये तु जम्बूनदमया अग्रप्रवाला अकरापरपर्याया राजता इत्याहुः, 81 विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभारनमियसाला' विचित्रमणिरत्नानि-विचित्रमणिरत्नमयानि सुरभीणि कुसुमानि फलानि सच तेषां भरेण नमिता-नागं प्राहिताः शाला:-शाखा यस्या: सा तथा, उक्तच-"मूला वइरमया से कंदो खंधो य रिहवेरुलिओ। सोवण्णियसाहप्पसाह तह जायरूवा य ॥ १॥ विडिमा रययवेरुलियपत्ततवाणिज्जपत्तविंटा य । पल्ला अग्गपवाला जंबूणयरायया | | ॥२९४ ॥ तीसे ॥ २॥" 'रयणमयापुप्फफला' इति 'सच्छाया' इति सती-शोभना छाया यस्याः सा सच्छाया, तथा सत्ती-शोभना प्रभा Ck अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~591~ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], ------ ---------- मूलं [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५१] पायस्याः सा सत्प्रभा, अत एव सश्रीका सह उद्योतो यथा मणिरत्नानामुद्द्योतभावात् सोयोता अधिक अतिशयेन मनोनिवृत्तिकरी 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ।। जंबूए णं सुदंसणाए चउद्दिसिं चत्तारि साला पणत्ता, तंजहा-पुरस्थिमेणं दक्षिणेणं पञ्चस्थिमेणं उत्तरेणं, तत्थणं जे से पुरथिमिल्ले साले एस्थ णं एगे महं भवणे पपणत्ते एग कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोसं उई उच्चत्तेणं अणेगखंभावपणओ जाव भवणस्स दारं तं चेच पमाणं पंचधणुसतातिं उखु उचसेणं अहाइजाई विक्खंभेणं जाव वणमालाओ भूमिभागा उलोया मणिपेतिया पंचधणुसतिया देवसयणिज भाणियव्वं ।। तस्थ णं जे से दाहिणिल्ले साले एत्थ णं एगे महं पासायव.सए पण्णरो, कोसं च उहूं उसेणं अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गयमूसिय अंतो बहुसम उल्लोता। तस्स णं वहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्मदेसमाए सीहासणं सपरिवार भाणियब्वं । तत्थ गंजे से पचस्थिमिल्ले साले एस्थ णं पासायव.सए पण्णते तं चेव पमाणं सीहासणं सपरिवार भाणियवं, सत्य णं जे से उत्तरिल्ले साले एस्थ णं एगे महं पासायचसए पपणते तं चेव पमाणं सीहासणं सपरिवारं । तत्थ णं जे से उपरिमविडिमे एस्थ णं एगे महं सिद्वायतणे कोसं आयामेणं अद्धकोसं विचमेणं देसूर्ण कोसं उहं उच्चत्तेणं अपेगखंभसतसन्निविटे यषणओ तिदिसि तओ दारा पंचधणुसता अड्डाइजधणुसयवि दीप अनुक्रम [१९०] जी - 1 ~592~ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२]] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥२९॥ सव ३ प्रतिपत्ती जम्बूवृक्षाधिकारः उद्देशः२ सू०१५२ गाथा: खंभा मणिपेढिया पंचधणुसतिया देवच्छंदओ पंचधणुसतविकखंभो सातिरेगपंचधणुसउच्चत्ते । तत्थ णं देवच्छंदए अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेधप्पमाणाणं, एवं सव्वा सिद्धायतणवत्तव्वया भाणियब्वा जाय धूवकटुच्छया उत्तिमागारा सोलसविधेहि रयणेहिं उवेग चेव जंबू णं सुदंसणा मूले वारसहिं पानमबरवेदियाहिं सवतो समंता संपरिक्खिता, ताओ ण पउमवरवेतियाओ अद्धजोयणं उर्ख उच्चसेणं पंचधणुमताई विखंभेणं वपणओ। जंबू सुदंसणा अपणेणं अट्ठसतेणं जंबूर्ण तयडुचत्तप्पमाणमेसेणं सचतो समंता संपरिक्खित्ता ॥ ताओ णं जंबूओ चसारि जोयणाई उई उच्चत्तेणं कोसं चोव्वेधेणं जोयणं ग्बंधो कोसं विकावंभेणं तिषिण जोयणाई चिडिमा बहुमज्झदेसभाए चत्तारि जोयणाई विश्वंभेणं सातिरेगाईचत्तारि जोयणाई सव्वग्गेणं वहरामयमूला सो चेव चेनियमक्खवष्णओ ॥ जंबएणं सुदसणाए अवरुत्तरेणं उत्सरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एस्थणं अणाद्वियस्स चउपहं सामाणियसाहस्सीणं चसारि जंबूसाहस्सीओ पपणत्ताओ, जंजूए सुदंसणारा पुरथिमेणं एस्थ णं अणाढियरस देवस्स चउपहं अग्गमहिसीणं चत्तारि जंबूओ पण्णसाओ, एवं परिवारो सम्बो णायव्यो जंजूए जाय आयरक्खाणं ॥ जंबू णं सुदंसणा तिहिं जोयणसतेहिं वणसंडेहिं सवतो समंता संपरिक्खिसा, तंजहा-पटमेणं दोघेणं तबेणं । जंबए सुदंसणाए पुरस्थिमेणं परमं वणसंडं पपणासं जोयणाई ओगाहिला एस्थ णं एगे महं दीप अनुक्रम [१९०-१९४] ram अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~593~ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५२ ] गाथा: दीप अनुक्रम [१९०-१९४] Bus Ac प्रतिपत्तिः [३], “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. उद्देशक: [(द्वीप समुद्र)]. मूलं [ १५२ ] + गाथा: ..आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भवणे पण्णसे, पुरत्थमिल्ले भवणसरिसे भाणियब्वे जाव सयणिज्जं एवं दाहिणेणं पचन्थिमेणं उत्तरेणं ॥ जंबू णं सुदंसणाए उत्तरपुरत्थिमेणं पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता चतारि णंदाक्खरिणीओ पण्णत्ता तंज- पउमा पमपमा चैव कुमुदा कुमुपभा । ताओ णं णंदाओ क्खरिणीओ को आयामेणं अद्धको विक्लंभेणं पंचसयाई उच् अच्छाओ सहाओ लहाओ घट्टाओ मट्टाओ णिष्पकाओ णीरयाओ जाव पडिवाओ वण्णओ भाणि जाय तोरणति ॥ तासि णं णंदापुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं पासाय ase पण्ण को सप्पमाणे अद्धको विकासंभो सो चेव सो वण्णओ जाव सीहासणं सपरिवारं । एवं दक्खिणपुरस्थिमेणचि पण्णामं जोयणा० चत्तारि णंदापुक्खरिणीओ उप्पलगुम्मा नलिणा उप्पला उप्पलला तं चैव माणं तव पासायवडेंसगो तप्यमाणो । एवं दक्षिणपञ्चस्थिमेणचि पण्णासं जोयणाणं परं-भिंगा भिंगणिभा भेव अंजणा कज्जलप्पभा, सेसं तं चैव । जंबूए णं सुदंसणाए उत्तरपुरत्थिमे पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि णंढाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ तं०-सिरिकंना सिरिमहिया सिरिचंदा चैव तह य सिरिणिलया। तं चैव पमाणं तव पासायवसि ॥ जंबणं सुदंसणाए पुरथिमिलस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरमे पासावडेंसगस्स दाहिणेणं एत्थ णं एगे महं कुडे पण्णसे अड जोयणाई उहुंच ~594~ ছ% % %se % था। और कु Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः । १२९६ ॥ प्रतिपत्ती जम्बूवृक्षाप्राधिकार उद्देशः२ जासू०१५२ गाथा: AASGASCORRECTOR मूले बारस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे अढ जोयणाई आयामविक्रखंभेणं उवरिं चत्तारि जोय. णाई आयामविक्खंभेणं मूले सातिरेगाई सत्सतीसं जोयणाई परिक्खेवेणं मज्झे सातिरेगाई पणुवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं उपरि सातिरेगाई यारस जोयणाई परिक्खेवेणं मूले विच्छिन्ने मजो संखिसे पपि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सबजंबूणयामए अच्छे जाव पडिस्वे, सेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ते दोण्हषि वण्णओ ॥ तस्स णं कूडस्स उपरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयंति०॥ तस्स णं बहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एगं सिद्वायतणं कोसप्पमाणं सव्या सिद्वायतणवत्तब्वया । जंबूए णं सुदंसणाए पुरस्थिमस्स भवणस्स दाहिणणं दाहिणपुरस्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते तं चेव पमाणं सिद्धायतणं च । जंबूए णं सुदंसणाए दाहिणिल्लस्स भवण पुरथिमेणं दाहिणपुरस्थिमस्स पासायव.सगस्स पचस्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कडे पणते, दाहिणस्स भवणस्स परतो दाहिणपत्धिमिल्लस्स पासायवडिंसगस्स पुरस्थिमेणं एस्थ णं एगे महं कूडे जंबूतो पञ्चस्थिमिल्लस्स भवणस्स दाहिणेणं दाहिणपञ्चथिमिल्लस्स पासायचडेंसगस्स उत्तरेणं एत्थ णं एगे महं कूडे प० तं चेव पमाणं सिद्धायतणं च, जंबूए पचत्थिमभवणउत्तरेणं उत्तरपचस्थिमस्स पासायवसगस्स दाहिणेणं एस्थ णं एगे महं दीप अनुक्रम [१९०-१९४] .IN२९६॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~595~ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------ ----------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------- ------ मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] SCIRCR गाथा: कूडे पपणते तं चेव पमाणं सिद्धायतणं च । जंबूए उत्तरस्स भवणस्स पञ्चस्थिमेणं उत्तरपञ्चत्धिमस्स पासायवडेंगस्स पुरथिमेणं एत्थ णं एगे कूडे पण्णत्ते, तं चेव, जंबूए उत्तरभवणस्स पुरस्थिमेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडे सगस्स पञ्चस्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कडे पपणते, तं चेव पमाणं तहेव सिद्धायतणं । जंजू णं सुदंसणा अण्णेहिं बहहिं तिलएहि ल उएहिं जाव रायरुकावहिं हिंगुरुक्खेहिं जाव सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता । जंबूते णं सुदंसणाए उवरिं बहवे अहमंगलगा पण्णत्ता, तंजहा-सोत्थियसिरिवच्छ० किण्हा चामरज्झया जाव छत्तातिच्छत्ता । जंबूए णं सुदंसणाए दुवालस णामधेजा पण्णत्ता, तंजहा-सुदंसणा अमोहा य, सुप्पबुद्धा जसोधरा । विदेहजं सोमणसा. णियया णिचमंडिया ॥१॥ सुभद्दा य विसाला य, मुजाया सुमणीतिया । सुदंसणाए जंत्रूए, नामधेजा दुवालस ॥२॥से केणतुणं भंते! एवं बुच्चइ-जंबूसुदंसणा?, गोयमा! जंबूते णं सुदंसणाते जंबूदीवाहिवती अणाढिते णामं देवे महिडीए जाव पलि ओवमहितीए परिवसति, सेणं तत्थ चउपहं सामाणियसाहस्सीर्ण जाव जंबदीवस्स जं. बूए सुदसणाए अणाढियाते य रायधाणीए जाव विहरति । कहि णं भंते! अणाढियस्स जाव समत्ता वत्सब्बया रायवाणीए महिहीए। अदुत्तरं च णं गोयमा! जंबुद्दीवे २ तस्थ तत्थ देसे तर्हिवहवे जंबूरुक्खा जंबूचणा जंबूवणसंडा णिचं कुसुमिया जाव सिरीए अतीव उपसोभे ORAGE दीप अनुक्रम [१९०-१९४] ~596~ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] गाथा: श्रीजीवा-15 माणा २ चिट्ठति, से तेणढणं गोयमा! एवं बुच्चइ-जंबुद्दीये २, अदुसरं च णं गोयमा! जंबुद्दी प्रतिपत्ती जीवाभि बस्स सासते णामधे पण्णसे, जन्न कयावि णासि जाय णिचे ।। (सू०१५२) जम्बृवृक्षामलयगि- II 'जंवूपण'मित्यादि, जम्न्याः सुदर्शनायाश्चतुर्दिशि एकैकस्यां दिशि एकैकशाखाभावतश्चतस्रः शाखा: प्रज्ञमाः, तद्यथा-एका पूर्वस्यामेका अधिकारः रीयावृत्तिः दक्षिणस्यामेका पश्चिमायामेकोत्तरस्या, तत्र या सा पूर्वशाला, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृनत्वात् , 'तस्स ण'मित्यादि, तस्या बहुमध्यदेशभागे अत्र महदेकं भवनं प्रक्षम, कोशमायामतोऽर्द्धकोश विष्कम्भतो देशोनं क्रोशमूर्द्ध मुस्त्वेन, तस्य वर्णको द्वारादिवक्तव्यता च प्रागु-१ सासू०१५२ ॥२९७॥ भक्तमहापद्मवन् , तथा चाह-पमाणाइया महापउमवत्तव्बया भाणियन्वा अहीणमारित्ता जाय उप्पलहत्थगा' इति ।। 'तत्थ ण'मि खादि, तत्र या सा दक्षिणात्या शाखा तल्या बहुमध्यदेशभागे अत्र महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञाः, क्रोशमेकमूर्द्ध मुस्खेन, अर्द्ध-12 कोशं विष्कम्भेन, 'अब्भुग्गयमूसियपहसिया इवे'त्यादि तद्वर्णनमुपर्युलोचवर्णनं भूमिभागवर्णनं मणिपीठिकावर्णनं सिंहासनवर्णन | पाच प्राग्वत् . नबरमत्र मणिपीठिका पञ्चधनु:शतान्यायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि बाहल्येन सिंहासनं च सपरिवार हावाक्यमिति, तस्य च प्रासादावतंसकस्योपरि बहून्यष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानीत्यादि तावद्वक्तव्यं याबदहवः सहस्रपत्रहसका हाइति, यथा च दक्षिणस्यां शाखायां प्रासादावतंसक उक्तस्तथा पश्चिमायामुत्तरस्यामपि च प्रत्येकं वक्तव्यः, जम्बाः सुदर्शनाया है उपरि विद्धिमाया बहुमध्यदेशभागे सिद्धायतनं, तच पूर्वस्यां भवनमिव ताबद्वक्तव्यं यावन्मणिपीठिकावर्णनं, तत ऊर्द्धमेवं वक्तव्यं४ातीसे णमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महानेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः, एवं पञ्चधनुःशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां पश्चधनु:- ला॥२९७॥ शतानि सातिरेकाणि ऊर्द्ध मुचैरत्वेन सर्वात्मना रत्नमयः, अच्छ इत्यादि पूर्ववद् यावत्प्रतिरूप इति । तत्थ णं अट्ठसयं जिणपडिमाणं दीप अनुक्रम [१९०-१९४] XXX JEAPil अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~597~ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 6 [१५२] गाथा: जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं सन्निक्खित्ताणं चिट्ठई' इत्यादि पूर्ववत्तावक्तव्यं यावत् 'अट्टसयं धूवककृयाणं सन्निक्षिताणं चिट्ठई' इति | पदं, 'सिद्धाययणस्स उपि अट्ठमंगलगा' इत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यं यावत् 'सहस्सपत्तहत्यगा' इति, सर्वत्रापि च व्याख्याऽपि पूर्व-11 वत् ।। 'जंबू णं सुदंसणा' इत्यादि, जम्यूः सुदर्शना द्वादशभिः पद्मवरवेदिकाभिः 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्येन संपरिक्षिप्ता । वेदिकावर्णनं प्राग्वत् । 'जंबू णमित्यादि, जम्बूः सुदर्शना अन्येन जम्वूनामष्टशतेन तद चत्वप्रमाणमात्रेण 'सर्वतः। सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्येन संपरिक्षिमा । तोचप्रमाणमेव भावयति-ताओ ण'मित्यादि, 'ता:' अष्टोत्तरशतसङ्गया जम्ब्या: प्रत्येकं चत्वारि योजनान्यूई मुथैरत्वेन कोशमुधेन योजनमेकं स्कन्धः क्रोशं वाहल्येन स्कन्धः, त्रीणि योजनानि विडिमाऊर्ल्ड विनिर्गता शाखा बहुमध्यदेशभागे चत्वारि योजनान्यायामविष्कम्भाभ्याम , ऊोधोरूपेण सातिरेकाणि चत्वारि योजनानि सर्वांप्रेण उद्वेधपरिमाणमीलनेनेति भावः । 'वइरामयमूलरययसुपइडिया बिडिमा' इत्यादिवर्णनं पूर्ववत्ताबद्वक्तव्यं यावदधिकं नयनमनोनिर्वृत्तिकार्यः, प्रासादीया यावत्प्रतिरूपाः ॥ 'जंबूए णमित्यादि, अथए णं सुदसणाए' इत्यादि, जम्वा: सुदर्शनाया अवरो|त्तरस्यामुत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्या, अत एवामु तिसृषु विश्वनाहतस्य देवस्य जम्बूद्वीपाधिपतेश्चतुर्णा सामानिकसहस्राणां योग्यानि चलारि जम्बूसहस्राणि प्रज्ञतानि, पूर्वस्यां चतमृणामग्र महिपीणां योग्यानि चतस्रो, महाजम्या दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरवर्षदोऽष्टानां देवसहहसाणां योग्यान्यष्टौ जम्बूसहस्राणि. दक्षिणस्यां मध्यमपर्पदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश जम्बूसहस्राणि, दक्षिणापरस्था वाह्य-18 पर्पदो द्वादश देवसहस्राणां योग्यानि द्वादश जम्बूसहस्राणि, अपरस्वां समानामनीकाधिपतीनां योग्यानि सप्त महाजन्यः, तत: ससु दिक्षु पोडशानामारक्षदेवसहस्राणां योग्यानि षोडश जम्बूसहस्राणि प्रशतानि || 'जंवू णं सुदंसणा' इत्यादि, सा जम्बूः सुद-| *-RAMOCRACKir दीप अनुक्रम [१९०-१९४] ~598~ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२]] धिकारः गाथा: श्रीजीया- र्शना त्रिभिः शतकै:-योजनशतप्रमाणैर्वनपण्डै: 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामरत्वेन संपरिक्षिप्ता, तद्यथा-अभ्यन्तरकेन प्रतिपत्ती जीवाभि मध्येन बाह्येन च । जम्वाः सुदर्शनायाः पूर्वस्यां दिशि प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं योजनान्यवगायात्र महदेकं भवनं प्रज्ञप्तं, तच पूर्व-18 |जम्बूवृक्षामलयगि-18 दिग्वर्षिभवनवद् वक्तव्यं यावत् शयनीयम् । जम्वाः सुदर्शनाया दक्षिणत: प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं योजनान्यवगाद्यान्न महदेकं भवन रीयावृत्तिः प्रक्षप्त, एतदपि तथैव यावत् शयनीय, एवं पश्चिमायामुत्तरवां च प्रत्येकं च प्रत्येकं च प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं योजनान्यवगाह्य भवन उद्देशः२ वक्तव्यं यावत् शयनीयम् ॥ 'जंबूए णमित्यादि, जम्बाः सुदर्शनाया उत्तरपूर्वस्या-शानकोण इत्यर्थः प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं | ॥२९८॥ सू०१५२ योजनान्यवगायात्र महत्यश्चतस्रो नन्दापुष्करिण्यः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पूर्वस्यां पद्मा-पद्माभिधाना, दक्षिणस्यां पद्मप्रभा, पश्चिमायां कुमुदा, उत्तरस्यां कुमुदप्रभा, ताश्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्येक क्रोशमायामेन अर्द्धकोशं विष्कम्भेन पञ्चधनु:शतान्युधेन, अच्छाओ सहाओं इत्यादि पुष्करिणीवर्णनं प्राग्वत्समस्तं यावत्प्रत्येक प्रत्येक पद्मवखेदिकया परिक्षिप्ताः प्रत्येक २ वनपण्डपरिक्षिप्ताः, पापरवेदिकावनपण्डवर्णनं प्राग्वत् ॥ 'तासि णमित्यादि, तासां पुष्करिणीनां प्रत्येक चतुर्दिशि एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञतानि, तेषां वर्णकः प्राग्वत् , तोरणान्यपि तथैव, तासां पुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागेऽत्र महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञमः, स च जम्बूवृक्षदक्षिणपश्चिमशाखाभाविप्रासावत् प्रमाणादिना वक्तव्यो यावत् 'सहस्सपत्तहत्थगा' इति पदं, सर्वत्रापि च सिंहासनमनादृतदेवस्य सपरिवारम् । एवं दक्षिणपूर्वस्या दक्षिणापरस्यामुत्तरापरस्यां च प्रत्येक वक्तव्यं, नबरं नन्दापुष्करिणीनामनानात्वं, तचेदं-दक्षिणपूर्वस्या पूर्वादिक्रमेण उत्पलगुल्मा नलिना उत्पला उत्पलोजवला, दक्षिणपूर्वस्यां भृङ्गा भृङ्गनिभा अन्जना कजलप्रभा, अपरोत्तरस्यां श्रीकान्ता श्रीचन्द्रा श्रीनिलया श्रीमहिता, उक्तश्च-पउमा पउमप्पभा चेव, कुमुवा कुमुवपमा । उपलगुम्मा न दीप अनुक्रम [१९०-१९४] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~599~ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], -------------------- उद्देशकः [(द्विप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] गाथा: BIलिणा, उप्पला उप्पलुजला ॥ १ ॥ भिंगा भिंगनिभा चेव, अंजणा कजलप्पभा । सिरिकता सिरिचंदा, सिरिनिलया चेत्र सिरिम-18/ | हिया ॥ २॥" 'जंबूए णमित्यादि, जम्बाः सुदर्शनायाः पूर्व दिग्भाविनो भवनस्योत्तरतः उत्तरपूर्व दिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य दक्षिणतोऽत्र महानेक: कूटः प्रज्ञप्तः, अष्टौ वोजनान्यूई मुस्त्वेन, मूलेऽष्टी योजनानि विष्कम्भेन मध्ये षड् योजनानि उपरि चत्वारि | योजनानि, मूले सातिरेकाणि पाविंशतियोजनानि परिक्षेपत: मध्ये सातिरेकाण्यष्टादश योजनानि उपरि सातिरेकाणि द्वादश यो-16 जनानि परिक्षेपतः, तथा सति मूले विस्तीणों मध्ये सङ्क्षिप्त उपरि तनुकोऽत एवं गोपुच्छसंस्थानसंस्थित: सर्वासना जम्बूनदमयः, अच्छे जाव पडिरूवें' इति प्राग्वन , स च कूट एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्तः, पद्मवरवेदिकावनपण्डवर्णनं प्राग्वत् । 'तस्स ण'मियादि, तस्स कूटस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स च से जहानामए आलिंगपुक्खरह वा' इत्यादि पूर्ववत्ताबदक्तव्यो यावत्तृणानां मणीनां च शब्दवर्णनम् ।। 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिमा गस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तं, तच्च जम्यूसुदर्शनोपरिबिडिमासिद्धायतनसदृशं वक्तव्यं यावदृष्टोत्तर शतं धूपकडच्छुकानामिति । एवं जम्भवाः सुदर्शनाया: पूर्वस्य भवनस्य दक्षिणतो दक्षिणपश्चिमत्व प्रासादावतंसकस्योत्तरतः, तथा दाक्षिणात्यस्य भवनस्य पूर्वतो दक्षिणपूर्वस्य प्रासादावतंसकस्य पश्चिमदिशि, तथा दाक्षिणात्यस्य भवनस्य परतो दक्षिणपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्य पू-| तः, तथा पाश्चात्यस भवनस्य पूर्वतो दक्षिणपश्चिमस प्रासादावतंसकस्योत्तरतः, तथा पश्चिमस्थ भवनस्योत्तरत उत्तरपश्चिमस प्रासा-] | दावतंसकस्य दक्षिणतः, तथोत्तरस्य भवनस्य पश्चिमायामुत्तरपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्य पूर्वतः, तथोत्तरसा भवनस्य पूर्वत उत्तरपू-| | वैस्य प्रासादावतंसफस्पापरत: प्रत्येकमेकैक: कूट: पूर्वोक्तप्रमाणो बकल्यः, तेषां च कूटानामुपरि प्रत्येकमेकैक सिद्धायतनं, तानि च दीप अनुक्रम [१९०-१९४] SCRCHCRAC-SAM %255 ~600~ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], ------ ------ मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - --- प्रत सूत्रांक [१५२]] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥२९९॥ गाथा: 2-0-0-562 सिद्धायतनानि पूर्ववद्वाच्यानि, उक्त-अटुसहकूडसरिसा सवे जवूनयामया भणिया । तेसुवरि जिणभवणा कोसपमाणा परम- ३ प्रतिपत्ती रम्मा ॥१॥" 'जंबूए णमित्यादि, जलवा: सुदर्शनाया द्वादश नामधेयानि प्रज्ञापानि, तयथा-'सुदंसणे'त्यादि, शोभनं दर्शनं- जम्बूवृक्षादृश्यमानता यस्या नयनमनोहारिवान् सा सुदर्शना १, यथा च तस्याः शोभनदर्शनं तथाऽये स्वयमेव सूत्रकृद् भावयिष्यति, 'अ-18धिकारः मोहा य इति मोघं-निष्फलं न मोधा अमोवा अनिष्फला इत्यर्थः, तथाहि-सा स्वस्वामिभावेन प्रतिपन्ना सती जम्बूद्वीपाधिपत्य-18| उद्देशः२ मुपजनयति, तदन्तरेण तद्विषयस्य स्वामिभावस्पैवायोगात् , ततोऽनिष्कलेति २. 'सुप्पबुद्धा' इति सुपु-अतिशयेन प्रबुद्धेव प्रबुद्धासू०१५२ मणिकनकरत्रामा निरन्तरं सर्वतश्चाकचिक्येन सर्वकालमुन्निद्रेति भावः ३, 'जसोहरा' इति यशः सकलभुवनण्यापि धरतीति | यशोधरा लिहादित्वादच्, जम्बूद्वीपो हि विदितमहिमा भुवनत्रयेऽप्यनया जम्बोपलक्षितस्ततो भवति यथोकं यशोधारिसमस्या: ४, 'सुभद्दा य' इति शोभनं भई-कल्याणं यस्याः सा सुभद्रा, सकल कालं कल्याणभागिनीत्यर्थः, न हि तस्याः कदाचिरप्युपद्रवाः संभवन्ति, महडिकेनाधिष्ठितत्वात् ५. 'विसाला य' इति विशाला-विस्तीर्णा आयामविष्कम्भाभ्यामुचैरत्वेन चाष्टयोजनप्रमाणत्वात् ६, 'सुजाया' इति शोभनं जातं-जन्म यस्याः सा सुजाता, विशुद्धमणिकन करबमूलद्रव्यतया जन्मदोपरहितेति भावः ७, 'सुमणा इय' इति शोभनं मनो यस्याः सकाशाद् भवति सा सुगनाः, भवति हि तां पश्यतां महर्द्धिकानां मनः शोभनमतिरमणीयत्वात् ८, 'विदेहर्जबू' इति, विदेहेपु जम्बूर्विदेह जम्बूर्विदेहान्तर्गनोत्तरकुमकृतनिवासत्वात् ९, 'सोमणसा' इति सौमनस्य हेतुत्वान् सौमनस्या, नहि तां पश्यतः कस्यापि मनो दुष्टं भवति, केवलं तां दृष्ट्वा प्रीतमनास्तां सदधिष्ठातारं च प्रशंसतीति १०, 'नियता' इति नियता भठी प्रापभस्टलरशाः सर्वे जम्बूगदमया भणिताः । तेषामुपरि जिनभवनानि कोशप्रमाणानि परमरम्याति ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१९०-१९४] -2 ॥२२ 2 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~601~ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], ------ ------ मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] गाथा: सर्वकालमवस्थिता शाश्वतत्वात् ११, 'नित्यमंडिता' सदा भूषणभूषितत्वात् १२ । 'सुदंसणाए' इत्यादि सान्येतानि सुदर्शनाया जन्या द्वादश नामधेयानि ॥ सम्प्रति सुदर्शनाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं पिपृच्छिपुरिदमाह-'से केणढणं भंते! इत्यादि प्रतीतं, निर्वचनमाह-'गोयमे त्यादि सुगम, नवरम् 'अणाढिए नाम देवे' इति, अनाहता:-अनादरक्रियाविषयीकृताः शेषा जम्बूद्वीपगता | देवा येनात्मनोऽत्यद्भुतं महर्द्धिकलमीक्षमाणेन सोऽनाहतः, सकलनिर्वचनभावार्थश्चायं-परमादेवं महर्द्धि को नाहतनामा देवस्तत्र परिवसति ततस्तस्य समस्ताऽपि स्फानिः तत्र कृताबासेति सा सुदर्शनाइनाहता, राजधानीवक्तव्यताऽपि प्राग्बतकव्या, तदेवं वस्मादे रूपया जम्बोपलक्षित एप द्वीपस्तस्माजम्बुद्धीप इत्युस्यते. अथवेदं जम्बुद्धीपशब्दप्रवृत्तिनिमित्तमिति दर्शयति-'अदुत्तरं च ण'-10 मित्यादि, अथान्यन् जम्बूद्वीपशब्दप्रवृत्तिकारणमिति गम्यते. गौतम! जम्बुद्वीपे द्वीपे उत्तरकुरुपु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य | तत्र तत्र प्रदेशे वहयो जम्बृवृक्षा जम्बनानि जम्वृषण्डा:. इहैकजातीयवृक्षसमुदायो वनं. अनेकजातीयवृक्षसमूहो बनपण्डः, केवलं प्रधानेन व्यपदेश इति अम्बवनं जम्बृपण्ड इति भेदेनोपार्ग. निचकुसुमिया इत्यादि विशेषणकदम्वकं प्राग्वत् , तत एप द्वीपो जम्बूहाद्वीपः, तथा चाह-से एएणट्टेण'मित्यादि । सम्प्रति जम्बूद्वीपगतचन्द्रादिसत्यापरिज्ञानार्थमाह जंबहीवे णं भंते ! दीवे कति चंद्रा पभासिंसु चा पभासंदिवा पभासिस्संनिया? कति भूरिया तचिंसु था नरति वा तविरसंनिवा? कति नम्वत्ता जोयं जोयंसु वा जोति वा जोएस्संनि वा? कति महरगहा चार चरिंसुवा चरिंति वा चरिस्संति वा? केवतिताओ तारागणकोडाकोडीओ सोहंसु वा सोनिया सोहेस्संतिवा?. गोयसा! जंबूहीवे गंदीवे दो चंदा पभासिंसु दीप अनुक्रम [१९०-१९४] ~602~ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------- --------- मूलं [१५३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५३] गाथा: श्रीजीवा वा ३ वो सूरिया सविसु वा ३ छप्पन नषता जोगं जोएंसु बा ३ छायत्तरं गहसतं चार 11प्रतिपत्ता जीवामिल यरिंस या ३-एग व सलसहस्सं तेत्तीस नावे सहस्साई। व य सपा पशासा तारागणामलचगि 18 जम्बूद्वीपरीयावृत्तिः कोडकोठीणं ॥१॥ सोभिसुबा सोमंति या सोनिस्संति वा ।। (ख० १५३) चन्द्रसूर्यो'जंबूहीये भते! दीये इलादि सुगर्म, नारं पटप वामनक्षत्रागि एकस्य शशिनः परिवारेऽष्टाविंशतिनक्षत्राणां भाषा धिकार: ॥३०॥ पटसनतं प्रहशतमकैकं शशिनं प्रत्याशी पहाणां भावान , तकस्य शशिनः परिवार तारागणपरिमाणं पट्पष्टिः सहस्राणि नव श-4उद्देशः२ कीतानि पञ्चलन त्यधिकानि कोटी कोटीना, वक्ष्यति च-'छावद्विसहस्साई नव चेव सयाई पंचसवराई। एगससीपरिवारो तारागण- सू०१५३ कोडिकोडीणं ।। १॥" (६६९७५) जम्दीपे च द्वौ शशिनौ तदेतद् द्वाभ्यां गुण्यते ततः सूत्रोक्त परिमाणं भवति-एकं शतसहने त्रयविंशत्सहस्राणि नब शतानि पश्चाशदधिकानि कोटीकोटीनामिति । तदेवमुक्तो जम्बूद्वीपः, सम्पति लवणसमुद्रं विवक्षुरिदमाह जंबूहीवं णाम दीवं लवणे णामं समुद्दे बट्टे बलयागारसंठाणसंठिते सव्यतो समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठति ॥ लवणे णं भंते! समुद्दे कि समचकवालसंठिते विसमचकवालसंठिते?, गोयमा! समचकवालसंठिए नो विसमचकवालसंठिए ॥ लवणे णं भंते! समुद्र केवतियं चकबालविक्वंभेणं? केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते?, गोयमा! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसतसहस्साई चकवालविखंभेणं पन्नरस जोयणसयसहस्साई एगासीइसहस्साहं सयमेगोणचत्तालीसे किंचिविसेसाहिए लवणोदधिणो चकवालपरिक्खेवेणं । से णं एकाए पजमवरयेदियाए एगेण य दीप अनुक्रम [१९५-१९७] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् अथ लवणसमुद्राधिकारः आरभ्यते ~603~ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- ------- मूलं [१५४] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [१५४] 50 गाथा ५. वणसंडेणं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ते चिट्ठइ, दोपहवि वण्णओ। सा णं पउमवर अद्धजोयर्ण उष्टुं पंचधणुसयविक्वंभेणं लवणसमुहसमियपरिक्खेवेणं, सेसं तहेव । से पां वणसंडे देसूगाई दो जोयणाई जाव विहरह।। लवणस्स णं भंते! समुहस्स कति दारा पण्णता?, गोयमा! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तंजहा-विजये बेजयंते जयंते अपराजिते । कहि णं भंते! लवणसमुइस्स विजए णामं दारे पपणत्ते?, गोयमा! लवणसमुहस्स पुरस्थिमपेरते धायइखंडस्स दीवस्स पुरस्थिमद्धस्स पञ्चस्थिमेणं सीओदाए महानदीए उपि एत्थ णं लवणस्स समुदस्स विजए णाम दारे पण्णसे अट्ठ जोयणाई उहुं उच्चत्तेणं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, एवं तं चेव सय्वं जहा जंबुद्दीवस्स विजयस्सरिसेवि (दारसरिसमेयंपि) रायहाणी पुरथिमेणं अपणंमि लवणसमुहे। कहि भंते ! लवणसमुहे बेजयंते नाम दारे पण्णते?, गोयमा! लवणसमुद्दे दाहिणपरंते धातइसंडदीवस्स दाहिणद्धस्स उत्तरेणं सेसं तं चेव सब्वं । एवं जयंतेवि, णवरि सीयाए महाणदीए उपि भाणियब्वे । एवं अपराजितेवि, णवरं दिसीभागो भाणियब्बो ॥ लवणस्स णं भंते । समुदस्स दारस्स घ २ एस णं केवतिय अवाधाए अंतरे पण्णसे ?, गोयमा!-'तिपणेव सतसह स्सा पंचाणउतिं भवे सहस्साई। दो जोयणसत असिता कोसं वारंतरे लवणे ॥१॥' जाव यथा अनेकेषु स्थानेष्वत्र मूलटीकापाठयोवैषम्यं तथान कचित् आदर्श चतुर्णामपि द्वाराणां सामम्येण वर्णनं दृश्यते मूले, न च ढीकानुसारी प्रागुतं च तदित्युपेक्षितं. दीप अनुक्रम [१९८-२००] जी०५१ ~ 604~ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], -------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------------------- मूलं [१५४] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रतिपत्ती प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा श्रीजीवा- अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । लवणस्स णं पएसा धायइसंडं दीवं पुट्ठा, तहेव जहा जंबूदीवे धायइजीवाभि संडेवि सो चेव गमो । लवणे णं भंते! समुहे जीवा उदाइसा सो चेव विही, एवं धायइसं- लवणाधि मलयगि- डेवि ॥ से केणढणं भंने! एवं वुचइ-लवणसमुद्दे २१. गोयमा! लवणे णं समुद्दे उदगे आ- | उद्देशः२ रीयावृत्तिः विले रहले लोणे लिंदे खारए कट्टए अप्पेजे बहुणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसिरीसवाणं लु०१५४ नण्णत्थ तजोणियाणं सत्ताणं, सोथिए एस्थ लवणाहिवई देवे महिहीए पलिओवमहिईए, से ॥३०१॥ णं तस्थ सामाणिय जाव लवणसमुहस्स सुस्थियाए रायहाणीए अण्णसिं जाव विहरइ, से एएणटेणं गो एवं बुचइ लवणे णं समुद्दे २, अदुत्तरं च णं गोलवणसमुहे सासए जाव णिचे ॥ (सू०१५४) 'जंबूदीवं दीव'मित्यादि जम्बूद्वीपं द्वीपं लवणो नाम समुद्रो वृत्तः' वर्तुलः, स च चन्द्रमण्डलवन्मध्यपरिपूर्णोऽपि शनयेत तत | | आह-वलयाकारसंस्थानसंस्थिता' वलयाकार--मध्यशुषिरं यत्संस्थानं तेन संस्थितो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्येन 'परिक्षिष्य' वेष्टयित्वा विपनि ।। 'लवणे णं भंते!' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रः किं समचक्रवा|लसंस्थितो यद्वा विषमचक्रवालसंस्थितः, चक्रवालसंस्थानस्योभयथाऽपि दर्शनात, भगवानाह-गौतम! समचक्रवालसथितः सर्वत्र CIहिलक्षयोजनप्रमाणतया चक्रवालस्य भावान , नो विषमचवालसंस्थितः ॥ सम्प्रति चकवाल विष्कम्भादिपरिमाणमेव पृच्छति-14 |'लवणे गं भंते ! समुद्दे इत्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम व योजनशतसहने चकवालविष्कम्भेन, जम्बूद्वीपविष्कम्भादे दीप अनुक्रम [१९८-२००] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~605~ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा दीप अनुक्रम [१९८ -२००] “जीवाजीवाभिगम" प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... - · उपांगसूत्र -३ (मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [ ( द्विप्-समुद्र)], मूलं [ १५४] + गाथा आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तद्विष्कम्भस्य द्विगुणत्वात् पथादश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकोनचत्वारिंशं च किञ्चिद्विशेषनं परिक्षेपेण, परिक्षेपप्रमाणं चैतत् परिधिगणितभावनया स्वयं भावनीयं क्षेत्रसमासदीकातो वा परिभावनीयम् ॥ 'से ण'मित्यादि, 'सः' लवणनामा समुद्र एकया पद्मवश्वेदिकया, अष्टयोजनोच्छ्रितजगत्युपरिभाविन्येति गम्यते, एकेन बनखण्डेन सर्वतः समन्तान् संपरि क्षिप्तः, सा च पद्मवश्वेदिकाऽर्द्धयोजन मूर्द्धमुचैस्लेन पञ्चधनुःशतानि विष्कम्भतः परिक्षेपतो लवणसमुद्रपरिक्षेपप्रमाणा, वनखण्डो देशोने द्वे योजने, अभ्यन्तरोऽपि पावरवेदिकाया वनघण्ड एवंप्रमाण एक उभयोरपि वर्णनं जम्बूद्वीपपद्मरत्रेवेदिकावनपण्डवत् ॥ सम्प्रति द्वारवक्तव्यतामभिधित्सुरिदमाह - 'लवणस्स णं भंते!' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य कति द्वाराणि प्रज्ञप्रानि ?, भगवानाह गौतम ! चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञतानि तद्यथा- विजयवैजयन्तजयन्तापराजिताख्यानि ॥ 'कहि ण'मित्यादि, क भदन्त ! लवणसमुद्रस्य विजयनाम द्वारं प्रज्ञमं ?, भगवानाह - गौतम !, लवणसमुद्रस्य पूर्वपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपपूर्वार्द्धस्य पचत्थिमेणन्ति पश्चिमभागे शीतोदाया महानया उपर्युत्रान्तरे लवणसमुद्रस्य विजयनाम द्वारं प्रशतं, अष्टौ योजनान्युर्द्धमुचैरलेन एवं जम्बूद्वीपगतविजयद्वारसदशमेतदपि वक्तव्यं यावद्वहून्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि यावद्वहवः सहस्रपत्रहस्तका इति ॥ सम्प्रति विजयद्वारनामनिबन्धनं प्रतिपिपाद विपुरिदमाह - 'से केणद्वेणं अंते' इत्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-विजयद्वारं विजयद्वारम् ? इति भगवानाह - गौतम ! बिजये द्वारे विजयो नाम देवो महद्धिको यावद विजयाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां विजयाराजधानी वास्तव्यानां वानमन्वराणां देवानां देवीनां चाधिपत्यं यावत्परिवसति, ततो विजयदेवस्यामिकत्वाद् विजयमिति, तथा चाह' से एएणडेण 'मित्यादि सुगमं । 'कहि णं भंते!' इत्यादि के भदन्त ! विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञता ?, भगवानाह - गौतम! विजयद्वारस्य For P&Perase City ~ 909~ www Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- ------- मूलं [१५४] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा + श्रीजीवा- पूर्वस्यां दिशि तिवंगसल्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगायात्रान्तरे विजयस्य देवस्य ||प्रतिपत्तौ जीवाभि018| विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, सा च जम्बूद्वीपविजयद्वाराधिपतिविजयाराजधानीवद्वक्तव्या ॥ सम्प्रति वैजयन्तद्वारप्रतिपादनार्थ- लवणाधिक मलयगि-16 माह-कहिणं भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! लवणस्य समुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं !, भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रस्य उद्देशः२ रीयावृत्तिः दक्षिणपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपदाक्षिणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र लवणसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रशत, एतद्वक्तव्यता सर्वाऽपि विजयद्वारबद- सू०१५४ 18 वसेया, नवरं राजधानी वैजयन्तद्वारा दक्षिणतो वेदितव्या ।। जयन्तद्वारप्रतिपादनार्थमाह-कहिणं भंते! इत्यादि, क भदन्त 18 लवणसमुद्रस्य जयन्तं द्वारं प्रज्ञतं ?, भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रस्य पश्चिमपर्यन्ते धातकीखण्डपश्चिमार्द्धस्य पूर्वतः शीताया महा नद्या उपरि लवणस्य समुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, सद्वक्तव्यत्ताऽपि विजयद्वारवद् वक्तव्या, नवरं राजधानी जयन्तद्वारस्य पश्चिमसमभागे वक्तव्या । अपराजितद्वारप्रतिपादनार्थमाह-कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! लवणस्य समुद्रस्यापराजितं नाम द्वारं प्रज्ञप्नं ?, भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रस्योत्तरपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपोत्तरार्द्धस्य दक्षिणतोऽत्र लवणस्य समुद्रस्यापराजितं नाम द्वार प्रज्ञप्तं । एतद्वक्तव्यताऽपि विजयद्वारबग्निरवशेषा वक्तव्या, नवरं राजधानी अपराजितद्वारस्योत्तरतोऽवसातव्या ॥ सम्प्रति द्वारस्य द्वारस्यान्तरं प्रतिपादयितुकाम आह-लवणस्स णं भंते!' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य द्वारस्य २ 'एस णमिति एतद् है अन्तरं कियत्या 'अबाधया' अन्तरालखाव्याघातरूपया प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! त्रीणि योजनशतसहस्राणि पश्चनवतिः सह स्राणि अशीते द्वे योजनशते कोशको द्वारस्य द्वारस्याबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं, तथाहि-एकैकस्य द्वारस्य पुथुत्वं चत्वारि योजनानि, ३०२।। एकैकस्मिंश्च द्वारे पकैका द्वारशाखा क्रोशवाहल्या, द्वारे च द्वे द्वे शाखे, तत एकैकस्मिन् द्वारे प्रभुत्वं सामस्त्येन चिन्त्यमानं साईयो k दीप अनुक्रम [१९८-२००] -- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~607~ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], -------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------------------- मूलं [१५४] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा SCSCRSACRS जनचतुष्टयप्रमाणं प्राप्यते, चतुर्णामपि द्वाराणामेकत्र पृथुत्वमीलने जातान्यष्टादश योजनानि, तानि लवणसमुद्रपरिश्यपरिमाणात् | पञ्चदश शतसहस्राणि एकाशीतिःसहस्राणि एकोनचलारिंशं योजनशतं इत्येवंपरिमाणादपनीयन्ते, अपनीय च यच्छेषं तस्य चतु-1 निर्भागेऽपहते बदागच्छति तत् द्वाराणां परस्परमन्तरपरिमाणं, तच्च यथोक्तमेव, उक्तं च- आसीया दोन्नि सया पणनउइसह-15 |स्स विन्नि लक्खा य । कोसो य अंतरं सागरस्स दाराण विनेयं ॥१॥" 'लवणस्स णं भंते ! समुदस्स पदेसा' इत्यादि सूत्रचतुष्टयं प्राग्वद्भावनीयम् ।। सम्प्रति लवणसमुद्रनामान्वर्थ पुच्छति-से केणद्वेण मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-लवण: समुद्रो लवणः समुद्रः इति, भगवानाह-गौतम! लवणस्य समुद्रस्य उदक: 'आविलम् अविमलमस्वच्छं प्रकृत्या 'रइल' रजोवत् , जलवृद्धिहानिभ्यां पङ्कबहुलमिति भावः, लवणं सान्निपातिकरसोपेतखालिन्द्र गोवराम(ख्य)रसविशेषकलितत्वात् , 'भार' तीक्ष्णं लवणरसविशेपवत्त्वात् , 'कटुकं' कटुकरसोपेतत्वात् , अत एवोपद्रवन्नातादपेयं, केपासपेयम् ?-चतुष्पदमृगपक्षसरीसृपाणां, नान्यत्र 'तयोनिकेभ्यः । लवणसमुद्रयोनिकेभ्यः सत्त्वेभ्यस्तेषां पेयमिति भावः, तद्योनिकतया तेषां तदाहारकत्वान् , तदेवं यस्मात्तस्योदकं लवणमतोऽसौ लवणः समुद्र इति, अन्यच 'सुटिए लवणाहिबई' इत्यादि सुगम, नवरमेष भावार्थ:-यस्मात् सुस्थितनामा तदधिपतिः-लवणाधिपतिरिति स्वकल्पपुस्तके प्रसिद्धम् , आधिपत्यं च तस्याधिकृतसमुद्रस्य विषये नान्यस्य ततोऽप्यसौ लवणसमुद्र इति, तथा चाह-'मे 3 है। एएणवेण'मित्यादि ।। सम्पति लवणसमुद्रगतचन्द्रादिसयापरिमाणप्रतिपादनार्थमाह लवणे णं भंते ! समुदे कति चंदा पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा?, एवं पंचण्हवि पुच्छा, गोयमा! लवणसमुदे चत्तारि चंदा पभासिंसु वा ३ चत्तारि सूरिया तर्विसु वा ३ बार दीप अनुक्रम [१९८-२००] ~608~ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -- -------- मूलं [१५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५५]] सू०१५५ श्रीजीवा- सुत्तरं नक्खत्तसयं जोगं जोएंसु वा ३ तिपिण बावपणा महग्गहसया चारं चरिंसु या हाइप्रतिपत्ती जीवाभि० दुपिण सयसहस्सा सत्तहिं च सहस्सा नव य सया तारागणकोडाकोडीणं सोभं सोभिंसु लवणे मलयगिबा३॥ (सू०१५५) चन्द्राद्याः रीयावृत्तिः 8| 'लवणे णं भंते! समुद्दे' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह-गौतम! चत्वारश्चन्द्राः प्रभासितवन्तः प्रभासन्ते प्रभासिष्यन्ते उद्दशा २ ॥३०३॥ चत्वारः सूर्यास्तापितवन्तस्तापयन्ति तापयिष्यन्ति, ते च जम्बूद्वीपगतचन्द्रसूर्यैः सह समनेण्या प्रतिवद्धा वेदितव्याः, तद्यथा-द्वौ है सूर्यो एकस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य श्रेण्या प्रतिवद्धी, द्वौ सूयौं द्वितीयस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य, तथा द्वौ चन्द्रमसाकस्य जम्बू द्वीपगतस्य चन्द्रस्य समश्रेण्या प्रतिवद्धौ, द्वौ द्वितीयचन्द्रस्य, तौ चैवम्-यदा जम्बूद्वीपगत एकः सूर्यो मेरोदक्षिणतश्रारं चरति तदा | लवणसमुद्रेऽपि तेन सह समनेण्या प्रतिवद्ध एक: शिखाया अभ्यन्तरं चार चरति द्वितीयस्तेनैव सह श्रेण्या प्रतिबद्धः शिखायाः | परतः, तदैव च यो जम्बूद्वीपे मेरोगत्तरतश्चारं चरति तेन सह समश्रेण्या प्रतिबद्धो लवणसमुद्रे उत्तरत एकः शिखाया अभ्यन्तरं चार चरति, द्वितीयस्तु तेनैव सह समश्रेण्या प्रतिबद्धः शिखायाः परतः, एवं चन्द्रमसोऽपि जम्बूद्वीपगतचन्द्राभ्यां सह समश्रेणिप्र-19 | तिवद्धा भावनीयाः, अत एव जम्बूद्वीप इव लवणसमुद्रेऽपि यदा मेरोदक्षिणतो दिवसः संभवति तदा मेरोरुत्तरतोऽपि लवणसमुद्रे दिवसः, यदा च मेरोरुत्तरतो लवणसमुद्रे दिवसस्तथा दक्षिणतोऽपि दिवसस्तदा प पूर्वस्यां पश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रे रात्रिः, यदा च | मेरो: पूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रे दिवसस्तदा पश्चिमायामपि दिवस:, यदा च पश्चिमायां दिवसस्तदा पूर्वदिश्यपि, तदा च मेरोदक्षि-5॥३०३ ॥ णत उत्तरतश्च नियमतो रात्रिः, एवं धातकीखण्डादिष्यपि भावनीयं, तद्गतानामपि चन्द्रसूर्याणां जम्बूद्वीपगतचन्द्रसूर्यैः सह समभेण्या | SCIENCE दीप अनुक्रम [२०१] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~609~ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -4-%252 प्रत सूत्रांक [१५५] व्यवस्थितत्वात् , उक्तं च सूर्यप्रज्ञप्तौ-"जया गं लवणसमुद्दे दाहिजड़े दिवसे भवइ तया णं उत्तरडेवि दिवसे हवइ, जया णं उत्तहरड़े दिवसे हवइ तया णं लवणसमुहे पुरथिमपञ्चस्थिमेणं राई भबइ, एवं जहा जंबूहीवे दीवे तहेव" तथा "जया णं धायईसंडे दीवे दादाहिणड़े दिवसे भवइ तया गं उत्तरडेवि, जया णं उत्तरड़े दिवसे हवद तथा ण धायइसंडे दीवे मंदराणं पञ्चयाणं पुरथिमपञ्च थिमेणं राई हवइ, एवं जहा जंयूडीवे दीवे तहेव, कालोए जहा लवणे तहेव" तथा "जया णं अम्भितरपुक्खरखे दाहिणड़े दिवसे | भवह तयाणं उत्तरड़े दिवसे हवइ, जया णं उत्तरड़े दिवसे हवइ तया णं अभितरड़े मंदराणं पत्रयाण पुरस्थिमपञ्चस्थिमेणं राई हवइ, सेसं जहा जपूरीवे सहेच" आह-लवणसमुद्रे पोडश योजनसहरप्रमाणा शिखा ततः कथं चन्द्रसूर्याणां तत्र तत्र देशे। चारं चरतां न गतिव्याघातः ?, उच्यते, इह लवणसमुद्रवर्जेषु शेषेषु द्वीपसमुद्रेषु यानि ज्योतिष्कविमानानि तानि सर्वाण्यपि सामान्यरूपस्फटिकमयानि, यानि पुनर्लवणसमुद्रे ज्योतिष्कविमानानि तानि तथाजगत्स्वाभाव्यादुदकस्काटनखभावस्फटिकमयानि, तथा चोक्तं सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्तो-"जोइसियविमाणाई सवाई हवंति फलिहमइयाई । दगफालियामया पुण लवणे जे जोइसविमाणा ॥१॥" ततो न तेषामुदकमध्ये चार चरतामुदकेन व्यापातः, अन्यच्च शेषद्वीपसमुद्रेषु चन्द्रसूर्यविमानान्यधोलेश्याकानि यानि पुनर्लवणसमुद्रे तानि तथाजगत्स्वाभाव्यादूज़लेश्याकानि तेन शिखायामपि सर्वत्र लवणसमुद्रे प्रकाशो भवति, अयं चार्थः प्रायो बहूनामप्रतीत इति । | संवादार्थमेतदर्थप्रतिपादको जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितो विशेषणवतीप्रन्ध उपदयते-सोलससाहसियाए सिहाए कहं जो-18 इसियविधातो न भवति ?, तत्थ भन्नइ-जेण सूरपन्नत्तीए भणियं-"जोइसियविमाणाई सब्वाई हबंति फलिहमइयाई । दगफालिया। मया पुण लवणे जे जोइसविमाणा ॥ २ ॥" जं सन्नदीवसमुद्देसु फालियामयाई लवणसमुद्दे चेव केवलं दगफालियामयाई तत्थ इद दीप अनुक्रम [२०१] 595%20-14500-54 ~610~ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: P4-5625 प्रत सूत्रांक [१५५] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥३०४॥ दीप अनुक्रम [२०१] कामेव कारण मा उद्गेण विघातो भवउ इति, जंबूसूरपन्नत्तीए चेव भणियं-लवणमि उ जोइसिया उद्दुलेसा हवंति नायब्वा । तेण 31 प्रतिपत्ती परं जोइसिया अहलेसागा मुणेयव्या ॥१॥" तंपि उद्गमालावभासणस्थमेव लोगठिई एसा" इति । तथा द्वादशं नक्षत्रशतं एवं-16 लवणे चत्वारो हि लवणसमुद्रे शशिनः, एकैकस्य च शशिन: परिवारेऽष्टाविंशतिनक्षत्राणि, ततोऽष्टाविंशतेश्चतुभिर्गुणने भवति द्वादशोत्तरं वेलावृद्धिः शतमिति । त्रीणि द्विपञ्चाशदधिकानि महामहशतानि, एकैकस्य शशिनः परिबारेऽष्टाशीतेहाणां भावात् , द्वे शतसहस्रे सप्तषष्टिः 18| उद्देशा२ | सहस्राणि नव शतानि तारागणकोटीकोटीनाम् २६७९००००००००००००००००, उक्तञ्च-चत्तारि चेव चंदा चत्तारि य सू- सू०१५६ रिया लवणतोए । बारं नक्खत्तसर्थ गहाण तिन्नेव बावन्ना ॥ १॥ दो चेव सयसहस्सा सत्तट्ठी खलु भवे सहस्सा य । नव य सया* ४ालवणजले तारागणकोडिकोडीण ॥२॥" इह लवणसमुद्रे चतुर्दश्यादिषु तिथिषु नदीमुखानामापूरण तो जलमतिरेकेण प्रवर्द्धमानगुपलक्ष्यते तत्र कारणं पिपूछिपुरिदमाह कम्हा णं भंते! लवणसमुद्दे चाउद्दसहमुद्दिष्टपुषिणमासिणीसु अतिरेगं २ वहुति वा हायति वा?, गोयमा! जंबुद्दीवस्स दीवस्स चउद्दिसि बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ लवणसमुई पंचाणउति २ जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थ णं चत्तारि महालिंजरसंठाणसंठिया महइमहालया महापायाला पण्णत्ता, तंजहा-वलयामुहे केतूए जूवे ईसरे, ते णं महापाताला एगमेगं जोयणसयसहस्सं उब्वेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं मजसे एगपदेसियाए सेढीए ॥३०४॥ एगमेगं जोयणसतसहस्सं विक्खंभेणं उवरि मुहमूले दस जोयणसहस्साई विखंभेणं । तेसि णं अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~611~ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -- -------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५६] SC+ महापायालाणं कुहा सव्यस्थ समा दसजोयणसतबाहल्ला पण्णत्ता सब्ववारामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य अवकमंति विउक्कमति चयंति उवचयंति सासया णं ते कुड्डा दबट्टयाए वण्णपज्जवेहिं असासया ॥ तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डीया जाव पलिओबमद्वितीया परिवसंति, तंजहा-काले महाकाले बेलंबे पभंजणे ॥तेसि णं महापायालाणं तओ तिभागा पणत्ता, तंजहा-हेडिल्ले तिभागे मज्झिल्ले तिभागे उपरिमे तिभागे ॥ तेणं तिभागा तेत्तीस जोयणसहस्सा तिषिण य तेत्तीसं जोयणसतं जोयणतिभागं च बाहल्लेणं । तत्व ण जे से हेडिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाओ संचिट्ठति, तत्थ णं जे से मझिल्ले तिभागे एत्थ णं बाउकाए य आउकाए य संचिट्ठति, तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिभागे एत्थ णं आउकाए संचिदृति, अदुत्तरं च णं गोयमा! लवणसमुद्दे तत्थ २ देसे बहवे खुड्डालिंजरसंठाणसंठिया खुरपायालकलसा पणत्ता, ते णं खुड्डा पाताला एगमेगं जोयणसहस्सं उब्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसतं विक्वंभेणं मजझे एगपदेसियाए सेढिए एगमेग जोयणसहस्सं विक्खंभेणं उपि महमूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं । तेसिणं खुड्डागपायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दस जोयणाई थाहल्लेणं पण्णत्ता सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य जाव असासयावि, पत्तेयं २ अद्धपलिओवमहितीताहिं देवताहिं परिग्गहिया ।। तेसि णं खुड़गपाता दीप अनुक्रम [२०२] ESCOCACANCocockCA EMA ~612~ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], - -------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: CAN * प्रत सूत्रांक [१५६] प्रतिपत्तौ लवणे विलावृद्धिः है। उद्देशः२ सू०१५६ *- दीप अनुक्रम [२०२] श्रीजीवा- लाणं ततो तिभागा प०,तंजहा-हेडिल्ले तिभागे मज्झिल्ले तिभागे उवरिल्ले तिभागे, ते णं तिभागा जीवाभि तिपिण तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिभागं च बाहल्लेणं पण्णत्ते । तत्थ णं जे से हेडिल्ले तिभागे मलयगि- एत्थ पण वाउकाओ मज्झिले तिभागे वाउआए आउयाते य उवरिल्ले आउकाए, एवामेव सपुब्बारीयावृत्तिः वरेणं लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अट्ट य चुलसीता पातालसता भवतीति मक्खाया । तेसि णं महापायालाणं खुट्टगपायालाण य हेढिममज्झिमिल्छेसु तिभागेसु यहवे ओराला वाया संसेयंति संमुच्छिमंति एयंति चलंति कंपति खुम्भंति घदृति फंदति तं तं भावं परिणमंति तया णं से उदा उण्णामिजति, जया णं तेसिं महापायालाणं खुट्टागपायालाण य हेडिल्लमजिनहेल्लेसु तिभागेसु नो बहवे ओराला जाव तं तं भावं न परिणमंति तया णं से उदए नो उन्नामिजह अंतरावि च णं ते वायं उदीरेंति अंतरावि य णं से उदगे उपणामिजइ अंतरावि च ते वाया नो उदीरंति अंतरावि य णं से उदगे णो उपणामिजद, एवं खलु गोयमा! लवणसमुदे चाउद्दसहमहिट्ठपुण्णमासिणीसु अइरेग २ वहुति वा हायति वा ।। (सू०१५६) 'कम्हा णं भंते !' इत्यादि, कस्माद्भदन्त ! लवणसमुद्रे चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपौर्णमासीषु तिथिपु, अत्रोदिष्टा-अमावास्या पौर्णमासी प्रतीता, पूणों मासो यस्यां सा पौर्णमासी, 'प्रज्ञादित्वात्स्वार्थे ऽण' अन्ये तु ब्याचक्षते-पूर्णो मा:-चन्द्रमा अस्यामिति पौर्णमासी, मण सातथैव, प्राकृतत्वाच मूत्रे 'पुण्णमासिणीति पाठः, 'अइरेग अइरेग' अतिशयेन अतिशयेन बर्द्धते हीयते वा?, भग पानाह-गौतम 2-%25% AK- 3 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~613~ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], . -------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५६] जम्बूद्वीपे द्वीपे यो मन्दरपर्वतस्तस्य चतसृषु पूर्वादिषु दिक्षु लवणसमुद्रं पञ्चनवतिं पश्चनवति योजनसहस्राण्यवगायात्रान्तरे पलारो 'महइमहालया' अतिशयेन महान्तो महालिखरं-महापिडहं तत्संस्थानसंस्थिताः, कचित् 'महारंजरसंठाणसंठिया' इति पाठस्तत्रारजर:-अलि जर इति, महापातालकलशाः प्राप्ताः, उक्तं च--"पणनउइसहस्साई ओगाहित्ता चउद्दिसिं लवणं । चउरोऽलिंजरसंठाणसंठिया होति पायाला ॥१॥" वानेव नामतः कथयति, तद्यथा-मेरोः पूर्वस्यां दिशि वडवामुखः दक्षिणस्यां केयूप: अपरस्यां यूपः उत्तरस्यामीश्वरः, ते चत्वारोऽपि महापातालकलशा एकैकं योजनशतसहस्र-लक्षं उद्वेधेन मूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन |तत ऊर्द्ध एकप्रादेशिक्या श्रेण्या विष्कम्भतः प्रबर्द्धमाना २ मध्ये एकैकं योजनशतसहस्रं विष्कम्भेन तत अर्ब भूयोऽप्ये कप्रादेशिक्या श्रेण्या विष्कम्भतो हीयमाना हीयमाना उपरि मुखमूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भतः, उक्तश्च-"जोयणसहस्सद्सगं मूले उवरिं पाच होति विच्छिण्णा । मज्झे व सयसहस्सं तेत्तियमेत्तं च ओगाढा ॥१॥" 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां महापातालकलशानां कुठ्याः। सर्वत्र समा दश योजनशतबाहल्या योजनसहस्रबाहल्या इत्यर्थः, सर्वात्मना वज़मया: 'अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ।। 'तत्थ पाण'मित्यादि, तेषु वनमयेषु कुत्येपु बहवो जीवाः पृथिवीकायिकाः पुनलाश्च 'अपनामन्ति' गच्छन्ति 'व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते जीचा इति सामर्थ्याद्गम्य, जीवानामेवोत्पत्तिधर्मकतया प्रसिद्धत्वान्, 'चीयन्ते' चयमुपगच्छन्ति 'उपचीयन्ते' उपचयमायान्ति, एतच्च पदवयं पुद्गलापेक्षं, पुद्गलानामेव चयापचयधर्मकतया व्यवहारान्, तत एवं सकल कालं तदाकारस्य सदाऽवस्थानात शाश्वतास्ते कुल्या द्रव्यार्थतया प्रज्ञमाः, वर्णपर्यायैः रसपर्यायैः गन्धपर्यायैः स्पर्शपर्यायैः पुनरशाश्वताः, वर्णादीनां प्रतिक्षणं कियत्कालादूी वाडन्यथाऽन्यथा भवनात् ।। 'तस्थ णमित्यादि, तत्र तेषु चतुर्पु पातालकलशेषु चत्वारो देवा महर्टिका यावत्करणान्महायुतिका इत्यादि दीप अनुक्रम [२०२] Jankari ~614~ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -- -------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि० | लवणे प्रत सूत्रांक [१५६] मलयगिरीयावृत्तिः ॥३०६॥ दीप अनुक्रम परिग्रहः, पस्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तयथा-काले' इत्यादि, बडवामुखे कालः केयूपे महाकाल: यूपे वेलम्बः ईश्वरे प्रभ- ३ प्रतिपत्ती 'जनः ।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां महापातालकलशानां प्रत्येकं प्रत्येकं त्रयविभागाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अधस्तनविभागो मध्यमविभाग | उपरितनखिभागः । ते णमित्यादि, ते प्रयोऽपि विभागास्त्रयस्त्रिंशद् योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि यखिशानि योजनत्रि-बिलावृद्धिः भागं च बाहल्येन प्रज्ञप्ताः । तत्र चतुर्वपि पातालकलशेषु अधसनेषु त्रिभागेपु चातकायः संतिष्ठति, मध्यमेपु त्रिभागेषु वायुकायो- उद्देशः २ ऽप्कायश्च, उपरितनेषु त्रिभागेष्वाकाय एव । 'अदुत्तरं च णमित्यादि, अथान्यद् गौतम ! लवणसमुद्रे 'तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं सू०१५६ इति तेषां पातालकलशानामन्तरेषु तत्र २ देशे तस्य २ देशस्य तत्र २ प्रदेशे क्षुल्लारजरसंस्थानसंस्थिताः झुल्लाः पातालकलशा: प्रज्ञप्ताः, ते क्षुल्लाः पातालकलशा एकमेकं योजनसहस्र मुद्वेधेन मूले एकैकं योजनशतं विष्कम्भेन मध्ये एकैकं योजनसहस्रं विष्कम्भेन | उपरि मुखमूले एकैकं योजनशतं विष्कम्भेन ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां क्षुल्लकपातालकलशानां कुख्याः सर्वत्र समा दश दश योजनानि बाहल्यत्तः, उक्तञ्च-"जोयणसयविच्छिण्णा मूले उबरि दस सयाणि म_मि । ओगाढा य सहस्सं दसजोयणिया य से कुट्टा ॥ १॥" 'सब्ववइरामया' इत्यादि प्राग्वद् यावत् 'फासपज्जवेहिं असासया' इति, प्रत्येकं २ तेऽर्द्धपल्योपमस्थितिकाभि-16 देवताभिः परिगृहीताः ॥ 'तेसि ण मित्यादि, तेषां क्षुल्लकपातालकलशानां प्रत्येकं २ त्रयविभागा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अधस्तन निभागो, मध्यमस्त्रिभाग उपरितनविभागः । 'ते णमित्यादि, ते त्रिभागाः प्रत्येक त्रीणि योजनशतानि 'त्रयस्त्रिंशानि' त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनत्रिभागं च बाहल्येन प्रशप्ताः, तत्र सर्वेपामपि क्षुल्लकपातालकलशानामधस्तनेषु त्रिभागेषु वायुकायः संतिष्ठति, मध्येषु त्रिभागेपुर वायुकायोऽष्कायश्च, उपरितनेषु त्रिभागेवरकायः संतिष्ठति, एवमेव 'सपूर्वापरेण' पूर्वापरसमुदायसङ्ग्य या सप्त पातालकलशसहस्राणि | [२०] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~615~ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५६ ] दीप अनुक्रम [२०२] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [3], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः जी० ५२ क्षुल्लकपातालकलशसहस्राणि, अष्टौ च पातालकलशशवानि-लकपातालकलशशतानि 'चतुरशीतानि' चतुरशीत्यधिकानि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपेच तीर्थकृद्भिः उक्तथा" अनेवि य पायाला खुड्डालंजरगसंठिया लबणे । अट्ठसया चुलसीया सत्त सहस्सा य सव्वेषि ॥ १ ॥ पायालाण विभागा सम्याणवि तिन्नि तिनि विनेया । हेमिभागे वाक मझे वाऊ य उदगं च ।। २ ।। वरिं उदगं भणियं पढमगवीयसु बाउ संखुभिओ । उ बाम उदगं परिवइ जलनिही खुभिभो ॥ ३ ॥” 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां 'कपातालानां' कपातालकलशानां महापातालानां चाधतनमध्येषु त्रिभागेषु तथाजगत्स्थितिस्वाभाय्यात् प्रतिदिवसं द्विकृत्वस्तत्रापि चतुर्दश्यादिपु तिथिष्वतिरेकेण 'बहवः' अतिप्रभूताः 'उदाराः' ऊर्द्धगमनस्वभावाः प्रचलशक्तयश्च उत्- प्राबल्येन आरो येषां 4 ते उदारा इति व्युत्पत्तेः, 'वाता:' वायवः 'संस्विद्यन्ते' उत्पन्यभिमुखीभवन्ति ततः क्षणानन्तरं 'संमूर्च्छन्ति' संमूर्च्छजम्मना लब्धामलामा भवन्ति तत: 'चलन्ति कम्पन्ते यातानां चलनस्वभावात् ततः 'घट्टन्ते' परस्परं सङ्घट्टमाप्नुवन्ति, तदनन्तरं 'क्षुभ्यन्ते' जातमहाद्भुतशक्तिकाः सन्त ऊर्द्धमितस्ततो विप्रसरन्ति ततः 'उदीरयन्ति' अन्यान् वातान् जलमपि चोन् प्रायस्येन प्रेर यन्ति तं तं देशकालोचितं मन्दं सीव्रं मध्यमं वा भावं परिणामं 'परिणमन्ति' धातूनामनेकार्थलात् प्रपद्यन्ते । 'जया णं तेसिं खुड्डा| पायालाणमित्यादि सुगमं भावितत्वात् तथा ण'मित्यादि, तदा णमिति वाक्यालङ्कारे 'तद्' उदकम् 'उन्नामिज्जते' उन्नाम्यते १] अन्येऽपि च पाता कलशाः थुङ्गारशरसंस्थिता रूपणे अष्ट शतानि चतुरशीतीनि सप्त सहस्राणि च सर्वेऽपि ॥ १ ॥ पातालानां विभागः सर्वपामपि त्रयस्त्रयो विज्ञेषाः । अधस्तनभागे दायुः, मध्ये वायुध उदकं च ॥ २ ॥ उपरितनभागे उदकं भणितं प्रथमद्वितीययोः वायुः संक्षुभित ऊ बामयति (निष्काश यति उदकं परिवर्द्धते जलनिधिः क्षुभिः ॥ ३ ॥ For P&Pase City ~616~ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -- -------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५६] दीप अनुक्रम [२०२] श्रीजीवा- कई मुक्षिप्यत इति भावः । 'जया णमित्यादि, यदा पुनः 'ण'मिति पुनरथें निपातानामनेकार्थत्वान् , तेषां क्षुल्लकपातालानां महापा- तिपली जीवाभि०तालानां चाधरतनमध्यमेषु त्रिभागेषु नो बहव उदारा वाता: संविद्यन्ते इत्यादि प्राग्वत् 'तया ण'मित्यादि तदा तदुदकं 'नोन्नाम्यते लपंगे मलयगि- नोई मुक्षिप्यते उत्क्षेपकाभावान् , एतदेव स्पष्टतरमाह-'अंतराविय णमित्यादि, 'अन्तरा' अहोरात्रमध्ये द्विकृतः प्रतिनियते कावेलावृद्धिः रीयावृत्तिः कालविभागे पक्षमध्ये चतुर्दश्यादिषु तिधिष्वतिरेकेण ते वाताः तथाजगत्स्वाभाब्यादुवीर्यन्ते धातूनामनेकार्थलादुत्पद्यन्ते, शतोऽन्तरा- उदेशः२ *अहोरात्रमध्ये द्विकृय: प्रतिनियते कालविभागे पक्षमध्ये चतुर्नयादिपु तिथिषु अतिरकेण तत उदकमुन्नाम्यते । 'अंतराविय ण मि- सू०१५० ॥३०७॥ जात्यादि, 'अन्तरा' प्रतिनियतकालविभागादन्यत्र ते वाताः 'नोदीयन्ते' मोत्पान्ते, तदभावात् 'अन्तरा' प्रतिनियतकालविभागाद-1151 न्यत्र कालविभागे उदकं नोन्नाम्यते उन्नामकाभावान . तत एवं खलु गौतम! लबणसमुद्र चतुर्दश्यष्टम्युदिष्टपूर्णमासीपु तिथियु 'अ तिरेकमतिरेकम' अनिशयेनानिशयेन वर्द्धते हीयते बेनि । नदेवं चतुर्दश्यादिपु तिथिष्वतिरेकेण जलपूती कारणमुक्तभिदानीमहोरात्र४ामध्ये विकृयोऽतिरेकेण जलवृद्धौ कारणमभिधित्मुराह-- लक्षणे णं भंते ! समुहाए तीसाए महत्ताणं कनिखत्तो अतिरेग २ वहति वा हायति था?, गो. यमा! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहत्ताणं नुक्खुत्तो अतिरेगं २ वहुति वा हायति वा ॥ से केण?णं भंते ! एवं बुचइ-लवणे णं समुहे तीसाए मुहत्ताणं दुकाबुत्तो अइरेगं २ बहुइ वा हायड वा?, गायमा! उहमतसु पायालेसु बहु आपूरितेसु पायालेस हायइ, मे तेणवेणं गोपमा! लवणे णं समुदतीसाए मुहत्ताणं दुक्खुत्तो अइरेगं अइरेगं वहइ वा हायइ वा ।। (म०१५७) 4-24- --- 11.-20k - अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~617~ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५७] दीप अनुक्रम [२०३] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [3], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः 'लवणे णं भंते! समुद्दे' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रशितो मुहूर्त्तानां मध्येऽहोरात्रमध्ये इति भावः 'कतिकृत्वः' कतिबारान् अतिरेकमतिरेकं वर्द्धते हीयते वा ? इति तदेवं (प्रने) भगवानाह - गौतम! द्वित्वोऽतिरेकमतिरेकं वर्द्धते हीयते वा ॥ 'से केणद्वेणमित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं भगवानाह - गौतम! 'उद्वमत्सु' अपतनमध्यमत्रिभागगतवातलो भयशा जलमूर्द्ध मुक्षिपत्सु 'पातालेषु' पातालकलशेषु महत्सु लघुपु च बर्द्धते 'आपूर्यमाणेषु' परिसंस्थिते पवने भूयो जलेन भियमाणेषु 'पातालेषु' पातालकउशेषु महत् लघुषु च हीयते 'से एएणडे णमित्यादि उपसंहारवाक्यम् । अधुना लवणशिखावश्यतामाह लवणसिहा णं भंते! केवलिये चालवित्वं मेणं केवलियं अइरेगं २ बहुनि वा हायति वा?, गोयमा ! लवणसीहाए णं दस जोयणसहस्लाई चक्कवालविश्वंभेणं देणं अजोषणं अतिरंग बहुति वा हायति वा ॥ लवणास पां भंते समुद्र कति णागसाहसीओ अतिरियं वेलं धारंति ?, कड़ नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं घरंति ?, कइ नागसाहस्सीओ अग्गोदयं घरेनि ?. गोमा ! लवणसमुहस्स वायालीस नागसाहसीओ अतिरियं वेलं धारैति, वावन्तरिं नागसाहसीओ बाहिरियं वेलं धारेति, सहिँ नागसाहसीओ अग्गोदयं धारेंनि, एवमेव सपुव्वा वरेण एगा णागसतसाहस्सी चोवत्तरं च णागसहस्सा भवतीति मक्वाया || (स० १५८ ) 'लवणसिहा णं भंते!" इत्यादि, लवणशिला भदन्त ! कियचक्रवालविष्कम्भेन ? कियथ 'अतिरेकमतिरेकम्' अतिशयेन २ बर्द्धते दीयते वा ? भगवानाद-गौतम! लवणशिखा सर्वतचक्रवालविष्कम्भतया 'समासमप्रमाणा दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन चक्रवा For P&Praise Cinly ~618~ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], . -------- मूलं [१५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 16प्रतिपत्ती प्रत सूत्रांक [१५८] दीप अनुक्रम [२०४] श्रीजीवा- लरूपतया विस्तारेण 'देशोनमर्द्धयोजन' गब्यूतद्वयप्रमाणम् 'अतिरेकमतिरेकम्' अतिशयेनातिशयेन बर्द्धते हीयते वा, इयमत्रा जीवाभि० भावना-लवणसमुद्रे जम्बूद्वीपादू धातकीखण्डद्वीपाञ्च प्रत्येकं पञ्चनवतिपञ्चनवतियोजनसहस्राणि गोतीथे, गोतीर्थ नाम वडागा-3 वेलाधराः मलयगि- दिष्विव प्रवेशमार्गरूपो नीचो नीचतरो भूदेशो, गोतीर्थमिव गोतीर्थमिति व्युत्पत्तेः, मध्यभागावगाहस्तु दश योजनसहस्रप्रमाणवि- उद्देशः २ रीयावृत्तिःस्तारः, गोतीर्थ च जम्बूद्वीपवेदिकान्तसमीपे धातकीखण्डवेदिकान्तसमीपे चागुलासपेयभागः, ततः परं समतलाद् भूभागादारभ्य | रक्रमेण प्रदेशहान्या तावन्नीचर नीचतरवं परिभावनीयं यावत्पञ्चनवतियोजनसहस्राणि, पञ्चनवतियोजनसहस्रपर्यन्तेषु समतल ॥२८॥ HINभूभागमपेक्ष्योण्डलं योजनसहनमेकं, तथा जम्बूद्वीपवेदिकातो धातकीखण्डद्वीपवेदिकातश्च तत्र समवले भूभागे प्रथमतो जलवृद्धिर-11 कुलसल्यवभागः, ततः समतलभूभागमेवाधिकृत्य प्रदेशबुद्ध्या जलवृद्धिः क्रमेण परिवर्द्धमाना तावत्परिभावनीया यावदुभयतोऽपि पञ्चनवतियोजनसहस्राणि, पञ्चनवतियोजनसहस्रपर्यन्ते चोभयतोऽपि समतलभूभागमपेक्ष्य जलवृद्धिः सप्तयोजनशतानि, किमुक्त भवति ?-तत्र प्रदेशे समतलभूभागमपेल्यावगाहो योजनसहलं, तदुपरि जलवृद्धिः सप्त योजनशतानीति, ततः परं मध्ये भागे दश योजनसहस्रविस्तारेऽवगाहो योजनसहसं जलवृद्धिः षोडश योजनसहस्राणि, पातालकलशगतवायुक्षोभे च तेषामुपर्यहोरात्रमध्ये द्वौ दयारौ किश्चिन्यूने द्वे गव्यूते उदकमतिरेकेण बर्द्धते पातालकलशगतवायूपशान्तौ च हीयते, उक्तन-पंचाणउयसहस्से गोतिस्थं उभयतोबि लवणम्स । जोयणसयाणि सत्त उ दगपरिवुड्डीवि उभयोवि ॥ १॥ दस जोयणसाहस्सा लवणसिहा थकवालतो कंदा । ॥३०८॥ पलबनस्य उभयतोऽपि पञ्जनवतिः सहस्राणि गोतीर्थ तु । उदकपरिशुद्धिरपि उभयतोऽपि सप्त योजनशतानि ॥ १ ॥ लवणशिखा चकवालतो दश योजनसहस्राणिरन्दा। MARIXX अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~619~ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], . -------- मूलं [१५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५८] 9-964 सोलससहस्स उठा सहस्समेगं च ओगाढा ।। २ ॥ देसूणमद्धजोयणलवणसिहोवरि दुर्ग दुवे कालो । आइरेगं २ परिवार हायए| वावि ॥ ३॥" सम्प्रति वेलन्धरवक्तव्यतामाह-लवणस्स णं भंते !' इत्यादि, लवणस्य भदन्त! समुद्रस्य कियन्तो नागसहस्रा नागकुमाराणां भवनपतिनिकायान्ततिनां सहसा आभ्यन्तरिकी-जम्बूद्वीपाभिमुखां वेला-शिखोपरिजलं शिखां च-अकि पतन्ती। 'धरन्ति' धारयन्ति ? कियन्तो नागसहस्रा वाह्यां-धातकीखण्डाभिमुखां वेलां धातकीखण्डद्वीपमध्ये प्रविशन्ती वारयन्ति ?, कियन्तो। बा नागसहस्राः 'अग्रोदक' देशोनयोजनार्द्धजलादुपरि वर्द्धमानं जलं 'धरन्ति' वारयन्ति ?, भगवानाह-गौतम! विचखारिंशन्नागस-1 हस्राण्याभ्यन्तरिकी वेलां धरन्ति द्वासप्रति गसहस्राणि बाह्यां वेलां धरन्ति, पष्टि गसहस्राण्यप्रोदकं धरन्ति, उक्तश्च-अभिदरियं बेलं धरति लवणोदहिस्स नागाणं । बाबाली ससहस्सा दुसत्तरिसहस्सा बाहिरियं ॥ १ ॥ सढि नागसहस्सा धरति अग्गोदयं । समुदस्स" इति । एवमेव 'सपूर्वापरेण पूर्वापरसमुदायेन एक नागशतसहस्रं चतुःसप्ततिश्च नागशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातानि मया शेरैश्च तीर्थकृतिः॥ कति णं भंते। वलंधरा णागराया पण्णता?, गोयमा! चत्सारि वेलंधरा णागराया पणत्ता, तंजहा-गोधूभे सिवए संखे मणोसिलए ॥ एतेसि णं भंते! चउण्हं वेलंधरणागरायाणं कति पोडश योजनसहखाणि समा सहनमेकं चावगाडा ॥२॥ देशोनमर्दयोवनं लवणशिखोपरि द्विवार द्वयोः कालयोः । अतिरेकम तिरेक परिवईते हीयते वापि ॥३॥ १ आभान्तरिका पलां धारयन्ति लवणोदधागानां । द्विवावारिसराइनाणि द्विसप्तति सहकाणि बायां १॥ परिमांगसहवाणि धारयन्ति अग्रोदकं समुद्रस्य। दीप अनुक्रम [२०४] e k [४ not ~620~ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [२], ------- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१५९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] श्रीजीवाजीवाभिः मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्तो वेलन्धरा वासादिः का उद्देशः२ सू०१५९ 4 2- ॥३०९॥ गाथा E7% आवासपञ्चता पण्णता? गोयमा! चत्तारि आवासपव्यता पण्णता, तंजहा-गोभे उदगभासे संखे दगसीमाए ॥ कहिणं भंते! गोथूभस्म वेलंधरणागरायस्स गोभे णाम आवासपच्यते प. पणते?, गोयमा! जंबूदीचे दीवे मदरस्स पुरथिमेणं लवणं समुई बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्य णं गोथूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथूभे णामं आवासपथ्यते पण्णत्ते सत्तरसएकवीसाईजोयणसताई उर्दु उच्चत्तेणं चत्तारि तीसे जोयणसते कोसं च उवेधेणं मूले दसयावीसे जोयणसते आपामविक्खंभेणं मज्झे सत्ततेवीसे जोयणसते उरि चत्तारि चउवीसे जोयणसए आयामविक्खंभेणं मृले तिपिण जोयणसहस्साई दोपिणा य यत्तीसुत्सरे जोयणसए किंचिबिसेसूणे परिक्खेवेणं मजले दो जोयणसहस्साई दोषिण प छलसीते जोधणसने किंचि. विसेसाहिए परिक्खेवेणं उवरि एग जोयणसहस्सं तिपिण य ईयाले जोयणसते किंचिबिसेसणे परिक्खेवेणं मूले विस्थिपणे मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्यकणगामए अच्छे जाव पडिरूवे ॥ से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेण च वणसंडेणं सवतो समंता संपरिक्खित्ते, दोण्हवि वण्णओ ॥ गोथभस्स णं आवासपब्बतस्स उवरि बहसमरमणिजे भूमिभागे पपणत्ते जाव आसयंति ॥ तस्स णं बहुसमरमणि जस्स भूमिभागस्स बहुमजादेसभाए एल्थ एगे महं पासायवटेंसए बावहूँ जोयणद्धं च उई उच्चत्तेणं तं चेव पमाणं अद्ध आयाम दीप अनुक्रम [२०५-२०६] 62-% ॥३०९॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~621~ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [२], -------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- मूलं [१५९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९]] -2012 गाथा विखंभेणं बण्णओ जाय सीहासणं सपरिवारं ॥ से केणट्टेणं भंते! एवं बुचड़ गोथूभे आवास पच्चए २१, गोयना! गोथूभे णं आवासपञ्चते तत्थ २ देसे तहिं २ बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ जाव गोधूभवणाई बहइं उप्पलाई तहेव जाब गोथभे तस्य देवे महिहीए जाय पलि ओवमट्टि. तीए परिवसति, से णं तत्थ चउपहं सामाणियसाहस्सीणं जाब गोधूमयस्स आवासपञ्चतस्स गोथूभाए रायहाणीए जाब विहरति, से लेण?णं जाब णिवे। रायहाणि पुच्छा गोषमा गोधभस्स आवासपथ्यतस्स पुरथिमेणं तिरियमसंखेजे दीवसमुरे वीनिवइत्सा अण्णंमि लवणसमुदतं चेव पमाणं तहेव सब्बं । कहिणं भंते ! सिवगस्स वेलंधरणागरापस्स दओभासणामे आवासपब्बते पपणसे?, गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दक्षिणेणं लवणसमुई बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थ ण सिवगस्स वेलंधरणागरायरस दोभासे णामं आवासपचते पपणरो, तं चेव पमाणं जं गोधुभस्स, णवरि सब्बअंकामए अच्छे जाव पडिरूवे जाब अहोभाणियच्चो, गोयमा! दोभासे णं आवासपब्बते लवणसमुदे अजोयणियावेसे दगं सब्यतो समंता ओभासेति उज्जोवेति तवति पभासेति सिबए इत्य देवे महिड्डीए जाव रायहाणी से दक्विणेणं सिविगा दओभासस्स सेसं तं चेव ॥ कहि णं भंते! संखस्स वेलंधरणागरायस्स संखे णामं आवासपश्यते पण्णत्ते?, गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पचस्थिमेणं बाया दीप अनुक्रम [२०५-२०६] KANER-4-24- 29-05 JaEcon ~622~ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ -------- मूलं [१५९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्तौ | वेलन्धरावासादिः उद्देशः२ सू०१५९ % गाथा % लीसं जोयणसहस्साई एत्थ णं संखस्स वेलंधर संखे णाम आवासपव्वते तं चेव पमाणं णवरं सब्वरयणामए अच्छे । से णं एगाए पउमवरवेदिवाए एगेण य वणसंडेणं जाव अट्ठो बहओ खुडाखुडिआओजाव घट्टई उप्पलाई संखाभाई संखवण्णाई संखवण्णाभाई संखे एस्थ देवे महिडीए जाब रायहाणीए पचत्थिमेणं संखस्स आवासपब्वयस्स संखा नाम रायहाणी तं चेव पमाणं ।। कहि भंते! मणोसिलकस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसीमाए णामं आवासपब्बते पपणत्ते?, गोयमा! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स उत्तरेणं लवणसमुई वायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहिता एस्थ णं मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसीमाए णामं आवासपब्बते पण्णत्ते तं चेव पमाणं णवरि सम्यफलिहामए अच्छे जाव अट्ठो, गोयमा! दगसीमंते णं आवासपचते सीतासीतोदगाणं महाणदीणं तस्थ गतो सोए पडिहम्मति से तेण?णं जाव णिचे मणोसिंलए एत्थ देवे महिहीए जाव से णं तत्थ चाउण्हं सामाणिय. जाव विहरति ।। कहि ण भंते! मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स मणोसिला णाम रायहाणी?, गोयमा! दगसीमस्स आवासपब्वयस्स उत्तरेणं तिरि० अण्णमि लवणे एस्थ णं मलोसिलिया णाम रायहाणी पण्णत्ता तं चेव पमाणं जाव मणोसिलाए देवे-कणकरययफालियमया य वेलंधराणमावासा । अणुवेलंधरराईण पचया होति रयणमया ॥१॥ (सू०१५९) दीप अनुक्रम [२०५-२०६] 56-%95% 9 Elcumini अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~623~ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- -------- मूलं [१५९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९]] PE50- 9-* गाथा 'कति णं भंते !' इत्यादि, कति भदन्त ! वेलन्धरनागराजाः प्रज्ञप्ता:?, भगवानाह-चत्वारो वेलन्धरनागराजा: प्रज्ञप्तास्तद्यथागोस्तूपः शिवकः शसो मनःशिलाकः ।। 'एएसि ण'मित्यादि, एतेषां भदन्त ! चतुर्णी वेलन्धरनागराजानां कति आवासपर्वताः प्रशप्ता:१, भगवानाह-गौतम! एकैकस्य एकैकभावेन चत्वार आवासपर्वता: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-गोस्लूप उदकभासः शो दकसीमः ।।। 'कहि णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! अस्मिन् जम्बूद्वीपे यो मन्दरपर्वतस्तस्य पूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं द्वा| चत्वारिंशतं योजनसहनाण्यवगाहाच गोस्तूपस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य गोस्तूपो नाम आवासपर्वतः प्रज्ञप्तः, सप्तदश योजनशतानि | एकविंशान्यूईमुस्लेन, चत्वारि योजनशतानि त्रिंशदधिकानि कोशं चैकमुद्वेधेन, उच्छ्यापेक्षयाऽवगाहस्य चतुर्भागभावात् , मूले ४ादश योजनशतानि द्वाविंशत्युत्तराणि विष्कम्भत:, मध्ये सप्त योजनशतानि त्रयोविंशत्युत्तराणि, उपरि चलारि योजनशतानि चतु-1 [विंशत्युत्तराणि, मूले त्रीणि योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्वात्रिंशदुत्तरे किश्चिद्विशेषोने परिक्षेपेण, मध्ये द्वे योजनसहले वेच योजनशते चतुरशीते किचिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण, उपर्येक योजनसहस्रं त्रीणि योजनशतानि एकचलारिंशानि किश्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण, ततो मूले विस्तीणों मध्ये सहित उपरि तनुकः, अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थितो गोपुच्छस्याप्येवमाकारखान्, सर्वासना | हजाम्बूनदयः, 'अच्छे जाव पद्धिरूवे' इति प्राग्वत् ॥ से णमित्यादि, 'स:' गोस्तूपनामा आवासपर्वत एकया पद्मवरवेदिकया | एकेन च वनपण्डेन 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः सामस्त्येन संपरिक्षितः, द्वयोरपि चानयोवेदिकावनषण्डयोर्वर्णकः प्राग्वन् । 'गोथूभस्स णमित्यादि, गोस्तूपस्य णमिति पूर्ववद् आवासपर्वतस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, से जहा नामए आलिंग-1 पुक्खरेइ वा' इत्यादि प्राग्वद् थावत्तत्र बहवो नागकुमारा देवा आसते शेरते यावद्विहरन्तीति ।। 'तस्स णमित्यादि, तस्य बहुसमर 14 +%A4SCRSSCRACC दीप अनुक्रम [२०५-२०६] ॐrtesex ~624~ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९]] गाथा श्रीजीवा-दमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञमः, स च विजयदेवस्य प्रासादावतंसकसदृशो वक्तव्यः प्रतिपत्तो जीवाभिस चैवं-सार्धनि द्वापष्टियोजनानि उचैस्वेन, सक्रोशान्येकत्रिंशद् योजनान्यायामविष्कम्भाभ्या, प्रासादवर्णनमुल्लोचवर्णनं च प्रा- वेलन्धरामलयगि-1४ ग्वन् । तस्य च प्रासादावतंसकस्यान्तबहुमध्यदेशभागे महत्येका सर्वरत्नमयी मणिपीठिका, सा च योजनायामविष्कम्भप्रमाणा गन्यू-18वासादिः रीयावृत्तिःतद्वयबाहल्या, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि महदे के सिंहासनं, तजेन्द्रसामानिकादिदेवयोग्यैर्भद्रासनैः परिवृतमिति ।। 'से केणढेणं, उदेशः२ भंते !' इत्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते गोस्तूप आवासपर्वतो गोस्तूप आवासपर्वत: ? इति, भगवानाह-गौतम! गोस्तूपे | सू०१५९ ॥३१॥ आवासपर्वते क्षुल्लासु क्षुल्लिकासु वापीषु यावद्विलपङ्किषु बहून्युत्पलानि यावन् शतसहस्रपत्राणि गोस्लूपप्रभागि गोस्तूपाकाराणि गोदस्तूपवर्णानि गोस्नूपवर्णस्येवाभा-प्रतिभासो येषां तानि गोस्तूपवर्णाभानि, ततस्तानि तदाकारत्वात् तद्वर्णत्वात्तवर्णसादृश्याच गोस्तूपानीति प्रसिद्धानि, तद्योगादावासपर्वतोऽपि गोस्तूपः, अनादिकालप्रवृत्तोऽयं व्यवहार इति तेन नेतरेतराश्रयदोषः, एवमुरारत्रापि भावनीयं, ४ा तथा गोस्नूपश्चात्र भुजगेन्दो भुजगराजो महर्दिको यावत्करणान् महाद्युतिक इत्यादि परिप्रहः, स च चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चतमृणामप्रमहिपीणां सपरिवाराणां तिहणों पर्षदा समानामनीकानां समानामनीकाधिपतीनां षोडशानामात्मरक्षदेवसहस्राणां गोस्तूप-14 स्यावासपर्वतस्य गोस्तूपायाश्च राजधान्या अन्येषां च बहूनां गोस्नूपराजधानीवास्तव्यानां देवानां देवीनां चाविषयं यावद्विहरति, ततो गोस्तूपदेवस्वामिकत्वान गोलूपः, 'से एएणडेण'मित्यायुपसंहारवाक्यं प्रतीतम् । सम्प्रति गोस्तूपो राजधानी पुच्छति-'कहि णं भंते! इत्यादि, क भदन्त ! गोस्तूपस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य गोस्तूपा नाम राजधानी प्रज्ञमा?, भगवानाह-गौतम! गोस्तूपस्यावासपर्व-1 ॥२१ तस्य पूर्ववा दिशा तिर्यगसयान द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्याम्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगायात्रान्तरे गोलूपस्य भुज-11 दीप अनुक्रम [२०५-२०६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~625~ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- -------- मूलं [१५९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९]] - । - % गाथा मागेन्द्रस्य भुजगराजस्य गोस्तूपा नाम राजधानी प्रज्ञता, सा च विजयराजधानीसदृशी वक्तव्या ॥ तदेवमुक्तो गोलूपोऽधुना दकाभा-1 सवक्तव्यतामा-'कहिं णं भंते ! सिवगस्से त्यादि प्रभसूत्रं पाठसिद्धं, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणतो लबणसमुद्रं द्वाचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाझात्रान्तरे शिवकस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य दकामासो नामावासपर्वत: प्रज्ञप्तः, स च गोस्तूपबदविशेषेण वक्तव्यो यावत्सपरिवारं सिंहासनम् ॥ अधुना नामनिमित्तं पिच्छिपुराह-से केणढणमित्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! दकाभास आवासपर्वतो लबणसमुद्रे सर्वासु दिक्षु स्वसीमातोऽष्टयोजनिके-अष्टयोजनप्रमाणे क्षेत्रे यदुदकं तत् 'समन्ततः' सामस्येनातिविशुद्धाङ्कनामरत्नमयलेन स्वप्रभयाऽवभासयति, एतदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे-उद्योतयति ४चन्द्र इब तापयति सूर्य इव प्रभासयति ग्रहादिरिव ततो दकं पानीयमाभासयति-समन्तत: सर्वासु दिक्षु अवभासयतीति दुका भासः, अन्यच शिवको नामात्र पर्वतेपु भुजगेन्द्रो भुजगराजो महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति । 'से णं तत्थ चउहैं। सामाणियसाहस्सीण'मित्यादि प्राग्वन् नवरमत्र शिवका राजधानी वक्तव्या, तस्मिश्च परिवसति स आवासपर्वतो दकमध्येऽनीबा भासते-शोभते इति दकाभासः, 'से एएणवण मित्याधुपसंहारवाक्यं गतार्थ, शिवकाराजधानी दकामासस्यावासपर्वतस्य दक्षिण| तोऽन्यस्मिन् लवणसमुद्रे बिजयाराजधानीव भावनीया || अधुना शहनामकावासपर्वतवक्तव्यतामाह--'कहि णं भंते ! इयादि का भदन्त ! शशस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य शलो नामावासपर्वतः प्रजनः ?. भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्यनस्य । पशिमायां दिशि लवणसमुद्रं द्वाचवारिंशतं योजनसहनाण्यवगायात्रान्तरे शनुमा भुजगेनला भुजगराजन्य शको नामावासपर्यत:। प्रशतः, म च गोस्नुपपदविठोपेण तावद कन्यो यावत्सपरिवारं सिंहासना ।। इहानी नामनिवन्धनभिषिस्मुराह-से केणद्वेण मि - - दीप अनुक्रम [२०५-२०६] :00 00-12 arnumanumanmera : - --- : ~626~ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------------------- मूलं [१५९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] गाथा श्रीजीया- इत्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-शझे आवासपर्वते अल्लासु झुल्लिकासु धापीषु याव दिलपतिषु बहून्युत्पलानि यावत् शतसहस्रप-] जीवाभि० आणि शङ्खाभानि-शङ्काकाराणि शतवानि-घेतानीति भावः शङ्कवर्णाभानि-प्रायः शङ्कवर्णसदशवर्णानि, राजश्चात्र भुजगेन्द्रो भुज- 1 बलम्धरामलयगि- गराजो महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति । 'से णं तत्थ चउण्ई सामाणियसाहस्सी णमित्यादि प्राग्वन , नवरमत्र शाखा कावासादिः रीयावृत्तिः राजधानी वक्तव्या, तदेवं यतस्तनतान्युत्पलादीनि शलाकाराणि शहदेवस्वामिकञ्चायमतः शङ्ख इति, 'से एएण?ण'मित्याधुपसंहार-16 वाक्यं गतार्थ, शङ्का राजधानी शहस्यावासपर्वतस्य पश्चिमायां दिशि तिर्थगसोयान द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे | विजयाराजधानीसरशी वक्तव्या ॥ सम्प्रति दकसीमापर्वतवक्तव्यतामाह-'कहि णं भंते!' इत्यादि प्रशसूत्रं प्रतीतं, भगवानाह-151 गौतम! जन्यूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरतो लवणसमुद्रं वाचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाहा 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे मनःशिलकस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य दकसीमो नामावासपर्वत: प्रज्ञप्तः, सोऽपि गोस्तूपपर्वतबदविशेषेण ताबद्वक्तव्यो यावत्सपरिवार सिंहासनम् ॥ इदानीं नामनिमित्तं विभणिपुराह-'से केणटेण'मित्यादि प्रतीतं, भगवानाह-गौतम! दुकसीने आवासपर्वते शीताशीतोयोर्महानद्योः श्रोतांसि-जलप्रवाहास्तत्र गतानि सस्माच तेन प्रतिहतानि प्रतिनिवर्तन्ते ततो दकसीमाकारित्वाद् दकसीमः, दफस्य सीमा-शीताशीतोदापानीयस्य सीमा यत्रासौ दकसीम इति व्युत्पत्तेः, अन्यच मनःशिलको भुजगेन्द्रो भुजगराजो महर्द्धिको यात्रपल्योपमस्थितिकः परिवसति । 'से णं तत्थ चउहं सामाणियसाहस्सीण'मित्यादि प्राग्वत् नवरं मनःशिलाऽन्न राजधानी वक्तव्या, ततो मनःशिलस्य देवस्य दके-उबणजलमध्ये सीमा, आवासचिन्तायां मर्यादा, 'अत्रे'ति दकसीमे, मनःशिला च राजधानी दकसी- ता॥३१२ ॥ LOमस्यावासपर्वतस्योत्तरतस्तियंगस पेयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे विजयाराजधानीव बक्तव्या । तदेवमुक्तावत्या दीप अनुक्रम [२०५-२०६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~627~ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५९ ] गाथा दीप अनुक्रम [२०५ -२०६] “जीवाजीवाभिगम" प्रतिपत्ति: [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित जी० ५३ - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१५९] + गाथा आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः रोऽपि वेलन्धराणामावासपर्वताः, सर्वत्र व गोस्तूपेनातिदेशः कृतः अत्र च मूलदले विशेषस्ततस्तमभिधित्सुराह - "कणगंकरवयफालियमया य बेलंधराणमावासा | अणुवेलंधरराईण पव्त्रया होति रयणमया ॥ १ ॥” वेलम्धराणां - गोस्तूपादीनामात्रासा गोस्तूपादयअलारः पर्वता यथाक्रमं कनकाङ्करजतस्फटिकमयाः, गोस्तूपः कनकमयो दकाभासोऽङ्करनमयः शङ्खो रजतमयो दकसीमः स्फटिकमय इति, तथा महतां बेलन्धराणामादेशप्रतीच्छकतयाऽनुयायिनो वेलन्धराधानुवेलन्धराः ते च ते राजानम्र अनुवेलन्धरराजा स्तेपामावासपर्वता रत्रमया भवन्ति ॥ कइ णं 'भंते! अणुवेलंधररायाणो पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि अणुवेलंघरणागरायाणो पण्णत्ता, तंजा - ककोडए कद्दमए केलासे अरुणप्पभे । एतेसि णं भंते! चउन्हं अणुवेलंघरणागरायाणं कति आवासपब्वया पन्नत्ता ?, गोयमा! चत्तारि आवासपब्वया पण्णत्ता, संजहा— ककोडर १ कम २ कलासे ३ अरुणप्पभे ४ ॥ कहि णं भंते! ककोडगस्स अणुवेलंधरणागरास्स कक्कोए नाम आवास पण्णत्ते, गोयमा ! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स् पव्वयस्स उत्तरपुरच्छ्रिमेणं लवणसमुदं बयालीस जोयणसहस्साई ओगाहिता एत्थ णं कक्कोडगस्स नागरायस्स ककोड णामं आवासपव्वते पण ते सत्तरस एकवीसाई जोयणसताई तं चैव पमाणं जं गोधूमस्स णवरि सव्वरयणामए अच्छे जाव निरवसेसं जाव सपरिवारं अट्ठो से बहु उप्पलाई ककोडभाई से तं चैव वरि कक्कोडगफवयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं, एवं तं चैव सव्वं, कदमसवि सो For P&Palle Cnly ~ 628~ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: Arc प्रत सूत्रांक [१६० प्रतिपत्ती | अनुवेलधरराजावासादिः उद्देशः२ दीप अनुक्रम [२०७] श्रीजीवा- येव गमओ अपरिसेसिओ, वरि दाहिणपुरच्छिमेणं आवासो विजुप्पभा रायहाणी दाहिणपुजीवाभि रधिमेणं, कहलासेवि एवं चेव, णवरि दाहिणपञ्चत्थिमेणं कयलासाचि रायहाणी ताए येच दि. मलयगि- साए, अरुणप्पभेवि उत्तरपञ्चत्थिमेणं रायहाणीवि ताए चेव दिसाए, चत्तारि विगप्पमाणा सरीयावृत्तिः ब्वरयणामया य ॥ (सू०१६०) 'कह णमित्यादि, कति भदन्त ! अनुवेलन्धरराजा: प्रज्ञप्ताः ?, भगवानाह-गौतम ! चत्वारोऽनुवेलन्धरराजा: प्रज्ञाप्तास्तद्यथा-क- 181 कोटकः १ कर्दमः २ कैलास: ३ अरुणप्रभश्च ।। 'एएसि णमित्यादि, एतेषां भदन्त ! चतुर्णाभनुवेलन्धरराजानां कति आवासप |वताः प्रज्ञप्ता: ?, भगवानाह-गौतम! एकैकस्य एकैकभावेन चत्वारोऽनुवेलन्धरराजानामावासपर्वताः प्रतास्तद्यथा-कर्कोटको विद्युत्प्रभः कैलास: अरुणप्रभच, कर्कोटकस्य कर्कोटकः कई मस्य विद्युत्प्रभः कैलाशस्य कैलाश: अरुणप्रभस्यारुणप्रभ इत्यर्थः । 'कहिणं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं द्वाचवारिंशतं | योजनसहस्राण्यवगाह्य 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे कर्कोटकस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य कर्कोटको नामावासपर्वतकः प्रज्ञप्तः, 'सत्तरसएक|वीसाई जोयणसयाई' इत्यादिका गोस्तूपस्यावासपर्वतस्य या वक्तव्यतोक्ता सैबेहापि अहीनानतिरिक्ता भणितव्या, नवरं सर्वरनमय ५ इति वक्तव्यं, नामनिमित्तचिन्तायामपि यस्माच क्षुल्लाञ्जलिकासु वापीषु यावद्विलपटिपु बहून्युत्पलानि यावत् शतसहस्रपत्राणि कोंदाटकप्रभाणि कर्कोटकाकाराणि ततस्तानि कर्कोटकादीनि व्यवहियन्ते तद्योगात्पर्वतोऽपि कर्कोटकः, तथा कर्कोटकनामा देवस्तत्र प ल्योपमस्थितिकः परिवसति ततः कर्कोटकस्वामित्वात्ककोंटकः, राजधान्यपि कर्कोट स्याबासपर्वतस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि तिर्यगसायेयान् | अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~629~ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६० ] दीप अनुक्रम [२०७] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित उद्देशक: [ (द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १६० ] आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः द्वीपसमुद्रान् व्यतित्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगाद्य कर्कोटकाभिधाना विजयाराजधानीव प्रतिपत्तव्या । एवं कई मकैलाशा रुणप्रभवक्तव्यताऽपि भावनीया, नवरं जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य लवणसमुद्रे दक्षिणपूर्वस्यां कर्दमको दक्षिणाप| रस्यां कैलाश: अपरोत्तरस्यामरुणप्रभः, नामनिमित्तचिन्तायामपि यस्मात्कर्दमके आवासपर्वते उत्पलादीनि कर्दमकप्रभाणि ततः कर्दमकभावना प्रागिव, अन्यच कर्तुमके विद्युत्प्रभो नाम देवः पत्योपमस्थितिकः परिवसति, स च स्वभावाद् यक्षकर्दमप्रियः, यक्षकर्दमो नाम कुडुमागुरुकर्पूरकस्तुरिकाचन्दनमेलापकः उक्तञ्च – “कुङ्कुमागुरुकर्पूर कस्तूरीचन्दनानि च । महासुगन्धमित्युक्तं, नामतो यक्ष* कर्दमम् ॥ १ ॥" ततः प्राचुर्येण यक्षकर्दमसम्भवादासौ पूर्वपदलोपे सत्यभामा भामेतिवत् कर्दम इत्युच्यते, कैलाशे कैलाशप्रभाण्युत्पलादीनि कैलाशनामा च तत्र देवः पत्योपमस्थितिकः परिवसति ततः कैलाशः, एवमरुणप्रभेऽपि वक्तव्यं, कर्दमकाराजधानी कर्दमस्यावासपर्वतस्य दक्षिणपूर्वया कैलाशा कैलाशस्यावासपर्वतस्य दक्षिणापरयाऽरुणप्रभा अरुणप्रभस्यावासपर्वतस्यापरोत्तरया तिर्यगसङ्क्षेपेयान द्वीपसमुद्रान् व्यतित्रज्यास्यस्मिन् लवणसमुद्रेऽरुणप्रभाराजधानी विजयाराजधानीव वाच्या ॥ कहि णं भंते! सुट्टियस्स लवणाहिवहस्स गोयमदीवे णामं दीवे पण्णत्ते ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीचे मंदर स पचत्थिमेणं लवणसमुहं बारसजोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं. सुट्टियस्स लवणाविइस्स गोयमदीवे २ पण्णत्ते, बारसजोयणसहस्साई आयामविवखंभेणं स ततीसं जोयणसहस्साइं नव य अडयाले जोयणसए किंचिविसेसोणे परिक्त्रेवेणं, जंत्रीवतेणं अकोणते जोयणाई चत्तालीस पंचणउतिभागे जोयणस्स ऊसिए जलताओ लवणसमुद्द For P&Permalise City ~630~ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -- -------- मूलं [१६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः AAR प्रत सूत्रांक [१६१] प्रतिपत्ती गौतम द्वीपः उद्देशः२ सू०१६१ ॥३१४॥ दीप अनुक्रम [२०८] तेणं दो कोसे ऊसिते जलंताओ ।। से णं एगाए य पउमयरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वतो समंता तदेव वपणओ दोण्हवि । गोयमदीवस्स णं दीवस्स अंतो जाव बहसमरमणिजे भूमिभागे पण्णते, से जहानामए-आलिंग जाव आसयंति । तस्स णं बहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहमझदेसभागे एस्थ णं सुट्टियस्स लवणाहिवइस्स एगे महं अइकीलावासे नाम भोमेजविहारे पपणत्ते वावर्द्धि जोयणाई अद्धजोयर्ण उहूं उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसंच विक्खंभेणं अणेगखंभसतसन्निविटे भवणवणओ भाणियव्यो । अइकीलावासस्स णं भोमेजविहारस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं भासो । तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स वहमज्झदेसभाए एत्य एगा मणिपेढिया पपणत्ता । साणं मणिपढिया दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणवाहल्लेणं सब्बमणिमयी अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एल्थ णं देवसयणिजे पपणत्ते वपणओ॥से केणटेणं भंते! एवं बुचति-गोयमदीवेणं दीवे ?, तत्थ २ तहिं २ बहई उप्पलाई जाव गोयमप्पभाई से एएण?णं गोयमा! जाव णिचे । कहि णं भंते! सुट्टियस्स लथणाहिवइस्स सुविया णामं रायहाणी पण्णत्ता?, गोयमदीवस्स पचस्थिमेणं तिरियमसंखेजे जाव अण्णमि लवणसमुद्दे बारस जोपणसहस्साई ओगाहित्ता, एवं तहेव सव्वं यव्वं जाव सुत्थिए देवे ॥ (सू० १६१) ॥३१४॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~631~ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ----------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ ----------- मूलं [१६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] कहिणं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! सुस्थितस्य लवणाधिपस्य गौतमद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञाः ?, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपस्य पश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रं द्वादश योजनसहस्राण्यवगायात्रान्तरे सुस्थितस्य लवणाधिपस्थ गौतमद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, द्वा | दश योजनसहनाण्यायामविष्कम्भाभ्यां, सप्तत्रिंशद् योजनसहस्राणि नव चाष्टाचत्वारिंशानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण, 'जंब-1 Iदीवंतेण मिति जम्बूद्वीपदिशि अकोननवतीनि' अर्द्धमेकोननवतेथेषा तानि अर्द्वकोननवतीनि सार्द्राष्टाशीतिसङ्ग्यानीति भावः * योजनानि चत्वारिंशतं च पञ्चनवतिभागान योजनस्य 'जलान्तात्' जलपर्यन्तादूर्द्धमुच्छ्रितः, एतावान् जलस्योपरि प्रकट इत्यर्थः, 'लवणसमुद्रान्ते' लबणसमुद्रदिशि द्वौ कोशी जलान्तादुच्छ्रितो, हावेव कोशौ जलस्योपरि प्रकट इत्यर्थः ॥ ‘से णमित्यादि, स ए| कया पद्मवरवेदिकया एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि वर्णनं प्राग्वत् । तस्य च गौतमद्वीपस्योपरि बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णनं प्राग्वदू यावत्तृणानां मणीनां च शब्दवर्णनं बाप्यादिवर्णनं यात्रहवो वानमन्तरा देवा भासते शेरते यावद्विहरन्तीति । तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र सुस्थितस्य लबणाधिपस्य योग्यो महानेकः 'अतिकीलावासः' अत्यर्थ क्रीडावासो नाम भौमेयबिहार: प्रज्ञप्तः, सा नि द्वापष्टियोजनान्यूर्द्ध मुञ्चरत्वेन एकविंशतं च योजनानि कोशमेकं च विष्कम्भेन 'अणेगखंभसयसन्निविहे' इत्यादि भवनवर्णनमुल्लोचवर्णनं भूमिभागवर्णनं च प्राग्वन् । तस्य च बहुसमरमणीयस्व भूमिभागस्य बहु| मध्यदेशभागे, अन्न महत्यका मणिपीठिका प्रज्ञमा, सा योजनमायामविष्कम्भाभ्यां अर्द्ध योजनं वाहल्येन सामना मणिमयी अच्छा यावरणतिरूपा । 'तीसे णमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि देवशयनीयं, तस्य वर्णक 'उपर्यष्टाष्टमङ्गलकादिकं च प्राग्वत् ॥ नामनिमित्तं पिप्पण्डिपुराह-से केणढणमित्यादि, अथ 'केनार्थेन' केन कारणेन एवमुच्यते-गौतमद्वीपो नाम द्वीप: १, भगवा दीप अनुक्रम [२०८] SCRGARCAS ~632~ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -- -------- मूलं [१६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [२०८] श्रीजीवा- ठानाह-गौतमद्वीपस्य शाश्वतमिदं नामधेयं न कदाचिन्नासीदित्यादि प्राग्वन् । पुस्तकान्तरेषु पुनरेवं पाठः-गोयमदीये णं दीये तस्थ प्रतिपत्ती जीवाभि० ट्रातत्य तहिं तहिं बहूइंजप्पलाई जाब सहस्सपत्ताई गोयमप्पभाई गोवमबन्नाई गोयमवण्णाभाई' इति, एवं प्राग्बद् भावनीयः । सुस्थि- जम्बूगतमलयगि- तश्चात्र लवणाधिपो महर्डिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स च तत्र चतुर्णा सामानिकसहस्राणां यावल्पोडशानामात्मरक्षक- चन्द्रसूर्यरीयावृत्तिः ४ा देवसहस्राणां गौतमद्वीपस्य सुस्थितायाश्च राजधान्या अन्येषां च बहूनां वानमन्तराणां देवानां देवीनां चाधिपत्यं यावद्विहरति, तताद्वीपाः दएवमेव शाश्वतनामत्वात् , पाठान्तरे सद्गतानि उत्पलादीनि गौतमनभाणीति गौतमानीति प्रसिद्धानि ततस्तद्योगान्तथा, तदधिपति-6 उद्देशः२ ॥ ३१५॥ गतिमाधिपतिरिति प्रसिद्ध इति सामन्यौदेष गौतमद्वीप इति । उपसंहारमाह-से तेणडेण मित्यादि गतार्थम् ।। सम्प्रति जम्बूद्वी- सू० १६२ पगतचन्द्रसत्कद्वीपप्रतिपादनार्थमाह कहिणं भंते ! जंबुद्दीवगाणं चंदाणं चंददीवा णाम दीवा पण्णत्ता?, गोयमा! जंबूडीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमेणं लवणसमुहं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थ णं जंबूदीवगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता, जंबुद्दीनेणं अढेकोणणउइ जोयणाई चत्तालीसं पंचाणउति भागे जोयणस्स ऊसिया जलंतातो लवणसमुदंतेणं दो कोसे ऊसिता जलंताओ, बारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, सेसं तं चेव जहा गोतमदीवस्स परिक्खेचो पउमवरवेड्या पत्तेयं २ वणसंडपरि० दोपहवि वणओ बहुसमरमणिजा भूमिभागा जाव जोइसिया ३१५॥ देवा आसयंति । तेसिणं बहसमरमणिजे भूमिभागे पासायब.सगा बावहि जोयणाई बहुम अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~633~ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ----------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --- मूलं [१६२-१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] गाथा जझ० मणिपेढियाओ दो जोयणाई जाच सीहासणा सपरिवारा भाणियब्वा तहेव अट्ठो, गोयमा! बहुसु खुड्डासु खुड्डियासु बहई उपपलाई चंदवण्णाभाई चंदा एस्थ देवा महिहीया जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, ते णं तत्थ पत्तेयं पत्तेयं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाब चंददीवाणं चंदाण य रायहाणीणं अन्नेसिं च बहणं जोतिसियाणं देवाणं देवीण य आहेवर्ष जाव विहरंति, से लेणदेणं गोयमा! चंदहीया जाव णिचा । कहिणं भंते! जंबुद्दीवगाणं चंदाणं चंदाओ नाम रायहाणीओ पण्णताओ?, गोयमा! चंददीवाणं पुरस्थिमेणं तिरियं जाव अण्णमि जंबूहीये २ वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता तं चेव पमाण जाव एमहिड्डीया चंदा देवा २॥ कहिण भंते ! जंबुद्दीवगाणं सराणं मरदीवा णाम दीवा पण्णत्ता?, गोयमा! जंबूहीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स पचस्थिमेणं लवणसमुह बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता तं चेव उच्चत्तं आयामविखंभेणं परिक्खेवो वेदिया वणसंडा भूमिभागा जाव आसयंति पासायव.सगाणं तं चेव पमाणं मणिपेदिया सीहासणा सपरिवारा अट्ठो उप्पलाई सूरप्पभाई सूरा एस्थ देवा जाव रायहाणीओ सकाणं दीवाणं पचस्थिमेणं अपणंमि जंबहीवे दीवे सेसं तं चेव जाव सरा देवा ।। (सू० १६२) कहि णं भंते! अभितरलावणगाणं चंदाणं चंददीचा णाम दीवा पपणत्ता?, गोयमा! जंबहीवे २ मंदरस्स पब्वयम्स पुरस्थिमेणं लवणसमुदं चारस जोयण % 0 दीप अनुक्रम [२०९ -२१६] 562962- 5 ~634~ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] + गाथा दीप अनुक्रम [२०९ -२१६] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [ १६२ - १६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३१६ ॥ सहस्सा ओगाहिता एत्थ णं अभितरावणगाणं चंद्राणं चंद्रदीवा णामं दीवा पण्णत्ता, जहा जंबुद्दीवगा चंद्रा तहा आणिव्वा णवरि रायहाणीओ अण्णंमि लवणे सेसं तं चैव । एवं अमित रावणगाणं सुराणवि लवणममुहं वारस जोयणसहस्सा तहेब सय्यं जाव रायहाणीओ ॥ कहि णं भंते! बाहिरलावणगाणं चंद्राणं चंद्रदीया पण्णत्ता ? गोयना ! लवणस्स समुहस्स पुर थिमिलाओ वेदियंताओ लवणसमुदं पञ्चत्त्रिमेणं वारस जोयणसहस्सा ओगाहिसा एत्थ हिरावणगाणं चंददीया नामं दीवा पण्णत्ता धायतिसंडदीवंतेर्ण अकोणणवतिजोयगाई चालीस च पंचणउतिभागे जोयणस्स ऊसिता जलतातो लवणसमुते दो कोसे ऊ सिता वारस जोयणसहस्साई आयामविश्वंभे परमवरवेश्या वणसंडा बहुसमरमणिजा भूविभागा मणिपेडिया सीहासणा सपरिवारा सो चेव अट्टो रायहाणीओ सगाण दीवाणं पुर स्थिमेणं तिरियमसं० अण्णंमि लवणसमुद्दे तहेव सवं । कहि णं भंते! बाहिरलावणगाणं सूरा सूरदीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? गोयमा ! लवणसमुपचस्थिमिल्लातो वेदियंताओ लवणसमुदं पुरन्धिमेणं बारस जोयणसहस्साई धायतिसंडदीवतेर्ण अद्वेकूणणउतिं जोयणाई चतालीसं च पंचनउतिभागे जोयणस्स दो कोसे ऊसिया सेसं तहेब जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पञ्चत्थिमेणं तिरियमसंखेने लवणे चैव वारस जोयणा तहेव सव्वं भणियव्वं ॥ For P&Pase Cinly अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~635~ ३ प्रतिपसौ लवणगत चन्द्रसूर्य द्वीपादि उद्देशः २ सू० १६३ | ।। ३१६ ॥ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ----------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --- मूलं [१६२-१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -- --- - प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] 2-964-9-4-54-62-2 % (सू० १६३) कहि ण भते ! धायतिसंडदीवगाणं चंदाणं चंददीवा पण्णत्ता ?, गोयमा! चायतिसंडस्स दीवस्स पुरथिमिल्लाओ वेदियंताओ कालोयं णं समुई वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्सा एत्थ णं धायतिसंडदीवाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता, सब्यतो समता दो कोसा ऊसिता जलंताओ पारस जोयणसहस्साई तहेव विक्वंभपरिक्खेवो भूमिभागो पासायडिंसया मणिपेढिया सीहासणा सपरिवारा अट्ठो तहेव रायहाणीओ, सकाणं दीवाणं परस्थिमेणं अण्णंमि धायतिसंडे दीवे मेसं तं चेव, एवं सूरदीवावि, नवरं धायइसंडस्स दीवस्स पञ्चस्थिमिल्लातो वेदियंताओ कालोयं णं समुई वारस जोयण तहेव सवं जाव रायहाणीओ सूराणं दीवाणं पञ्चस्थिमेणं अण्णमि धायइसंडे दीवे सव्वं तहेव ॥ (सू०१६४ ) कहि भंते ! कालोयगाणं चंदाणं चंददीवा पण्णता?, गोयमा! कालोयसमुदस्स पुरच्छिमिल्लाओ वेदियंताओ कालोयपणं समुदं पथस्थिमेण वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एल्थ णं कालोयगचंदाणचं. ददीवा सव्धतो समंता दो कोसा ऊसिता जलंतातो सेसं तहेव जाव रायहाणीओ सगा दीव० पुरच्छिमेणं अण्णमि कालोयगसमुदे पारस जोयणा तं चैव सर्व जाव चंदा देवास सूराणवि, बरं कालोयगपत्धिमिल्लानो वेदियंतातो कालोयसमुहपुरच्छिमेणं वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता तहेव रायहाणीओ सगाणं दीवाग पञ्चस्थिमेणं अण्णमि कालोयगसमत गाथा -5- दीप अनुक्रम %2 % [२०९ % -२१६] - ~636~ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------- ----------- उद्देशक: [(विप्-समुद्र)], --- मूलं [१६२-१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] गाथा श्रीजीवाहेव सव्वं । एवं पुखरवरगाणं चंदाणं पुक्खरवरस्स दीवस्स पुरथिमिल्लाओ वेदियंताओ पुकख ३ प्रतिपत्ती जीवाभि. रसभुदं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता चंददीवा अण्णमि पुकखरवरे दीवे रायहाणीओत- धातकीमलयगिहेव । एवं सूराणधि दीवा पुक्खरवरदीवस्स पचस्थिमिल्लाओ वेदियंताओ पुक्खरोदं समुई वा 18 कालोदचरीयावृत्तिः रस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता तहेव सव्वं जाव रायहाणीओ दीविल्लगाणं दीवे समुहगाणं न्द्रसूर्य समुदे चेव एगाण अधिभतरपासे एगाणं बाहिरपासे रायहाणीओ दीविल्लगाणं दीवेसु समुह- द्वीपादिः ॥३१७॥ गाणं समुद्देसु सरिणामतेसु (सू० १६५ ) इमे गामा अणुगतब्वा, जंबुद्दीवे लवणे धायइ कालोद हिउद्देशः२ पुक्वरे वरुणे । खीर घय इक्खुबिरो य]गंदी अमणवरे कुंडले रुयगे ॥१॥ आभरणवत्वगंधे जु सू०१६४२ प्पलतिलते य पुढवि णिहिरयणे । वासहरदहनईओ विजया वक्वारकप्पिदा ॥ २॥ पुरमंदरमावासा कडा णक्खसचंदमराय। एवं भाणियन्वं ।। (म०१०६) द्वीपस'कहिणं भंते !" इत्यादि । क भदन्त ! जम्बूद्वीपगतयोर्जम्बूद्वीपसत्कयोश्चन्द्रयोश्चन्द्रद्वीपी नाम द्वीपी प्रज्ञप्तौ ?, भगवानाह-गो-II मुद्राः हायमे'त्यादि सर्व गौतमद्वीपत्रपरिभावनीयं, नवरमत्र जम्बूद्वीपस्य पूर्वम्यां दिशीति वक्तव्यं, तथा प्रासादावतंसको वक्तव्यः, तस्य पा-18सू०१६६ सयामादिप्रमाणं तथैव, नामनिमित्तचिन्तायामपि यस्माक्षुल्लिकावाप्यादिषु बहूनि उत्पलादीनि यावत्सहमपत्राणि चन्द्रप्रभाणि-चन्द्रव गोनि, चन्द्रौ च ज्योतिपेन्द्री ज्योतिपराजौ महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः, नौ चन्द्रौ प्रत्येक चतुर्णा सामानिकसहस्राणां |चतमृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिमृणां पर्षदा सपानामनीकानां समानामनीकाधिपतीना पोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणां स्वस्य 8 दीप अनुक्रम [२०९ -२१६] Jatics अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~637~ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ----------- उद्देशक: [(विप्-समुद्र)], --- मूलं [१६२-१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] गाथा स्वस्य चन्द्रद्वीपस्य सस्याश्चन्द्राभिधानाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां ज्योतिषाणां देवानां देवीना चाधिपत्यं यावद्विहरतः । तत सद्तोत्पलादीनां चन्द्राकारत्वाचन्द्रवर्णलाचन्द्रदेवस्यामिकत्वाच तो चन्द्रद्वीपौ इति, चन्द्राभिधे च राजधान्यौ तयोश्चन्द्रद्वीपयोः पृ. |वम्यां दिशि तिर्यगसोयान द्वीपसमुद्रान् व्यतित्रज्यान्यस्मिन जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादश योजनसहस्राण्यवगाध विजयाराजधानीसदृश्यो वक्तव्ये । एवं जम्बूद्वीपगतसूरसत्कसूर्यद्वीपावपि वक्तव्यो, नवरं जम्बूद्वीपस्य पश्चिमायां दिशि एनमेव लवणसमुद्रमवगाह्य वक्तव्यं, दाराअधान्यावपि स्वकढीपयोः पश्चिमायां दिशि अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे वक्तव्ये, शेषं सर्व चन्द्रद्वीपवद्भावनीयं नवरं चन्द्रस्थाने सूर्यपह गमिति ।। सम्प्रति लवणसमुद्रगतचन्द्रादित्यद्वीपवक्तव्यतामाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि, लवणे भवौ लावणिको अभ्यन्तरौ च तो लावणिकौ च अभ्यन्तरलावणिको शिखाया अर्वाकचारिणावितसर्थः तयोः, सूत्रे द्विखेऽपि बहुवचनं प्राकृत त्वान् , शेषं सुगम, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपस्य पूर्वस्यां दिशि एनमेव लवणममुद्रं द्वादश योजनसहस्राण्यवगाहा 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे अभ्यन्तरलावणिकयोश्चन्द्रयोश्रन्द्रद्वीपो नाम द्वीपौ वक्तव्यो, इत्यादि जम्बूद्वीपगनचन्द्रमाकचन्द्रद्वीपयन्निरवशेष वक्तव्यं, नवरमन राजधान्यौ स्वकीययोद्वीपयोः पूर्वस्यां दिशि अन्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादश योजनसहमाण्यवगाहा वेदितव्ये । एवमभ्यन्तरलाबणिकसूर्यसत्कसूर्यद्वीपावपि वक्तव्यो, नवरं तौ जम्बूद्वीपस्य पश्चिमायां दिशि एनमेव लपणसगुनं द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्य वक्तव्यो, राजधान्यावपि स्वकीययोः द्वीपयोः पश्चिमायां दिशि अन्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादशः योजनसहस्राण्यवगाथेति ।। 'कहिणं भंते !' इत्यादि, क भदन्न ! वायलावणिकयोश्चन्द्रयोश्चन्द्रद्वीपो नाम द्वीपौ प्रज्ञप्तौ ?, बाह्य लावणिको नाम लवणस मुद्रे शिखाया बहिधारिणौ चन्द्रौ, भगवानाहगौतम! लवणसमुद्रस्य पूर्वस्माद्वेदिकान्तादर्वाग् लवणसमुद्रं पश्चिमदिशि द्वादश योजनसहमाण्यवगाद्यान्न बाह्यलावणिकयोश्चन्द्रयोश्च दीप अनुक्रम [२०९ -२१६] ~638~ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] + गाथा दीप अनुक्रम [२०९ -२१६] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [ १६२ - १६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३१८ ॥ न्द्रद्वीपो नाम द्वीपो प्रज्ञप्तौ तौ च धातकीपण्डद्वीपान्तेन घातकीपण्डद्वीपदिशि अर्कैकोननवतियोजनानि चत्वारिंशतं च पञ्चनवति ७३ प्रतिपत्तौ भागान् योजनस्योदकादूर्द्धमुच्छ्रितो लवणसमुद्रदिशि द्वौ कोशी, शेषवक्तव्यताऽभ्यन्तरावणिकचन्द्रद्वीपयद्वक्तव्य अत्रापि च राजधान्यौ स्वकीययोपयोः पूर्वस्यां तिर्यगसलेयान द्वीपसमुद्रान् व्यतित्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे वक्तव्ये, एवं बालावणिकसूर्य सत्क सूर्यद्वीपात्रपि वक्तव्यों, नवरमंत्र लवणसमुद्रस्य पश्चिमाद् वेदिकान्तावणसमुद्र पूर्वस्यां दिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्येति व क्तव्यं, राजधान्यावपि स्वकयोद्वापयोः पश्चिमायां दिशि अन्यस्मिन् लवणसमुद्रे इति ॥ सम्प्रति धातकीपण्डगत चन्द्रादित्यद्वीपवतव्यतामभिधित्सुराह - 'कहि णं भंते!' इत्यादि क भदन्त ! धातकीपण्डदीपगतानां चन्द्राणां तत्र द्वादश चन्द्रा इति बहुवचनं, च न्द्रद्वीपा नाम द्वीपाः प्रशप्ताः १, भगवानाह गीतम! घातकीपण्डस्य द्वीपस्य पूर्वस्यां दिशि कालो समुद्र द्वादश योजन सहस्राण्यवगा सात्र घातकीपण्डगतानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपा नाम द्वीपाः प्रज्ञप्ताः तेच जम्बूद्वीपगत चन्द्रसत्कचन्द्रद्वीपवक्तव्याः, नवरं ते सर्वासु दिक्षु जलादूर्द्ध द्वौ क्रोशौ उच्छ्रिती इति वक्तव्यं तत्र पानीयस्य सर्वत्रापि समत्वाद्, राजधान्योऽपि तेषां स्वकीयानां द्वीपानां पूर्वतस्तिर्येगसमान द्वीपसमुद्रान् व्यतित्रज्यान्यस्मिन् धातकीपण्डे द्वीपे द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्य विजयाराजधानीवद्वक्तव्याः, एवं घातकीपण्डगत सूर्य सत्कसूर्यद्वीपा अपि वक्तव्याः, नवरं घातकीपण्डस्य पश्चिमान्ताद्वेदिकान्तात्कालोदसमुद्रं द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्य वक्तव्याः, राजधान्योऽपि स्वकीयानां सूरद्वीपानां पश्चिमदिशि अन्यस्मिन् धातकीपण्डे द्वीपे शेषं तथैव ॥ सम्प्रति कालोदसमुद्रगतचन्द्रादिसत्कद्वीप वक्तव्यतां प्रतिपिपादयिपुराह - 'कहि णं भंते!" इत्यादि, 'कालोयगाण'मित्यादि, क भदन्त ! 'कालोदगानां फालोदसमुद्रसत्कानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपा नाम द्वीपा: प्रज्ञप्ता: ?, भगवानाह - गौतम ! कालोदसमुद्रस्य पूर्वस्माद् वैदिकान्ता For P&False Cinly चन्द्रसूर्यद्वीपादिः उद्देशः २ सू० १६६ ~639~ ॥ ३१८ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ----------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --- मूलं [१६२-१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: M प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] नाकालोदसमुद्र पश्चिमदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाहात्र कालोदसमुद्रगतचन्द्राणां चन्द्रद्वीपा: प्रज्ञप्ताः, ते च सर्वासु दिक्ष जलादुईवी दीकोशावुक्ट्रिती, शेष तथैव । राजधान्योऽपि स्वकीयानां द्वीपाना पूर्वस्त्यां दिशि तिर्यगसषेयान् द्वीपसमुद्रान ग्यवित्रज्याग्यरिगन् कालोदसमुद्रे द्वादश योजनसहमाण्यवगाह विजयाराजधानीबद्वक्तव्याः । एवं कालोदगतसूर्यसत्कसूर्यद्वीपा अपि वक्तव्याः । नवरं कालोदसमुद्रस्य पश्चिमान्ताद्वेदिकान्तात्कालोसमुद्रं पूर्वदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाति नक्तव्यं, राजधान्योऽपि स्वकीयाना द्वीपानां पश्चिमदिशि अन्यस्मिन् कालोदसमुद्रे, शेष तथैव । एवं पुष्करवर द्वीपगतानां चन्द्राणां पुष्करवरद्वीपस्य पूर्वमा टेदिकातात्पुष्करोदसमुपं द्वादश योजनसहसाण्यवगाहा द्वीपा वक्तव्याः, गजधान्यः खकीयानां द्वीपानां पत्रिमदिशि लियंगसायान द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्यान्यन्मिन पुष्फरवरखीपे द्वादश योजनसहवाग्यवगाहा, पुष्करवरद्वीपगतसूर्याणां द्वीपाः पुष्करवरद्वीपस्य पश्चिमाता द्वेदिकान्तात्पुष्करवरसमुद्रं द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह प्रतिपत्तव्याः, राजधान्यः पुनः खकीयानां द्वीपानां पश्चिमदिशि नियंगसाका पायान द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्यान्यस्मिन् पुष्करपरतीपे द्वादश योजनसहमाण्यवगाह, पुष्करबरसमुद्रगतचन्द्रसत्कचन्द्रद्वीपाः पुष्करवर-13 समुद्रख पूर्वम्मा दिकान्ताल्पश्चिमदिशि द्वादश योजनमहाण्यवगाय प्रतिपत्तव्याः, राजधान्य: खकीयानाद्वीपानां पूर्वदिशि नियंगसशयान दीपसमुद्रान व्यतित्रज्यान्यग्मिन पुष्फरवरम मुझे द्वादश बोजनसहनेभ्यः परतः, पुष्करपरसमुद्रगतसूर्यसत्कसूर्य दीपा: पुष्करबरसमुद्रख पश्चिगान्ताद्वेदिकान्तारपूर्वती द्वादश बोजनमहमाण्यवगाह्म, राजधान्यः पुनः स्वकीयाना द्वीपानां पश्चिमदिशि तियंगसलग्यान द्वीपसमुद्राम व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् पुष्करोदसमुद्रे झादश योजनसहमाण्यवगाहा प्रतिपत्तग्याः । एवं शेषद्वीपगनानामपि चन्द्राणां चन्द्रद्वीपगतात्पूर्वस्माद्वेदिकान्तादनन्तरे समुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगाय वक्तव्याः, सूर्याणां सूर्यद्वीपा: स्वखद्वीपगतात्प गाथा AMACRORECASCAKA5% EAK दीप अनुक्रम [२०९ -R -२१६] जी०५ L ~640~ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------- ----------- उद्देशक: [(विप्-समुद्र)], --- मूलं [१६२-१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ik प्रत सूत्रांक श्रीजीवा [१६२ प्रतिपत्नी देवीपादिचन्द्रमयद्वीपाः उद्देशः२ सू०१६। -१६६] गाथा चिमान्ताद्वेदिकान्तादनन्तरे समुद्रे, राजधान्यश्चन्द्राणामालीयचन्द्रद्वीपेभ्य: पूर्वदिशि अन्यस्मिन सदशनामके २ द्वीपे, सूर्याणामप्या- जीवाभि० |सीयसूर्यद्वीपेभ्यः पश्चिमदिशि तस्मिन्नेव सदृशनामके ऽन्यसिमन द्वीपे द्वादश योजनमहोभ्यः परतः, शेषसमुद्रगतानां तु चन्द्राणां मलयगि चन्द्रद्वीपा: स्वखसमुद्रस्य पूर्वम्गाद्वेदिकान्तात्पनिमदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यबगाहा, सूर्याणां तु स्वस्वसमुद्रस्य पश्चिमान्ताद्वेदिका- रीयावृत्तिः तात्पूर्वदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाय, चन्द्राणां राजधान्यः स्वस्खदीपानां पूर्वदिशि अन्यस्मिन सहशनामके समुद्रे, सूर्याणां राजधान्यः स्वखद्वीपानां पश्चिमदिशि, केवलमवेतनशेषद्वीपसमुद्रगतानां चन्द्रसूर्याणां राजधान्योऽन्यस्मिन सहशनामके द्वीपे समुद्रे | ॥३१९॥ 181वाऽतने वा पश्चात्तने वा प्रतिपत्तव्या नातन एवान्यथाइनवस्थाप्रसाके: ।। एतच देवद्वीपादोक् सूर्यवराभासं यावद्, देवडीपादिपु हेतु राजधानी: प्रति विशेषस्तमभिधित्सुराह कहिण भने ! देवहीवगाणं चंदाणं चंददीवा णाम दीया पपणता?, गोयमा! देवदीवस्स देवोदं समुहं पारस जोयणसहस्सा ओगाहित्ता नेणेच कमेण पुरथिमिलाओ बेइयंताओ जाब रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरस्थिमेणं देवहीवं ममुई असंखेजाई जोयणसहस्माई ओगाहित्ता एत्थ णं देवदीवधाणं चंदाणं चंदाओ णामं रायहाणीओ पपणत्ताओ, सेसं तं चेव, देवदीवचंदा दीवा, गवं तराणवि, णवरं पचस्थिमिल्लाओ वेदियंताओ पञ्चत्थिमेणं च माणितव्या, तमि चेव समुहे ॥ कहि णभंते ! देवसमहगाणं चंदाणं चंद्दीवा णाम दीवा एण्णता? गोयमा! देवोदगस्स समुइगस्स पुरथिमिल्लाओ वेदियंताओ देवोदगं समुदं पञ्चत्थिमेणं बारस जोयणसहस्साई तेणेव दीप अनुक्रम [२०९ -२१६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~641~ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- ---------- मूलं [१६७-१६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: A प्रत सूत्रांक M-4-04- [१६७ -१६९] NGANAGARMANCR दीप अनुक्रम [२१७-२१९] कमेणं जाच रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पञ्चत्यिमेणं देवोदगं समुदं असंखेजाई जोयणसहस्साई ओगाहित्ता गुत्थ णं देवोदगार्ण चंदाणे चंदाओ णामं रायहाणीओ पपणत्ताओ, तं चेव सवं, एवं सूराणवि, णवरि देवोदगस्स पञ्चस्थिमिल्लातो वेतियंतातो देवोदगसमुदं पुरस्थिमेणं वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता रायहाणीओ सगाणंदीचाणं पुरथिमेणं देवोदगं समुदं असंखेजाई जोयणसहस्साई । एवं णागे जस्खे भूनेवि चउहं दीवसमुदाणं । कहि णं भंते! सयंभूरजणदीवगाणं 'चंदाणं पंददीया णानंदीचा पगणता?, सयंभुरभणस्स दीवस्स पुरस्थिमिछातो धेनियंतातो लयंभुरमणोदगं सई वारन जोषणलहस्साई तहेव रायहाणीओ सगाणं २ दीवाणं पुरथिनेणं सयंभुरमणो नमुदं पुरन्थिमेणं असंखेजाई जोयण घेव, एवं सूराणवि, लयं. रमणरस पशस्विमिल्लानो बेदियंतागो रायहाथीको सकाणं २ दीवाणं पञ्चस्थिमिल्लाणं मयंभुरमणोद साई असंखेजा सेसं तं चेव । काहिक अंते! सयंभूरमणसमुहकाणं चंदाणं, सयंभुरमणस सहस्स पुरस्थिमिल्लाओ वेलियंतातो लयंभुरमणं समुई पचस्थिभेणं वारस जोयणसरहस्साई ओगाहित्ता, सेसं तं चेव । एवं राणावि, सयंभुरमणस्स पञ्चत्धिमिल्लाओ सयंभुरमणोदं समुदं पुरथिमेणं वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरथिमेणं सयंभुरमणं समुई असंखेजाई जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ णं सर्पभुरमण जाव सूरादेवा WIMIRE 4-4-CARNAKACA ~642~ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- ---------- मूलं [१६७-१६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -* प्रत सूत्रांक [१६७ श्रीजीवा जीवाभि मलयगिरीयावृतिः *%%81044-7 प्रतिपत्ती कालवणे - लन्धरा द्याः उच्छ्रितोदशत्वादिच उद्देशः २ सू०१६८ -१६९] -6-%% ।। (सूत्रं १६७) अस्थिणं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधराति वा णागराया खन्नाति वा अग्घाति वा सिंहाति या विजाती या हासबद्दीति?, हंता अस्थि । जहा णं भंते! लवणसमुदे अस्थि घेलंधराति चाणागराया अग्घा सिंहा विजाती वा हासवडीति वा तहाणं बाहिरनेवि सहेसु अस्थि वेलंधराइ वा णागरायाति या अग्याति वा सीहाति वा विजातीति वा हासबट्टीसि वा?, पो तिण? समझे। (मन्नं १३८) लवणे णभंते ! समुहे किं ऊसितोदने कि पत्थडोडो कि खुभिपजले कि अभियजले?, गोयमा! लवणे णं सम जसिओदगे नो पन्थडोदो मुभिाजले नो अक्खुभियजले । जहा णं भंते ! लवणे समुद्दे ओसिलोवगे नो पत्थडोदने म्युमिरानो अक्खुभियजरले सहा णं याहिरगा समुद्दा कि असिओदगा पत्थडोद्या खुभियजला अभियजला?, गोयमा! बाहिरगा समुहा नो उस्सितोदगा पत्थडोदगा नो खुभियाला अक्खुभियजला पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलहमाणा बोसहभाणा समभरघडताए चिट्ठति ।। अस्थि णं भंते! लवणसमुदे बहवो ओराला बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वा वासं वासंति बा?, हंता अस्थि । जहा णं मंते ! लवणसमुदे पहवे ओराला पलाहका संसेयंति संभुच्छंति वासं वासंति वा तहा गं बाहिरएसवि समुहेस बहवे ओराला पलाहका संसेयंति संमुग्छंति वासं वासंनि?, णो तिणडे समढे, से केणट्टे णं भंते! एवं वुचति वाहिरगा णं समुद्दा पुण्णा पुषणप्पमाणा वोलट्टमाणा बोसमाणा समभरघडियाए दीप अनुक्रम [२१७ -964 -२१९] ॥३३०॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~643~ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६७ -१६९] दीप अनुक्रम [२१७ -२१९] “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [ १६७ १६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः चिति?, गोषमा ! बाहिरएस णं समुदेसु बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए कति विकर्मति चयंति उवचयंति, से तेणद्वेणं एवं युबति बाहिरगा समुद्दा पुण्णा पुण्ण० जाव समभरघडत्ताप चिति ॥ (० १६९ ) 'कहि णं भंते!' इत्यादि के भदन्त ! देवद्वीपानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपा नाम द्वीपाः प्रज्ञमा ?, भगवानाह — गौतम! देवद्वीपस्य पूर्वस्मादिकान्ताद् देवोदं समुद्र द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्य अत्रान्तरे देवद्वीपगानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपाः प्रज्ञप्ता इत्यादि प्राग्वन् राजधान्यः स्वकीयानां चन्द्रद्वीपानां पश्चिमदिशि तमेव देवद्वीपमयानि योजन सहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे देवद्वीप चन्द्राणां चन्द्रा नाम राजधान्यः प्रज्ञप्ताः, ता अपि विजयाराजधानीवद्वक्तव्याः ॥ 'कहि णं भंते!" इत्यादि क भदन्त ! देवद्वीपगानां सूर्याणां सूर्यद्वीपा नाम द्वीपाः प्रशना: १, भगवानाह - गौतम ! देवद्वीपस्य पश्चिमान्ताद्वैदिकान्ताद् देवोदं समुद्रं द्वादश योजनसहस्राण्यगाझेत्यादि । राजधान्यः स्वकीयानां सूर्य द्वीपानां पूर्वस्यां दिशि तमेव देवद्वीपमयानि योजन सहस्राण्यवगाह्येत्यादि ॥ 'कहिणं भंते!' इत्यादि के भदन्त ! देवसमुद्राणां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपा नाम द्वीपाः प्रज्ञमाः ?, गौतम ! देवोदस्य समुद्रस्य पूर्वस्माद्वेदिकान्तादेबोदकं समुद्रं पश्चिमदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्यान्त्रान्तरे देवोदसमुद्रगानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपाः प्रज्ञतास्ते च प्राग्वत् । राजधान्यः स्वकीयानां चन्द्रद्वीपानां पश्चिमदिशि देवोदकं समुद्रमसोयान योजनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे वक्तव्याः, देवोदकसमुद्रगानां सूर्याणां सूर्यद्वीपा देवोदकस्य समुद्रस्य पश्चिमान्ताद्वैदिकान्ताद् देवोदकं समुद्रं पूर्वदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्यान्त्रान्तरे वक्तव्याः, | राजधान्योऽपि स्वकीयानां सूर्यद्वीपानां पूर्वदिशि देवोदकं समुद्रमसोयानि योजन सहस्राण्यवगाद्य एवं नागयक्षभूतस्वयम्भूरमण For P&Praise City ~644~ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१६७-१६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६७ -१६९] दीप अनुक्रम [२१७-२१९] श्रीजीवा- द्वीपसमुद्रचन्द्रादियानामपि वक्तव्यं, द्वीपगतानां चन्द्रादित्यानां चन्द्रादित्यद्वीपा अनन्तरसमुद्रे, समुद्रगतानां तु खस्खसमुद्र एव, ३ प्रतिपनी जीवाभिराजधान्यो द्वीपगदानां चन्द्रादित्यानां स्वखद्वीपे, समुद्रगताना स्वम्पसमुद्रे, आह च मूलटीकाकारोऽपि एवं शेपद्वीपगतचन्द्रादि- चन्द्रसूर्यमलयगि- सानामपि द्वीपा अनन्तरसमुद्रेष्ववगन्तव्याः, राजधान्यश्च नेपां पूर्वापरतोऽसयान द्वीपसमुद्रान् गत्वा ततोऽन्यस्मिन् सदृशनान्नि। रीयावृत्तिःद्वीपे भवन्ति, अन्यानिमान् पश्च द्वीपान मुक्ला देवनागयभभूतस्वयम्भूरमणाख्यान , न तेषु चन्द्रादित्यानां राजधान्योऽन्यस्मिन् | उद्देशः२ द्वीपे, अपि तु खस्मिन्नेव पूर्वापरतो येदिकान्तादसहधेयानि योजनसहस्राण्यवगाह भवन्तीति," इह बहुधा सूत्रेषु पाठभेदाः परमे- सू०१६० ॥ ३२१॥ तावानेव सर्वत्राप्यर्थोऽनर्थभेदान्तरमित्येतद्व्याख्यानुसारेण सर्वेऽप्यनुगन्तव्या न मोग्धव्यमिति ।। 'अस्थि णं भंते !' इत्यादि, सन्ति । भदन्त ! लवणसमुद्रे वेलन्धरा इति वा नागराजाः, अग्घा इति वा खन्ना इति वा सीहा इति वा जाइ इति वा?, अग्पादयो मत्स्यकनछपविशेषाः, आह च प्यूर्णिकृन्-'अग्घा खन्ना सीहा विजाई इति मच्छकच्छभा" इनि, हस्खवृद्धी जलस्येति गम्यते इति, भगवानाह -गौतम सन्ति । 'जहा णं भंते! लवणसमुद्दे बेलंधरा इति वा' इत्यादि पाठसिद्धम् ।। 'लवणे णं मंते!' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रः किमुलितोदकः प्रसटोदक:-प्रस्तटाकारतया स्थितमुदकं यस्य स तथा, सर्वतः समोदक इति भावः, क्षुभितं जलं यस्य स क्षुभितजलस्तत्पतिपथावक्षुभितजल: १, भगवानाह-गौतम ! उच्छ्रितोदको न प्रस्तटोदकः शुभितजलो नानुभितजलः ॥ 'जहा णं| भंते!' इत्यादि, यथा भवन्त ! लवणसमुद्र उच्छ्रितोदक इत्यादि नथा वाह्या अपि समुद्राः किमुन्द्रितोदकाः प्रस्तटोदकाः क्षुभितजला/ | अक्षुभितजला:?, भगवानाह-गौतम! याह्याः समुद्रा न उच्छ्रितोदकाः किन्तु प्रस्तटोदकाः सर्वत्र समोदकलात् , तथा न क्षुभित-18 दाजला: किन्वक्षुभितजला: क्षोभहेतुपातालकलशायभावान , किन्तु ते पूर्णाः, तत्र किच्चिद्धीनमपि व्यवहारतः पूर्ण भवति तत आह-1 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~645~ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६७ -१६९] दीप अनुक्रम [२१७ -२१९] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [ १६७ १६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पूर्णप्रमाणाः स्वप्रमाणं यावज्जलेन पूर्णा इति भाव:, 'बोसट्टमाणा' परिपूर्णभृततया उठन्त इवेति भाव:, 'बोलट्टमाणा' इति विशेषेण उन्तइवेत्यर्थः 'समभरघडत्ताए चिर्द्धति' इति समं परिपूर्ण भरो-भरणं यस्य स समभरः परिपूर्णभृत इत्यर्थः स चासो घट समभरघटस्तद्भावस्तत्ता तया समभूतघट इव विन्तीति भावः || 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, अस्येतद् भदन्त ! लवणसमुद्रे 'ओराला लाहका' उदारा मेघाः 'संस्त्रियन्ते' संमूर्च्छनाभिमुखीभवन्ति, तदनन्तरं संमूईन्सि, नतो 'वर्ष' पानीयं वर्षन्ति ?, भगवानाह - हन्त ! अस्ति || 'जहा णं भंते! लवणसमुद्दे' इत्यादि प्रतीतम् ॥ 'से केहेण मित्यादि, अथ केनार्थेन मदन्त ! एवमुच्यते बाह्याः समुद्राः पूर्णाः पूर्णप्रभाणाः ? इत्यादि ग्राम्यन्, भगवानाह - गौतम! या समुद्रेषु यह उद्योनिका जीवाः पुलाचोदकतया 'अपक्रामन्ति' गच्छन्ति 'व्युत्क्रामन्ति' उत्पयन्ते, एके गच्छन्त्यन्ये उत्पयन्त इति भाव:, तथा 'चीयन्ते' चयमुपगच्छन्ति'पचीयन्ते' उपचयमायान्ति एतच पुत्रान् प्रति द्रव्यं पुतलानामेव चयोपचयार्थप्रसिद्धेः 'से एएणद्वेण' मित्याद्युपसंहारवाक्यं प्रतीतं ॥ सम्प्रत्युद्वेषपरिवृद्धिं चिचिन्तविपुरिदमाह– लवणे णं ते! मुद्दे केवलियं उबेहपरिबुद्धीने पासे, गोयमा! लवणस्स णं समुदस्स उभ ओपास पंचाणउति २ पदेसे गंता पदे उपरिबुद्धीए पण्णसे, पंचाणउति २ वालग्गाई गंता बार उन्हरिए पण्णत्ते, प० लिक्खाओ गंना लिक्खा उन्हपरि पंचाणउड़ जबाओ ज अंगुनीकुछी धणु [उच्छेदपरिबुद्दी] गाउयजोषणजोपण समजोयणसहस्साई ता जोयणसह उपरिबुद्धीए । लवणे णं भने समुदे केयतियं उस्सेह परिबुद्दीए पण्णत्ते ?, For P&Pase Cinly ~ 646~ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], - -------- मूलं [१७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: न प्रत सूत्रांक [१७०] श्रीजीवा- गोयमा! लवणस्स f समुहस्त उभओपासिं पंचाणउति पदेसे गंता सोलसपएस उस्सेहपरिघु प्रतिपत्तो जीवाभि० हीए पपण, गोयमा! लवणसणं समुहस्स परणेव कमेणं जाय पंचाणउनि २ जोयणसहस्साई लवणे. मलयगि- गंता सोलस जोयणसहस्साई उस्सेधपरियुडिप पणते ।। (नृ० १७० वेधोत्संधी रीयावृत्तिः 'लवणे णं भंते ! समुद्दे इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रः 'कियत्' फियन्ति योजनानि यावद् उद्वेषपरिवृद्धया प्रज्ञप्तः १. किमुक्ती उद्देशः भवति -जम्यूद्वीपवेदिकान्तालवणसमुद्रयेदिकान्ताचारभ्योमवतोऽपि लवणस मुद्रस्य क्रियन्ति योजनानि याबन् मात्रया मात्रया उद्वेध- सू० १७० ॥३२२॥ परिवृद्धिरिति, भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रे उभयोः पार्थ यो जम्बूद्वीपवेदिकान्तालवणस मुद्रवेदिकान्ताचारभ्येत्यर्थः पञ्चनयतिप्रदे-11 शान् गत्वा प्रदेश उद्वेधपरिपृखला प्रज्ञप्तः, इह प्रदेशस्रसरेण्वादिरूपो द्रष्टव्यः, पञ्चनवति बालापाणि गलैकं वालाप्रमुढेवपरिक्षा प्रशतं, एवं लिक्षावचमध्यागुलवितस्तिरनिकुक्षिधनुर्गन्यूतयोजनयोजनशतसूत्राण्यपि भावनीयानि, पानवति योजनसहस्राणि गत्या प्रायोजनसहसमुद्वेधपरिवृया प्रज्ञप्त, राशिकभावना चैवं योजनादिषु द्रष्टव्या, इहोभयतोऽपि पश्चनवनियोजनसहस्रपर्यन्ते योजन सहस्रमवगाहेन रष्टुं ततखैराशिककर्मावतारः, यदि पञ्चनवतिसहसपर्यन्ते योजनसहरमवगाहातः पञ्चनबनियोजनपर्यन्ते को-18 |वगाह:?, राशित्रयस्थापना-५५०००।१०००।९५ । अत्रादिमध्ययो राश्योः शून्यत्रयस्यापवर्तना ९५६१।९५, ततो मध्यस्य राशेरेकरूपस्य अन्येन पञ्चनवतिलक्षणेन राशिना गुणनात् जाता पञ्चनवतिः, तत्रायेन राशिना पञ्चनवतिलक्षणेन विभज्यते लब्धमेकं वोजनं, उक्तध-"पंचाणउइसहस्से गंतूर्ण जोयणाणि उभोयि । जोयणसहस्समेगं लवणे ओगाहो होइ ॥ ६ ॥ पंचाणउईण ॥३२ दावगे (लवणे ) गंतूर्ण जोयणाणि उभओबि । जोयणमेगं लवणे ओगाहेणं मुणेयवा ॥१॥" पञ्चनवतियोजनपर्यन्ते च वयेक यो दीप अनुक्रम [२२०] * R4-06- 1-9 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~647~ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], - -------- मूलं [१७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७०] जनमवगाहसतोऽर्थात्पञ्चनवतिगण्यूतपर्यन्ते एक गब्यून पश्चनवतिधनु:पर्यन्ते एकं धनुरित्यादि लब्धम् ।। सम्प्रत्युत्सेधमधिकृत्याह'लवणे णं भंते ! समुद्दे' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्र: ‘कियत्' कियन्ति योजनानि उत्सेधपरिवृख्या प्रजातः ?, एतदुक्तं मबति-जम्बूद्वीपवेदिकान्तालवणसमुद्रचेदिकान्ताचारभ्योभयतोऽपि लवणसमुद्रम्य कियत्या कियत्या मात्रया कियन्ति योजनानि याबदुत्सेधपरिसृद्धिः?, भगवानाह-गौतम' 'लवणस्सणं समुदस्संन्यादि, इह निश्चयतो लवणसमुद्रस्य जम्पूटीपवेदिकातो तालवणसमुद्रवेदिकानश्च समतले भूभागे प्रश्रमतो जलवृद्धिरकुलसहयेयभागः, समतलमेव भूभागमधिकृत्य प्रदेशका जलवृद्धिः । |क्रमण परिवर्धमाना ताबदवसेया याबदुभयतोऽपि पञ्चनवतियोजनसहमपर्यन्ते सप्त शतानि, ततः परं मध्यदेशभागे दश-| पायोजनसहमविस्तार पोडश योजनसहस्राणि, इह तु षोडशयोजनसहस्रप्रमाणायाः शिखायाः शिरसि उभयोश वेदिकान्तयोर्मूले वरिकायां दत्तायां यदपान्तराले किमपि जलरहितमा काशं तदपि करणगन्या तदाभाव्यमिति स जलं विपक्षिवाऽधिकृतमुच्यतेमालवणस्य समुद्रस्योभयतो जम्बूद्वीपवेदिकान्तालवणसमुद्रवेदिकान्तान पञ्चनवनि प्रदेशान गत्वा पोडश प्रदेशा उत्सेधपरिवृद्धिः प्रज्ञत्रा, पद नवति वालाप्राणि गला पोडश बालापाणि, एवं यावन् पञ्चनवति योजनसहस्राणि गत्वा पोदश योजनसहस्राणि, अत्रे-13 दाय पैराशिकभावना-वधानपतियो जनसहस्रातिक्रमे पोश योजनसहस्राणि जलोत्सेधमतः पश्चनवनियोजनातिकमे क उत्सेध: 16 राशित्रयस्थापना-९५०००।१६०००।९५॥ अत्रादिमध्ययो राश्योः शून्यत्रिकस्यापवर्तना ९५।१६।९५, ततो मध्यभराशेः पोडशल-18 श्रणस्यान्टयेन पञ्चनवनिलयोन गुणने जातानि पञ्चश शतानि विशत्यधिकानि १५२०, एषामादिराशिना पञ्चनवतिलक्षणेन भागे वाहते लब्धानि पोडश योजनानि, उक्तश्च-पंचागइसहस्से गंतूणं जोयणागि उभोचि । उस्सेदेणं लवणो सोलससाहस्सिो दीप अनुक्रम [२२०] ~648~ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७०] दीप अनुक्रम [२२०] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [3], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३२३ ॥ भणिओ || १ || पंचाणउई लवणे गंभूगं जोयणाणि उभओवि । उस्सेद्देणं लवणो सोलस किल जोयणे होइ ॥ २ ॥" तत्र यदि पञ्च नववियोजनपर्यन्ते पोडशयोजनावगाहस्ततोऽर्थाभ्यते पञ्चनवतिगव्यूतपर्यन्ते पोडश गय्यूतानि पञ्चनवविवनुः पर्यन्ते पोडश धनूंपीत्यादि ॥ सम्प्रति गोतीर्थप्रतिपादनार्थमाह लवणस्स णं भंते! समुहस्स केमहालय गोतिस्थे पण्णत्ते ?, गोयमा! लवणस्स णं समुदस्स उओपास पंचाणउति २ जोयणसहस्माई गोतित्थं पण्णसं । लवणस्स णं भंते! समुदस्स के महालए गोनिन्यविरहिते वेतं पण्णसे, गोयमा ! लवणस्स णं समुहस्त दस जोयणसहस्साई गोनिस्थविरहिने ते पण्णत्ते । लवणस्स णं भंते! समुदस्स केमहालए उद्गमाले पण्णसे?, गोमा ! दस जोयणसहरमाई उद्गमाले पण्णत्ते ॥ ( सू० १७१) 'cause ते इदि लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य 'किंमहत्' माणमहत्वं गोवी प्रज्ञयं ?, गोटीभित्र गोतीर्थक्रमेण नीचो नीचनरः प्रवेशमार्गः भगवानाह - गौतम! लवण समुद्रस्योभयोः पार्श्वयोवृद्वीपवेदिकान्ताहवणसमुद्रवेदिकान्ताचारभ्येत्यर्थः पञ्चनवतिं योजनम्याणि यावद् गोतीर्थ प्रनतम् उक्तञ्च "पंचाणउसले गोतित्थं उभयतो िणा" इति ।। 'लवणस्स णं भंते!" इत्यादि, लवणम्य भइन्न ! समुद्रस्य 'किंमहत्' किंप्रमाणमहत्वं गोतीर्थविरहितं क्षेत्रं ज्ञतं ? भगवानाह ॥ ३२३ ॥ गौतम! तणस्य समुद्र दश योजनसहस्राणि गोतीर्थविरहितं क्षेत्रं uar || 'लवणस्स णं भंते!" इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! For P&Praise Cinly प्रतिपनी लवणे गोतीर्थ उद्देशः २ सू० १०१ ~649~ Catey अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७१] दीप अनुक्रम [२२१] “जीवाजीवाभिगम" + - उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [3], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः 'समुद्र'किंमहती' विस्तारमधिकृत्य किंप्रमाणमहत्या कनाला समपानीयोपरिभूता पोडशयोजन सहस्रच्या प्रज्ञा, भ गवानाह - गौतम ! प्रश योजनसहस्राणि उदकमाला प्रज्ञा ॥ भंते! समुदे किंमंदिए पासे, घोषना गोतित्थसंठिते नावासंाणसंठिते सिप्पि संपुटसंटिए आसखंघसंदिने वलभिसंहिते यागारठाण संहिते पण ते ॥ लवणे णं समुद्दे केति पावित्रयं परिक्खेवेणं? केवलियं उच्च केवलियं उहे केवलवणे णं समुद्दे दो जोयससहस्लाई चकवापरस जोषणसहस्लाई कासी व सहस्साई सतं या किंचिविमृणे परिमेयेणं, एवं जtrearers सोलस जोयणसहस्साई उस्सेहे सत्तरस जोयणसहस्रं सव्वग्गेणं एतं (सूत्रं १७२ ) ज णं भंते! लवणसमुद्दे दो जोयणसनसइसाई मेगं पण्णरस जोयणसहसा एकासीनि च सहस्लाई सनं इगुपाल किंचि पितृणा परिणं एवं जोपणस उस जोषण सहरलाई उस्सेवेगं सप्तरस जोयणसहसा पण काणं भंते! मुद्दे जंबुडी २ मो उवीलेनिनो उप्पीलेति नो मे णं एकदगं करेनि ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भरहेरवर वासेसु अरहंतचदेवा वासुदेवा धारणा विजाधरा समणा समणीओ सावया सावियाओ मणुया एगध For P&Pase Cnly ~ 650~ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७२ -१७३] दीप अनुक्रम [२२२ २२३] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [ १७२ १७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवामि मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३२४ ॥ चापतिमा पनि विणीया पता गोप अल्लीमा भया विणीना मेनि पणिहाने उप्पी तो गोद करेति गंगापुरसारदा देहियाओं जाय पविमद्वितीया परिवति जाबो गोद कति मिडिया हा रणव ते वा मानिसमा रोहिण्या महिला देवाओं महिदियाओ तासिं पण सरावात देवा महिट्टिया जाव पतिओ मट्टि तया परिव०, महानिरुपितु वासहरपव्यने देवा महिहिया जाय पलिओचमद्वितीया, ह रिवारम्भयवासे मया पति गंधावतिमालवतपरिता देव महिया, सिसु दासरव्यते देवा महिडीया, सन्याओ दहदेवयाओ भाणियहवा, पउमद्दहति गिच्छिकेसरिदहासामु देवा महिहीयाओ तासि पणिहाए०, पुत्र्वविदेहावरवि वासे अरगचक्कवषिदेव वासुदेवा चारणा विज्ञाहरा समगा समणीओ सावगा सावियाओ मणुया पति० तेसिं पणिहाए लवण, सीयासीतोदगासु सलिलासु देवता महिहीया०, देवकुरुउत्तरकुरुसु मणुया पगति सहगा, मंदरे पव्वते देवता महिडीया, जंबूए य सुदंसणाए For P&Praise City अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~651~ प्रविरत्ती दवणस्य विष्कम्भा दिउत्पी नाभावश्च उद्देशः २ खू० १७१ تیک ॥ ३२४ ॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ---- ---------- मूलं [१७२-१७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७२-१७३] दीप अनुक्रम [२२२२२३] SARAKAR जंबूदीवाहिवती अणाढिए णामं देवे महिड्डीए जाव पलिओवमठितीए परिवसति तस्स पणिहाए लवणसमुरे नो जवीलेति नो उपपीलेति नो चेव णं एकोदगं करेति, अत्तरं च णं गोयमा! लोगहिती लोगाणुभावे जपणां लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीव॑ नो उचीलति नो उप्पीलेति नो चेच णमेगोदगं करोति ।। (सू०१७३) 'लवणे णं भंते !' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रः किंसंस्थित: प्रज्ञप्त: ?, भगवानाह-गौतम ! गोतीर्थसंस्थानसंस्थितः क्रमेण 2 नीचैचिस्तरामुद्रेवस्य भावात् , नाबासस्थितः चुनादुई नाव इव उभयोरपि पार्श्वयोः समतलं भूभागमपेक्ष्य क्रमेण जलवृद्धिसम्भवेन उन्नताकारत्वान् , 'सिप्पसंपुडसंठिते' इति मुक्तिकासंपुटसंस्थानसंस्थितः, उद्वेधजलस्य जलयुद्धिजलस्य चैकत्रमीलनचिन्तायां शुक्तिका मंपुढाकारसाहश्यसम्भवान्, 'अश्वस्कन्धसंस्थिता' उभयोरपि पार्श्वयोः पञ्चनवनियोजनसहनपर्यन्ते ऽश्वस्कन्धस्येवोन्नततया पोडशडायोजनसहनप्रमाणोस्त्वयोः शिवाया भावान् , 'बलभीसंस्थितः' बलभीगृहसंस्थानसंस्थितः दशयोजनसहस्रप्रमाणविसारायाः शि खाया बलभीगृहाकाररूपतया प्रतिभासनात , तथा वृत्तो लवणसमुद्रो वलयाकारसंस्थितः, चक्रवालतया तस्यावस्थानात् ॥ सम्पनि! आविष्कम्भाविपरिमाणमेककालं पिपूच्छिपुराह-'लवणे णं भंते ! समुहे' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रः क्रियाकबालविष्कम्मेन | कियपरिक्षपेण कियदुधेन-उण्डवेन कियदुत्सेधेन फियत्स/प्रेण-उत्सेधोधपरिमाणसामस्त्येन प्रज्ञातः ?, भगवानाह-गौतम ! लव-11 समुद्रो योजनशतसहस्रे चक्रबालविष्कम्भेन प्रज्ञामः, पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतं चैकोनचत्वारिंशं किचिद्विशेषोनं परिक्षेपेण प्राप्तः, एक योजनसहनमुद्वेधेन, पोडश योजनसहभाग्युत्सेधेन, सप्तदश योजनसहस्राणि सर्वाग्रेण-उत्सेधो --- - जी० ५५ ~652~ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७२ -१७३] दीप अनुक्रम [२२२ २२३] "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: ((दविप्-समुद्र)]1. मूलं [ ९७२-१७३) ..आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ।। ३२५ ।। • | द्वेधमीलनचिन्तायां । इह लवणसमुद्रस्य पूर्वाचार्यैर्धनप्रतरगणितभावनाऽपि कृता सा विनेयजनानुग्रहाय दर्श्यते, तत्र प्रतरभावना क्रियते, प्रतरानयनार्थं चेदं करणं लवणसमुद्रसत्कविस्तारपरिमाणाद् द्विलक्षयोजनरूपाद् दश योजनसहस्राणि शोध्यन्ते तेषु च शोधितेषु यच्छेषं तस्यार्द्ध क्रियते, जातानि पञ्चनवतिः सहस्राणि यानि च प्राकू शोधितानि दश सहस्राणि तानि च तत्र प्रक्षिष्यन्ते, जातं पश्चोत्तरं लक्षं १०५००० एतच कोटीति व्यवहियते, अनया च कोट्या लवणसमुद्रस्य मध्यभागवत परिरयो नव लक्षा अष्टचत्वारिंशत्सहस्राणि पट शतानि त्र्यशीत्यधिकानि ९४८६८३ इत्येवंपरिमाणो गुण्यते, ततः प्रतरपरिमाणं भवति, तचेदं नवनवतिः कोटिशतानि एकषष्टिः कोटयः सप्तदश लक्षाः पञ्चदश सहस्राणि ९९६११७१५००० उक्तञ्च - "बित्थाराओ सोहिय दससहस्साई सेस अर्द्धमि । तं चैत्र पक्खिवित्ता लवणसमुदस्स सा कोडी ॥ १ ॥ लक्खं पंचसहस्सा कोडीए तीर्फे संगुणेऊणं । लवणस्स नज्झपरिही ताहे परं इमं होइ || २ || नवनउई कोडिसया एगद्दी कोटि लक्ख सत्तरसा । पन्नरस सहम्साणि य पयरं लवणस्स निद्दिहं ॥ ३ ॥” धनगणित भावना त्वं-इह लवणसमुद्रस्य शिया पोडश सहस्राणि योजनसहस्रमुद्वेधः सर्वसया सदश सहस्राणि तैः प्राक्तनं प्रतरपरिमाणं गुण्यते, ततो घनगुणितं भवति, तद-पोडश कोटीकोटयस्त्रिनवतिः कोटिशतसहस्राणि एकोनचत्वारिंशत् को| टिसहस्राणि नत्र कोटिशतानि पञ्चदशकोट्यधिकानि पञ्चाशल्लक्षाणि योजनानामिति १६९३३९९१५५००००००, उक्तञ्च - " जो यणसहस्ससोलस लवणसिहा अहोगया सहस्मेगं । पयरं सत्तरसहस्तसंगुणं लवणघणगणियं ॥ १ ॥ सोलस कोडाकोडी तेणउई कोडि- | सयस हसाओ । उणयालीससहस्सा नवकोडिसया य पन्नरसा || २ || पन्नास सयसहस्सा जोयणाणं भवे अणूलाई । लवणसमुद्द रसेयं जोयणसंखाऍ प्रणगणियं ॥ ३ ॥" आह-कथमेतावत्प्रमाणं लवणसमुद्रस्य घनगणितं भवति ? न हि सर्वत्र तस्य सप्तदशयो For P&P Cy ३ प्रतिपत्त लवणस मुद्राधि० उद्देशः २ सू० १७३ ~653~ ॥ ३२५ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप् - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७२ -१७३] दीप अनुक्रम [२२२ २२३] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [ १७२ १७३] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित जनसहस्रप्रमाण उष्टयः, किन्तु मध्यभाग एवं दशसहस्रप्रमाणविस्तारस्ततः कथं यथोक्तं धनगणितमुपपद्यते ? इति सत्यमेतत् केबलं लवणशिस्यायाः शिरसि उभयोश्च वेदिकान्तयोरुपरि दवरिकायामेकान्तऋजुरूपायां दीयमानायां २ यदपान्तराले जलशून्यं क्षेत्रं तदपि करणगत्या तदाभाव्यमिति सजलं विवक्ष्यते, अत्रार्थे च दृष्टान्तो मन्दरपर्वतः तथाहि - मन्दरपर्वतस्य सर्वत्रैकादशभागपरिहाणिरूपवर्ण्यते, अथ च न सर्वत्रैकादशभागपरिहाणिः, किन्तु कापि कियती, केवलं मूलादारभ्य शिखरं यावदवरिकायां दत्तायां यदपान्तराले कापि कियदाकाशं तत्सर्वं करणगत्या मेरोराभाव्यमिति मेरुतया परिकल्प्य गणितज्ञाः सर्वत्रैकादशपरिभागहानि परिवर्णयन्ति तद्वदिदमपि यथोक्तं पनपरिमाणमिति, न चैतत्वमनीषिकाविजृम्भितं यत आह जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणो विशेषणवत्यामेतद्विचारप्रक्रमे "एवं उभयवेदयंताओ सोलसहरसुस्सेहस्स कन्नगईए जं लवणसमुद्दाभवं जलमुन्नपि खेत्तं तत्स गणियं, जहा मंदरपव्वयस्स एकारसभागपरिहाणी कन्नगईए आगासरसवि तदाभवंतिका भणिया तहा लवणसमुदस्सवि ||" इति ॥ 'जइ णं भंते!' इत्यादि यदि भदन्त ! लवणसमुद्रो द्वे योजनशतसहस्रे चक्रवालविष्कम्भेन पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतं चैकोनचत्वारिंशं किञ्चिद्विशेषशेनं परिक्षेपेण प्रमः, एकं योजनसहस्रमुद्वेधेन पोडश योजनसहस्राण्युत्सेधेन सप्तदश योजनसहस्राणि सर्वामेण प्रज्ञप्तः ॥ तर्हि 'कम्हा णं भंते!' इत्यादि, कस्माद् भदन्त ! लवणसमुद्रो जम्बूद्वीपं द्वीपं न 'अवपीडयति' जलेन प्लावयति, न 'उत्पीडयति' प्रावल्येन बाधते, नापि णमिति वाक्यालङ्कृती 'एकोदकं सर्वात्मनोदकलावितं करोति ?, भगवानाह - | गौतम ! जम्बूद्वीपे भरतैरावतयोः क्षेत्रयोरन्तञ्चक्रवर्त्तिनो बलदेवा वासुदेवाः 'चारणाः जङ्घाचारणमुनयो विद्याधराः 'श्रमणाः ' साधवः 'श्रमण्यः संयत्यः आवका: आविकाः, एतत् सुषमदुष्पमादिकमरकत्रयमपेक्ष्योक्तं वेदितव्यं तत्रैवादादीनां यथायोगं सम्भ For P&False City ~654~ t Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------- ---------- मूलं [१७२-१७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [9] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७२-१७३] दीप अनुक्रम [२२२२२३] श्रीजीवा- 1वान , सुषममुपमादिकमधिकृत्याह-मनुष्याः प्रकृतिभद्रकाः प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभाः मृदुमादेवसंपन्ना आलीमा भद्रका वि-1 प्रतिपत्ती जीवाभिनीताः, एतेषां व्याख्यान प्रान्वन , तेपा 'प्रणिधया प्रणिधानं प्रणिधा. उपसर्गादात' इत्य प्रत्ययः, तान प्रणिधाय' अपेक्ष्य तेपालवणसमलयगि- प्रभावत इत्यर्थः, लवणसमुद्रो जम्द्वीपं द्वीपं नापीइयनीत्यादि, दुप्पमदुप्पमाात्रपि नापीच्यनि, भरतवैतामयावधिपतिदेवताप्र-समुद्राधिक रीयावृत्तिःभावात , तथा भुहिमवमिछखरिणोधरपर्वतया देवता महद्धिका याबरकरणान्महाद्युतिका इत्यादिपरिग्रहः परिवसन्ति सेपो 'प्रणि- उद्देशः२ धया' प्रभावेन लवणसमुद्रो जन्यूद्राप द्वीपं नावपी इयतीत्यादि । तथा हैमवतहरण्यवतोत्रर्षयोमनुजाः प्रकृतिभद्रका यावद् विनीता- सू० १७३ २२२ " सेषां प्रणिधयेत्यादि पूर्वचन , तथा नयोरेव वर्षयोयों यथाक्रमं शब्दापातिचिकटापाती वृत्तवैतानचौ पर्वतो तयोर्देवो महद्धिको याव-14 पपल्योपमस्थितिको परिवसतस्तपा प्रणिधयेत्यादि पूर्ववन् । तथा महाहिमवटुक्मिवर्षवरपर्वतयादेवता महद्धिका इत्यादि तथैव । तथा| हरिवपरम्यकवर्षयोमनुजाः प्रकृतिभद्रका इत्यादि सर्व हैमवतवन , तथा तयोः क्षेत्रयोयथाक्रमं गन्यापातिभाल्यवत्पर्यायो यौ वृत्तवैताच्य पर्वतो तयोदेवी महर्टिकावित्यादि पूर्वत्रम् । तथा पूर्व विदेहापरविदह वर्षयोरइन्तश्चक्रयतिनो यायन्मनुजाः प्रकृतिभद्रका यावद् विनीतास्तियां प्रणिययेत्यादि पूर्ववत् । तथा देवकुरुरुत्तर कुरुपु मनुजाः प्रकृतिभद्रका यावद्विनीतास्तेषां प्रणिधवेत्यादि पूर्वबन् । तथा उत्तरकुरुषु। कुरुपु जम्ब्वा सुदर्शनायामनाइतो नाम देवो जम्बूद्वीपाधिपतिः परिवसति तस्य 'प्रणिधया' प्रभावेनेत्यादि तथैव । अथान्यद् गौतम ! +कारणं, तदेवाह-लोकस्थितिरेपा-लोकानुभाव एष बलवणसमुद्रो जम्बूद्वीपं द्वीपं जलन नावपीडयतीत्यादि । तृतीयप्रतिपत्तावेघ मन्द-14 रोद्देशकः समासः ।। तदेवमुक्ता लवणसमुद्रवक्तव्यता, सम्प्रति धातकीपण्डवक्तव्यतामाह लवणसमुई धायइसंडे नाम दीवे चट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सवतो समंता संपरिक्खिवित्ता 24 Pitam अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् धातकीखण्डस्य अधिकार: आरभ्यते ~ 655~ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------------------- मूलं [१७४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४] गाथा: णं चिट्ठति, पायतिसंडे णं भंते ! दीवे किं समचकवालसंठिते विसमचकवालसंठिते?, गोयमा ! समचकवालसंठिते नो विसमचकवालसंठिते ।। धायइसंडे गं भंत ! दीये केवतियं चकवालवि खंभेणं केवयं परिक्खेवणं पण्णते?, गोयमा! चत्तारि जोयणसतसहस्साई चकचालविक्वं. भणं एगपालीसं जोयणसतसहस्साई सजायणसहस्साई भवएगटे जोयणसते किंचिविसेसणे परिक्खेवेणं पणतं ॥ से णं एगाए पउभवरवंदियारा एगणं वणसंडेणं सब्बतो समंता संपरिकिवते दोपहवि वष्णओ दीवसमिया परिक्श्ववेणं । धायइसंडस्स णं भंते! दीवस्स कति दारा पण्णता?, गोयमा! चशारि दारा पण्णत्ता. विजए जयंते जयंते अपराजिए ॥ कहिणं भंते! धायइसंहस्स दीवस्स विजए णानं दारे पणते?, गोवमा धायइसंडपुरस्थिमपेरंते कालोयसमइपुरस्थिमद्धस्स पथरिथमेणं सीधाए महाणदीप गप्पं पस्थ गं धायइ विजए णामं द्वारे पपणाने तं चेव पनाणं, रायहाणीओ अपणमि धायहम दोचे, दीवस्स वत्सब्वया भाणियब्या, एवं चसारिवि दारा भाणियच्या ॥ धायसंडस्म भने ! दीवस्स दारस्स य २ एस णं केवायं अवाहाए अंतरे पपणते?, गोयमा। दस जोयणमयसहस्लाई सत्तावीसं च जोयणसहस्साई मनपणतीसे जोयणसए तिन्निय कोस दाररसयर अथाहार अंतर पण्णत्ते ।। धायहसंडस्स भंते! दीवस्स पदंसा कालोयगं समई पट्टा?, हना पुट्ठा ।। ते णं भंत! किं धायइसंडे दीवे कालोएस दीप अनुक्रम [२२४ -२२७] Jantacim ~ 656~ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७४] + गाथा: दीप अनुक्रम [२२४ -२२७] प्रतिपत्ति: [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... श्रीजीवा जीवाभि० “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ (द्विप्-समुद्र )]. मूलं [ १७४] + गाथा: आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३२७ ॥ मुहे ?, ते घायसंडे नो खलु ते कालोयसमुद्दे । एवं कालोयस्सवि। घायइमंडद्दीवे जीवा उद्दाइसा २ कालोए समुदे पञ्चायंति ?, गोयमा । अत्थेगतिया पञ्चायंति अस्थेगतिया नो पथायंति। एवं का लोएव अत्थे० प० अत्थेगतिया णो पञ्चायति ॥ से केणट्टेणं भंते! एवं बुचलि घायइसंडे दीवे २१, गोयमा ! घायसंडे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहिं २ पसे घायक्वा धायइवण्णा धायइसंडा णि कुसुमिया जाव उसोभमाणा २ चिठ्ठति, धायइमहाधायहरु सुदंसणपियदंसणावे देवा महिहिया जाय पलिओवमद्वितीया परिवर्तति से एएणद्वेणं, अनुत्तरं च णं गोयमा! जाव णिचे | घायहसंडे णं भंते! दीवे कति चंद्रा पभासिंसु वा ३१ कति सूरिया तविसु या ३? कढ़ महग्गहा चारं चरिंसु वा ३१ क णवत्ता जोगं जोइंसु ३? कह तारागणकोडाकोडीओ मोसु वा ३१, गोयमा ! बारम चंद्रा पभासिंसु वा ३, एवंचवीसं ससिरविणो णक्त सताय तिनि छत्तीमा । एगं च गहसहस्सं छप्पन्नं धायईसंडे || १ || अद्वेव सघसहस्सा तिणि सहस्सा सत्त य सयाई। घायइसंडे दीवे तारागण कोडिकोडीणं ॥ २ ॥ सोभैंसु वा ३ ।। (सू० १७४ ) 'लवणसमुद्द' मियादि, लवणसमुद्रं घातकीपण्डो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्य तिष्ठति । 'धायइसंडे णं दीवे किं समचकवालसंठिए' इति सूत्रं लवणसमुद्रवद्भावनीयम् || 'धायइसंडे For P&Praise Cnly ३ प्रतिपती धातकीखण्डाधि उद्देशः २ सू० १७४ ~657~ ॥ ३२७ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् my w Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------------------ मूलं [१७४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: L-4 प्रत सूत्रांक [१७४] गाथा: **604-152549-52% बाण' मित्यादि प्रश्नसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! चत्वारि योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेन, एकचत्वारिंशन योजनशतसहस्राणि दश सहस्राणि नव च एकपष्टानि योजनशतानि किञ्चिद्विशे पोनानि परिक्षेपेण, उक्तश्च-एयालीसं लक्सा दस य सहस्साणि, जोयणाणं तु । नव य सया एगट्ठा किंचूणा परिरओ तम्स ।। ३।" 'से णमित्यादि, स धातकीखण्डो द्वीप एकया पायरवेदिकया अष्ट्रयोजनोठ्यजगत्युपरिभाविन्येति सामर्थ्यागम्यते, एकेन बनपण्डेन पावरवेदिकाबहिर्भूतेन सर्वतः समन्तात्संपरिक्षितः । द्वयोकारपि वर्णकः प्राग्वन । 'धायहसंडस्म णमित्यावि, धातकीपण्यस्व भदन्त ! द्वीपस्य कति द्वाराणि प्रामानि', भगवानाह-गौतम । चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञमानि, नयथा-विजयं पैजयन्तं जयन्तमपराजितं च ॥ 'कहिणं भंते' इत्यादि, क भवन्त' धानकीपण्वस्य *बीपस्य विजयं नाम द्वार प्रज्ञ, भगवानाह-गौतम! धातकीपग्डस्य द्वीपस्य पूर्वपर्यन्ते कालोदसमुद्रपूर्वार्द्धस्य पश्चिमदिशि शीताया महानद्या उपरि 'अन' एतस्मिन्मन्तरे धातकीपण्डस्य द्वीपस्य विजयनाम द्वार प्रज्ञानं, तर जम्बूद्वीपविजयद्वारबदविशेपेण वेदितव्यं, नवरमन्त्र राजधानी अन्यस्मिन धातकीपण्डे द्वीपे वक्तव्या । 'कहि णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! धातकीपण्डद्वीपदक्षिणपर्यन्ते कालोदसमुद्रदक्षिणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र धातकीपण्डस्य द्वीपस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रशतं, तदपि जम्बुद्वीपवैजयन्तद्वारवदबिशेपेण वक्तव्यं, नबरमत्रापि राजधानी अन्यस्मिन धातकीपण्डद्वीपे । 'कहिणं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं गतार्थ, भगवानाहगौतम ! धातकीपण्डद्वीपपश्चिमपर्यन्ते कालोदसमुद्रपश्चिमार्द्धम्य पूर्वतः शीनोदाया महानद्या उपर्यत्र धातकीपण्डस्य द्वीपस्य जयन्तं | नाम द्वार प्रज्ञतं. तदपि जम्बूद्वीपजयन्तद्वारवक्तव्यं, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् धातकीपण्डे द्वीपे । 'कहि गं भंते!' इत्यादि। प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम ! धातकीपण्डद्वीपोत्तरार्द्धपर्यन्ते कालोदसमुद्रदक्षिणार्द्धस्य दक्षिणतोऽत्र धातकीपण्डस्य द्वीपस्यापरा दीप अनुक्रम [२२४ -२२७] ~658~ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७४] + गाथा: दीप अनुक्रम [२२४ -२२७] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ (द्विप्-समुद्र )]. मूलं [ १७४] + गाथा: आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्ति: [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... ।। ३२८ ।। श्रीजीवाजितं नाम द्वारं प्रज्ञतं, तदपि जम्बूद्वीपगतापराजितद्वारबद्वक्तव्यं, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् धातकीपण्डे द्वीपे || 'घायइडस्स णं जीवाभि० भंते!' इत्यादि, धातकीपण्डस्य भदन्त ! द्वीपस्य द्वारस्य २ च परस्परमेतद्न्तरं 'कियत्' किंप्रमाणम् 'अबाधया' अन्तरित्या व्याघातेन मलयगि- ३ प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह - गौतम! दश योजनशतसहस्राणि सप्तविंशतियां जनसहस्राणि सप्त शतानि पञ्चत्रिंशानि द्वारस्य २ परस्परमथायारीयावृत्तिः ऽन्तरं प्रज्ञप्तं तथाहि एकैकस्य द्वारस्य सद्वारशाखस्य जम्बूद्वीपद्वारस्येव पृथुलं साद्धनि चत्वारि योजनानि, ततश्चतुर्णा द्वाराणामेकत्र पृथु लपरिमाणमीलने जातान्यष्टादश योजनानि सान्यनन्तरोक्तात्परिश्यमानान् ४११०९६१ शोध्यन्ते, शोधितेषु च तेषु जातं शेषमिदम्एकचत्वारिंशता दश सहस्राणि नत्र शतानि त्रिचत्वारिंशदधिकानि ४११०४३, एतेषां चतुर्भिर्भागे हते लब्धं यथोक्तं द्वाराणां परस्परमन्तरम् उक्तच्च पणतीसा सत्त सया सत्तावीसा सहस्स इस लक्खा धायइडे दारंतरं तु अवरं च कोसतियं ॥ १ ॥” “घायइसंइस्स णं भंते! दीवस्स पएसा' इत्यादीनि चत्वारि सूत्राणि प्राग्वद्भावनीयानि । 'से केणणं भंते!" इत्यादि, अथ केनार्थेन महन्त ! एवमुच्यते धातकीपण्डो द्वीपो बातकीखण्डो द्वीपः १ इति, भगवानाह यानकीपण्डे द्वीपे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र * प्रदेशे बहवो धातकीवृक्षा बहवो धातकीवनपण्डा बहूनि घातकीपनानि, पण्डयोः प्रतिविशेषः प्रागेवोक्तः, 'निशंकुसुमिया' इत्यादि प्राग्वत्, 'घायइमहाधायइरुवखेसु एत्थमित्यादि पूर्वाद्ध उत्तरकुरुपु नीलवट्टिरिसमीपे घातकीनामवृक्षोऽवतिष्ठते, पश्चिमा उत्तरकुरुपु नीलगिरिसमीपे महाधातकीनामवृक्षोऽवतिष्ठते, तौ च प्रमाणादिना जम्वृवृक्षवद्वेदितव्यौ तयोरत्र धातकीपण्डे द्वीपे यथाक्रमं सुदर्श नप्रियदर्शनौ द्वौ देवौ महद्धिको यावत्पस्योपमस्थितिको परिवसतः ततो धातकीपण्डोपलक्षितो द्वीपो घातकीपण्डद्वीप:, तथा चाह - से एएणडेणमित्यादि गतार्थं ॥ सम्प्रति चन्द्रादिवक्तव्यतामाह-- 'घायइसंडे णं भंते! दीवे कति चंदा पभासिंसु' इत्यादि For P&False Ch ३ प्रतिपत्तौ धातकीखण्डाधिक उद्देशः २ सू० १७४ ~659~ ।। ३२८ ।। अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------------------ मूलं [१७४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक * %* [१७४] % % गाथा: प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! धातकीपण्डे द्वादश चन्द्राः प्रभासितवन्तः प्रभासन्ते प्रभासिघ्यन्ते, द्वादश सूर्यास्तापितवन्तस्तादापयन्ति तापयिष्यन्ति, त्रीणि नक्षत्रशतानि पत्रिंशानि योगं चन्द्रमसा सूर्येण च साई युक्तवन्तो युजन्ति योश्यन्ति, तत्र त्रीणि| पत्रिंशानि नक्षत्राणां शतानि, एकैकस्य शशिनः परिवारेऽष्टाविंशतेनक्षत्राणां भावान् , तथा एक षट्पञ्चाशदधिकं महाप्रहसहस्रं चार चरितवन्तचरन्ति चरिष्यन्ति, एकैकस्य शशिनः परिवारेऽष्टाशीमहामहागां भावान् , अष्टौ शतसहस्राणि प्रीणि सहस्राणि सम शतानि तारागणकोटीकोटीनां शोभितवन्त: शोभन्ते शोभयिष्यन्ते, एतदपि एकशशिनः तारापरिमाणं द्वादशभिर्गुणयिखा भाषनीयं, Vउक्त च-चारस चंदा मूरा नक्खत्तसया य तिन्नि छत्तीसा । एगं च गहसहस्सं छप्पन्नं धायईसंडे ॥ १ ॥ अद्वेव सयसहस्सा तिन्नि | सहम्सा य सत्त व सया छ । धायइसंडे दीये तारागणकोडिकोडीओ ।। २' सम्प्रति कालोदसमुद्रवक्तव्यतामाइ धायइसंडणं दीवं कालोदे णामं समुद्दे वह बलयागारसंठाणसंठिते सवतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठद, कालोदे णं समुद्दे किं समचकवालसंठाणसंठित विसम०, गोयमा! समचकवालणो विसमयकवालसंठिते॥कालोदे णं भंते ! समुहे केवतियं चकवालविखंभण केवतियं परिक्खयेणं पण्णते?, गोयमा अट्ट जोयणसयसहस्साई चकवालविर्खभणं एकाणउति जोयणसयसहस्साई सत्तरि सहस्साई छच पंचुत्तरे जोयणसते किंचियिसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते ॥ से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगणं वणसंडेणं दोण्हवि धाओ॥ कालोयरस णं भंते! समुहस्स कति दारा पण्णता?, गोयमा! चत्तारि दारा पण्णता, तंजहा-विजए बजयंत जयंते अपराजिए । SCAMACHAR दीप अनुक्रम [२२४ % % -२२७] % २-- कालोदसमुद्राधिकारः आरभ्यते ~660~ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७५] + गाथा: दीप अनुक्रम [२२८ -२३४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ (द्विप्-समुद्र )]. मूलं [ १७५] + गाथा: आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्ति: [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३२९ ॥ कहि णं भंते! कालोस्स समुदस्स विजए णामं दारे पष्णते?, गोयमा ! कालोदे समुद्दे पुरस्थिम पेरने yaaratayरथमद्धस्स पवस्थिमेणं मीनोदाए महानदीप उपि एत्थ णं कालोदस्स समुदस्स विजये णामं द्वारे पण्णसे, अहेब जोयणाई तं श्रेय पमाणं जाव रायहाणीओ । कहि णं भने कालोस्स समुहस्स वैजयंते णामं दारेणते?, गोयमा कालो समुहस्स दक्षिणरंते वरवरदीवर दक्खिणदम उत्तरेणं एत्थ कालो समुहस्स वेजयंते नामं दारे पद्मन्ते । कहि णं भंते! कालोपसमुहस्स जयं नाम द्वारे पाते ?, गोयमा ! कालोयसमुदस्स पञ्चस्थिमपेरते arendra पचस्थिमस्स पुरन्धिमेणं सीता महानदीप उपि जयंते नामं दारे पण्णत्ते । कति णं भंते! अपराजिए नाम द्वारे पण्णशे ? योगमा कालोपसमुदस्स उत्तरद्वपेरने एकरवर दीवोसरस्म दाहिणओ एत्थ कालोपसमुहस्स अपराजिए णामं दारे०, सेसं तं चैव ॥ कालोयस्स णं भंते! समुहद्वारस् य २ एस केनि २ अवाहा अंतरे पण्णत्ते ?, गोधमा ! - बावीस सयसहस्सा वाणपति खल भवे सहरसाई। छव सया बायाला द्वारंतर तिनि कोसा य ॥ १ ॥ दारस य २ आयाहार अंतरे पण्णत्ते । कालोस्स णं भंते! समुदस्स परसा पुकखरवरदीव० तव, एवं पुक्रवरदीवस्सवि जीवा उदाइत्ता २ तहेव भाणियां ॥ से केणणं भंते! एवं बुच्चति कालोए समुदे २१, गोमा ! कालोयस्म णं समुदस्स उदके आसले मासले पेसले कालए मासरा For P&Praise Cinly ३ प्रतिपत्ती कालोदो दध्यधि० ~ 661~ उद्देशः २ सू० १७५ ।। ३२९ ।। way अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------------------- मूलं [१७५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक -y-10- 164 [१७५]] 2 * गाथा: सिवण्णाभे पगतीए उदगरसेणं पण्णत्ते, कालमहाकाला एत्थ दुवे देवा महिड्डीया जाय पलि ओवमद्वितीया परिवसंति, से तेणटेणं गोयमा! जाव णिचे ॥ कालोए भंते! समुद्दे कति चंदा पभासिंस वा ३? पुच्छा, गोयमा! कालोए णं समुद्दे बायालीसं चंदा पभासेंसु वा ३यायालीसं चंदा यायालीस च दियरा दित्ता । कालोदधिम्मि एते चरंति संबद्धलेसागा ॥१॥ णवत्ताण सहस्सं एगं बावत्तरं च सतमपणं । छच सना छण्णच्या महागहा तिपिण य सहस्मा ॥२॥ अठ्ठावीसं कालोदहिम्मि बारस य मयसहस्साई । नव य सया पन्नासा तारागणकोष्टि कोडीणं ॥ ३ ॥ सोभेसु वा ३॥ (मू०१७५) "धायइसंडे यां दीव'मित्यादि, धातकीपण्डं णमिति पूर्ववन् द्वीपं कालोदसमुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थितः सर्वतः समन्तात् | संपरिक्षिप्य' वेयित्वा तिष्ठति ॥ कालीगणं समुहे कि समचक्वालसंठिए' इत्यादि प्राग्वन् । 'कालोए भंते' इत्यादि। प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम ! अष्टौ योजनशनसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेन एकनवतिः योजनशतसहमणि सप्ततिः सहस्राणि पट शतानि पक्षोतराणि किचिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, एक च योजनसहस्रमुढेधेनेति गम्यते, उक्त च-"अडेव। सयसहरुमा कालोओ चक्वालओ कंडो । जोयणसहस्तमेगं ओगाहणं मुणेयव्यो ।। १ ॥ इगन उइ सयसहस्सा हुवंति तह सत्तरी सहस्सा य । छन्द लया पंचहिया कालोबहिपरिरओ एसो ॥२॥'सेणं एगाए' इत्यादि, स कालोदसमुद्र एकया पद्मवरदिकया ऽपयोजनोस्ट्रयया जगत्युपरिभाविन्येति गम्यते, एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात्संपरिभितः, द्वयोरपि वर्गक: प्रा - दीप अनुक्रम [२२८-२३४] 4%BE- 41- 2-4 ~662~ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१७५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत * सूत्रांक [१७५] गाथा: श्रीजीवा- ग्वत् ॥ 'कालोयस्स णं भंते!' इत्यादि, कालोदस्य समुद्रस्य भदन्त ! कति द्वाराणि प्रामानि , भगवानाह-गौतम! चत्वारि द्वा-16 प्रतिपक्षी जीवाभि राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-विजयं वैजयन्तं जयन्तमपराजितं च ॥ क भदन्त ! कालोदसमुद्रस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं ?, गौतम कालोदोमलयगि- कालोदसमुद्रस्य पूर्वपर्यन्ते पुष्करवरद्वीपस्य पूर्वार्द्धस्य पश्चिमदिशि शीतोदाया महानद्या उपयंत्र कालोदस्य समुद्रस्य विजयं नाम द्वारा दध्यधिक रीयावृत्तिः प्रज्ञप्तं, एवं विजयद्वारवक्तव्यता पूर्वानुसारेण वक्तव्या, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् कालोदे समुद्रे । वैजयन्तद्वारप्रभसूत्रं सुगम, भग-1, उद्देशः२ वानाह-गौतम ! कालोदसमुद्रदक्षिणपर्यन्ते पुष्करवर द्वीपदक्षिणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र कालोदसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, एवं जम्बू सू०१७५ ॥ ३३०॥ द्वीपगतवैजयन्तद्वारवक्तव्यं, नवरं राजधानी अन्यसिान् कालोदे समुद्रे । अयन्तद्वारप्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! कालोद समुद्रपश्चिमपर्यन्ते पुष्करवरद्वीपपश्चिमार्द्धस्य पूर्वतः शीताया महानद्या उपयंत्र कालोदसमुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, एतदपि जनम्बूद्वीपगतजयन्तद्वारवत् , नवरं राजधानी अन्यस्मिन् कालोदे समुद्रे । अपराजितद्वारप्रभसूत्रमपि सुगम, भगवानाह-गौतम ! कालो-12 दसमुद्रोत्तरार्द्धपर्यन्ते पुष्करवरद्वीपोत्तरार्द्धस्य दक्षिणतोऽत्र कालोदसमुद्रस्यापराजितं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, तदुपि जम्बूद्वीपगतापराजितद्वा-18 रवन् नवरं राजधानी अन्यस्मिन् कालोदसमुद्रे ॥ सन्प्रति द्वाराणां परस्परमन्तरं प्रतिपिपादयिपुराह-'कालोयस्स णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम द्वाविंशतियोजनशतसहस्राणि द्विनवतिः सहस्राणि पड् योजनशतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि, जयश्च कोशा द्वारस्य द्वारस्य परस्परमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञतं, तथाहि-चतुर्णामपि द्वाराणामेकत्र पृथुलमीलनेऽष्टादश योजनानि कालो-16 दसमुद्रपरिरयपरिमाणाद् ९१७०६०५ इत्येवरूपात् शोध्यन्ते, शोधितेषु च तेषु जातमिदम्-एकनवतिलंक्षाः सप्ततिः सहस्राणि पञ्च ते शतानि सप्ताशीत्यधिकानि ९१७०५८७ च, तेषां चतुर्भिीगे हृते लब्धं यथोक्तं द्वाराणां परस्परमन्तरपरिमाण २२९२६४६ कोश:2 % 4-%-26 दीप अनुक्रम [२२८-२३४] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~663~ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७५] + गाथाः दीप अनुक्रम [२२८ -२३४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र )]. मूलं [ १७५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जी० ५६ ३, उक्तश्च - "छायाला हद सया बाणउय सहस्स उक्ख बाबीसं कोसा य तिनि दारंतरं तु कालोयहिस्स भवे ।। १ ।।" 'कालोयस्स णं भंते! समुहस्स पएसा' इत्यादि सूत्रचतुष्टयं पूर्ववद्भावनीयम् । नामान्वर्थमभिधित्सुराह - 'से केणद्वेण 'मियादि, अथ के नार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते काळोवः समुद्रः कालोदः समुद्रः ? इति भगवानाह - गौतम ! कालोदस्य समुद्रस्योदकं 'आसलम्' आस्वायम् उदकरसत्वात् मांसल गुरुधर्मकत्वात् पेशलं आस्वादमनोज्ञत्वात् 'काल' कृष्णम् एतदेवोपमया प्रतिपादयति- मापराशिवर्णाभं, उक्तञ्च पराईए उद्गरसं काळोए उद्ग मासरासिनिर्भ" इति, ततः कालमुदकं यस्यासौ कालोदः, तथा कालमहाकाली च तत्र द्वौ देवौ पूर्वार्द्धपश्चिमार्द्धाधिपती महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः तत्र कालयोरुदकं यस्मिन् स कालोदः, तथा चाह - 'से एएणट्टेण'मित्यादि सूत्रं पाठसिद्धं । एवंरूपं च चन्द्रादीनां परिमाणमन्यत्राप्युक्तम् - "बायालीसं चंदा बायाढीस च दिणयरा दित्ता । कालोयद्दिम्मि एए चरंति संत्रद्वलेागा ॥ १ ॥ नक्त्ता सहस्सा सयं च बाबत्तरं मुणेयध्वं । छच्च सया उन्नउया गहाण तिन्नेव य सहस्सा || २ || अट्ठावीस कालोयहिम्मि वारस य सवसहस्ताई । नव व सया पन्नासा तारागणकोडीकोडीणं ॥ ३ ॥ सम्प्रति पुष्करवरद्वीपवक्तव्यतामाह कालोयं णं समुदं पुक्खरवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सव्वतो समता संपरि० तहेब जाव समचक्कवालसंठाणसंठिते नो विसमयकवालसंठाणसंठिए । पुक्खरवरे णं भंते! दीवे १ अन्न यद्यपि सूत्रादषु गाधाविक दयते इदमेव परं युत्तिकारायाप्तादर्शषु न संभाव्यते सूत्ररूपतया सप्ताऽस्य परिमाणस्येत्युदितं 'अन्यत्राप्युक्त मिति, अग्रेऽप्यनेकवे पुष्करवरद्वीप अधिकार: आरभ्यते For P&Pase Cnly ~664~ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१७६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [१७६] प्रतिपत्ती & पुष्करव| राधिक उद्देशः२ सू०१७६ ॥३३१॥ गाथा: केवतियं चकवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पणत्ते?, गोयमा! सोलस जोयणसतसहस्साई चकवालविक्खंभेणं-'एगा जोयणकोडी बाणउति खलु भवे सयसहस्सा । अउणाणउर्ति अट्ठ सया चउणउया य [परिरओ] पुक्खरवरस्स ॥२॥ से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेण य यणसंडेण संपरि० दोण्हवि वपणओ ॥ पुक्खरवरस्स णं भंते! कति दारा पण्णता?, गोयमा! चत्तारि वारा पपपत्ता, तंजहा-विजए बेजयंते जयंते अपराजिते ॥ कहिणं भंते ! पुक्खरवरस्स दीवस्स विजए णामं दारे पपणते?, गोयमा! पुक्खरवरदीवपुरच्छिमपेरंते पुक्खरोदसमुहपुरच्छिमदस्स परस्थिमेणं एत्थ णं पुक्खरवरदीवस्स विजए णामं दारे पपणते तं चेव सव्वं, एवं चसारिवि दारा, सीयासीओदा णस्थि भाणितवाओ ॥ पुक्खरवरस्स णं भंते! दीवस्स दारस्सय २ एस ण केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णते?, गोयमा!-'अड्याल सयसहस्सा यावीसं खल्लु भवे सहस्साई । अगुणुत्तरा य चउरो दारंतर पुण्यरवरस्स ॥१॥ पदेसा दोण्हवि पुढा, जीवा दोसु भाणियब्वा ॥ से केणटेणं भंते ! एवं बुचति पुक्वरघरदीवे २१, गो० पुक्खरबरे णं दीवे तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे पउमरुक्खा पउमवणसंडा णिचं कुसुमिता जाब चिट्ठति, पउममहाप उमरुक्खे एत्य णं पउमपुंडरीया णामं वे देवा महिहिया जाव पलिओवमट्टितीया परिवसंति, से तेण?ण गोयमा! एवं बुचति पुक्खरबरडीचे २जाब निचे । पुक्खरवरे ण दीप अनुक्रम [२३५-२४९] NEKA8-2-945 aayum अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~665~ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७६] + गाथा: दीप अनुक्रम [२३५ -२४९] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [ १७६ ] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः भंते! दीवे केवइया चंदा पभासिंसु वा ३१, एवं पुच्छा, चोयालं चंद्रसयं चयालं चैव सूरिया सयं । पुक्रवरदीवंभि चरंति एते पभासेंता ॥ १ ॥ चत्तारि सहस्साई बत्तीसं चैव होति णक्खता । छच्च सया बावतर महग्गहा बारह सहस्सा || २ || छपणउइ सयसहस्सा चत्तालीसं भवे सहस्साइं । चार सया पुक्खर [वर] तारागणकोडकोडीनं ॥ ३ ॥ सोभैंसु वा ३ ॥ पुक्खरवरदीवस बहुमज्झसभाए एत्थ णं माणुसुत्तरे नामं पच्वते पण्णत्ते वट्टे वलयागार संठाण संहिते jarati विभयमाणे २ चिद्धति, तंजहा - अभितरपुक्खरद्धं च वाहिरपुक्खरद्धं च ॥ अभितरपुक्खरदे णं भंते! केवतियं चक्कवालेणं परिक्खेयेणं पण्णत्ते ?, गोयमा ! अह जोयणसय सहस्सा चकवालविक्खंभेणं-कोडी बायालीसा तीसं दोण्णि य सथा अगुणवण्णा । पुक्खर अद्धपरिरओ एवं च मणुस्सखेत्तस्स ॥ १ ॥ से केणद्वेगं भंते! एवं बुचति अभितरपुक्लरद्धेय २१, गोयमा ! अभितरपुक्खरद्वेणं माणुसुतरेणं पञ्चतेणं सव्वतो समता संपरिक्खिते, से एएणणं गोयमा ! अग्भितरपुक्खरद्धे य २, अनुत्तरं च णं जाव णिचे | अभितरपुक्खरणं भंते! केवतिया चंदा पभासिंसु वा ३ साचैव पुच्छा जाव तारागणकोडकोडीओ ?, गोयमा ! - बावन्तरिं च चंद्रा वावन्तरिमेव दिणकरा दित्ता । पुक्खरवरदीवडे चरंति एते पाता ॥ १ ॥ तिनि सया छत्तीसा छच सहस्सा महग्गहाणं तु । णक्खत्ताणं तु भवे सोलाइ दुवे सह For P&Praise City ~666~ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१७६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक CAR OCTOCOC [१७६] गाथा: 8 2- श्रीजीवा- स्साई॥२॥ अडयाल सयसहस्सा यावीसं खलु भवे सहस्साई। दोन्नि सया पुक्खरद्धे तारागण ३ प्रतिपत्ती जीवाभि कोडिकोडीणं ॥ ३ ॥ सोभेसु वा ३॥ (सू०१७६) पुष्करवमलयगि- 'कालोयं णं समुद्द'मित्यादि, कालोद णमिति वाक्यालङ्कारे समुद्रं पुष्करबरो नाम द्वीपो वृत्तो बळ्याकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः राधिक रीयादृत्तिः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति । 'पुक्सरवरे णं दीचे किं समचकबालसंठिए इत्यादि प्राग्वत् ।। विष्कम्भाविप्रतिपादनार्थमाह-'पुक्ख- उद्दशः२ रबरे णं भंते! दीवे' इत्यादि प्रभसूर्य गुगर्म, भगवानाह-गौतम! षोडश योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेन एका योजन-18| सू० १७६ ॥२३२॥ दाकोटी द्विनवतिः शतसहस्राणि एकोननवतिः सहस्राणि अष्टौ शतानि चतुर्नवतानि ९४ योजनानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः ॥ ‘से ण'मि त्यादि, स पुष्करवरद्वीप एकया पद्मवरवेदिकयाऽष्ट योजनोच्छ्रयया जगत्युपरिभाविन्येति गम्यते, एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् | संपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि वर्णकः पूर्ववत् ।। अधुना द्वारवक्तव्यतामाह-'पुक्खरवरस्स णमित्यादि, पुष्करवरद्वीपस्य कति द्वाराणि प्रज्ञप्तानि?, भगवानाह-गौतम! बलारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-विजयं वैजयन्तं जयन्तमपराजितं च ॥ 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! पुष्करवरद्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! पुष्करवरद्वीपपूर्वार्द्धपर्यन्ते पुष्करोदस्य समुद्रस्य पश्विमदिशि अन पुष्करबरद्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्त, तत्र जम्बूद्वीपविजयद्वारबदविशेषेण वक्तव्यं, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् | पुचकर वरद्वीपे वक्तव्या । एवं वैजयन्तादिसूत्राण्यणि भावनीयानि, सर्वत्र राजधानी अन्यस्मिन् पुष्करवरद्वीपे ॥ सम्प्रति द्वाराणां | परस्परमन्तरमाह-'पुक्खरवरदीवस्स णमित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! अष्टचत्वारिंशद् योजनशतसहस्राणि द्वाविंश- ३३२ तियोजनसहस्राणि चरवारि योजनशतानि एकोनसप्ततानि द्वारस्य द्वारस्य च परस्परमवाधयाऽन्तरपरिमाण, चतुर्णामपि द्वाराणामेकत्र C दीप अनुक्रम [२३५-२४९] AM % % अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~667~ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------- ----------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- -------- मूलं [१७६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७६] गाथा: पृथुत्वमीलनेऽष्टादश योजनानि, तानि पुष्करवरद्वीपपरिमाणाद् १९२८९८९४ इत्येवरूपात शोध्यन्ते, शोधितेषु च तेषु जातमिदम्४ाएका योजनकोटी द्विनवतिः शतसहस्राणि एकोननवतिः सहस्राणि अष्टौ शतानि पट्सप्पत्यधिकानि १९२८९८७६, तेषां चतुर्भि भीगे हृते लब्धं यथोक्त द्वाराणां परस्परमन्तरपरिमाणं ४८२२४६५ ।। पुक्खरवरदीवस्स णं भंते ! दीवस्स पएसा पुस्खरवरसमुई पुट्ठा?" इत्यादि सूत्रचतुष्टयं प्राग्वत् ।। सम्प्रति नामनिमित्तप्रतिपादनार्थमाह-से केणद्वेण मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते पुष्करवरद्वीपः २१ इति, भगवानाह-गौतम! पुष्करवरद्वीपे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र २ प्रदेशे वह्वः पद्मवृक्षाः, पद्मानि अतिविशालतया वृक्षा इव पावृक्षाः, पाखण्डा:-पद्मवनानि, खण्डवनयोर्विशेष: प्राग्वत् , 'निचं कुसुमिया' इत्यादि विशेष जातं प्राग्यन् । तथा पूर्वाद्धे उत्तरकुरुपु यः पद्मवृक्षः पश्चिमाबें उत्तर कुरुपु यो महापद्मवृक्षस्तयोरत्र पुष्करवरद्वीपे यथाक्रमं पद्मपुदण्डरीको द्वौ देवौ महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको यथाक्रम पूर्वार्धापरार्द्धाधिपती परिवसतः, तथा चोक्तम्-उमे य महापउमे रक्सा उत्तरकुरुसु जसमा । एएसु पसंति सुरा पउमे तह पुंडरीए य ।। १॥" पाप पुष्करमिति पुष्करबरोपलक्षितो द्वीपः पु.। करवरो द्वीप: 'से एएणद्वेण मित्यागुपसंहारवाक्यम् ॥ सम्प्रति चन्द्रादित्यादिपरिमाणमाह-'पुक्खरवरे'त्यादि पाठसिद्धं, नवरं | नक्षत्रादिपरिमाणमष्टाविंशत्यादिसम्बवानि नक्षत्रादीनि चतुश्चलारिंशेन शतेन गुणयित्वा स्वयं परिभावनीयं, उक्तं चैधरूपं परिमाणमन्यत्रापि-चोयालं चंदसयं चोयालं व सूरियाण सयं । पुखरबरंमि दीवे चरंति एए पगासिंता ॥ १ ॥ चत्तारि सहस्साई पाच महापशे वृक्षी उत्तरकुरुषु जम्बूसमी । एतयोर्वसतः मुरी पद्मनाथा पुनरीकच ॥१॥ २ मनुबावारिंश चन्द्रशतं चतुश्चत्वारिंश चैव सूर्याणां । शतं । पुष्करसरे द्वीप परन्ति एते प्रकाशयन्तः ॥1॥ चत्वारि सहस्त्राणि, दीप अनुक्रम [२३५-२४९] 4%C ~668~ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७६] *$$ + गाथा: दीप अनुक्रम [२३५-२४९] प्रतिपत्तिः [३], श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३३३ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र )]. मूलं [ १७६ ] + गाथा: ..आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. 8 | बत्तीसं चैव होंति नक्त्ता । छ सया बाबत्तर महागहा बारससहस्सा ॥ २ ॥ छनउ सबसहस्सा चोयालीसं भवे सहस्साई । चचारिं च सयाई तारागण कोडिकोडीणं || ३ ||" इति ॥ सम्प्रति मनुष्य क्षेत्र सीमाकारिमानुषोत्तरपर्वत वक्तव्यतामाह - ' पुक्खरबरदीवस्त णमित्यादि, पुष्करवरस्य णमिति वाक्यालङ्कृतौ द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे मानुषोत्तरो नाम पर्वतः प्रज्ञतः, स च वृतः, वृत्तं च मध्यपूर्णमपि भवति यथा कौमुदीशशाङ्कमण्डलं ततस्तद्रूपताव्यवच्छेदार्थमाह-वलयाकार संस्थानसंस्थितो यः पुष्करवरं द्वीपं द्विधा ७ सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च विभजमानो विभजमानस्तिष्ठति, केनोलेखेन द्विधा विभजमानस्तिष्ठति ? इत्यत आह-यथा-अभ्यन्तरपुष्करार्द्धं च बह्मपुष्करार्द्ध च चशब्द समुचये, किमुक्तं भवति ?- नानुपोत्तरात्पर्वतादग् यत्पुष्करार्द्ध तदभ्यन्तरपुष्करार्द्ध, यत्पुनस्तॐ स्मान्मानुषोत्तर पर्वतात्परतः पुष्करार्द्ध तद्वापुष्करार्द्धमिति । 'अभितरपुक्खरद्धे णमित्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! अष्टौ योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेन एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशच्छतसहस्राणि त्रिंशत्सहस्राणि द्वे च योजनशते एकोनपञ्चाशे किश्विद्विशेषाधिके परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः ॥ 'से केणट्टेण' मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-अभ्यन्तरपुष्करार्द्धमभ्यन्तरपुष्करार्द्धम् ? इति भगवानाह - गौतम! अभ्यन्तरपुष्करार्द्ध मानुषोत्तरोत्तरेण पर्वतेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं, ततो मानुषोत्तरपर्वताभ्यन्तरे वर्त्तमानत्वादभ्यन्तरपुष्करार्द्ध, तथा चाह— 'से एएणण 'मित्यादि गतार्थ || 'अभितरपुक्खरद्धे णं भंते! कइ चंदा पभासिंसु ?" इत्यादि चन्द्रादिपरिमाणसूत्रं पाठसिद्धं नवरं नक्षत्रादिपरिमाणमष्टात्रिंशत्यादीनि नक्षत्राणि द्वासप्तत्या गुण१ द्वात्रिंशदेव भवति नाणि महामहा द्वादश सहस्राणि पट् शतानि द्विसमतानि ॥ २ ॥ पण्णवतिः शतसहस्राणि चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि क्यारिन शतानि तारागणाः] कोटीकोटीनां भवेयुः ॥ ३ ॥ For P&Praise Cnly ३ प्रतिपत्ती पुष्करव राधि उद्देशः २ सू० १७६ ~669~ ॥ ३३३ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७६] *$$ + गाथाः दीप अनुक्रम [२३५ -२४९] प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....... Ja Ebens “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [ १७६] + गाथा: आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः विला परिभावनीयं उक्तं चैवंरूपं परिमाणमन्यत्रापि "वात्तरं च चंदा बाबत्तरिमेत्र दियरा दित्ता । gक्सरवरदवडे चरंति एए पंगासिंता ॥ १ ॥ तिणि सया छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु। नक्खत्ताणं तु भवे सोलाणि दुबे सहस्वाणि ॥ २ ॥ अडयाल सरसहस्सा बाबीसं चैव तह सहस्साई दो य सय पुखर तारागण कोटिकोडी | ३ ||" इह सर्वत्र तारापरिमाणचिन्सायां फोटोकोट्यः कोट्य एव द्रष्टव्याः तथा पूर्वसूरिव्याख्यानाद्, अपरे उष्याप्रमाणमसूल कोटीकोटीरेव समर्थयन्ति, उक्तञ्थ "कोडाफोडी सनंतरं तु मनंति केइ धोत्रतया । अन्ने उस्सेहंगुलमाणं काण ताराणं ।। १ ।। " समयक्षेत्र अधिकार: आरभ्यते समय णं भंते! केवतियं आयामविस्वं मेणं केवनियं परिक्लेवेणं पण्णत्ते ?, गोयमा! पणयालीसं जोयणसपसहस्साई आयामचिक्खंभेणं एगा जोयणकोडी जावभितरपुस्वरद्धपरिरओ से भाणि जाव अणपणे ॥ से केणणं भंते! एवं बुचनि-माणुसखे से २१, गोयमा! माणुसम्वेणं निविधा मस्सा परिवर्तति, जहा- कम्मभूमगा अकस्मभूमगा अंतरदीवगा, से ते गोपमा ! एवं युञ्चति- माणुसखेत्ते माणुस येते ॥ माणुसखे ते णं भंते! कति चंद्रा पभासेंसु बा ३१, कई सूरा तबसु वा ३१, गोयमा ! —पत्तीसं चंद्रमयं वत्ती चैव सूरियाण संयं । सयल मस्सलोयं चरेति एते पभाता ॥ १ ॥ एकारस य सहस्सा छप्पिय सोला महग्गहाणं तु । छन्द सया छपण्डया णक्वता तिष्णि य सहस्सा || २ || अडसीइ सयसहस्सा चत्तालीस सहस्स 9 कोटीकोटीत संज्ञान्तरं (कोटी) मन्यन्ते केचित् क्षेत्रस्य स्तोमात् । अन्ये उत्सेामानं ताराणां करवा ( कोडो कोटी मित्येव ) ॥ १ ॥ For P&Praise Cinly ~670~ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७७] + गाथा: ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [२५० -२८६] प्रतिपत्तिः [३], श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३३४ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र )]. मूलं [ १७७ ] + गाथा: ..आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मलोगंमि । सत्त य सता अणूणा तारागणकोटकोटीणं ॥ ३ ॥ सोमं सोनेंसु वा ३ ॥ एसो तारापिंडो सवसमासेण मणुयलोगंमि । बहिया पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेजा ॥ १ ॥ एवइयं तारगं जं भणियं माणुसंमि लोगंमि । चारं कलंबुयापुष्कसंठियं जोइस चरइ ||२|| रविससिगहनता एवइया आहिया मणुयलोए । जेसिं नामागोयं न पागया पन्नवेहिंति ॥ ३ ॥ छाडी पिडगाई चंदाइचा मणुपलोगंमि । दो चंदा दो सूरा य होति एकेक पिडe ॥ ४ ॥ छावट्टीपिडगाई नक्त्ताणं तु मणुयलोगंमि । छप्पनं नक्खता य होति एकेक पिडए ॥ ५ ॥ छावडी पिडगाई महागहाणं तु मणुयलोगंमि । छावतरं गहस्यं च होइ एकेकए पिडए ॥ ६ ॥ चत्तारि य पंतीओ चंदाइबाण मणुयलोगंमि । छावद्विय छावद्विय होइ य एक्केकया पंती ॥ ७ ॥ छप्पनं पंतीओ नक्खत्ताणं तु मणुयलोगंमि । छावट्टी छावट्टी हवइ य एक्केकया पंती ॥ ८ ॥ छावसरं गाणं पंतिसयं होइ मणुयलोगंमि । छावट्ठी छावडी व होति एकेशिया पंती ॥ ९ ॥ ते मेरु परियडन्ता पयाहिणावत्तमंडला सधे । अणवद्वियजोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य ॥ १० ॥ नक्खन्तारगाणं अवट्टिया मंडला मुणेयब्वा । तेऽविय पयाहिणावत्तमेव मेरुं अणुचरंति ॥ ११ ॥ रणियरदिणयराणं उहे व अहे व संकमो नत्थि । मंडलसंकमणं पुण अभितरवाहिरं तिरिए ॥ १२ ॥ स्यणियरणियराणं नक्खत्ताणं महग्गहाणं च । चारविसेसेण भवे सुहदुक्खविही For P&Praise Cly ३ प्रतिपत्तौ समयक्षे त्राधि० उद्देशः २ सू० १७७ ~671~ ॥ ३३४ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ -------- मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [9] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] OCE%3 गाथा: ||१-३२|| मणुस्साणं ॥१३॥ तेसिं पविसंताणं ताबक्खेत्तं तु वहुए नियमा। तेणेव कमेण पुणो परिहायह निक्खमंताणं ॥ १४ ॥ तेसिं कलंवुयापुष्फसंठिया होइ ताववेत्तपहा । अंतो य संकुपा वाहि विस्थडा चंदसूरगणा ॥१५॥ केणं बहुति चंदो परिहाणी केण होइ चंदस्स । कालो वा जोण्हो वा केणऽणुभावेण चंदस्स?॥१६॥ किण्हं राहविमाणं निचं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलमप्पत्तं हिट्ठा चंदस्स तं चरइ ॥१७॥ बावहि थावहि दिवसे दिवसे उ सुक्तपक्खस्स । जं परिवह चंदो खवेइ तं चेव कालेणं ॥ १८ ॥ पन्नरसहभागेण य चंदं पन्नरसमेव तं बरह । पन्नरसहभागेण य पुणोवि तं चेव तिकमइ ॥१९॥ एवं बहुइ चंदो परिहाणी एव होइ चंदस्स । कालो वा जोण्हा वा तेणणुभावेण चंदस्स ॥२०॥ अंतो मणुस्सखेत्ते हवंति चारोवगा य उववपणा । पचविहा जोइसिया चंदा सूरा गहगणा य ॥ २१ ॥ तेण परं जे सेसा चंदाइचगहतारनवत्ता। नस्थि गई नथि चारो अवडिया ते मुणेयव्वा ॥२२॥ दो चंदा इह दीवे चत्तारि य सागरे लवणतोए । धायइसंडे दीवे वारस चंदा य सूरा य ॥ २३ ॥ दो दो जंबूद्दीवे ससिसूरा दुगुणिया भवे लवणे । लावणिगा य निगुणिया ससिसूरा घायईसंडे ॥ २४ ॥ धायइसंडपभिई उद्दिवतिगुणिया भवे चंदा ! आइल्लचंदसहिया अणंतराणतरे खेसे ॥ २५॥ रिक्खग्गहतारग्गं दीवसमुद्दे जहिच्छसे नाउं । तस्स ससीहिं गुणियं रिक्वग्गहतारगाणं तु ॥ २६ ॥ चंदातो सूरस्स य सूरा 4%94%16 दीप अनुक्रम [२५०-२८६] R %***564-04 -% ~672~ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७७] + गाथा: ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [२५० -२८६] प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३३५ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - Eber चंदस्स अंतरं होई । पन्नास सहस्साई तु जोयणाणं अणूणाई ॥ २७ ॥ सूरस्त य सूरस्स यस सिणो ससिणो य अंतरं होइ । बहियाओ मणुस्सनगस्स जोयणाणं सयसहस्सं ॥ २८ ॥ सूरतरिया चंद्रा चंदंतरिया य दियरा दित्ता । चित्तंतरलेसागा सुहलेसा मंदलेसा य ॥ २९ ॥ अट्ठासीई च गहा अट्ठावीसं च होंति नक्खत्ता । एगससीपरिवारो एसो ताराण वोच्छामि ॥ ३० ॥ छावहिस्सा नव चैव सयाई पंचसयराई। एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीनं ॥ ३१ ॥ बहियाओ माणुसनगस्स चंद्रसूराणऽवट्टिया जोगा । चंदा अभी जुत्ता सूरा पुण होंति पुस्सेहिं ।। ३२ ।। (सू० १७७ ) 'माणुसखे ते 'मित्यादि, मनुष्यक्षेत्रं भदन्त ! कियदायामविष्कम्मेन कियत्परिक्षेपेण प्रज्ञमं ?, भगवानाह गौतम ! पञ्चचलारिंशद् योजनशतसहस्राण्यायामविष्कम्भेन, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशत् शतसहस्राणि त्रिंशत्सहस्राणि द्वे योजनशते एकोनपवाशे किञ्चिद्विशेषाधिके परिक्षेपेण प्राप्तं ॥ सम्प्रति नामनिमित्तममिधित्सुराह -'से केणद्वेण मियादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुक्रयते मनुष्यक्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रं ? इति, भगवानाह - गौतम ! मनुष्यक्षेत्रे त्रिविधा मनुष्याः परिवसन्ति तद्यथा - कर्मभूमका अक भूमका अन्तरद्वीपकाच, अन्यच मनुष्याणां जन्म मरणं चात्रैव क्षेत्रे न तद्वहिः, तथाहि मनुष्या मनुष्यक्षेत्रस्य बहिर्जन्मतो न भूता न भवन्ति न भविष्यन्ति च तथा यदि नाम केनचिदेवेन दानवेन विद्याधरेण वा पूर्वानुववैरनिर्यातनार्थमेवंरूपा बुद्धिः क्रि ॥ ३३५ ॥ यते यथाऽयं मनुष्योऽस्मान् स्थानाद् उत्पान्य मनुष्यक्षेत्रस्य बहिः प्रक्षिप्यतां येनोर्द्धशोषं शुम्बति म्रियते वेति तथाऽपि लोकानुभावा- 5 For P&False Cnly ३ प्रतिपतो समयक्षे त्राधि उद्देशः २ सू० १७७ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~673~ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [9] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] -44-36*CRY गाथा: ||१-३२|| देव सा काचनाऽपि बुद्धिर्भूयः परावर्तते यथा संहरणमेव न भवति संहय या भूयः समानयति तेन सहरणतोऽपि मनुष्यक्षेत्राहिमनुष्या मरणमधिकृत्य न भूता न भवन्ति न भविष्यन्ति च, येऽपि जवाचारिणो विधाचारिणो वा नन्दीश्वरादीनपि यावद्गच्छन्ति तेऽपि तत्र गता न मरणमश्नुवते किन्तु मनुष्यक्षेत्रसमागता एव, तेन मानुषोत्तरपर्वतसीमाकं मनुष्याणां सम्बन्धि क्षेत्रं मनुष्यक्षेत्र| मिति, तथा चाह-से एएणद्वेण'मित्यादि गतार्थम् ॥ सम्प्रति मनुष्यक्षेत्रगतसमस्त चन्द्रादिसङ्ख्यापरिमाणमाह-'मणुस्सलेते थे। ते! कर चंदा पभासिस' इत्यादि पाठसिद्ध, उक्त वर्ष परिमाणमन्यत्रापि-बत्तीसं चंदसयं वत्तीसं चेय सूरियाण सर्व । सयलं मणुस्सलोयं चरंति एए पगासिंता ॥१॥ एकारस य सहस्सा छपि य सोला महागहाणं. तु । छच सया छन्न उया नक्खत्ता | तिन्नि य सहस्सा ॥ २ ॥ अट्ठासीयं लक्खा चत्तालीसं च तह सहस्साई । सत्त सया य अणूणा तारागणकोडकोडीणं ॥ ३ ॥ तत्र | द्वात्रिंशं चन्द्रशतमेव-दौ चन्द्रौ जम्बूद्वीपे चत्वारो लवणोदे द्वादश धातकीपण्डे द्वाचत्वारिंशत्कालोदे द्वासप्ततिरभ्यन्तरपुष्कराद्धे सर्वसापया द्वात्रिंशं शत, एवं सूर्याणामपि द्वात्रिंशं शतं परिभावनीयं, नक्षत्रादिपरिमाणमष्टाविंशत्यादिनक्षत्रादीनि द्वात्रिंशेन शतेन गुणयित्वा परिभाननीयं ॥ सम्प्रति सकलमनुष्यलोकगततारागणवोपसंहारमाह-एषः' अनन्तरोक्तसयाकस्तारापिण्डः सर्वसङ्ख्यया | मनुष्यलोके आख्यात इति गम्यते, बहिः पुनर्गनुष्यलोकाद् यातारास्ताः 'जिन' सर्वजस्तीर्थकदिर्भणिता असयाता द्वीपसमुद्रा णामसङ्ख्यातत्वान्, प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च यथायोगं समातानामस झवातानां च ताराणां सद्भावात् 'एतावत्' एतावत्सख्याकं हातारा' तारापरिमाणं यत् अनन्तरं भणितं मानुषे लोके तन् 'ज्योतिष ज्योतिपदेव विमानरूपं 'कदम्बपुष्पसंस्थितं' कदम्बपुष्प वद् अधःसङ्कुचितमुपरि विस्तीर्ण उत्तानीकृतार्द्ध कपित्थसंस्थानसंस्थित मिति भावः 'चार चरति' चार प्रतिपद्यते, तथा जगत्स्वाभा -25442 दीप अनुक्रम [२५०-२८६] 2 ~674~ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] गाथा: ||१-३२|| आजालन्यात् , ताराग्रहणं चोपलक्षणं, नतः सूर्यादयोऽपि यथोक्तसङ्ख्याका मनुष्यलोके तथाजगत्ताभाव्याचार प्रतिपद्यन्त इति दृष्टव्यं ॥ स-5 प्रतिपत्तो जीवाभि म्प्रत्येतद्तमेवोपसंहारमाह-रविशशिग्रहनक्षत्राणि, उपलक्षगनेतत् तारकाणि च, 'एतावन्ति' एतावत्सयाकानि सपूर्वा मनुष्य-IN| समयक्षेमलयगि | लोके, येषां किम् ? इत्याह-येषां सूर्यादीनां यथोक्तसङ्ख्याकानां सकलमनुष्यलोकभाविना प्रत्येक नामगोत्राणि, इहान्वर्थयुक्त नाम सि- त्राधिक रीयावृत्तिः | शान्तपरिभाषया नाम गोत्रमित्युच्यते, ततोऽयमर्थः-नामगोत्राणि-अन्वर्थयुक्तानि नामानि, यदिवा नामानि च गोत्राणि च नामगो-IG उद्देशः२ ३३६॥iR त्राणि 'प्राकृताः' अनतिशायिनः पुरुषाः कदाचनापि न प्रजापयिष्यन्ति, केवलं यदा त्याह सर्वज्ञ एवं, तत इदं सूर्यादिसंख्यानं प्राक- | सू०१७७ सपुरुषाप्रमेयं सर्वज्ञोपदिष्टमिति सम्यक् श्रद्धेयं ॥ इह द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यावेक पिटकमुच्यते, इत्थम्भूतानि च चन्द्रादित्यानां पिटकानि | सर्वसषया मनुष्यलोके षट्पष्टिसहयानि । अथ किंप्रमाणं पिटकमिति पिटकप्रमाण माह-एकै कस्मिन् पिटके द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यो भवत इति, किमुक्तं भवति ?-दौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यापित्येतावत्प्रमाणमेकैकचन्द्रादित्याना पिटकमिति, एवंप्रमाणं च पिटकं जम्बूद्वीपे एफ,12 द्वयोरेव चन्द्रमसोईयोरेव सूर्ययोस्तत्र भावतः, द्वे पिटके लवणसमुद्रे चतुर्गा चन्द्रमसां चतुर्णा सूर्याणां च तत्र भावान्, एवं षट् पि-13 टकानि धातकीपण्डे एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराढ़ें इति भवन्ति सर्वमीलने चन्द्रादित्यानां पटवष्टिः पिटकानि ॥ सर्वस्मिन्नपि मनुष्यलोके सर्वसङ्ग्य या नक्षत्राणां पिटकानि भवन्ति पट्पष्टिः, नक्षत्रपिटकपरिमाणं च शशिद्वयसम्बन्धिनक्षत्रसमापरिमाणं, तथा चाह-एककस्मिन् पिटके नक्षत्राणि भवन्ति पट्पञ्चाशत्, किमुक्तं भवति ?-पट्पञ्चाशनक्षत्रसयाकमेकैक नक्षत्रपि-| टकमिति, अनापि पद्पष्टिसख्याभावनैवम्-एक नक्षत्रपिटकं जम्बूद्वीपे द्वे लवणसमुद्रे पट् धातकीपण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंश- ।। ३३६ दभ्यन्तरपुष्कराच इति ।। महाग्रहाणामप्यङ्गारकप्रभृतीनां सर्वस्मिन् मनुष्यलोके सर्वसङ्ख्यया पिटकानि भवन्ति पट्षष्टिः, ग्रह पिट-1 SCREECE5%ANG दीप अनुक्रम [२५०-२८६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~675~ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७७] + गाथा: ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [२५० -२८६] "जीवाजीवाभिगम" जी० ५७ - उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र )]. मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः कपरिमाणं च शशिद्वयसम्बन्धिमसङ्ख्यापरिमाणं, तथा चाह-एकैकस्मिन् पिटके भवति षट्सप्ततं षट्सप्तत्यधिकं ग्रहशतं, पट्सप्रत्यधिक प्रहृशतपरिमाणमेकैकं ग्रपिटकपरिमाणमिति भावः, षट्षष्टिसयाभावना प्राग्वत् ॥ इह मनुष्यलोके चन्द्रादित्यानां चतस्रः पङ्कयो भवन्ति, तद्यथा द्वे पकी चन्द्राणां द्वे सूर्याणां एकैका च पतिर्भवति षष्टिः षट्षष्टि:-पवष्टिषट्षष्टिसूर्वादिसङ्ख्या, तद्भावना चैवम् एकः किल सूर्यो जम्बूद्वीपे मेरोर्दक्षिणभागे चारं चरन् वर्त्तते एक उत्तरभागे एकचन्द्रमा मेरोः पूर्वभागे एकोऽपरभागे, तत्र यो मेरोर्दक्षिणभागे सूर्यश्चारं चरन वर्त्तते ततः समश्रेणिव्यवस्थितौ द्वौ दक्षिणभागे एव सूर्यो लवणसमुद्रे पड़ धातकी| पण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशद्भ्यन्तरपुष्कराजे, इत्यस्यामपि सूर्वपङ्कौ सर्वसङ्ख्या षट्षष्टिः सूर्याः, तथा बोऽपि च मेरोरुत्तरमागे सूर्यश्चारं चरन् वर्त्तते तस्यापि समश्रेण्या व्यवस्थितौ द्वौ उत्तरभागे सूर्यो लवणसमुद्रे पड् धातकीपण्डे एकविंशतिः कालोदे * पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्करा इत्यस्यामपि सूर्यपको सर्वसया षट्षष्टिः सूर्याः, तथा मेरोः किल पूर्वभागे चारं चरन् वर्त्तते चन्द्र४ मास्तत्सम श्रेणिव्यवस्थितौ द्वौ पूर्वभागे एवं चन्द्रमसौ लवणसमुद्रे पड् धातकीपण्डे एकविंशति: काढो पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्करा इत्यस्यां चन्द्रको सर्वसङ्ख्या पट्पष्टिश्चन्द्रमसः एवं यो मेरोरपरभागे चन्द्रमास्तन्मूलायामपि पङ्कौ पट्षष्टिश्चन्द्रमसो वेदितव्याः ।। नक्षत्राणां मनुष्यलोके सर्वसया पयो भवन्ति षट्पंचाशत् एकैका च पह्निर्भवति पट्पष्टि पषष्टिस्तपरिमाणा इत्यर्थः तथाहि किलास्मिन् जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्वभागे एकस्व शशिनः परिवारभूतान्यभिजिदादीन्यष्टाविंशतिसङ्ख्याति नक्षत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि चारं चरन्ति उत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य शशिनः परिवारभूतान्यष्टाविंशतिसाकान्यभिजिदादीन्येव नक्षत्राणि क्रमेण २ व्यवस्थितानि तत्र दक्षिणतोऽर्द्धभागे यन्त्राभिजिन्नक्षत्रं तत्सम श्रेणिव्यवस्थिते द्वे अभिजिनक्षत्रे लवणसमुद्रे पढ् धातकीपण्डे एकाच For P&Praise Cly ~676~ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- ------------ उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ------ -------- मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] प्रतिपत्ती समयत्राधिक उद्देशः२ सू०१७७ गाथा: ||१-३२|| श्रीजीवा- शतिः कालो पत्रिंशवभ्यन्तरपुस्कराखें इति, सर्वसङ्ख्यया षषष्टिरभिजिन्नक्षत्राणि पलथा व्यवस्थितानि, एवं अवणादीन्यपि जीवाभि० IS दक्षिणतोऽयभागे पलमा व्यवस्थितानि षट्षष्टिसयाकानि भावनीयानि, उत्तरतोऽप्यईभागे यदभिजिन्नक्षत्रं तरसमश्रेणिव्यवस्थितेऽपि मलयगि- हाउत्तरभाग एवं अभिजिन्नक्षत्रे लवणसमुद्रे षड् धातकीपण्डे एकविंशतिः कालोदे पट्त्रिंशत्पुष्कराहें, एवं अवणादिपजयोऽपि रीयावृत्तिः प्रत्येक पट्पष्टिसलाका २ वेदितव्या इति भवंति सर्वस नुवया षट्पञ्चाशत्सया नक्षत्राणां पतयः, एकैका च पतिः षट्- पष्ठिसयेति ।। 'प्रहाणां' अङ्गारकप्रभृतीनां सर्वसहपया मनुष्यलोके पट्सप्तत्यधिक पक्तिशतं भवति, एकैका च पतिर्भवति षट्पष्टिः, हा अत्रापीय भावना-जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽभागे एकस्य शशिन: परिवारभूता अङ्गारकप्रभूतयोऽष्टाशीतिर्महा उत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य 5 है। शशिनः परिवारभूता अङ्गारकप्रभृतय एवान्येऽष्टाशीतियहाः, तत्र दक्षिणतोऽर्द्धभागे योऽङ्गारकनामा प्रहस्तत्समश्रेणिव्यवस्थितौ दक्षिआणभाग एव द्वाबङ्गारको लक्षणसमुद्रे पडू धातकीपण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराः इति, एवं शेषा अपि सप्ताशी निहाः पङ्ख्या व्यय स्थिताः प्रत्येक षट्पष्टिः २ वेदितव्याः, एवमुत्तरतोऽप्यर्द्धभागेऽजारकप्रभुतीनामष्टाशीतेहाणां पङ्ग्यः प्रत्येक है। पट्पष्टिसयाका २ भावनीया इति भवति सर्वसलया ग्रहाणां पट्सप्रतं पतिशतं, एकैका च पक्षिः षट्पष्ट्रिसङ्ख्याकेति ॥ 'ते' मनुष्य लोकवर्तिनः सर्वे चंद्राः सर्वे सूर्याः सर्वे ग्रहगणा अनवस्थितैर्यथायोगमन्यैरन्यैर्नक्षत्रैः सह योगमुपलक्षिताः 'पयाहिणावत्तमंडला' इति प्रकर्षेण सर्वामु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिण एव मेकर्भवति यस्मिन्नावर्ते-मण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिण: २ आवत्तों येषां भण्डलाना तानि प्रदक्षिणावर्त्तानि तानि मण्डलानि मे (पति) येषां ते प्रदक्षिणावर्त्तमण्डला मेरुमनुलक्षीकृत्य चरन्ति, एतेनैतदुक्तं भवति-सूर्यादयः समस्ता अपि मनुष्यलोकवर्तिनः प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलगत्या परिभ्रमन्तीति, इह चन्द्रादित्यमहाणां मण्डलान्यनवस्थि 5RWAS दीप अनुक्रम [२५०-२८६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~677~ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७७] गाथा: ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [२५०-२८६] "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: ((दविप्-समुद्र)]. मूलं [१७७] + गाथा: ...आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... • 3 तानि यथायोगमन्यस्मिन्नन्यस्मिन्मण्डले तेपां संचरिष्णुत्वात् नक्षत्रसारकाणां तु मण्डलान्यनवस्थितान्येव तथा चाह-नक्षत्राणां तारकाणां च मण्डलान्यवस्थितानि ज्ञातव्यानि किमुक्तं भवति ? - आकालं प्रतिनियतमेकैकं नक्षत्राणां तारकाणां च मण्डलमिति, न चैत्रं व्यवस्थितमण्डलस्वोक्तावेवमाशङ्कनीयं यथा तेषां गतिरेव न भवतीति यत आह- 'तेऽवि य' इत्यादि, तान्यपि नक्षत्राणि तारकाणि च सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतवान् प्रदक्षिणावर्त्तमेव इदं क्रियाविशेषणं, मेरुमनुलक्ष्मीकृत्य चरन्ति एतच्च मेरुं लक्ष्यीकृत्य तेषां प्रदक्षिणावर्त्तचरणं प्रत्यक्षत एवोपलक्ष्यत इति संवादि ॥ 'रजनिकरदिनकराणां' चन्द्रादित्यानामू बायो वा सङ्क्रमो न भवति तथा जगत्स्वाभाव्यान् तिर्यक् पुनर्मण्डलेषु सङ्क्रमणं भवति, किंविशिष्टमित्याह – 'साभ्यन्तरबाह्यम्' अभ्यन्तरं च बाझं च अभ्यन्तरबाह्यं सह अभ्यन्तरवाएं यस्य येन वा तत् साभ्यन्तरवाां एतदुक्तं भवति ? - सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतस्तावन्मण्डलेषु सङ्क्रमणं यावत्सर्व बाह्य मण्डलं, सर्वेवाह्याच मण्डलाद मण्डलेषु तावत्सङ्क्रमणं यावत्सर्वाभ्यन्तरमिति ॥ ' रजनिकर दिनकराणां चन्द्रादित्यानां नक्षत्राणां महाप्रहाणां च 'चारविशेषेण' तेन तेन चारेण सुखदुःखविषयो मनुष्याणां संभवन्ति, तथाहि - द्विविधानि सन्ति सदा मनुष्याणां कर्माणि तद्यथा-शुभवेयानि अशुभवेद्यानि च कर्मणां च सामान्यतो विपाकहेतवः पञ्च तद्यथाद्रव्यं क्षेत्र कालो भावो भव, उक्तञ्च - - "उद्यक्खयखओवसगोवसमा जं च कम्मुणो भणिया । दव्वं खेत्तं कालं भावं भवं च संपप्य ॥ १ ॥ " शुभवेद्यानां च कर्मणां प्रायः शुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री विपाकहेतु:, अशुभवेद्यानामशुभद्रव्यक्षेत्रादि सामग्री, ततो यदा येषां जन्मनक्षत्रानुकूलश्चन्द्रादीनां चारस्तदा तेषां प्रायो यानि शुभवेद्यानि कर्माणि तानि तथाविधां विपाकसामग्रीमधिगम्य १ उदयः क्षयः क्षयोपशम उपशमो यच कर्मणो भणिताः । इव्यं क्षेत्र का भावं भवं च संप्राप्य ॥ १ ॥ For P&P Cy ~ 678 ~ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत *-4-16 सूत्रांक [१७] श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ।।१३८॥ गाथा: ||१-३२|| विपाकं प्रपद्यन्ते, प्रपन्नविपाकानि शरीरनीरोगतासंपादनतो धनथुद्धिकरणेन च वैरोपशमनत: प्रियसंप्रयोगसंपादनतो वा यदिवा प्रतिपत्ती प्रारब्धाभीष्टप्रयोजननिष्पत्तिकरणतः सुखमुपजनयन्ति, अत एवं महीयांसः परमविवेकिनः स्वल्पमपि प्रयोजनं शुभनिधिनक्ष-151 समयक्षे. बादावारभंते न तु यथा कथचन, अत एव जिनानामपि भगवतामाझा प्रमाजनादिकमधिकृत्यैवमबत्तिष्ट-यथा शुभक्षेत्रे शुभदिश- वाधिक मभिमुखीकृत्य शुभे तिधिनक्षत्रमुहूर्तादौ प्रजाजननतारोपणादि कर्त्तव्यं नान्यथा, तथा चोक्तं पञ्चवस्तुके-एसा जिणाण आणा उद्देशः२ खेत्ताईया य कम्मुणो भणिया । उदयाइकारणं जं तम्हा सम्बस्थ जइयव्वं ॥ १॥" अस्या अक्षरगमनिका-एपा जिनानामाज्ञा यथा|6|सू०१७७ शुभक्षेत्रे शुभा दिशमभिमुखीकृत्य शुभ तिथिनक्षत्रमुहूर्तादौ प्रत्राजमवतारोपणादि कर्त्तव्यं नान्यथा, अपिच-क्षेत्रादयोऽपि कर्मणा-| मुदयादिकारणं भगवनिरक्तास्ततोऽशुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीमवाप्य कदाचिदशुभवेद्यानि कर्माणि विपाकं गत्वोदयमासादयेयुः, तदुदये | |च गृहीतत्रतभङ्गादिदोपप्रसङ्गः, अभक्षेत्रादिसामग्री तु प्राप्य जनानां शुभकर्मविपाकसम्भव इति संभवति निर्विघ्नं सामायिकपरिषा-| लनादि, तस्मादयश्य छदास्पेन सर्वत्र शुभक्षेत्रादी यतितव्यं, ये तु भगवन्तोऽतिशयमन्तस्ते अतिशबवलादेव निर्षि सविन चा सभ्यगवगच्छन्ति ततो न शुभतिथिमुहूर्तादिकमपेक्षन्त इति तन्मार्गानुसरणं छद्मस्थानां न न्याय, तेन ये च परममुनिपर्युपासितप्रवच-1 नविडम्बका अपरिमलितजिनशासनोपनिषद्भूतशालगुरुपरम्परायातनिरवद्यविशदकालोचितसामाचारीप्रतिपन्थिनः स्वमतिकल्पितसा|माचारीका अभिदधति-यथा न प्रजाजनादिषु शुभतिथिनक्षत्रादिनिरीक्षणे यत्तितव्यं, न खलु भगवान् जगत्स्वामी प्रनाजनायोपस्थिवेषु शुभतिथ्यादिनिरीक्षणं कृतवानिति तेऽपास्ता द्रष्टव्या इति ॥ तेषां-सूर्याचन्द्रमसां सर्वथाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशां तापक्षेत्र प्रतिदिवसं क्रमेण नियमादायामतो वर्द्धते, येनैव च क्रमेण परिबर्द्धते तेनैव क्रमेण सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाबहिनिष्कामता परिहीयते, | है दीप अनुक्रम [२५०-२८६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~679~ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७७] + गाथा: ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [२५० -२८६] प्रतिपत्तिः [३], “जीवाजीवाभिगम" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. - · उपांगसूत्र -३ (मूलं + वृत्तिः) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र )]. मूलं [ १७७] + गाथा: .. आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तथाहि सर्वबाह्यमण्डले चारं चरतां सूर्याणां चन्द्रमसां च प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशधा प्रविभक्तस्य द्वौ द्वौ भागौ तापक्षेत्र, ततः सूर्यस्याभ्यन्तरं प्रविशतः प्रतिमण्डलं पयधिकपत्रिंशच्छत प्रविभक्तस्य द्वौ द्वौ भागौ तापक्षेत्रस्य वर्द्धते चन्द्रमस्तु मण्डलेषु प्रत्येकं पौर्णमासीसम्भवे कमेण प्रतिमण्डलं पविशतिर्भागाः सप्तविंशतितमस्य च भागस्यैक: समभागः, एवं च प्रतिमण्डलमभिवृद्धी या | सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरतस्तदा प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य वयः परिपूर्णा दशभागास्तापक्षेत्रं ततः पुनरपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद्वहिर्निष्क्रमेण सूर्यस्य प्रतिमण्डलं पयधिकपच्छित प्रविभक्तल जम्बूद्वीपचक्रवालस्य द्वौ द्वौ भागौ परिहीयेते, चन्द्रमसस्तु मण्डलेषु प्रत्येकं पौर्णमासीसम्भवे क्रमेण प्रतिमण्डलं पविशतिर्भागाः सप्तविंशतितमस्य च भागस्य चैकः सप्तभाग इति । 'तेषां' चन्द्रसूर्याणां तापक्षेत्र पन्थाः कलम्बुयापुष्पं- नालिकापुष्पं सद्वत्संस्थिताः कलम्बुयापुष्पसंस्थिताः, एतदेव व्याचष्टे - अन्तः- मेरुदिशि सकुचिता बहि:लवणदिशि विस्तृताः, एतचन्द्र सूर्यप्रज्ञ चतुर्थे प्राभृते सविस्तरं भावितमिति ततोऽवधार्यम् ॥ सम्प्रति चन्द्रमसमधिक गौतमः प्रश्नयति-केन कारणेन शुक्लपक्षे वर्द्धते ? केन वा कारणेन चन्द्रस्य कृष्णपक्षे परिहानिर्भवति ? केन वा 'अनुभावेन' प्रभावेण चन्द्रस्यैकः पक्षः कृष्णो भवति एकः 'ज्योत्स्नः' शुक्रः ? इति एवमुक्ते भगवानाह इह द्विविधो राहुतयथा- पर्वराहुर्नित्य राहु तत्र पर्वराहुः स उच्यते यः कदाचिदकस्मात्समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं वाऽन्तरितं करोति, अन्तरिते च कृते लोके ग्रहणमिति प्रसिद्धिः स इह न गृह्यते यस्तु नित्यराहुस्तस्य विमानं कृष्णं तथाजगत्स्वाभाव्याचन्द्रेण सह 'नित्यं' सर्वकालमविरहितं तथा 'बउरंगुलेन' चतुरङ्गुलैरप्राप्तं सन् 'चन्द्रस्य' चन्द्रविमानस्यास्ताचरति तचैवं परतू शुकपक्षे शनैः शनैः प्रकटीकरोति चन्द्रमसं कृष्णपक्षे च शनैः शनैरावृणोति तथा चाह-इह द्वाषष्टिभागीकृतस्य चन्द्रविमानस्य द्वौ भागानुपरितनी मदानावार्थस्वभा For P&Praise Cly ~680~ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] | सू०१७७ गाथा: ||१-३२|| श्रीजीवा- वलाद्' अपाकृत्य शेषस्य पञ्चदशभिर्भागे हृते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते ते द्वापष्टिशब्देनोच्यन्ते, अवयवे समुदायोपचारात्, एतथा प्रतिपत्ता जीवाभि व्याण्यानमेतस्यैव पूर्णिमुपजीव्य कृतं न स्वमनीपिकया, तथा च तदन्थ:-चन्द्रविमानं द्वापष्टिभागीक्रियते, ततः पञ्चदशभिर्भामलयाग- गोऽपहियते, सत्र चत्वारो भागा द्वापष्टिभागानां पथदशभागेन लभ्यन्ते शेषौ द्वौ, एतावद् दिने दिने शुकृपक्षस्य राहुणा मुच्यत" त्राधिक रीयावृत्तिः इति, एवं च सति यत्समवायाङ्गसूत्रम्-"मुकपक्खस्स दिवसे दिवसे बाबाढि बाबाई भागे परिवडई" इति, तदप्येवमेव व्याख्येय, उद्देशः२ दसंप्रदायवशादि सूत्रं व्याख्येयं, न स्वमनीपिकया, अन्यथा महदाशातनाप्रसक्तेः, संप्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति, तत्र शुक्लपक्षस्य दिवसे यद्-यस्मात्कारणाचन्द्रो द्वाषष्टिद्वापष्टिभागान-द्वाषष्ठिभागसत्कान चतुरश्चतुरो भागान यावत्परिवर्द्धते, कालेन-कृष्णपक्षेण | पुनर्दिवसे २ तानेव द्वाषष्टिभागसत्कान चतुरश्चतुरो भागान 'प्रक्षपयति' परिहापयति, एतदेव त्याचप्ठे-कृष्णपक्षे प्रतिदिवसं राहुविहामानं खकीयेन पञ्चदशेन भागेन तं 'चन्द्र चन्द्रविमानं पञ्चदशमेव भार्ग 'वृणोति' आच्छादयति, शुक्लपक्षे पुनस्तमेव प्रतिदिवस सापश्चदशभागमात्सीयेन पञ्चदशेन भागेन 'व्यतिक्रामति' मुञ्चति, किमुक्तं भवति ?-कृष्णपझे प्रतिपद आरभ्यासीयेन पञ्चदशेन | पञ्चदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागमुपरितनभागादारभ्यावृणोति, शुकुपक्षे तु प्रतिपद आरभ्य तेनैव क्रमेण प्रतिदिवस| मेकै पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति, तेन जगति चन्द्रमण्डलस्य वृद्धिहानी प्रतिभासेते, खरूपतः पुनश्चन्द्रमण्डलमवस्थितमेव, तथा चाह-एवं राहुविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणानावरणकरणतो 'बर्द्धते' बर्द्धमानः प्रतिभासते चन्द्रः, एवं राहुविमानेन प्रतिदिवस कमेगावरणकरणतः परिहानिप्रतिभासो भवति चन्द्रमा विषये, एतेनैव 'अनुभावेन' कारणेनैकः पक्षः 'कालः' कृष्णो भवति यत्र च-II न्द्रस्य परिहानिः प्रतिभासते, एकस्तु 'ज्योत्स्नः' शुक्लो यत्र चन्द्रविषयो वृद्धिप्रतिभासः ।। 'अन्तः' मध्ये 'मनुष्यक्षेत्रे मनुष्यक्षेत्रस्य दीप अनुक्रम [२५०-२८६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~681~ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ---------------------- उद्देशक: (दविप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] गाथा: ||१-३२|| पञ्चविधा ज्योतिष्कास्तयथा-पन्द्राः सूर्या ग्रहगणा: चशब्दान्नक्षत्राणि तारकाश्च भवन्ति 'चारोपगाः' चारयुक्ताः, 'तेनेति प्राक तत्वात्पञ्चम्यर्थे तृतीया ततो मनुष्यक्षेत्रात्परं यानि शेषाणि 'चन्द्रादित्यग्रहतारानक्षत्राणि' चन्द्रादित्यमहतारानक्षत्रविमानानि, प्रसूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , तेषां नास्ति गति:-न स्वस्मात्स्थानाञ्चलनं नापि 'चारः' मण्डलगत्या परिभ्रमण किन्लवस्थिता न्येव तानि ज्ञातव्यानि ।। सम्प्रति प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चन्द्रादिसङ्कलनामाह- एगे जंयुद्दीवे दुगुणा लवणे च उग्गुणा होति । लावणगा काय तिगुणिया ससिसूरा धायइसंडे॥१॥ द्वौ चन्द्रौ उपलक्षणमेतत् द्वौ सूर्यों च 'इह' अस्मिन् जम्बूद्वीपे, चत्वारः 'सागरे' समुद्रे 'लवणतोये लवणजले, धातकीपण्डे द्वीपे द्वादश चन्द्राश्च द्वादश सूर्याश्च ॥ एतदेव भङ्गयन्तरेण प्रतिपादयति-शशिनी सूर्यो जम्बूद्वीपे द्वौ द्वौ, तावेव द्विगुणितो 'लवणे लवणसमुद्रे भवतः, चलारो लवणसमुद्रे शशिनश्चत्वारश्च सूर्या भवन्तीत्यर्थः, योाभ्यां गुआणने चतुर्भावात् , पाठान्तरम्-एवं जंबूहोवे दुगुणा लवणे च उग्गुणा होति "त्ति, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण एकैको चन्द्रसूर्यो ज|म्बूद्वीपे द्विगुणौ भवतः, किमुक्तं भवति ?-चौ चन्द्रमसौ द्वौ सूर्यो जम्बूद्वीप इति, 'लवणे लवणसमुद्रे तावेवैकको सूर्याचन्द्रमसौ चतुर्गुणौ भवतः, चत्वारश्चन्द्राश्चत्वारः सूर्या लवणसमुद्रे भवन्तीति भावः, 'लावणिकाः' लवणसमुद्रभवाः शशिसूर्यास्विगुणिता धातकीपण्डे भवन्ति, द्वादश चन्द्रा द्वादश सूर्या धातकीपण्डे द्वीपे भवन्तीत्यर्थः ॥ सम्प्रति शेषद्वीपसमुद्रगतचन्द्रादित्यसयापरिज्ञानाय करणमाह-धातकीपण्डः प्रभुतिः-आदियेषां ते धातकीपण्डप्रभृतयस्तेषु धातकीपण्डप्रभृतिषु द्वीपेषु समुद्रेषु च ये उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्वाद-1 शादयः उपलक्षणमेतत् सूर्या वा ते 'विगुणिताः' त्रिगुणीकृताः सन्त: 'आइल्लचंदसहिय'त्ति उद्दिष्टचन्द्रयुक्ताहीपात्समुद्राद्वा प्राग जम्बूद्वीपमादि कृत्वा ये प्राक्तनाश्चन्द्रास्तैरादिनचन्द्रः, उपलक्षणमेतत् आदिमसूर्यैश्च सहिता यावन्तो भवन्ति एतावस्प्रमाणा अनन्तरे दीप अनुक्रम [२५०-२८६] X ~682~ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------- ------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], --------- -------- मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [9] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] गाथा: ||१-३२|| श्रीजीवा-13ाऽनन्तरे कालोदादी भवन्ति, सत्र धातकीपण्डे द्वीप उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्वादश ते त्रिगुणाः क्रियन्ते जाताः पत्रिंशन , आदिमचन्द्राः षट् ,131३ प्रतिपनो जीवाभि द्यथा-द्वौ चन्द्रौ जम्बूद्वीपे चत्वारो लवणसमुद्रे, गते रादिमचन्द्रः सहिता द्वाचत्वारिंशद्भवन्ति, एतावन्त: कालोदसमुद्रे चन्द्राः, एष | समयएव विधिः सूर्याणामपि, तेन सूर्या अपि तत्रैतावन्तो बेदितव्याः, तथा कालोदे समुद्रे द्वाचत्वारिंशश्चन्द्रमस उद्दिष्टास्ते त्रिगुणाः कि-II रीयावृत्तिःनयन्ते जाता: पष्टुिशं शतं, आदिमचन्द्रा अष्टादश, तद्यथा-द्वौ जम्बूद्वीपे चत्वारो लवणसमुद्रे द्वादश धातकीपण्डे, एतैरादिम चन्द्रः। | उद्देशः २ ।।३४०॥ तिसहितं पडिशं शतं चतुश्चत्वारिंशं शतं जातं, एतावन्त: पुष्करवरद्वीपे चन्द्रा एतावन्त एव च सूर्याः, एवं सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेवेत-1 सू०१७७ स्करणवशाचन्द्रसया प्रतिपत्तव्या, सूर्यसायाऽपि ॥ सम्प्रति प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च ग्रहनक्षत्रतारापरिमाणज्ञानोपायमाह-अनामशब्दः परिमाणवाची, यन्त्र द्वीपे समुद्रे वा नक्षत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं वा ज्ञातुमिनसि तस्य द्वीप समुद्रस्य वा सम्बन्धिभिः | शशिभिरेकस्य शशिनः परिवारभूतं नभत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं च गुणितं सद् यावद् भवति तावत्प्रमाणं तब द्वीपे | | समुद्रे वा नक्षत्रपरिमार्ण ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणमिति, यथा लवणसमुद्रे किल नक्षत्रादिपरिमाणं ज्ञातुमिष्ट, लवणसमुद्रे च शशिनश्चत्वारस्तत एकस्य शशिनः परिवारभूतानि वान्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि तानि चतुभिर्गुण्यन्ते जातं द्वादशोत्तरं शत, एतावन्ति लवण-1 समुद्रे नक्षत्राणि, तथाऽष्टाशीतिर्महा एकस्य शशिनः परिवारभूतास्ते चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातानि त्रीणि शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि | |३५२, एतावन्तो लवणस मुद्रे प्रहाः, तथैकस्य शशिनः परिवारभूतानि तारागणकोटीकोटीनां पट्षष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चस-11 सत्यधिकानि, तानि चतुभिर्गुण्यन्ते, जातानि कोटीकोटीनां द्वेलक्षे सप्तषष्टिः सहस्राणि नव शतानि २६७९००1००1००1०००1००1००० का॥३४०॥ | एतावत्यो लवणसमुद्रे तारागणकोटीकोटयः, एवरूपा च नक्षत्रादीनां लवणसमुद्रे सत्या प्रागेवोक्ता, एवं सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेषु नक्ष दीप अनुक्रम [२५०-२८६] Check Indian अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~683~ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत -05 सूत्रांक [१७७] %-9-54--0-04 गाथा: ||१-३२|| त्रादिसङ्ख्यापरिमाणं भावनीयम् ।। सम्प्रति मनुष्यक्षेत्रावित्तिनां चन्द्रमाणां परस्परमन्तरपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-मनुप्यनगस्य' मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिश्चन्द्रात्सूर्यस्य सूर्याचन्द्रस्यान्तरं भवति 'अन्यूनानि परिपूर्णानि योजनानां पञ्चाशत् सहस्राणि, एतावता चन्द्रस्य सूर्यस्य च परस्परमन्तरमुक्तम् । इदानी चन्द्रस्य चन्द्रस्य सूर्यस्य सूर्यस्य च परस्परमन्तरमाह-'सूरस्स य सूरस्स य' इत्यादि, सूर्यस्य सूर्यस्य परस्परं चन्द्रस्य चन्द्रस्य परस्परमन्तरं भवति योजनानां शतसहसं-लभ, तथाहि-चन्द्रान्तरिताः सूर्याः सूयान्तरि| साश्चन्द्रा बहिव्यवस्थिताः, चन्द्रसूर्याणां च परस्परमन्तरं पश्चाशद्योजनसहस्राणि ५००००, ततश्चन्द्रस्य चन्द्रस्य सूर्यस्य मूर्यस्य च परस्परमन्तरं भवति योजनानां लक्ष, एतचैवमन्तरपरिमाणं सूचीश्रेण्या प्रतिपत्तव्यं न बलयाकारण्येति ।। सम्पति पहिश्चन्द्रम यांणां । | पङ्गयाऽवस्थानमाह-नृलोकादहिः पञ्जयाऽवस्थिताः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राश्चन्द्रान्तारता दिनकरा: 'दीप्ताः' दीप्यन्ते स्म भास्करा इत्यर्थः, कथम्भूतास्ते चन्द्रसूर्या: ? इत्याह-चित्रान्तरलेश्याकाः' चित्रमन्तरं लेश्या व प्रकाशरूपा येषां ते तथा, तत्र चिन्नमन्तरं चन्द्राणां सूर्यान्तरितत्वात् सूर्याणां चन्द्रान्तरितत्वात् , चित्रा लेश्या चन्द्रमसा शीतरश्मित्वान सूर्याणामुष्णर श्मित्वात् , लेश्याविशेषण दर्शनार्थमाह-'सुहलेसा मंदलेसा य' सुखलेश्याश्चन्द्रमसो, न शीतकाले मनुष्यलोक इबालसन्त शीतरश्मय इत्यर्थः, मन्दलेश्या: सूर्या | दान तु मनुष्यलोके निदाघसमय इय एकान्तोष्णरश्मय इत्यर्थः, आइ च तच्यार्थटीकाकारो हरिभद्रसूरिः- नात्यन्तं शीताश्चन्द्रमसः नात्यन्तोष्णा: सूर्याः किन्तु साधारणा द्वचोरपी"ति, इहेदमुक्तं भवति-यत्र द्वीपे समुद्रे वा नक्षत्रादिपरिमाणं ज्ञातुमिप्यते तत्रैकशशिपरिवारभूतं नक्षत्रादिपरिमाणं तावद्भिः शशिभिर्गुणयितव्यमिति । तत्रैकशमिपरिवारभूतानां ग्रहादीनां परिमाणमाह- अहामीईत्यादि गाथाद्वयमपि पाठसिद्धम् ।। बहिः 'मनुष्यनगस्य' मनुप्यपर्वतम्य चन्द्रमूर्याणां योगा अवस्थिता न मनुष्यलोक इवान्यान्यन 45-%ACK % - 6- दीप अनुक्रम [२५०-२८६] - 4+% 80-% ~684~ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] श्रीजीवा- जीवाभि मलयगि- रीयावृत्तिः गाथा: ||१-३२|| ।। ३४१॥ भत्रसञ्चारिणश्वाराभावात् , कचिन् 'अबढ़िया तेया' इति पाठस्तत्रावस्थितानि तेजांसीति व्याख्येयं, किमुक्तं भवति?-सूर्याः स-1 प्रतिपत्ती देवानन्युष्णतेजसो न तु जातुचिदपि मनुष्यलोके ग्रीष्मकाल इवायुष्यतेजसः, चन्द्रमसोऽपि सदैवानतिशीतलेश्याका न पुन: कदाचना- मानुषोप्यन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य शिशिरकाल इवातिशीततेजस इति, तत्र प्रथमपाठपक्षे तानेवावस्थितान् योगानाह-'चंदा अभिई' इत्यादि, द्वि- त्तराधिक तीयपाठपक्षे तथेति पठयितथ्य, चन्द्राः सर्वेऽपि मनुष्यक्षेत्राहिरभिजिता नक्षत्रेण युक्ताः, सूर्याः पुनर्भवन्ति पुष्यैर्युक्ता इति ॥ स-II उद्देशः२ म्प्रति मानुयोत्तरपर्वतोचैस्वादिप्रतिपादनार्थमाह सू०१७८ माणुसुत्तरे णं भंते ! पब्बते केवतियं उहूं उच्चत्तेणं? केवतियं उवेहेण ? केवनियं मूले विक्खम्भे वतिय मझे विश्वंभेणं? केवनियं सिहरे विक्खंभेणं? केवतिय अंतो गिरिपरिगण? केवलियं याहिं गिरिपरिगण? केवतियं मज्झे गिरिपरिरएणं? केवतियं उपरि गिरिपरिण?, गोयमा! माणुसुत्तरे णं पवने सत्तरस एकवीसाईजोयणसयाई उहूं उच्चत्तेणं चसारि तीसे जोयणसा कोमं च उब्वेहेणं मूले दसवावीमे जोषणसने विक्रखंभेणं मज्झे सत्तनेवीमे जोयणसते विश्वभेणं उबरि चत्सारिचउवीसे जोयणसने विक्खंभेणं अंतो गिरिपरिगण-गा जोयणकोटी पायालीसं च सयसहस्साई। तीसं च सहस्माई दोपिण य अउणापपणे जोयणसते किंचिविसेमाहिए परिक्वेवेणं, बाहिरगिरिपरिएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च सतसहस्साई ॥३४१॥ छत्तीमं च सहस्सा सत्तचोदसोसरे जोयणमने परिक्खेवेणं, मज्झे गिरिपरिणं एगा जोयण दीप अनुक्रम [२५०-२८६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् मानुषोत्तरपर्वत-अधिकारः आरभ्यते ~685~ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७८] दीप अनुक्रम [२८७] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], प्रतिपत्तिः [३], मूलं [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः कोडी बयालीस च सतमहस्सा चोती सहरमा अनेवी जोपणसते परिवेवेणं, उवरि गिरिपरिरणं एगा जोयणकोटी वाघालीसं न सयमहरुमा बत्तीसं च सहस्साई नव य बत्तीसे जोगणसते परिवेवेणं, मुले विच्छिन्ने म संखिते उपि न तो सण्डे मझे उगे वाहिं दरिसणिजे इसिसम सीणिमाई अवदजवराभिमंत्रणसंठिने सम्बजंबूयाम अच्छे सण्हे जाव पडिवे, उनओपामि दोहिं परमवरवेदियाहिं द्रोहिय वणसंहि तोता संपवते यण्णओ दोहरि ॥ से केणणं भंते! एवं बुवनि- माणुसूत्तरे पत्र २१, गोमा ! मात्तरस्य णं व अंटो मणुषा उपि सुवण्णा पाहिं देवा अनुत्तरं चणं गोयमा! माणुमुत्तरन्जन गया ण कपाट विनिवसु वा दीनिवति वा चीतवति वा ron चाहिं या विज्ञाहरेहिं वा देवकम्णा वावि, से लेणट्टेणं गोयमा ! अनुतरं चणं जाव णिवेति || जावं च णं माणुमुत्तरे पवने नायं च णं असिलोग ति पचति, जावं च णं वासातिं वा वासरातिं वा तावं च गं अहिंस लोपति पतति, जावं च णं गेहाद वा हावयणाति वा तायं च णं अस्सि लोएति पचनि, जावं च णं गामाति वा जाव रायहाणीति वा तावं च णं अमिलोपत्ति पचति, जावं च णं अरहंता चकवहि बलदेवा वासुदेवा पडिवासुदेवा धारणा विजाहरा समणा समणीओ सावया साविधाओ मणुया पगतिभद्दगा विणीता तावं च णं अहिंस For P&False Cly ~686~ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [3], ----------- उद्देशकः [(विप्-समुद्र)], - ----------- मूलं [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥३४२॥ 14 प्रतिपत्ती मानुषो|त्तराधि० | उद्देशः २ सू०१७८ [१७८] दीप अनुक्रम [२८७] लोएत्ति पचति, जावं च णं समयाति वा आवलियाति वा आणापाणहति वा थोवाइ या लवाइ वा मुहलाइ वा दिवसानि वा अहोरत्ताति वा पक्वाति वा मासाति वा उदति वा अयणाति या संवच्छराति वा जुगाति वा वाससताति वा वाससहस्साति वा वाससयसहस्साइ था पुब्वंगाति वा पुग्वाति वा तुडियंगाति वा, एवं पुब्वे नुडिए अडडे अववे हरकए उप्पले पउमे - लिणे अपिछणिउरे अउने ण उते मउने चूलिया सीसपहेलिया जाय य सीसपहेलियंगेति वा सीसपहे. लियाति वा पलिओवमति वा सागरोवमेति वा उपसप्पिणीति वा ओसप्पिणीति वा तावं च णं अस्सि लोगे वुचति, जावं च णं बादरे विजुकारे बायरे थणियसद्दे तावं च णं अस्सि० जावं च णं यहवे ओराला बलाहका संसंयंति संमुच्छंनि वासं वासंति तावं च णं अस्सि लोए, जावं च णं वायरे तेउकाए तावं च णं अस्सि लोग, जावं च णं आगराति वा नदीउ वा णिहीति वा तावं च णं अस्सिलोगित्ति पचति, जावं च णं अगडाति वा णदीति वा नावं च णं अस्सि लोए जावं च णं चंदोवरागाति वा सूरोवरागाति वा चंदपरिएसाति वा सरपरिएसाति वा पडिचंदाति वा परिसराति वा इंदधणूइ वा उदगमच्छेद वा कपिहसिताणि वातावं च णं अस्सिलोगेति प०॥ जावं च णं चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं अभिगमणनिग्गमणवुहिणिवुहिअणवट्टियसंठाणसंठिती आपविजति तावं च णं अस्सि लोएत्ति पचति ।। (सू०१७८) ROCREAKERCACROCCACCE अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~687~ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [3], ----------- उद्देशकः [(विप्-समुद्र)], - ----------- मूलं [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८] दीप अनुक्रम [२८७] 'माणुसुत्तरे णमित्यादि, मानुषोत्तरोणमिति वाक्यालकारे पर्वतः 'कियत्' किंप्रमाणमूर्द्धमुजैस्पेन ? कियदुधेन? कियन्मूलविष्कम्भेन ? कियदुपरिविष्कम्भेन ? किवद् 'अन्तगिरिपरिरयेण गिरेरन्त: परिक्षेपेण? कियद् 'वहिगिरिपरिरयेण गिरेवहिःपरिच्छेदेन ? कियन् 'मूलगिरिपरिरयेण?' गिरेर्मूले परिरयेण, एवं कियन्मध्यगिरिपरिरयेण ?, एवं कियदुपरिगिरिपरिरयेण प्रशतः १, भगवानाह-गीतम! सप्तदश योजनशतानि एकविंशानि ऊर्द्ध मुस्खेन १७२१, चत्वारि त्रिंशानि योजनशतानि कोशमेक |च 'उद्वेधेन' उण्डखेन ४३०, मूले दश द्वाविंशत्युत्तराणि योजनशतानि विष्कम्भेन १०२२, मध्ये सप्त त्रयोविंशत्युत्तराणि योजनशतानि विष्कम्भत: ७२३, उपरि चत्वारि चतुर्विशत्युत्तराणि योजनशतानि विष्कम्भेन ४२४, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशच्छतसहस्राणि त्रिंशत्सहस्राणि द्वे एकोनपञ्चाशदधिके योजनशते किश्चिद्विशेषाधिके अन्तनिरिपरिरयेण १४२३०२४९, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशत् शतसहस्राणि पत्रिंशत्सहस्राणि सप्त चतुर्दशोनराणि योजनशतानि बहिनिरिपरिरयेण १४२३६७१४, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशत् शतसहस्राणि चतुविंशत्सहस्राणि अष्टौ त्रयोविंशत्युत्तराणि योजनशतानि मध्यगिरिपरिरयेण १५२३४८२३, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशतसहस्राणि द्वात्रिंशत्सहस्राणि नव च द्वात्रिंशदुत्तराणि योजनशतानि उपरिगिरिपरिरयेण १४२३|२९३२, इदं च मध्ये उपरि य गिरिपरिरयपरिमाण बहिभागापेक्षमवसातव्यं, अभ्यन्तरं छिन्नटङ्कतया मूले मध्ये उपरि च सर्वत्र | तुल्यपरिरयपरिमाणत्वान् , मूले विस्तीर्णोऽतिपृथुखान् , मध्ये संक्षिप्तो मध्यविस्तारखान् , उपरि तनुकः स्तोकबाहल्यभावान् । अन्तः पक्ष्णो मृष्ट इत्यर्थः मध्ये 'उदग्रः' प्रधानः बहिः 'दर्शनीयः' नयनमनोहारी 'ईषत्' मनाक् सन्निषण्णः सिंह निधीदनेन निषीदनात् , तथा चाह-'सिंहनिषादी' सिंहबन्निषीदतीत्येवंशीलः सिंह निषादी, यथा सिंहोऽतनं पादयुगलमुत्तम्य पश्चात्तनं तु पादयुग्मं स जी०५८ ~688~ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७८] दीप अनुक्रम [२८७] श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३४३ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], प्रतिपत्तिः [३], मूलं [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः | झोच्य पुताभ्यां मनागृलनो निषीदति तथा निपण्णय शिरः प्रदेशे उन्नतः पञ्चाद्भागे तु निनो निम्नतरः एवं मानुषोसरोऽपि जम्बूद्वीपदिशि छिन्नटङ्कः स चोन्नतः पाश्चात्यभागे तूपरितनभागादारभ्य पृथुलप्रदेशवृद्ध्या निम्नोनिम्म्रतर इति एतदेवातिव्यक्तमाह-'अब जवरासिसंठाणसंटिए' इति अपगतमर्द्ध यस्य सोऽपार्द्ध: स चासो व राशिच अपार्द्धयवराशी तयोरिव यत्संस्थानं यस्य तेन ४ संस्थितः, यथा यवो राशि धान्यानामपान्तराले ऊर्जाधोभागेन छिन्नो मध्यभागे छिटक इव भवति बहिभांगे तु शनैः शनैः प्रभुत्वखा निनो निम्नतरस्तद्वदेषोऽपि यत्रग्रहणं पृथग्व्याख्यातमन्यत्र केवलापार्द्धयवसंस्थानतयाऽपि प्रतिपादनात् उक्तञ्चजं वृणयामओ सो रम्मो अद्धजवसंठिओ भणिओ सिंहनिसादीएणं दुहाकओ पुक्खरदीवो || १ ||" 'सब्वजंबूणयामए' इति सर्वा सना जाम्बूनदमय: 'अच्छे जाव पडिरूये' इति प्राग्वत् । 'उभओ पासि मित्यादि उभयोः पार्श्वयोरन्तर्भागे मध्यभागे चैयर्थः प्र त्येकमेकैकभावेन द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां वनखण्डाभ्यां च 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि पद्मवेदिकावनखण्डयोः प्रमाणं वर्णकच प्राग्वम् ।। साम्प्रतं नामनिमित्तमभिधित्सुराह— 'से केणट्टेण' मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-मानुपोत्तरः पर्वतः मानुषोत्तरः पर्श्वतः ? इति भगवानाह - गौतम ! मानुषोत्तरपर्वतस्य 'अन्तः' मध्ये म नुष्याः उपरि 'सुवर्णाः' सुवर्णकुमारा देवा: वहिः सामान्यतो देवाः, ततो मनुष्याणामुतरः- पर इति मानुषोत्तरः । अथान्यद् गौतम ! मानुपोत्तरं पर्वतं मनुष्या न कदाचिदपि व्यतित्रजितवन्तः व्यतित्रजन्ति व्यतिजियन्ति वा किं सर्वथा न ? इत्याह-नान्यत्र धारणेन पञ्चम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात् 'चारणात्' जङ्घाचारणलब्धिसंपन्नान् विद्याधराद् देवकर्मण एवं क्रियया देवोत्पादनादित्यर्थः, चारणादयो व्यतित्रजन्यपि मानुषोत्तरं पर्वतमिति तद्वर्जनं ततो मानुषाणामुत्तरः- उच्चैस्तरोऽलङ्घनीयत्वान्मानुपोत्तरः, ॐ | ॥ ३४३ ।। For P&False City ३ प्रतिपत्ती मानुषोतराधि० ~ 689~ उद्देशः २ सू० १७८ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८] तधा चाह-से एएणटेण मित्याधुपसंहारवाक्यं गतार्थ ॥ सम्प्रत्येतावानेव मनुष्यलोकोऽत्रैव च वर्षवर्षधरादय इत्येतन्सूत्रं प्रतिपादयितुकाम आह-'जावं च णमित्यादि, यावदयं मानुपोत्तरपर्वतस्तावत् 'अस्सिलोए' इति अयं मानुषलोक इति प्रोच्यते न परतः, तथा यावद्वर्धाणि-भरतादीनि क्षेत्राणीति या वर्षधरपर्वता-हिमवदादय इति वा तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते न परत:, एतावता | किमुक्तं भवति वर्षाणि वर्षधरपर्वताश्च मनुष्यलोक एव नान्यनेति, एवमुत्तरत्रापि भाषनीयं, तथा यावद्हाणीति या गृहापतनानीति वा तत्र गृहाणि प्रतीतानि गृहापतनानीति-गृहेष्वागमनानि तावदयं मनुष्यलोकः प्रोच्यते, गृहाणि गृहापतनानि बाऽस्मिन्नेव मनुष्यलोके | नान्यत्रेति भावः, तथा प्रामा इति वा नकराणीति वा यावत्सन्निवेशा इति वा, यावत्करणात् खेटकवटादिपरिग्रह स्तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, अत्रापि भावार्थः प्राग्वन् , तथा यावदहन्तश्चक्रवर्तिनो बलदेवा वासुदेवाश्चारणा-जवाचारणविद्याधराः 'श्रमणा साधवः 'श्रमण्यः' संयत्यः आवफा: भाविकाच, तथा मनुष्याः प्रकृतिभद्रका इत्यादि यावद्विनीतातावदयं मनुष्यलोक इति प्रोक्यते, अहंदादीनामत्रैव भावो नान्यत्रेति भावार्थः । तथा यायदुदारा बलाहका-मेघाः संस्विद्यन्ते संमूर्छन्ति-वर्षा वर्षन्ति, अस्य व्याख्यान | प्राग्वत् तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, मेघानामपि वपुकाणामत्रैव भावो नान्यत्रेति भावार्थः, तथा यावत् 'बादर' गुरुतरः 'स्तनितशब्दः' गर्जितशब्द इति, बादरो विद्युत्कार इति वा' बादरा-अतिबलतरा विद्युत् तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, तथा यावदयं वादरोऽग्निकायिकस्तावदवं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, बादराग्निकायिकस्यापि मनुष्यलोकात्परतोऽसम्भवात् , तथा यावदाकरा |इवि वा, आकरा-हिरण्याकरादयः, नद्य इति वा निधय इति वा तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, तेषामपि मनुष्यक्षेत्रादन्यत्रास-18 म्भवात् , तथा यावत्समया इति वा, समय:-परमनिरुद्धः कालविशेषो यस्याधो विभागः कर्तुं न शक्यते, स च सूचिकदारकस्तरुणो दीप अनुक्रम [२८७] ~ 690~ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७८] दीप अनुक्रम [२८७] - "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१७८] .....आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... श्रीजीवाजीवाभि० मलयगियावृत्तिः ॥ ३४४ ॥ बलवानित्यादिपूर्वोक्तविशेषणविशिष्टो यात्रन्निपुणशिल्पोपगत एकां महतीपटशाटिकां पट्टाटिकां वा गृहीला शीघ्रं हस्तमात्रमपसारयन् यावता कालेनोपरितनतन्तुगतमुपरितनं पक्ष्म छिनत्ति ततोऽपि मना सूक्ष्मतरो, जघन्ययुक्तायातकसमयानां समुदायः एकाव लिका, सोया आवलिका एक उच्छासः सावलिका निःश्वासः उच्छ्रासनिःश्वासौ समुदितावेक आनप्राणकालः किमुक्तं भ वति ? - हृष्टस्य नीरोगस्य श्रमबुभुक्षादिना निरुपकृष्टस्य यावता कालेनैताबुवासनिःश्वासौ भवतः तावान् काल आनप्राणः, उक्तञ्च - "हट्टरस अणवकहरस, निरुवकिस्स जंतुणो एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुति बुचर ||१|| सप्त प्राणा एकः स्तोकः सप्त लोका एको लवः सप्तसप्ततिसङ्ख्या लवा एको मुहूर्त्त उक्तन्थ "सन्त पाणि से धोबे, सत्त श्रोवाणि से लंबे लवाण सत्तहन्तरिए, एस मुहुत्ते विषाहिए || १ ||" अमिश्च मुहूर्त्त यथावलिकान्यिन्ते तदा तासामेका कोटी समपक्षिा: समसप्ततिः सहस्राणि द्वे शते पोडशाधिके, उक्त – “एगा कोडी सत्तट्ठि लक्खा सत्तत्तरी सहस्सा य दो य सया सोलहिया अवलियाणं मुहुर्त्तमि ||१||” उच्छासाच मुहूर्त्ते त्रीणि सहस्राणि सप्त शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि उक्तञ्च - “तिनि लहस्सा सप्त व सवाई देवतारं व ऊसासा । एस मुहुत्तो भणिओ सब्वेहिं अनंतनाणीहिं ॥ १ ॥ त्रिंशन्मुहूर्त्तप्रमाणोऽहोरात्रः, पञ्चदशाहोरात्रः पक्षः, द्वौ पक्षी मासः, दौ मास ऋतु से चपटू, तद्यथा प्रावृ वर्षारात्र: शरद् हेमन्त: वसन्तः ग्रीष्म, तत्र ( आषाढाचा ऋतव' इति वचनाद् आषाढ श्रावणौ प्रावृद भाद्रपदाश्वयुजी वर्षांरात्रः कार्त्तिकमार्गशीर्षौ शरद पौषमाथी हेमन्तः फाल्गुन चैत्रौ वसन्तः वैशाखrat asम:, ये वभिद्धतिवसन्ताचा ऋतप: ( इति वसन्तः ) ग्रीष्मः प्रावृारी हेमन्त शिशिर इति पञ्छिति तद्प्रमाणमवसातत्र्यं, जैनमतोत्तीर्णत्वात् त्रय ऋतवोऽयनं द्वे अपने संवत्सरः, पञ्चसंवत्सरं युगं, विंशतिर्युगानि वर्षशतं इद्दाहोरात्रे मासे वर्षे वर्षशते चोच्छ्रासपरिमाणमेवं पू 1 3 For P&False City ३ प्रतिपसी मानुषोउत्तराधि० ~ 691 ~ उद्देशः २ सू० १७८ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप् - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ॥ ३४४ ॥ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ----------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ----------- मूलं [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८] दीप अनुक्रम [२८७] विसूरिभिः संकलितम्-"एगं च सयसहस्सं ऊसासाणं तु तेरस सहस्सा । नउयसएणं अहिया दिवस निर्सि होति विन्नेया ।। १॥ हा(११३९०) । मासेऽपि य ऊसासा लक्खा तित्तीस सहस पणनउई । सत्त सयाई जाणसु कहियाई पुध्वसूरीहिं ।।२।। (३३९५७००)।। दचत्तारि य कोडीमो लक्खा सत्तेव होंति नायव्वा । अडयालीससहस्सा चारसया होति बरिसेणं ।। ३ ।।" (४०७४८४००)। दृश | वर्षशतानि वर्षसहसं शतं वर्पसहस्राणां वर्षशतसहस्रं चतुरशीतिः वर्षशतसहस्राणि एक पूर्वाङ्ग, चतुरशीतिः पूर्वाङ्गशतसहस्राणि एकं | पूर्व, चतुरशीतिः पूर्ववर्षशतसहस्राणि एकं त्रुटिताङ्गं, चतुरशीतिः श्रुटिताङ्गशतसहस्राणि एकं त्रुटितं, चतुरशीतियुटितशतसहस्राणि | |एकमडडार, चतुरशीतिरडताङ्गशतसहस्राणि एकमडर्ड, चतुरशीतिरडडशतसहस्राणि एकमववाहं, चतुरशीतिरववाशतसहस्राणि एकमवयं, चतुरशीतिरववशतसहस्राणि एक दूहुकाङ्ग, चतुरशीति हुकाङ्गशतसहस्राणि एकं हूहुकं, चतुरशीतिहूँहुकशतसहस्राणि ए-1 कमुत्पलाङ्ग, चतुरशीतिरुत्पलाङ्गशतसहस्राणि एकमुत्पलं, चतुरशीतिरुत्पलशतसहस्राणि एकं पद्माङ्ग, चतुरशीतिः पद्माङ्गशत सह-13 इस्राणि एकं पद्म, चतुरशीति: पद्मशतसहस्राणि एकं नलिनाज, चतुरशीतिर्नलिनाङ्गशतसहस्राणि एकं नलिनं, चतुरशीतिर्नलिनशत सहस्राणि एकमर्थनिकुराङ्ग, चतुरशीतिरर्थनिकुराङ्गशतसहस्राणि एकमर्थनिकुर, चतुरशीतिरर्थनिकुरशतसहस्राणि एकमयुतानं. चतुकारशीतिरयुताङ्गशतसहस्राणि एकमयुतं, चतुरशीतिरयुतशतसहस्राणि एकं प्रयुताई, चतुरशीतिः प्रयुताङ्गशतसहस्राणि एकं प्रयुतं, | चतुरशीतिः प्रयुतशतसहस्राणि एकं नयुताङ्ग, चतुरशीतिनबुताङ्गशतसहस्राणि एक नयुतं, चतुरशीतिर्नयुत्तशतसहस्राणि एफ चुलि-4 काहं, चतुरशीतिश्चलिकाङ्गशतसहस्राणि एका चूलिका, चतुरशीतिचूलिकाशतसवाणि एक शीर्षप्रहेलिका, चतुरशीतिः शीर्षनहेलिकाङ्गशतसहस्राणि एका शीर्षप्रहेलिका, एतावानेव गणितस्य विषयोऽन: परमोपमिकं कालपरिमाणं, एतदेवाह-पल्योपममिति द्रा, ~692~ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [9] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८] दीप अनुक्रम [२८७] श्रीजीवा- पस्योपमस्वरूप सञ्चहणिटीकातोऽवसातव्यं, तत्र सविस्तरमभिहितलान , पल्योपमानां दश कोटीकोटा एकं सागरोपमं, दश कोटी-16 प्रतिपत्ती जीवाभि कोट्यः सागरोपमाणां सुषमसुषमागरक क्रमेण एकाऽवसर्पिणी, सागरोपमाणां दश कोटीकोट्य एवं दुष्पमदुष्पमाघरककमेणैकोत्स- अन्तर्बहिमलयगि- पिणी, तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, अन्यत्रैवरूपकालपरिमाणासम्भवान् , कालद्रव्यस्य मनुष्यक्षेत्र एव भावात् ॥ 'जावं च श्चन्द्रादीरीयावृत्तिःणमित्यादि, यावचन्द्रोपरागा इति वा सूर्योपरागा इति वा चन्द्रपरिवेषा इति वा सूर्यपरिषेषा इति वा प्रतिचन्द्रा इति वा प्रतिसूर्या 31 नांवों॥३४५ ५ इति वा इन्द्रधनुरिति वा उदकमत्स्या इति वा कपिहसितमिति वा, एतेषामर्थः प्राग्वत्तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, अन्यत्रैषाम-तापपन्नत्यादि IMभाव इति भावः ।। 'जावं च ण'मिसादि, यावचन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्यान् , णमिति वाक्याल-II उद्देशः२ बारे अभिगमन-सर्ववाहान्मण्डलादभ्यन्तरप्रवेशनं निर्गमन-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाबहिर्गमनं वृद्धि:-शुक्लपक्षे चन्द्रमसो वृद्धिप्रतिभासः 151सू० १७९ निर्वृद्धि:--वृद्धेरभाषः, कृष्णपक्षे चन्द्रमस एव हानिप्रतिभास इति भावः, अनवस्थितं-सन्ततं चारप्रवृत्त्या यत्संखान-सम्यगवस्थानमनवस्थितसंस्थानं, एतेपो द्वन्द्वसैः संस्थितानि-यथायोगं व्यवस्थितानि अभिगमननिर्गमनवृद्धिनिर्वृद्धवनवस्थितसंस्थानसंस्थितानीति | व्याण्यायन्ते तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, अन्यत्र चन्द्रादीनामभिगमनाथसम्भवात् ।। अंतो णं भंते! मणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगहगणणखत्ततारारूवा ते णं भदन्त ! देवा किं उडोववण्णगा कप्पोववष्णगा विमाणोववपणगा चारोववषणगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावणगा?, गोयमा! ते णं देवा णो उहोववष्णगा णो कप्पोववष्णगा विमाणोवयणगा ।।३४५॥ चारोववण्णागा नो चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावण्णगा उडमुहकलंबुयपुषफसंठाणसंठि **443-44-45% अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~693~ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [१], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: R प्रत सूत्रांक [१७९] तेहिं जोयणसाहस्सितेहिं तावखेत्तेहिं साहस्सियाहिं बाहिरियाहिं वेउब्वियाहिं परिसाहिं महयाहयनहगीतवादिततंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडप्पवादितरवेणं दिव्वाई भोगभोगाईमुंजमाणा महया उक्कडिसीहणायवोलकलकलसहेण विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणा अच्छयपब्वयरायं पदाहिणावत्तमंडलयारं अणुपरियडंति ॥ तेसि भंते! देवाणं इंदे चवति से कहमिदाणिं पकरेंति?, गोयमा! ताहे चत्तारि पंच सामाणिया तं ठाणं उवसंपजित्ताण विहरंति जाव तत्थ अन्ने इंदे उववण्णे भवति ॥ इंदट्ठाणे णं भंते ! केवतियं कालं विरहिते उववातेणं?, गोयमा! जहपणेणं एकं समयं उक्कोसेणं छम्मासा ।। बहिया णं भंते! मणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगहणक्वत्ततारारूवा ते णं भंते! देवा किं उड्डोववण्णगा कप्पोववरणगा विमाणोचवण्णगा चारोववष्णगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावण्णगा?, गोयमा! ते णं देवा णो उहोवव. पणगा नो कप्पोववपणगा विमाणोववन्नगा नो चारोववष्णगा चारद्वितीया नो गतिरतिया नो गतिसमावणगा पकिगसंठाणसंठितेहिं जोयणसतसाहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहिं साहस्सियाहि य बाहिराहिं वेचब्बियाहिं परिसाहिं महताहतणगीयवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई मुंजमाणा सुहलेस्सा सीयलेस्सा मंदलेस्सा मंदायरलेस्सा चित्तंतरलेसागा कूडा इव ठाणहिता अण्णोपणसमोगाढाहिं लेसाहिं ते पदेसे सब्बतो समंता ओभासेंति उज्जोवेंति तवंति पभासेंति ॥ दीप OCKAGALOCALCIENCAKACANCA500 अनुक्रम [२८८] ~694~ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: अन्तर्वहि प्रत सूत्रांक [१७९] श्रीजीवा जया णं भंते! तेसिं देवाणं इंदे चयति से कहमिदाणिं पकरेंति ?, गोगमा! जाव चत्तारि ३ प्रतिपत्ती जीवाभि पंच सामाणिया तं ठाणं उपसंपजित्ताणं विहरंति जाव तस्थ अण्णे उबवणे भवति । मलयगि इंदट्ठाणे णं भंते! केवतियं कालं विरह ओ उबवातेणं?, गोयमा! जहण्णेणं एक समय उकोसेणं |श्चन्द्रादीरीयावृत्तिः छम्मासा ।। (सू०१७९) नां ऊचा॥३४६॥ 'अंतो णमित्यादि, 'अन्तः' मध्ये णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! मानुपोत्तरस्य पर्वतस्य ये चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारुपास्ने भ- पपन्नत्वादि दन्त ! देवाः किमूडोपपन्ना:?-सौधर्मादिभ्यो द्वादशभ्यः कल्पेभ्य ऊर्द्धमुपपन्ना ड्रोपपन्नाः कल्पेषु-सौधर्मादिषु उपपन्नाः कल्पोप-10 | उद्देशः २ पन्नाः बिमानेपु-सामान्यरूपेषु उपपन्ना विमानोपपन्ना: चारो-मण्डलगत्या परिभ्रमणं तमुपपन्ना-आश्रितवन्तश्वारोपपन्नाः चारस्य- सू० १७९ यथोक्तरूपस्य स्थिति:-अभावो येषां ते चारस्थितिका अपगतचारा इत्यर्थः गती रतिः-आसक्ति: प्रीतियेषां ते गतिरतिकाः, एतेन गतौ रतिमात्र मुक्त, सम्प्रति साक्षाद्गति प्रभयति-गतिसमापन्नाः गतिसमापन्ना:-गतियुक्ताः, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगबानाहगौतम! ते देवा नोडोपपन्नास्तथा चारोपपन्नाचारसहिता नो चारस्थितिकाः, तथा स्वभावतोऽपि गतिरतिकाः साक्षागतियुक्ताश्च, नालिकापुष्पसंस्थानसंस्थितैः 'योजनसाहनिकैः' अनेक योजनसहस्रप्रमाणैस्तापक्षेत्रैः 'साहनिकाभिः' अनेकसहस्र सहयाभिर्वाह्याभिः पर्षद्भिः, अत्र बहुवचनं व्यक्त्यपेक्षया, 'वैकुर्विकाभिः' विकुर्वितनानारूपधारिणीभिः 'महयाहयनटुगीयवाइयतंतीतलतालतुडियधणमु-| इंगपडुप्पवाइयरवेण मिति पूर्ववन् 'दिव्यान्' प्रधानात् भोगाही भोगा:-शब्दादयो भोगभोगास्तान मुजानास्तथा स्वभावतो गतिर-14॥३४६ ॥ दतिकै ह्यपर्पदन्तर्गतैवेवेगेन गच्छत्सु विमानेषु 'उत्कृष्टतः' उत्कर्षवशेन ये मुच्यन्ते सिंहनादादयश्च क्रियन्ते बोलाः, बोलो नाम | दीप अनुक्रम [२८८] 406096 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~695~ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७९] दीप अनुक्रम [२८८] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], प्रतिपत्तिः [३], मूलं [ १७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मुखे हस्तं दस्या महता शब्देन पूत्करणं, यह कलकलो-व्याकुलशब्दसमूहस्तद्रवेण महता समुद्रवभूतमित्र कुर्वाणा मेरुमिति योग:, किंविशिष्टम् ? इत्याह- 'अच्छम्' अतीव निर्मलजाम्बूनदमयत्वात् रनबहुलत्वाब 'पर्वतराज' पर्वतेन्द्र प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलं धारं यथा भवति तथा मेरुमनुलक्षीकृत्य 'परिअडंति' पर्यटन्ति । पुनः प्रभयति - तेसि णं भंते!' इत्यादि तेषां भदन्त ! ज्योतिष्कदे वानां यदा इन्द्रव्यवते तदा ते देवा 'इदानीम्' इन्द्रविरहकाले कथं प्रकुर्वन्ति ? भगवानाह - गौतम! यावञ्चत्वारः पञ्च वा सामानिका देवाः समुदितीभूय 'तत्स्थानम्' इन्द्रस्थानमुपसंपय 'विहरन्ति' तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति, संजातौ शुल्कस्थानादिकपालवत कियन्तं कालं यावत्तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति ? इति चेदत आह-यावदन्यस्तनेन्द्र उपपन्नो भवति । 'इंदाणे ण'मित्यादि, इन्द्रस्थानं भदन्त ! कियन्तं कालमुपपातेन विरहितं प्रज्ञतम् ?, भगवानाह गौतम ! जघन्येनैकं समयं यावदुत्कर्षतः पण्मासान् ॥ 'वहिया ण'मियादि, बहिर्भदस्त! मानुषोत्तरस्य पर्वतस्य ये चन्द्रसूर्यमगणनक्षत्रतारारूपाने भदन्त ! देवाः किमूद्धपपन्ना: ? इत्यादि प्राग्वम् भगवानाह गौतम ! नोपपन्नका नापि कल्पोपपन्नाः किन्तु विमानोपपन्नास्तथा नो चारोपपन्ना: किन्तु चारस्थितिका: अत एव नो गतिरतयो नापि गतिसमापन्नाः 'पट्टिगमंठाणसंठिएहिं 'ति पकेष्टकसंस्थानसंस्थितैर्योजनशतसाहस्रि के रातपक्षेत्रः, यथा इष्टका आयामतो दीर्घा भवति विस्तरतस्तु स्तोका चतुरस्रा च नेवामपि मनुष्यक्षेत्राद्वहिर्व्यवखितानां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्रा व्यायामतोऽनेक योजनशतसमप्रमाणात विस्तरत एकयोजनशतसहस्राणि चतुरस्राणि चेति तैरित्थम्भूतैरातपक्षेत्रैः साहसिकाभिः अनेक सहस्रभिर्वाग्राभिः पद्भिः अत्रापि बहुवचनं व्यक्त्यपेक्षया 'महयाहयेत्यादि यावत्समुद्रवभूतमिव कुर्वन्त इति प्रा खम् कथम्भूता: ? इत्याह- शुभलेश्याः, एतच विशेषणं चन्द्रमसः प्रति, तेन नातिशीततेजसः किन्तु सुखोत्पादहेतुपरमलेश्याका For P&Peale Cinly ~696 ~ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ----------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्ती पुष्करवरपुष्करोदघरुणवरवरुणोदाः उद्देशः२ सू० १८० [१७९] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- इत्यर्थः, मन्दलेश्या, एतग विशेषणं सूर्यान् प्रति, तथा च एतदेव व्याचष्टे-'मन्दातपलेश्याः' मन्दा नात्युष्णखभावा आतपरूपा] जीवाभि लेश्या-रश्मिसातो येषां ते तथा, पुनः कथम्भूताश्चन्द्रादित्या:? इत्याह-'चित्रान्तरलेश्याः' चित्रमन्तरं लेश्या च येषां ते तथा, मलयगि-हाभावार्थश्रास्य पदस्य प्रागेवोपदर्शितः, त इन्धम्भूताश्चन्द्रादित्याः परस्परमवगाडाभिर्लेश्याभिः, तथाहि--चन्द्रमसा सूर्याणां च प्रत्येक रीयावृत्तिः लेश्या योजनशतसहसप्रमाणविस्तारा, चन्द्रसूर्याणां च सूचीपतया व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पञ्चाशद् योजनसहस्राणि, ततश्चन्द्र-14 प्रभासम्मिाः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभासम्मिश्नाश्च चन्द्रप्रभाः इतीत्थं परस्परमवगाढाभिलेश्याभिः कूटानीव-पर्वतोपरिव्यवस्थित शिस्त्ररा-15 ॥३४७॥ णीव 'स्थानस्थिताः' सदैवैकन खाने स्थितास्तान् तान् प्रदेशान् स्वस्खप्रत्यासन्नान् उद्योतयन्ति अवभासयन्ति तापन्ति प्रकाश-15 यन्ति ।। 'तेसि णं भंते ! देवाणं जाहे इंदे चयई'यादि प्राम्यन् ।। पुक्खरवरपणं दीवं पुक्खरोदे णामं समुद्र बट्टे वलयागारसंठाणसंठिते जाव संपरिक्विवित्ताणं चिट्ठति ॥ पुक्खरोदे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चकबालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवणं पण्णसे?, गोपमा! संखेजाई जोयणसयसहस्साई चकवालविक्खंभेणं संखेजाई जोयणसयसहस्साई परिक्वेवेणं पपणत्ते ॥ पुक्खरोदस्स णं समुहस्स कति दारा पणत्ता?, गोयमा! चत्तारि दारा पपणत्ता तहेव सवं पुक्खरोदसमुहपुरस्थिमपरंते वरुणवरदीवपुरस्थिमद्धस्स पचत्थिमेणं एस्थ णं पुक्खरोदस्स विजए नाम दारे पपणत्ते, एवं सेसाणवि । दारंतरंमि संखेजाई जोयणसयसहस्साई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । पदेसा जीवा य तहेव । से केणट्टेणं भंते ! एवं बुचति?-पुक्ख [२८८] ॥३४७॥ JaElicanA अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् पुष्करोद-आदि समुद्राधिकारः आरभ्यते ~ 697~ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------- उद्देशक: (द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८०] दीप अनुक्रम [२८९-२९१] रोदे समुद्दे २१, गोयमा! पुक्खरोदस्स णं समुदस्स उदगे अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे पगतीए उदगरसेणं सिरिधरसिरिप्पभा य दो देवा जाव महिहीया जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, से एतेण?णं जाव णिचे । पुक्खरोदे णं भंते! समुद्दे केवतिया चंदा पभासिसुवा ३१, संखेजा चंदा पभासेंस वा३ जाव तारागण कोडीकोडीउ सोमेसु वा ३॥ पुक्खरोदे णं समहे वरुणवरेणं दीवेणं संपरि०वहे वलयागारे जाव चिट्ठति, तहेव समचकवालसंठिते केवतियं चकवालविक्खंभेणं? केवइयं परिक्वेवणं? पण्णत्ता, गोयमा! संबिजाई जोयणसयसहस्साई चकवालविखंभेणं संग्वेजाई जोयणसतसहस्साई परिक्वेवेणं पण्णत्ते, पउमवरयेदियावणसंडवण्णओ दारंतरं पदेसा जीवा तहेव सव्वं ॥ से केणतुणं भंते! एवं बुच्चइ वरुणवरे दीवे २१, गोयमा! वरुणवरे पं दीवे तत्व २ देसे २ तहिं २ बहुओ खुड्डा खुड्डियाओ जाव बिलपंतियाओ अच्छाओ पत्तेयं २ पउमवरचेइयापरि० वण वारुणिवरोदगपडिहस्थाओ पासातीलाओ४, तासु णं खुड्डाखुड्डियासु जाव बिलपंतियासु बहवे उप्पायपव्वता जाव खडहडगा सब्वफलिहामया अच्छा तहेव वरुणवरुणप्पभा य एत्थ दो देवा महिड्डीया परिवसंति, से नेणतुणं जाव णिचे । जोतिसं सव्वं संखेजगणं जाव तारागणकोडिकोडीओ। वरुणवरण्णं दीवं वरुणोदे णामं समुद्दे बट्टे बलया. जाब चिट्ठति, समचक्क विसमचक्कवि तहेव सव्वं भाणियव्वं, विक्खंभपरिक्षेवो संखिजाई ~698~ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशक: [(विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः। [१८०] ॥३४८॥ जोयणसहस्साई दारंतरं च पउमवर वणसंडे पएसा जीचा अट्ठो गोयमा! वारुणोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहा नामए चंदप्पभाइ वा मणिसिलागाइ वा घरसीधुवरवारुणीह या पसासवेइ वा पुपकासवेइ वा चोयासवेइ वा फलासवेइ वा महुमेराइ वा जातिप्पसमाइ वा खार सारेइ वा मुद्दियासारेर वा कापिसायणाइ वा सुपक्कग्वोयरसेह वा पभूतसंभारसंचिता पोसमाससतभिसयजोगवत्तिता निरुवहतविसिट्टदिन्नकालोक्यारा सुधोता उधोसग (मयपत्ता) अट्टपिट्टपुट्ठा (पिट्ठ निहिजा) [मुखईतवरकिमदिषणकद्दमा कोपसन्ना अच्छा वरवारुणी अतिरसा जंबूफलपुट्ठवन्ना सुजाता ईसिउट्ठावलंबिणी अहियमधुरपेजा ईसासिरत्तणेसा कोमलकबोलकरणी जाव आसादिता विसदिता अणिहुयसंलावकरणहरिसपीतिजणणी संतोसततषियोकहावधिभमविलासबेल्लहलगमणकरणी विरणमधियसत्तजणणी य होति संगामदेसकालेकयरणसमरपसरकरणी कढियाणविलुपयतिहिययाण मउयकरणी य होति उववेसिता समाणा गर्ति स्थलावेति य सयलंमिवि सुभासवुप्पालिया समरभग्गवणोसहयारसुरभिरसदीविया सुगंधा आसायणिजा विस्सायणिजा पीणणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सम्विदियगातपल्हायणिवा] आसला मांसला पेसला (ईसी ओढावलंबिणी ईसी तंवच्छिकरणी ईसी चोच्छेया कटुआ) वणेणं उधवेया गंधेणं उववेया रसेणं उववेया फासेणं उववेया, भवे एयारूवे सिया?, गोयमा! प्रतिपत्ती पुष्करवरपुष्करोदवरुणवरवरुणोदा उद्देशः२ सू०१८० । दीप अनुक्रम [२८९-२९१] I ॥३४८॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~699~ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ---------- मूलं [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८०] AC- %AR दीप अनुक्रम [२८९-२९१] नो इणढे समझे, वारुणस्स णं समुदस्स उदए एत्तो इट्टतरे जाव उदए। से एएणटेणं एवं बच्चनि तत्थ णं वाणिवाकणकता देवा महिडीया० जाव परिवसंति, से एगणद्वेणं जाव णिचे, सव्यं जोइससंखिज्जे केण नायव्वं वामणवरे णं दीवे कइ चंदा पभासिसुवा ३१ ॥ (सू० १८०) 'पुक्खरवरपण'मित्यादि, पुष्करवर णमिति वाक्यालकारे द्वीपं पुष्करोदो नाम समुद्री पृत्ती वलयाकारसंखानसंस्थितः समन्तासंपरिक्षिप्य तिष्ठति ।। 'पुक्सरोदे गं भंते ! समुदे कि समचक्रवालमंठिए' इत्यादि प्राग्वन् । सम्पति विष्कम्भादिप्रतिपादनार्थमाह | --'पुक्सरोदे णमित्यादि, पुष्करोदो भदन्त ! समुद्रः कियञ्चक्रबालविष्कम्भेन कियपरिक्षेपण प्रशनः , भगवानाह-गौतम ! ससोयानि योजनशतसहमाणि चक्रवालविकन्भेन सल्ययानि योजनशतसहस्राणि परिशेषेण प्रज्ञतः । 'से णमित्यादि, स पुष्करोदः । समुद्र गल्या पद्मवरयेनिकया सामर्यादपयोजनोच्छ्रयजगत्युपरिभाविन्या एकेन बनवण्डेन सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्तः ।। 'पुक्खपारोदसणं भंते !' इत्यादि पुकदम्ब भदन्त : समुद्रस्य कति द्वाराणि प्रज्ञतानि ?, भगवानाह-गौतम' चत्वारि द्वाराणि प्रामामि नद्यथा-विजयं वैजयन्तं जयन्तमा पराजित, क भदन्त ! पृष्करोदसमुद्रम विजयं नाम द्वारं प्रतरम्', भगवानाह-गौतम पुष्करो! दसमुद्रम्य पूपियन्ते ऽणापर । परम्य पश्चिमदिशि, अत्र पुस्करोदम मुहम विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, सच जम्यूतीपविजयद्वारबद्धतय, नबरं राशनी अम्पमिभ पुस्करोरे समुद्रे । 'कहि मितादि, क भदन्त पुस्करोदसमुद्रस्य बैजयन्तं नाम द्वारं प्रजाम', भगवाना--गौतम गरोनस मुद्रस्य दक्षिणपर्यन्तेऽगवरडीच भिजाईयोत्तरतोऽत्र पुष्करोदममुद्रा बैजयन्तं नाम द्वार प्रान् ।। जी०५९ I भदन्त ! पुष्करोदसमुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञतम् , भगवानाह-गौतम ! पुष्करोदसमुद्रस्य पश्चिमपर्यन्तेऽरुणवरदीपप निमाईमा 4. ~ 700~ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशकः [(विप्-समुद्र)], - ---------- मूलं [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८०] दीप अनुक्रम [२८९-२९१] श्रीजीवा- पूर्वतोऽत्र पुष्करोदसमुद्रस्य जयन्तं नाम द्वार प्रजन, नदपि जम्बूद्वीपगतजयन्तद्वारयत , नवराजधानी अन्यग्मिन पुष्करोदसमुद्रे प्रतिपनी जीवाभि क हि णमियादि, क भदन्त ! पुष्करोदसमुद्रस्यापराजिनं नाम द्वारं प्रशनम?, भगवा नाहगौतम! पुष्करोदसमुद्रस्योत्तरपर्यन्ते- पुष्करमलयगि- रणवर द्वीपस्य दक्षिणतोऽत्र पुष्करोदसमुदम्यापराजिनं नाम द्वारं प्रज्ञाप, एनपि जम्बदीपरासापराजितद्वारचन्नक्तव्यं, नवरं राजधानी वामा: रीयावृत्तिःह अन्यस्मिन् पुष्करोदसमुद्र ।। 'पुक्खरोदसण मिलयादि, पुष्करोदस्य भदन्त ! समुद्रस्य द्वारश्य द्वारम्य परस्परगन्तरमेतन् कियन् 'अवा- उद्देशः२ धया' अन्तरित्या व्याघातरूपया प्रजनम् ?, भगवानाह-गौतम! सो बानि योजनालसहमहाणि द्वारस्य द्वारम्ब च परम्परमवाधयाऽन्तरंग०१८० ॥३४९॥ ४ प्रापम् ।। 'पएम'यादि प्रदेशजीबोषपातसूनचतुष्यं तथैव पूर्वबन , नर्णयम---पुखरेयम्म गांभंते! ममुहम्स पाएमा अरुणवरं दीवं पहा?, हता! पुट्टा, ने भंते ! पुक्सरोदे समुदे रमणावरे दीये?, गोयमा पुश्वरोए णं यमुटे नो अमणाबरे दीवे । अरुणवरस्स भंते ! दोबस पाएमा पुक्यरोनणं समुदं पुड्डा ?, ता पुढा, नेणं भंते ! कि अगणारे दी पुरुबरोदे समुद्दे , गोयमा ! अरुणवरे | पण दीये नो खलु ते पुश्वरोण समुदे । पुक्खरोए णं भंते! समुहे जीवा उदाइत्ता अजयबरे दीबे पचायति', गोयमा ! अरथेगइया | पभायंति अन्धेगइया नो पचायति । अरुणवरे, गं भने! नीचे जीवा उदाइना पुस्खरोदे ममुरे." इनि, (पुस्करोदान्बर्थ) भगवानाह गौतम' पुष्करोदस्य णमिति पूर्ववन् समुद्रस्योदकम 'अच्छम्' अनाविलं पथ्यं न रोगहेनुः "जात्यं न विजालिमन् 'तनु' लघुपरिणामं | ४ास्फटिकवर्णाभं स्फटिकरमच्छायं प्रफुलोदकरसं प्रज्ञ, श्रीधर श्रीप्रभौ चात्र-पुष्करोदे समुद्रे ही देवी महर्तिकी यावत्पल्योपम-18 सम्धितिको परिवसतः, ततस्ताभ्यां सपरिवाराभ्यां गगनमिव चन्द्रादित्याभ्यां प्रहनक्षत्रादिपरिवारोपेताभ्यां तदुरफमवभासत इति, पु-18 कर भिवोदकं यस्थासौ पुष्करोदः, तथा चाह-से एएणतुण'मित्यायुपसंहारवाक्यम् । “पुग्घरोए णं भने! समुद्दे कइ चंदा पभा-| * * अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 701~ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८० ] दीप अनुक्रम [ २८९-२९१] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८० ] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित सिसु ?' इत्यादि पाठसिद्धं सर्वत्र सयेयमय निर्वचनभावात् ॥ 'पुक्खरोदणं समुद्द मित्यादि, पुष्करोदं णमिति पूर्ववत् समुद्र वरुणवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति । अत्रापि पुष्करोदसमुद्रवचक्रवालविष्कम्भपरिक्षेपवेदिका वनखण्डद्वारतदन्तरप्रदेश जीवोपपात वक्तव्यता वक्तव्या ॥ सम्प्रति नामान्यर्थमभिधित्सुराह - 'से केणद्वेणमित्यादि, | अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते वरुणवरो द्वीपो वरुणवरो द्वीपः ? इति भगवानाह - गौतम! वरुणवरस्य द्वीपस्य तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे वहव: 'खुट्टा खुड्डियाओ जाव विलपतियाओ यावत्करणान् पुक्खरणीओ गुंजालियाओ दीहियाओं सराओ सरपंतियाओं सरसरपंतियाओ विलपतीओ अच्छाओ जाव महुररसणिचतात इति यावत्करणात् 'सण्हाओ रयणमयकुलाओ समतीराओ बइरामयपासाणाओ तवणिजतलाओ सुवणसुज्झरययवालुवाओ वेरुह्रियमणिफालियपडलपचोयडाओ सुहोयाराओ सुद्दत्ताराओ नाणामणितित्यसुबद्धाओ चाउकोणाओ अणुपुब्बसुजायवत्पगंभीरसीयलजलाओ संछन्नपत्तभिसमुणालाओ बहुलुप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियाओ पुंडरीयसयपत्तसहस्स पत्त के सरफुल्लोव चियाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलानो अच्छविमलसलिलप डिपुरणाओ पडिह स्थगभमन्तमच्छ कच्छ भ अणेगस उणगणनिहुणविचरियस टुण्णइयम हुरसरनाइयाओ” अस्य व्याख्यानं प्राग्वत् । ' वारुणीवरोद्गपडिह त्थाओ' इत्यादि, वारुणिवरे च वरवारुणीव यद् उदकं तेन 'पडिहत्थाओं' प्रतिपूर्णाः पत्तेयं पत्तेयं पमवरवेड्या परिक्खित्ताओ पासाईयाओ दरिसणिजाओ अभिरुवाओ पढिरुवाओं' इति पाठसिद्धम् । “तिसोवानतोरणा' इति तासां त्रिसोपानानि तोरणानि च प्रत्येकं वक्तव्यानि तानि चैवम् — “तासि णं खुट्टाखुड़ियाणं दावीणं पुक्खरिणीणं दीहियाणं गुंजालियाणं सरसियाणं सरपंतियाणं सरसरपंतियाणं विलपतियाणं पत्तेयं २ चउद्दिसिं चचारि तिसोवाणपडिरुवगा पत्ता, तेसि णं तिसोपानपङिरूवगाणं इमे एारुबे For P&Praise Cinly ~702~ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशकः [(विप्-समुद्र)], - ---------- मूलं [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८०] -१ १० दीप अनुक्रम [२८९-२९१] श्रीजीवा- वण्णावासे पन्नत्ते, संजहा-वइरामया नेमा रिद्वामया पइट्ठाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुपमया फळगा बइरामया संधी लोहियक्व- प्रतिपत्तो जीवाभि मइओ सूईओ नाणामणिमया अवलंबणा अवलंवणवाहाओ पासाईया दरसणिजा अभिरुवा पडिरुत्रा, तेसि पं तिसोवाणपडिरूवगाणं 31 पुष्करमलयगि-16 |पुरतो पत्तेयं २ तोरणा पण्णता, ते ण तोरणा नाणामणिमया नाणामणिमएमु खंभेसु उवनिविट्ठा विवि मुत्ततरोबचिया विविहतारारू- वारणाः रीयावृत्तिः वोववेया ईहामिगउसभतुरगनरमगरविहगबालगकिन्नरककसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवरखेड्यापरिंगयाभिरामा | उद्देशः२ विजाहरजमलजुगलजंतजुत्ताविव अञ्चीसहस्समालिणीया रुबगसहस्सकलिया भिसमाणा भिभिसमाणा चक्बुहोयणलेसा सुहफासासू० १८० सस्सिरीया पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरुवा, तेसि ण तोरणार्ण उवरि अट्ठह मंगलगा पन्नत्ता, तंजहा-सोस्थियसिरिवछनंदियावत्तवद्धमाणगमदासणकलसमल्छदापणा सन्धरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । तेसि ण तोरणाणं उबार वहवे किण्ह-11 चामर झवा नीलचामरझया लोहियचामरझया हालिद चामरज्झया सुकिल्लचामरज्झ या अच्छा सहा रुप्पपट्टा बरामयदंडा जल-18 यामलगंधिया मुरम्मा पासाईया दरसणिजा अभिल्या पतिरूवा । तेसि णं तोरणाणं उबरि बहवे छत्ताइन्छता पड़ागाइपडागा घंटा-1 जुयला उप्पलहत्थया कुमुयहत्वया नलिणहत्थगा सुभगहत्थगा सोगंधियहत्यगा पोंडरियहत्थगा महापोंडरीयहत्यगा सतपत्तहत्वगा| सहस्सपत्तहस्थगा सयसहस्सपत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पका निकडच्छाया | सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासाईया दुरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा ।” अस्य व्याख्या पूर्ववत् । तासि जे खुट्टाखुहियाणे वावीण युस्खरिणीर्ण जाव बिलपतिवाणं तस्य तस्थ देसे तहि तहिं वहये उपायपवगा निययपन्वयगा जगतीपषयगा दारुपायगा मंडगा|PIR५॥ दगमंडवगा दकमालगा दगपासाया उसङगा खडखडगा अंदोलगा पक्खंदोलगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिम्बा । इनि प्रा - --- - 9%84- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 703~ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८० ] दीप अनुक्रम [ २८९ -२९१] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित मूलं [१८० ] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ग्वत् । 'तेसु णं पब्वयगेसु जाव पक्खंदोलगेसु बहवे हंसासणाई उन्नयासणाई पणयासणाई दीहासभाई भद्दारुणाई पक्लासणाई मगरासणाई पउमासणाई सीहासणाई दिसासोबत्थियासणारं सव्वकालिया मयाई अच्छाई जाव पडिरूवाई । वरुणवरस्स णं दीवस्स तत्थ तस्थ देसे तहिं नहि बहवे आलीघरगा मालीघरगा केवइपरगा अच्छणघरगा पेच्छणपरगा मणघरगा पसाहणघरगा गतघरगा मोहणपरगा विश्वहरगा मालघरगा जालघरगा कुसुमघरगा सञ्वकालियामया अच्छा जाव पडिरूवा । तेसु णं आटीचरएस जाव कुसुमघरपसु बहवे हंसासणाई जाब दिसासोवत्थियासणाई सम्वफालियामयाई अच्छाई जाब पडिवाई। वरुणवरे णं दीवे णं तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे जातिमंडवगह जूहिया मंडवणा मल्लिया मंडवा नवमालिया मंडवगा वासंतियमंडवगा दहिवासमंडवगा सूरुलियामं डवगा तंबोलमंडवगा अल्फाया मंडवगा अइमुत्तमंडवगा मुद्दियामंडवगा मालुया मंडवगा सामलयामंडवगा सव्यफालिद्दामया अच्छा जाव पडिल्वा । तेसु णं जाइमंडवे जाव सामलयामंडवे बहुवे पुढबिसिलापट्टगा पत्ता, अध्येगइया हंसासणसंठिया अप्पेगइया कोंचा सणसंठिया जाव अप्पेगइया विसासोत्थियासणसंठिया अपेगइया वरस्याविसिह ठाणसंठिया सव्वालियामया अच्छा जाव पड़िरुवा, तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति सर्वति चिद्वेति निसीयंति यति रमंति ललंति कीडंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरकंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं कलाणाणं फलवित्तिविसेसे पचणुभवमाणा विहरंति' एतत्सर्वं प्राग्वद् व्याख्येयं नवरं पुस्तकेष्वन्यथाऽन्यथा पाठ इति यथाऽवस्थित पाठप्रतिपत्यर्थ सूत्रमपि लिखितमस्ति तदेवं यस्माद्वरवारुणीवात्र वाप्यादिपूदकं तस्मादेव द्वीपो वरुणवरः, अन्यथ वरुण वरुण चात्र वरुणवरे द्वीपे देवो महर्द्धिको यात्ययोपमस्थितिको परिवसतस्तस्माद्वरुणवरोधरुणदेवप्रधानः, तथा चाह - 'से एएणद्वेग' मित्यादि । चन्द्रादिप्रतिपादनार्थमाह- 'वरुणवरे णं दीवे कइ चंदा पभासिसु इत्यादि For P&Praise Cly ~704~ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८०] दीप अनुक्रम [ २८९ -२९१] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ४ ॥ ३५१ ॥ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८० ] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पाठसिद्धं सर्वत्र सङ्ख्यतयाऽभिधानात् || 'वरुणवरणं दीवमित्यादि, वरुणवरमिति पूर्ववत्, वरुणोदः समुद्रो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति, यथैव पुष्करोदसमुद्रस्य वक्तव्यता तथैवास्यापि यावज्जीवोपपातसूत्रद्वयम् ॥ सम्प्रति नामनियन्धनमभिधित्सुराह - 'से केणट्टेण' मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते वरुणोः समुद्रः समुद्रः ? इति, भगवानाह गौतम ! वरुणोदस्य समुद्रस्योदकं सा लोकप्रसिद्धा यथा नाम 'चन्द्रप्रभेति वा' चन्द्रस्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा-सुराविशेषः, इतिशब्द उपमाभूतवस्तुपरिसमातियोतकः, वाशब्दः समुच्चये, एवमन्यत्रापि मणिशलाकेच मणिशलाका वरं च तत्सी च २ वरा चासौ वारुणी च वरवारुणी, घातकीपत्ररससार आसवः पत्रासत्रः, एवं पुष्पासवः फलासवश्च परिभावनीयः, चोयो- गन्धद्रव्यं तत्सारः आसवश्चोयासवः, मधुमेरको लोकादवसातत्र्यौ (मद्य) विशेषौ जातिपुष्पवासिता प्रसन्ना जातिप्रसन्ना, मूलदलखर्जूरसार आसवः खर्जूरसारः, मृद्वीका - द्राक्षा तत्सारनिष्पन्न आसवो मृद्वीकासार: 'कापिशयनं' मद्यविशेषः सुपक्कः-सुपरिपाका गतो यः क्षोदरस- इक्षुरसतन्निष्पन्न आसवः सुपकेभ्रुरसः, अष्टवारपिष्टप्रदाननिष्पन्ना अपिष्ठनिष्ठिता जम्बूफलकालिवरप्रसन्ना सुराविशेषः, उत्कर्षेण मदं प्राप्त उत्कर्षमदप्राप्ता 'अमला' आस्वादनीया 'मांसला' बहला 'पेसा' मनोज्ञा ईषद् ओष्ठमबलस्वते - ततः परमतिप्रकृष्टास्वादगुणरसोपेतत्वान् झटिति परतः प्रयाति ईपदोष्ठावलम्बिनी, तथा ईपत्ताम्राक्षिकरणी तथा ईषत् - म नागू व्यवच्छेदे पानोत्तरकालं कटुका तीक्ष्णेति भाव: एलापवृहद्रव्यसमायोगान, तथा वर्णेनातिशायिना एवं गन्धेन स्पर्शेनोपता 'आस्वादनीया' महतामन्यास्वादयितुं योग्या 'विस्वादनीया' विशेषत आस्वादयितुं योग्या अतिपरमास्वादनीयरसोपेतखानू, दीपयति जाठराग्निमिति दीपनीया 'कुद्वहल' मिति वचनात्कर्त्तर्यनीयप्रत्ययः एवं मदयतीति मदनीया - मन्मथजननी बृहतीति मुंह For P&Praise Cnly ३ प्रतिपत्ती पुष्करवारुणाः उद्देश: २ सू० १८० अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~705~ ।। ३५१ ।। Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८० ] दीप अनुक्रम [ २८९ -२९१] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८० ] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित गीया धातूपचयकारित्वात् सर्वेन्द्रियाणि गात्रं च ग्रहादयतीति सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीया । एवमुक्ते गौतम आह-भगवन्! भवेदे - तत्रयं वरुणोदकसमुद्रस्योदकम् ?, भगवानाह - नायमर्थः समर्थः, वरुणोदस्य णमिति यस्मादर्थे निपातानामनेकार्थत्वात् समुद्रस्योदकम् 'इतः पूर्वस्मात्सुरादिविशेषसमूहादिष्टतरमेव कान्ततरमेव प्रियतरमेव मनोज्ञतरमेव मनआपतरमेवास्वादेन प्रज्ञ, ततो वारुणीबोदकं यस्यासौ वारुणोदः, तथा वारुणिवारुणकान्तौ चात्र वारुणोदे समुद्रे यथाक्रमं पूर्वापरार्द्धाधिपती महर्द्धिको देवो यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः ततो वारुणेवरुणकान्तस्य च सम्बन्धि उदकं यस्यासौ वारुणोदः पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः, तथा चाह - 'से एएणद्वेण' मित्याद्युपसंहारवाक्यं', चन्द्रादिसूत्रं प्राग्वत् ॥ वारुणवरणं समुदं खीरवरे णामं दीवे वट्टे जाव चिह्नति सव्वं संखेजगं विक्वं य परिक्वेवो • जाव अहो, बहूओ खुड्डा० दावीओ जाव सरसरपंतियाओ खीरोदगपडिहत्थाओ पासातीयाओ ४, तासु खुड्डियासु जाव विलपतियासु बहवे उपापचयाः सव्वरयणामया जाव पडिवा, पुंडरीगपुत्रखरता एत्थ दो देवा महिडीया जाव परिवसंति, से एतेणद्वेणं जाव निचे जोतिसं सव्यं संखेजं ॥ खीरवरण्णं दीवं खीरोए नाम समुद्दे वट्टे वलयागारठाणसंहिते जाव परिविवित्ताणं चिति, समचक्रवालसंठिते नो विसमचकवालसंठिने, संखेजाई जोयणस० विक्ख परिक्लेवो तहेव सव्वं जाव अहो, गोयमा । खीरोयस्स णं समुदस्स उदगं [से जहाणामए- सुउसुही मारुपपण अज्जुणतरुण सरसपत्तकोमल अस्थिरगत्तणग्गपोंड गवरुच्छुचारिणीणं लवं For P&Palle Cinly ~706~ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८१] दीप अनुक्रम [२९२] प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगियावृत्तिः ।। ३५२ ।। “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - Ja Ekemon in regoपलककोलग सफलरुक्ख बहुगुच्छ गुम्मकलिन मलट्ठिमधुपयुरपिप्पलीफलितवल्लिवरविवरचारिणीनं अप्पोदगपीत सइरससमभूमिभागणिभवसुहोसियाणं सुप्पेसिनसुहातरोगपरिवज्जिare freeraniti कालप्पसविणीणं वितियततियसामप्पसूताणं अंजणवरगवलबलयजलधरजचं जणरि भमरपभूयसमप्पभाणं कुंडदोहणाणं वद्वत्थीपत्ताण रूढाणं मधुमासकाले संगहनेहो अजारकेव होज तासिं खीरे मधुररसविवगच्छबहुदध्वसंपते पत्तेयं मंदforget आउ] खंडगुडमच्छंडितोववेते रण्णो चाउरंतचक्कवहिस्स उडविते आसायणिले विसायणि पीणणिजे जाव सम्बिदियगातपल्हातणिजे जाव वण्णेणं उवचिते जाव फासेणं, भवे एयारूवे सिया?, णो इणट्टे समट्टे, खीरोदस्स णं से उदर एसो इहपराए चैव जाव आसाएणं पण्णत्ते, विमलविमलप्पभा एत्थ दो देवा महिडीया जाय परिवसंति से तेणद्वेणं संखेज चंदा जाव तारा ॥ ( सू० १८१ ) 'वरुणोदण्ण' मित्यादि, वरुणोदं णमिति पूर्ववत् समुद्र क्षीरवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति, एवं चैत्र वरुणवरद्वीपस्य वक्तव्यता सैवेहापि द्रष्टव्या यावज्जीवोपपातसूत्रम् । सम्प्रति नामान्वर्थमभिधित्सुराह 'से केणट्टेण' मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते क्षीरवरो द्वीपः क्षीरवरो द्वीप: ?, प्रभूतजनोक्तिसङ्ग्रहार्थं वीप्सायां द्विर्वचनं, भगवानाह - गौतम ! क्षीरवरे द्वीपे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे 'बहवो खुट्टाखुड़ियाओ वावीओ' इत्यादि वरुणवरी For P&Praise City ३ प्रतिपत्ती क्षीरवर क्षीरोदौ उद्देशः २ सू० १८२ ~707~ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ॥ ३५२ ॥ www Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------- उद्देशकः [(विप्-समुद्र)], - ---------- मूलं [१८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८१] दीप अनुक्रम [२९२] अपवत्सर्व वक्तव्यं यावत् 'वाणमंतरा देवा देवीओ व आसवंति सयंति जाव विहरंति' नवरमत्र वाप्यादयः झीरोदपरिपूर्णा वक्तव्याः, पर्वताः पर्वतेप्यासनानि गृहकाणि गृहकेष्वासनानि मण्डपका मण्डपकेषु पृथिवीशिलापट्टकाः सर्वरत्रमया वाच्याः शेष तथैव, पुण्डरीकपुष्पदन्ती चात्र क्षीरवरे द्वीपे यथाक्रम पूर्वार्द्धापरार्दाधिपती द्वौ देवौ महर्द्धिको यावत्पस्योपमस्थितिकी परिवसतस्ततो यस्मात्तत्र बाप्यादिपू क्षीरतुल्यं क्षीरक्षीरप्रभौ च तदधिपती देवाविति स द्वीपः क्षीरवरः, तथा चाह-'से एएणद्वेण'मित्यायुपसंहारवाक्यं, चन्द्रादिसून पाम्बत् ॥ 'खीरवरण मित्यादि, श्रीखरं णमिति पूर्ववत् द्वीपं श्रीरोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः । | सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति, शेषा वक्तव्यता क्षीरवरद्वीपस्येव वक्तव्या यावजीवोपपातसूत्रम् ।। सम्प्रति नामनिमित्तमभिधि सुराह-'से केणटेण मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते क्षीरोदः समुद्रः क्षीरोदः समुद्रः ? इति, भगवानाह-गौतम! श्रीरोदस्य समुद्रस्योदकं यथा राक्षश्चक्रवर्तिनश्चातुरक्यं -चतु:स्थानपरिणामपर्यन्तं गोक्षीरं, चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तता च प्रागेत्र व्याख्याता, 'खण्डगुडमत्स्याण्डिकोपनीतं' खण्डगुडमत्स्यउिकाभिरतिशयेन प्रापितरसं प्रयत्नेन मन्दाग्निना कथितम् , अत्यग्निप-] | रितापे वैरस्यापत्तेः, अत एवाह-वर्णेनोपपेतं गन्धेनोपपेतं रसेनोपपेतं स्पर्शनोपपेतम् , आस्वादनीयं विस्वादनीयं दीपनीयं यर्पणीयं मदनीयं बृहणीय सर्वेन्द्रियगानप्रहादनीयमिति पूर्ववत् , एवमुक्ते गौतम आह-'भवे एयारूबे भवेत्क्षीरसमुद्रस्पोदकमेताइपम् ? भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः, क्षीरोदस्य यस्मात्समुद्रस्योदकम 'इतः' यथोक्तरूपारक्षीरादिष्टतरमेव यावन्मनआपतरमेवावाप्रदेन प्रज्ञ, विमलविमलप्रभौ च यथाक्रम पूर्वाधीपसर्बाधिपती द्वौ देवी महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः, ततः क्षीरमि RSCRCAM ~ 708~ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८१] प्रतिपनी धृतवरतोदक्षोदवरक्षो दोदाः 6 उद्देशः२ सू. १८२ - दीप श्रीजीवा-1 गोदकं यस्य श्रीरवनिर्मलस्वभावयोः सुरयोः सम्बन्धि उदकं यत्रेति वा क्षीरोदः, तथा चाह-से एएणद्वेण मित्यादि गतार्थम् । जीवाभि सम्प्रति चन्द्रादित्यसायाप्रतिपादनार्थमाह-खीरोए णं भंते ! समुहे' इत्यादि सुगमम् ।। मलयगि खीरोदपणं समुदं घयवरे णामं दीचे वडे वलयागारसंठाणसंठिते जाव परिचिट्ठति समचकवाल. रीयावृत्तिः नो विसमा संखेजविक्वंभपरि० पदेसा जाव अट्ठो, गोयमा! घयवरेणं दीवे तस्थ २ यहवे खुड्डाखु ड्डीओ वावीओ जाव घयोदगपडिहस्थाओ उप्पायपव्वगा जाव खडहद सब्वकंचणमया अच्छा जाव पडिरूवा, कणयकणयप्पभा एत्थ दो देवा महिड्डीया चंदा संखेजा ॥ घयवरपणं दीवं च घतोदे णाम समुद्दे वहे वलयागारसंठाणसंठिते जाव चिट्ठति, समचक तहेव दारपदेसा जीवा य अट्ठो, गोयमा ! घयोदस्स णं समुदस्स उदए से जहा. पप्फुल्लसल्लइविमुक्कलकपिणयारसरसवसुविबुद्धकोरेंटदामपिडिततरस्स निद्धगुणतेयदीवियनिरुवहयविसिद्धसुंदरतरस्स सुजायदहिमाहियतद्दिवसगहियनवणीयपडवणावियमुक्कहियउद्दावसजवीसंदिपस्म अहियं पीवरसुरहिगंधमणहरमहुरपरिणामदरिसणिजस्स पत्थनिम्मलसुहोवभोगस्स सरयकालंमि होज गोचतव टीकामूलपाठयोमहद्वैपम्पमत्र । प्रफुल्लशलकी विमुत्कलकर्णिकारसर्षपविक्षुद्धकोरण्टकदापिद्धिततरा निग्धगुणतेनोदीमत्य निरुपहत विशिष्टसुन्दरतरस्य मुजातदधिमथने तदिवसगृहीतनवनीतपटुसंगृहीतोत्कथितउद्दामसद्योविस्यन्दितस्य अधिकपीवरसुरभिगन्धमनोहरमपुरपरिणामदर्शनीयस्य पम्पनिर्मलमुखोपभोग्यस्य IDIरकाले भवेत् गोपतवरस्य मण्डः इति छाया । प्राक् अप्रेऽप्येवं पाठौपम्ये हेयं. अनुक्रम [२९२] 61- ४ ॥३५३॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~709~ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----------- उद्देशकः [(विप्-समुद्र)], - ---------- मूलं [१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८२] रस्स मंटए, भवे एतारवे सिया?, णो तिणढे समढे, गोषमा! घतोदस्स णं समुदस्स एत्तो इट्टतर जाव अस्साएणं प० कंतसुकता एस्थ दो देवा महिहीया जाव परिवसंति सेसं तं चेव जाव तारागणकोहीकोडीओ। घतोदणं समुई खोदवरे णामं दीवे घट्टे वलयागारे जाव चिट्ठति तहेव जाव अट्ठो, खोतवरे दीवे तत्थ २ देसे २ तहिं २ खुड्डावावीओ जाय खोदोदगपडिहत्थाओ उपपातपञ्चयता सध्यवेरुलियामया जाव पडिरूवा, सुप्पभमहप्पमा य दो देवा महिहीया जाब परिवसंति, से एतेणं. सव्वं जोतिसं तं चेव जाव तारा०॥ खोयवरपणं दीवं खोदोदे नाम समुदे बढे वलया. जाव संखेजाई जोयणसतपरिक्खेवेणं जाव अडे, गोयमा! योदोदस्स णं समुदस्स उदए जहा से० आसलमांसलपसत्यवीसंतनिदसुकुमालभूमिभागे सुच्छिन्ने सुक लढविसिनिमबहयाजीयवावीतसुकासजपयत्तनिउणपरिकम्मअणुपालिपसुबुहिनुहाणं सुजाताणं लवणतणदोसबजियाणं णयायपरिबहियाण निम्मातसुंदराणं रसेणं परिणयमउपीणपोरभंगुरसुजाघमधुररसपुष्कविरिइयाणं उबद्दवविबजियाणं सीयपरिफासियाणं अभिणयलयग्गाणं अपालिताणं निभायणिच्छोडियवाडिगाणं अवणितमूलाणं गंठिपरिमोहिनाणं कुसलणरकप्पिपाणं उब्वर्ण जाव पोडियाणं बलवगणरजतजन्तपरिगालितमत्ताणं खोयरसे होजा वत्थपरिपूए चाउमातगसुवासिते अहियपत्थलहुके वष्णोववेते तहेव, भवे एयारूवे सिया ?, णो तिणवे समडे, 44CSCRACKAGGANA दीप अनुक्रम [२९३] ~ 710~ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरोयावृत्तिः [१८२] ॥३५४॥ दीप अनुक्रम [२९३] खोयरसस्स णं समुदस्स उदए एत्तो इद्वतरए चेव जाव आसाएणं प० पुण्णभद्दमाणिभदा य ३ प्रतिपत्ती (पुषणपुषणभदा) इत्थ दुवे देवा जाव परिवसंति, सेसं तहेव, जोइसं संखेनं चंदा०॥ (सू०१८२) दधृतवर'खीरोदण्णं समुद्द'मित्यादि, क्षीरोदं णमिति पूर्ववत समुद्रं धृतवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसं स्थितः सर्वतः समन्तात्सं- तोदक्षोदपरिक्षिप्य तिष्ठति, अत्रापि चक्रवालविष्कम्भपरिक्षेपपद्मवरवेदिकावनपण्डद्वारान्तरप्रदेशजीवोपपातबक्तव्यता पूर्ववत् ।। सम्प्रति नाम- वरक्षो. निमित्तमभिधित्सुराह-'से केणद्वेण मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-पृतवरो द्वीपो घृतबरो द्वीपः ?, भगवानाह-गौ- दोदाः तम! घृतबरे द्वीपे 'तत्य तस्थ देसे तहिं इत्यादि, अरुणवरद्वीपबत्सर्वं तावद्वक्तव्यं यावत् 'वानमंतरा देवाय देवीओ य आसयंति सयंति का उद्देशः२ यावद् विहरंति' इति, नवरं वाप्यादयो घृतोदकपरिपूर्णा इति वक्तव्याः, तथा पर्वता: पर्वतेष्वासनानि गृहकाणि गृहकेष्वासनानि सू०१८२ गण्डपका मण्डपकेषु पृथ्वीशिलापट्टका: सर्वात्मना कनकमया इति वक्तव्यं, कनककनकप्रभौ चात्र देवी यथाक्रम पूर्वार्धापरा धिपती | महर्द्धिको यावत्पत्योपमस्थितिको परिवसतः ततो घृतोदकबाप्यादियोगाद् घृतवर्णदेवस्वामिकत्वाच घृतवरो दीप इति, तथा चाह'से एएणद्वेण मित्यादि चन्द्रादित्यादिसपासूत्रं प्राग्वन् ।। 'घयवरण्णं दीव'मित्यादि, घृतवरं द्वीपं घृतोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्मपरिक्षिप्य तिष्ठति, शेषं यथा घृतवरस्य द्वीपस्थ यात्रजीवोपपातसूत्रम् ।। इदानीं नामनिमित्तमभिधित्सुराह-से केणद्वेण मित्यादि, अध केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-धृतोदः समुद्रो घृतोदः समुद्रः ? इति, भगवानाह-गौतम ! पृतोदस्य समुद्रस्योदकं स यथा नाम सकललोकप्रसिद्धः 'शारदिकः' शरत्काळभावी गोघृतवरस्य मण्ड:-पृतसङ्घातस्य यदुपरिभाग-1 ॥३५४॥ स्थितं धृतं स मण्ड इत्यभिधीयते सार इत्यर्थः, तथा चाह मूलटीकाकार:-"घृतमण्डो घृतसार" इति, मुक्कथितो-यथाऽग्निपरिता LE 44 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~711~ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 2 प्रत सूत्रांक [१८२] -22 दीप अनुक्रम [२९३] पतापितः, तदानामद्वारः (उद्दाव:)-स्थानान्तरेष्वद्याप्यसक्रामित: सद्योविस्यन्दितः-तत्कालनिष्पादितो विश्रान्त:-उपशान्तकचवरः सल्लकीकर्णिकारपुष्पवर्णाभो वर्णेनोपपेतो गन्धेन रसेन स्पर्शनोपपेत आस्वादनीयो विस्वादनीयो दीपनीयो मदनीयो बृहणीयः सन्द्रियगाप्रहादनीयः, एवमुक्ते गौतम आह-भवे एयारूचे' भवेद् घृतोदस्य समुद्रस्योदकमेतद्रूपं ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, घृतोदस्य यस्मात्समुद्रस्योदकम् 'इतः' यथोक्तस्वरूपाद् घृतादिष्टतरमेव यावन्मनआपतरमेवाखादेन प्रज्ञप्तं, कान्तसुकान्तौ च यथाक्रम पूर्वार्द्धपश्चिमा धिपती अत्र घृतोदे समुद्रे महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः, ततो घृतमिवोदकं यस्यासौ घृतोदः, तथा चाह'से एएणद्वेण मित्यादि सुगम, चन्द्रादिसल्यासूत्रमपि सुगमम् ।। 'घतोदण्ण'मित्यादि, घृतोदं पमिति वाक्यालङ्कारे समुद्र मोदवरो| नाम द्वीपो बृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वत: समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति, चक्रवालविष्कम्भपरिक्षेपद्वारादिवक्तव्यता तथैव यावजीयोपपातसूत्रम् ॥ सम्प्रति नामान्यर्थमभिधित्सुराह-से केणटेण मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुख्यते श्रोदवरो द्वीपः २१ इति, भगवानाह-गौतम! मोदवरे द्वीपे सत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे 'बहवे खुड्डाखुड्डियाओ वावीओ इत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यं यावद् 'वाणमंतरा देवा देवीओ व आसयंति सयंति जाब विहरंति' नवरं वाप्यादयः क्षोदोदकपरिपूर्णा इति वक्तव्यं, तथा पर्वतका: पर्वतेष्वासनानि गृहकाणि गृहकेष्वासनानि मण्डपका मण्डपकेषु पृथिवीशिलापट्टकाः सर्वासना बर्थमयाः प्रजमाः, सुप्रभमहाप्रभौ च यथाक्रम पूर्वार्धापरार्द्धाधिपती द्वौ देवावत्र क्षोदवर द्वीपे महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः, ततः क्षोदोदकवाप्यादियोगात्मोदवरः स द्वीपः, एतदेवाह-से एएणतुणमित्यादि, चन्द्रादिसूत्रं प्राग्वत् ॥ 'खोयवरणं दीव'मित्यादि। मोदवरं णमिति पूर्ववद् द्वीपं झोदोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थित: सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति । चकवाल - 2- जी. ६० ~712~ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------------------------ उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८२] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः LOC दीप अनुक्रम [२९३] विष्कम्भादिवक्तव्यता पूर्ववद् यावज्जीवोपपातसूत्रम् ।। सम्प्रति नामनिमित्तमभिधित्सुराह-'से केणटुंग'मित्यादि, अथ केनार्थेन ४३ प्रतिपत्तो भदन्त ! एवमुच्यते झोदोदः समुद्रः २१ इति, भगवानाह-शोदोदस्य समुद्रस्योदकं यथा नाम इथूणां जात्यानां जाल्यत्वमेवाह- घृतवरघृ'वरपुंडगाणं विशिष्टानां पुण्डदेशोद्भवानां हरितानां शाडलानां 'भेरण्डेथूणां वा' भेरण्डदेशोद्भवाना वा इषणां 'कालपोराण' तितोदक्षोदकृष्णपर्वणाम् उपरितनपत्रसमूहापेक्षया हरितालबपिजराणाम् 'अपनीतमूलानाम्' अपनीतमूलनिभागानां विभागनिर्वादितवाटानां वरक्षोउर्द्धभागादपि त्रिभागहीनानामिति भावः मध्यत्रिभागावशेषाणामिति समुदायार्थः 'गंठिपरिसोहियाण ति प्रन्धिः-पर्वग्रन्धिः शो- दोदाः धित:-अपनीतो येभ्यस्ते तथा, तेषां मूलत्रिभागे उपरितनत्रिभागे पर्वग्रन्थौ च नातिसमीचीनो रस इति तद्वर्जनं क्षोदरसो भवेद् उद्देशा२ 'बखपरिपूतः' लक्षणवत्रपरिपूतः चतुर्जातकेन सुषु-अतिशयेन वासितश्चतुर्जातकवासितः, चतुर्जातकं स्वर्गलासराख्यगन्धद्रव्यमरि- सू०१८२ | चात्मकं, उक्ता -वगेलाकैसरैस्तुल्यं, त्रिसुगन्धं त्रिजातकम् । मरिचेन समायुक्त, चतुर्जातकमुच्यते ॥ १॥" अधिक-अतिशयेन | पध्यं न रोगहेतुः लघुः-परिणामलधुः वर्णेन-सामर्थ्यादतिशायिना उपपेत: एवं गन्धेन रसेन स्पर्शनोपपेत आस्वादनीयो दर्पणीयो मदनीयो धृहणीयः सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीयः, एवमुक्के गौतम आहू-भवे एयारूवे' भवेद् भगवन! मोदोदसमुद्रस्योदकमेतद्रूपं ?, भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समर्थः, क्षोदोदस्य यस्मात्समुद्रस्योदकम् 'अस्मात्' यथोक्तरूपामोदरसादिष्टत्तरमेव यावन्मनआपतरमेवास्वादेन प्रज्ञप्तम् , इह प्रविरलपुस्तकेऽन्यथाऽपि पाठो दृश्यते सोऽप्येतदनुसारेण व्याख्येयो, बहुषु तु पुस्तकेषु न दृष्ट इति न लिखितः, पूर्णपूर्णप्रभौ च यथाक्रम पूर्वाद्धीपरा धिपती 'अत्र' क्षोदोदे समुद्रे द्वौ देवी महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः,II ॥३५५॥ ततः क्षोद इव-मोदरस इबोदकं यस्य स झोदोदः, तथा चाह-से एएणद्वेण मित्यादि । चन्द्रादिसलयासूत्रं प्राग्वत् ।। अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~713~ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] दीप खोदोदणं समुई गंदीसरवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठिते तहेव जाय परिक्षेवो । पउमवर०वणसंहपरि० दारा दारंतरप्पदेसे जीवा तहेव ।।से केणतुणं भंते !, गोयमा! देसे २ यहओ खुडा०वावीओ जाब बिलपंतियाओ खोदोदगपडिहत्थाओ उप्पायपव्वगा सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ अदत्तरं च णं गोयमा! शंदिसरदीवचक्कवालविक्खंभवहमज्झदेसभागे एस्थ णं चउहिसिं चत्तारि अंजणपब्वता पण्णत्ता, ते णं अंजणपब्वयगा चतुरसीतिजोयणसहस्साई उहुं उच्चत्तेणं एगमेगं जोयणसहस्सं उब्वेहेणं मूले साइरेगाई दस जोयणसहस्साई धरणियले दस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं ततोऽणंतरं च णं माताए २ पदेसपरिहाणीए परिहायमाणा २ उपरि एगमेगं जोयणसहस्सं आयामविश्वंभेणं मूले एक्कनीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते किंचिबिसेसाहिया परिक्खेवणं धरणियले एकतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते देसूणे परिक्खेवणं सिहरतले तिणि जोयणसहस्साई एकंच यावर्ट जोयणसतं किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ता मूले विच्छिण्णा मज्ने संखित्ता उपि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता सबंजणामया अच्छा जाव पत्तेयं २ पउमवरवेदियापरि० पत्तेयं २ वणसंउपरिखित्ता वपणओ॥ तेसि णं अंजणपब्वयाणं उबरि पत्तेयं २ बहुसमरमणिज्जो भूमिभागो पपणतो, से जहाणामए-आलिंगपुक्खरेति वा जाव सयंति ॥ तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं अनुक्रम [२९४] | नन्दीश्वरद्वीपस्य अधिकार: आरभ्यते ~714~ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] “जीवाजीवाभिगम" श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ।। ३५६ ।। - उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः भूमिभागाणं बहुमज्झसभाए पत्तेयं २ सिद्धायतणा एकमेकं जोवणसतं आयामेणं पण्णासं जोयणाई विभेणं यावन्तरिं जोयणाई उहूं उच्चन्तेणं अणेगखंभसतसंनिविद्या वण्णओ ॥ तेसि णं सिद्धायतणाणं पत्तेयं २ चउद्दिसिं चत्तारि द्वारा पण्णत्ता - देवहारे असुरद्दारे णागद्दारे सुerrer, are fear देवा महिडीया जाय पलिओपमद्वितीया परिवसंति, तंजहा- देवे असुरे मागे सुवणे, ते णं द्वारा सोलस जोयणाई उहुं उच्च सेणं अट्ठ जोयणाई विक्खंभेण तावतियं चैव पवेसेणं सेता वरकणग० वन्नओ जाव वणमाला। तेसि णं दाराणं चउद्दिसिं चत्तारि मुहमंडवा पण्णत्ता, ते णं मुहमंडवा एगमेगं जोयणसतं आयामेण पंचास जोयणाई विक्खभेणं साइरेगाणं सोलस जोयणाई उहूं उचत्तेणं वण्णओ ॥ तेसि णं मुहमंडवाणं चउद्दि (तिदि) सिं चतारि (तिणि) द्वारा पण्णत्ता, ते णं द्वारा सोलस जोयणाई उहुं उच्चतेणं अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं तावतियं चैव पवेसेणं सेसं तं चैव जाव वणमालाओ। एवं पेच्छाघरमंडवावि, तं चैव पमाणं जं मुहमंडवाणं, दारावि तहेव, णवरि बहुमज्झदे से पेच्छाघरमंडवाणं अक्वाडगा मणिपेढियाओ अद्धजोयण पमाणाओ सीहासणा अपरिवारा जाव दामा थूभाई चउद्दिसिं तहेव णवरि सोलसजोपणष्यमाणा सातिरेगाई सोलस जोयणाई उच्चा सेसं तहेब जाव जिणपडिमा । चेहरुक्खा तहेव चउद्दिसिं तं चैव पमाणं जहा विजयाए रायहाणीए णवरि मणिपेढियाए सो For P& ३ प्रतिपसी नन्दीवराधिकारः उद्देशः २ सू० १८३ ~715~ ।। ३५६ ।। अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः लसजोयण पमाणाओ, तेसि णं चेइयरुक्खाणं चउदिसिं चत्तारि मणिपेढियाओ अजोयणविभाओ जोयणबाहलाओ महिंदज्या चउसट्टिजोयणुचा जोयणोब्बेधा जोयणविक्वंभा सेसं तं चैव । एवं चउदिसिं चत्तारि णंदापुक्खरिणीओ, गवरि खोयरसपडिपुण्णाओ जोयणसतं आयामेण पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं पण्णासं जोयणाई उब्वेषेणं सेसं तं चेव, म णुगुलियाणं गोमाणसीण य अडयालीस २ सहस्साइं पुरच्छिमेणवि सोलस पञ्चत्थिमेणवि सोलस दाहिणेवि अट्ट उत्तरेणवि अट्ठ साहस्सीओ तहेव सेसं उल्लोया भूमिभागा जाव बहुम ज्झदेस भागे, मणिपेडिया सोलस जोयणा आयामविक्खंभेणं अट्ट जोयणाई बाहल्लेणं तारिसं मणिपीढियाणं उपि देवच्छंदगा सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं सातिरेगाई सोलस जोयणाई उहूं उच्चतेणं सव्वरयण० अट्ठसयं जिणपरिमाणं सव्वो सो चेव गमो जहेव वैमाणिfeatures || तत्थ णं जे से पुरच्छिमिल्ले अंजणपच्यते तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तंजा-दुत्तरा य णंदा आणंदा मंदिवद्वणा । (नंदिसेणा अमोघा गोथूभा य सुदंसणा ) ताओ गंदा पुक्खरिणीओ एगमेगं जोयणसतसहस्सं आयामविवखंभेणं दस जोयणाई उच्चेणं अच्छाओ सण्हाओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेदिया. पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता तत्थ तत्थ जाव सोवाणपडिरूवगा तोरणा ॥ तासि णं पुक्खरिणीणं For P&Praise City ~716~ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८३] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि यावृत्तिः ॥ ३५७ ॥ बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं दहिमुहपश्वया चउसद्वि जोयणसहस्साई उहूं उच्चत्तेनं एगं जोयणसहस्सं उच्णं सव्वत्थसमा पल्लगसंठाणसंठिता दस जोयणसहस्साइं विक्खभेणं एकतीसं जोयणसहस्साई छच तेवी से जोगणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ता सञ्चरयणामया अच्छा जाव पडि. रूवा, तहा पत्तेयं पत्तेयं परमवरवेड्या० वणसंडवण्णओ बहुसम० जाव आसयंति सयंति । सिद्धायतणं तं चैव पमाणं अंजणपव्वसु सचैव वत्तध्वया णिरवसेसं भाणिपब्वं जाव उपि अट्टमंगलगा ॥ तत्थ णं जे से दक्खिणिल्ले अंजणपव्वते तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णताओ, तंजहा - भद्दा य विसाला य कुमुया पुंडरिगिणी, (नन्दुत्तरा य नंदा आनन्दा नन्दिवणा) तं चैव पमाणं तं चैव दहिमुहा पव्वया तं चैव पमाणं जाव सिद्धायतणा । तत्थ णं जे से पचत्थिमिल्ले अंजणगपव्वए तस्स णं चउदिसिं चत्तारि गंदा पुत्रखरिणीओ पण्णत्ताओ, तंजहा - दिसेणा अमोहा य, गोत्थूभा य सुदंसणा (भद्दा बिसाला कुमुदा पुंडरिकिणी) तं चैव सव्वं भाणियव्वं जाव सिद्धायतणा । तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले अंजणपव्वते तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदापुक्खरिणीओ, तंजहा - विजया वेजयंती जयंती अपराजिया, सेसं तहेब जाब सिद्धायतणा सध्या ते चिय वण्णणा णातव्या ॥ तत्थ णं बहवे भवणवइवाणमंतरजोतिसियवेमाणिया देवा चाउमासियापडिवएस संवच्छरिएस वा अण्णेसु बहसु जिण For P&Praise City ३ प्रतिपत्ती नन्दीश्व राधिकारः उद्देशः २ सु० १८३ ~717 ~ ॥ ३५७ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् W Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] जम्मणणिक्खमणणाणुष्पत्तिपरिणिब्वाणमादिएसु य देवकज्जेसु य देवसमुदएसु य देवसमितीसु य देवसमवाएमु य देवपओयणेसु य एगंतओ सहिता समुवागता समाणा पमुदितपक्कीलिया अट्ठाहितारुवाओ महामहिमाओ करेमाणा पालेमाणा सुहंसुहेणं विहरति । कहलासहरिवाहणा य तस्थ दुचे देवा महिहीया जाव पलिओक्मद्वितीया परिवसंति, से एतेणद्वेणं गोयमा! जाव णिचा जोतिसं संखेजं ॥ (सू० १८३) 'खोदोदण्णं समुद्द'मित्यादि, क्षोदोदं णमिति पूर्ववत् समुद्र नन्दीश्वरवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः | समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति । चक्रवाल विष्कम्भपरिक्षेपादिवक्तव्यक्षा प्राग्वद् यावजीवोपपातसूत्रम् ॥ सम्पति नामनिमित्तमभिधिसुराह-'से केणद्वेण मित्यादि, अथ केनार्थेन-केन कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते-नन्दीश्वरवरो द्वीपो नन्दीश्वरवरो द्वीपः । इति, भगवानाह-गौतम नन्दीश्वरवरे द्वीपे बहवः 'खुड्डाखुड्डियाओ वावीओ' इत्यादि प्रागुक्तं सर्व तावद्वक्तव्यं यावन् 'याणमन्तरा दे-13 या देवीओ य आसयंति सयंति जाव विहरंति' नवरमत्र वाप्यादयः क्षोदोदकप्रतिपूर्णा वक्तव्याः, पर्वतकाः पर्वतकेष्वासनानि गृहाणि गृहकेष्वासनानि मंडपका मंडपकेषु शिलापट्टकाः सर्वालना बसमया:, शेषं तथैव ॥ 'अदुत्तरं च णं गोयमा' इत्यादि, अथा-IN न्यद् गौतम! नन्दीश्वरवरे चत्वारो दिश: समाहृताश्चतुर्दिक तस्मिन् चकवालविष्कम्भेन मध्यदेशभागे एकैकस्वां दिशि एकैकभावेन x चत्वारोऽजनपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पूर्वेण-पूर्वस्यां दिशि, एवं पश्चिमाया दक्षिणस्यामुत्तरस्याम् ॥ 'ते ण'मित्यादि, ते अञ्चनपर्वताश्चतुरशीतियोजनसहस्राण्यूईमुच्चैस्त्वेन एक योजनसहस्रमुद्वेधेन मूले सातिरेकाणि दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन धरणितले दश SCANARASANNA दीप अनुक्रम [२९४] ~718~ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३५८ ॥ योजन सहस्राण्यायामविष्कम्भेन तदनन्तरं च मात्रया परिहीयमानाः परिहीयमाना उपयेकैकं योजनसहस्रमायामविष्कम्भेन मूले एकत्रिंशद् योजनसहस्राणि पट्त्रयोविंशानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि ३१६२३ परिक्षेपेण धरणितले एकत्रिंशद् योजन सहस्राणि षट्त्रयोविंशानि योजनशतानि देशोनानि परिक्षेपेण ३१६२३ उपरि श्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाषष्टं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकं ३१६२ परिक्षेपेण, ततो मूळे विस्तीर्णा मध्ये संक्षिप्ता उपरि तनुकाः अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वांना 'अञ्जनमयाः' अञ्जनरत्नालका: 'अच्छा जान पडिरुवा' इति प्राग्वत् प्रत्येकं २ पद्मवरवेदिकया परिक्षिप्ताः प्रत्येकं २ वनपण्डपरिक्षिप्ताः पद्मवरवेदिकावनपण्डवर्णनं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेपाम अनपर्वतानां प्रत्येकं प्रत्येकमुपरि बहुसमरमणीयो भूमि भागः प्रशप्तः, तस्य ' से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा' इत्यादिवर्णनं जम्बूद्वीपजगत्या उपरितनभागस्येव तावद्वक्तव्यं यावत् 'तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयति सति जाब बिहरंति' | 'तेसि ण'मित्यादि तेषां बहुसमरमणीयानां भूमिभा में गानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तं तानि च सिद्धायतनानि प्रत्येकं प्रत्येकमेकं योजनशतमायामेन पञ्चाशयो| जनानि विष्कम्भेन द्विसप्ततियोंजनानि ऊर्द्धमुचैस्त्वेन, अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टानीत्यादि तद्वर्णनं विजय देवसुधर्म सभावद्वक्कण्यम् ॥ | 'तेसि ण'मित्यादि तेषां सिद्धायतनानां प्रत्येकं 'चतुर्दिशि' चतसृपु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञतानि तद्यथा- पूर्वेण पूर्वस्याम् एवं दक्षिणस्यां पश्चिमायामुत्तरस्यां तत्र पूर्वस्यां दिशि द्वारं देवद्वारं, देवनामकस्य तदधिपतेस्तत्र भावात् एवं दक्षिणस्यामसुरद्वारं पश्चिमायां नागद्वारमुत्तरस्यां सुवर्णद्वारम् || 'तत्थे'त्यादि, तत्र तेषु चतुर्षु द्वारेषु यथाक्रमं चत्वारो ॥ ३५८ ॥ देवा महर्द्धिका यावत्पस्योपमस्थितयः परिवसन्ति, तद्यथा देव इत्यादि पूर्ववत् पूर्वद्वारे देवनामा दक्षिणद्वारेऽसुरनामा पश्चिमद्वारे For P&Praise Cinly ३ प्रतिपत्तौ नन्दीश्वराधिकारः उद्देशः २. सू० १८३ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~719~ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः नागनामा उत्तरद्वारे सुवर्णनामा || 'ते णं दारा' इत्यादि, तानि द्वाराणि घोडा योजनानि प्रत्येकमूर्द्धमुचैरखेनाष्टौ योजनानि विष्क-म्भतः, 'तावइयं चेव'त्ति तावदेव अष्टावेव योजनानीति भावः प्रवेशेन 'सेया वरकणगधूभियागा ईहामिव सभतुरगणर नगर बिगवालग किन्नर रुरुसर भचमरकुंजरवणलय उमलयभत्तिचित्ता संभुग्गयवरवेश्या परिगयाभिरामा विवाह रजमलजुगलजन्तजुत्ता इव अच्ची| सहरसमालिणीया रूवगसहस्सकलिया भिमाणा भिन्भिसमाणा चक्खुलोयणलेसा मुहफासा सरिसरीयरूवा, वन्नओ तेसिं दाराणं इमो होइ, तंजावइरामया नेमा रिट्ठामया पड्डाणा बेरुलियरुइलखंभा जायस्वोवचियपवरपंच वन्नमणिरयणकुट्टिमतला हंसगम्भमया एलुगा गोमेवमया इंदकीला जोईरसमया उत्तरंगा लोहियक्खमईओ दारचेडाओ (पिंडीओ) वेरुलियागया कवाडा कोहियक्खमईओ सुईओ वइरामया संधी नाणामणिमया समुग्गया वइरामईओ अग्गलाओ अग्गलापासाया रययामईओ आवत्तणपेडियाओ अंकोत्तर पासा निरंतरघणकवाडा भित्तीसु चैव भित्तिगुलिया छप्पन्ना तिन्नि होंति गोमाणसीओवि तत्तिया नाणामणिरयणजालपिंजरमणिवंसग ठोहियक्त्रपडिवंसगरययभोम्मा अंकामया पक्खा पक्ववाहाओ जोईरसमया वंसकवेलुगा य रवयामईओ पट्टियाओ जायरुवमईओ ओहाडणीओ वइरामईओ उबरि पुंछणीओ सव्वसेयरययामए अच्छायणे अंकामयणगकूडतवणिजधूभियागा सेया संखद्लविमलनिम्मलदहिघणगोखीरफेणरययनिगरण्पगासचंदचित्ता नाणामणिमयदामालंकिया अंतो वहिं च सण्हतवणिजरुइलवालुयापत्थडा सुहासा सस्सिरीयरूवा पासाईया दरिसणिजा अभिरुवा पडिवा' एतच यद्यपि विजयद्वारवर्णनायामपि व्याख्यातं तथाऽपि स्थानाशून्यार्थं किञ्चित्याख्यायते श्वेतानि अङ्कनबाहुल्या द्वरकनकस्तूपिकानि ईहामृगऋषभतुरगनरम करविहगव्यालककि| नररुरुसरभचमरकुंज रवनलता पालनाभक्तिचित्राणि प्रतीतं, तथा स्तम्भोगताभिः - लम्भोपरिवर्त्तिनीभिर्वरक्रम वीभिर्वेदिकाभिः For P&Praise City ~720~ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] दीप श्रीजीवा- परिगतानि सन्ति यानि अभिरमणीयानि तानि स्तम्भोदतवरवनवेदिकाभिः परिगताभिरामाणि, विद्याधरयोर्यदू यमल-समश्रेणीकं ३ प्रतिपत्ती जीवाभियुगलं तेषां यत्राणि-अपञ्चास्तैर्युक्तानीय, अधिषां सहस्रमालनीयानि अचि:सहस्रमालनीयानि-परिवारणीयानि, किमुक्तं भवति ?-18 नन्दीश्वमलयगि- एवं नाम प्रभासमुदयोपेतानि येनैवं संभावनोपजायते यथा नूनमेतानि न स्वाभाविकप्रभासमुदयोपेतानि किन्तु विशिष्टविद्याशक्ति- राधिकारः रीयावृत्तिः मत्पुरुषविशेषप्रपञ्चायुक्तानीति रूपकसहस्रकलितानि 'भिसमाणा' इति दीप्यमानानि 'भिग्भिसमाणा' इति अतिशयेन दीप्यमानानि | उदेशः२ 'चक्खुलोयणलेसा' इति चक्षुः कर्तृ लोकने-अवलोकने लिशतीव-दर्शनीयत्वातिशयतः श्लिष्यतीव यत्र तानि चक्षुर्लोकनलेशानि सू०१८३ ।। ३५९॥ शुभस्पर्शानि सश्रीकाणि रूपकाणि यन्त्र तानि सश्रीकरूपाणि वर्णो-वर्णकनिवेशतेषां द्वाराणामयं भवति, तद्यथा-यजमया नेमा-14 भूमिभागादूर्द्ध निष्कामन्त: प्रदेशा रिझमयानि प्रतिष्ठानानि-मूलपादाः 'वैडूर्यरुचिरस्तम्भानि' जातरूपोपचितप्रवरपञ्चवर्णमणिरत्न-1 कुट्टिमनलानि हंसगर्भमयाः 'एलुकाः' देहस्यः गोमेयकरत्नमया इन्द्रकीला ज्योतीरसमयानि उत्तराङ्गानि लोहिताक्षमया: 'द्वारपिण्ड्यः। द्वारशाखा: बैडूर्यमयी कपाटौ लोहिताक्षमय्यः सूचय:-फलकद्वयसन्धिविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीया बसमयाः 'सन्धयः' स-18 न्धिमेला: फलकानां नानामणिमया: 'समुद्काः' चूति (सूची)गृहाणि वमया अर्गला: (अर्गलाप्रासादा:-) प्रासादे यत्रार्गलाः प्रविशन्ति है रजतमय्य आवर्तनपीठिकाः, आवर्तनपीठिका यत्रेन्द्रकीलको निवेशितः, 'अंकोत्तरपासा' इति अङ्का-अङ्करत्नमया उत्तरपार्धा येषां | तानि तधा, निरन्तरको-लघुच्छिद्रैरपि रहितौ धनी कपाटौ येषां तानि निरन्तरघनकपाटानि, 'भित्तीसु चेवे'त्यादि, तेषां द्वाराणामुभयोः पार्श्वयोभित्तिपु-भित्तिसमीपे भित्तिगता-भित्तिसंबद्धा गुलिका:-पीठिका भित्तिगुलिकास्तिस्रः षट्पञ्चाशद्भवन्ति पटपश्चा-1 ||३५९॥ शत्रिकप्रमाणा भवन्ति 'गोमाणसिया तत्तिया' इति तावत्य एवं' षट्पञ्चाशत्रिकप्रमाणा एव 'गोमानस्या' शय्याः, तथा 'ना अनुक्रम [२९४] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~721~ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] AXHOCHOKAN + दीप *444KKR नामणिरक्षानि' नानामणिरत्नमयानि व्यालकरूपाणि लीलास्थितशालभलिकाश्च येषां तानि तथा, रजतमया: कूटाः, कूटो-माडभागः, वनमया: 'उत्सेधाः' शिखराणि तपनीयमया: 'उल्लोकाः' उपरितनभागाः, भणयो-मणिमया वंशा येषां तानि मणिवंश-| कानि, लोहिताक्षा:-लोहिताक्षमयाः प्रतिवंशा येषां तानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि, रजता-रजतमयी भूमिर्येषां तानि रजतभूमानि, प्राकृतवासमासान्तो मकारस्य च द्विस्वं, मणिवंशकानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि रजतभूमानि नानामणिरत्नमयानि जालपअराणि | गवाक्षापरपर्यायाणि येषु द्वारेपु तानि तथा, पदानामन्यथोपनिपातः प्राकृतत्त्वान् , अङ्कमया: पक्षा: पक्षबाहवश्व, पक्षाः (प्रतीताः)। पक्षवाहनोऽपि तदेकदेशभूताः, ज्योतीरसामया वंशा महान्तः पूज्यवंशा: 'वंसकवेल्या य' महतां पृष्ठवंशानामुभयतस्तियकस्याप्यमाना वंशाः वंशकवेलुकानि प्रतीतानि रजतमयपट्टिकाः कवेलुकानामुपरिकम्बास्थानीया: जातरूपमय्योऽवघाटिन्यः आच्छादनहेतुकम्बोपरिस्थाप्यमानमहाप्रमाणकिलिचस्थानीया वनमय्योऽवघाटिनीनामुपरिपुन्छन्यो-निविडतराच्छादनहेतुश्शक्षणतरतृणविशेषस्थानीयाः सर्वश्वेतं रजतमयं पुन्छनीनामुपरि कवेटुकानामध आच्छादनम् , 'अंकामयकणगकूडतवणिज्जथूभियागा' इति अङ्कमयानि-बाहुल्येनाक रत्नमयानि पक्षपक्षवाहादीनामकरनात्मकस्थात् कनक-कनकमयं कूट-शिखरं येषां तानि कनककूटानि, तपनीया:-तपनीयमध्यः स्तूपिका-लघुशिखररूपा येषां तानि तथा, तत: पदत्रयस्य पदद्वय २ मीलनेन कर्मधारयः, एतेन यत् प्राक् सामान्यत उत्क्षिप्तं 'सेया वरकणगथूभियागा' इति तदेव प्रपञ्चतो भावितं, सम्प्रति तदेव श्वेतत्वं भूय उपसंहारव्याजेन दर्शयति-'सेया श्वेतत्वमेवोपमया द्रढयति'सह्यदलविमलनिम्मलदहियणगोखीरफेणरययनिगरप्पगासद्धचंदचित्ता' विमलं यत् शङ्खदलं-शवशकलं कचित् शङ्कतलेतिपाठस्तत्र शहतलं-शहस्योपरितनो भागो वश्च निर्मलो दधिधनो-पनीभूतं दधि यश्च गोक्षीरफेनो यश्च रजतनिकरस्तद्वत्प्रकाश:-प्र अनुक्रम [२९४] र ~722~ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------- उद्देशकः [(विप्-समुद्र)], - ---------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवा " जीवाभि प्रत सूत्रांक [१८३] मलयगि-1 रीयावृत्तिः ॥३६०॥ दीप तिमता येषां तानि तथाऽर्द्धचन्द्रभित्राणि-नानारूपाणि आश्चर्यभूतानि वा अर्द्धचन्द्रचित्राणि, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, नाना-८ प्रतिपत्ती मणिमयीभिर्दामभिरलङ्कृतानि नानामणिभवदामालकृतानि अन्तर्वहिश्च लक्षणतपनीयरुचिरवालुकानां प्रस्तट:-प्रस्तारो येपु तानिनन्दीश्वतथा, शुभस्पर्शानि सश्रीकरूपाणि प्रासादीयानि दर्शनीयानि अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि व्यक्तम् ।। 'तेसि णं दाराणमित्यादि, तेषां18 राधिकार द्वाराणागुभयोः पार्श्वयोरेकै कषेधिकीभावेन 'दुहतो' इति द्विधातो-द्विप्रकारायौ नैधिक्यां नैपेथिकी-निपीदनस्थान द्वारकुत्यस-18 उद्देशः। मीपे नितम्ब इत्यर्थः षोडश पोडश बन्दनकलशा: प्रज्ञप्ताः, वर्णकस्तेषां वाच्यः, स चैत्रम्-'ते णं बंदणकलसा वरकमलपहाणा सुर- स.१८३ भिवरवारिपडिपुण्णा चंदणकयचच्चागा आविद्धकंठेगुणा पत्रमुप्पलपिहाणा सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूबा महया महया इंद-18 कुंभसमाणा पन्नत्ता समणाउसो! व्यक्तं नवरं 'महया महया' इति अतिशयेन महान्त: इन्द्रकुम्भसमाना:' महाकुम्भप्रमाणकुम्भ-18 सदृशाः, 'एवं नेयव्वं जाव सोलस वणमालाओ पन्नत्ताओं' एवम्' अनेन प्रकारेण तावन्नेत्तव्यं यावत्पोडश बनमाला: प्रज्ञप्ता तच्चैवम्-'तेसिणं दाराणं उभओ पासिं दुहतो निसीहियाए सोलस सोलस नागदंतया पन्नत्ता, ते णं नागदंतगा मुत्ताजालंतरूसिया ४ हेमजालगवक्खजालखिखिणीजालपरिक्खित्ता अभुग्गया निसढा तिरियं सुसंपग्गहिया अहे पन्नगद्धरूवा पन्नगसंठाणसंठिया सव्वव-16 इरामया अच्छा जाव पडिरूवा महया महया गयदत्तसमाणा पन्नत्ता समणाउसो, तेसु णं नागदंतकेसु बहवे किण्हसुत्तवावग्धारि-13 यमल्लदामकलावा नीलसुत्तयट्टबग्घारियमल्लदामकलाका०, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया अण्णमण्णमसंपत्ता पु-18 व्वावरदाहिणुत्तरागएहिं बाएहिं मंदाय मंदायमेइनमाणा एइज्जमाणा पलंबमाणा पलंघमाणा पझंझमाणा पझंझमाणा ओरालेगं मणु- अणं मणहरेणं कण्णमणनिव्वुइकरेणं सद्देणं ते पएसे सव्वतो समंता आपूरेमाणा सिरीए अईव उबसोभेमाणा चिटुंति, तेसि णं अनुक्रम [२९४] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~723~ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] % X दीप नागवंशाणं उवरि भन्ने सोलस सोलस नागदतया मुत्ताजाखेतरोसिया हेमजाल जाव महया महया गयदंतसमाणा पन्नत्ता समणाउसो!, | तेमु ण नागदतएसु वह रखवामया सिकगा पन्नत्ता, तेसु णं रययामएसु सिकगेसु बहवे वेरुलियमयाओ भूवघडियामो पण्णताओ, ताओ णं धूवडियाओ कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूनमघमतगंधुद्धयाभिरामातो सुगंधवरगंधियाओ गंधपट्टिभूयाओ ओरालेणं मगुनेणं घाणमणनिम्बुइकरेणं गंधेणं ते पएसे आपूरेभाणीओ आपूरेमाणीओ चिट्ठति । तेसि णं दाराणं उभओ पासि दुहतो निसी-1 हियाए सोलस सोलस सालभंजियाओ पन्नत्ताओ, ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्ठियाओ सुयलंकियाओ णाणाविहरागवसणाभो| रत्तावंगाओ असियकेसीओ मिउविसयपसत्वलक्सणसंवेलियांगसिरयाओ नाणामहपिणद्धाओ मुट्ठिगेज्मसुमझाओ आमेलजमलजुगलवट्टियअम्भुन्नयपीणरश्यसंठियपओहराओ इसिं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ वामहत्यगहियग्गसालाओ ईसिं अद्धच्छिकटक्वचिद्विपहिं स्टूसेमाणीओ विव पक्खु लोयणलेसाओ अण्णमण्णं खिजमाणीओ इव पुढविपरिमाणाओ सासयभावमुवगयाओ चंदाणणातो। चंदविलासिणीतो चंदद्धसमनिटालाओ चंदाहियसोमदंसणाओ उका इव उजोवेमाणीओ विजुषणमरीइसूरदिपंततेयअहिगतरसनिकासाओ सिंगारागारचारवेसाओ पासाईयाओ दरिसणिजाओ अभिरूवाओ पहिरूवाओ। तेसिणं दाराणं उभो पासि दहओ निसीहिआए सोलस २ जालकडगा पण्णचा सञ्चरयणामया अच्छा जाब पतिरूवा, तेसि णं दाराणं उभओ पासि दुहतो निसी| हियाए सोलस सोलस घंटाओ पण्णताओ । तासि णं घंटाणं इमे एयारूचे वण्णावासे पन्नते-जंबूणयामईओ घंटामो बराम-1 | ईओ लालाओ नाणामणिमया घंटापासासो तवणिजमयाओ संकलाओ रययामया रजूओ । साओ णं घंढाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ हंसस्सराओ कोंचस्सराओ सीहस्सराओ दुंदुभिस्सराओ नंदिसराओ नंदिघोसाओ मंजुस्सराओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ सु अनुक्रम [२९४] -- ~724~ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३६१ ॥ स्मरनिग्धोसाओ ओरालेणं मणुत्रेणं कण्णमणनिन्युइकरेणं सरेण ते पएसे सवतो समंता आपूरेमाणीओ सिरीए अतीव उवसोहे| माणीओ डवसोमाणीतो चिति । तेसि णं दाराणं उभओ पासि तो निसीहियाए सोलस सोलस वणमालाओ पण्णत्ताओ, | ताओ णं वणमालाओ नाणादुमलय किसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरिभुजमाणसोमंतसस्सिरीयातो सव्वरयणामईओ पासाईयाओ जाव पडिरुवाओं इति पाठसिद्धमेतत् नवरं नागदन्तसूत्रे नागदन्ता-अङ्कटका:, 'मुत्ताजालतरूसिए' इत्यादि, मुक्ताजालानामन्तरेषु यानि उच्छ्रितानि-लम्बमानानि हेमजालानि - हेममयदाम समूहा यानि गवाक्षजालानि - गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहाः यानि च किङ्किणीघण्टाजालानि-शुद्रघण्टासमूहातैः परिक्षिताः सर्वतो व्याप्ताः, 'अब्भुग्गया' इति अभिमुखमुङ्गता अभ्युद्गताः अग्रिम भागे मनागू उन्नता इति भाव: 'अभिनिसिट्टा' इति अभिमुखं वहिर्भागाभिमुखं निसृष्टा अभिनिमृष्टाः 'तिरियं सुसंपरिगहिया' इति तिर्यग भित्तिप्रदेशैः सुष्ठु अतिशयेन सम्यग् मनागप्यचलनेन परिगृहीताः 'अहेपन्नगद्धरुया' अधः - अधस्तनं यत् पन्नगस्या तस्येत्र रूपं आकारी येणं ते तथा अधः पन्नगावदतिसरला दीर्घाश्चेति भावः, एतदेव व्याचने - पन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिताः, 'किण्हसुत्तबट्ट्वग्धारियमलदामकलावा' इति, कृष्णसूत्रबद्धा बम्बारिया अवलंबिता माल्यदामकलापा:-पुष्पमालासमूहाः, एवं नीललोहितहारिद्रशुकसूत्रबद्धा अपि वाच्याः, 'तवणिजलंबूसगा' इति दानामप्रिमभागे गोलकाकृतिमण्डनविशेषो लम्बूसगः 'सुत्रष्णपयरगर्मडिया' इति सुवर्णप्रतरेण-सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि, सालभञ्जिकासूत्रे 'आमेलगजमलजुगलबडियअब्भुन्नयपीणरश्य संठियपओहराओ' इति पीनं पीवरं रचितं तथाजगत्स्थितिस्वाभाव्याद् रतिदं वा संस्थितं संस्थानं यकाभ्यां तो पीनरचितसंस्थितौ पीनरतिदसंस्थितौ वा आगेलक - आपीडः शेखरक इत्यर्थः तस्य यमलं समश्रेणीकं यद् युगलं द्वन्द्वं तद्वद्, वर्त्तितो-प For P&Praise Cly ३ प्रतिपत्तौ नन्दीश्वराधिकारः उद्देशः २ सू० १८३ ~725~ ॥ ३६१ ॥ www अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] "जीवाजीवाभिगम" प्रतिपत्ति: [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित - उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८३] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः स्वभावावुपचितकठिनभावाविति भावः अभ्युन्नतौ पीनरचितसंस्थितौ च पयोधरी यासां ताः तथा 'लूसेमाणीओ इवेति मुष्णन्त्य इव सुरजनानां मनांसीति गम्यते, शेषं प्रायः प्रतीतं प्रागेवानेकशो भावितवान् । 'तेसि णं दाराणमुष्पि'मित्यादि तेषां द्वाराणामुपरि प्रत्येकं प्रत्येकमष्टाष्टौ मङ्गलकानि स्वस्तिकादीनि प्रज्ञतानि सर्वस्वमयानि अच्छानि यावप्रतिरूपकाणि ॥ 'तेसि णं दाराण'मित्यादि तेषां द्वाराणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं मुखमण्डपाः प्रज्ञमाः, 'ते णमित्यादि, ते मुखमण्डपा एक योजनशतमायामेन पञ्चाशद् योजनानि विष्कम्भेन सातिरेकाणि पोडश योजनानि ऊर्द्धमुचैस्त्वेन अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टा इत्यादि विजयदेवसुधर्मा सभाया इव वर्णनं तावद्वक्तव्यं यावत्प्रतिरूपा || 'तेसि ण'मित्यादि तेषां मुखमण्डपानां प्रत्येकं प्रत्येकं 'चतुर्दित्रिदिशि' चत [ति] सृपु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारि [त्रीणि] द्वाराणि प्रज्ञप्तानि । 'ते णं दारा' इत्यादि, तानि द्वाराणि पोडश योजनानि ऊर्द्धमुचैस्त्वेन अष्टौ योज नानि विष्कम्भेन 'तावइयं चैत्र' अष्टावेत्र योजनानि प्रवेशेन 'सेया वरकणमधूभियागा' इति द्वारवर्णनं प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं यावदुपर्य| टावष्टौ मङ्गलकानि - स्वस्तिकादीनि तेषामुहोचवर्णनं प्राग्वत् तेषां च मुखमण्डपानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येकमष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि सर्वरत्नमयानि अच्छानि यावत्प्रतिरूपकाणि, बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि प्राग्वद् यावद् वहवः सहस्रपत्रहस्तका इति । 'तेसि ण'मित्यादि तेषां मुखमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं प्रेक्षागृह मण्डपाः प्रज्ञा: तेऽपि मुखमण्डपवत्प्रमाणतो वक्तव्याः, तेषामप्युतोच वर्णनं भूमिभागवर्णनं च प्राग्वत्। तेषां बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशमागे प्रत्येकं प्रत्येकमक्ष पाटकाः प्रज्ञप्ताः ॥ 'ते ण'मित्यादि, ते अक्षपटका वज्रमया: 'अच्छा जान पडिरुवा' इति प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि तेषामपाटकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिका अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योज For P&Palle Cinly ~726~ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] S दीप श्रीजीवा- नानि बाहल्येन सर्वासना मणिमय्योऽच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तासि णमित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक २ सिंहासन | प्रतिपत्ती जीवाभि प्रज्ञान, तेषां च सिंहासनानां वर्णनं विजयदूष्यवर्णनमशवर्णनं दामवर्णनं च प्राग्वत् ॥ तेषां च प्रेक्षागृहमण्डपानामुपरि प्रत्येक प्रत्ये-15नन्दीश्वमलयगि-6कमष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि यावद् बहवः सहस्रपत्रहसका इति । 'तेसि ण'मित्यादि, तपां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरत: प्र- राधिकारः रीयावृत्तिःयेकं प्रत्येक मणिपीठिकाः प्रशताः, ताश्च मणिपीठिका: प्रत्येक प्रत्येक पोडश योजनान्यायामविष्कम्माभ्यां अष्टौ योजनानि बाहल्येन उद्देशः२ सर्वात्मना मणिमय्योऽच्छा इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपाः ।। तासि णमित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक २ चैत्यस्तूपाः | ॥३६२॥ प्रज्ञप्ताः ।। 'ते णं चेइयथूभा' इत्यादि, ते चैत्यस्तूपा: पोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि पोडश योजनान्यूद्ध मुथैस्त्वेन, ते च शशाकुन्ददकरजोऽमृतमथितफेनपुञसंनिकाशा 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् यावत्प्रतिरूपाः ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचाभरध्वजा इत्यादि प्राग्वद् याबद् बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपाना प्रत्येक प्रत्येक 'चतुर्दिशि चतमृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकमणिपीठिकाभावेन चतस्रो मणिपीठिका: प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिका अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्येन सर्वासना मणिमथ्यो यावत्प्रतिरूपाः ।। 'तासि णमित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि एकैकस्या मणिपीठिकाया उपरि एकैकप्रतिमाभावेन चतम्रो जिनप्रतिमा जिनोत्सेधप्रमाणमात्राः पञ्चधनुःशतप्रमाणा इत्यर्थः सर्वासना रत्नमय्यः संपर्यङ्कासननिषण्णा: स्तूपाभिमुख्यस्तिष्ठन्ति, तद्यथा-पूर्वस्या | दिशि अषमा दक्षिणस्यां वर्द्धमाना: अपरस्यां चन्द्रानना: उत्तरस्यां वारिपेणा: ॥ 'तेसि णमित्यादि, वेषां चैत्यस्तूपानां पुरतः ॥२६ प्रत्येक प्रत्येकं मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिका: पोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टी योजनानि याहस्येन सर्वासना अनुक्रम [२९४] Mathemami अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~727~ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], --------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------------------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 496 प्रत सूत्रांक [१८३] TOCUSTAGRASS दीप मणिमयोऽच्छा यावत्प्रतिरूपाः ।। 'तासि ण'मित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येकं चैत्यवृक्षः प्रज्ञप्तः, ते च चैत्यवृक्षा। 8 भष्टौ योजनान्यूमुस्लेन अर्बयोजनमुद्वेधेन द्वे योजने उचैस्लेन स्कन्धः स एवार्द्धयोजनं विष्कम्भेन यावद्वहुमध्यदेशभागे ऊद्ध। द विनिर्गता शाखा-विडिमा सा पड़ योजनान्यूर्द्धमुच्चैस्त्वेन, साऽपि चार्द्धयोजनं विष्कम्भेन, सर्वांप्रेण सातिरेकाण्यष्टौ योजनानि प्र क्षता । तेसि णमयमेयारवे वण्णावासे पण्णत्ते' इत्यादि चैत्यवृक्षवर्णनं विजयराजधानीगतचैत्यवृक्षवद्भावनीयं यावलतावर्णनमिति ।।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां चैत्यवृक्षाणामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि तावद् यावत्सहस्रपत्रहस्तका: सब-र रत्रमया अच्छा थावत्प्रतिरूपाः ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां चैत्यवृक्षाणां पुरतः प्रत्येकं मणिपीठिकाः प्राप्ताः, ताश्च मणिपीठिका अष्टौ योजनाम्यायामविष्कम्भाभ्यां चलारि योजनानि बाहुल्येन सर्वासना मणिमय्योऽच्छा यावत्रतिरूपाः ॥ 'तासि 'मित्यादि। तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ महेन्द्रध्वजः प्रज्ञाप्तः, ते च महेन्द्रध्वजाः षष्टियोजनाम्यूईमुञ्चैस्त्वेन योजनमुद्वेधेन योजनं वि. कम्भेन वनमया इत्यादि वर्णनं विजयदेवराजधानीगतमहेन्द्रध्वजवद्वेदितव्यं यावत्तेषां महेन्द्रध्वजानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः । कृष्णचामरध्वजा यावदू बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरत्नमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां महेन्द्रध्वजानां पुरतः। | प्रत्येक प्रत्येक नन्दाभिधाना पुष्करिणी प्रज्ञप्ता, 'ताओ नंदाओ पुक्खरिणीओ' इत्यादि, ताश्च नन्दापुष्करिण्य एकैकं योजनश|तमायामविष्कम्भाभ्यां पञ्चाशद योजनानि विष्कम्भेन दश योजनान्बुद्वेधेन 'अच्छाओ सहाओ रययमयकुलाओ' इत्यादि पुष्करिणीवर्णनं जगत्युपरिपुष्करिणीबद्वक्तव्यं नवरं 'खोदरसपडिपुण्णाओं' इति वक्तव्यं, ताश्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्येक प्रत्येकं पावरवेदिकया प्रत्येक प्रत्येक बनखण्डेन च परिक्षिताः, तासां च नन्दापुष्करिणीनां त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रतानि तेषां वर्णन अनुक्रम [२९४] E 09 ~ 728~ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------- उद्देशक: [(दविप-समद्र)], .....................- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] श्रीजीवा- 18 तोरणवर्णनं च प्राग्वत् । इदमन्यदधिकं पुस्तकान्तरे दृश्यते-'तासि ण पुक्खरिणीर्ण चादिसि बचारि वणसंडा पण्णत्ता, तंजहा प्रतिपत्ती जीवाभि -पुरच्छिमेणं दाहिणेणं पचत्थिमेणं उत्तरेणं-"पुब्वेण असोगवणं दाहिणतो होइ चंपगवणं तु (सत्तपण्णवणं)। अवरेण चंपगवणं नन्दीश्वमलयगि- यवणं उत्तरे पासे ॥ १॥"'तेसु णमित्यादि, तेषु सिद्धायतनेषु प्रत्येक प्रत्येकमष्टचत्वारिंशत् गुलिकासहस्राणि, गुलिका:-पी- राधिकारः रीयावृत्तिः ठिका अभिधीयन्ते, ताच मनोगुलिकापेक्षया प्रमाणतः क्षुल्लास्तासां सहस्राणि गुलिकासहस्राणि प्रज्ञतानि, तयथा-पूर्वखां दिशि|का उद्देशा२ ॥३३३॥ पोडश सहस्राणि पश्रिमायां षोडश सहस्राणि दक्षिणस्यामष्टौ सहस्राणि उत्तरस्यामष्ठौ सहस्राणि । 'तासु णं गुलियासु बहवे सु- सू०१८३ वण्णरूप्पामया फलगा पन्नत्ता' इत्यादि विजयदेवराजधानीगतसुधासभायामिव बक्तव्यं यावद्दामवर्णनं ॥ 'तेसु णमित्यादि, तेषु सिद्धायतनेषु प्रत्येकं प्रत्येकमष्टचत्वारिंशत् मनोगुलिकासहस्राणि प्रज्ञाप्तानि, गुलिकापेक्ष्या प्रमाणतो महतीतराः, तयथा-पूर्वस्या का दिशि षोडश सहस्राणि पश्चिमायां षोडश सहस्राणि दक्षिणस्यामष्टौ सहस्राणि उत्तरस्यामष्टी सहस्राणि, एतास्वपि फलकनागदन्तकमाल्यदामवर्णनं प्राग्वत् ।। 'तेसु णं सिद्धायतणेसु' इत्यादि, तेषु सिद्धायतनेषु प्रत्येक प्रत्येकमष्टचलारिंशद्गोमानुष्यः शय्यारूपाः स्थानविशेषास्तासां सहस्राणि प्राप्तानि, तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि षोडश सहस्राणि पश्चिमायाँ पोडश सहस्राणि दक्षिणस्यामष्टौ उत्तरस्यामष्टौ सहस्राणि, सास्वपि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं सिककवर्णनं धूपघटिकावर्णनं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णं सिद्भायतणाण'मित्यादि उल्लोकवर्णनमन्तहसमरमणीयभूमिभागवर्णनं शब्दवजै प्राग्वत् ॥'तेसि ण बहसमरमणिजाणं भूमिभागाण'मियादि, तेषां बहु-IN x ॥३६३।। | समरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक २ मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, तात्र मणिपीठिकाः षोडश योजनाम्यायामविष्क-11 म्भाभ्यामष्टी योजनानि बाहल्येन सर्वांना मणिमय्यो यावत्प्रतिरूपकाः ॥'तासि णमित्यादि, तास च मणिपीठिकानामुपरि NAA दीप अनुक्रम [२९४] +84 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 729~ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] प्रत्येक २ देवरुछन्दक: प्रज्ञप्तः, ते च देवच्छन्दकाः षोडश योजनाम्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि षोडश योजनाम्यूमुस्त्वेन | सर्वासना रत्नमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः 'तेसु ण'मित्यादि, तेषु देवच्छन्दकेषु प्रत्येक २ मष्टशतं जिनप्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमाणमात्राणां पञ्चधनुःशतप्रमाणानामित्यर्थः सन्निक्षिप्तं तिष्ठति प्रतिमावर्णनादि विजयदेवराजधानीगतसिद्धायतनवत्तावद्वक्तव्यं यावदष्टशतं धूपकडुच्छुकानाम ।। 'तेसि णमित्यादि. तेषां सिद्धायतनानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येकमष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा यावदहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरबमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः ।। 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र तेषु चतुर्व जनपर्वतेषु मध्ये योऽसौ | पूर्वदिग्भावी अञ्जनकपर्वतस्तस्य 'चतुर्दिशि चतमपु दिनु एकैकम्यां दिशि एकैकनन्दापुष्करिणीभावेन चतस्रो नन्दापुरकरिण्यः | प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि नन्दिषेणा दक्षिणस्याममोघा अपरस्यां गोस्तुपा उत्तरस्यां सुदर्शना, नाश्च पुष्करिण्य एक योजनशतमहस्रमायामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि योजनशतसहस्राणि पोडश सहवाणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके श्रीणि गव्यूतानि अपाविशं धनुःशतं त्रयोदशाङ्गलानि अाफूलं च किश्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञमाः, दश योजनान्युद्वेधेन, 'अच्छाओ सहाओ श्ययामचकूलाओं इत्यादि जगत्युपरिपुष्करिणीव निरवशेषं वक्तव्यं नवरं घटाओ सनतीराओ खोदोदगपडिपुण्णाओ' इति विशेषः, ताश्च प्रत्येक प्रत्येक पावरवेदिकया वनखण्डेन च परिसिमाः, अत्रापीदमन्यदधिकं पुस्तकान्तरे दृश्यते--तासि गं पुक्खरिणीणं पत्तेयं पत्तेयं च उद्दिसि | चत्तारि वणसंद्धा पण्णत्ता तंजहा-पुरच्छिमेणं दाहिणेणं अवरेणं उत्तरेणं, पुच्वेण असोगवणं जाव चूयवर्ण उत्तरे पासे' एवं शेषाच-18 नपर्वतसम्बन्धिनीनामपि नन्दापुष्करिणीनां वाच्यम् ॥'तासि ण'मित्यादि, तासां पुष्करिणीनां वहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं दधिमुखनामा पर्वतः प्रज्ञप्तः, 'ते णमित्यादि, ते दृधिमुखपर्वताश्चतुःषष्टियोजनसहस्राणि ऊर्द्धमुच्चैरत्वेन एक योजनसहस्रमुढेधेन सर्वत्र | CA%A9 -% A दीप अनुक्रम [२९४] 5 % ~730~ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------------- उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] दीप श्रीजीवा- समा: पल्यतसंस्थानसंस्थिता दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन एकत्रिंशद् योजनसहस्राणि षट् 'त्रयोविंशानि' त्रयोविंशत्यधिकानि४३ प्रतिपत्ती जीवाभियोजनशतानि परिक्षेपेण प्रज्ञता: सामना स्फटिकमया अरछा यावत्प्रतिरूपाः प्रत्येक प्रत्येक पद्मवरवेदिकया परिक्षिताः प्रत्येक पापाजत्यकानन्दीश्वमलयगि- वनखण्टेन परिक्षिमाः । 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां दधिमुखपर्वतानामुपरि प्रत्येक २ बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञतः, तस्य हाब्द-13 | राधिकार रीयावृत्तिः का वर्णनं साबरक्तव्यं यावद्दयो धानमन्तरा देवा देवीओ य आसयंति सयंति जाब विहरंति' | 'तेसि णमित्यादि, तेषां बहुसमरमणी-18 | उद्देशः२ यानो भमिभागान बहमध्यदेशभागे प्रत्येक २ सिद्धायतनं प्रश, सिद्धायतनवक्तव्यता प्रमाणादिका असनपर्वतोपरिसिखायतनव-IN | सू०१८३ ॥३६४॥ द्वक्तव्या यावदष्टशतं प्रत्येक प्रत्येक धूपकडुनछुकानामिति ।। 'तत्थ णं जे से दाहिणे अंजणगपब्बए' इत्यादि, दक्षिणा जनकपर्वत-12 | स्यापि पूर्व दिग्भाव्य जनकपर्वतस्येव निरबशेपं वक्तव्यं, नवरं नन्दापुष्करिणीनां नामनानात्वं तद्यथा-पूर्वस्यां नन्दोत्तरा दक्षिणस्यां नन्दा अपरस्यामानन्दा उत्तरस्यां नन्दिवर्द्धना, शेषं तथैव ।। 'तत्थ णं जे से पञ्चस्थिमिले अंजणगपव्यते तस्स णं च उद्दिसिं चत्वारि' इत्यादि, पूर्व दिग्भाव्य जनपर्वतस्येव पश्चिम दिग्भाव्यसनपर्वतस्यापि वक्तव्यं यावत्प्रत्येक प्रत्येकमष्टशतं धूपकडलछुकाना, नवरं नन्दापुष्करिणीनां नामनानात्वं, तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि भद्रा दक्षिणस्यां विशाला अपरस्यां कुमुदा उत्तरस्यां पुण्डरीकिणी, शेषं तथैव ॥ एवमुत्तरदिग्भाग्य जनकपर्वते वक्तव्यं, नवरमत्रापि नन्दापुष्करिणीनां नामनानात्वं, तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि विजया दक्षिणस्यां वैजयन्ता अपरस्यां जयन्ता उत्तरस्यामपराजिता, शेषं तथैव यावत्प्रत्येकं प्रत्येकमष्टशतं धूपकडुच्छुकानामिति । षोडशानामपि चामीषां ॥३६४॥ ४ वापीनामपान्तराळे प्रत्येक प्रत्येक रतिकरपर्वतौ जिनभवनमण्डितशिखरौ शास्त्रान्तरेऽभिहिताविति सर्वसङ्ख्यया नन्दीश्वरद्वीपे द्वापश्चा-1 शत् सिद्धायतनानि ॥ 'तत्य ण'मित्यादि, 'तत्र' तेषु सिद्धायतनेषु णमिति पूर्ववत् बहवो भवनपतिवानमन्तरज्योतिष्कवैमानिका अनुक्रम [२९४] 2-644 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~731~ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: S 62-% प्रत सूत्रांक [१८३] C46-% दीप देवाश्चातुर्मासिकेपु पर्युषणायामन्येषु च बहुषु जिनजन्मनिष्क्रमणज्ञानोत्पादपरिनिर्वाणादिषु देवकार्येषु देवसमितिषु, एतदेव पर्याय-61 येन ध्याचष्टे-देवसमवायेपु देवसमुदायेषु आगताः प्रमुदितप्रक्रीडिता अवाहिकारूपा महामहिमाः कुर्वन्तः सुखंसुखेन 'विहरन्ति'। भासते । अदुत्तरं च णं गोयमा!' इत्यादि, अथान्यद् गौतम! नन्दीश्वरवरे द्वीपे चक्रवालविष्कम्भेन बहुमध्यदेशभागे चतस्प। विदिक्षु एकैफयां विदिशि एकैकभावेन चत्वारो रतिकरपर्वताः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-एक उत्तरपूर्वस्यां द्वितीयो दक्षिणपूर्वस्वां तृतीयो दक्षिणापरस्यां चतुर्थं उत्तरापरस्याम् ।। 'ते 'मित्यादि, ते रतिकरपर्वता दश योजनसहस्राण्यूजभुस्खेन एक योजनसहस्रमुढेधेन सर्ववसमा ग्रहरीसंस्थानसंस्थिता दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन एकत्रिंशद् योजनसहस्राणि षट्त्रयोविंशानि योजनशतानि परिपेण 2 | सर्वात्मना रवमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः, तत्र योऽसावुत्तरपूर्वो रतिकरपर्वतस्तस्य 'चतुर्दिशि' चतुर्दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकराजधानीमाबेन ईशानस देवेन्द्रस्य देवराजस्य चत्तमूणामयमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाश्चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञप्तास्तपथा-पूर्वस्यां दिशि : नन्दोत्तरा दक्षिणस्यां नन्दा पश्चिमायामुत्तरकुरा उत्तरस्यां देवकुरा, तत्र कृष्णाया:-कृष्णनामिकाया अप्रमहिष्या नन्दोत्तरा कृष्ण राज्या नन्दा रामाया उत्तरकुरा रामरक्षिताथा देवकुरा, तत्र योऽसौ दक्षिणपूर्वो रविकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवहाराजसा चतसृणागतमहिपीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाश्चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञातास्तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि सुमना: दक्षिणस्यां सौमनसा अपरस्याग चिर्माली उत्तरस्यां मनोरमा, सन्न 'पद्माया' पद्मनामिकाया अप्रमाहिघ्या सुमनाः शिवायाः सौमनसा शच्याश्वाचिर्माली अञ्जुकाया ४ा मनोरमा, तत्र योऽसौ दक्षिणपश्चिमो रतिकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणामग्रमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाराणाश्चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञतास्तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि भूता दक्षिपास्यां भूतावतंसा अपरस्यां गोस्तूपा उत्तरस्यां सुदर्शना, तत्र 'अम OCCANADANGA अनुक्रम [२९४] 61 WE ~732~ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३६५ ॥ Ja Ekemon “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], • मूलं [१८३] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित लायाः' असलनामिकाया अग्रमहिष्या भूता राजधानी अप्सरसो भूतावतंसिका नवनिकाया गोस्तूपा रोहिण्या: सुदर्शना, तत्र योऽसावुत्तरपश्चिमो रतिकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणामप्रमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाश्रतत्रो राजधान्यः प्रज्ञतास्तयथापूर्वस्यां दिशि रत्ना दक्षिणस्यां रत्नोचया अपरस्यां सर्वरत्ना उत्तरस्यां रनसञ्चया, तत्र वसुनामिकाया अग्रमहिया रक्षा वसुप्राप्ताया रनोच्या वसुमित्रायाः सर्वरत्ना वसुंधराया रनसञ्चया । रतिकरपर्वतचतुष्टयवक्तव्यता केषुचित्पुस्तकेषु ससर्वथा न दृश्यते । कैलासहरिवाहननामानौ च द्वौ देवौ तत्र यथाक्रमं पूर्वापरार्द्धाधिपती महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः, तत एवं नन्द्या- समृद्ध्या 'टुन्दु समृद्ध' इति वचनात् ईश्वर:- स्फातिमान् न तु नाम्नेति नन्दीश्वरः, तथा चाह- 'से एएणद्वेण' मित्यागुपसंहारवाक्यं प्रतीतं चन्द्रादिसङ्ख्यासूत्रं प्राग्वत् ॥ दिस्सरवरणं दी गंदीसरोदे णामं समुड़े बट्टे वलयागारसंठाणसंठिते जाव सवं तहेव अहो जो खोदोदगस्स जाव सुमणसोमणसभा एथ दो देवा महिडीया जाय परिवसंति से सं तहेब जाव तारग्गं ॥ ( सू० १८४ ) 'नंदीसरण' मित्यादि, नन्दीश्वरं णमिति पूर्ववत् नन्दीश्वरोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् | संपरिक्षिप्य तिष्ठति यथैव क्षोदोदकसमुद्रस्य वक्तव्यता तथैवास्याप्यर्थसहिता वक्तव्या, नवरमत्र सुमनसुमनसौ च द्वौ देवौ वक्तव्यौ, तावतिशयेन स्फीताविति नन्दीश्वरयोरुदकं यन्त्रासौ नन्दीश्वरोदः, अथवा नन्दीश्वरवरं द्वीपं परिवेष्r स्थित इति नन्दीश्वरं प्रति लग्न For P&P Cy ३ प्रतिपत्ती नन्दीश्वरोदः ~733~ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् नन्दीश्वर समुद्र आदि द्वीप समुद्राधिकारः आरभ्यते उद्देशः २ सू० १८४ ।। ३६५ ।। heatery w Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८४] दीप अनुक्रम [ २९५ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [१८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः मुदकं यस्यासी नन्दीश्वरोदः, एवं सर्वत्रापि समुद्रेषु द्वीपे च व्युत्पत्तिर्यथायोगं भावनीया ॥ एवमेते जम्बूद्वीपादयो नन्दीवरसमुद्रपर्यवसाना एकमव्यवतारा उक्ता:, अत ऊर्द्धमरुणादीन द्वीपान् समुद्रांच प्रत्येकं त्रिप्रत्यवतारान् विवराह नंदीसरोदं समुई अरुणे णामं दीये वडे वलयागार जाव संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति । अमणे णं भंते! दीवे किं समचक्रवालसंटिने विसमवायसंठिए, गोयमा ! समयवालसंठिने नो विसमचकवालसंठिने, केवलियं चक्रवालवि० संठिने ? संखेनाहं जोयणस्यसहस्वा चकवालविक्रमेण संखेजाई जोयणसहस्सा परिकण्वेवेणं पण्णत्ते, पमवरण द्वारा द्वारा य तहेव संखेजाई जोयणसतसहस्साई दारंतरं जाव अहो, बावीओ खोतोगपत्थिाओं उप्पा पका सव्ववदरामया अच्छा, अलोग वीनसोगा य एत्य दुवे देवा सहिहीया जाय परिवसंति, से तेण० जाव संग्वेज सधं ॥ अरुणण्णं दीवं अरुणोदे णामं समु तस्यवि न परिraat अट्टो ग्वोतोदगे णवरिं सुभह सुभदा एत्थ दो देवा महिडीया सेनहेच ॥ रुद समुदं अरुणवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंवाण तव संखेजगं सव्वं जाच अहो मोयोगप freeथाओं उपनया सम्बबहरामया अच्छा, अरुणवर अरुणवरदो देवा महिहीया । एवं अरुणवरोदेवि समुद्दे जाय देवा अरुणवर अरुणमहावरा पदो देवा से सहेव || अरुणवरोदणं समुहं अरुणवरावभासे णामं दीये वहे जाव देवर अरुणवराजालमहा For P&Praise City ~734~ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ---------- मूलं [१८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवा ----- प्रत सूत्रांक [१८५] पवीत्राभिः M रोमाइतिः मतिपत्ती निमत्यव| ताराद्वीघिसमुद्राः उद्देशः२ सू०१८५ - - -- - दीप अनुक्रम [२९६ aaimummenemama कणवरावभासमहाभदा पत्य दो देवा जहिहीया । एवं अरुणवरावभासे सधुर चरि देवा अरुणवरावभासवरामणवरावभासमहारापत्य दो दवा महिहीया।। कुंडलेदीये डलमडलमहाभदा दो दवा महिहीथा, कुंडलादे समुद्दे चक्खुसुभचक्खुकता एस्थ दो देवा म०। कुंडलबरे दीये कुंडलवरभाहकुंडलवरमहामहा एत्य दो देवा महिडीया, कुंडलवरोदे समुहे कुंडलवर [चर] कुंडलवरमहाबरा पत्य दा दवा म०॥ कुंडलवरावभासे दीच कुंडलवरावभासभरकुंडलवरावभासमहामहा पत्थ दो देवा०॥ कुंडलबरोभासोदे समुरे कुंडलवरोभासवरकुंडलवरोभासमहावरा एथ दो देवा म जावपलिओवभट्ठितीया परिवसंति ।। कुंडलवरोभासं णं समुई कचगे णाम दीवे बहे बलया० जाब चिट्ठति, किं समचक विसमचकवाल?, गोयमा समचकवाला नो विसमचकवाल संटिते, केवतियं चकवाल पण्णते?, सव्वट्ठ मणोरमा एस्थ दो देवा सेसं तहेव । रूपगोदे नाम समुदे जहा खोदोदे समुद्दे संग्वेजाई जोयणसतसहस्साई चकवालवि० संखेजाई जोयणसतसहस्साई परिक्खेवेर्ण दारा दारंतरंपि संखेजाई जोतिसंपि सव्वं संखेज भाणियवं, अट्ठोवि जहेव खोदोदस्स नवरि सुमणसोमणसा एस्थ दो देवा महिहीया तहेव रुथगाओ आवृत्तं असंखेज़ विक्खंभा परिक्खेवो दारा दारंतरं च जोइसं च सवं असंखेज भाणियब्वं । रुयगोदणं समुई रुयगवरं णं दीचे बट्टे रुयगवरभहरूयगवरमहाभहा एत्थ दो -- - -- -३००] - --- - - - - Jantic - - अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 735~ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], --------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], -------------------- मूलं [१८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५] देवा रुयगवरोदे रुयगवररुयगवरमहावरा एत्थ दो देवा महिहीया । रुपगवरावभासे दीवे रुयगवरावभासभहरुयगवरावभासमहाभदा एस्थ दो देवा महिहीया । रुयगवरावभासे समुद्दे रुयगवरावभासवररुयगवरावभासमहावरा एत्थ० ॥ हारदीवे हारभद्दहारमहाभद्दा एत्थ०। हारसमुद्दे हारवरहारवरमहावरा एत्थ दो देवा महिडीया । हारबरोदे हारवरभद्दहारवरमहाभहा एस्थ दो देवा महिहीया । हारवरोए समुद्दे हारवरहारवरमहावरा एत्थ० । हारवरावभासे दीये हारवरावभासभद्दहारवरावभासमहाभद्दा एस्थ । हारवरावभासोए समुद्दे हारवरावभासवरहारवरावभासमहावरा एत्थः । एवं सब्वेवि तिपडोयारा तब्वा जाव सूरवरोभासोए समुद्दे, दीवेसु भहनामा वरनामा होति उदहीसु, जाव पच्छिमभावं च खोतवरादीसु सयंभूरमणपज्जतेसु वावीओ खोओदगपडिहस्थाओ पव्ययका प सब्यवरामया । देवदीये दीये २ दो देवा महिडीया देवभहदेवमहाभद्दा एत्थ० देवोदे समुद्दे देववरदेवमहावरा एस्थ० जाव सयंभूरमणे दीवे सयंभूरमणभद्दसयंभूरमणमहाभदा एत्थ दो देवा महिहीया। सयंभुरमणपण दीवं सयंभुरमणोदे नामं समुद्दे वहे वलया. जाव असंखेजाई जोयणसतसहस्साई परिक्खेवेणं जाव अहो, गोयमा! सयंभुरमणोदए उदए अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवपणाभे पगतीए उद्गरसेणं पण्णत्ते, दीप अनुक्रम [२९६ - - tukAR -३००] - - जी०६२ ~ 736~ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८५] दीप अनुक्रम [२९६ -३००] “जीवाजीवाभिगम" श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ६६७ ॥ - उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)], मूलं [ १८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः सयंभुरमणवरसयंभुरमणमहावरा इत्थ दो देवा महि हीया, सेसं तहेब जाव असंखेनाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभैंसु वा ३ ।। (सू० १८५) 'नंदीसरवरोदण्णं समुह 'मित्यादि, नन्दीश्वरोदं समुद्रमरुणो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकार संस्थान संस्थितो यावत्परिक्षिप्य तिइति । चैव क्षोदवरद्वीपवक्तव्यता सैवात्राप्यर्थसहिता वक्तव्या, नवरमत्र वाध्यादयः क्षीरो (क्षोदो) दकपरिपूर्णाः, पर्वतादयस्तु सर्वालना वज्रमया वक्तव्याः, अशोकवीतशोकौ च हौ देवौ स च देवप्रभया पर्वतादिगतवत्ररत्रप्रभया चारुण इति अरुणनामा || 'अरुण(ण्णमित्यादि, अरुणं णमिति पूर्ववत् द्वीपमरुणोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति । चैव क्षोदोदकसमुद्रयक्तव्यता सैहापि वक्तव्या, नवरमंत्र सुभद्रसुमनोभद्रनामानौ द्वौ देवौ वक्तब्य ततोऽरुणद्वीपपरिक्षेषी यदिवा सुभद्रसुमनोभद्रदेवाभरणारुणं - आरक्तमुदकं यस्यासावरुणोदयः || 'अरुणोदण्णमित्यादि, अरुणोदं समुद्रमरुणवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकार संस्थितो यावत्परिक्षिप्य तिष्ठति । अत्रापि वक्तव्यता सैत्र नवरमत्रारुणवरभद्रारुणवरमहाभद्रौ देवौ वाच्यौ, नामव्यु त्पत्तिभावनाऽपि स्वधिया भावनीया || अरुणवरद्वीपमरुणवरोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितो यावत्परिक्षिप्य ति छति । अत्रापि वक्तव्यता सैत्र नवररुणवरारुणमहाववत्र देवी || अरुणवरोवं समुद्रमरुणवरावभासो नाम द्वीपो वृत्तो यावत्परि क्षिप्य तिष्ठति, बव्यता अत्रापि क्षोदवरद्वीपवत् नवरमन्त्रारुणवरावभासभद्रारुणवरावभासमहाभद्रौ देवौ । अरुणावभासं द्वीपमरुणावभासो नाम समुद्रो वृत्तो यावत्परिक्षिप्य तिष्ठति वक्तव्यताऽत्रापि क्षोदोदसमुद्रवन् नवरमंत्रारुणवरावभासवरुणवरावभासमहावरौ देवौ । तदेवमरुणो द्वीपः समुद्रश्च त्रिप्रत्यवतार उक्तस्तवथा अरुणो द्वीपोऽरुणः समुद्रः अरुणवरो द्वीपः अरुणवरः समुद्रः For P&Praise Cnly ३ प्रतिपत्ती त्रिप्रत्यव तारा द्वी ~737~ पसमुद्राः उद्देशः २ सू० १८५ ।। ३६७ ।। अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५] -44704 -5642 दीप अनुक्रम [२९६ अरुणवरावभासो द्वीपोऽरुणवरावभासः समुद्रः ॥ एवं कुण्डलो द्वीपः कुण्डल: समुद्रश्न विप्रत्यवतारो वक्तव्यस्तयधा-अरुणवरावभाससमुद्रपरिक्षेपी कुण्डलो द्वीपः तत्परिक्षेपी कुण्डल: समुद्रः तत्परिक्षेपी कुण्डलवरो द्वीप: तत्परिक्षेपी कुण्डलवर: समुन्द्रः तत्परिक्षेपी कुण्डलवरावभासो द्वीपः तत्परिक्षेपी कुण्डलवरावभासः समुद्रः, वक्तव्यता सर्वत्रापि क्षोदबरद्वीपक्षोदोदसमुद्रबद्रष्टश्या, नवरं देवता नामिदं नामनानात्वं-कुण्डले द्वीपे कुण्डलभद्रकुण्डलमहाभद्रौ द्वौ देवी, कुण्डलसमुद्रे चक्षुःशुभचक्षुःकान्तो, कुण्डलवरे द्वीपे कुण्डप्रलवरभद्रकुण्डलबरमहाभद्रो, कुण्डलबरे समुद्रे कुण्डलवरकुण्डलबरमहावरौ कुण्डलवरावभासे द्वीपे कुण्डलवरावभासभद्रकुण्डलपराव भासमहाभद्रौ, कुण्डलवरावभाले समुद्रे कुण्डलबरावभासवरकुण्डलवरावभासमहावरौ । कुण्डलवरावभाससमुद्रपरिक्षेपी रुचको द्वीपो रुचकद्वीपपरिक्षेपी कचक: समुद्रः तत्परिक्षेपी रुचक्रवरो द्वीपस्तसरिझेपी रुचकवरः समुद्रः तत्परिओपी रुचकवरावभासो द्वीप:।। तत्परिक्षेपी रुचकवरारभासः समुद्रः, वक्तव्यता सर्वत्रापि प्राग्वत् नवरं देवनामनानालं, रुचके द्वीपे सर्वार्थमनोरमौ देवो, रुचकस-14 8मुद्रे सुमनःसौमनसी, रुचकबरे द्वीपे रुचकवरभद्ररुचकवरमहापद्रो, रुचकबरे समुद्रे रुचकवररुचकवरमहावरी, रुचकवरावभासे || द्वीपे रुचकवरावभासभरुचकबरावभासमहाभद्रौ, रुचकवरावभाले समुद्रे रुचकवरावभासवररुचक्रवरावभासमहावरी, एतावता अ-11 न्थेन यदन्यत्र पठ्यते-जंबूडीवे लवणे धायर कालोय पुक्खरे वरुणे । खीरघ यखोयनंदी अरुणवरे कुंडले रुयगे ॥१॥" इति त हावितम् । अत ऊर्द्ध तु यानि लोके राजवजकलशश्रीवत्सादीनि शुभानि नामानि तन्नामानो द्वीपसमुद्राः प्रयतयाः, सर्वेऽपि च। ४/ त्रिप्रत्यवतारा:, अपान्तराले च भुजगवरः कुशवरः काञ्चवर इति । तथा यानि कानिचिदाभरणनामानि हाराहारप्रभृतीनि यानि वस्तुनामानि आजिनादीनि बानि गन्धनामानि कोप्यादीनि यान्युत्पलनामानि जलरुहचन्द्रोद्योतप्रमुखाणि यानि च तिलकप्रभृतीनि -३००] ~ 738~ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ---------- मूलं [१८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक त्रिप्रत्यव [१८५] उद्देशः२ % दीप अनुक्रम [२९६ श्रीजीवा-वृक्षनामानि यानि च पृथिव्याः "पुढवीसकरावालुया उ उबले सिला य लोणूस” इत्यादि पत्रिंशझेदाभिन्नाया निधीनां नवानां रखाना आना प्रतिपत्तो जीवाभिचतुर्दशानां चक्रवर्तिसम्बन्धिनां वर्षधरपर्वताना-शुलहिमवदादीनां व्हदाना-पद्ममहापमानां नदीना-शासिन्धुप्रभृतीनां महानदीना मलयगि- अन्तरनदीनां च विजयानां-कच्छादीनां द्वात्रिंशतो वक्षस्कारपर्वतानां-माल्यबदादीनां कस्पाना-सौधर्मादीनां द्वादशानाम इन्द्राणारीयाशिल शादीनां दशानां कुरूणां-देवकुशात्तरकुरूणां मन्दर स्य-रोभावासाना-शकादिसम्बन्धिना मेरुमलासनादीनां भवनपत्यादिसम्प-1 पसमुद्राः 18|न्धिनां च फूटाना-नुहहिमबदादिसम्बन्धिना नक्षत्राणां-कृत्तिकादीनामष्टाशिनेः चन्द्रागां सूर्याणां च नामानि तानि सीण्यपिटा ॥२६८॥ द्वीपसमुद्रेपु त्रिप्रत्यवताराणि वक्तव्यानीति दिदर्शविपुराह-एवं हारदीये' इत्यादि, एवं च हारो द्वीपो हारोदः समुद्रः, हारबरो द्वीपो हारवरः समुद्रः, हारबरावभासो द्वीपो हारवरावभास: समुद्रः, द्वीपसमुद्रवक्तव्यता पूर्ववन, नवरं हारे द्वीपे हारभद्रहारमहा-16 हाभद्रौ देवी हारे समुद्रे हारवरहारमहावरी, हावरे द्वीपे हारवरभद्रहारवरमहाभद्री, हारवरे समुद्रे हारवरहारवरमहावरी, हारवरावभासे | द्वीपे हारवरावभासभद्रहारवरावभासमहाभद्रौ, हारवरावभासे समुद्रे हास्वरावभासवरहारवरावभासनहावरी । एवं शेषाणामप्याभरणनामा विप्रसवतारो वक्तव्य:-अहारो द्वीपः अर्द्धहार: समुद्रः, अर्द्धदारबरो द्वीपः अर्द्धहारबरः समुद्रः, अद्धहारवरावभासो द्वीपः अर्द्धहारवरावभास: समुद्रः, कनकाबलिद्वीपः कनकायलिसमुद्रः, कनकावलिवरो श्रीपः कन०६० समुद्रः, कनकावलिवरावभासो द्वीपः कनकावलिवरावभासः समुद्रः, राबलिद्वीप: रबावलिः समुद्रः, रमावलिवरो द्वीप: रावलिवरः समुद्रः, रत्नावलीवरावभासो| द्वीपः रत्नावलीपरावभास: समुद्रः मुक्तावली द्वीप: मुक्तावली समुद्रः मुक्तावलीवरो द्वीपः मुक्तावलीवरः समुद्रः मुक्तावलिवरावभासो द्वीपो ॥३६८ मुक्तावलिवरावभासः समुद्रः । वस्तुनामचिन्तायामपि आजिनो द्वीपः आजिन: समुद्रः, आजिनवरो द्वीप: आजिनवरः समुद्रः, आ-17 % -३००] % 4% JEscam अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 739~ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५] 11. Air "L दीप अनुक्रम [२९६ जिनवरावभासो द्वीप: आजि नवरात्रभासः समुद्र इत्यादि । देवचिन्तायामपि अर्द्धहारे द्वीपऽर्द्धहारभद्रार्द्धहारमहाभद्री देवौ, अर्द्धहारे । समुद्रेऽद्धहारवराहारमहापरी, अहारवरे द्वीपेऽद्धहारवरभद्रा हारवरमहाभद्रौ, अहारवरे समुद्रऽ हारवगाहारवरमहावरी, अर्बहारावभासे द्वीपेऽजहारदरावभासनद्राहारवरावभासमहाभद्रौ, अर्द्धहारवरावभासे समुद्रेऽद्विारबरावभासवराहारवरावभास-1 महापरी, कनकापलिपीपे कनकाबलिभद्रफनकालिमहामनी, कनफायली समुद्रे कनकायलिवरकनकावलिमहावरी, कनकायलिबरे। द्वीपे कनकालिपरभामा नकाबलिपरमहाभद्री, कनकालिबरे समुद्रे कनकाबलिवर कनकावलिवरमहायरी, कनकावलिवरापभासे द्वीप कनकालिबराबभालभद्र कग कावलिबराबभासमहाभद्रौ, कनकावलिवरावभासे समुद्रे कनकावलिवरावभासबरकनकावलिवरावभासमहाबरी, रमावली द्वीप रमाबलिभदरबावलिमहाभद्री, रमाबली समुरबावलिबररत्नावलिमहावरी, रमावलियरे द्वीपे रसायलिपरभद्ररनावलिकरमहाभद्री, रापलिबरे समुद्र रमावलिवररत्नावलीवर महावरी, रजावलिवरावभासे द्वीपे रमावलिवरावभासभरबाय-1 लिबराबभासमहाभद्री, रनावलिबरावमासे समुद्र रत्नावलिवरावभासवररत्नावलियराबभालमहावरी, मुक्तावली द्वीपे मुक्तावलिभद्रमुक्तावलिमहाभद्रौ, भुक्तावली समुद्र मुक्तावलिबरयुक्तावलिमहावरी, मुक्तावलिबरे द्वीपे मुक्तावलिवरभद्रमुक्तावलिबरमहाभद्री, मुक्ताविलियरे समुद्रे मुकाबलिवर मुक्तावलिमहावरी, मुक्तावलिवरावभासे द्वीपे मुक्तावलिबराबभासभद्रमुक्तावलिवरावभासमहाभद्री, मुक्ता बलिवरावभासे समुत्रे मुकाबलिवरावभासबरमुक्तावलिवरावभासनहापरी, आजिने द्वीपे आजिनभद्राजिनमहाभद्री, आजिने समुद्रे आ| जिनवराजिनवरमहावरी, आजिनवरे द्वीपे आजिनवरभद्राजिनबरमहाभद्री, आजिनवरे समुद्रे आजिनवराजिनवरमहाबरो, आजिन१ वरावभासे द्वीपे आजिनवरावभासभद्राजिनवरायभासमहाभद्रौ, आजिनवरावभासे समुद्रे आजिनवरावभासवराजिनवरावभासमहा .11. 409 -३००] ~740~ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ---------- मूलं [१८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५] s श्रीजीवा- बरौ । एवं सर्वत्रापि त्रिः प्रत्यवतारो देवानां नामानि च भावनीयानि यावत् सूर्यो द्वीप : सूर्यः समुद्रः, सूर्यबरो द्वीपः सूर्यवर: स-18/३ प्रतिपत्ती जीवाभि मुद्रः, सूर्यवरावभासो द्वीपः सूर्यवरावभास: समुद्रः, आह् च मूलचूर्णिकृत्-अरुणाई द्वीपसमुद्रा तिपडोयारा यावत् सूर्यावभासः त्रिप्रत्यवमलयगि- समुद्रः" तत्र सूर्य द्वीपे सूर्यभद्रसूर्यमहाभद्रौ देवी, सूर्ये समुद्रे सूर्यवरसूर्य महावरो, सूर्यवरे द्वीपे सूर्यवरभद्रसूर्यवरमहाभद्रौ, सूर्यबरे | ताराद्वीरीयावृत्तिः समुद्र सूर्यबरसूर्य महावरी, सूर्यवरावभासे द्वीपे सूर्यवरावभासभद्रसूर्यवरावभासमहाभद्रौ, सूर्यबराबभासे समुद्रे सूर्यवरावभासवरसूर्य-151 पसमुद्राः ॥३६९॥ हवरात्रभासमहावरौ । सूर्यवरावभाससमुद्रात्परं यदस्ति तदाह-सूरवरावभासण्णं समुदं देव नामं दीवे यट्टेइत्यादि, सूर्यवरा-6 उद्देशः२ भासं णमिति पूर्वयन् समुद्रं देवो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः समन्तासंपरिशिष्य निति । देवेणं भंते ! दीवे किसू०१८५ समचकावालसंठिने विममच बालसंठिए ?, गोपमा! समचकवालसंठिण नो विसमचकपालसंठिए, देवे णं भंते दीये केवइयं चकवालबिकवभेणं केवइयं परिक्वेणं पनते ?, गोयमा ! असंखे जाई जोयगसहस्साई चक्कबाल विश्वंभेणं, [अन्धाश्रम ११००.] असंखेनाई जोयणसयसहस्साई परिक्षेत्रण पन्नत्ते, से गं एगाए पजमबरबेश्याए एगणं वणसं टेणं परिक्खित्ते' सुगम, नवरम् एकया पद्म वरवेदिकयाऽप्रयोजनोच्छ्यजगत्युपरिभाविन्येति द्रष्टव्यं, एवमेकेन बनपण्डेन च, इदं तु सूर्व बहुपु पुस्तकेषु न दृश्यते केचिन् 'तहाहवे त्यतिदेश इति लिखितं ॥ 'करणं भंते !' इत्यादि, कति भदन्त ! देवस्य द्वीपस्य द्वाराणि प्रज्ञमानि?, भगवानाह-गौतम! चमावारि द्वाराणि प्रज्ञशानि, तगाथा-विजयं वैजयन्त जयन्तमपराजिनं !! कहि भंते ! देवस्त दीवस्से' यादि, के भदन्त ! देवस्य | 161द्वीपम्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञापम् ?. भगवानाह-गौतम देवद्वीपपूर्वार्द्धपर्यन्ते देवसमुद्रस्य पूर्वा(पत्रा)बस्य पश्चिमदिशि 'अन' एतस्मि-18 नवकाशे विजयं नाम द्वारं प्रज्ञ, प्रमाणं वर्णकश्च जम्बूद्वीपविजयद्वारवन , नामान्वर्थमूत्रमपि तथैव ।। 'कहिणं भंते' इत्यादि का दीप अनुक्रम [२९६ *440 * - -- -३००] * अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~741~ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], --------- मूलं [१८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५] भदन्त ! विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ?. भगवानाह-गीतम! विजयसा द्वारस्य पश्चिगदिशि तिर्यगसोयानि योजनशतसहस्राण्यवगाहात्रान्तरे विजयस्य देवन्य विजया नाम राजधानी प्रशमा, सा च जन्यूद्वीपविजय हाराधिपतिविजयदेवखेत्र। वक्तलया । एवं वैजयन्तजगन्तापराजितद्वारयजयवाऽपि मावनीया, ज्योतिष दक्तव्यता सीऽप्यसोयतया वक्तव्या, नासाम्यधिअसावानपि देवभद्रपेयरहामन्द्रो वक्तव्यो, शेपं सदी का 'देव दीपमिलातिदेवामिति गर्वचन हाचा सो तो वलयाकार संस्थानसंस्थितो वापरपरिशिदीत सामावारालाविभूताशितदेव नवरयोग पाएर मावि धारको वनर्याशेपरन्ते नागडीपी (पवाद दिनिधि रानी विजारमण पश्चिमदिशि नि . राजधानी जिपवारसा पगिविशिवलियासजियममा वकया । द बैजयन्तजयारतापराजिना - माया राजिनामापविमा यथायोडागा, जो या तीर सदागमहाभर का देयः नुमः सामागः रामुखः नरंजनी रो करना, परंप दीप अनुक्रम [२९६-३००] mmsmaranamera:Aroenerahmansement न्यू रायडीये खयरमणमट समभापणमहामहो. रूपारामे मा पुखपभूननवभूगावरी. देवादिषु एबगु चब श्रीपे। मायनियतारता यति, तामीले बरयाः सदा वाह.. रे दागे उक्ले भूए य सबम्भूरमाणे भए जियो । मुटीकाकारोऽन्याह-वादयोऽन्यासकाकारा" इति, पूर्णिकारोऽप्यार- नागे जस्खे भूए च सयंभूरमणे पोऽनिसमा पभ एक काः प्रतिपत्तम्या:" नन्दीधरातिद्वीपान खवम्भूरमणद्वीपपर्यवसानानामवचिन्तायां बाप्यः पुष्करिण्य: च-1 ~742~ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------ ------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ---------- मूलं [१८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५] द्वीपसमु णोदाधु दीप अनुक्रम [२९६ श्रीजीवा- शब्दाद् दीर्घिकादयश्व क्षीरो(क्षोदो)दकपरिपूर्णा वक्तव्याः, पर्वतादयश्च सर्वात्मना बनमयाः, नन्दीश्वरसमुद्रादीनां भूतसमुद्रपर्यवसानानाम8 प्रतिपत्तौ जीवाभि० वर्धचिन्तायामुदकमिक्षुरससदृशं वक्तव्यं, स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य पुष्करोदसघशं, 'रुयगाइण'मित्यादि प्रथमोऽसवप्रमाणतया रुचक- सहनामामलयगि- |नामा यो द्वीपस्तदादीनां द्वीपसमुद्राणां विष्कम्भपरिक्षेपद्वारान्तराणि ज्योतिप्कं चाविशेपेणासयेयं वेदितव्यं ।। साम्प्रतमेकैकेन जम्यू- 1नोऽसंख्या रीयावृतिः उाद्वीपादिनाना कियन्तो द्वीपा: समुद्राश्च ? इति निर्णतुकाम आहकेवइया णं भंते ! जंबुद्दीया दीवा णामधेज्जेहिं पपणत्ता?, गोयमा! असंखेजा जंबुद्दीवा २ नाम द्राः लब॥३७॥ धेजेहिं पण्णता, केवतिया णं भने! लवणसमुद्दा २ पण्णता?, गोयमा! असंखेजा लवणसमुदा नामधेजेहिं पक्षणता, एवं चायतिसंडावि, एवं जाव असंग्जा सूरदीया नामधेजेहि य । एगे देवे दीवे पण्णते एगे देवोदे समुद्दे पपणते, एवं णागे जक्वे भूने जाव एगे सयंभूरमणे दीवे उद्देशः२ एगे सयंभूरमणसमुद्दे णामधेजेणं पण्णत्ते ॥ (सू०१८६) लवणसणं भंते ! समुदस्स उदए सू०१८६केरिसए अस्साएणं पण्णते?, गोयमा! लवणस्स उदए आइले रइले लिंदे लवणे कटुए अपेजे बहणं दुपयचप्पयमिगपसुपक्विसरिसवाणं णपणत्थ तजोणियाणं सत्ताणं ॥ कालोपस्स णं मंते! समुदस्स उदए केरिसए अस्सारणं पण्णते?, गोयमा! आसले पेसले मांसले कालए ॥३७०॥ भासरासिवण्णाभे पगतीए उदगरसेणं पण्णत्ते ॥ पुक्खरोदगस्स पं भंते! समुदस्स उदए केरिसए पपणते?, गोयमा! अच्छे जच्चे तणुए फालियवण्णाभे पगतीए उद्गरसेणं पण्णत्ते ॥ -३००] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~743~ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८६ -१८७] दीप अनुक्रम [ ३०१ -३०२] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१८६- १८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः वरुणोदस्स णं भंते!, गोयमा! से जहा णामए - पत्तासदेति वा चोयासवेति वा खज्जूरसारेति वा सुपकखोतरसेति वा मेरएति वा काविसायणेति वा चंदप्पभाति वा मणसिलाति वा वरसीति वा परवारुणी वा अट्ठपिट्ठपरिणिहिताति वा जंबुफलकालिया वरष्पसण्णा उक्कोसमपत्ता सिउावलंबिणी ईसितंबच्छिकरणी ईसिवोच्छेयकरणी आसला मांसला पेसला वणं उबवेता जाव णो तिगडे समहे, वारुणोदए इत्तो इतरए चैव जाव अस्साएणं प० । खीरोदस्स णं भंते । उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते ?, गोषमा ! से जहा णामए रनो चाउरंतचक्कवहिस्स चाउरके गोखीरे पजत्तिमंदग्गिसुकट्टिते आउत्तरखंडमच्छंडितोववेते वण्णेणं उवेते जाव फासेण उववेए, भवे एयारूवे सिया?, णो तिणट्ठे समट्ठे, गोयमा! वीरोयस्स० एसो इह जाव अस्साएणं पण्णत्ते । घनोदस्स णं से जहा णामए सारतिकस्स गोararta मंडे सल्लहकणियारपुष्वण्णाभे सुकति उदारसज्झवीसंदिते वण्णेणं उबवेते जाव फासेण ववे भवे एघारूवे सिया ?, णो तिणट्टे समट्ठे, इत्तो इयरो० खोदोदस्स से जहा णामए उच्छूण जचपुंडकाण हरियालपिंडराणं भेरुंडछणाण वा कालपोराणं तिभागनिव्वाडियवाडगाणं बलवगणरजंतपरिगालिपमित्ताणं जे य रसे होज्जा वत्थपरिपूए चाउज्जातगसुवासिते अहियपत्थे लहुए वण्णेणं उबवे जाव भवेयारूवे सिया?, नो तिणट्टे समट्ठे, पत्तो इहपरा०, एवं सेस For P&Praise City ~744~ *% *%%%%%%%%%%* Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशकः [(द्विप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१८६-१८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८६ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३७१ ॥ युदकं -१८७]] 22-%es गाणवि समुहाणं भेदो जाव सयंभुरमणस्स, णवरि अच्छे जचे पत्थे जहा पुक्खरोवस्स । कति ३ प्रतिपत्ती णं भंते ! समुद्दा पत्तेगरसा पण्णत्ता?, गोयमा! चत्तारि समुदा पत्तेगरसा पपणत्ता, तंजहा लवणोदालवणे वरुणोदे खीरोदे घयोदे । कति भंते! समुद्दा पगतीए उदगरसे णं पण्णसा?, गोयमा! तओ समुद्दा पगतीए उदगरसेणं पपणत्ता, तंजहा-कालोए पुक्खरोए सयंभुरमणे, अवसेसा उद्देशः२ समुद्दा उस्सपणं खोतरसा पं० समणाउसो!॥ (सू०१८७) सू० १८० 'केवइया णमित्यादि, कियन्तो भदन्त ! जम्बूद्वीपा द्वीपाः प्रज्ञप्ता: १, जम्बूद्वीपादिनाना कियन्तो द्वीपाः प्रशला इत्यर्थः, एवमुके भगवानाह-गौतम ! असावेया जम्बूद्वीपा द्वीपा: प्रज्ञप्ताः, जम्बूद्वीपा इति नाम्नाऽसया द्वीपा इति भावः, एवं लवण इति नामा| इसमयेयाः समुद्राः, धातकीपण्ड इति नानाऽसोया द्वीपा:, कालोद इति नानाइसलयेयाः समुद्राः, एवं यावत्सूर्यवरावभास इतिहा नानाऽसशपेयाः समुद्राः, तथा चाह-एवं जाव' इत्यादि, एवं' 'उक्तेन प्रकारेण तावद्वाच्यं यावदसोयाः सूर्याः सूर्य इति नानाड़ा शनिप्रत्यवतारपतितेनेति गम्यते, अरुणादारभ्य देवद्वीपादाक् सर्वेषामेव त्रिप्रत्यवतारतयाऽनन्तरमेवाभिधानान्, समुद्राः प्रज्ञप्ताः ॥ | सम्पति देवादीनधिकृत्य प्रअनिर्वचनसूत्राण्याह-कडणं भंते' इत्यादि, कति भदन्त ! देवद्वीपा: प्रज्ञप्ता: ?, भगवानाह-गौतम एको देवद्वीपः प्रज्ञप्तः, एवं दशाप्येते एकाकारा वक्तव्याः , तथा चाह-एवं जाब एगे सयंभूरमणे समुद्दे पन्नत्ते' इति । 'लवणे णं| समुद्दे केरिसए आसाएणं पन्नत्ते?' इत्यादीनि तु लवणकालोदपुष्करोदवरुणोदक्षीरोदघृतोदक्षोदोदविषयाणि सप्त सूत्राणि स्वयं भा-1 वनीयानि, भावार्थस्य प्रागेवाभिहित त्वात् , शेषाः समुद्रा यथा क्षोदोदः समुद्रस्तथा प्रतिपत्तव्याः, नवरं स्वयम्भूरगणसमुद्रो यथा| दीप अनुक्रम [३०१-३०२] M३७११ +16 44 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~~745~ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८६ -१८७] दीप अनुक्रम [ ३०१ -३०२] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(द्विप्-समुद्र)]. मूलं [१८६- १८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: पुष्करोदः ॥ सम्प्रति ये प्रत्येकरसा ये च प्रकृत्युदकरसास्तान् वैवित्तयेनाह - 'कइ णं भंते!' इत्यादि, कति भदन्त ! समुद्राः 'प्रत्येक| रसाः' समुद्रान्तरैः सहासाधारणरसाः प्रज्ञप्ताः १, भगवानाह - गौतम! चत्वारः प्रत्येकरसाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-लवणोदः वरुणोदः क्षीरोदः घृतोदः, न हि लवणो वरुणोदः क्षीरोदो घृतोदो वाऽन्यः समुद्रो यथोक्तरसः समस्ति तत एते चत्वारोऽपि प्रत्येकरसाः || 'कइ णमित्यादि, कति भदन्त ! समुद्राः प्रकृत्या उदकरसाः प्रज्ञप्ताः १, भगवानाह - गौतम! त्रयः समुद्राः प्रकृत्या उदकरसेन प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- कालोदः पुष्करोदः स्वयम्भूरगण:, अवशेषाः समुद्राः 'उस्सन्न' बाहुल्येन क्षोदरसा: श्रताः ॥ का कति णं भंते! समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता ?, गोयमा ! तओ समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता, तंजहा -लवणे कालोए सयंभुरमणे, अवसेसा समुद्दा अप्पमच्छकच्छभाइष्णा पण्णत्ता समणाउसो ! ।। लवणे णं भंते! समुद्दे कति मच्छजातिकुलकोडिजोणी पमुहस्यसहस्सा पण्णत्ता?, गोयमा ! सत्त मच्छजातिकुलको डीजोणी समुह सतसहस्सा पण्णत्ता लोए णं भंते! समुदे कति मच्छजातिः पण्णत्ता ?, गोयमा ! नव मच्छजातिकुलकोडीजोणी० ॥ सरमणे णं भंते! समुद्दे०, अद्धतेरस मच्छजातिकुल कोडी जोणी मुहसतसहस्सा पण्णत्ता ॥ लवणे णं भंते समुद्दे मच्छाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता गो०१, जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं पंचजोयणसयाई ॥ एवं कालोए उ० सत्त जोयणसताई ॥ सयंभूरमणे जहणेणं अंगुलस्स असंखेजति उकोसेणं दस जोयणसताई || (सू० १८८ ) For P&False City ~746~ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ----- ----------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ---- ----------- मूलं [१८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८८] दीप अनुक्रम [३०३] श्रीजीवा- 'कइणं भंते!' इत्यादि, कति भदन्त ! समुद्रा बहुमत्स्य कच्छपाकीर्णा: प्रज्ञताः?, भगवानाह-गौतम! त्रयः समुद्राः बहुमत्स्य-16 प्रतिपत्ती जीवाभि कच्छपाकीर्णाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-लवणः कालोदः खयम्भूरमणः, अवशेषाः स मुद्रा अल्पमत्स्यकच्छपाकीर्णाः प्रज्ञरा: न पुनर्निमत्स्यक-17 समुद्रेषुमलयगि-18 छपा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ सम्प्रवि लवणादिषु मत्स्यकुरकोडिपरिज्ञानार्थमाह-'लवणे णं भंते!' इत्यादि, लवणे मत्स्यकरीयावृत्तिः भवन्त ! समुद्रे 'कति' किंप्रमाणानि जानिप्रधानानि कुलानि २ जातिकुलाना कोटयो जातिकुलकोटयः मत्स्यानां जातिकुलकोटयो मा च्छपाः पजातिकुलकोटबस्तासा योनिप्रमुखाणि-योनिप्रवाहाणि शतसहस्राणि प्रामानि?, इहैकस्यामपि चोनौ अनेकानि जातिकुलानि म- सू०२८८ ॥३७॥रान्ति, यथा एफसामेव छगणयोनौ इमिकोटि कुलमिलियाकुलं पृश्चिककुछमित्यादि तत उकै चोनिप्रभुखशतसहस्राणीति, भगवानाह- दीपोद गौतम! सप्त जलमत्स्य जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि, एवं कालोदसूत्रं स्वयम्भूरमणसूत्रमपि भावनीयं, नवरं कालोहेधिमानं नव गत्यजासिकुल कोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि, खयम्भूरभणसमुद्रेऽत्रयोदश ॥ अधुना लवणादिपु मत्स्यप्रमाणभिधित्मराह- उदेशः २ 'लवणे णं भंते!' इत्यादि, लवणे भदन्त ! समुद्रे मत्स्यानां 'केमहालिका' किंमहती शरीरानगाहना प्रशता?, भगवानाह-गौतम सू० १८९ जधन्येनालासोयभाग उत्कर्पण पञ्च योजनशतानि ॥ एवं कालोदस्वयम्भूरमणसमुद्रविषये अपि सूत्रे भावनीये, नबर कालोदे । उत्कर्षतः सप्त योजनशतानि स्वयम्भूरमणे योजनसहस्रम् ॥ केबतिया णं भंते! दीवसमुद्दा नामधेजेहिं पण्णता?, गोयमा! जावतिया लोगे सुभा णामा सु'भा वपणा जाव सुभा फासा एवंतिया दीवसमुद्दा नामधेजेहिं पपणत्ता ॥ केवतिया णभंत! ।। ३७२।। दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं पपणत्ता ?, गोयमा! जावतिया अट्ठाइजाणं सागरोवमाणं उद्धारसमया अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्विप्-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~747~ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्विप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१८९-१९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८९ -१९०] दीप अनुक्रम [३०४-३०५] एवतिया दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं पन्नत्ता ॥ (सू० १८९) दीवसमुद्दा णं भंते! किं पुढविपरिणामा आउपरिणामा जीवपरिणामा पुग्गलपरिणामा?, गोयमा! पुढविपरिणामावि आउपरिणामावि जीवपरिणामावि पुग्गलपरिणामावि ॥ दीवसमुहसुणं भंत! सव्वपाणा सब्वभूया सब्वजीचा सव्वसत्ता पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववष्णपुख्या?, हंता! गोयमा! असति अदुवा अर्णतखुत्तो (सू०१९०) इति दीवसमुद्दा समत्ता ॥ 'केवड्या णं भंते!' इत्यादि, कियन्तो भवन्त! द्वीपसमुद्रा नामधेयैः प्राप्ताः १, यदि नाम समातुमिष्यन्ते तदा कियन्तस्ते | प्रज्ञप्ता इत्यर्थः, इयमत्र भावना-दीकैकेन नानाऽसया द्वीपा असयेया: समुद्राः प्रोच्यन्ते अन्तिमान देवादीन् पञ्च द्वीपान् पञ्च समुद्रान मुक्त्या, ततः सर्वसङ्ख्यया कियन्ति द्वीपसमुद्राणां नामानि ? इति, भगवानाह-गौतम! यावन्ति लोके सामान्यत: 'शुभानि नामानि शङ्खचक्रस्वस्तिककलशश्रीवत्सादीनि 'शुभा वर्णाः शुभा गन्धाः शुभा रसाः शुभाः स्पर्शाः' शुभवर्णनामानि शुभगन्धनामानि शुभरसनामानि शुभस्पर्शनामानि, पतावन्तो द्वीपसमुद्रा नामधेयैः प्रज्ञप्ताः, एतावन्ति द्वीपसमुद्राणां नामधेयानीति भावः ।।। सम्प्रत्युद्धारसागरोपमप्रमाणतो द्वीपसमुद्रपरिमाणमाह-केवइया णं भंते! इत्यादि, कियन्तो भदन्त! द्वीपसमुद्राः 'उद्धारेण' - | द्वारपल्योपमसागरोपमप्रमाणेन प्रज्ञप्ता: १, भगवानाह-हे गौतम! यावन्तोऽर्द्धतृतीयानामुद्धारसागरोपमाणां उद्धारसमया:-एकैकेन(क) सूक्ष्मवालापापहारसमचा एतावन्तो द्वीपसमुद्रा उद्धारेण प्रज्ञप्ताः, उक्त च-"उद्धारसागराणं अडाइजाण जत्तिया समया । दुगुणादुगुणपवित्थर दीवोदहि रज्जु एवइया |॥ १॥" 'दीवसमुद्दा णं भंते !' इत्यादि । द्वीपसमुद्रा णमिति पूर्ववत् भदन्त ! किं पृथिवीपरि S जी०६३ Jatician ~748~ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्विप्-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८९-१९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८९ प्रतिपत्ती पुद्गलपरिणामः उद्देशः२ सू०१९१ -१९० दीप अनुक्रम [३०४-३०५] श्रीजीवा- णामा अप्परिणामा जीवपरिणामाः पुदलपरिणामाः १, भगवानाह-गौतम! पृथिवीपरिणामा अपि अप्परिणामा अपि जीवपरिणामा जीवाभि अपि पुद्गल परिणामा अपि, पृथ्व्यन्जीवपुदलपरिणामात्मकत्वात्सर्वंद्वीपसमुद्राणाम् ॥ 'दीवसमुद्देसु णं भंते ! सबपाणा सधभूया' मलयगि- इत्यादि, द्वीपसमुद्रेषु णमिति पूर्ववत् सर्वेष्वपि गम्यते भदन्त ! सर्वे 'प्राणाः' द्वीन्द्रियादयः सर्वे 'भूताः' तरवः सर्वे 'जीवाना रीयावृत्तिः पञ्चेन्द्रियाः सर्वे 'सत्वाः' पृथिव्यावयः उत्पन्नपूर्वाः?, भगवानाह-गौतम! असकृदुत्पन्नपूर्वा अथवाऽनन्तकृत्वः, सर्वेषामपि सांव्यवहा॥ ३७३॥ रिफराश्यन्तर्गताना जीवानां सर्वेषु स्थानेषु प्रायोऽनन्तश उत्पादात् ।। तदेवं द्वीपसमुद्रवक्तव्यता गता ।। सम्प्रति द्वीपसमुद्राणां पुदलप-IN [रिणामलात् तेषां च पुगलानां विशिष्टपरिणामपरिणतानामिन्द्रियमाझलादिन्द्रियविषयपुगलपरिणाममाह कतिविहे गं भंते इंदियधिसए पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते?, गोयमा! पंचविहे इंदियविसए पोग्गलपरिणामे पण्णसे, तंजहा-सोतिंदियविसए जाव फासिंदियविसए । सोतेंदियविसए णं भंते! पोग्गलपरिणामे कतिविहे पण्णसे?, गोयमा! दुबिहे पण्णत्ते, तंजहा-सुभिसहपरिणामे य दुन्भिसहपरिणामे य, एवं चक्विदियविसयादिएहिवि सुरूवपरिणामे य दुरूवपरिणामे य । एवं सुरभिगंधपरिणामे य दुरभिगंधपरिणामे य, एवं सुरसपरिणामे य दूरसपरिणामे य, एवं १ यद्यपि मात्र तृतीयप्रतिपत्तिसमाप्तिानी किंचित् तथापि अने ज्योतिकवत्तव्यतापूत्तौं चतुर्थप्रतिपत्ती ज्योतिष्क उद्देशक इति पैमानिकाधिकारसपूती । च चतुर्थप्रतिपत्ती वैमानिकालय उद्देशक इति च सूचनात् गम्यते यदुत अन्न तृतीयप्रतिपत्तिः समाप्ता, यद्वा तत्र चतुर्विधानां प्रतिपरिर्या सा चतुर्थप्रतिपत्तिरिति *व्याख्येय, गतः प्रतिपादयिष्यति तदनन्तरं पञ्चविधजीवप्रतिपादनमथ्याश्चतुभ्योः प्रतिपत्तेरारम्भ, अभ्यद्वोधम बिरोधि कारण सुधीभिः । SARAN ॥३७३॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते इन्द्रियविषयाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् तृतीय-प्रतिपत्तौ द्विप-समुद्राधिकार: परिसमाप्त: अथ इन्द्रियविषयाधिकार: आरब्ध: ~749~ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------- ------------- उद्देशक: [(इन्द्रियविषयाधिकार)], -- ---------- मूलं [१९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९१] दीप अनुक्रम [३०६] सुफासपरिणामे य दुफासपरिणामे य ॥ से नूर्ण भंते! उच्चावएसु सहपरिणामेसु उच्चाबएसु रूवपरिणामेसु एवं गंधपरिणामेसु रसपरिणामेसु फासपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति बत्सवं सिया?, हंता गोयमा! उच्चावएसु सहपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंतिसि वत्तब्वं सिया, से गुणं भंते! सुन्भिसद्दा पोग्गला दुन्भिसत्ताए परिणमंति तुभिसहा पोग्गला सुब्भिसत्ताए परिणमंति?, हंता गोयमा! सुम्भिसद्दा दुब्भिसहत्ताए परिणमंति दुन्भिसद्दा सुन्भिसहत्ताए परिणमंति, से पूर्ण भंते ! सुरुवा पुग्गला दूरूवत्ताए परिणमंति दुरूवा पुग्गला सुरूवत्ताए०१, हंता गोयमा०!, एवं सुब्भिगंधा पोग्गला दुन्भिगंधत्ताए परिणमंति दुम्मिगंधा पोग्गला सुम्भिगंधत्ताए परिणमंति?, हंता गोयमा०1 एवं सुफासा दुफास ताए?, सुरसा दूरसत्ताए०१, हंता गोयमा!०॥ (सू०१९१) 'कइविहे णं भंते !' इत्यादि, कतिविधो भदन्त ! इन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः प्रज्ञमः, भगवानाह-गौतम ! पञ्चविध इन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः प्राप्तः, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियविषय इत्यादि सुगम, 'सुम्भिसद्दपरिणाम' इति शुभः शब्दपरिणामः 'दुब्भिसदपरिणामे' इति अशुभ: शब्दपरिणामः ॥ 'से गूणं भंते !' इत्यादि, अथ 'नूनं निश्चितमेतद् भदन्त ! 'उच्चावचैः' उत्तमाधमैः | शब्दपरिणामैर्यावस्पर्शपरिणामैः परिणमन्तः युद्गलाः परिणमन्तीति वक्तव्यं स्यात् ?, परिणमन्तीति ते वक्तव्या भवेयुरित्यर्थः, भगवानाह-'हन्ता गोयमा!' इत्यादि, हन्तेति प्रत्यवधारणे स्वादेव वक्तव्यमिति भावः, परिणामस्य यथावस्थितस्य भावात् , तथा तथा ~750~ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१९१] दीप अनुक्रम [ ३०६ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(इन्द्रियविषयाधिकार)], मूलं [१९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३७४ ॥ द्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीवशतस्तत्तद्रूपास्कन्दनं हि परिणामः, स च तत्रास्तीति न कचित्तथाऽभिधाने दोष: ॥ 'से णूणं भंते!' इत्यादि, अथ 'नूनं' निश्चितमेतद् भदन्त ! 'शुभशब्दाः' शुभशब्दरूपाः पुद्गला अशुभशब्दतया परिणमन्ति अशुभशब्दा वा पुलाः शुभशव्दतया ? भगवानाह हन्त गौतम! इत्यादि सुप्रतीयं एतेन सान्वयं परिणाममाह, अन्यथा तयो (दयो) गादसतः सत्ताऽनुपपत्तेरतिप्रसङ्गात् ॥ एवं रूपरसगन्धस्पर्शेष्वप्यासीवासीयाभिलापेन द्वौ द्वावालापको वक्तव्यौ || देवे णं भंते! महिहीए जाव महाणुभागे पुब्वामेव पोग्गलं खवित्ता पभू तमेव अणुपरिवद्दित्ताणं गिहिए?, हंता पभू, से केणट्टे णं भंते! एवं बुचति देवे णं महिडीए जाव गिहित्तए ?, गोयमा! पोग्गले खिते समाणे पुत्र्वामेव सिग्धगती भवित्ता तओ पच्छा मंदगती भवति, देवे णं महिडीए जाव महाणुभागे पुर्वपि पच्छावि सीहे सीहगती (तुरिए तुरियगती) चेव से तेणद्वेणं गोमा एवं चति जाव एवं अणुपरियद्दित्ताणं गेविहराए । देवे णं भंते! महिडीए बाहिरए पोगले अपरिपाहता पुवामेव वाले अच्छित्ता अभेत्ता पनुं गठित्तए?, नो इणट्टे समट्टे १, देवे णं भंते! महिहिए बाहिरए पुग्गले अपरियाइता पुण्यामेव बालं छित्ता भित्ता पभू गंठित्तए ?, नो इण्डे समट्टे २, देवे णं भंते! महिडीए बाहिरए पुग्गले परियाइता पुण्यामेव बालं अच्छित्ता अभित्ता भू गठित ?, मो इण्डे समहे ३, देवे णं भंते! महिडीए जाब महाणुभागे बाहिरे पोराले परियाइत्ता पुण्यामेव वाले छेता भेत्ता पभू गंठित्तए?, हंता पभू ४, तं चैव णं गंठि छउमत्थे ण जाणति Fir Pa alise City अत्र मूल - संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते देवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् तृतीय-प्रतिपत्तौ इन्द्रियविषयाधिकारः परिसमाप्तः अथ देवाधिकारः आरब्धः ~751~ 196 * ३ प्रतिपत्तौ देवकृतः पुङ्गलग्रह+ बालप्र न्धनं च उद्देशः २ सू० १९२ ॥ ३७४ ॥ teay g Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --- ----------- उद्देशक: [(देवाधिकार)], ----- ---------- मूलं [१९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९२] ण पासति एवंमुहुमं च णं गढिया ३, देवे णं भंते! महिडीए पुब्वामेव वालं अच्छेत्ता अभेत्ता पभू दीहिकरित्तए वा हस्सीकरित्तए चा?, नो तिणट्टे समढे ४, एवं चत्तारिवि गमा, पढमविइयभंगेसु अपरियाइत्ता एगंतरियगा अच्छेसा अभेत्ता, सेसं तहेव, तं चेव सिद्धिं छउमत्थे ण जाणति ण पासति एमुहम च णं दीहिकरेज वा हस्सीकरेज वा ॥ (सू०१९२) 31 'देवेणं भंते!' इत्यादि, देवो भदन्त ! महद्धिकः यावत्कारणात् महायुतिको महावलो महायशा महानुभाग इति परिग्रहः।४ दएषां व्याख्यानं पूर्ववत्, पूर्वमेव 'पुद्गलं' लेट्वादिकं प्रयत्नेनेति गम्यते हित्वा 'प्रभुः' समर्थस्तमेव पुद्गलं क्षिप्तं भूमावपतितं सन्तम् 'अनुपरिवर्त्य' प्रादक्षिण्येन परिभ्रम्य ग्रहीतुम्?, भगवानाह-हन्त ! प्रभुः, देवस्य प्रभूतशक्तिकत्वात् ।। एतदेव जिशासिषुः पृच्छति 31-'से केणतुणं भंते !' इत्यादि, (प्रभसूत्रं सुगम) भगवानाह-गौतम! पुद्गलः क्षिप्तः सन् पूर्वमेव शीघ्रगतिर्भवति प्रयत्नजनितसंदस्कारस्यातितीव्रखात्, पश्चान्मन्दगतिः संस्कारस्व मन्दमन्दतया भवनात्, देवः पुनः पूर्वमपि पश्चादपि च शीघ्र उत्साह विशेषेण शीघ्रगति: साक्षाच्छीधगमनेन, एतदेव व्याचष्टे-त्वरितस्त्वरितगतिर्भवतीति, 'से एएणटेण नित्याग्रुपसंहारवाक्यं गतार्थम् ॥ 'देवे भंते!' इत्यादि, देवो भदन्त ! महर्द्धिको यावन्महानुभागो बायान् पुद्गलान् 'अपर्यादाय' अगृहीला बालं अच्छिस्वा अभित्त्वा है तवस्थमेव सन्तमिति भावः तच्छरीरस्य मनागपि विक्रियामनापाद्येति तात्पर्यार्थः प्रभुः 'ग्रन्थयितुं' दृढबन्धनबद्धीकर्तुम् ?, भगवा नाह-नायमर्थः समर्थः, बाह्यपुद्गलानादानेन तच्छरीरस्य मनागपि विक्रियानापादने बन्धनस्य कर्तुमशक्यत्वात् , एतेन देवोऽप्यनिवदूधनां क्रियां न करोति, विशिष्टसामध्यस्यापि नियन्धनविषयत्वादित्यावेदितं । द्वितीयसूत्रे वालं छित्त्वा भित्त्वेति विशेषः, शेष तथैव, दीप अनुक्रम [३०७] Fe ~ 752~ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --- ----------- उद्देशक: [(देवाधिकार)], ----- ---------- मूलं [१९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९२] श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगिरौयावृत्तिः ॥ ३७५॥ दीप अत्रापि प्रथयितुमशक्ति: उभवकारणजन्यस्य कार्यस्यैकतरस्यापि कारणस्याभावेऽभावात् । तृतीयसूत्रे बाह्यान् पुद्गलान् पर्यादाय बाल- प्रतिपत्ती मच्छित्त्वाऽभित्वेति विशेषः । चतुर्थे बाह्यान् पुद्गलानादाय बालं छित्त्वा भित्त्येति विशेषः, अत्र प्रथयितुं प्रभुरिति वक्तव्यं, कारण-15 चन्द्रादेर| सामन्यस्य सम्भवात् , तप प्रन्थि छयस्थो मनुष्यो न जानाति न पश्यति, किमुक्तं भवति ।-स बालोऽन्यो वा तटस्थः पुरुषोऽन-IN धासमोपतिशयी न जानाति ज्ञानेन न पश्यति चक्षुषा 'एवं खलु सुहमं च णं गढेजा' एवं खलु सूक्ष्म देवो प्रथयेत् ॥ एवं बालदीर्घहस्वीक- रिताराः रणविषयाण्यपि चखारि सूत्राणि भावनीयानि नवरं तं च णं सिद्धि'मिति, ता-जस्वीकरणसिविं दीर्धीकरणसिद्धिं वा, शेष प्रतीतम् ॥ सू० १९३ देवसामर्थ्य प्रत्यासत्यैव ज्योतिष्कावधिकृत्याह | ग्रहादिप अस्थि णं भंते! चंदिमसूरियाणं हिटिपि तारारूवा अ[पि तुल्लावि समंपि तारारूवा अणुंपि रिवार तुल्लावि उम्पिपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि?, हंता अस्थि, से केणटेणं भंते! एवं बुचति- उद्देशा२ अस्थि णं चंदिमसूरियाणं जाव उम्पिपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि?, गोयमा! जहा जहा णं तेसिं देवाणं तवनियमबंभचेरवासाई [उक्कडाई] उस्सियाई भवंति तहा तहा णं तेर्सि देवाणं एवं पण्णायति अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा, से एएणडेणं गोयमा! अस्थि णं चंदिममूरियाणं उप्पिपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि०॥ (सू०१९३) एगमेगस्स णं चंदिमसरियस्स-अट्ठासीतिं च गहा ॥३७५॥ अट्ठावीसं च होइ नक्वत्ता । एगससीपरिवारो एत्तो ताराण वोच्छामि ॥१॥छावट्ठिसहस्साईणव चेव सयाई पंचसयराई। एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं ॥ २॥ (सू० १९४) अनुक्रम सू०१९४ [३०७] Jambhearing अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् तृतीय-प्रतिपत्तौ देवाधिकार: परिसमाप्त: अथ ज्योतिष्क-उद्देशक: आरब्ध: ~753~ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], ------------------ मूलं [१९३-१९४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९३ -१९४] गाथा: 'अस्थि णं भंते! चंदिमसूरियाण'मित्यादि, अस्ति भदन्त ! चन्द्रसूर्याणां सामान्यतो वहुवचनं, हिडिपि-क्षेत्रापेक्षयाऽधस्सना अपि | |'तारारूपाः' तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवा युतिविभवलेश्यादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि हीना अपीत्यर्थः, केचित्तुल्या अपि, तथा सममपि चन्द्रविमानः सूर्यविमानैश्च क्षेत्रापेक्षया सगण्यपि व्यवस्थितास्तारारूपाः देवा: लाश्चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणयोऽपि केषितुल्या अपि तथा चन्द्रविमानानां सूर्यविमानानां चोपर्यपि ये व्यवस्थितास्तारारूपा देवास्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवाना गुतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि केचितुल्या अपि ?, भगवानाह-'हन्ता अस्थि' यदेतत्वया पृष्टं तत्सर्व तथैवास्ति ।। एवमुक्त पुनः प्रभवति-से केणटेणं भंते ! एवं वुञ्चति अस्थि णं चंदिमसूरियाण'मित्यादि, भगवानाह-गौतम! 'जहा जहा ण'मित्यादि, यथा यथा णमिति वाक्यालङ्कारे तेषां देवानां-तारारूपविमानाधिष्ठातृणां प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि 'उत्सृतानि' उत्कृष्टानि भवन्ति, तत्र तपो-नमस्कारसहितादि नियमस्तु-अहिंसादि ब्रह्मचर्य-वस्तिनिरोधादि उत्सृतानीत्युपलक्षणं तेन वथा यथाऽनुत्सृतान्यपि द्रष्टव्यं, अन्यथाऽणु खायोगात् , तथा तथा तेषां देवानां तस्मिन् तारारूपविमानाधिष्ठातृभने एतं प्रज्ञायते, तद्यथा-अणुत्वं तुल्यलं चेति, 'से| एएणद्वेण मित्यादि, किमुक्तं भवति?-यैः प्राग्भवे तपोनियमनहाचर्याणि मन्दानि कृतानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृदेवभवमनुप्राप्राश्चन्द्रसूर्येभ्यो देवेभ्यो द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य हीना भवन्ति, यैस्तु भवान्तरे सपोनियमब्रह्मचर्याणि अत्युत्कटान्यासेवितानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातरूपं देवभवमनुप्राप्ता युतिविभवादिकमपेक्ष्य चन्द्रसूर्यदेवैः सह समाना भवन्ति, न चैतदनुपपन्न, दृश्यन्ते हि | मनुष्यलोके केचित् जन्मान्तरोपचिततथाविधपुण्यप्रारभारा राजत्वमप्राप्ता अपि राज्ञा सह तुल्यविभवा इति । 'एगमेगस्त णं भंते ! चंदिमसूरियस्से'त्यादि, एकैकस्य भदन्त! चन्द्रसूर्यस्थ, अनेन च पदेन यथा नक्षत्रादीनां चन्द्रः स्वामी तथा सूर्योऽपि, तस्यापी दीप अनुक्रम [३०८-३११] C40445 %2-54-- ~ 754~ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], ------------------ मूलं [१९३-१९४] + गाथा: (१४) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९३ मेरुलोका -१९४] गाथा: श्रीजीवा- न्द्रत्वाद् (ते) युति ख्यापयन्ति, कियन्ति नक्षत्राणि परिवार: प्रज्ञप्तः ?, कियन्तो महाप्रहा-अङ्गारकादयः परिवारः प्रज्ञप्तः, कियत्यस्ता-18 प्रतिपत्ती जीवाभि रागणकोटीकोट्यः परिवार: प्रज्ञप्तः१, इह भूयान पुस्तकेषु वाचनाभेदो गलितानि च सूत्राणि बहुषु पुस्तकेषु ततो यथाऽवस्थितवामख्यगि- चनाभेदप्रतिपत्त्यर्थ गलितसूत्रोद्धरणाथै चैवं सुगमान्यपि वित्रियन्ते, भगवानाइ-गौतम! एकैकस्य चन्द्रसूर्यस्याष्टाविंशतिनक्षत्राणि || न्तपरस्परीयावृत्तिः परिवारः प्राप्तः, अष्टाशीतिर्महाग्रहाः परिवार: प्रज्ञप्तः । 'छावद्विसहस्साई इति गाथा, षट्षष्टिः सहस्राणि नव चैव शतानि पञ्च-18 | राबाधा दसप्तानि एकशशिपरिवारखारागणकाटीकोटीनां, कोटीकोटीति कोट्या एव सब्जा, ततस्तारागणकोटीनामिति द्रष्टव्यम् ।। ॥३७६॥ उद्देश. जंबूदीवे ण भंते! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ केवतियं अबाधाए जो- सू० १९५ तिसं चार चरति?, गोयमा! एक्कारसहिं एकवीसेहिं जोयणसएहिं अबाधाए जोतिसं चारं चरति, एवं दक्खिणिल्लाओ पञ्चस्थिमिल्लाओ उत्तरिल्लाओ एक्षारसहि एकवीसेहिं जोयण जाव चारं चरति ॥ लोगताओ भंते! केवतियं अयाधाए जोतिसे पण्णत्ते?, गोयमा! एकारसहिं एकारेहिं जोयणसतेहिं अबाधाए जोतिसे पण्णत्ते । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ केवतियं अवाहाए सब्बहेडिल्ले तारारूवे चारं चरति? केवतियं अयाधाए सूरविमाणे चारं चरति? केवतियं अबाधाए चंदविमाणे चारं चरति ? केवतियं अवा ॥३७६॥ धाए सव्वउचरिल्ले तारारूचे चारं चरति?, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढचीए बहसमरमणि सत्तहिं णउएहिं जोयणसतेहिं अवाहाए जोतिसं (सव्व) हेडिल्ले तारारूवे चारं चरति, अहिं ROCESCENE दीप अनुक्रम [३०८-३११] SanEk.cman-insi अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~ 755~ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ------------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], ------------------------- मूलं [१९५-१९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९५ -१९६] जोयणसतेहिं अवाधाए सूरविमाणे चारं चरति, अट्ठहिं असीएहिं जोयणसतेहिं अबाधाए चंदविमाणे चारं चरति, नवहिं जोयणसएहिं अवाहाए सव्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरति ॥ सव्यहेडिमिल्लाओ णं भंते! तारारुवाओ केवतियं अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ? केवइयं अवाहाए चंदविमाणे चारं चरइ? केवतियं अवाहाए सब्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरह?, गोयमा! सब्बहेडिल्लाओ णं दसहिं जोयणेहिं सूरविमाणे चारं चरति उतीए जोयणेहिं अवाधाए चंदविमाणे चारं चरति दसुत्तरे जोयणसते अवाधाए सव्वोपरिल्ले तारारूवे चारं चरइ॥ सूरविमाणाओ णं भंते! केवतियं अबाधाए चंदविमाणे चारं चरति ? केवतियं सब्ववरिल्ले तारारूवे चारं चरति?, गोयमा! सूरविमाणाओणं असीए जोयणेहिं चंदविमाणे चारं चरति, जोयणसय अबाधाए सम्बोवरिल्ले तारारूचे चारं चरति ॥ चंदविमाणाओ णं भंते! केवतिय अबाधाए सब्बउबरिल्ले तारारूचे चारं चरति?, गोयमा! चंदविमाणाओ र्ण वीसाए जोयणेहिं अबाधाए सब्बउवरिल्ले तारारूवे चारं चरह, एवामेव सपुब्बावरेर्ण दसुत्तरसतजोयणवाहल्ले तिरियमसंखेजे जोतिसविसए पण्णत्ते ॥ (सू०११५) जंबूदीवे णं भंते ! कयरे णक्खत्ते सव्वभितरिल्लं चार चरंति? कयरे नक्खत्ते सव्वयाहिरिल्लं चारं चरइ? कयरे नक्खत्ते सव्वउवरिल्लं चार चरति? कयरे नक्खत्ते सव्वहिडिल्लं चारं चरति, गोयमा! जंबूदीवे णं दीवे अभी दीप अनुक्रम [३१२-- -३१३] ~756~ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१९५ -१९६] दीप अनुक्रम [३१२- -313] "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], मूलं [१९५-१९६ ] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः (3) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित श्रीजीषा जीवाभि० मलयगि पाि ॥ ३७७ ॥ ......... - • इनक्व सव्वभितरिल्लं चारं चरति मूले णक्खत्ते सव्यवाहिरिलं चारं चरइ साती णक्खते सव्वोवरिलं चारं चरति भरणीणक्खत्ते सव्बहेडिल्लं चारं चरति । (सू० १९६ ) 'जंबूदीवे ण' भित्यादि' जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य सकलतिर्यग्लोकमध्यवर्त्तिनं कियत्क्षेत्रनवाधया सर्वतः कृत्वा 'ज्योतिषं' ज्योतिश्चक्रं 'चारं चरति' मण्डल गया परिभ्रमति ?, भगवानाह - गौतम! एकादश योजनशतानि 'एकविंशानि' एकविंशत्यधिकानि अवाधवा ज्योतिषं चारं चरति, किमुक्तं भवति ?-मेरोः सर्वत एकादश योजनशतान्येकविंशत्यधिकानि मुक्ला तदनन्तरं चक्रवालतथा ज्योतिश्चकं चारं चरति । 'लोगंताओ णं भंते!' इत्यादि, लोकान्तादवग् णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त । कियत्क्षेत्रमबाधया अपान्तराले कृत्वा ज्योतिषं प्रशप्तम् ?, भगवानाह - गौतम! एकादश योजनशतानि 'एकादशानि' एकादशोत्तराण्यबाधया कृत्वा ज्योतिषं प्रज्ञतम् || 'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, 'अस्यो' यत्र वयं व्यवस्थिता रत्नप्रभावां पृथिव्यां बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् आरभ्य कियद्वाधया कृत्वाऽधस्तनं तारारूपं ज्योतिषं चारं चरति ?, कियद्वाधया कृला सूर्यविमानं चारं चरति ?, कियदवाधया कृत्वा चन्द्रविमानं कियद्वाधया कृलोपरितनं तारारूपं ज्योतिषं चारं चरति ?, भगवानाह - गौतम! सप्त योजनशतानि नवत्यधि कान्यबाधया कृत्वाऽधस्तनं तारारूपं चारं चरति, अष्ट योजनशतान्यवाधया कृत्वा सूर्यविमानं, अष्टौ योजनशतान्यशीतान्यबाधया कृत्वा चन्द्रविमानं, नव योजनशतानि पूर्णान्ययाधया कृत्वोपरितनं तारारूपं ज्योतिषं चारं चरति ॥ ' (सन्ध) हेढिलाओ णं भंते!" इत्यादि, अधाना भदन्त ! तारारूपात् कियदबाधया कृत्वा सूर्यविमानं धारं चरति ? कियदवाधया कृत्वा चन्द्रविमानं चारं चरति १ कियदबाधयोपरितनं तारारूपम् ?, भगवानाह गौतम ! दश योजनान्यवाधया कृत्वा सूर्यविमानं चारं चरति तत एवाधखनात्तारा For P&Pal Use Chl २ प्रतिपत्ती अन्तर्वाsiteba स्तनास्तारा उद्देशः २ सू० १९६ ~ 757 ~ ॥ ३७७ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते ज्योतिष्कदेवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९५-१९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९५-१९६] | रूपान्नवति योजनान्यबाधया कला चन्द्रविमानं तत एवाधस्तनात्तारारूपाद्दशोत्तरं योजनशतमवाधया कृलोपरितनं तारारूपं ज्योतिष चारं चरति ।। 'सुरविमाणाओ णं भंते!' इत्यादि, सूर्यविमानाद् भदन्त ! कियवाधया कृत्वा चन्द्रविमान चारं चरति ?, कियवाधयोपरितनं तारारूपम् ?, भगवानाह-गौतम ! अशीति योजनान्यबाधया कृत्वा चन्द्रविमानं चारं चरति, तत एव सूर्यविमानायोजनशतमबाधया कृत्योपरितनं तारारूपम् ।। 'चंदविमाणाओ णं भंते !' इत्यादि, चन्द्रविमानादन्त ! कियवाधया कृषोपरिवनं तारारूपं चार चरति ?, भगवानाह-गौतग! विंशतियोजनान्ययाधया कृलोपरितनं तारारूपं चार चरति ॥ जंबूदीवे गं| |भंते ।.इत्यादि, जम्बूद्वीपे भवन्त ! द्वीपे कतरत् , 'बहूनां प्रो डतमधे ति बहूनामपि निर्धायें उतरः, नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तर-सर्वेषाम न्येषा नक्षत्राणानभ्यन्तरं 'चार मण्डलगत्या परिभ्रमणं चरति ?, कतरत् नक्षत्रं 'सर्ववाह्य' सर्वेषां नक्षत्राणां बहिर्वतिनं चारं 'चआरति प्रतिपद्यते ?, कतरत् नक्षत्रं 'सर्वोपरितनं सर्वेषां नक्षत्राणामुपरितनं चारं चरति !, कतरन नक्षत्रं सर्वाधस्तनं चार चरति ?, भगवानाह-गौतम! अभिजिन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं चारं चरति, मूलः पुनर्नक्षत्रं सर्ववाद्यं चार चरति, स्वातिनक्षत्र सर्वोपरितनं चार चरति, भरणीनक्षत्रं सर्वाधस्तनं चार चरति, उक्तञ्च-"सब्बाभितरऽभीई मूलो पुण सम्वबाहिरो होइ । सम्बोवरिं तु साई भरणी पुण सव्वहेटिलिया ॥१॥ चंदविमाणे णं भंते ! किंसंहिते पण्णते?, गोयमा! अद्धकविट्ठगसंठाणसंठिते सव्वफालितामए अन्भुगतमूसितपहसिते वण्णओ, एवं सूरविमाणेवि नक्खत्तविमाणेवि ताराविमाणेवि अद्धकविट्ठसंठाणसंठिते ॥ चंदविमाणे णं भंते! केवतियं आयामविखंभेणं ? केवतियं परिक्खेवेणं ? दीप अनुक्रम [३१२-- -३१३] ~ 758~ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक संस्थाना [१९७]] | सू०१९७ दीप श्रीजीवा- केवतियं पाहल्लेणं पण्णत्ते?, गोयमा! छप्पन्ने एगसहिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तं ति- ३ प्रतिपत्ती जीवाभि. गुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अट्ठावीसं एगसहिभागे जोयणस्स बाहालेणं पण्णते ॥ सूरविमाण चन्द्रादिमलयगि- स्सवि सञ्चेव पुच्छा, गोयमा! अडयालीसं एगसहिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तं ति. रीयावृत्तिः गुणं सविसेस परिक्खेवेणं चउवीस एगसहिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पन्नत्ते ॥ एवं गहविमा यामादि णेवि अद्धजोयणं आयामधिक्खंभेणं सविसेसं परि० कोसं बाहल्लेणं ॥णक्खत्तविमाणेणं कोसं उद्देशः२ आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परि० अद्धकोसं बाहल्लेणं प० ताराविमाणे अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परि० पंचधणुसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ते ।। (मू०१९७) 'चंदविमाणे णं भंते !' इत्यादि, चन्द्रविमानं भदन्त ! 'किंसंस्थितं' किमिव संस्थितं २ प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! 'अर्द्धक४ पित्थसंस्थानसंस्थितम्' उत्तानीकृतमधूकपित्थं तस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितमर्द्धकपित्यसंस्थानसंस्थितं, आह-यदि चन्द्रविमान-18 हामुत्तानीकृतार्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितं तत उदयकालेऽस्तमयकाले वा यदिवा तिर्यक् परिभ्रमत् पौर्णमास्यो कस्मात्तदर्द्धकपित्थफलाकारंट नोपलभ्यते ?, कामं शिरस उपरि वर्तमानं वर्तुलमुपलभ्यते, अर्द्ध कपित्थस्य शिरस उपरि दूरमवस्थापितस्य परभागादर्शनतो वर्तुल तया रश्यमानत्वात् , उकयते, इहार्द्धकपित्थफलाकारं चन्द्रविमानं न सामयेन प्रतिपत्तव्यं, किन्तु तस्य विमानस्य पीठं, तस्य च हैपीठस्योपरि चन्द्रदेवस्य-ज्योतिश्चक्रराजस्व प्रासादः, स च प्रासादस्तथा कथञ्चनापि व्यवस्थितो यथा पीठेन सह भूयान् वर्तुल आ-८॥३७८॥ कारो भवति, स च दूरभावादेकान्तवः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते ततो न कश्चिद्दोषः, न चैतत् स्वमनीषिकाया विजृम्भितं, M अनुक्रम [३१४] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~ 759~ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --- --------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------- ---------- मूलं [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९७]] दीप यत एतदेव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेषणवत्यामाक्षेपपुरस्सरमुक्तम्-"अद्धकविट्ठागारा उद्यत्यमणमि कह न दीसंति । ससिसूराण विमाणा सिरियक्खेत्ते ठियाणं च ॥ १॥ उत्ताणकविट्ठागारं पीढं तदुवरिं च पासाओ। वट्टालेखेण ततो समवर्ट दूरभावादो ॥ २॥" तथा सर्व-निरवशेष स्फटिकविशेषमणिमयं सर्वस्फटिकमयं तथाऽभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उस्मृता:-प्रबलत्या सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा तथा सितं अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितं, यावत्करणात् 'विविहमणिरयणभत्तिचित्ते वाउद्धयविजयवेजयन्तीपडागछत्तातिछत्तकलिए तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जालंतररयणपंजलोम्मीलियमणिकणगथूभियागे वियसियसयवत्तपुंडरीवतिलगरयणवचंदचित्ते अंतो बहिं च सण्हे तयणिजवालुयापत्थडे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवें' इति, तत्र विविधा-अनेकप्रकारा मणय:-चन्द्रकान्तादयो रत्नानि च-कतनादीनि तेषां भक्कयो-विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्रं-अनेकरूपबद् आश्चर्यवद्वा विविधमणिरत्नभक्तिचित्रं, तथा वातोद्भूता-वायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्त्यभिधानाः पताका विजयबैजयन्त्यः, अथवा विजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्यो विजयवैजयन्य:पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः, छत्रातिच्छत्राणि-उपर्युपरिस्थितातपत्राणि : कलितं वावोद्भुतविजयवेजयन्तीपताकाकलितं तुज-उचम् अत एव 'गगणतलमणुलिहंतसिहर' गगनतळमनुलिखवू-अभिलङ्घयद् गगनतलानुलिखच्छिखरं, तथा जालानि-जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तजालान्तररलं, 'सूत्रे चात्र प्रथमैकवचनलोपो द्रष्टव्यः, तथा पजरा उन्मीलितमिव-बहिष्कृतमिव पजरोन्मीलितमिव, यथा हि किल किमपि वस्तु पजराद्-वंशादिमयमच्छावनविशेषाद् बहिस्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायखात् शोभते तथा सदपि विमानमिति भावः, तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तूपिका अनुक्रम [३१४] जी०६४ ~ 760~ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [१९७]] ॥३७९॥ Ki दीप शिखरं यस्य तत् मणिकनकस्तूपिकाकं, तभा विकसिवानि यानि शवपत्राषि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतिलेन स्थितानि तिल-13 प्रतिपत्ती काश्च-मित्यादिषु पुण्ड्राणि रबमयाशार्द्धचन्द्रा द्वारादिपु तैभित्रं विकसितशतपनपुण्डरीकतिलकरत्ना चन्द्रचित्रम् , 'अंतो बहिं च सण्हे चन्द्रादिइत्यादि अञ्चनपर्वतोपरिसिद्धायतनद्वारवत् , 'एवं सूरविमाणेवी'त्यादि, एवं-चन्द्रविमानमिव सूर्यविमानमपि वक्तव्यं महविमानमपि | संस्थानानक्षत्रविमानमपि ताराविमानमपि, ज्योतिर्विमानानां प्राय एकरूपत्वात् ॥'चंदविमाणे णं भंते ! इत्यादि, चन्द्रविमानं भदन्त ! किय- यामादि दायामविष्कम्भेन कियत्परिक्षेपेण कियाहल्येन प्राप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! पट्पञ्चाशतमेकषष्ठिभागान् योजनस्यायामविष्कम्भेन, उद्देशः२ तदेवायामविष्कम्भमानं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण, अष्टाविंशतिमेकषष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन प्रज्ञप्तम् ।। 'सूरविमाणे णं भंते"31 मतासू०१९७ इत्यादि प्रभसूत्र प्राग्वत् , भगवानाह-गौतम ! अष्टचत्वारिंशतमेकपष्टिभागान योजनस्यायामविष्कम्भेन, तदेवायामविष्कम्भमानं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण, चतुर्विंशतिमेकषष्टिभागान योजनस्य बाहल्येन ॥ 'गहविमाणे णं भंते! इत्यादि प्रभसूत्रं तथैव, भगवानाह-गौतम! अर्द्धयोजनमायामविष्कम्भेन तदेवार्द्धचोजनं त्रिगुणं सविशेष परिझेपेण क्रोशं थाइल्येन || 'नक्खत्तविमाणे णं| भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं तथैव, भगवानाइ-गौतम! क्रोशमेकमायामविष्कम्भेन तदेवायामविष्कम्भपरिमाणं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण अर्द्धक्रोशं च बाहल्येन प्रज्ञाप्तम् ।। 'ताराविमाणे णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं तथैव, भगवानाह-गौतम! अर्द्धकोशमायामविकम्भेन तदेवायामविष्कम्भावामपरिमाणं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेज, पञ्चधनु:शतानि वाइल्येन प्रज्ञप्तम् , एवंपरिमाणं च ताराविमानमुत्कृष्टस्थितिकख तारादेवस्य सम्बन्धि द्रष्टव्यं, जघन्यवितिकस्य तु पञ्चधनु:शतान्यायामविष्कम्भेन भर्द्धतृतीयानि धनुः- ॥३७९॥ वानि वाहत्येन, उक्तश्च तत्त्वार्थभाष्ये-"अष्टचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाः सूर्यमण्डलविष्कम्भः, चन्द्रमसः षट्पश्चाशत् , पहा अनुक्रम [३१४] BREAK अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~ 761~ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१९७] दीप अनुक्रम [३१४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], मूलं [१९७] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित णामर्द्धयोजनं, गव्यूतं नक्षत्राणां सर्वोत्कृष्टायास्ताराया भर्द्धक्रोश:, जघन्यायाः पञ्चधनुःशतानि, विष्कम्भार्द्धवाहस्याश्च भवन्ति सर्वे सूर्यादयो नृलोके" इति ॥ चंद्रविमाणे णं भंते! कति देवसाहस्सीओ परिवहति ?, गोयमा ! चंदबिमाणस्स णं पुरच्छिमेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीर फेणरययणिगरपणासाणं (महुगुलियपिंगलक्खाणं) थिरलट्ठ [प] बडपीवर सुसिलिङ सुविसिद्धतिक्खदाढाविडंवितमुहाणं रतुपलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहाणं [पसत्थसत्यवेरुलियाभिसंत कक्कड नहाणं] विसालपीबरोरुपडिपुण्णविलखंधाणं मिउविसयपसत्थहुमलक्खणविच्छिण्णके सरसडोवसोभिताणं श्रंकमितललिपपुलितधवलगव्वितगतीणं उस्सियसुणिम्मिय सुजायअप्फोडियणंगूलाणं वइरामयणक्खाणं वइरामयदन्ताणं वयरामयदाढाणं तवणिजजीहाणं तवणिजतालुयाणं तवणिज्जजोत्तमसुजोतिताणं कामगमाणं पीतिगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अभियगतीणं अमियबलवीरयपुरिसकारपरक माणं महता अप्फोडियसीहनातीयबोलकलयलरवेणं मधुरेण मणहरेण य पूरिंता अंबरं दिसाओ य सोभयंता बसारि देवसाहस्सीओ सीहरूवधारिणं देवाणं पुरच्छिमिल बाहं परिवर्हति । चंद्रविमाणस्स णं दक्खिणेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखत लविमलनिम्मदविघणगोखीरफेणरययणियरप्पगासाणं वइरामयकुंभजुयलसुद्वितपीवरवर बहरसोंडवडियदि For P&Praise Cinly ~762~ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ----------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], ----- ---------- मूलं [१९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९८] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः १३प्रतिपत्तौ चन्द्रादिवाहनानि उद्देशः२ सू० १९८ दीप त्तसुरत्तपउमप्पकासाणं अक्षुण्णयगुणा (मुहा) णं तवणिजविसालचंचल चलंतचवलकपणविमलजलाणं मधुवणभिसंतणिद्धपिंगलपत्तलतिवण्णमणिरयणलोषणाणं अन्भुग्गतमउलमल्लियाणं धवलसरिससंठितणिब्बणदढकसिणफालियामयसुजायदंतमुसलोवसोभिताणं कंचणकोसीपविहृदंतग्गविमलमणिरयणरुहरपेरंतचित्तरूवगविरापिताणं तवणिजविसालतिलगपमुहपरिमंडिताणं णाणामणिरयणमुद्धगेवेजबहगलयवरभूसणाणं बेरुलियविचित्तदरणिम्मलवइरामयतिक्खलढअंकुसकुंभजुयलतरोदियाणं तवणिजसुबद्धकच्छदप्पियवलुद्धराणं जंबूणयविमलघणमंडलवइरामयलालाललियतालणाणामणिरयणघण्टपासगरयतामघरजूबद्धलंबितघंटाजुयलमहरसरमणहराणं अल्लीणपमाणजुत्तवहियसुजातलक्खणपसत्थतवणिजवालगत्तपरिपुच्छणाणं उयवियपडिपुपणकुम्मचलणलहुविकमाणं अंकामयणक्खाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिजजीहाणं तवणिजजोसगसुजोतियाणं कामकमाणं पीतिकमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमियगतीणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरकमाणं महया गंभीरगुलगुलाइयरवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेन्ता अंबरं दिसाओ यसोभयंता च सारि देवसाहस्सीओ गयरूवधारीणं देवाणं दक्खिणिल्लं पाहं परिवहति । चंदविमाणस्स णं पचत्थिमेणं सेताणं सुभगाणं सुप्पभाणं चंकमियललियपुलितचलचवलककुदसालीणं सण्णयपासाणं संगयपासाणं सुजायपासाणं मियमाइतपीणरइतपासाणं सविहगसुजात अनुक्रम [३१५] ॥३८ ॥ W hatraysia अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~ 763~ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१९८] दीप अनुक्रम [३१५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], मूलं [१९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः कुच्छीणं पसत्थणिद्धमधुगुलितभिसंत पिंगलक्खाणं विसालपीवरोरुपडिपुण्णविपु उधाणं वपडिपुण्णविपुलकवोल कलिताणं घणणिचित सुबद्धलक्खणुण्णतई सिआणयव सभोट्टाणं चकमितल लितपुलियचकवाल चवलगच्चितगतीणं पीवरोरुवट्टियसुसंठितकडीणं ओलंबलंब लक्खणपमाणजुस पत्थरमणिज्जवालगंडाणं समखुरवालघाणीणं समलिहिततिक्खग्गसिंगाणं तणुसुमसुजात दिलोमच्छविधराणं उवचितमंसलविसालपडिपुण्ण खुद्दपमुह पुंडराणं (खंधपएस सुंदराणं) वेरुलयभिसंतकडक्ख सुणिरिक्खणाणं जुतप्यमाणप्पधाणलक्खणपसत्थरमणिनगग्गरगलसोभिताणं घग्घरगसुबद्धकण्ठपरिमंडियाणं नाणामणिकणगरयणघण्टवेयच्छग सुकयरतियमालियाणं वरघंटागलगलियसोभंतसस्सिरीयाणं पडमुप्पलभसलसुरभिमालाविभूसिताणं बहरखुराणं विविधविखुराणं फालियामयदंताणं तवणिजजीहाणं तवणिजतालुयाणं तवणिजजोत्तगजोत्तियाणं कामकमाणं पीतिकमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमितमतीणं अभियवलवीरियपुरिसपारपरक्कमाणं महया गंभीरगजियरवेणं मधुरेण मणहरेण य पूरेंता अंबरं दिसाओ यसोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ वसभरूपधारिणं देवाणं पचस्थिमिद्धं बाहं परिवहति । दविमाणस्स णं उत्तरेणं सेषाणं सुभगाणं सुपभाणं जचाणंतरमलिहायणाणं हरिमेलामादुलमलिपच्छाणं घणणिचितसुबद्धलक्खणुण्णताचंकमि (चंचुचि) यललिपपुलिप चल चवलचंचलगतीणं For P&Praise Cly ~764~ Chewy Me Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१९८ ] दीप अनुक्रम [ ३१५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], मूलं [१९८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवामि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३८१ ॥ लंघणवग्गणधावणधारणतिवइजईणसिक्खितगईणं सण्णतपासाणं लतलामगलायवर भूसणाणं संणयपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं मितमायितपीणरयपासाणं झसविहगसुजातकुच्छीणं पीणपीवरवहितसुसंठितकडीणं ओलंबपल्बलक्खणपमाणजु तपसत्थरमणिज्जवालगंडाणं तणुसुमसुजायणिद्धलोमच्छविधराणं मिडविसयपसत्थमुहुमलक्खणचिकिण्णकेसरवालिघराण ललियस विलासगति (ललं तथासगल) लाडवरभूसणाणं मुहमंडगोचूलचमरथा सगपरिमंडियकडीणं तवणिजखुराणं तवणिज्जजीहाणं तवणिजतालुयाणं तवणिजजोत्तगजोतियाणं कामगमाणं पीतिगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमितगतीणं अमिघवलवीरियपुरिसयारपरक माणं महया हयहेसियकिलकिलाइयरवेण महुरेणं मणहरेण य पूरेंता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ हयख्वधारीणं उत्तरिल्लं वाहं परिवर्हति ॥ एवं सुरविमाणस्सवि पुच्छा, गोयमा ! सोलस देवसाहस्सीओ परिवहति पुष्वकमेणं ॥ एवं गहविमाणस्सवि पुच्छा, गोमा ! अह देवसाहस्सीओ परिवहति पुष्वकमेणं, दो देवाणं साहस्सीओ पुरत्थिमिल्लं बाह परिवहति दो देवाणं साहस्सीओ दक्खिणिलं दो देवाणं साहस्सीओ पचत्थिमं दो देवसाहस्सी धारीणं उतरलं बाहं परिवहति ॥ एवं णक्खत्तविमाणस्सवि पुच्छा, गोयमा ! चसारि ** %9 ~765~ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते ज्योतिष्कदेवाधिकारः एक एव वर्तते तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, ३ प्रतिपतौ चन्द्रादिवाहनानि उद्देशः २ सू० १९८ ॥ ३८१ ॥ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ----------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], ----- ---------- मूलं [१९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९८] दीप देवसाहस्सीओ परिवहंति, सीहरूषधारीणं देवाणं पंचदेवसता पुरथिमिल्लं बाहं परिवहंति एवं चउद्दिसिंपि ॥ (सू० १९८) 'चंदविमाणे णं भंते!' इत्यादि, चन्द्रविमानं णमिति वाक्यालकारे भदन्त ! कति देवसहस्राणि परिवहन्ति ?, भगवानाह-गौतम!18 षोडश देवसहस्राणि परिवहन्ति, तद्यथा-पूर्वेण-पूर्वतः, एवं दक्षिणेन पश्चिमेन उत्तरेण, तत्र पूर्वेण सिंहरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि परिवहन्ति, दक्षिणेन गजरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि, पश्चिमेन वृषभरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि, उत्तरे-12 पाश्वरूपधारिणां देवानां चलारि देवसहस्राणि, इयमत्र भावना-चन्द्रादिविमानानि तथाजगत्स्वाभाव्यान्निरालम्बनान्येव वहन्त्यवतिष्ठन्ते,8 केबलमाभियोगिका देवास्ते तथाविधनामकर्मोदयवशात्समानजातीयानां हीनजातीयाना वा निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमानाः प्रमोदभृतः सततवहनशीलेषु विमानेष्वधः स्थिला केचिस्सिहरूपाणि केचिद्गजरूपाणि केचिदृषभरूपाणि केचिदश्वरूपाणि कृत्वा | तानि विमानानि वहन्ति, न चैतदनुपपन्नं, यथा हि कोऽपि तथाविधाभियोग्यनामकोपभोगभागी दासोऽन्येषां समानजातीयानां हीनजातीयानां वा पूर्वपरिचितानामेवमहं नायकस्यास्य सुप्रसिद्धस्य संमत इति निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थ सर्वमपि खोचितं कर्म | नायकसमक्षं प्रमुदित: करोति, तथाऽऽभियोगिका देवास्तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभाजः समानजातीयानां हीनजातीयानां वा देवानामन्येषामेवं वयं समृद्धा यत्सकललोकप्रसिद्धानां चन्द्रादीनां विमानानि वहाम इति निजस्कातिविशेषप्रदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमाना उक्तप्रकारेण चन्द्रादिविमानानि वहन्ति । एवं सूर्यादिविमानविषवाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, अत्र जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसरके सहणिगाथे-"सोलस देवसहस्सा वहति चंदेसु चेत्र सूरेसु । अद्वेष सहस्साई एसेकंमि गहविमाणे ॥ १॥ चत्तारि सहस्साई अनुक्रम [३१५] ~766~ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------ उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], ----- ---------- मूलं [१९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९८] दीप श्रीजीवा-18नक्खतमि य हवंति एकेके दो चेव सहस्साई तारारुवेकमेकामि ॥२॥" कचित्सिंहादीनां वर्णनं दृश्यते तदहुषु पुस्तकेषु न दृष्ट-18 प्रतिपत्ती जीवाभिममित्युपेक्षितं, अवश्यं चेत्तयाख्यानेन प्रयोजनं तर्हि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका परिभावनीया, तत्र सविस्तरं तव्याख्यानस्य कुतत्वात् ॥ तशीघ्रमन्दमलयगि गती अल्पएतेसिणं भंते चंदिमसूरियगहगणणक्खत्ततारारूवाणं कयरे कयरेहिंतो सिग्धगती वा मंदगती रीयावृत्तिः वा?, गोयमा! चंदेहिंतो सूरा सिग्धगती सूरेहिंतो गहा सिग्घगती गहेहिंतो णक्खत्ता सिग्ध महर्धिक ॥३८२॥ गती णक्खत्तेहितो तारा सिग्घगती, सब्बप्पगती चंदा सबसिग्घगतीओ तारारूवे ।। (स०१९९) त्वादिः एएसि णं भंतेचंदिमजावतारारूवाणं कयरे २ हिंतो अप्पिडिया वा महिहिया वा?, गोयमा! उद्देश:२ तारारूवेहिंतो णक्खत्ता महिहीया णक्वत्तेहिंतो गहा महिड्डीया गहेहिंतो सूरा महिड्डीया सूरे सू०१९९ २०० हिंतो चंदा महिड्डीया, सबप्पलिया तारारूवा सव्वमहिड्डीया चंदा ॥ (सू० २००) 'एएसि णमित्यादि, एतेषां चन्द्रसूर्यप्रहनक्षत्रतारारूपाणां मध्ये कतरे कतरेभ्योऽल्पगतयः? कतरे कतरेभ्यः शीघ्रगतयः ?, भग-18 वानाह-गौतम! चन्द्रेभ्यः सूर्याः शीघ्रगतयः सूर्येभ्यो ग्रहाः शीघ्रगतयः प्रहेभ्यो नक्षत्राणि शीत्रगतीनि नक्षत्रेभ्यस्तारारूपाः शीघ्रगतयः, चन्द्रेणाहोरात्राकमणीयस्य क्षेत्रस्य सूर्यादिमिहीनहीनतरेणाहोरात्रेणाक्रम्यमाणत्वात् , एतच सविस्तरं चन्द्रप्रज्ञप्ती सूर्यप्रज्ञप्ती भावितमिति ततोऽवधायै, एवं च सर्वमन्दगतयश्चन्द्राः सर्वशीघ्रगतयस्ताराः ॥ 'एएसि ण'मित्यादि, एतेषां भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहन- X ॥३८२॥ अत्रतारारूपाणां मध्ये कतरे कतरेभ्योऽल्पर्धिकाः कतरे कतरेभ्यो महचिका:?, भगवानाह-गौतम! तारकेभ्यो नक्षत्राणि महर्दिकानि अनुक्रम [३१५] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~767~ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], -------------------- मूलं [१९९-२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९९-२००] बहरिस्थतिकत्वात् , एवं नक्षत्रेभ्यो महा महर्दिकाः, प्रहेभ्यः सूर्या महादिकाः, सूर्येभ्यश्चन्द्रा महर्दिकाः, एवं सर्यास्पर्द्धयस्तारा: सर्व-18 महईयचन्द्राः ॥ सम्प्रति जम्यूद्वीपे ताराणा परस्परमन्तरप्रतिपादनार्थमाह जंबूदीवे गंभंते! दीवे तारारुवस्स २ एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णते?, गोयमा! दुविहे अंतरे पण्णत्ते, तंजहा-वाघातिमे य निव्वाघाइमे य, तत्थ णं जे से वाघातिमे से जहपणेणं दोषिण य छावढे जोयणसए उकोसेणं बारस जोयणसहस्साई दोपिण य बायाले जोषणसए तारारूवस्स २ य अयाहाए अंतरे पपणत्ते । तत्थ णं जे से णिवाघातिमे से जहपणेणं पंचधणुसयाई उक्कोसेणं दो गाउयाई तारारूव जाव अंतरे पण्णसे ॥ (सू०२०१) चंदस्स णं भंते! जोतिसिंदस्स जोतिसरनो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! चत्तारि अग्गमहिसीओ पपणसाओ, तंजहा-चंदप्पभादोसिणाभा अचिमालीपभंकरा, एत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवारे य, पभू णं ततो एगमेगा देवी अवणाई चत्तारि २ देविसहस्साई परिवार विउवित्तए, एचामेव सपुवावरेणं सोलस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, से तं तुडिए॥ (स०२०२) पभू णं भंते! चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुधम्माए चंदंसि सीहासणंसि तुडिएण सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए?, णो तिणढे समझे। से केणतुणं भंते! एवं युति नो पभू चंदे जोतिसराया चंडवडेंसए विमाणे सभाए सुधम्माए दीप अनुक्रम [३१६ ३१७]] ~ 768~ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ------- ---------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)].-----......... मूलं [२०१-२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रत सूत्रांक [२०१-२०४] %25 CE प्रतिपत्ती | तारान्तरं त्रुटिकं अमैथुनं सू. र्यादिदेव्यः उद्देशः२ सू०२०१२०४ ॥३८३॥ चंद॑सि सीहासणंसि तुडिएणं सहिं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए?, गोयमा! - दस्स जोतिसिंदस्स जोतिसरपणो चंदवडेंसए विमाणे सभाए सुधम्माए माणवगंसि चेतियखंभंसि वइरामएम गोलवद्दसमुग्गएसु बहुयाओ जिसकहाओ सपिणखित्ताओ चिटुंति, जाओणं चंदस्स जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो अन्नेसिंच यहणं जोतिसियाणं देवाण य देवीण य अचणिजाओ जाव पलुवासणिज्जाओ, तासि पणिहाए नोपभू चंदे जोतिसराया चंदवडिं० जाव चंदसि सीहासपंसि जाव भुंजमाणे विहरित्तए, से एएणटेणं गोयमा! नो पभू चंदे जोतिसराया चंदवडेंसए विमाणे सभाए सुधम्माए चंदंसि सीहासणंसि तुडिएण सद्धिं दिव्वाई भोगभोयाई भुंजमाणे विहरितए, अनुत्तरं च णं गोयमा! पभू चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंदसिए विमाणे सभाए सुधम्माए चंदंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव सोलसहिं आपरक्खदेवाणं साहस्सीहिं अन्नेहिं बहहिं जोतिसिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धि संपुरिवहे महयाहयणहगीदवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडप्पवाइयरवेणं दिब्बाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए, केवलं परियारतुडिएण सद्धिं भोगभोगाई बुद्धीए नो चेय णं मेहुणवत्तियं ।। (सू०२०३) सूरस्स णं भंते ! जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-सूरप्पभा आयवाभा अचिमाली पभंकरा, एवं अवसेसं %-- दीप अनुक्रम [३१८-३२१] ॥३८३॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम, ~769~ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [२०१-२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१-२०४] जहा चंदस्स णवरिं सूरवर्डिसए विमाणे सूरंसि सीहासणंसि, तहेव सब्वेसिपि गहाईणं चत्तारि अग्गमहिसीओ० तंजहा-विजया वेजयंती जयंती अपराजिया, लेसिपि तहेव । (मू० २०४) 'जंबूदीवे णं भंते ! दीये'इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे तारावास्ताराया एतदन्तरं कियाधया प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम!| सद्विविधमन्तरं प्रज्ञान, तद्यथा-व्यापातिम निर्व्याघातिमं च, व्याहननं व्याधात:-पर्वतादिस्खलनं तेन निर्वृत्तं व्यापातिम भावादिम' इति इमप्रत्ययः, निळघातिम-व्याघातिमान्निर्गत स्वाभाविकमित्यर्थः, तत्र यन्निाधातिमं तजघन्येन पञ्च धनु:शतानि उत्कर्षतो द्वे गब्यूते, तत्र यद् व्याघातिम तजघन्येन द्वे योजनशते 'षट्पष्टे षट्पट्याधिके, एतच निषधकूढादिकमपेक्ष्य थेदितव्यं, तथाहिनिषधपर्वतः स्वभावादप्युच्चैश्चत्वारि योजनशतानि तस्योपरि पञ्च योजनशतोचानि कूटानि, तानि च मूले पञ्च योजनशतान्यायाम| विष्कम्भाभ्यां मध्ये त्रीणि योजनशतानि पश्वसप्तत्यधिकानि उपर्यतृतीयानि योजनशवानि, सेषां चोपरितनभागसमणिप्रदेशे तथाजगरस्वाभाच्यादृष्टावष्टौ योजनान्युभवतोऽवाधया कृत्वा ताराविमानानि परिभ्रमन्ति, ततो जघन्यतो व्याधातिममन्तरं हे योजनशते षषष्यधिक भवति, उत्कर्षतो द्वादश योजनसहस्राणि द्वे योजनशते द्वाचवारिंशदधिके, एतश मेरुमपेक्ष्य द्रष्टव्यं, तथाहि-मेल| दंश योजनसहस्राणि मेरोचोभयतोऽबाधया एकादश योजनशतान्येकविंशत्यधिकानि, तत: सर्वसङ्ख्यामीलने द्वादश योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्वाचत्वारिंशदधिके, कचित्सर्वत्र 'वाघाइए निव्वाघाइए' इति पाठस्तत्र व्याघातो-यथोक्तरूपोऽस्यास्तीति व्याघातिकम्, 'अतोऽनेकस्वरादिति मत्वर्थीय इकप्रत्ययः, व्याघातिकान्निर्गतं निल्चातिकमिति ॥ 'चंदस्स णं भंते !' इत्यादि, चन्द्रस्य भदन्त ! ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य 'कति' कियत्सयाका अग्रमहिण्य: प्रज्ञाप्ता:?, भगवानाह-गौतम! चतस्रोऽयमहिध्यः प्राप्ताः, दीप अनुक्रम [३१८-३२१] ~~770~ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२०१ -२०४] दीप अनुक्रम [३१८ -३२१] प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(ज्योतिष्क)], मूलं [२०१-२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३८४ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - Je Escumar in तद्यथा चन्द्रप्रभा १ 'दोसिणाभा' इति ज्योत्स्नाभा २ अर्चिर्माली ३ प्रभङ्करा ४ || 'तत्थ ण'मित्यादि, 'तत्र' तालु चतसृषु अप्रमहिषीषु मध्ये एकैकस्या देव्याश्चत्वारि २ देवीसहस्राणि परिवारः प्रज्ञतः किमुक्तं भवति ? - एकै काऽयमहिषी चतुर्णी २ देवीसह - स्राणां पट्टराझी, एकैब सा इत्थम्भूताऽयमहिषी परिवारावसरे तथाविधां ज्योतिष्कराजचन्द्रदेवेच्छामुपलभ्य प्रभुरन्यानि आलसमानरूपाणि चत्वारि देवीसहस्राणि विकुर्वितुं स्वाभाविकानि पुनः 'एवमेव' उक्तप्रकारेणैव 'सपूर्वापरेण' पूर्वापरमीलनेन पोडश [प्र थामम् ११५०० ] देवीसहस्राणि चन्द्रदेवस्य भवन्ति, 'सेत्तं तुडिए' तदेतावत् 'तुटिकम्' अन्तःपुरम् आह चूर्णिकृत् - 'तुटिकमन्तःपुरमुपदिश्यते' इति ॥ 'पभू णं भंते!' इत्यादि, प्रभुर्भदन्त ! चन्द्रो ज्योतिषेन्द्रो ज्योतिपराजश्चन्द्रावतंस के विमाने सभायां ५ सुधर्मायां चन्द्रे सिंहासने 'तुटिकेन' अन्तःपुरेण सार्द्धं दिव्यान् भोगभोगान् सुखमानः 'विहर्तुम्' आसितुम् ? भगवानाह गोतम ! नायमर्थः समर्थः । अत्रैव कारणं पृच्छति' से केणट्टेणमित्यादि तदेव, भगवानाह - गौतम ! चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योति - पराजस्य चन्द्रावतंस के विमाने सभायां सुधर्मायां माणवकचैत्यस्तम्भे वज्रमयेषु गोलवृत्तसमुद्रकेषु तेषु च यथा तिष्ठन्ति तथा विजयराजधानीगत सुधर्मा सभायामिव द्रष्टव्यं वहूनि जिनसक्थीनि संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति यानि सूत्रे खीलनिर्देश: प्राकृतत्वात् चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य अर्चनीयानि पुष्पादिभिर्वन्दनीयानि विशिषैः स्तोत्रैः स्तोतव्यानि पूजनीयानि वस्त्रादिभिः स कारणीयानि आदरप्रतिपत्त्या सन्माननीयानि जिनोचितप्रतिपश्या कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति पर्युपासनीयानि, 'तासिं पणिहाए' इति तेषां प्रणिधया तान्याश्रित्य नो प्रभुश्चन्द्रो ज्योतिषराजश्चन्द्रावतंस के विमाने यावद्विहर्तुमिति । 'पभू णं गोयमा' इत्यादि, प्रभुगतम ! चन्द्रो ज्योतिषेन्द्रो ज्योतिषराजञ्चन्द्रावतंस के विमाने सभायां सुधर्मायां चन्द्रसिंहासने चतुर्भिः सामानिकसह सैश्चतसृ For P&Pale Chly ३ प्रतिपत्ती तारान्तरं त्रुटिकं अ मैथुनं सूर्यादिदेव्यः उद्देशः २ [सू०२०१२०४ ~771~ ॥ ३८४ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते ज्योतिष्कदेवाधिकारः एक एव वर्तते तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२०१ -२०४] दीप अनुक्रम [३१८ -३२१] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(ज्योतिष्क)]. मूलं [२०१-२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ०६५ भिरप्रमहिषीभिः सपरिवाराभिस्तिभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः षोडशभिरा सरक्षकदेव सहसैरन्यैश्च बहुभिज्योतिषैर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृतः 'महयाहयेत्यादि पूर्ववत् यावद्दिव्यान् भोगभोगान् भुखानो विहर्तुमिति, न पुनः 'मैथुनप्रत्ययं' मैथुननिमित्तं दिव्यान् स्पर्शादीन् भुञ्जानो बिहतु प्रभुरिति ॥ 'सूरस्स णं भंते!' इत्यादि, सूरस्य भदन्त ! ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य कति अप्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः १, भगवानाह - गौतम! चतस्रोऽयमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूर्यप्रभा आतपाभा अर्चिर्माली प्रभङ्करा । 'तत्थ णं एगमेगाए देवीए' इत्यादि चन्द्रवत्तावद्वक्तव्यं यावत् 'नो चेत्र णं मेहुणवत्तियं' नवरं सूर्यावतंस के विमाने सूर्वे सिंहासने इति वक्तव्यं, शेषं तथैव ॥ चंदविमाणे णं भंते! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, एवं जहा ठितीपए तहा भाणियच्चा जाव ताराणं ॥ (सू० २०५ ) 'चंदविमाणे णं भंते!' इत्यादि, चन्द्रविमाने भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थिति ?, भगवानाह - गौतम! जघन्येन चतुर्भागपस्योपमं चतुर्भाग: पस्योपमस्य चतुर्भागपस्योपममर्द्धपिप्पलीवत्, अत्रापि चिरन्तनव्याकरणेऽयं समासः, यदिवा चतुर्भागमात्रं | पस्योपमं चतुर्भागपस्योपममिति विशेषणसमासः पत्योपमस्य चतुर्भाग इत्यर्थः, उत्कर्षतः पत्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिकं, चन्द्रविमाने हि चन्द्रदेव उत्पयते अन्ये च तत्सामानिकामरक्षादवः, तत्रामरक्षादीनां यथोक्ता जपन्या स्थितिः उत्कृष्टा चन्द्रमसां तत्सामानिकानां वा । 'चंदविमाणे णं भंते!' इत्यादि, चन्द्रविमाने भदन्त ! देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता ?, भगवानाह गौतम ! जघन्येन चतुर्भागपल्योपममुत्कर्षत: पस्योपमा पश्चाशता वर्षसहस्रैरभ्यधिकं । एवं सूर्यादिविमानविषयाण्यपि स्थितिसूत्राणि वा For P&False Cinly ~ 772~ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्ती ज्यो. उद्देशः २ | चन्द्रादे स्थितिः सू० २०५ अल्पवहुत्वं सू० २०६ [२०५] श्रीजीवा- च्यानि, नवरं सूर्यविनाने देवानां जघन्यतश्चतुर्भागपल्योपममुस्कर्षत: पल्योपमं बर्षसहस्राभ्यधिक, देवीनां जघन्यतश्चतुर्भागपल्योप- बीवाभि ममुत्कर्षतोऽर्द्धपल्योपमं पञ्चभिर्वर्षशतैरभ्यधिक, प्रहविमानदेवानां जघन्यतश्चतुर्भागपल्योपममुत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमं, देवीनां उत्कृ- मलयगि-5मर्धपल्योपमं जघन्येन चतुर्भागपल्योपर्म, नक्षत्रविमाने देवानां जघन्यतश्चतुर्भागपल्योपममुत्कर्षतोऽर्द्धपल्योपमं, देवीनां उत्कृष्टतोऽ- रीयावृत्तिःधिकचतुर्भागपल्योपमं जघन्येन चतुर्भागपल्योपम, ताराबिमाने जघन्येनाष्टभागपल्योपममुत्कर्षतचतुर्भागपल्योपर्म, देवीनां जघन्य॥३८५॥ तोऽष्टभागपल्योपममुत्कर्षतः सातिरेकमष्टभागपल्योपममिति ॥ एतेसि णं भंते! चंदिमसूरियगहणक्षत्सतारारूवाणं कयरेशहितो अप्पा चा पहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! चंदिमसूरिया एते णं दोषिणवि तुल्ला सम्वत्थोवा संखेजगुणा णक्खत्ता संखेजगुणा गहा संखेजगुणाओ तारगाओ ॥ (सू०२०६) जोइसुद्देसओ समत्तो॥ 'एतेसि णं भंते !' इत्यादि, एतेषां भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां कतरे कतरेभ्योऽस्पा: कतरे कतरेभ्यो बहुका था? कतरे कतरैस्तुल्या:?, अत्र विभक्तिपरिणामेन तृतीया व्याख्येया, कतरे कतरेभ्यो विशेषाधिका:, भगवानाह-गौतम! चन्द्रसूर्यो। एते द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चन्द्रसूर्याणां समसयाकलात् , शेषेभ्यो ग्रहादिभ्यः सर्वेऽपि स्तोकाः, तेभ्यो नदक्षत्राणि सोयगुणानि अष्टाविंशतिगुणत्वात् , तेभ्योऽपि ग्रहाः सहयेयगुणा: सातिरेकत्रिगुणत्वात् , तेभ्योऽपि तारा: सहयगुणाः | प्रभूतकोटीकोटीगुणत्वात् ।। इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां चतुर्थप्रतिपत्तौ ज्योतिषोदेशकः समाप्तः ।। दीप अनुक्रम [३२२] CARSAXCC -- - अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~773~ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२०७] दीप अनुक्रम [३२४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(वैमानिक)-१], मूलं [२०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: उक्त ज्योतिष वक्तव्यता, सम्प्रति वैमानिकवक्तव्यतामाह कहि णं भंते! वेमाणियाणं देवाणं विमाणा पण्णत्ता?, कहि णं भंते! वेमाणिया देवा परिवसंति?, जहा ठाणपदे तहा सव्वं भाणियन्वं णवरं परिसाओ भाणितव्वाओ जाव सुक्के, अन्नेसिं बहूणं सोधम्मकष्पवासीणं देवाण य देवीण य जाव विहरंति ॥ (सू० २०७ ) 'कहि णं भंते! बेमाणियाण' मित्यादि, क भदन्त ! वैमानिकानां देवानां विमानानि प्रज्ञतानि ?, तथा क भदन्त ! वैमानिका देवाः परिवसन्ति ?, भगवानाह - गौतम ! अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बसमरमणीयाद् भूमिभागाद् रुपकोपलक्षितादिति भावः ऊर्द्ध चन्द्रसूर्य| ग्रहनक्षत्रतारारूपाणामप्युपरि बहूनि योजनानि बहूनि योजनशतानि बहूनि योजन सहस्राणि बहूनि योजनशतसहस्राणि वडीयोंजन कोटीकोटी: ऊर्द्ध दूरमुरनुत्य-बुद्ध्या गला, एतच सार्द्धरजूपलक्षणं, तथा चोक्तम् — “सोहम्मंमि दिवढा अड्डाइजा य रजु माहिंदे । बंभंमि अद्वपंचम छ अए सत्त होते ॥ १ ॥ [ सौधर्ने सार्धं सार्वे द्वे रज्जू माहेन्द्रे । ब्रह्मदेवलोके अर्धपञ्चमाः पड् अच्युते सप्त लोकान्ते ॥ १ ॥ ] 'एत्थ णमित्यादि, 'अत्र' एतस्मिन् सार्द्धरज्जुपलक्षिते क्षेत्रे ईषत्प्राग्भारादबक् सौधर्मेशानसनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोकलान्तकशुक्रसहस्रारानतप्राणतारणाच्युतमैवेयकानुत्तरेषु स्थानेषु 'अत्र' एतस्मिन् वैमानिकानां चतुरशीतिर्विभानावास शतसहस्राणि सप्तनवतिः सहस्राणि त्रयोविंशतिर्विमानानि ८४९७०२३ भवन्तीत्याख्यातानि इयं च सङ्खुवा 'बत्तीस अडवीसा बारसअट्ठ चउरो सयसहस्सा" इत्यादिसङ्ख्यापरिमीलनेन भावनीया || 'ते णं विमाणा' इत्यादि, तानि विमानानि सर्वरत्नमयानि 'अच्छा सण्हा उण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्नला निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउजोया पासाईया दरिसणिना अभिरुवा पडिरुवा ।" For P&Pealise Cinly तृतीय-प्रतिपत्तौ ज्योतिष्क- उद्देशकः परिसमाप्तः अथ वैमानिक उद्देशक: (१) आरब्ध: ~ 774~ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - -------- मूलं [२०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०७] ५. दीप अनुक्रम [३२४] श्रीजीवा 'एस्थ णमित्यादि, एतेषु विमानेषु बहवो वैमानिका देवाः परिवसन्ति, तद्यथा-सौधर्मा ईशाना यावद् गैवेयका अनुत्तराः, एते च प्रतिस्तो जीवाभि व्यपदेशास्तात्स्यादवगन्तव्याः, यथा पचालदेशनिवासिनः पचाला:, एते च कथम्भूताः इत्याह-'ते णमित्यादि, ते सौधर्मा-18वैमानिक मलयगि-16दयोऽयुतपर्यवसाना यथाक्रम मृगमहिषवराहसिंहच्छगलदईरहयगजपति जगखड्गवृषभाङ्कविडिमप्रकटितचिह्नमुकुटाः, मृगादिरूपाणि उदेशात रीयावृत्तिः INप्रकटितानि चिहानि मकटे येषां ते तथेति भावः, तद्यथा-सौधर्मदेवा मृगरूपप्रकटितचिह्नमुकुटा: ईशानदेवा महिषरूपप्रकटितचिव- वैमानिक मुकुटाः सनत्कुमारदेवा वराहरूपप्रकटितचिदगुकुटाः माहेन्द्रदेवा: सिंहरूपप्रकटितमुकुटचिट्ठाः ब्रह्मलोकदेवाश्छगलरूपप्रकटितमुकु॥३८६ ॥ दाटचिहा: लान्तकदेवा दर्दुररूपप्रकटित मुकुटचिताः शुक्रकल्पदेवा हयमुकुटचिहाः सहस्रारकल्पदेवा गअपत्तिमुकुटचिट्ठाः आनतक-| सू०१०७ स्पदेवा भुजगमुकुटचिट्ठाः, प्राणतकल्पदेवाः खड्गमुकुटचिहाः, खड्गः चतुष्पद विशेष आटव्यः, आरणकल्पदेवा धृषभमुकुटचिहा: अच्युतकल्पदेवा विडिममुकुटचिट्ठाः तथा प्रशिथिलवरमुकुटकिरीटधारिणः, 'वरकुंडलुजोवियाणणा' इति वराभ्यां कुण्डलाभ्यामुद्योतित-भास्वरीकृतमाननं येषां ते वरकुण्डलोद्योतिताननाः, 'मउडदित्तसिरया' मुकुटेन दीप्तं शिरो येषां ते मुकुटदीप्तशिरसः | रक्ताभा-रक्तवर्णाः, एतदेव सविशेषमाह-पउमपम्हगोरा' पद्मपक्ष्मवत्-पद्मपत्रवद् गौराः पद्मपक्ष्मगौरा: श्रेयांस:-परमप्रशस्याः | शुभवर्णगन्धस्पर्शा: 'उत्तमविकुर्विणः' उत्तम विकुर्वन्तीत्येवंशीला उत्तमविकुर्विगः, 'विविहवत्थमल्लधारी' विविधानि शुभात् शुभतराणि वस्त्राणि माल्यानि च धारयन्तीत्येवंशीला विविधवस्वमाल्यधारिणः महर्दिका महायुतयो महायशसो महाबला महानुभागा महासौख्याः तथा हारविराइववच्छा कडगतुडियथंभियभुया संगयकुंडलमट्टगंडयलकण्णपीढधारी विचित्तहत्याभरणा विचित्तमाला-IN ॥३८६।। 8 मतली कल्लाणगपवरमलाणुलेवणा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिब्बेणं वपणेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्येणं संपवणेणं ~775~ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - ----------- मूलं [२०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: %95% प्रत सूत्रांक [२०७] विश्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इडीए विवाए जुईए दिवाए पभाए दिव्वाए छायाए दिवाए अञ्चीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेसाए। दस दिसामो जोवेमाणा' इति प्रागुक्तासुरकुमारवन्नेतन्यम् ॥'ते णं तत्थ साणं साण'मित्यादि, ते वैमानिका देवाः शक्रादयोऽ-I च्युतपर्यवसानास्तत्र स्वस्खकल्पे स्वेषां स्वेषां विमानावासशतसहस्राणां खेषां स्वेषां सामानिकसहस्राणां खेषां स्वेषां त्रायशिकानां खेषां तेषां लोकपालानां स्वासां खासामपमहिषीणां सपरिवाराणां खासा २ पर्षदां स्वेषां स्वेषामनीकानां खेषां खेषामनीकाधिपतीनां खेषां खेषामामरक्षदेवसहस्राणां, अन्येषां च बहूनां देवानां देवीनां च 'आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टितं महबरगतं आणाईसरसे-| दाणापर्ण कारेमाणा पालेमाणा महयाहयनहगीयवाइयततीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पबाइयरवेणं दिव्बाई भोगभोगाई मुंजमाणा वि हरंती'ति ॥ 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त! सौधर्मकदेवानां विमानानि प्रज्ञप्तानि?, तथा क भदन्त ! सौधर्मकल्पदेवाः परि-1 वसन्ति ?, भगवानाह-गौतम! 'जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमि-1 भागाओ उई चंदिमसूरिमगहणक्खत्ततारारूवाणं बहूणि जोयणाई बहूणि जोवणसयाई बहूणि जोवणसहस्साई बहणि जोयणसय-13 सहस्साई उई दूर उत्पइत्ता' इति प्राग्वत्, 'पत्थ ण' 'अत्र' एतस्मिन् सार्द्धरजपलक्षिते क्षेत्रे सौधर्मो नाम कल्पः प्राप्तः, सच| प्राचीनापाचीनायत उदग्दक्षिणविस्तीर्णः अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थित: मेरोदक्षिणतस्तस्य भावात् , 'अर्चिाली' भीषि-किरणालेषा माला अधिर्माला सा अस्यास्तीति अचिर्माली सर्वतः किरणमालापरिवृत इत्यर्थः, एतदेवोपमया द्रढयति-दझालराशिवर्णाभिः प्र|भाभिः पनरागादिसम्बन्धिनीभिर्जाज्वल्यमानतया देदीप्यमानाङ्गारराशिवर्णाभप्रभाणां अत्यन्तोत्कटतया साक्षावकारराशिरिष मल-1 नवभासत इति भावः, असोया योजनकोटाकोटयः परिक्षेपेण सर्वांसना रत्नमयोऽच्छ:, यावत्करणात् 'सण्हे लण्हे घटे महे' इत्या दीप अनुक्रम [३२४] ~~776~ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२०७] दीप अनुक्रम [३२४] प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... श्रीजीवा नीवाभि० "जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक: [ ( वैमानिक)- १], मूलं [२०७] ... आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मलयगि यावृत्तिः ॥ ३८७ ॥ - - • दिपरिग्रहः || 'तत्थ णमित्यादि, 'तत्थ ण'मिति पूर्ववत्, सौधर्मकल्पे द्वात्रिंशद् विमानावासशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपैश्व तीर्थकृद्भिः ॥ 'ते णं विमाणा' इत्यादि, तानि विमानानि सर्वासना रवमयानि अच्छानि यावत्प्रतिरूपाणि अत्रापि यावत्करणात् 'सण्हा लव्हा घट्टा मट्ठा' इत्यादिपरिग्रहः ॥ 'तेसि ण' मित्यादि तेषां विमानानां बहुमध्ये पञ्चावतंसका विमानावतंसकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा' - 'असोगबर्डिसए' इति, पूर्वस्यां दिशि अशोकावतंसकः दक्षिणस्यां सप्तपर्णावतंसकः अपरस्यां चम्पकावतंसकः उत्तरस्यां चूतावतंसकः मध्ये तेषां सौधर्मावतंसकः ॥ 'ते णं वडेंसया' इत्यादि ते पञ्चाप्यवतंसकाः सर्वासना रत्नमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः, अत्रापि यावत्करणात् 'सन्हा उण्हा घट्टा मट्ठा' इत्यादिपरिग्रहः । 'एत्थ णमित्यादि, 'अत्र' एतेषु द्वात्रिंशत्शतसहस्रसत्येषु विमानेषु बहवः सौधर्मका:- सौधर्मा एव सौधर्म्मका देवाः परिवसन्ति 'महिडिया जान दस दिसाओ उज्जोवेमाणा' अत्र यावत्करणात् 'महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा' इत्यादिप्रागुक्तपरिग्रहः, 'ते णं तत्थ साणं साणं विमाणाणं साणं साणं सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिमाणं साणं २ अणियाणं साणं २ अणियाहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च बहूणं जाव विहरंति' सुगमं ॥ 'सके य एत्थ' इत्यादि, अत्र - एतस्मिन् सौधर्मे कल्पे शक्रः शकनात् शक्रो देवेन्द्रो देवराजः परिवसति, स च कथम्भूतः १ इत्याह- 'वज्रपाणि: ' व पाणावस्य वज्रपाणि: असुरपुरदारणात् पुरन्दरः, 'सयकऊ' इति शतं क्रतूनां प्रतिमानां - अभिग्रहविशेषाणां श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमरूपाणां कार्त्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया यस्य स शतक्रतुः, 'सहस्वक्खे' इति सहस्रमणां यस्यासौ सहस्राक्षः, इन्द्रस्य हि किल मत्रिणां पञ्च शतान्यालना सह परिपूर्णानि सन्ति तदीयानामक्ष्णामिन्द्रप्रयोजनव्या तत्वाद् इन्द्रसम्बन्धीनि विवक्षितानीति सहस्राक्षलं, 'मघवं' इति मघा - म For P&P Cy ~ 777 ~ ३ प्रतिपत्तौ वैमानि० उद्देशः १ वैमानिक देवाः सू० २०७ ॥ ३८७ ॥ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२०७] दीप अनुक्रम [३२४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशकः [(वैमानिक)-१], मूलं [२०७] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित हामेधास्ते यस्य वशे सन्ति स मघवान् पाको नाम बलवान् रिपुः स शिष्यते-निराक्रियते येन स पाकशासनः, दक्षिणार्द्धलोका धिपतिः मेरोदक्षिणतः सर्वस्यापि तदाभाव्यत्वात्, द्वात्रिंशद्विमानावा सशतसहस्राधिपतिः, सौधर्मे करपे एतावतां विमानाषास्त्रशतसहस्राणां भावात्, ऐरावणवाहनः, ऐरावणनाम्रो गजपतेस्तद्वाहनस्य भावात्, सुरेन्द्रः सौधर्मवासिनां सुराणां सर्वेषामपि तदाज्ञावसिंत्वात्, 'अरयंबरवत्थघरे' इति अरजांसि - रजोरहितानि स्वच्छता अम्बरवद् अम्बराणि वस्त्राणि धारयतीति अरजोऽम्बरवत्रधरः, 'आलइयमालमउडे' इति माला च मुकुटश्च मालामुकुटं आलिङ्गितं - आषिद्धं मालामुकुटं येन स नालिङ्गितमालामुकुटः, कृतकण्ठेमाल आविद्धशिरसि मुकुट इति भाव:, 'नवहेम चारुचित्तचंचल कुण्डल विलिहिज्ज माणगंडे' नवमिव-प्रत्ययमित्र हेम यत्र ते नवमनी नवमभ्यां चारुचित्राभ्यां चञ्चलाभ्यां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानौ गण्डौ यस्य स तथा, 'महिडिए जाब दसदिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे' अत्र यावत्करणात् 'महजईए महाबले महायसे' इत्यादि पूर्वोक्तपरिग्रहः, सौधर्मे कल्पे सौधर्मावतंस के वि माने सभायां सुधर्मायां शक्रे सिंहासने 'से णं तत्थ बत्तीसाए' इत्यादि स तत्र द्वात्रिंशतो विमानावासशतसहस्राणां चतुरशीतेः सामानिकसहस्राणां त्रयस्त्रिंशतवाय शिकानां चतुर्णी लोकपालानामष्टानामममहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणां पर्वदां सप्तानामनीकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां चतसृणां चतुरशीतीनामासरक्ष देव सहस्राणां अन्वेषां च बहूनां सौधर्मकल्पवासिनां वैमानिकानां देवानां बेबीबां च 'आहेव जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरई' अत्र यावत्करणात् 'पोरेवचं सामित्तं मट्टित्तमित्यादि परिग्रहः ॥ सक्क्स्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो कति परिसाओ पन्नन्ताओ?, गोयमा । तओ परिसाओ पण्णसाओ, तंजहा—समिता चंडा जाता, अग्भितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाता For P&Praise Cnly ~778~ এ এও6 Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [३२५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(वैमानिक)-१], मूलं [२०८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ १८८ ।। ॥ सकस्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ?, मझिमियाए परि० तहेव बाहिरियाए पुच्छा, गोयमा ! सस्स देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ मज्झिमियाए परिसाए चउदस देवसाहस्सीओ पण्णताओ बाहिरियाए परिसाए सोलस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तहा अभितरियाए परिसाए स देवीसयाणि मज्झमियाए छथ देवीसयाणि बाहिरियाए पंच देवीसयाणि पन्नताई ॥ सकस णं भंते देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवहयं कालं ठिई पण्णत्ता ? एवं मज्झिमियाए बाहिरियाएव, गोपमा ! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए पंच पलिओव माइंठिती पण्णत्ता मशिमियाए परिसाए चत्तारि पलिओ माई ठिती, पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए देवाणं तिन्नि पलिओ माइंठिती पण्णत्ता, देवीणं ठिती, अभितरियाए परिसाए देवीणं तिन्नि पलिओ माई ढिती पण्णत्ता मज्झिमियाए दुन्नि पलि ओवमाई ठिती पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए एवं पलिओ मंठिती पण्णत्ता, अट्ठो सो चैव जहा भवणवासीणं ॥ कहि णं भंते! ईसाणकाणं देवा विमाणा पण्णत्ता? तहेब सब्बं जाव ईसाणे एत्थ देविंदे देव० जाव विहरति । ईसाणस्स णं भंते देविंदस्स देवरण्णो कति परिसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! तओ परिसाओ पण्णसाओ, तंजा - समिता चंडा जाता, तहेव सव्यं णवरं अभितरियाए परिसाए दस देवसा For P&Pealise Cnly ~ 779~ %%%%%% ३ प्रतिपचौ वैमा० उद्देशः १ पर्षद‍ सू० २०८ 11 RECH Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - -------- मूलं [२०८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] हस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ, बाहिरियाए चउद्दस देवसाहस्सीओ, देवीणं पुच्छा, अभितरियाए णव देवीसता पणत्ता मज्झिमियाए परिसाए अह देवीसता पणत्ता वाहिरियाए परिसाए सत्त देविसता पण्णत्ता, देवाणं० ठिती पं०१, अभितरियाए परिसाए देवाणं सत्त पलिओचमाई ठिती पण्णत्ता मज्झिमियाए छ पलिओवमाई बाहिरियाए पंच पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता । देवीणं पुच्छा, अभितरियाए साइरेगाई पंच पलिओवमाई मज्झिमियाए परिसाए चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए तिपिण पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, अट्ठो तहेव भाणियब्यो ॥ सर्णकुमाराणं पुच्छा तहेव ठाणपदगमेणं जाव सणकुमारस्स तओ परिसाओ समिताई तहेव, णवरिं अम्भितरियाए परिसाए अट्ट देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ पण्णसाओ, बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, अम्भितरियाए परिसाए देवीणं ठिती अद्धपंचमाई सागरोवमाई पंच पलिओवमाई ठिती पपणत्ता मज्झिमियाए परिसाए अद्धपंचमाई सागरोवमाईचत्तारि पलिओवमाइंठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अद्धपंचमाई सागरोवमाई तिपिण पलिओबमाई ठिती पण्णत्ता, अहो सो चेव ।। एवं माहिंदस्सवि तहेव सओ परिसाओ णवरि अम्भितरियाए परिसाए छद्देवसाहस्सीओ पपणत्ताओ, मज्झिमियाए दीप अनुक्रम [३२५] ~780~ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - -------- मूलं [२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥३८९॥ 444 ३ प्रतिपत्तौ बैमा० उद्देशः१ पर्षदा सू०२०८ दीप अनुक्रम परिसाए अह देवसाहस्सीओ पपणत्ताओ, बाहिरियाए दस देवसाहस्सीओ पपणत्ताओ, ठिती देवाणं अभितरियाए परिसाए अपंचमाई सागरोवमाई सत्त य पलिओ० ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए पंच सागरोवमाई छच पलिओवमाई, बाहिरियाए परिसाए अपंचमाई सागरोबमाई पंच य पलिओवमाई ठिती पं० तहेव सब्वेसिं इंदाण ठाणपपगमेणं विमाणाणि वुधा ततो पच्छा परिसाओ पत्तेयं २ बुञ्चति ॥ बंभस्सवि तओ परिसाओ पपणत्ताओ अम्भितरियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ मज्झिमियाए छ देवसाहस्सीओ बाहिरियाए अट्ट देवसाहस्सीओ, देचाणं ठिती अभितरियाए परिसाए अद्धणवमाइं सागरोवमाइं पंच य पलिओवमाई मज्झिमियाए परिसाए अद्धनवमाईचत्तारि पलिओवमाई बाहिरियाए अद्वनवमाइं सागरोवमाई तिषिण प पलिओवमाई अट्ठो सो चेव ॥ लंतगस्सवि जाव तओ परिसाओ जाव अभितरियाए परिसाए दो चेव साहस्सीओ मज्झिमियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ बाहिरियाए छद्देवसाहस्सीओ पण्णताओ, ठिती भाणियव्वा-अभितरियाए परिसाए वारस सागरोवमाई सत्त पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए घारस सागरोवमाई छच्च पलिओवमाई ठिती पपणत्ता वाहिरियाए परिसाए बारस सागरोवमाई पंच पलिओवमाई ठिती पण्णता ।। महासुक्कस्सवि जाव तओ परिसाओजाव अभितरियाए एगंदेवसहस्सं मज्झिमियाए दो देवसा [३२५] 62-964 BOLLoCACANS ३८९॥ ~ 781~ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - -------- मूलं [२०८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] +%E5% दीप अनुक्रम 'हस्सीओ पन्नताओ बाहिरियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ, अभितरियाए परिसाए अद्धसोलस सागरोवमाई पंच पलिओवमाई मज्झिमियाए अद्धसोलस सागरोवमाई चत्तारि पलिओवमाई बाहिरियाए अद्धसोलस सागरोवमाई तिषिण पलिओवमाइं अट्ठो सो चेव ॥ सहस्सारे पुच्छा जाव अभितरियाए परिसाए पंच देवसया मज्झिमियाए परि० एगा देवसाहस्सी वाहिरियाए दो देवसाहस्सीओ पन्नत्ता ठिती अभितरियाए अट्ठारस सागरोयमाई सत्त पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता एवं मज्झिमियाए अट्ठारस छप्पलिओवमाई बाहिरियाए अट्ठारस सागरोवमाइं पंच पलिओषमाई अट्ठो सो चेव ॥ आणयपाणयस्सवि पुच्छा जाय तओ परिसाओ णवरि अभितरियाए अट्ठाइजा देवसया मज्झिमियाए पंच देवसया बाहिरियाए एगा देवसाहस्सी ठिती अम्भितरियाए एगणवीस सागरोवमाई पंच य पलिओवमाई एवं मजिस एगोणवीस सागरोवमाई चत्तारि य पलिओवमाई बाहिरियाए परिसाए एगूणवीसं सागरोवमाइं तिषिण य पलिओबमाई ठिती अट्ठो सो चेव ॥ कहिणं भंते! आरणअनुयाणं देवाणं तहेव अचुए सपरिवारे जाव विहरति, अनुयस्स णं देविंदस्स तओ परिसाओ पष्णताओ अम्भितरपरि० देवाणं पणवीस सयं मज्झिम० अढाइजा सया वाहिरय. पंचसया अभितरियाए एकवीसं सागरोवमा सत्त य पलिओवमाई मज्झि० एकवीससागर० छप्पलि बाहिर एकवीसं सागरो [३२५] C4KOSH ~782~ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - ---------- मूलं [२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगि-1 रीयावृत्तिः ॥३९०॥ [२०८] दीप अनुक्रम पंच य पलिओचमाई ठिती पण्णत्ता | कहिणं भंते! हेटिमगेवेनगाणं देवाणं विमाणा पण्णता? प्रतिपत्ती कहिणं भंते! हेहिमगवेजगा देवा परिवसति? जहेव ठाणपए तहेव, एवं मज्झिमगेवजा उव वैमा० रिमगेविनगा अणुसरा य जाव अहमिंदा नाम ते देवा पणत्ता समणाउसो।। (सू०२०८)॥ उद्देशः१ पढमो बेमाणियउद्देसओ॥ पपर्दः 'सकस्स णं भंते !' इत्यादि, शक्रस्य भवन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य कति पर्षदः प्रज्ञप्ता: ?, भगवानाह-गौतम! तिस्रः पर्षदः प्र- सू०२०८ शप्ताः, तद्यथा- शमिका चण्डा जाता, अभ्यन्तरिका शमिका मध्यमिका चण्डा बाया जाता ॥ 'सकस्स णं भंते ! देविंदस्स | | देवरण्णो अभितरियाए' इत्यादि प्रअषदं सुप्रतीतं, भगवानाह-गौतम! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि द्वादश | देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि मध्यमिकायां चतुर्दश देवसहस्राणि बाह्यायां षोडश देवमहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकार्या पर्षदि सप्त देवीशतानि मध्यमिकायां षड् देवीशतानि बाह्यायां पच्च देवीशतानि ।। 'सकस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए दे-18 वाणं केवइ काल' मित्यादि प्रापर्ट सुप्रतीतं, भगवानाह-गौतम! शक्रख देवेन्द्रस्य देवराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्च पल्योप-16 मानि स्थितिः अज्ञप्ता, मध्यमिकायां चत्वारि पल्योपमानि, बाह्मायां पर्षदि त्रीणि पल्योपमानि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां | त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः प्रजमा, मध्यमिका- वे पल्योपमे, बाह्यायामेकं पल्योपमं ।। 'से केणद्वेणं भंते! एवं वुचति सकस्स गं| देवेंदस्स देवरन्नो तओ परिसाओं' इत्यादि सकलमपि सूत्रं चमरवक्तव्यतायामिव भावनीयम् ।। 'कहिणं भंते! ईसाणगदेवाणं है। विमाण्ण पण्णता? कहिणं भंते! ईसाणगदेवा परिवमंति' इत्यादि सर्व सौधर्मवद्वक्तव्यं नवरं मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेण - [३२५] नमाजमारप. . . . . . ~ 783~ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [३२५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशकः [(वैमानिक)-१], मूलं [२०८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः जी० ६६ तथा 'अट्ठावीसं विमाणावासस्यसहस्सा भवतीति मक्खायं' तथा पञ्चावतंसकाः- पूर्वस्यामङ्कावतंसको दक्षिणस्यां स्फटिकावतंसकः अपरस्यां रजतावतंसकः उत्तरस्यां जातरूपावतंसकः मध्ये ईशानावतंसकः, तथा शूलपाणिर्वृषभवाहनः तथाऽशीतेः सामानिकसहस्राणां चतसृणामशीतीनामालरक्षदेव सहस्राणां तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि दश देवसहस्राणि मध्यमिकायां द्वादश बाह्यायां चतुर्दश, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि नव देवीशतानि मध्यमिकायागष्टौ देवीशतानि बाह्यायां सप्त देवीशतानि तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां सप्त पस्योपमानि मध्यमिकायां षट् बाह्यायां पञ्च तथाऽभ्यन्तरिकायां पदि देवीनां पञ्च पत्योपमानि मध्यमिकायां चत्वारि बाह्यायां त्रीणि, शेषं सर्व शक्रवत् ॥ कहि णं भंते! सर्णकुमाराणं देवाणं विमाणा पन्नता ?, कहि णं भंते! सणकुमारा देवा परिवसंति ?" इति पाठसिद्धं भगवानाह - गौतम! 'सोहम्मस्स कप्पस्स उप्पि सपक्ख सपडिदिसिं बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साइं बहूई जोयणसयसहस्साइं बहूईओ जोयणकोडोओ बहूईओ जोयणकोटाकोडिओ उडं दूरं बीइवइत्ता एत्थ णं सर्णकुमारे नामं कप्पे पत्ते' इति पाठसिद्धं, नवरं 'सपक्खं सपडिदिसि' समानाः पक्षा:- पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपाः पार्श्व यस्मिन् दूरमुत्पतने तत् सपक्षं 'समानस्य धर्मादिषु चेति समानस्य सभाव:, तथा समाना: प्रतिदिशो - विदिशो यत्र तत् सप्रतिदिक् । 'पाईणपडीणायते उईणदाहिणविच्छिणे इत्यादि सौधर्मकल्पयन्निरवशेषं वक्तव्यं, नवरं 'बारस विमाणावासस्य सहरसा भवतीति म क्खायमिति वक्तव्यं, तथा पञ्चानामवतंसकानां मध्ये चंखारस्त एवाशोकावतंसकादयो मध्ये सनत्कुमारावतंसकः, अग्रमहिष्यो न व| ब्यास्तत्र परिगृहीतदेवीनामसम्भवात्, तथा 'सर्णकुमारे कप्पे सणकुमारवडेंस विमाणे सभाए सुहम्माद सणकुमारंसि सोहाससि सेणं तस्थ बारसहं विनमाणावासस्य सहर जाणं बाबत्तरीए सामाजियसाहस्सीणं' तथा 'चउन्हं बाबत्तराणं आयरक्खदेवसा For P&Praise City ~784~ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - ---------- मूलं [२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - 4 - 0 - प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- हस्सीण' तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षद्यष्टौ देवसहस्राणि मध्यमिकायां दश बारायां द्वादश, देवीपर्षदो न वक्तव्याः, तथाऽभ्यन्तरिकाय ३ प्रतिपत्ती जीवाभि. पर्षदि देवानाम पश्चमानि सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि स्थितिः मध्यमिकायामर्द्धपञ्चमानि सागरोपमाणि चत्वारि पल्योप- वैमा० मलयगि मानि बाह्यायामपञ्चमानि सागरोपमाणि त्रीणि पल्योपमानि, शेषं शक्रवत् ॥ “कहि णं भंते! माहिंदगदेवाणं विमाणा पन्नता, उद्देशः१ रीयावृत्तिःपदाकहिणं भंते! माहिंदगदेवा परिवसंति ?, गोयमा! ईसाणस्स कप्पस्स उपि सपक्वं सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाव उप्पएत्ता देवलोक एल्थ ण माहिये कप्पे पणत्ते' इति पूर्ववत् , 'पाईगपडीणायए उईणदाहिणविच्छिन्ने' इत्यादि सर्व शेष सनत्कुमारवनिरवशेष व- पत्स्थि॥३९१॥ काव्य, नवरमन्त्राष्टौ विमानावासशतसहस्राणि, अवतंसकाश्चत्वार ईशानवत् , तद्यथा-अङ्कावतंसक: स्फटिकावतंसको रजतावतंसको 51 | त्यादि जातरूपावतंसको मध्ये माहेन्द्रावतंसकः । तथाऽऽधिपत्यचिन्तायाम् 'अढण्हं विमाणावाससबसहस्साणं सत्तरीए सामाणियसाहस्सीणं दसू०२०८ चटण्हं सत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीण इति, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि घडू देवसहस्राणि मध्यमिकायामष्ठौ देवसहस्राणि बाह्यायां दश अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानामर्द्धपञ्चमानि सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि, शेषं सर्व यथा सनत्कुमारस्य ॥ 'कहि णं भंते !! | बंभलोगदेवाणं विमाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते ! बंभलोगदेवा परिवसंति?, गोयमा! सणकुमारमाहिंदाणं कप्पा उप्पि सपक्खं सप-] डिदिसिं बहूई जोषणाई जाव उप्पइत्ता एत्थ णं बंभलोगे नाम कप्पे पन्नत्ते पाईणपडिणायए उदीणदाहिणविच्छिन्ने पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए अनिमाली इंगालरासिवण्णा' इति पूर्वबद्भावनीयं शेषं यथा सनत्कुमारस्य तथा वक्तव्यं, नवरमन्त्र चलारि विमा-| नावासशतसहस्राणि, अवतंसका अपि चखारन्तथैव, तद्यथा-अशोकावतंसकः सप्तपर्णावतंसकः पम्पकावतंसकः चूतावतंसक: मध्ये | मध्ये ॥३९१।। ब्रह्मलोकावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायामपि 'चउण्डं विमाणावाससयसहस्साणं सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ड य सट्ठीणमायर [३२५] ~ 785~ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - -------- मूलं [२०८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -6 -10 प्रत सूत्रांक [२०८] 22-04-04 क्खदेवसाहस्सीण'मिति, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि चत्वारि देवसहस्राणि मध्यमिकायां षट् देवसहस्राणि बाह्यायामष्टी देवसहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकायो पर्षदि देवानामर्द्धनवमानि सागरोपमाणि पश्च पल्योपमानि स्थितिः मध्यमिकायां पनि अर्द्धनवमानि सागरोपमाणि पलारि पल्योपमानि बाहायामर्द्धनवमानि सागरोपमाणि त्रीणि च पल्योपमानि, शेषं यथा सनत्कुमारस्य । 'कहि भंते!| लंतगलोगदेवाण विमाणा पन्नत्ता? कहि गं भंते ! लंतगदेवा परिवसंति !, गो०! भलोयस्स कप्पस्स उप्पि सपक्वं सपडिदिसि बाई | जोयणाई जाव उप्पइत्ता एत्य गं लंतए नामं कप्पे पन्नत्ते पाईणपडिणायते उदीणदाहिणविछिपणे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए अधिमाली' इत्यादि ब्रह्मलोकवत् नवरमत्र पञ्चाशद्विमानावाससहस्राणि वक्तव्यानि, अवतंसकाश्चत्वार ईशानवत् , तद्यथा-अकावतंसकः स्फटिकावतंसकः रजतावतंसक: जातरूपावतंसक: मध्ये लन्तकावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायां 'पण्णासाए विमाणावाससयसहस्साणं । पण्णासाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य पण्णासाणमायरक्खदेवसाहस्सी' तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि द्वे देवसहस्रे मध्यगिकायां चत्वारि बाझायाँ पट्, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां द्वादश सागरोपमाणि सप्त च पल्योपमानि खितिः मध्यमिकायां द्वादश | सागरोपमाणि षट् च पल्योपमानि बाह्यायां द्वादश सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि || कहि णं भंते ! महासुकगदेवाणं विमाणा पण्णता? कहि पं भंते ! महासुकागदेवा परिवसन्ति ?, गोयमा! लंतगकप्पस्स उवरि सपक्खं सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाब उ-1 प्पइत्ता एत्थ णं महामुकनामे कप्पे पन्नत्ते पाईणपडिणायते उदीणदाहिणविच्छिष्णे पडिपुत्रचंदसंठाणसंठिते' इत्यादि सर्वं ब्रह्मलोकवत् , कानबरमत्र चत्वारिंशद् विमानावाससहस्राणि वक्तव्यानि, अवतंसकाश्चत्वारस्तथैव, तद्यथा-अशोकावतंसकः सप्तपर्णावतंसक: चम्पका वतंसक: चूतावतंसकः मध्ये शुक्रावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायो ‘चत्तालीसाए विमाणावाससहस्साणं चचालीसाए सामाणियसाहस्सीणं दीप अनुक्रम X [३२५] ~ 786~ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - -------- मूलं [२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 25% प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम श्रीजीवा चिउण्हं चत्तालीसाणमायरक्खदेवसाहस्सीण'मिति, तथाऽभ्यन्त रिकायां पर्षदि एक देवमहलं मध्यमिकायां दे देवसहसे वाह्यायां प्रतिपनी जीवाभि० चलारि देवसहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि अर्द्धपोडश सागरोपमाणि पञ्च पल्वोपमानि थितिः मध्यमिकायां षोडश साग-3 वैमा मलयगि-16 रोपमाणि चत्वारि पस्योपमानि बाह्यायामर्द्धषोडश सागरोपमाणि चीणि पस्योपमानि शेषं पूर्ववत् ॥ 'कहि णं भंते! सहस्सारदेवाणं | उद्देशान रोयावृत्तिः बिमाणा पण्णता ? कहि गं भंते ! सहस्सारदेवा परिवसंति', गोयमा! महासुकरस कप्पस्स उप्पि सपक्वं सपडिदिसि बहूई जोप- देवलोक॥३९२ ॥ गाई जात्र उपदत्ता एस्थ णं सहस्सारे नामं कप्पे पन्नत्ते पाईणपडीणायए पदीणदाहिणविच्छिन्ने पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए'इ-हापस्थित्यादि ब्रह्मलोकवत् नवरमन्त्र घड विमानावाससहस्राणि वक्तव्यानि, अवतंसका एवम्-अङ्कावतंसक: स्फटिकावतंसकः रजतावतंसक: त्यादि जातरूपावतंसक: मध्ये सहस्रारावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायां 'इण्हं विमाणावाससहरसाणं तीसाए सामाणियसाहस्तीर्ण पउण्हं तीकासाणं आयरक्सदेवसाहस्सीणं' तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्च देवशतानि मध्यमिकाथामेकं देवसहस्रं बाह्यायां हे देवसहने, तथा-13 |ऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवानां सार्द्राष्टादशसागरोपमाणि सप्त च पल्योपमानि मपमिकायां पर्षदि अष्टादश सागरोपमाणि षट् च ।। कपल्योपमानि थाहायाममा॑ष्टादशसागरोपमाणि पञ्च पस्योपमानि शेपं पूर्ववत् ॥ 'कहि णं भंते ! आणयपाणयनामे दुवे कप्पा प-IN जाणता? कहि णं भंते ! आणयपाणयगा देवा परिवसंति ?, गोयमा! सहस्सारकप्पस्स उम्पि सपक्खं सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाव उप्पइसा एत्ध णं आणयपाणयनाम दुवे कप्पा पन्नचा पाईणपडी गायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया अच्चिमाली इंगालरासिप्पमा' इत्यादि सनत्कुमारवत् , नवरं 'तत्य णं आणयपाणयदेवाणं चत्तारि विमाणावाससया भवतीति मक्खाय'मिति बहैतन्यं, अवतंसका: अशोकावतंसक: सप्तपर्णावतंसक: चम्पकावतंसक: चूताववंसफ: मध्ये प्राणतावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायां 'च [३२५] है ॥३९२ ~ 787~ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - ----------- मूलं [२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] 5 दीप अनुक्रम उहं विमाणावाससवाणं वीसाए सामाणियसाहस्सीणं असीए आयरक्खदेवसाहस्सीग' तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि अतृतीयानि देवशतानि मध्यमिकायां पञ्च देवशतानि बाथायामेकं देवसहस्र, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानामबैकोनविंशतिः सागरोपमाणि दिपश्च पल्योपमानि स्थितिः मध्यमिकायागबैंकोनविंशतिः सागरोपमाणि चत्वारि च पल्योपमानि बाह्यायामर्दुकोनविंशतिः सागरो पमाणि त्रीणि च पस्योपनानि शेषं पूर्ववत् ।। 'कहि पं भंते ! आरणअनुयानानं दुवे कप्पा पण्णता ? कहि णं भंते ! आरणअचुजायगा देवा परिवसति, गोयमा! आणयपाणयाणं कप्पाणं उवरि सपक्वं सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाव उप्पइत्ता एत्थ गं आरण अयानाम दुवे कप्पा पन्नत्ता पाईणपडीणायया उदीपदाहिणविच्छिष्णा अशचंदसंठाणसंठिया अधिमाली इंगालरासिवण्णाभा। भइत्यादि पूर्ववन् , नवरमर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितलं प्रत्येकापेक्षया मेरोदक्षिणोत्तर विभागेनावस्थानान्, समुदितौ तु परिपूर्णचन्द्रसंस्थानौ | द्रष्टव्यौ, तथा त्रीणि विमानावासशतानि वक्तव्यानि, अवतंसका इमे-अशोकावतंसकः स्फटिकावतंसक: रजतावतंसकः जातरूपावतंसक: मध्येऽच्युतावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायां 'तिण्हं विमाणावाससयाणं दसहं सामाणिवसाहस्सीणं चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीण तथा चात्र विमानावाससवदणिगाथे-बत्तीस १ ट्ठावीसा २ बारस ३ अट्ठ ४ चउरो सयसहस्सा ५ । पन्ना ६ चत्तालीसा ७ छच सहस्सा सहस्सारे ८ ॥१॥ आणयपाणथकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणशुए त्तिन्नि । सत्त विमापसयाई चउसुवि एएसु कप्पेसु ॥ २॥" सामानिकसङ्कणिगाथा-"चउरासीई असीई बावत्तरि सत्तरी व सट्ठी य । पण्णा चचालीसा तीसा वीसा दस | सहस्सा ॥१॥" तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्चविश देवशतं मध्यमिकायाम तृतीयानि देवशतानि बाधायां पञ्च देवशतानि, तथाऽभ्यन्तरिकायाँ पर्षदि देवानामेकविंशतिः सागरोपमाणि सप्त च पस्योपमानि मध्यमिकायां पर्षदि एकविंशतिः सागरोपमाणि | [३२५] ~788~ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - -------- मूलं [२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम श्रीजीवा-15पद् च पल्योपमानि बाह्यायामेकविंशतिः सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि, शेषं पूर्ववत् ।। 'कहि भंते ! हेडिमगेवेजगाणं देवाणं | ३ प्रतिपत्ती जीवाभि विमाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! हेडिमगेवेजगा देवा परिवसंति, गोयमा! आरणअधुयाणं कप्पाणं उबरिं सपक्खं सपडिदिसि 4 वैमा० मलयगि- |बहूई जोवणाई जाव उड़े दूरं उप्पइत्ता पत्थ गं हेडिमगेवेजगाणं देवाणं तओ हेट्रिमगेवेजविमाणा पण्णत्ता पाईणपडीणायया उदीणदा- उद्देशः१ रीयावृत्तिः हिणविच्छिण्णा पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिता अचिमाली भासरासिवण्णाभा असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं असं- देवलोक खेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेण सव्वत्थरयणामया अच्छा जाव पष्ठिरूबा, तत्व णं हेहिमगेवेजगाणं देवाणं एकारसुत्रे दापत्स्थि॥३९॥ गेबिजविमाणावाससए पन्नते, ते णं विमाणा अच्छा जाय पडिरूवा, तत्थ णं हेट्रिमगेवेजगा देवा परिवसंति' पाठसिद्ध, 'सव्वे || त्यादि समड़िया' इत्यादि सर्वे-निरवशेषाः समा ऋद्धियेषां ते समर्द्धिकाः, एवं सो समद्युतिकाः सर्वे समयलाः सर्वे समयशसः सवें स-11 सू० २०८ समानुभागा: सर्वे समसौख्याः, अनिन्द्रा-न विद्यते इन्द्रः-अधिपतिर्येषां ते अनिन्द्राः, अषा-न विद्यते प्रेपा-प्रेष्यलं येषां ते अ-18 प्रेपाः, न विद्यते पुरोहित:-शान्तिकर्मकारी येषामशान्तेरभावात्ते अपुरोहिताः, किंरूपाः पुनस्ते ? इत्याह-अहमिन्द्रा नाम ते देवगणाः | प्रज्ञप्ता: हे अमण! हे आयुष्मन् ! ॥ एवं मध्यमवेयकसूत्रमुपरितनौवेयकसूत्रमपि भावनीय, नवरमियं विमानसमास अहणि:-12 "एकामुत्तर हिटिमेसु १११ सत्तुत्तरं च मज्झिमए १०७ । सयमेगं उबरिमए १०० पंचेव अणुत्तरविमाणा ५॥ १॥" 'कहि [४ VIभंते ! अणुत्तरोववाइवाणं देवाणं विमाणा पन्नत्ता? कहिणं भंते ! अणुत्तरोक्वाइया देवा परिवसंति', गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए । पुढवीए बहुसमरमणिजामो भूमिभागाओ उई चंदिमसूरगहगणनक्खत्ततारारूवाणं बहूणि जोयणाई बहूणि जोयणसयाणि जाब पहूईओ | 31॥३९३॥ दाजोयणकोडाकोडीओ उई दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाणसणकुमारमाहिंदबंभलोगलंतगसुक्कसहस्साराणयपाणयआरणअनुयकप्पे तिन्नि | [३२५] ~789~ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-१], - -------- मूलं [२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: + Re - + प्रत सूत्रांक [२०८] G य अट्ठारसुत्तरे गेवेजगविमाणावाससए वीइबइत्ता तेण परं दूरं गया नीरया निम्मला वितिमिरा विसुद्धा पंचदिसि पंच अणुचरा महइ महालया विमाणा पन्नत्ता, तंजहा-विजये वैजयंते जयंते अपराजिते सबट्ठसिद्धे' इदं पाठसिद्धं, नबरं तिनि अटारसुत्तरें' इति इत्रीणि अष्टादशोत्तराणि विमानावासशतानि, तत्रैकादशोत्तरं शतमधस्तनौवेयकप्रस्तटेषु सप्तोत्तरं शतं मध्यमवेयकेषु परिपूर्ण शत-18 मुपरितनप्रैवेयकप्रस्तटेषु, सर्वसङ्ख्यया भवन्ति त्रीणि अष्टादशोत्तराणि, 'नीरजांसि' आगन्तुकरजोविरहात् 'निर्मलानि' खाभाविक-| मलाभावात् 'वितिमिराणि' रत्नप्रभावितानप्रभावेन सर्वासु विक्षु विदिक्षु चापहततमस्काण्डत्वान् 'विशुद्धानि' कचिदपि कलङ्कलेशस्थाप्यसम्भवात् , 'पंचदिसि' इति पञ्च पूर्वदक्षिणापरोत्तरमध्यमरूपा दिश: समाहताः पञ्चदिक् तस्मिन , तत्र पूर्वस्यां दिशि विजयं दक्षिणस्यां वैजयन्तं पश्चिमायां जयन्तं उत्तरत्यामपराजितं मध्ये सर्वार्थसिद्धम् , ते णं विमाणा' इत्यादि पूर्ववत् यावत् 'अहमिदा नागं ते देवगणा पन्नत्ता समणाउसो!' ।। इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां चतुर्थप्रतिपत्ती वैमानिकाधिकारे प्रथमो वैमानिकोद्देशकः समाप्तः ।। सम्प्रति द्वितीयो वक्तव्यस्तत्रेदं सूत्रम् सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी किंपइट्ठिया पण्णता?, गोयमा! घणोदहिपइडिया । सर्णकुमारमार्हिदेसु कप्पेसु विमाणपुढवी किंपइट्ठिया पण्णत्ता?, गोयमा! घणवायपइडिया पण्णत्ता । बंभलोए ण भंते! कप्पे विमाणपुढवीणं पुच्छा, घणवायपइडिया पण्णता । लंतए णं भंते! पुच्छा, गोयमा! तदुभयपइट्ठिया । महासुक्कसहस्सारेसुवि तदुभयपइडिया । आणय जाव दीप अनुक्रम [३२५] ACCO तृतीय-प्रतिपत्तौ वैमानिक-उद्देशक: (१) परिसमाप्त: अथ वैमानिक-उद्देशकः (२) आरब्ध: ~790~ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-२], - -------- मूलं [२०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - INI वैमा० प्रत सूत्रांक [२०९] दीप अनुक्रम [३२६] श्रीजीवाअधुएसु णभंते! कप्पेसु पुच्छा, ओवासंतरपइट्ठिया । गेविजविमाणपुढवीणं पुच्छा, गोयमा! 18तिपत्ती जीवाभि ____ओवासंतरपइडिया । अणुत्तरोवाइयपुच्छा ओवासंतरपइडिया ॥ (सू० २०९) मलयगि 'सोहम्मीसाणेसु णं भंते' इत्यादिसौधर्मशानयोः, सूत्रे द्विवचनेऽपि बहुवचनं प्राकृतलात , उक्तच-बहुपयणेण दुषया उद्देशा१ रीयावृत्तिः छट्टिविभत्तीऍ भन्नइ चउत्थी । जह हत्था तह पाया नमोऽत्थु देवाहिदेवाणं ॥ १॥"[बहुवचनेन द्विवचनं षष्ठीविभक्त्या भण्वते च-18 ॥३९४॥ तुर्थी । यथा हस्तौ तथा पादौ नमोऽस्तु देवाधिदेवेभ्यः ॥ १ ॥] भदन्त ! कल्पयोर्विमानपृथिवी "किंप्रतिष्ठिता' कस्मिन् प्रतिष्ठिता है। धार HI-किमाया किमाधारेत्यर्थः प्रज्ञप्ता ?, भगवानाइ-गौतम! धनोदधिप्रतिष्ठिता प्रज्ञप्ता, एवं सनत्कुमारमाहेन्द्रेपु धनपातप्रतिष्ठिता,21 सू०२०९ ब्रह्मालोकेऽपि धनवातप्रतिष्ठिता, लान्तके 'तदुभयप्रतिष्ठिता' घनोदधिधनवानप्रतिष्ठिता, महाशुक्रसहस्रारयोरपि तदुभयप्रतिष्ठिता, | विमानपुआनतप्राणतारणाच्युतेष्लवकाशान्तरप्रतिष्ठिता-आकाशप्रतिष्ठिता, एवं प्रैत्रेयकविमानपृथिवी अनुत्तरविमानपृथिवी च, उक्तञ्च- थ्वीबाहल्यं "धणोदहिपइहाणा सुरभवणा दोसु होति कप्पेसु । तिसु वायपइट्टाणा तदुभयपइडिया तीसु ॥ १॥ तेण परं उवरिमगा आगास-121 सू० २१० तरपइट्ठिया सब्वे । एस पइट्ठाणविही उड़े लोए विमाणाणं ॥२॥" अधुना पृथिवीथाहल्यप्रतिपादनार्थमाह सोहम्मीसाणकप्पेसु विमाणपुढवी केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ता?, गोयमा! सत्तावीसं जोयणसयाई याहल्लेणं पण्णत्ता, एवं पुच्छा, सणकुमारमाहिंदेसु छब्बीसं जोयणसयाई । बंभलंतए पंचवीसं । महासुकसहस्सारसु चउचीसं । आणयपाणयारणाचुएसु तेवीसं सयाई। गेविजयि || ३९४॥ माणपुढची बावीसं । अणुत्तरविमाणपुढवी एकवीसंजोयणसयाई बाहल्लेणं ॥ (सू०२१०) N अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: १ इति मुद्रितं ~ 791~ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --- ----------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------- ---------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] RECA-56- R दीप सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा केवइयं उहूं उच्चत्तेणं ?, गोयमा! पंच जोयणसयाई उहुं उयत्सेणं । सणंकुमारमाहिंदेसु छजोयणसयाई, बंभलंतएसु सत्त, महामुक्कसहस्सारेसु अट्ट, आणयपाणएसु ४ नव गेवेजविमाणाणं भंते! केवइयं उहुं उ०, दस जोयणसयाई, अणुत्तरविमाणाणं एकारस जोयणसपाई उहूं उच्चत्तेणं ।। (सू०२११) सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेस विमाणा किंसंठिया पण्णता?, गोयमा! दुविहा पणत्ता, तंजहा-आवलियापविट्ठा वाहिरा य, तत्थ णं जे ते आवलियापविट्ठा ते तिविहा पपणत्ता, तंजहा-वटा तंसा चउरंसा, तस्थ णं जे ते आवलियबाहिरा ते णं णाणासंठिया पण्णत्ता, एवं जाय गेविजबिमाणा, अणुत्तरोववाइयविमाणा दुविहा पण्णता, तंजहा-वहे य तंसा य॥ (सू०२१२) सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केवतियं आयामविक्खंभेणं केवतियं परिक्खे वेणं पण्णता?, गोयमा! दुविहा पण्णता, तंजहा-संखेजवित्थडा य असंखेजबित्थडा य, जहा णरगा तहा जाव अणुत्तरोववातिया संखेजविस्थडा य असंखेजविस्थडा य, तत्थ णं जे से संखेजविस्थडे से जंबुद्दीवप्पमाणे असंखेजविस्थडा असंखेजाई जोयणसयाई जाव परिक्खेवेणं पणत्ता ।। सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! विमाणा कतिवण्णा पन्नत्ता?, गोयमा! पंचवपणा पण्णत्सा, संजहा-किण्हा नीला लोहिया हालिद्दा सुकिल्ला, सर्णकुमारमाहिंदेसु चउवण्णा नीला जाव सुकिल्ला, बंभलोगलंतएसुवि तिवण्णा CACKGRECASCORECASC अनुक्रम [३२७-३३२] E CR ~792~ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ३ प्रतिपत्ती प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] श्रीजीवाजीवाभि० • मलयगिरीयावृत्तिः वैमा० ॥३९५॥ लोहिया जाव सुफिल्ला, महासुक्कसहस्सारसु दुवपणा-हालिद्दा य सुकिल्ला य, आणयपाणतारणधुपसु सुकिल्ला, गेविजविमाणा सुकिल्ला, अणुत्तरोववातियविमाणा परमसुकिल्ला वण्णेणं पण्णत्ता ॥ सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा केरिसया पभाए पण्णत्ता?, गोयमा! णिबालोआ णिचुज्जोया सयं पभाए पण्णत्ता जाव अणुत्तरोववातियविमाणा णिचालोआ णिचुजोता सयं पभाए पण्णत्ता॥ सोधम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा केरिसया गंधेणं पण्णत्ता?, गोयमा! से जहा नामए-कोट्ठपुडाण वा जाव गंधेणं पण्णत्ता, एवं जाव एत्तो इट्टयरागा चेव जाव अणुत्तरविमाणा ॥ सोहम्मीसाणेसु विमाणा केरिसया फासेणं पण्णता?, से जहा णामए-आइणेति वा रूतेति वा सब्बो फासो भाणियव्यो जाव अणुसरोववातियविमाणा ॥ सोहम्मीसाणेसु णं भंते! (कप्पेसु) विमाणा केमहालिया पण्णत्ता?, गोयमा! अयपणं जंबुदीवे २ सव्वदीवसमुदाणं सो चेव गमो जाव छम्मासे वीइवएजा जाव अत्धेगतिया चिमाणावासा नो वीइवएजा जाव अणुसरोववातियविमाणा अत्थेगतियं विमाणं बीतिवएजा अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा ।। सोहम्मीसाणेसुणभंते! विमाणा किंमया पण्णता?, गोयमा! सब्वरयणामया पपणत्ता, तत्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमति विउक्कमति चयंति उवचयंति, सासया णं ते विमाणा दग्वट्ठयाए जाच फासपजवेहिं असासता जाव अणुसरोववातिया वि | उद्देशः१ उच्चत्वसंस्थाने सू०२११ २१२ आयामादि सू०२१३ दीप अनुक्रम [३२७-३३२] ॥ ३९५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: १ इति मुद्रितं ~ 793~ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --- ----------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------- ----------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] माणा ॥ सोहम्मीसाणेसु णं देवा कओहिंतो उधवनंति ?, उबवातो नेयब्यो जहा बकतीए तिरियमणुएम पंचदिएम संमुच्छिमवजिएसु, उववाओ वकंतीगमेणं जाव अणुत्तरो०॥ सोहम्मीसाणेसु देवा एगसमएणं केवतिया उववजंति?, गोयमा! जहन्नेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उकोसेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा उववजंति, एवं जाव सहस्सारे, आणतादी गेवेजा अणुत्तरा य एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेजा वा उववजंति ।। सोहम्मीसाणेसु णं भंते! देवा समए २ अवहीरमाणा २ केवतिएणं कालेणं अवहिया सिया?, गोयमा! तेणं असंखेजा समए २ अवहीरमाणा २ असंखेजाहिं उस्सप्पिणीहिं अवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिया जाय सहस्सारो, आणतादिगेसु चउसुवि, गेवेजेसु अणुत्तरेसु प समए समए जाव केवतिकालेणं अवहिया सिया?, गोयमा! ते णं असंखेज़ा समए २ अबहीरमाणा पलिओवमस्स असंखेजतिभागमेतेणं अवहीरति, नो चेव णं अवहिया सिया ॥ सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवाणं केमहालपा सरीरोगाहणा पण्णत्ता?, गोयमा! दुविहा सरीरा पण्णत्ता, तंजहा-भवधारणिजा य उत्तरवेउब्बिया य, तत्थ ण जे से भवधारणिज्जे से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागो उकोसेणं सत्त रयणीओ, तत्थ णं जे से उत्तरवेउब्धिए से जहण्णेणं अंगुलस संखेजतिभागो कोसेणं जोयणसतसहस्सं, एवं एकेका ओसारेत्ताणं जाव अणुत्तराणं एका रपणी, दीप अनुक्रम [३२७-३३२] 3456AXERCAPACE 50-5 ~794~ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ----------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीजीवा प्रत सूत्रांक [२१० जीवामि० मलयगिरीयावृत्तिः -२१५] ३ प्रतिपत्ती वैमा० उद्देशः१ संहननसंस्थाने सू०२१४ देववर्णादि | सू०२१५ ॥३९६॥ गेविजणुत्तराणं एगे भवधारणिजे सरीरे उत्तरवेउब्विया नत्थि ॥ (सू०२१३) सोहम्मीसाणेसु णं देवाणं सरीरगा किसंघपणी पण्णत्ता, गोयमा! छण्हं संघयणाणं असंघयणी पपणत्ता?, नेवढि नेव छिरा नवि पहारूणेव संघयणमस्थि, जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव ते तेसिं संघातत्ताए परिणमंति जाव अगुत्तरोववातिया ॥ सोहम्मीसाणेसु देवाणं सरीरगा किंसंठिता पण्णता?, गोयमा। दुविहा सरीरा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्विया य, तस्थ णं जे ते भवधारणिजा ते समचरंससंठाणसंठिता पण्णत्ता, तस्थ णं जे ते उत्तरयेउविधा ते णाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता जाव अघुओ, अवेउब्विया गेविजणुत्तरा, भवधारणिजा समचउरंससंठाणसंठिता उत्तरवेउब्बिया णस्थि ॥ (सू०२१४) सोहम्मीसाणेसु देवा केरिसया वण्णेणं पन्नसा?. गोयमा! कणगत्तपरत्ताभा वपणेणं पण्णत्ता । सर्णकुमारमाहिदेसु र्ण पउमपम्हगोरा वण्णेणं पण्णत्ता | बंभलोगे णं भंते! गोयमा! अल्लमधुगवण्णाभा वण्णणं पण्णत्ता, एवं जाव गेवेज्जा, अणुत्तरोववातिया परमसुकिल्ला वपणेणं पन्नत्ता । सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवाणं सरीरगा केरिसया गंधणं पण्णत्ता?, गोयमा! से जहा णामए-कोहपुडाण वा तदेव सवं जाव मणामतरता चेव गंधेणं पण्णत्ता जाव अणुत्तरोववाइया । सोहम्मीसाणेसु देवाणं सरीरगा केरिसया फासेणं पण्णता?, गोयमा! थिरमउयणिद्धसुकुमालच्छविफासेणं पण्णत्ता, एवं जाव अ दीप अनुक्रम [३२७-३३२] ॥३९६॥ Elice अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: १ इति मुद्रितं ~ 795~ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ---- -------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] दीप गुत्तरोववातिया । सोहम्मीसाणदेवाणं केरिसगा पुग्गला उस्सासत्ताए परिणमंति?, गोयमा ! जे पोग्गला इट्टा कंता जाव ते तेसिं उस्सासत्ताए परिणमंति जाव अणुत्तरोववातिया, एवं आहारत्ताएघि जाव अणुत्तरोववातिया ॥ सोहम्मीसाणदेवाणं कति लेस्साओ पण्णत्ताओ?, गोयमा। एगा तेउलेस्सा पण्णत्ता । सर्णकुमारमाहिदेसु एगा पम्हलेस्सा, एवं संभलोगेवि पम्हा, सेसेसु एका सुक्कलेस्सा, अणुत्तरोववातियाणं एका परमसुकलेस्सा । सोहम्मीसाणदेवा किं सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी?, तिपिणवि, जाव अंतिमगेवेजा देवा सम्मदिहीवि मिच्छाविट्ठीवि सम्मामिच्छादिट्ठीवि, अणुत्तरोववातिया सम्मदिट्ठी णो मिच्छादिट्ठी णो सममामिच्छादिट्ठी । सोहम्मीसाणा किं णाणी अण्णाणी?, गोयमा! दोषि, तिणि णाणा तिषिण अपणाणा णियमा जाव गेवेजा, अणुत्तरोववातिया नाणी नो अण्णाणी तिपिण णाणा णियमा। तिविधे जोगे दुविहे उवयोगे सव्वेसिं जाव अणुत्तरा ॥ (सू०२१५) 'सोहम्मीसाणेसु णमित्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानपृथ्वी 'कियत्' किंप्रमाणा बाहल्येन प्रज्ञप्ता, गौतम! सप्तविंशतियोजनशतानि बाल्येन प्रज्ञप्ता, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः पविशतियोजनशतानि बक्तव्यानि, ब्रह्मलोकलान्तकयोः पञ्चविंशतिः, महाशुक्रसहस्रारयोश्चतुर्विंशतिः, आनतप्राणतारणाच्युतकल्पेषु त्रयोविंशतिः, प्रैवेयकेषु द्वाविंशतिः, अनुत्तरविमानेवैकविंशतियोंजनशतानि ॥ सम्प्रति विमानानामुस्वपरिमाणं प्रतिपिपादयिषुराह-'सोहम्मीसाणेसु अनुक्रम [३२७-३३२] 3633 जी०६७ ~ 796~ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] प्रतिपचौ वैमा० उदेशः१ | संहनन संस्थाने बीजीवा- भते' इत्यादि, इह विमानं महानगरकल्प तस्य चोपरि वनखण्डप्राकाराः प्रासादादयः, तत्र पूर्वेण सूत्रकदम्बकेन विमानपूथिवीबाह- जीवानि. ल्यमुक्त, अनेन प्रासादापेक्षया उच्चत्वमुच्यत इति गर्भः, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कियद् अर्वमुच्चैस्लेन प्रजातानि?, मलयगि भगवानाह-गौतम! पञ्च योजनशतानि ऊर्द्धमुच्चैस्खेन प्राप्तानि, मूलपासादादीनां तत्र पचयोजनशतोच्छ्यप्रमाणवात् , एवं शेष- रीयावृत्तिःसत्रायविभाजन सूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः पड़ योजनशतानि वक्तव्यानि, ब्रह्मलोकलान्तकयोः सप्त योजनशतानि, महा॥१९॥ शुक्रसहस्त्रारयोरष्टौ योजनशतानि, आनतप्राणतारणाच्युतेषु कल्पेषु नव योजनशतानि, प्रैवेयकेषु दश योजनशतानि, अनुत्तरेष्वेकादश योजनशतानि, सर्वत्रापि विमानानि बाहल्योचलमीलनेन द्वात्रिंशद्योजनशतानि, उपर्युपरि बाह्यमु(ल्यहानिवदु)चे स्त्वस्य वृद्धिभावात् , उक्तश्च- सत्तावीससवाई आदिमकप्पेसु पुढविवाहल्लं । एककहाणि सेसे दुदुगे य दुगे चउक्क य ॥१॥ पंचसउच्चत्तेणं आदिमकप्पेसु | होति य विमाणा। एकेकवुद्धि सेसे दु तुगे व दुगे चउके य ॥२॥ गेवेजगुत्तरेसु पसेव कमो त हाणिबुडीए । एककमि विमाणा दोनिवि | मिलिया उ बत्तीसं ॥३॥" [सप्तविंशतिः शतानि आयकल्पयोः पृथ्वीवाहल्यं । एकैकहानिः शेषेषु द्वयोयोईयोश्चतुष्के च ॥१॥ ऊर्वोच्चलेन पञ्च शतानि आवकल्पयोर्भवन्ति विमानानि । एकैकवृद्धिः शेषेषु योयोश्च द्विके चतुष्के च ॥२॥ अवेयकानुत्तरयोरेष एव क्रमो हानिवृद्धयोः । एकैकस्मिन् विमानानि द्वाबपि मीलयित्वा द्वात्रिंशच्छतानि ॥ ३॥] सम्प्रति संस्थाननिरूपणार्थमाह-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते !' इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोविमानानि किंसंस्थितानि प्रज्ञप्तानि !, भगवानाह| गौतम! द्विविधानि प्राप्तानि, तद्यथा-आवलिकाप्रविष्टानि आवलिकाबाह्यानि च, तत्रावलिकाप्रविष्टानि नाम यानि पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु श्रेण्या व्यवस्थितानि, यानि पुनरावलिकाप्रविष्टानां प्राङ्गणप्रदेशे कुसुमप्रकर इव यतस्ततो विप्रकीर्णानि तान्यावठिकाबाह्यानि, ॐॐ दीप त अनुक्रम [३२७-३३२] ॥३९७॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: १ इति मुद्रितं ~ 797~ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ----------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------- ---------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] तानि पुष्पावकीर्णानीत्युच्यन्ते, पुष्पाणीव इतस्ततोऽवकीर्णानि-विप्रकीर्णानि पुष्पावकीर्णानि इति व्युत्पत्तिः, तानि च मध्यवर्तिनो। | बिमानेन्द्रस्य दक्षिणतोऽपरत उत्तरतश्च विद्यन्ते न तु पूर्वस्यां दिशि, उक्तञ्च-"पुष्पावकिण्णगा पुण दाहिणतो पच्छिमेण उत्तरतो।। पुब्वेण विमाणेदस्स नत्थि पुप्फाबकिण्णा उ ॥१॥" 'तस्थ णमित्यादि, तत्रावलिकाप्रविष्टाऽऽवलिकाबाह्येषु मध्ये यानि तानि आबलिकाप्रविष्टानि तानि त्रिविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वृत्तानि व्यस्राणि चतुरस्राणि, इहावलिकाप्रविष्टानि प्रतिप्रस्तट विमानेन्द्रकस्व पूर्वदक्षिणापरोत्तररूपासु चतसृषु दिक्षु श्रेण्या व्यवस्थितानि, विमानेन्द्रकश्च सबोंऽपि वृत्तः, ततः पार्थवृत्तीनि चतसृष्वपि दिक्षु ज्यमाणि, तेषां पृष्ठतश्चतसृष्वपि विक्षु चतुरस्राणि, तेषां पुष्टतो वृत्तानि, ततोऽपि भूयोऽपि व्यस्राणि ततोऽपि चतुरस्राणीत्येवमावलिकापर्यन्तः, तत्र विविधान्येवावलिकाप्रविष्टानि ॥ 'तत्थ ण मित्यादि, तत्र यानि आवलिकाबाहानि तानि नानासंस्थानसंस्थितानि प्रज्ञप्तानि, तथाहि-कानिचिन्नन्द्यावर्ताकाराणि कानिचित्स्वस्तिकाकाराणि कानिचित् खड्गाकाराणीत्यादि, उक्तच-आबलियासु विमाणा बट्टा तसा तहेब चउरंसा । पुप्फावकिण्णगा पुण अणेगविहरूवसंठाणा ॥१॥" एवं तावद्वाच्यं यावद् पैवेयकविमानानि, तान्येव यावदावलिकाप्रविष्टानामावलिकाबाद्यानां च भावात् , परत आवलिकाप्रविष्टान्येव, तथा चाह-'अणुत्तरविमाणा णं भंते! विमाणा किंसंठिया पन्नता?' इत्यादि प्रभसूत्र, भगवानाह-गौतम ! द्विविधानि प्रजातानि, नद्यथा-'बट्टे य तंसा य, मध्यवर्सिसर्वार्थसिनावाख्यं विमानं दृत्तं, शेषाणि विजयादीनि चत्वार्यपि त्र्यम्राणि, उक्तचाएग व तंसा चउरो य अणुत्तरविमाणा।" । अधुनाऽऽयामवि४ कम्भादिपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसाणेसुणं भंते !' इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कियद् आवामविराकम्भेन कियत्परिक्षेपेण प्रजातानि?, भगवानाह-गौतम ! द्विविधानि विमानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सद्ध्येयविस्तृतान्यसङ्क्वेयविस्तृतानि च, दीप अनुक्रम [३२७-३३२] 620-% ~ 798~ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२१० -२१५] दीप अनुक्रम [३२७ -३३२] "जीवाजीवाभिगम" प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित - उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) उद्देशक: [ ( वैमानिक)-२], मूलं [२१०-२१५] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः मलयगि रीयावृत्तिः श्रीजीवा- * तत्र यानि तानि सङ्ख्यविस्तृतानि यानि योजन सहस्राण्यायामविष्कम्भेन असोयानि योजन सहस्राणि परिक्षेपेण, तत्र यानि ताजीवाभि० न्यसय विस्तृतानि असङ्ख्यानि योजन सहस्राण्यायामविष्कम्भेन असलेयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण, एवं तावद्वाच्यं यावद् मैवेयकविमानानि तानि यावत् सोय विस्तृतानामसङ्ख्यविस्तृतानां च बाहल्येन भावात् न तु परतः, तथा चाह-- 'अणुत्तर विमाणे णं भंते! केवइयं आयामविक्खंभेण मित्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तयथा-सोयविस्तृतानि असते यविस्तृतानि च, ॐ सर्वार्थसिद्धं सविस्तृतं शेषाण्यसङ्ख्यविस्तृतानीति भावः, तत्र यत्तत्सत्यविस्तृतं तद् एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन त्रीणि ॥ ३९८ ॥ * योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके योजनानां क्रोशत्रिकमष्टाविंशं धनुः शतं त्रयोदशाङ्गुलानि एकमर्द्धाङ्गुलमिति परिक्षेपेण, तत्र यानि तान्यसङ्ख्येयविस्तृतानि तान्यसङ्ख्येयानि योजनसहस्राण्यायामविष्कंभेन असंख्येयानि योजन सहस्राणि 3) परिक्षेपेण प्रज्ञप्तानि ॥ सम्प्रति वर्णप्रतिपादनार्थमाह - 'सोहम्मीसाणेसु णं भंते!' इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कतिवर्णानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह - गौतम ! पञ्चवर्णानि तद्यथा कृष्णानि नीलानि लोहितानि हारिद्राणि शुद्धानि एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं सनत्कुमार माहेन्द्रयोश्चतुर्वर्णानि कृष्णवर्णाभावात् ब्रह्मलोकान्तकयोखिवर्णानि कृष्णनीलवर्णाभा - बातू, महाशुक्रसहस्रारयोर्द्विवर्णानि कृष्णनीलहारिद्रवर्णाभावात्, आनतप्राणतारणाच्युतकल्पेषु एकवर्णानि, शुक्रवर्णस्यैकस्य भावात्, मैवेयकविमानानि अनुत्तर विमानानि च परमशुकानि उक्तञ्च “सोहम्मि पंचचण्णा एकाहीणा उ जा सहस्सारे । दो दो तुला कप्पा तेण परं पुंडरीयाई || १ ||" सम्प्रति प्रभाप्रतिपादनार्थमाह- 'सोहम्मीसाणेसु णमित्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! करूपयोविमानानि कीदृशानि प्रभया प्रज्ञप्तानि ?, कीदृशी तेषां प्रभा प्रज्ञतेति भावः भगवानाह - गौतम! प्रभया प्रज्ञप्तानि 'नित्यालोकानि' For P&Palise City ३ प्रतिपचौ वैमा० ~799~ उद्देशः १ संहनन संस्थाने सू० २१४ देववर्णादि सू० २१५ ॥ ३९८ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देशः २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देशः १ इति मुद्रितं Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [3], ----------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] नित्यमालोको-दर्शन एश्यमानता येषां तानि नित्यालोकानि न तु जातुचिदपि तमसाऽऽश्रीयन्त इति भावः, कर्थ नियालोकानि| इति हेतुद्वारेण विशेषणमाइ-नित्योद्योतानि, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति हेतोः प्रथमा, ततोऽयमर्थ:यस्मानित्य-सतत्तमप्रतिघमुद्द्योतो-दीप्यमानता येषां तानि(तथा)ततो नित्यालोकानि, सततमुद्योतमानता च परसापेक्षाऽपि संभाव्येत | यथा मेरोः स्फटिककाण्डस्य सूर्यरश्मिसम्पर्कतः, तत आह-स्वयंप्रभाणि स्वयं सूर्यादिप्रभावत् देदीप्यमानता येषां तानि तथा, एवं निरन्तरं | तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि ।। सम्प्रति गन्धप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते!' इत्यादि, सौधर्मशानयोभदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कीदृशानि गन्धेन प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! 'से जहानामए कोहपुडाण वा चंपकपुडाण वा दमणगपुडाण वा कुंकुमपुडाण वा चंदणपुडाण वा उसीरपुडाण वा मरुयापुडाण वा जाईपुडाण वा जूहियापुडाण वा मल्लियापुडाण वा हाणमणिया-12 ॐापुडाण वा केयापुडाण वा पाटलिपुडाण वा नोमालियापुडाण वा बासपुडाण वा कप्पूरपुडाण वा अणुवायंसि उभिजमाणाण ना कुट्टिजमाणाण वा रुविजमाणाण वा उकीरिजमाणाण वा बिक्खरिजमाणाण वा परिभुजमाणाण वा परिभाइजमाणाण वा भंडाओ | वा भंड साहरिजमाणाण वा मोराला मणुण्णा मगहरा घाणमणनिम्बुइकरा सव्वतो समंता गंधा अभिनिस्सरंति, भवे एयारूवे | 8|सिया, नो इणद्वे समझे, ते णं विमाणा एत्तो इटुतरा चेव कंततरा चेव मणुनतरा चेव मणामतरा चेव गंधेणं पण्णत्ता' अस्य | ट्रव्याख्या पूर्ववत्, एवं निरन्तरं तावद्द्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि ।। सम्प्रति स्पर्शप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसाणेस ण'मित्यादि। सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कीदृशानि स्पर्शन प्रज्ञप्तानि?, भगवानाह-गौतम! से जहानामए अपणेइ वा रूतेइ वा। पूरेद वा नपणीपद वा हंसगम्भतूलीइ वा सिरीसकुसुमनिचए वा पवालकुसुमपत्तरासीइ वा, भवे एयारूवे?, गो इणढे समढे, से गं]X दीप अनुक्रम [३२७-३३२] 25A4%%** Janticorn ~800~ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] दीप श्रीजीवा- विमाणा इतो इहतरा चेव कंततरा चेव मणुनतरा चेव मणायतरा चेव फासेणं पण्णत्ता' इति पूर्ववत्, एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं 8/३ प्रतिपत्ती जीवामियावदनुत्तरविमानानि ॥ सम्प्रति महत्त्वप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु' इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त वैमा० मलयगि- कल्पयोर्षिमानानि 'किंमहान्ति' किंप्रमाणमहत्त्वानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! 'अयणं जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि जम्बू- उद्देशः१ रोयावृत्तिः द्वीपवाक्यं परिपूर्णभेवं द्रष्टव्यं 'सव्वहीबसमुदाणं सबभंतराए सव्वखुड़ाए वढे तेलापूपसंठाणसंठिते वट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए 31 संहनन दिवट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एक जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि व जोयणसयसहस्सा सोलस सहस्सा दो य सया स-16 संस्थाने ॥३९९॥ चावीसा तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्न' इदं च पूर्ववद् भावनीयं सू०२१४ देको नाम महर्बिको यावन्महाभागः यावत्करणात् महाद्युतिक इत्यादिपरिग्रहः, 'जाव इणामेव' 'इणानेवेति यावदिदानीमेव, अ- देववर्णादि दिनेन चप्पुटिकानयानुकरणपुरस्सरमत्यन्तं काळस्तोकत्वं इतिकृत्वा केवलकल्प-परिपूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपं त्रिभिरप्सरोनिपाते:-तिसृभि-6 श्वप्पुटिकाभिरित्यर्थः त्रिसप्तकल:-एकविंशतिवारान् 'अनुपरिवर्त्य' प्रादक्षिण्येन परिभ्रम्य 'हवं' शीघ्रमागच्छेत् ‘से णं देखें इत्यादि, स देवस्तया सकलदेवजनप्रसिद्धया पूर्वदृष्टान्तभावितया 'उत्कृष्टया' अतिशायिन्या 'तुरियाए चलाए चंडाए सिग्याए उजुयाए जवणाए छेयाए' अमीषां पदानां व्याख्यानं पूर्ववत् , "दिव्यया' देवगल्या व्यतिव्रजन् यावदेकाह वा पहं वा उत्कर्षत: प-16 एमासान् व्यतिव्रजन् तत्रास्त्येक विमानं यद् व्यतित्रजेत् अस्त्येककं विमाचं यन्न व्यतिप्रजेस् , 'एवमहालिया ण' एतावंति महान्ति गौतम! विमानानि प्राप्तानि, एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि ॥ 'सोहम्मीसाणेसु णमित्यादि, सौधर्मेशानयोर्म-18॥२९९ ॥ दन्त ! कल्पयोर्विमानाचि किंबनानि प्रज्ञानानि !, भगवानाहगौतम! सामना रखमयानि अच्छानि यावत्मतिरूपाणि । 'तत्य ण-1 अनुक्रम [३२७-३३२] ACCORNXXC अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: १ इति मुद्रितं ~801~ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [3], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] दीप मित्यादि, तत्र-तेषु विमानेषु वहबो जीवा:-पृथ्वीकायरूपा: पुद्गलाच 'अपकामन्ति' गच्छन्ति 'व्युत्कामन्ति' उत्पयन्ते, तथा 'चीयम्ते' पयमुपगच्छन्ति 'अपचीयन्ते' उपचयमुपगच्छन्ति, एतत् पुद्रलापेक्षं विशेषणं, पुद्गलानामेव चयोपचयधर्मकत्वात् , शाश्व-121 तानि भदम्त! विमानानि द्रव्यार्थनया प्राप्तानि?, वर्णपर्यायै रसपायैर्गन्धपर्यायैः स्पर्शपर्यायैरशाश्वतानि प्राप्तानि, एवं निरन्तरं ताबद्वक्तव्यं याचदनुत्तरविमानानि ॥ 'सोहम्मीसाणेसु णं भंते! इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त! कल्पयोर्देवाः कुतो योनेरुद्धृत्योप| धन्ते ? किं नैरयिकेभ्यः ? इत्यादि यथा 'व्युत्क्रान्ती' व्युत्क्रान्त्याख्थे षष्ठे पदे प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः, इह तु अन्यगौरवमयाम लिख्यते भूयात् हि स ग्रन्थः । सम्प्रति कियन्त एकस्मिन् समये उत्पद्यन्ते । इति निरूपणार्थमाइ-'सो-1k हम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवा एकस्मिन् समये, सूत्रे तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतखात् , कियन्त उत्पद्यन्ते , भगवानाह - |-गौतम! जघन्येन एको द्वौ वा त्रयो वा, पत्कर्षत: सोया वाऽसोया वा तिरश्चामपि गर्भजपञ्चेन्द्रियाणां तत्रोत्पादात्, एवं| नावद्वक्तव्यं यावत्सहस्रारकल्पः, 'आणयदेवा णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनैको द्वौ त्रयो वा उत्कर्षत: मायेयाः, मनुष्याणामेव तत्रोत्पादान , तेषां कोटीकोटीप्रमाणत्वात् , एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः ॥ सम्प्रति कालतोऽपहारत: परिमाणमाह-'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मशानयोर्भदन्त ! कल्पयोदेवा: समये समये एकैकदेवापहारेणाप-18 हियमाणा अपहियमाणा: कियता कालेनापडियन्ते , भगवानाह-गौतम! असोयास्ते देवाः समये समये एकैकदेवापहारेणापहियमाणा: २ असोयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, एतावता किमुक्तं भवति? असयेयासूत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणा: सौधर्मेशानदेवा इति, एवमुत्तरनापि भावना भावनीया, एतच्च कल्पनामा परिमाणावधारणार्थमुक्तं न पुनस्ते कदाच-15 अनुक्रम [३२७-३३२] RC+9 ~802~ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [3], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] संहनन सू०२१४ दीप श्रीजीवा- नापि केनाप्यपहृताः स्युः, तथा चाह-'नो चेव णं अवहिया सिया' एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत्सहस्रारकल्पदेवाः, 'आण-18 जीवाभियपाणयारणअचएम' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! आनतप्राणतारणारुयुतेषु कल्पेषु देवा असाषयाः, ते पा मलयगि-1 समये समये एकैकापहारेणापहियमाणा: पल्योपमस्य-क्षेत्रपल्योपमस्स सूक्ष्मस्थासङ्खयेयभागमात्रेण कालेनापहियन्ते, किमुक्तं भवति रीयावृत्तिः -सूक्ष्मक्षेवपल्योपमासयभागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणास्ते भवन्तीति, एवं प्रैवेयकदेवा अनुत्तरोपपातिनोऽपि वाख्याः ।। स-18 [म्प्रति शरीरावगाहनामानप्रतिपादनार्थमाह-सोहम्मीसाणेसुण भंते!' इत्यादि, सौधर्मशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्दवाना 'किम॥४०॥ संस्थाने |हालया' इति किं महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता?, भगवानाह-गौतम! द्विविधा प्राप्ता, लद्यथा-भवधारणीया उत्तरक्रिया च, तत्र या सा भवधारणीया सा जघन्यतोऽङ्गलासयमागमात्रा उत्कर्षतः सप्त रत्नयः, तत्र या सा उत्तरक्रिया सा जघन्यतोऽङ्गुलस्य स-18 देववर्णादि लयेयं भागं यावत् न त्वसमेयं तथाविधप्रयत्नाभावात् , उत्कर्षत एक योजनशतसहस्रं, एवं तावद्वाच्यं यावदच्युतकल्पो, नवरं स-1 सू० २१५ नत्कुमारमाहेन्द्रयोरुत्कर्षतो भवधारणीया षड् रत्त्रयः, ब्रह्मलोकलान्तकेषु पञ्च, महाशुक्रसहस्रारयोश्चत्वारः, आनतप्राणतारणाच्युतेषु त्रयः, 'गवेजगदेवा णं भंते! इत्यादि, मैवेयकदेवानां भदन्त ! किंमहती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम! अवेयकदेवानामेकं भवधारणीयं शरीरं प्राप्तं न तूत्तरवैक्रियं, शक्तौ सत्यामपि प्रयोजनाभावात्तदकरणात् , तदपि च भवधारणीयं जघन्यतो|ऽङ्गुलासययभागमात्रमुत्कर्षतो द्वौ रनी, एवमनुत्तरोपपातसूत्रमपि वक्तव्यं, नवरमुत्कर्षत एका रनिरिति वाच्यम् । सम्प्रति संहन-11 नमधिकृत्याह-'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीराणि 'किंसंहननानि कि संहननं येषां तानि तथा 8 प्राप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! पण्णां संहननानामन्यवमेनापि संहननेनासंहननानीति, संहननस्यास्थिरचनासकलात् तेषां चास्थ्या अनुक्रम [३२७-३३२] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: १ इति मुद्रितं ~803~ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२१० -२१५] दीप अनुक्रम [३२७ -३३२] "जीवाजीवाभिगम" प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः) उद्देशक: [ ( वैमानिक)-२], मूलं [२१०-२१५] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः दीनामसम्भवात्, तथा चाह— 'नेवट्टी' इत्यादि, नैवास्थि तेषां शरीरेषु नापि शिरा - प्रीवाधमनिर्नापि स्नायूंषि शेषं शिराजाल, किन्तु ये पुद्गला इष्टाः कान्ताः प्रिया मनोज्ञा मनआपतरा एतेषां व्याख्यानं प्राग्वत् ते तेषां सङ्घाततया परिणमन्ति ततः संहननाभाव:, एवं तावद्वाच्यं यावदनुत्तरोपपातिकानां देवानां ॥ सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह - 'सोहम्मीसाणेसु' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम! तेषां शरीरकाणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-भवधारणीयानि उत्तरखैक्रियाणि च तत्र यद् भवधारणीयं तत्समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितं प्रज्ञतं देवानां भवप्रत्ययतः प्रायः शुभनामकर्मोदयभावान्, तत्र यदुत्तरवैकियं तत् नानासंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तं, तस्येच्छया निर्वर्त्त्यमानत्वात् एवं तावद्वक्तव्यं यावदच्युतः कल्पः, 'गेविज्जगदेवाण मित्यादि प्रनसूत्रं सुगमं, भगवानाह-गौतम! मैवेयकदेवानामेकं भवधारणीयं शरीरं तच समचतुरस्रसंस्थान संस्थितं प्रज्ञप्तं, एवमनुत्तरोपपातिसूत्रमपि । अधुना वर्णप्रतिपादनार्थमाह- 'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भेदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीरकाणि कीदृशानि वर्णेन प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाहगौतम ! कनकत्वयुक्तानि कनकत्वगिव रक्ता आभा-छाया येषां तानि तथा वर्णेन प्रज्ञप्तानि, उत्तप्तकनकवर्णानीति भावः, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं सनत्कुमार माहेन्द्रयोर्ब्रह्मलोकेऽपि च पद्मपक्ष्मगौराणि, पद्मकेसर तुल्यावदातवर्णानीति भावः, ततः परं लान्तकादिषु यथोत्तरं शुशुकृतरशुकृतमानि अनुत्तरोपपातिनां परमशुक्लानि, उक्तञ्च " कणगचयरताभा सुरवसभा दोसु होंति कप्पे । तिस्रु होंति पन्हगोरा तेण परं सुकिला देवा ॥ १ ॥” सम्प्रति गन्धप्रतिपादनार्थमाह – 'सोहम्मी' व्यादि प्रनसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम! 'से जहानामए - कोपुडाण वा' इत्यादि विमानवद्भावनीयं एवं तावद्वक्तयं यावदनुत्तरोपपातिनाम् । स|म्प्रति स्पर्शप्रतिपादनार्थमाह- 'सोहम्मी' त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीरकाणि कीदृशानि स्पर्शेन प्रज्ञप्तानि ?, For P&Praise Cly ~804~ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], --- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------- ---------- मूलं [२१०-२१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१० -२१५] S दीप मीजीवा- भगवानाह-गौतम! 'थिरमजयणिद्धसुकुमाला फासेणं पण्णत्ता' इति स्थिराणि नतु मनुष्याणामिव विशरारुभावं विभ्राणानि ३ प्रतिपत्ती जीवाभिमृदूनि-अकठिनानि निग्धानि-सिग्धछायानि नतु रूक्षाणि सुकुमाराणि नतु कर्कशानि ततो विशेषणसमासः, स्पर्शन प्रज्ञप्तानि, वैमा० मलयगि एवं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिनां देवानां शरीरकाणि ॥ साम्प्रतमुच्छासप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयो-15 उद्देशः१ रायावृत्तिः भवन्त ! कल्पयोर्देवानां कीदृशाः पुद्गला उत्तछासतया परिणमन्ति?, भगवानाह-गौतम! ये पुद्गला इष्टाः कान्ताः प्रिया मनोबा संहनन॥४०॥ मनापा एतेषां व्याख्यानं प्राग्वत् ते तेषामुच्छासतया परिणमन्ति, एवं तावद्वाच्यं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः । एवमाहारसूत्रा- संस्थाने ग्यपि ।। सम्प्रति लेश्याप्रतिपादनार्थमाह-सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां कति लेश्या: प्रज्ञप्ता:?, भगवा सू०२१४ नाह-गीतम! एका तेजोलेश्या, इदं प्राचुर्यमङ्गीकृत्य प्रोच्यते, यावता पुनः कश्चित्तथाविधद्रव्यसम्पर्कतोऽन्याऽपि लेश्या यथास-IIदेववर्णादि म्भवं प्रतिपत्तव्या, सनत्कुमारमाहेन्द्रविषयं प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! एका पश्चलेश्या प्रज्ञप्ता, एवं अझलोकेऽपि, लान्तके | सू०२१५ प्रभसूत्रं सुगम, निर्वचनं-गौतम! एका शुक्लेश्या प्रज्ञप्ता, एवं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः, उक्तश्च-"किण्हानीलाकाउतेउलेसा |य भवणवंतरिया । जोइससोहम्मीसाण तेउलेसा मुणेबन्दा ॥ १॥ कप्पे सणकुमारे माहिदे चेव बंभलोए य । एएमु पम्हलेसा तेण परं सुकलेसा उ ॥ २॥" सम्प्रति दर्शनं चिचिन्तयिषुराह-'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त! कल्पयोर्देवा गमिति वाक्यालकारे किं सम्यग्दृष्टयो मिथ्वादृष्टयः सम्यग्मिध्यादृष्टयः?, भगवानाह-गौतम! सम्यग्दृष्टयोऽपि मिथ्यादृष्टयोऽपि सम्यग्मिध्यादृट-19 योऽपि, एवं यावद् प्रैवेयकदेवाः, अनुत्तरोपपातिनः सम्यग्दृष्टय एव बकव्याः न मिच्यादृष्टयो नापि सम्बग्मिध्यादृष्टयः तेषां तथा-IN४०१ स्वभावत्वात् ॥ सम्प्रसि ज्ञानाज्ञानचिन्तां चिकीर्षुराह-सोहम्मी'त्यादि प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाहगौतम! हानिनोऽप्यज्ञानिनो-| अनुक्रम [३२७-३३२] 4 marateangsirem अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: १ इति मुद्रितं ~805~ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२१० -२१५] दीप अनुक्रम [३२७ -३३२] "जीवाजीवाभिगम" प्रतिपत्तिः [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Je Ecoma inf - उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) उद्देशक: [(वैमानिक)-२], मूलं [ २१०-२१५] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः ऽपि तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमात्रिज्ञानिनस्तद्यथा - आभिनिबोधिकानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनः, ये अज्ञानिनस्ते नियमात् यज्ञानिनस्तद्यथा--मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनःश्च एवं तावद्वाच्यं यावद् मैवेयकाः, अनुत्तरोपपातिनो ज्ञानिन एम वक्तव्याः, योगसूत्राणि पाठसिद्धानि || सम्प्रत्यवधिक्षेत्रपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह सोहम्मीसाणदेवा ओहिणा केवतियं खेत्तं जाणंति पासंति?, गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं अवही जाव रयणप्पभा पुढवी उहुं जाव साई विमाणाई तिरियं जाब असंखेज्जा दीवसमुद्दा [एवं सक्कीसाणा पढमं दोचं च सर्णकुमारमाहिंदा । तच च बंभलंतग सुकसहस्सारग चत्थी ॥ १ ॥ आणयपाणयकप्पे देवा पासंति पंचमिं पुढवीं । तं चैव आरणचुय ओहीमाणेण पासंति ॥ २ ॥ छट्ठीं हेट्ठिममज्झिमगेवेज्जा सन्तमिं च उयरिल्ला । संभि लोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा ॥ ३ ॥ ] (सू० २१६ ) 'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवाः कियत्क्षेत्रमवधिना जानन्ति ज्ञानेन पश्यन्ति दर्शनेन ?, भगवानाह - गौतम! जघन्येनाङ्गुलस्यासश्येयभागं, अत्र पर आह नन्वकुलासयेयभागमात्रक्षेत्र परिमितोऽवधिः सर्वजघन्यो भवति, सर्वजपन्यश्चावधि| स्तिर्यग्मनुष्येष्वेव न शेषेषु यत आह भाष्यकारः स्वकृतभाष्यटीकायाम् "उत्कृष्टो मनुष्येष्वेव नान्येषु मनुष्यतिर्यग्योनिष्वेव जबन्यो नान्येषु शेषाणां मध्यम एवेति तत्कथमिह सर्वजघन्य उक्तः ?, उच्यते, सौधर्मादिदेवानां पार भाविकोऽप्युपपातकालेऽवधिः संभवति स एव कदाचित्सर्वजधन्योऽपि उपपातानन्तरं तु तद्भवजः ततो न कश्चिदोष:, आह व जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:- "वेमा For P&Praise City ~806~ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२१६] दीप अनुक्रम [३३३ -३३६] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], उद्देशकः [(वैमानिक)-२], मूलं [२१६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि यावृत्तिः ॥ ४०२ ॥ ३ प्रतिपतौ वैमानिका जियाणमंगलभागमसंखं जहनओ होइ (ओही ) । उनवाए परभविओ तब्भवजो होइ तो पच्छा ॥ १ ॥" 'उकोसेणं एवं यथाऽवधिपुदे प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यं तचैवम् 'उकोसेणं आहे जाब इमीसे रवणप्पभाए पुढवीए हेडिडे चरमंते' अधस्तनाश्चरमपर्यन्ताद्वैमा० यावदित्यर्थः ' तिरियं जाव असंखेो दीवसमुद्दे, उड़ जाब सगाई विमाणाई' स्वकीयानि विमानानि स्वकीय विमानस्तूपध्वजादिकं याव४ उद्देशः २ दित्यर्थः 'जाणंति पासंति, एवं सर्णकुमारमाहिंदावि, नवरं आहे जाव दोषाए सकरप्पभाष पुढवीए छेडिले चरिमंते, एवं बंभलोगलंतगदेवावि, नवरं अहे जाव सञ्चार पुढवीए, महामुकसहस्सारगदेवा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढबीए हेट्ठिले चरिमंते, आणयपाणयआ- * नामवधिः रणबुयदेवा अहे जाव पंचमीए पुढबीए धूमप्पभाए हैट्टिले चरिमंते, हेट्टिममज्झिमरोवेजगदेवा डट्टीए तमप्पभार पुढवीए हेलेि च - ४ सू० २१६ रिमंते, जबरिमगेवेज्जगा देवा अहे जाव सत्तमाए पुढवीए हेट्टिले चरिमंते, अणुत्तरोववाइयदेवा णं भंते! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गोयमा ! संभिनं लोगनाहि' परिपूर्ण चतुर्दशरजवासिकां छोकनाडीमित्यर्थः 'ओहिणा जाणंति पासंति' इति, उक्तश्च - "सक्कीसाणा पढमं दोचं च सर्णकुमारमाहिंदा । तञ्चं च भतग सुकसहस्सारग चउत्थि || १ | आणयपाणयकप्पे देवा पासंति ४ पंचमिं पुढविं । तं चेत्र आरणय ओहीनाणेण पासंति ॥ २ ॥ दिट्टिममज्झिमगेविज्जा सत्तानि च उवरिहा । संभिन्नलोगनालि | पासंति अणुत्तरा देवा || ३ || सम्प्रति समुद्घातप्रतिपादनार्थमाह सोहम्मीसाणे णं भंते! देवाणं कति समुग्धाता पण्णत्ता?, गोयमा ! पंच समुग्धाता पण्णत्ता, तंजा - वेदणासमुग्धाते कसाय० मारणंतिय० वेडब्बियः तेजससमुग्धाते एवं जाव अचुए। गेवेज्जाणं आदिल्ला तिष्णि समुग्धाता पण्णत्ता || सोहम्मीसाणदेवा केरिसयं खुधपिवासं पच For P&Palle Cnly ~807~ समुद्घा - तादि सू० २१७ ॥ ४०२ ॥ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], - --------- मूलं [२१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७] र गुब्भयमाणा विहरंति?, गोयमा! स्थि खुधापिवासं पच्चणुभवमागा विहरति जाव अणुत्तरोववातिया ॥ सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवा एगत्तं प्र विउवित्तए पुहत्तं पभू विउब्बित्तए?, हंता पभू, एगसं विउब्वेमाणा एगिदियख्वं वा जाव पंचिंदियरूवं वा पुहत्तं विउब्बेमाणा एगिदियरूवाणि वा जाव पंचिंदियरूवाणि वा, ताई संग्वेजाइपि असंखेजाइपि सरिसाई पिअसरिसाइंपि संपदाइंपि असंबद्धाइंपि रूवाई विउव्यंति विउवित्ता अप्पणा जहिरिछयाई कजाई करेंति जाव अचुओ, गेवेजणुत्तरोववातिया देवा किं एग पभू विउवित्तए पुहुत्तं पभू विउवित्तए?, गोयमा ! एगत्तंपि पुहुत्तंपि, नो चेव णं संपत्तीए निउब्बिसु वा विउब्बति वा विउव्यिस्संति वा ॥ सोहम्मीसाणदेवा केरिसयं सायासोक्खं पञ्चणुम्भवमाणा विहरंति ?, गोयमा! मणुपणा सहा जाव मणुषणा फासा जाव गेविजा, अणुत्तरोववाइया अणुत्तरा सहा जाव फासा।। सोहम्मीसाणेसु देवाणं केरिसगा इड्डी पण्णत्ता,गोयमा! महिड्डीया महजुइया जाव महाणुभागा इडीए पं० जाब अचुओ, गेवेजणुत्तरा य सब्वे महिहीया जाच सव्ये महाणुभागा अणिंदा जाव अहमिंदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो! ।। (सू० २१७) 'सोहम्मी'त्यादि प्रभसूर्य सुगम, भगवानाह-गौतम पम समुदूधाता: प्रज्ञतास्तद्यथा-वेदनासमुद्घातः कषायसमुदूपातो मरMणसमुद्घातो वैक्रियसमुद्घातस्तैजससमुद्घातः, एतेषां स्वरूपं प्रागेत्र द्विविवप्रतिपत्तायभिहित, उत्तरौ द्वौ समुद्घातो न भवतः, आ-| - दीप अनुक्रम [३३७] H जी०६८ ~808~ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३]. ............ ... उद्देशक: (वैमानिक)-२], ...................-- मुलं [२१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७] दीप अनुक्रम [३३७] श्रीजीवा- हारकलब्धिकेवलित्वाभावात् , एवं तावदाच्यं यावदच्युतः कल्पः, 'गेवेज्जगदेवाणभंते!' इत्यादि प्रश्रसूत्रं सुगनं, भगवानाह-13 प्रतिपत्तौ जीवाभि. गौतम! पञ्च समुद्घाता: प्रज्ञप्तास्तयथा-वेदनाममुद्घात इत्यादि, एते च पञ्चापि तेषां शक्तितः प्रतिपत्तव्याः, कर्तव्यतया तु तत्र वैमानिकामलयगि- त्रय एव, तथा चाह-नो चेवण' मित्यादि, नैव कदाचनापि वैक्रियतैजससमुद्घाताभ्यां समवहताः समवहन्यन्ते समवहनिष्यन्तेानां समुद्रीयावृत्ति प्रयोजनाभावतः प्रकृत्युपशान्ततया च क्रियसमुद्घातारम्भासम्भवात् , एवमनुत्तरोपपातिकानामपि वक्तव्यम् ।। 'सोहम्मी'त्यादि,राघातादि कसौधर्मशानयोर्भदन्त ! कल्पयोवाः कीदृशं क्षुच्च पिपासा च क्षुत्पिपासं प्रत्यनुभवन्तो 'बिहरन्ति' आसते?, गौतम! नास्त्येतद् यत्ते उद्देशः२ क्षुत्पिपास प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति, एवं यावदनुत्तरोपपातिकाः ॥ 'सोहम्मीसाणेसु ण'मित्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्दैवाः 8| सू०२१७ |'एकत्वम्' एकरूपं विकुवितुं प्रभवः पृथक्वं ?--बहूनीत्यर्थः, भगवानाह-गौतम! एकत्वमपि प्रभवो विकुर्वितुं पृथक्लमपि प्रभवो । अविकर्षितुं, एकवं विकुर्वन्त एकेन्द्रियरूपं वा द्वीन्द्रियरूपं या त्रीन्द्रियरूपं वा चतुरिन्द्रियरूपं वा पञ्चेन्द्रियरूपं वा विकृषितुं, पृथक्लं | बिकुर्वन्त एकेन्द्रिवरूपाणि यावत्पञ्चेन्द्रियरूपाणि वा, तान्यपि सहयेयानि विकुर्वन्ति अस यानि वा, तान्यपि 'सदृशानि' सजातीयानि | हैवा 'असहशानि' विजातीयानि 'संबद्धानि' आत्मनि समवेतानि 'असंबद्धानि' आत्मपदेशेभ्यः पृथग्भूतानि प्रासादयटपटादीनि, यथा चतुर्दशपूर्वधरा घटाद् घटसहस्रं पटापटसहस्रं कुर्वन्ति, विकुर्विवा पश्चाद् यादृच्छिकानि कार्याणि कुर्वन्ति, एवं तावद्याबदल्युतकल्पदेवाः, गेवेजगदेवाणं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्रतीतं, भगवानाह-गौतम! एकत्वमपि प्रभवो विकुर्वितुं पृथक्त्वमपि, 'नो चेत्रण'मित्यादि, नैव | | |४०३॥ पुन: 'सम्पत्त्या साक्षाद्वैक्रियरूपसम्पादनेन विकुर्वितबन्तो बिकुर्वन्ति विकुर्विष्यन्ति एवमनुत्तरोपपातिका अपि वक्तव्याः ।। 'सोहम्मीत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त! कल्पयोर्देवाः कीदृशं 'सातसौख्यं' सासं-आहादरूपं सौख्यं सातसौरुष प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ?, ~809~ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३]. ............... उद्देशक: (वैमानिक)-२], ...................-- मूल [२१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७] भगवानाह-गौतम! मनोज्ञा: शब्दा मनोज्ञानि रूपाणि मनोज्ञा गन्धा मनोज्ञा रसा: मनोज्ञाः स्पर्शा: एवरूपं सातसौख्यं प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति, एवं तावद्वाच्यं यावद्वैवेयकदेवाः, 'अणुत्तरोववाइयाण'मित्यादि प्रअसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! अनुत्तराः शब्दा यावदनुतराः स्पर्शाः इत्येवंरूपं सातसौख्य प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ।। साम्प्रतमृद्धिप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मे-10 शानयोर्भदन्त ! कल्पयोदेवा: कीडशा ऋजया प्रज्ञप्ता:?, भगवानाह-गौतम! महर्द्विका यावन्महानुभागाः, अमीषा पदानां व्याख्यान पूर्ववत्, एवं सावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः ॥ सम्प्रति विभूषाप्रतिपादनार्थमाह सोहम्मीसाणा देवा केरिसया विभसाए पपणत्ता?, गोयमा! दुविहा पण्णता, तंजहा-बेउवियसरीरा य अवेउब्वियसरीरा य, तत्थ णं जे ते वेउब्वियसरीरा ते हारविराइयवच्छा जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा जाव पडिरूवा, तत्थ णं जे ते अवेउब्बियसरीरा तेणं आभरणवसणरहिता पगतित्था विभूसाए पण्णत्ता ॥ सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेस देवीओ केरिसियाओ विभूसाए एण्णत्ताओ?, गोयमा! दुविधाओ पपणत्ताओ, तंजहा-वेब्वियसरीराओ य अवेउब्वियसरीराओ य, तत्थ णं जाओ घेउब्वियसरीराओ ताओ सुवण्णसहालाओ सुवण्णसद्दालाई वत्थाई पवर परिहिताओ चंदाणणाओ चंदविलासिणीओ चंदद्धसमणिडालाओ सिंगारागारचारुवेसाओ संगय जाव पासातीयाओ जाच पडिरूवा, तस्थ णं जाओ अवउब्वियसरीराओ ताओ णं आभरणवसणरहियाओ पगतित्थाओ विभूसाए पपणत्ताओ, दीप अनुक्रम [३३७] LOCA - -- ~810~ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२१८-२२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१८ -२२०] उद्देशः२ श्रीजीवा सेसेसु देवा देवीओ णत्थि जाव अचुओ, गेवेजगदेवा केरिसया विभूसाए?, गोयमा! ३ प्रतिपत्तौ जीवाभि० आभरणवसणरहिया, एवं देवी णत्थि भाणियवं, पगनित्था विभूसाए पण्णता, एवं अणुत्त- वैमानिकामलयगिरावि ।। (सू०२१८) सोहम्मीसाणेसुदेवा केरिसए कामभोगे पचणुभवमाणा विहरति?, गो नां भूषारीयावृत्तिः यमा! इहा सद्दा इट्टा रूवा जाब फासा, एवं जाव गेवेजा, अतुतरोववातियाणं अणुत्तरा सदा कामभोजाव अणुसरा फासा ॥ (सू० २१९) ठिती सम्वेसिं भागिपब्वा, देवित्ताएवि, अणंतरं चयंति गाःस्थितिः ॥४०४॥ चइत्ता जे जहिं गच्छंति तं भाणियव्यं ।। (सू० २२०) 'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीरकाणि कीदृशानि विभूपया प्रजातानि', भगवानाह-गौतम! द्विविधानि सू०२१८. प्रज्ञाप्तानि, तद्यथा-भवधारणीयानि उत्तरवैक्रियाणि च, तत्र यानि तानि भवधारणीयानि तानि आभरणवसनरहितानि प्रकृतिस्थानि | विभूषया प्रज्ञप्तानि, स्वाभाविक्येव तेषां विभूषा नौपाधिकीति भावः, तत्र यानि तानि उत्तरवैक्रियरूपाणि शरीराणि तानि 'हारविराइयवच्छा' इत्यादि पूर्वोक्तं तावद्वतव्यं यावत् 'दस दिसाओ उजोवेमाणा पभासमाणा पासाईया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा | विभूसाए पन्नत्ता' अस्य व्याख्या पूर्ववत्, एवं देवीष्वपि नवरं 'ताओ णं अच्छराओ सुवण्णसद्दालाओं' इति नूपुरादिनिषोंउपयुक्ताः 'सुवण्णसद्दालाई वत्थाई पवरपरिहिताओं सकिङ्किणीकानि वस्राणि प्रवरं-अत्युस्ट यथा भवत्येवं परिहितवन्त्य इति । *भावः, 'चंदाणणाओ चंदविलासिणीमो चंदद्धसमनिडालाओ चंदाहियसोमदसणाओ उका इव उज्जोत्रमाणीभो बिजपणमरीइसूरदिप-13 काततेयअहिययरस निकासाओ सिंगारागारचारुवेसाओ पासाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूबाओं' इति प्राग्वत् , एवं देवानां शरीर-18 दीप अनुक्रम [३३८ २२० ३४० ~811~ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------- ------- मूलं [२१८-२२० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१८ -२२०] विभूषा तावद्वाच्या यावदच्युतः कल्पः, देव्यस्तु सनत्कुमारादिषु न सन्तीति न तत्सूत्र तत्र वाच्यं, वेजगदेवा गं भंते ! सरीरा: केरिसगा विभूसाए पन्नचा?, गोयमा ! गेवेजगदेवाणं एगे भवधारगिज्जे सरीरे ते णं आभरणवसणरहिया पगइत्या विभूसाए पण्णत्ता' इति पाठः, एवमनुत्तरोपपातिका अपि वाच्याः । सम्प्रति कामभोगप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! क-13 ल्पयोः कीदृशान कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक वेदयमाना विहरन्ति ?, भगवानाह-गौतम! इष्टान् शब्दान् इष्टानि रूपाणि इष्टान | गन्धान इष्टान् रसान इष्टान सझन् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति, एवं यावद् पैवेयकदेवाः, अनुत्तरोपपातिकसूत्रेषु अनुत्तरानिति वक्त-४ व्यम् ।। अधुना स्थितिप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मगदेवाण'मित्यादि, सौधर्मकदेवानां भदन्त ! कियन्तं कालं खितिः प्रज्ञप्ता, भगवानाह-गौतम! जघन्यत एक पल्योपममुत्कर्षतो वे सागरोपमे, एवमीशाने जघन्यत एक सातिरेक पल्योपममुत्कर्पतो वे सातिरेके सागरोपमे, सनत्कुमारे जघन्यतो वे सागरोपमे उत्कर्षतः सप्त सागरोपमाणि, माहेन्द्रे जघन्यतः सातिरेके द्वे सागरोपमे उत्क तः सातिरेकाणि सप्त सागरोपमाणि, नालोके जघन्यतः सप्त सागरोपमाणि उत्कर्षतो दश सागरोपमाणि, लान्तके जघन्यतो दशसागरोपमाणि उत्कर्षतश्चतुर्दश सागरोपमाणि, महाशुक्के जघन्यतचतुर्दश सागरोपमाणि उत्कर्पतः सप्तदश, सहस्रारे जघन्यतः सप्तदश सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टादश, आनत कल्पे जघन्यतोऽष्टादश सागरोपमाणि उत्कर्पत एकोनविंशतिः, प्राणते जपन्यत एकोनविंशतिः । सागरोपमाणि उत्कर्षतो विंशतिः, आरणे जघन्यतो विंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षत एकविंशतिः, अच्युते जघन्यत एकविंशतिः सानगरोपमाणि उत्कर्षतो द्वाविंशतिः, अधस्तनाधस्तनौवेयकप्रस्तटे जघन्यतो द्वाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतस्त्रयोविंशतिः, अधस्तन मध्यमवेयकप्रस्तटे जघन्यतस्त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतश्चतुर्विशतिः, अधस्तनोपरितनौवेयकप्रसटे जघन्यतश्चतुर्विंशतिः सा दीप अनुक्रम [३३८ ३४० Elic ~812~ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], -------------------- मूलं [२१८-२२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१८-२२०] 29 - X श्रीजीवा- गरोपमाणि उत्कर्षतः पञ्चविंशतिः, मध्यमाधस्तनोवेयकप्रस्तटे जघन्यतः पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतः षड्विंशतिः, मध्यम-8 प्रतिपत्तौ जीवाभि मध्यमप्रैचेयकप्रस्तटे जघन्यतः षड्विंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षत: सप्तविंशतिः, मध्यमोपरितनौवेयकप्रस्तटे जघन्यत: सप्तविंशतिः मानिका मलयगि |सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टविंशतिः, उपरितनाधस्तनौवेयकप्रस्तटे जघन्यतोऽष्टाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षत एकोनत्रिंशत् , उप नां भूषारीयावृत्तिः रितनमध्यमौवेयकप्रस्तटे जघन्यत एकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कर्षतविंशत् , उपरितनोपरितनौवेयकप्रस्तटे जघन्यतस्त्रिंशस्सागरो-121 181 कामभो॥४०५॥ीपमाणि उत्कर्षत एकत्रिंशत् , विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु जघन्यत एकत्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कर्पतस्त्रयस्त्रिंशत् , सर्वार्थसिद्धे म-18 गाःस्थितिः उद्देशः२ हाविमानेऽजघन्योत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ॥ सम्प्रत्युद्वर्तनामाह-'सोहम्मगदेवाणमित्यादि, सौधर्मकदेवा भदन्त ! अनन्तरं सू०२१८अव्यवधानेन च्यवित्वा क गच्छन्ति !, एतदेव ब्याचष्टे-कोत्पद्यन्ते ?, किं नैरषिकेषु गच्छन्ति यावदेवेषु गच्छन्ति ?, भगवानाहगौतम! गो. नेरइएसु उववजति' इत्यादि यथा प्रज्ञापनायां पष्ठे व्युत्क्रान्त्यास्यपदे तथा बक्तव्यं, एष च सहेपार्थः-पादर-13 पर्याप्तेषु पृथिव्यवनस्पतिपु पर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्येषु च सह्यातवर्षायुकेषु, एवमीशानदेवा अपि, सनत्कुमारादयः सहस्रारपर्यन्ताः पर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्येष्वेव सवातवर्षायुष्केषु नै केन्द्रियेष्वपि, आनतादयो यावदनुत्तरोपपातिका न तिर्यपञ्चेन्द्रियेष्वपि किन्तु यथोक्तरूपेषु मनुष्येषु ।। सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु सम्वपाणा सव्वभूया जाव सत्ता पुढविकाइयत्ताए जाव वण ॥४०५॥ स्सतिकाइयत्ताए देवत्ताए देवित्ताए आसणसयण जाव भंडोवगरणत्ताए उववण्णपुवा?, हंता दीप अनुक्रम [३३८ -- - - ३४० ~813~ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], - ---------- मूलं [२२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२१] दीप अनुक्रम [३४१] गोयमा! असहं अदुवा अर्णतखुत्सो, सेसेसु कप्पेसु एवं चेव, गवरि नो वेवणं देवित्ताए जाव गेवेज़गा, अणुत्तरोववातिएसवि एवं, णो चेव णं देवत्ताए देविसाए । सेसं देवा ॥ (सू०२२१) 'सोहम्मे णमित्यादि, सौधर्मे भदन्त! कल्पे द्वात्रिंशद् विमानायासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् विमाने सर्वे प्राणाः सर्वे भूताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः, अमीपां व्याख्यानमिदम्-प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूताश्च तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उद्दीरिताः॥१॥" पृथ्वीकायतया देवतया देवीतचा, इह च बहुषु पुस्तकेन्वेतावदेव सूत्रं दृश्यते, कचित्पुनरेतदपिर -'आउकाइयत्ताए तेउकाइयत्ताएं इत्यादि तन्न सम्यगवगच्छामस्तेजस्कायस्य तत्रासम्भवात् , 'आसणे'त्यादि, आसनं-सिंहासनादि शयनं-पल्यतः सम्भा:-प्रासादाद्यवष्टम्भहेतवः भाण्डमात्रोपकरणं-हारार्द्धहारकुण्डलादि तत्तयोत्पन्नपूर्वाः १, भगवानाह-गौतम! 'असकृत्' अनेकवारमुत्पन्नपूर्बो इति सम्बन्धः, अथवा 'अनन्तकृत्वः' अनन्तान् वारान , सांव्यवहारिकराश्यन्तर्गतै वैः सर्वस्था-15 नानां प्रायोऽनन्तश: प्राप्नत्वात् , एवमीशानेऽपि वक्तव्यं, सनत्कुमारेऽप्येवमेव, नवरं 'नो चेव णं देविताए' इति विशेषः तत्र देवीनामुत्पादाभावात् , एवं यावद् अवेयकाणि, पंचसु णं भंते ! अणुत्तरे' इत्यादि पाठसिद्धं नवरं 'नो चेव णं देवित्ताए' इति, अनन्तकत्लो देवत्वस्य प्रतिषेधो विजयादिषु चतुर्दोत्कर्षतोऽपि वारद्वयं सर्वार्थ सिद्धे महाविमाने एकवारं गमनसम्भवात् , तत ऊर्द्धमवश्यं म-1 नुष्यभवासादनेन मुक्तिप्राप्तः, देवीत्वस्य च प्रतिषेधस्तत्रोत्पादासम्भवात् ॥ सम्पत्ति चतुर्विधानामपि जीवानां सामान्यतो भवस्थिति कायस्थितिं च प्रतिपिपादयिषुराह नेरइयाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उक्को ~814~ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२२२ -२२३] दीप अनुक्रम [३४२ ३४३] “जीवाजीवाभिगम" श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ४०६ ॥ - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [३], मूलं [२२२-२२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः उद्देशकः [(वैमानिक)-२], से तेत्तीस सागरोवमाई, एवं सन्वेसिं पुच्छा, तिरिक्खजोणियाणं जहनेणं अंतोमु० उकोसेणं तिनि पलिओमाई, एवं मणुस्साणवि, देवाणं जहा णेरतियाणं । देवणेरड्याणं जा चेव दिती सवेव संचिणा, तिरिक्खजोणियस्स जहनेणं अंतोमुहुत्तो उक्कोसेणं वणस्सतिकालो, मणुस्से सेति कालतो केवचिरं होति ?, गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिrant yooneyतमम्भहियाई || हरयमणुस्सदेवाणं अंतरं जहनेणं अंतोमु० उक्कोसेर्ण वर्णसतिकालो । तिरिक्खजोणियस्स अंतरं जहनेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं सागरोपमस्यपुहुत्तसाइरेगं || (सू० २२२) एतेसि णं भंते! रयाणं जाव देवाण य कयरे० ?, गोयमा ! सत्वा मणुस्सा रइया असं० देवा असं० तिरिया अनंतगुणा, से तं चव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता || (सू० २२३ ) 1 'नेरइयाणं भंते! केवइयं काल' मित्यादि, नैरविकाणां जघन्यतः स्थितिर्देश वर्षसहस्राणि, एतद् रत्नप्रभाप्रथमप्रस्तदमपेक्ष्योक्तं, उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, एतत्सप्तमनरक पृथिव्यपेक्षया, तिर्यग्योनिकानां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि, एतद्देकुर्वादिकमपेक्ष्य द्रष्टव्यं एवं मनुष्याणामपिं देवानां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि, एतद्भवनपतिव्यन्तरानधिकृत्यावबोद्धव्यं, उत्कर्षतत्रयत्रिंशत् सागरोपमाणि तानि विजयाद्यपेक्ष्य || 'नेरइयाणं भंते!' इत्यादि, नैरयिको भदन्त ! नैरयिकत्वेन कालतः किञ्चिरं भवति ?, भगवानाह गौतम ! 'जा चैव भवट्ठिई सा चैव संचिट्टणावि' यैव भवस्थिति: सैत्र 'संचिट्टणावि' कार्यस्थितिरपि, नैर For P&False City ~815~ ३ प्रतिपत्ती विमानेषु देवादितयोत्पादः गतिचतुष्कस्थित्य 6 न्तरेअल्प ४ * बहुत्वं उद्देश २ सू० २२१२२३ ॥ ४०६ ॥ wwwyw Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----- ------------ उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------- -------- मूलं [२२२-२२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२-२२३] यिकस्याव्यवधानेन भूयो नैरयिकेपूत्पादाभावात् , 'नो नेरइए नेरइएमु उवबजाई' इति वचनात् , 'तिरिक्खजोणिए णं भंते!' इत्यादि। प्रभसूत्रं प्राग्वत् , गौतम! जघन्यत्तोऽन्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं भूखा मनुष्यादाबुत्पादात् , उत्कर्षतोऽनन्त कालं, वनस्पतिकायिकेष्वनन्तकालमवस्थानात् , तमेवानन्तकालं निरूपयति-वनस्पतिकालः, यावान् शास्त्रान्तरे बनस्पतिकाल उक्तस्तावन्तं कालमित्यर्थः, स चैवम् |-अर्णताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अणंता लोगा असंखेजा पुग्गलपरियट्टा, ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए| असंखेज्जइभागों' सुगमम् , मनुष्यविषयं प्रभसूत्रं पाठसिद्ध, निर्वचन--गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं मृला तिथंगादिषूत्पादभावादिति, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तानि च महाविदेहादिषु सप्तसु मनुष्यभवेषु पूर्वकोट्यायुष्केषु अ-18 टमे च देवकुर्वादिषुत्पद्यमानस्य वेदितव्यानि । देवानां तु नैरविकवद् वैव भवस्थितिः सैच कायस्थितिरपि, देवानामपि मृत्वा भूयोऽ-12 दिनन्तरं देवत्वेनोत्पादाभावात् । "नो देवे देवेसु उववाद” इति बचनात् । साम्प्रतमन्तरं चिचिन्तयिपुराह-'नेरइयस्स णं भंते'! इत्यादि, नैरपिकस्य भदन्त ! अन्तरं-नैरयिकत्वात्परिभ्रष्टस्य भूयो नैरयिकलप्राप्रपान्तरालं कालत: कियधिरं भवति ?, कियन्तं कालं यावद्भवतीत्यर्थः, भगवानाह-जघन्येनान्तमहूर्त, कथमिति चेत् , उच्यते, नरकादुत्य मनुष्यभवे तिर्यग्भचे वाऽन्तर्मुहूर्त सित्वा भूयो नरकेषुत्पादात् , तत्र मनुष्यभवभावनेयम्-कश्चिन्नरकाबुद्धत्य गर्भजमनुष्यलेनोत्पया सर्वामिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तो विशिष्टसंज्ञानोपेतो वैक्रियलब्धिमान राज्याद्याकाङ्की परचक्राद्युपद्रवमाकर्ण्य स्वशक्तिप्रभावतश्चतुरटं सैन्यं विकुर्वित्वा सवामयिला च महारौद्रध्या-1 नोपगतो गर्भस्थ एव कालं करोति कृत्वा च कालं भूयो नरकेपुत्पद्यते तत एवमन्तर्मुहूर्त, निर्यग्भवे नरकादुतो गर्भव्युत्क्रान्तिकतन्दुलमत्स्यत्वेनोत्पद्य महारौद्रध्यानोपगतोऽन्तर्मुहूर्त जीवित्या भूयो नरकेपु जात इति, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चानन्तः कालः दीप अनुक्रम [३४२३४३] * Ex-59-2-%2-44-5 ~816~ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२२२-२२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२-२२३] श्रीजीवा- परम्परया वनस्पतिपूत्पादादवसातव्यः, तथा दाह-वनस्पतिकालः, स च प्रागेवोक्तः । विर्यग्योनिविषयं प्रभसूत्र पूर्ववत् , निर्वचन- प्रतिपत्ती जीवाभि जघन्येनान्तर्मुहूत्तै, तच्च कस्यापि तिर्यकत्येन मृत्वा मनुष्यभवेऽन्तर्मुहूर्त स्थित्ला भूयस्ति र्यकत्वेनोत्पद्यमानस्य द्रष्टव्यं, उत्कर्षतः साति-8 विमानेषु रेफ सागरोपमशतगृथक्त्वं, सच नैरन्तर्येण देवनारकमनुष्यभरभ्रमणेनावसातव्यं । मनुष्यविषयमपि प्रभसूत्र तथैव, निर्वचनं-जध- देवादितरायावृत्तिःन्येनान्तर्मुहूर्त, तच्च मनुष्यभवादुडुल तिर्यग्भवेऽन्तर्मुहूर्त स्थित्ला भूयो मनुष्यत्वेनोत्पद्यमानस्यावसातव्यं, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स योत्पादः ॥४०७॥ ||चानन्तः कालः प्रागुक्तो वनस्पतिकालः । देवविषयमपि प्रभसूत्रं सुगनं, निर्वचनं जघन्येनान्तर्मुहूर्त, कश्चिदेवभवाचयुत्या गर्भजमनु-151 | गतिचतुदायलेनोत्पश्च सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तो विशिष्ट सब्ज्ञानोपेतस्तथाविधस्य श्रमणस्य श्रमणोपासकस्य वाऽन्ते धर्मामार्य वचः श्रुखा धर्म-16 कस्थित्य ध्यानोपगतो गर्भस्थ एव कालं करोति कालं च कृत्वा देवेपूस्पयते तत एवमन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चानन्त: कालो य- स्तरेअल्पहाथोक्तस्वरूपो वनस्पतिकालः प्रतिपत्तव्यः ।। साम्प्रतमल्पबहुत्वमाह-एएसि 'मित्यादि प्रभसूत्रं पाठसिद्ध, भगवानाह-गौतम । सर्वस्तोका मनुष्याः, श्रेण्यसोयभागवर्तिनमःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यो नैरयिका असङ्ख्ययगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेयत्प्र- उद्देशः२ यम वर्गमूलं तहितीयेन वर्गमूलेन गुण्यते गुणिते च सति यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशा-TVसू०२२१स्तावत्प्रमाणत्वात्तेषां, तेभ्यो देवा असोयगुणाः, व्याराणां ज्योतिष्कागां च नैरयिकेभ्योऽप्यसयेयगुणतया महादण्डके पठितत्वात् । २२३ तेभ्योऽपि तिर्ययोऽनन्ताः, वनस्पतिजीवानामनन्तानन्तत्वात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां चतुर्विधप्रतिपत्तौ । विमानाधिकारे द्वितीयो वैमानिकोदेशकः समाप्तः, तत्समाप्तौ च समान चतुर्विधा प्रतिपत्तिः ।। ॥४०७॥ बहुत्वं दीप अनुक्रम [३४२३४३] तृतीय-प्रतिपत्तौ वैमानिक-उद्देशकः (२) परिसमाप्त:, तत् समाप्ते वैमानिक-उद्देशकः अपि परिसमाप्त: अत्र तृतीया “चतुर्विधा" प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता: ~817~ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [४], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: अथ पञ्चविधजीवाख्या चतुर्था प्रतिपत्तिः। प्रत सूत्रांक * * [२२४] -- -- * दीप अनुक्रम [३४४] तदेवमुक्ता चतुर्विधा प्रतिपत्तिः, सम्प्रति क्रमप्राप्तां पञ्चविधप्रतिपत्तिमाह तत्थ जे ते एवमाहंसु-पंचविहा संसारसमावणगा जीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तं०-एगिदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिया से किं तं एगिदिया?. २ विहा पण्णता, तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य, एवं जाव पंचिंदिया दुविहा-पजसगा य अपजसगा य । एगिदियस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिती पणता?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमहत्तं उकोसेणं बावीसं वाससहस्साई, बेइंदिय० जहन्नेणं अंतोमु० उक्कोसेणं बारस संबच्छराणि, एवं तेइंदियस्स एगणपणं राइंदियाणं, चाउरिदियस्स छम्मासा, पंचेंदियस्स जह• अंतोमु० उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोबमाई, अपजत्तएगिदियस्स णं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमु० उकोसेणवि अंतो० एवं सब्वेसि, पजत्तेगिंदियाणं णं जाव पंचिन्दियाणं पुच्छा, जहन्नेणं अंतो० उक्को. बाबीसं चाससहस्साई अंतमुहत्तोणाई. एवं उक्कोसियाधि ठिती अंतोमुलुत्तोणा सब्वेसिं पज्जत्ताणं कायब्बा ॥ एगिदिए णं भंते! एगिदिएत्ति काल ओ केबचिरै होइ?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमु. उको वणस्ततिकालो। बेइंदियस्स भंते ! बेइंदियत्ति कालओ केवचिरं होइ?, जह• अंतो - -- -- 1 1 P अथ चतुर्थी "पञ्चविधा" प्रतिपत्ति: आरब्धा: संसारिजीवानाम् पञ्चविधत्वेन प्ररुपणं- एकेन्द्रियात् पञ्चेन्द्रिय-पर्यन्त जीवाधिकार: आरभ्यते ~818~ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [४], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रत सूत्रांक [२२४] - - ॥४०८॥ LOCKKARMA राणि -- मु० उकोसेणं संखेनं कालं जाव चउरिदिए संखेनं कालं, पंचेंदिए णं भंते! पंचिंदिएति का प्रतिपत्तौ लओ केवचिरं होइ ?, गोयमा! जहा अंतोमु० उक्को सागरोवमसहस्सं सातिरेगं ॥ एगिदिए एकेन्द्रिणं अपजत्तए णं भंते ! कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! जहनेणं अंतोमु. उक्कोसेणवि अंतो 18 यादिभेदमुहत्तं जाय पंचिंदियअपजत्तए । पजत्तगएगिदिए णं भंते! कालओ केयचिरं होति?, गोयमा! द स्थित्यन्तजहोणं अंतोमुहतं उकोसेणं संखिजाई वाससहस्साई । एवं बेइंदिएवि, णवरिं संखेजाई वासाई । तेइंदिए णं भंते ! संग्वेजा राइंदिया। चउरिदिए f० संखेजा मासा पजत्तपंचिदिए सा उद्देशः २ गरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं ।। एगिदियस्स णं भंते! केवतियं कालं अंतर होति ?, गोयमा! जह- सू०२२४ पणेणं अंतोमुहरा उक्कोसेणं दो सागरोयमसहस्माई संखेजवासमभहियाई।दियस्स णं अंतरं कालओ केवचिरं होति?, गोयमा ! जहण्णेणं शंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो । एवं तेइंदि यस्स चउरिदियस्स पंचेंदियस्स, अपजत्तगाणं एवं चेव, पजत्तगाणवि एवं चेव ॥ (सू० २२४) 'तत्धे'त्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्त:-पञ्चविधा: संसारसमापन्नका जीवाः प्रज्ञपाते 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेणोक्तवन्तः, तमेव प्रकारमाह-तद्यथा-एकेन्द्रिया द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाचतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः, अमीषां पदानां व्याख्यानं प्राग्वत् ॥ 'से किं तमित्या-18| दीनि पच पर्याप्तापर्याप्तसूत्राणि, 'पगिदिवस्स गं भंते ! केवइयं कालं ठिई ?' इत्यादीनि पञ्च स्थितिसूत्राणि पाठसिद्धानि, अपर्याप्तक सा।।४०८॥ विशेषणविशिष्टान्यपि पश्च खितिसूत्राणि पाठसिद्धानि, नवरं जपन्यादन्तर्मुहूर्तादुत्कृष्टमन्तर्मुहूर्स बृहत्तरमवसातव्यं, पर्याप्त विशेषण दीप अनुक्रम [३४४] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~819~ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [४], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२४] -- *44 विशिष्टान्यपि पञ्च स्थितिसूत्राणि सुमतीतानि, नवरमुत्कर्ष तो द्वाविंशतिवर्षसहस्रादीन्यन्तर्मुझेनानि, अपर्याप्तककालेनान्तर्मुहूर्तेन ही-1 नत्वात् ।। सम्प्रति कायस्थितिप्रतिपादनार्थमाह-एगिदिए णं भंते! एगिदिए'त्ति इत्यादि, जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं मृखा। दीन्द्रियादिपूत्पादान , उत्कर्पतोऽनन्तं कालं, अनन्तकालमेव निरूपयति-वनस्पतिकालः, वनस्पत्तिकालस्यैकेन्द्रियत्वात् एकेन्द्रियपदे तस्यापि। परिग्रहात, वनस्पतिकालन प्रागेवोक्तः । द्वित्रिचतुरिन्द्रियसूत्रे सवयेयं कालं-सोयानि वर्षसहस्राणि "विगलिदिवाण वाससहस्सा संखेजा" इति वचनात् , पथेन्द्रियसूचे सातिरेक सागरोपमसहस्रं, तच नैरयिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवभवभ्रमणेन वेदितव्यं ।। 'एगिंदियापजत्लए ण भंते' इत्यादि, जघन्यत उत्कर्पतोऽन्तर्मुहूर्तमपर्याप्पलब्धेरेतावत्कालप्रमाणत्वात् , एवं शेषाण्यपि चत्वार्यपर्याप्तकसूत्राणि भावनीयानि, एकेन्द्रियपर्याप्तकसूत्रे सधेयानि वर्षसहस्राणि, एकेन्द्रियस्य हि पृथिवीकायस्योत्कर्षतो द्वात्रिंशतिर्वर्षसहस्राणि भवस्थितिः अप्कायस्य सप्त वर्षसहस्राणि तेजस्कायस्य त्रीणि रात्रिन्दिवानि वायुकायस्व त्रीणि वर्षसहस्राणि वनस्पतिकायस्थ दश वर्षसहस्राणि, ततो निरन्तरकतिपयपर्याप्तभवसङ्कलनया साधेयान्येव वर्षसहस्राणि घटन्त इति । द्वीन्द्रियपर्याप्तसूत्रे उत्कर्षत: सधेयानि वर्षाणि, द्वीन्द्रियस्य हि उत्कर्षतो| भवस्थितिपरिमाणं द्वादश वर्षाणि न च सर्वेष्वपि भवेपूत्कृष्टा स्थितिस्ततः कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवसङ्कलनयापि सोयानि वर्षाण्येव लभ्यन्ते न तु वर्षशतानि वर्षसहस्राणि वा । त्रीन्द्रियपर्याप्तसूत्रे सोयानि रात्रिन्दिवानि, तेषां भवस्थितरुत्कर्षतोऽप्येकोनपञ्चाशद्दिनमानतया कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवसङ्कलनायामपि सहयेयानां रात्रिन्दिवानामेव लभ्यमानत्वात् । चतुरिन्द्रियपर्याप्तसूत्रे सोया मासास्तेषां भवस्थितरुत्कर्षतः षण्मासप्रमाणतया कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवकालसङ्कलनया सोयानां मासानां प्राप्यमानत्वात् । पञ्चेन्द्रियपर्याप्तसूत्रे सागरोपमशतपृथक्वं सातिरेक, तञ्च पूर्ववत् ॥ 'एगिंदियस्स णं भंते ! अंतरं कालतो केवचिरं होइ?' इति -- - दीप अनुक्रम [३४४] -- - जी० ६९ ~820~ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [४], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२४] दीप अनुक्रम [३४४] श्रीजीवा- प्रसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तजैकेन्द्रियादुद्धत्व द्वीन्द्रियादावन्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूय एकेन्द्रियत्वेनोत्पद्यमा- प्रतिपत्ती जीवामिनस्य वेदितव्यं, उत्कर्षतो वे सागरोपमसहस्र सोयवर्षांभ्यधिके, यावानेव हि त्रसकायस्य कायस्थितिकालस्तावदेवैकेन्द्रियस्यान्तरं एकेन्द्रिमलयगि- सकायस्थितिकालश्च यथोक्तप्रमाणः, तथा च वक्ष्यति-तलकाइए णं भंते ! तसकायत्ति कालतो केवचिरं होइ, गोयमा ! जह- यादिस्थिरीयावृत्तिः णेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमन्महियाई। द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियसूत्रेषु जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तथा त्यादि पूर्वप्रकारेण भावनीयं, उत्कर्षतः सर्वत्रापि वनस्पतिकालः, द्वीन्द्रियादिभ्य उद्धृत्य वनस्पतिषु यथोक्तप्रमाणमनन्तमपि कालमवस्थानात् । ॥४०९॥ उद्देशः २ यथैवामूनि पञ्च सूत्राप्यन्तरविषयाण्यौधिकान्युक्तानि तथैव पर्याप्त विषयाण्यपर्याप्त विषयाण्यपि भणनीयानि, तानि चैवम्-'एगि-181 [सू०२२४ दियअपजत्तस्स णं भंते ! अंतरं कालतो केवचिरं होइ?, गोवमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तमुकोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमन्भहियाई, बेइंदियअपञ्चत्तस्स र्ण भंते ! अंतरं कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! जहण्णेणं अंतोनुहुत्तं उकोसेणं अतं कालं वणस्सइकालो, एवं जाब पंचेंदियअपज्जतस्स ।' एवं पञ्च पर्याप्तसूत्राण्यपि वक्तव्यानि ॥ साम्प्रतमस्पबहुलमाह एएसिणं भंते! एगिदि बेई० तेई० चउ० पंचिंदियाणं कयरेशहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सब्वत्थोवा पंचेंदिया चरिंदिया विसेसाहिया तेइंदिया वि. सेसाहिया बेइंदिया विसेसाहिया एगिदिया अणंतगुणा । एवं अपजत्तगाणं सव्वत्थोवा पंचेंदिया ०९॥ अपजत्तगा चउरिंदिया अपनत्तगा विसेसाहिया तेइंदिया अपजत्तगा विसेसाहिया बेइंदिया अपज्जत्तगाविसेसाहिया एगिदिया अपज्जत्सगा अणंतगुणा सइंदियाप० वि०॥सब्वत्थोवा चतुरिं अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~821~ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [४], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - --- + 4 प्रत सूत्रांक -7 [२२५] -58 दीप अनुक्रम दिया पजत्तगा पंचेंदिया पजत्तगा विसेसाहिया बेंदियपज्जत्तगा विसेसाहिया तेइंदियपजत्तगा विसेसाहिया एगिदियपजत्तगा अणंतगुणा, सइंदिया पज्जत्तगा बिसेसाहिया ॥ एतेसिणं भंते ! सइंदियार्ण पजत्तगअपज्जत्तगाणं कयरे २१, गोयमा सव्वत्थोवा सईदिया अपजत्तगा सइंदिया पजसगा संखेजगुणा । एवं एगिदियावि॥ एतेसिणं भंते। बेइंदियाणं पजत्तापज्जत्तगाणं अप्पाबडं, गोयमा सव्वत्थोवा बेइंदिया पज्जत्तगा अपज्जत्सगा असंखेजगुणा, एवं तेंदियचउरिदियपंचेंदियावि ।। एएसिणं मंते! एगिदियाणं बेइंदि० तेइंदि० चाउरिदि० पंचेंदियाण य पज्जत्तगाण य अपज्जत्तगाण य कयरे २१, गोयमा! सव्वत्थोवा चउरिंदिया पज्जत्तगा पंचेंदिया पजत्तगा विसेसाहिया बेइंदिया पजसगा विसेसाहिया तेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया पंचेंदिया अपज्जत्तगा असंखेजगुणा चउरिदिया अपजत्ता विसेसाहिया तेइंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया बेइंदिया अपज्जत्ता विसेसाहिया एगिदियअपलत्ता अर्णतगुणा सईदिया अपजत्ता विसेसाहिया एगिदियपजत्ता संखेजगुणा सइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया सइंदिया विसेसाहिया। सेत्तं पंचविघा संसारसमावपणगा जीवा ।। (सू० २२५) 'एएसि ण मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, मगवानाह-गौतम! सर्वतोकाः पञ्चेन्द्रियाः, सोययोजनकोटीकोटीप्रमाणविष्कम्भसूची-10 प्रमितपतरासयभागवयंसपेयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, विष्कम्भसूक्यास्तेषां प्रभूत-| [३४५] 2993 ~822~ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [४], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५] दीप अनुक्रम श्रीजीवा-सङ्ख्ययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया विशेषाधिकास्तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततरसाधेययोजनकोटीकोटी- प्रतिपत्ती जीवाभि- प्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया विशेषाधिकास्तेषां विष्कम्भसूथ्या: प्रभूततमसाययोजनकोटीकोटीमानखात्, तेभ्य एकेन्द्रिया31 एकेन्द्रिमलयगि-IC अनन्तगुणाः, बनस्पतीनामनन्तानन्तत्वात् ॥ सम्प्रत्येतेषामेवापर्याप्त विशेषणविशिष्टानामल्पबहुत्वमाह-एएसि ॥'मित्यादि प्रभसूत्रं याद्यल्प रीयावृत्तिःपाठसिद्धं, भगवामाह-गौतम! सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रिया अपर्याप्तकाः, एकस्मिन् प्रतरे यावन्त्यङ्गुलासाझवभागमात्राणि खण्डानि ताव-II बहवं प्रमाणत्वात् , तेभ्यश्चतुरिन्द्रियापर्याप्ता विशेषाधिकाः प्रभूततरामुलासहयभागखण्डप्रमाणत्वात् , तेभ्यस्त्रीन्द्रियापर्याप्ता विशेषाधिकाः देशा ॥४१०॥ प्रभूततरप्रतराङ्गुळासक्लयेयभागखण्डप्रमाणलात् , तेभ्यो द्वीन्द्रिवापर्याप्ता विशेषाधिका: प्रभूततमप्रतरामुलासवेयभागखण्डमानत्वात् , सू० २२५ तेभ्य एकेन्द्रियापर्याप्ता अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामपर्याप्तानामनन्तानन्ततया सदा प्राप्यमाणत्वात् ॥ अधुनतेषामेव पर्याप्तविशेषणविशिष्टानामल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोकाश्चतुरिन्द्रिया:पर्याप्ता यतोऽल्पायुषश्चतुरिन्द्रियास्तत: प्रभूतकालमवस्थानाभावात् पृच्छासमये स्तोका अवाप्यन्ते, ते च स्तोका अपि प्रतरे यावन्त्यनुलासययभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणा वेदितव्याः, तेभ्यः पञ्चेन्द्रियपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूततराखलासपेयभागखण्डमानत्वात् , तेभ्योऽपि | द्वीन्द्रियाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः प्रभूततरप्रतराङ्गुलसद्ध्येयभागवण्डप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि त्रीन्द्रियपर्याप्ता विशेषाधिकाः, खभावत एव तेषां प्रभूततराहुलसोयभागखण्डप्रमाणत्वात् , तेभ्य एकेन्द्रिया: पर्याप्ता अनन्तगुणाः, वनस्पतिकाविकानां पर्याप्तानामनन्तखात् ।। साम्प्रतमेतेषामेव प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तानां समुदितानामल्पबहुलमभिधित्सुः प्रथमत एकेन्द्रियाणामाह-एएसि ण'मित्यादि ॥४१०॥ प्रश्नसूत्रं गतं, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका एकेन्द्रिया अपर्याप्ताः, पर्याप्तकाः सोयगुणाः, एकेन्द्रियेषु हि बहवः सूक्ष्माः सर्वलो SCAS [३४५] Janta अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~823~ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२२५] दीप अनुक्रम [ ३४५ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - *** प्रतिपत्तिः [४], उद्देशक: [-] मूलं [ २२५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: कापन्नत्वात् सूक्ष्माचा पर्याप्ताः सर्वस्तोकाः पर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणाः, द्वीन्द्रियसूत्रे सर्वस्तोका द्वीन्द्रियापर्यंता यावन्ति प्रतरेऽङ्गुलस्य सत्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात् तेषां तेभ्योऽपर्याप्ता असश्लेयगुणा: प्रतरगताङ्गुलायेयभागखण्डप्रमाणत्वात् एवं त्रिचतुरिन्द्रियप न्द्रियारूपबहुत्वाम्यपि वक्तव्यानि ॥ साम्प्रतमेकेन्द्रियाणां समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानामल्पबहुत्वमाह - 'एएसि णमित्यादि, इदं प्रागुक्ततृतीयद्वितीयाल्पबहुत्व भावनानुसारेण स्वयं भावनीयं तवतो भावितात् उपसंहारमाह- 'सेत्तं पंचविहा' | इत्यादि । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां पञ्चविधा प्रविपत्तिः चतुर्थी समाप्ता ॥ ADDE उक्ता, पञ्चविधा प्रतिपत्तिरधुना क्रमप्राप्तां पचिधप्रतिपत्तिमभिधित्सुराह - तत्थ णं जे ते एवमाहं छविबहा संसारसमावण्णगा जीवा ते एवमाहंसु, तंजहा- पुढविकाइया आउकाइया तेज० वाड० वणस्सतिकाइया तसकाइया ॥ से किं तं पुढवि० १, पुढवी० दुबिहा पण्णत्ता तं०—सुहुमपुढविक्काइया बादरपुढविकाइया, सुहुमपुढविकाइया दुबिहा पण्णत्ता, तंजा-पजतगाय अपजतगाय । एवं वायरपुढविकाइयावि, एवं चउकरणं भेएणं आउतेउवा उवणस्सतिकाइयाणं चतु० णेयब्वा । से किं तं तसकाइया १, २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा - पत्तगा य अपजगाय ॥ (० २२६) पुढविकाइयस्स णं भंते! केवलियं कालं किती पण्णत्ता?, गोयमा। जहणेणं अंतोमुद्दत्तं कोण बावीस वाससहस्साइं एवं सज्वेसिं ठिती णेयव्वा, तसकाइयस्स जहनेणं For P&Praise Cnly अत्र चतुर्थी "पञ्चविधा" प्रतिपत्तिः परिसमाप्ताः अथ पञ्चमी "षड्विधा" प्रतिपाति: आरब्धा: संसारिजीवानाम् षड्ड्वधत्वेन प्ररुपणं- पृथ्वि, अप, तेज, वायु, वनस्पतिपर्यन्त एवं त्रस-जीवाधिकारः आरभ्यते ~824~ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [५], -------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२६-२२८] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६ श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः -२२८] ॥४११॥ गाथा अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, अपजत्तगाणं सब्बेसि जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतो ५ प्रतिपत्ती मुहतं, पजत्तगाणं सब्वेसिं उकोसिया ठिती अंतोमुहत्तऊणा कायव्वा ॥ (सू०२२७) पुढविका- पृथ्व्यादीइए णं भंते! पुढविकाइयत्तिकालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुसं उक्कोसेणं ना भेदाः असंखेज कालं जाव असंखेजा लोया एवं जाव आउ० तेउ० बाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणे अर्णतं स्थितिःकाकालं जाव आवलियाए असंखेजतिभागो।तसकाइए णं भंते ! जहमेणं अंतोम० उक्कोस्सेणं वो यस्थितिः सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई । अपजत्तगाणं छण्हवि जहणणेणवि उकोसेणवि उद्देशः२ अंतोमुहुत्तं, पजत्तगाणं-'वाससहस्सा संखा पुढविदगाणिलतरूण पज्जत्ता । तेक राइदिसंखा सू०२२६तससागरसंतपुहुत्ताई ॥१॥ पजसगाणवि सव्वेसिं एवं ॥ पुढविकाइयस्स णं भंते! केव २२८ तियं कालं अंतरं होति ?, गोयमा जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणप्फतिकालो । एवं आउतेउवाउकाइयाणं वणस्सइकालो, तसकाइयाणवि, वणस्सइकाइयस्स पुढविकाइयकालो । एवं अपजसगाणवि वणस्सइकालो, वणस्सईणं पुनविकालो, पजत्तगाणवि एवं चेव वणस्सइकालो, पजत्तवणस्सईणं पुढविकालो ॥ (सू०२२८) 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तः पद्विधाः संसारसमापनका जीवास्ते 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेणोक्तवन्तः, तमेव प्रकार-18॥४१॥ माह, तद्यथा-पृथ्वीकाथिका इत्यादि प्राग् व्याख्यातं ॥ से किं तं पुढविक्काइया' इत्यादीनि पृथिव्यप्लेजोवायुवनस्पतिविषयाणि त्रीणि दीप अनुक्रम [३४६-३५० अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~825~ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२२६ -२२८] गाथा दीप अनुक्रम [३४६ -३५०] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [ ५ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. उद्देशक: [-], मूलं [२२६-२२८] + गाथा आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः त्रीणि सकायविषयमेकमिति सर्वसङ्गाया षोडश सूत्राणि पाठसिद्धानि || 'पुढविकाइयस्स णं भंते!' इत्यादि स्थितिविषयं सूत्रप सुप्रतीतं, तत्र जघन्यं सर्वत्राप्यन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पृथिवीकायिकस्य द्वाविंशतिर्वर्षसहस्राणि tarfarer aप्त तेजस्कायिकस्य त्रीणि रात्रिन्दिवानि वातकायस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि वनस्पतिकायस्य दशवर्षसहस्राणि सकायस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । अपर्याप्तविपयाण्यपि षट् सूत्राणि पाठसिद्धानि, सर्वत्र जघन्यत उत्कर्षतान्तर्मुहूर्त्ताभिधानात् नवरमुत्कृष्टमन्तर्मुहूर्त्त बृहत्तरं वेदितव्यं । पर्यातविषया षट्सूत्री पाठसिद्धा, नवरमन्तर्मुहूतनत्वं अपर्याप्तकालभाविनाऽऽन्तर्मुहूर्तेन हीनखात् ॥ सम्प्रति कार्यस्थितिमाह – 'पुढ | विकाइए णं भंते! पुढविकाइय'त्ति इत्यादि प्रसूनं सुगमं, भगवानाह - गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, पृथ्वीकायादुद्धृत्यान्यन्त्रान्तमुहूर्त्त स्थित्वा भूयः पृथिवीकायत्वेन कस्याप्युत्पादात्, उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयं कालं, तमेत्र कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-असङ्ख्या उत्सर्पिव्यवसर्पिण्यः, एषा कालतो मार्गणा, क्षेत्रतोऽसङ्ख्या लोकाः, किमुक्तं भवति ? - असङ्ख्येयेषु लोकप्रमाणेष्वाकाशखण्डेषु प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे यावता कालेन तान्ययान्यपि लोकाकाशखण्डानि निर्लेपितानि भवन्ति तावन्तमसङ्ख्येयं कालं यावदिति । | एवमप्तेजोवायुसुत्राण्यपि वक्तव्यानि । वनस्पतिसूत्रे जघन्यं तथैव, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं तमेव कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-अनन्ता उत्सपिण्यवसर्पिण्यः, कालत एषा मार्गेणा, क्षेत्रतोऽनन्ता लोका:- अनन्तानन्तेषु लोकालोकाकाशेषु प्रति समयमेकैकप्रदेशापहारे यावता कालेन तान्यपि लोकालोकाकाशखण्डानि निर्लेपानि भवन्ति तावन्तमनन्तकालमित्यर्थः तमेव पुलपरावर्त्तेन निरूपयति-अज्ञेयाः पुद्गलपरावर्त्ताः, पुद्गलपरावर्त्तस्वरूपं पञ्चसङ्गहृदीकातो भावनीयं पुद्गलपरावर्त्तगतमेवासयेयत्वं निर्द्वारयति - 'ते ण'मित्यादि, ते पुद्रलपरावर्त्ता आवलिकाया असङ्ख्येयो भागः, आवलिकाया असयेये भागे यावन्तः समयास्तावन्त इत्यर्थः अयं चार्थीऽन्यत्रापि For P&Praise City ~826~ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [५], -------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२६-२२८] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- जीवाभि [२२६ -२२८] रीयावृत्तिः ॥४१२॥ गाथा सद्धेपेणोक्त:- अस्संखोसप्पिणीसप्पिणीउ एगिदियाण य चउण्डं । ता चेव ऊ अणता वणस्सईए उ बोद्धव्या ॥१॥" सकायसूत्रे ||8/५प्रतिपत्तों सागरोपमसहस्रे साहयेयवर्षाभ्यधिके, एतायत एवाव्यवधानेन त्रसकायत्वकालस्य केवलवेदसोपलब्धत्वात् । अपर्याप्त विषयायां षट्सूध्यांदा पृथ्व्यादी| सर्वत्रापि जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्तम् , अपर्याप्तलब्धेरुत्कर्षतोऽप्येतावत्कालप्रमाणत्वात् । पृथिवीकायिकपर्याप्तसूत्रे उत्कर्षत: सये- ना भेदार | यानि वर्षसहस्राणि, पृथिवीकायिकस्य हि भवस्थितिरुत्कर्षतोऽपि द्वाविंशतिवर्षसहवाणि ततः कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवमीलने सहये-४स्थितिःकायानि वर्षसहस्राणि लभ्यन्ते नाधिक । एवमष्कायिकसूत्रेऽपि वक्तव्यं, तेजस्कायिकसूत्रे सवेवानि रात्रिन्दिवानि, तेजस्कायिकस्य हियस्थितिः भवस्थितिरुत्कर्षतोऽपि त्रीणि रानिन्दिवानि, ततो निरन्तरकतिपयपर्याप्तभवसङ्कलनायामपि सोयानि रानिन्दिवानि लभ्यन्ते न तु | उद्देशः२ मासा वर्षाणि वर्षसहस्राणि वा। वायुकायिकसूत्र वनस्पतिकायिकसूत्रं पृथिवीकायिकसूत्रवत् । त्रसकायसूत्रे सागरोपमशतपृथक्वं सा-18सू०२२६तिरेकम् ।। सम्प्रत्यन्तरनिरूपणार्थमाह-'पुढविकाइयस्सणं भंते ! इत्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्त - २२८ हूर्त पृथिवीकायादृद्धृत्यान्यत्रान्तर्मुहूर्त खिला भूयः पृथिवीकायिकखेन कस्यचिदुत्पादात्, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चानन्त: काल: प्रागुक्तस्वरूपो वनस्पतिकाल: प्रतिपत्तव्यः, पृथिवीकायादुद्धृत्य तावन्तं कालं बनस्पतिष्ववस्थानसम्भवात् । एक्लप्तेजोवायुप्रससूत्राण्यपि भावनीयानि । वनस्पतिसूत्रे उत्कर्षतोऽसझवेयं कालम् 'असंखेजाओ उस्तप्पिणीओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा' इति वक्तव्यं, वनस्पतिकायादुद्दत्य पृथिव्यादिष्ववस्थानात् तेषु च सर्वेषप्युत्कर्षतोऽप्येतावत्कालभावात् । सम्प्रत्यल्पबाखमाहअप्पायरयं-सव्वस्थोवा तसकाइया तेउकाइया असंखेजगुणा पुढविकाइया बिसेसाहिया आज ॥४१२॥ काइया विसेसाहिया वाउकाहया विसेसाहिया वणस्सतिकाइया अर्णतगुणा एवं अपजत्तगावि 25456 दीप अनुक्रम [३४६-३५०] 52545 Jaxsride अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~827~ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२२९ -२३०] दीप अनुक्रम [३५१ -३५२] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [५], उद्देशक: [-] मूलं [२२९-२३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: परागावि ॥ एतेसि णं भंते! पुढविकाइयाणं पज्जत्तगाण अपजत्तगाण य कयरे२हिंतो अप्पा वा एवं जाव विसेसाहिया ?, गोयमाः सव्वत्थोवा पुढविकाइया अपजत्तगा पुढविकाइया पजत्तगा संखेजगुणा, एतेसि णं० सव्वत्थोवा आउकाइया अपनत्तगा पजत्तगा संखेज्जगुणा जाव वणस्स तिकाइयावि, सव्वत्थोवा तसकाइया पञ्चत्तगा तसकाइया अपजन्तगा असंखेजगुणा ॥ एएसि णं भंते! पुढविकाइयाणं जाव तसकाइयाणं पञ्जन्तगअपज्जत्तगाण य करे२हिंतो अप्पा वा ४१, सव्वत्थोवा तसकाइया पजत्तगा तसकाइया अपजत्तगा असंखेज्जगुणा तेउकाइया अपत्ता असंखेज्जगुणा पुढविकाइया आउक्काइया वाउक्काया अपजसगा विसेसाहिया उक्काइया पत्ता संखेनगुणा पुढविआउवाउपजत्तगा विसेसाहिया, वणस्सतिकाइया अपजत्तगा अनंतगुणा, सकाइया अपज्ञत्तगा विसेसाहिया, वणस्सतिकाइया पज्जसगा संखेज्जगुणा, सकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया || (सूत्रं २२९) मुहमस्स णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोमा ! जहत्रेणं अंतोमुहतं उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं एवं जाव सुडुमणिओयरस, एवं अपज्जतगाणवि पज्जत्तगाणवि जहणेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुद्दत्तं ॥ ( सू० २३० ) 'एएसि ण 'मित्यादि, सर्वस्तोकास्त्रसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव त्रसकायत्वात् तेषां च शेषकायापेचयाऽल्पत्यात्, तेभ्यस्तेजस्का For P&Pale Chy ~828~ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [9], ---------------------- उद्देशक: [-], -------------------- मूलं [२२९-२३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२९-२३०] दीप अनुक्रम [३५१-३५२] श्रीजीवा- यिका असल्येयगुणाः, असायेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्यः पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूतासयलोकाकाशप्रदेश- ५प्रतिपत्तौ जीवाभिमाणत्वात् तेषां च शेषकायापेक्षयाऽल्पलात् , तेभ्योऽष्कायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासषेयभागलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , पृथ्व्यादीमलयगि तेभ्यो वायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासक्यलोकाकाशप्रदेशमानत्वात् , तेभ्यो वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, अनन्तलोका- नामल्पबरीयावृत्तिः है काशप्रदेशमानलात् ॥ साम्प्रतमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमल्पबहुलमाह-एएसि ण मित्यादि, एतदपि तथैव । अधुनैतेषामेव त्वं सू॥४१३॥ पर्याप्तानामल्पबद्दुत्वमाह-एएसि ण'मित्यादि, एतदपि तथैव ।। साम्प्रतमेतेषामेव पृथिवीकायादीनां प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तगताल्पव- मस्य स्थिहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोकाः पृथिवीकायिका अपर्याप्ताः पर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणाः, पृथिवीकायिका हि बहवः सूक्ष्मा: तिः । सकललोकगतत्वात् , तेषु च पर्याप्ताः सपेयगुणाः, पवमप्लेजोवायुवनस्पतिसूत्राणि भावनीयामि, त्रसकायसूत्रे सर्वसतोकाः पर्याप्तास्त्र- उद्देशः२ सकाविका अपर्याप्तका असहयगुणाः, प्रसकायानां पर्याप्तानां यथाक्रमं प्रतरगताङ्गुलसक्येयभागखण्डप्रमाणत्वात् ॥ साम्प-10सू०२२९. तमेतेषां समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानामल्पबहुखमाह-एएसिणं भंते। इत्यादि, सर्वसोकाखसकायिकाः पर्याप्तास्तेभ्यससकायिका २३०. अपर्याप्ता असोयगुणाः, अत्र कारणं प्रागेवोक्तं, ततसेजस्कायिका अपर्याप्ता असायगुणा: असल्यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणलात्, ततः पृथिव्यवाययोऽपर्याप्तका: क्रमेण विशेषाधिकाः प्रभूतप्रभूततरप्रभूततनासहवलोकाकाशप्रदेशराशिभानत्वात् , तदनन्तरं तेज-13 स्कायिकाः पर्याप्ता: सोयगुणाः, सूक्ष्मेवपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानां सोयगुणत्वात् , ततः पृथिव्यब्वायवः पर्याप्ताः क्रमेण विशेषाधिका:, ततो वनस्पतिकायिका अपर्याप्ता अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशराशिमानवात् , तेभ्यो पनस्पतिकायिका: पर्याप्ताः सोयगुणाः सूक्ष्मेवपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानां सोयगुणत्वात् सूक्ष्माश्च सर्ववह्व इति तदपेक्षभिमल्पबहुखम् ।। सम्प्रत्यमीषामेव कायानां सूक्ष्माणां 15 P ataayai अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~829~ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२९-२३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [२२९-२३०] % MC % दीप अनुक्रम माथित्यादि चिचिन्तयिषुराह-'सुहमस्स णं भंते' इत्यादि, सूक्ष्मस्व सामान्यतो निगोदरूपस्यानिगोदरूपस्य वा भदन्त ! कियन्तं कालं | स्थिति: प्रज्ञप्ता, भगवानाह-गौतम! जयन्बेनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षणाप्यन्तर्मुहूर्त, नवरमुत्कर्षतो विशेषाधिकमवसातव्यम् , अन्यथोत्कर्षायोगात् । एवं सूक्ष्मपृथिवीकायाप्कायिकतेजस्कायिकवायुकायिकबनस्पतिकायसूक्ष्मनिगोदविषयाण्यपि षट् सूत्राणि वक्तव्यानि, अथ | सूक्ष्मवनस्पतिर्निगोदा एव ततस्तत्सूत्रेणैव गतमिति किमर्थ पृथग् निगोदसूत्र ?, तद्युक्तं सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् , सूक्ष्मवनस्पतयो हि जीवा विवक्षिताः, सूक्ष्मनिगोदास्तु प्रत्येकमनन्तानां जीवानामाधारभूताः शरीररूपाततो न कश्चिद्दोषः, उक्तच्च-गोला य असंखेजा असंखनिगोदो य गोलओ भणिओ । एकिकमि निगोए अणंतजीवा मुणेयम्बा ॥१॥ एगो असंखभागो वट्टर उठबट्टणोववायमि । एगनिगोदे निचं एवं सेसेसुवि स एव ॥२॥ अंतोमुहुत्तमेत्तं ठिई निगोयाण जंति निद्दिवा । पटृति निगोया तम्हा अंतोमुहत्तेणं ॥ ३॥" आसामक्षरगमनिका-सूक्ष्मनिगोदैः सकल एवं लोकः सर्वतो व्याप्तोऽजनचूर्णपूर्णसमुद्भवत्, तस्मिन्नित्यं निगोदैव्याप्ते लोके निगोदमात्रावगाहना असोया निगोदा वृत्ताकारा बृहत्प्रमाणा गोलका इति व्यपदिश्यन्ते, निगोद इति च नाम अ-| नन्तानां जीवानामेकं शरीरं, तत उक्तम्-असोया गोलाः, एकैकनिश्च गोलकेऽसोया निगोदा एकैकश्च निगोदः अनन्तजीव इति, एकस्मिंश्च निगोदे येऽनन्ता जीवास्तेषामेकोऽसयतमो भागः प्रतिसमयमुद्वर्त्ततेऽन्यश्चोत्पद्यते, तथा हि विवक्षिते समये विवक्षितस्य निगोदस्सैकोऽसलयेयतमो भाग उद्वर्त्ततेऽन्यश्चासल्येयतमो भागस्तस्मिन्नपूर्व उत्पद्यते, द्वितीयेऽपि समयेऽन्योऽसयेयभाग उद्वर्त्तते अन्यश्चापूर्व उत्पद्यते, एवं सकलकालमनुसमयमुनोपपात्तौ, अत एव एगनिगोदे निष'मिति नित्यग्रहणं, यथा चैकस्मिन्निगोदे तथा सर्वेष्वप्यसोयेषु सर्वलोकन्यापिषु निगोवेषु प्रतिपत्तव्यं, सर्वेषामपि च निगोदानां निगोदजीवानां स्थितिर्विनिर्दिष्टाऽन्तर्मुहूर्तमात्रं [३५१ +ASCACANCE -३५२] ~830~ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२२९ -२३०] दीप अनुक्रम [३५१ -३५२] श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ४१४ ॥ Ja Ehem “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्तिः [५], उद्देशक: [-] मूलं [२२९-२३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: तस्मात्सर्वेऽपि निगोदा अनुसमय मुहूर्त्तनोत्पाताभ्यामन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण परावर्तन्ते न च शून्या भवन्तीति । एवं सप्तसूत्री अपर्याप्तविषया सप्तसूत्री पर्याप्तविषया वक्तव्या, सर्वत्रापि जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त्तम् ॥ सम्प्रति काय स्थितिमाह — सुमे णं भंते! सुमेति कालतो केवचिरं होति ?, गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहसं उकोसेणं अ संखेलका जाव असंखेजा लोया, सब्वेसिं पुढविकालो जाव सुहमणिओयस्स पुढविक्कालो, अपजत्तगाणं सव्धेसिं जहण्णेणवि उक्कोसेणचि अंतोमुहतं, एवं पजत्तगाणवि सब्वेसिं जहणणेणवि उकोसेणवि अंतोमुत्तं ॥ (सू० २३१) सुहमस्स णं भंते! केवतियं कालं अंतरं होति ?, गोयमा ! जहणेणं अंतो० उको० असंखेनं कालं कालओ असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जति भागो, सुहुमवणस्सतिकाइयस्स सुमणिओयस्सवि जाव असंखेजइभागो । पुढविकाइयादीणं वणस्सतिकालो। एवं अपजतगाणं पञ्जसगाणवि || (सू०२३२) 'सुणं भंते! सुमेत्तिकालओ' इत्यादि प्रनसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम्, अन्तर्मुहूर्त्तानन्तरं वादरपृथिव्यादावुत्पादात् उत्कर्षतोऽसयकालं तमेवासहयकालं कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति असङ्ख्या उत्सर्पिण्यव सर्पिण्यः, एषा कालतो मार्गेणा क्षेत्रतोऽसङ्ख्या लोका:, असयानां लोकाकाशानां प्रतिसमयमेकैकाकाशप्रदेशापहारे यावता कालेन निर्लेपता भ वति तावान् असज्ञेयः काल इति भावः । एवं सूक्ष्मपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिनिगोदसूत्राण्यपि भावनीयानि । सम्प्रति सूक्ष्मादीनामेवापर्याप्तानां कार्यस्थितिमभिधित्सुराह - 'सुहुमअपज्जत्तए णं भंते' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! जघन्यतोऽ For P&False Cinly ५ प्रतिपत्तौ सूक्ष्मस्य कार्यस्थितिरन्तरं च * उद्देशः २ सू० २३१ २३२ ~831~ | ॥ ४१४ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: (१), -------------------- उद्देशकः -1, ------------------- मूलं (२३१-२३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३१-२३२] दीप अनुक्रम न्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्तम् , अपर्याप्तस्थावरस्यैतावत्कालप्रमाणत्वात् , एवं सूक्ष्मापर्याप्तपृथिव्यादिविषयाऽपि षट्सूत्री नक्तव्या। एवं पर्याप्त विषयाऽपि सप्तसूत्री ।। साम्प्रतमन्तरं चिचिन्तयिषुराह-'सुहुमस्स ण'मित्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनाम्तमुहर्स, सूक्ष्मात्य बादरपुथिव्यादावन्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयः सूक्ष्मपृथिव्यादौ कस्याप्युत्पादात् , उत्कर्षतोऽसपेयं कालं, तमेवासायं कालं कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-असोया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, कालत एषा मार्गणा, क्षेत्रतोलस्यासयो भागः । किमुक्तं भवति ?-अालमात्रक्षेत्रस्यासहपेयतमे भागे ये आकाशप्रदेशास्ते प्रतिसमवमेकैकप्रदेशापहारे यावतीभिरुत्सर्पिण्यवसपिणी-1 भिनिलेपा भवन्ति तावत्य इति ॥ 'सुहमपुढविक्काइयस्त णं भंते! इत्यादि प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुशहूर्त्त, सद्भावना प्रागिव, उत्कर्षतोऽनन्त कालं, 'जाव आवलियाए असंखिजइभागो' इति यावत्करणादेवं परिपूर्णपाठः-अणनाओ उस्सप्पिणीभीसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अर्णता लोगा असंखेजा पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेनइभागो' अस्य | व्याख्या पूर्ववत्, भावना लेषम्-सूक्ष्मपृथिवीकायिको हि सूक्ष्मपृथिवीकायिकभवादुद्दयानन्तर्येण पारम्पर्येण वा वनस्पतिष्यपि मध्ये गच्छति तन्त्र पोत्कर्षत एतावन्त कालं विष्ठतीति भवति यथोक्तप्रमाणमन्तरं, एवं सूक्ष्माप्कायिकतेजस्कायिकवायुकायिकसुत्राण्यपि। वक्तव्यानि । सूक्ष्मवनस्पतिकायिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसषयं कालं, स चासयेयः कालः पृथिवीकालो वक्तव्यः,स चैवम् -असंखेजा उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा' इति, सूक्ष्मवनस्पतिकायभवादुजतो हि बादरवनस्पतिषु। सूक्ष्मवादरपृथिव्यादिषु चोपयते तत्र च सर्वत्राप्युत्कर्षतोऽप्येतावन्तं कालमवस्थानमिति यथोक्तप्रमाणमेवान्तर, एवं सुक्ष्मनिगोदस्या [३५३ -३५४] जी०७० ~832~ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], ---------------------- उद्देशक: [-], ------------------ मूलं [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 25-2564% सूत्रांक [२३३] सूक्ष्माल्पबहुत्वं उद्देशः२ सू०२३३ दीप अनुक्रम [३५५] श्रीजीवा- प्यन्तरं वक्तव्यं, यथा यमौधिकी सप्तसूत्री उमा तथाऽपर्याप्सविषया सप्तसूत्री पर्याप्त विषया च सप्तसूत्री वक्तव्या, नानात्वाभावात्॥ जीवाभिसाम्प्रतमेतेषामरूपबहुक्माहमलयगि- एवं अप्पाबहुगं, सव्वत्योवा सुहमतेउकाइया सुहुमपुढविकाइया विसेसाहिया सुहुमाउबाऊ विरीयावृत्तिः सेसाहिया सुहमणिओया असंखेजगुणा सुहुमवणस्सतिकाइया अणंतगुणा मुहुमा पिसेसाहिया, एवं अपज्जत्तगाणं, पजत्तगाणवि एवं चेव ॥ एतेसिणं भंते! मुहमाणं पजत्सापजत्ताणं कयरे०१, ॥ ४१५॥ सम्वत्थोवा मुहुमा अपजत्तगा संखेजगुणा पजत्तगा एवं जाव सुहमणिगोया। एएसि णं भंते! सुहमाणं सुहमपुढधिकाइयाणं जाव सुहमणिओयाण य पजत्तापजत्सा. कपरे २१, सब्वत्थोवा मुहुमतेउकाइया अपजसगा सुहुमपुदविकाइया अपञ्चत्तगा विसेसाहिया मुहुमआउअपज्जत्ता विसेसाहिया सुहुमवाउअपनसा विसेसाहिया सुहुमतेउकाइया पजत्तगा संखेजगुणा सुहुमपुढविआउवाउपजत्तगा विसेसाहिया सुहमणिओया अपनत्सगा असंखेजगुणा सुहमणिजोया पजसगा संखेजगुणा सुहमवणस्ससिकाइया अपजत्सगा अणंतगुणा सुहमअपजत्ता विसेसाहिया सुहमषणस्सइपजसगा संखेजगुणा मुहुमा पजसा विसेसाहिया ॥ (सू०२३३) 'एएसि ण'मित्यादि, सर्वस्सोकाः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः, असोयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वाम् , तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूतासङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वात् , सेभ्यः सूक्ष्माप्कायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासङ्घयेयलोफाकाशप्रमाणलात्, कर ॥४१५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~833~ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], ---------------------- उद्देशक: [-], ------------------ मूलं [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३३] तेभ्यः सूक्ष्मवायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासयेवलोकाकाशप्रदेशराशिमानत्यान् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा असोयगुणाः तेषां । दाप्रतिगोलकमसमययत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिनिगोदमनन्तानां सहायात् , तेभ्य: सामान्यतः सूक्ष्मा | विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथ्वीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् , तेषामौधिकानामिदमल्पबहुत्वम् । इदानीमेतेषामेवापर्याप्तानामाह-ए-| ४ एसिणं भंते ! सुहुमअपज्जत्ताण मित्यादि सर्व प्राग्वद् भावनीयं । साम्प्रतमेतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह-एएसिणं साभंते ! सुहमपज्जत्तगाण'मित्यादि, इदमपि प्रागुक्तकमेणैव भावनीयं ।। अधुनाऽमीषामेव सूरीमादीनां प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तगतान्यल्प बहुलान्याह-एएसि णं भंते ! मुहुमाणं पज्जत्तगाणमित्यादि, इह बादरेषु पर्याप्तभ्योऽपर्याप्ता असल्यगुणाः, एफैकपर्याप्तनिश्रया असपेयानामपर्याप्तानामुत्पादात् , तथा पोकं प्रज्ञापनायां प्रथमे प्रज्ञापनाख्ये पड़े-"पजत्तगनिस्साए अपजत्तगा बकमंति, जस्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इति, सूक्ष्मेषु पुनर्नायं क्रमः, पर्याप्ताश्चापर्याप्तापेक्षया चिरकालावस्थायिन इति सदैव ते बहवो | लभ्यन्ते तत उक्तं सर्वस्तोका: सूक्ष्मा अपर्याप्ताः तेभ्यः सूक्ष्मा: पर्याप्तकाः सयेयगुणाः, एवं पृथ्वीकायादिष्वपि प्रत्येक भावनीयम् ॥ | गतं चतुर्थमल्पबहुत्वमिदानीं सर्वेषां समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानां पञ्चममल्पबहुत्वमाह-एएसि ण'मित्यादि, सर्वस्त्रोकाः सूक्ष्मतेजस्कायिका अपर्याप्ताः, कारणं प्रागेवोक्तं, तेभ्यः सूक्ष्मपृथिव्यब्वायवोऽपर्याप्ताः क्रमेण विशेषाधिकाः, अत्रापि कारणं प्रागेवोक्त तेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः सोयगुणाः, अपर्याप्तेभ्य: पर्याप्तानां सोयगुणानामेव भावितत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मपृथिव्यव्वा18] यवः पर्याप्ताः क्रमेण विशेषाधिकाः, कारणं प्रागेवोक्तं, ततः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ता असलयेयगुणास्तेषामतिप्राचुर्यात् , तेभ्यः सूक्ष्मा निगोदाः पर्याप्ताः सहपेयगुणाः, सूक्ष्मेवपर्याप्तेभ्य: पर्याप्तानामोपतः सोयगुणलात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्त अन 15% दीप अनुक्रम [३५५] CG+ lam Escamom.inha ~834~ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [१], ---------------------- उद्देशक: [-], ------------------ मूलं [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३३] दीप अनुक्रम [३५५] श्रीजीवा- तगुणा:, प्रतिनिगोदमनन्तानां तेषां भावात् , तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथ्वीकायिकादीनामपि तत्र प्रतिपत्ती जीवाभिप्रक्षेपात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणाः, सूक्ष्मेषु हि अपर्याप्तेभ्यः पर्याप्ताः सवेवगुणाः, यश्चापान्तराले विशे- बादरस्य मलयगि- पाधिकवं तदल्पमिति न सहयगुणत्वव्याघातः, तेभ्य: सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिव्यादीनामपि पर्याप्ताना | | स्थितिः रीयावृत्तिः तत्र प्रक्षेपात् ।। सम्प्रति बादरादीनां स्थित्यादि निरूपयति उद्देशः२ बायरस्स णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमु० उको० तेत्तीसं सू०२३४ सागरोवमाई ठिई पपणत्ता, एवं बायरतसकाइयस्सवि वायरपुढवीकाइयस्स बावीसवाससहस्साई वायरआउस्स सत्तवाससहस्सं वायरतेउस्स तिषिण राइंदिया वायरवाउस्स तिपिण वाससहस्साई वायरवण दसवाससहस्साई, एवं पत्तेयसरीरबादरस्सवि, णिओयस्स जहन्नेणवि एकोसेणवि अंतोमु०, एवं वायरणिओयस्सवि, अपजत्तगाणं सव्वेसिं अंतोमुहत्तं, पज्जत्तगाणं उक्कोसिया ठिई अंतोमुहुत्तूणा कायब्वा सव्वेसिं ॥ (सू०२३४) 'बायरस्स णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम ! जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तत ऊ मरणात् , उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशहासागरोपमाणि, एवं बादरपूधिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिप्रत्येकबादरवनस्पतिनिगोदवादरनिगोदवादरत्रसकायिकसूत्राण्यपि वक्तव्यानि, सर्वत्र हि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तम् , उत्कर्षचिन्तायामयं विशेष:-बादरपृथिवीकायिकस्योत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि बादराष्कायिकस्य सप्त वर्षसहस्राणि बादरतेजस्कायिकस्य त्रीणि रात्रिन्दिवानि बादरवायुकायिकस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि सामान्यतो बादरवनस्पतिकायिकस्य || 4--04 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~835~ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३४] दीप अनुक्रम [ ३५६ ] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्तिः [५], उद्देशक: [-], मूलं [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: दश वर्षसहस्राणि प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायस्य दश वर्षसहस्राणि सामान्यतो निगोदस्य जघन्येनाप्युत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त बादरनिगोद्स्य जघन्यत उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त बादरत्रसकायस्त्र जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ॥ सम्प्रत्येतेषामेव सामान्यतो बादरादीनां दशानामपर्याप्तानां स्थिति चिचिन्तयिषुः सूत्रदशक माह - 'बायरअपजत्तगस्स णं भंते!" इत्यादि पाठसिद्धं, सर्वत्र जघन्यत उत्कर्षतञ्चान्तर्मुहूर्त्ताभिधानात् ॥ साम्प्रतमेतेषामेव पर्याप्तानां स्थितिं चिन्तयति — 'बांदरपजत्तगस्स णं भंते!' इत्यादि, जघन्यतः सर्वत्राप्यन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः सामान्यतो वादरस्य त्रयत्रिंशत्लागरोपमाण्यन्तर्मुहूर्त्तानानि, अपर्याप्तकावस्था भाविनाऽन्तर्मुहू चैनोनत्वात् एवं बादरपृथिवीकायिकपर्याप्तकस्य द्वाविंशतिर्वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूतनानि वादराप्कायिकस्य पर्याप्तकस्य सप्त वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्त्तेनानि बादरतेजस्कायिकपर्याप्तकस्य त्रीणि रात्रिन्दिवानि अन्तर्मुहूतनानि, बादरवायुकायिकपर्याप्तस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूतनानि वादरवनस्पतिकायपर्याप्तकस्य दश वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्त्तनानि, प्रत्येकबादरवनस्पतिकायिकपर्यातकस्यापि दश वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूतनानि, सामान्यतो निगोदपर्याप्तकस्य बादरनिगोदपर्याप्तकस्य च जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त, बादरत्रसकायिकपर्याप्तस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहूतनानि ॥ साम्प्रतं कार्यस्थितिमाह वायरे णं भंते! बायरेति कालओ केवचिरं होति ?, जह० अंतो० उकोसेणं असंखेजं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेतओ अंगुलस्स असंखेजति भागो, बायरपुढविकाइआडवा पत्तेयसरीरवादरवणस्स इकाइयस्स बायरनिओयस्स० [वायरवणस्सस्स जह For P&Permalise Cly ~836~ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: 1, ------------------- मूलं [२३५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३५]] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥४१७॥ गाथा: * अंतोषको असं असं उस्स० कालओ खेत्तओ अंगु० असं० पत्तेगसरीरयादरवणस्सतिकाह- ५ प्रतिपत्ती यस्स बायरनिगोअस्स पुढवीच, बापरणिओयस्सणं जह० अन्तो उको अर्थतं कालं अर्णता उस्स० | बादरस्य कालओ खेत्तओ अड्डाइजा पोग्गल०] एतेसिं जहपणेणं अंतोमु उक्कोसेणं सत्तरि सागरोवमको- कायस्थि. डाकोडीओ संखातीयाओ समाओ अंगुलअसंखभागो तहा-असंखेजा उ० ओहे य वापरतरु- ठा तिः अणुबंधो सेसओ वोच्छं । उस्सप्पिणि २ अडाइयपोग्गलाण परियद्दा ॥ उदधिसहस्सा खलु उद्देशः२ साधिया होंति तसकाए ॥१॥ अंसोमुहुत्तकालो होइ अपजत्तगाण सम्वेसि ।। पज्जत्तवायरस्स य सू०२१५ वायरतसकाइयस्सावि ॥२॥ एतेसिं ठिई सागरोवमसतपुहत्तं साइरेगं । तेउस्स संख राईदिया] दुविहणिओए मुहुत्तमद्धं तु। सेसाणं संखेजा वाससहस्सा य सबेर्सि ॥३॥ (सू०२३५) 'बायरे णं भंते।' इत्यादि प्रभसूत्र पाठसिद्ध, भगवानाह-गौतम! जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसोयं कालं, तमेवासयेयं । कालं कालक्षेत्राभ्यां निरूपवति-असंखेजाओ उस्सप्पिणीमोसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अंगुलस्स असंखेज्जइभागों' अस्य ब्याख्या प्राग्वत् । बादरपृथ्वीकायिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः सप्ततिः सागरोपमकोटीकोटयः, एवं बादराकायिकबादरतेजस्कायिकवादरवायुकापिकानामपि, सामान्यतो बादरवनस्पतिकाबिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसोयं कालं, तमेव कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-असोया उत्सर्पिण्यवसपिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽङ्गुलस्यासोयभागः । प्रत्येकवादरवनस्पतिकायिकसूत्र बादरपृथ्वीकायिक- ॥४१॥ वत्, सासाम्वतो निगोइसूत्रे जपनमयोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं, तस्यैव कालक्षेत्राभ्यां निरूपणं करोति-अनन्ता उत्सर्पिण्यव स दीप अनुक्रम [३५७३६०] +AAG Jambernal अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~837~ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [9], --------------------- उद्देशक: [-], -------------------- मूलं [२३५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: SC प्रत सूत्रांक [२३५] 95 गाथा: सपिण्यः, एषा कालत: प्ररूपणा, क्षेत्रतोऽर्द्धतृतीयाः पुगलपरावर्ताः । वादरनिगोदसूर्व वादरपृथ्वीकायिकवत् । बादरप्रसकायसूत्रे । काजघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो वे सागरोपमसहसे सयवर्षाभ्यधिके । साम्प्रतमेतेषामेवापर्याप्ताना कायस्थितिं निरूपयन् सूत्रदशक माह-बायरअपज्जत्तए ण भंते! बायरअपज्जत्तएत्ति कालतों' इत्यादि सर्वत्र जघन्येनोत्कर्वेण चान्तर्मुहूर्तम् । अधुनैतेषामेव । पर्याप्तानां कायस्थितिमाह-'बायरपज्जत्तए णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तद्भावना | प्रावत् , उत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्वं सातिरेक, तत ऊर्द्धमवश्यं वादरस्थ सत: पर्वाप्पलब्धिविच्युतेः । बादरपृथिवीकायिकपर्याप्तसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षत: सश्येयानि वर्षसहस्राणि, तत ऊर्दू तथास्वाभाव्या बादरपृथिवीकायस्य सतः पर्याप्तिलम्धिभ्रंशात् ।। एवमकायसूत्रमपि वक्तव्यं, तेजस्कायसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः सङ्ख्येयानि रात्रिन्दिवानि, तेजस्कायिकस्य हि उत्कृष्टा भवस्थितिः। त्रीणि रात्रिन्दिवानि, उत्कृष्टस्थितिकस्ख पर्याप्तभवा निरन्तरं कतिपया एवेति साधेयान्येव रात्रिन्दिवानि । वायुकायिकसामान्यबादर वनस्पतिकायप्रत्येकवादरवनस्पतिकायसूत्राण्यपि यादरपर्याप्तपृथिवीकायसूत्रवत् । सामान्यतो निगोदपर्याप्तसूत्रे च जघन्यत उपकर्षतभवान्तर्मुहूर्त, बादरत्रसकायपर्याप्तसूत्र जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः सागरोपमशतपुथक्त्वं सातिरेक, तय नैरयिकतिर्यग्मनुष्यदेवभवभ्रमणेन पूरयितव्यम् ॥ साम्प्रतमन्तरं प्रतिपिपादयिपुराह-- अंतरं बायरस्स बायरवणस्सतिस्स णिओयस्स बायरणिओयस्स एतेसिं चउपहवि पुढविकालो जाव असंखेजा लोया, सेसाणं वणस्सतिकालो। एवं पजत्सगाणं अपजत्तगाणवि अंतरं, ओहे य वायरतरु ओघनिओए यायरणिओए य कालमसंखेज अंतर सेसाण वणस्सतिकालो ॥ (सू०२३६) दीप अनुक्रम [३५७३६०] HOLARBOADS HALGAONX ~838~ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३६] दीप अनुक्रम [३६१] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [ ५ ], उद्देशक: [-] मूलं [२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा'वादरस्य णं भंते! अंतरं कालतो' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽयं कालं तमेव जीवाभि० 3 कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-अज्ञेया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽसङ्ख्या लोकाः, यदेव हि सूक्ष्मस्य सतः कार्यस्थितिपरिमलयगि- माणं तदेव बादरस्यान्तरपरिमाणं सूक्ष्मस्य च कार्यस्थितिपरिमाणमेतदेवेति । बादरपृथिवीकायिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽनन्तं रीयावृत्तिः ४) कालं स चानन्तः कालो वनस्पतिकालः प्रागुक्तस्वरूपो वेदितव्यः । एवं बादराकाविकचादर तेजस्कायिक सूत्राण्यपि वक्तव्यानि ॐ सामान्यतो बादरवनस्पतिकायिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽसयेयं कालं स चासयेयः कालः पृथिवीकालो वेदितव्यः, स चैवम् असङ्ख्या उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽसङ्ख्या लोकाः । प्रत्येकबादरवनस्पतिकायिकसूत्रं बादरपृथिवीकायिकसूत्रवत् सामान्यतो निगोदसूत्रं च सामान्यतो बादरवनस्पतिकायिकसूत्रवत्, बादरत्रसकायिकसूत्रं बादरपृथिवीकायिकसूत्रवत्। एवमपर्या- ५ सू० २३६विषया दशसूत्री पर्याप्तविषया च दशसूत्री यथोक्तक्रमेण वक्तव्या नानालाभावात् ॥ साम्प्रतमल्पबहुत्वमाह - ॥ ४१८ ॥ २३७ Jan Education अप्पा० सव्वत्थोवा वायरतसकाइया वायरतेषकाइया असंखेज्जगुणा पत्तेयसरीरवादरवणस्सति० असंखेज्जगुणा बायरणिओया असंखे० वायरपुढवि असंखे० आउवा असंखेज्जगुणा वायरवणस्वतिकाइया अनंतगुणा वायरा विसेसाहिया १ । एवं अपलत्तगाणवि २ । पत्तगाणं सव्वस्थोवा पायrdsकाइया वायरतसकाइया असंखेज्जगुणा पत्तेगसरीरवापरा असंखेचगुणा सेसा तहेब जाव बादरा विसेसाहिया ३ । एतेसि णं भंते! वायराणं पज्जतापजत्तीर्ण करे २१, सव्वत्थोवा बायरा पज्जन्त्ता बायरा अपजत्तगा असंखेज्जगुणा, एवं सव्वे जहा वायरत सकाइया ४| For P&Personal Use Only ५] प्रतिपत्तौ बादरस्या न्तरं सूक्ष्म४ बादरयो रल्पबहुत्वं उद्देशः २ ~839~ ॥ ४१८ ॥ ambay अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [३] “जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्रत सूत्रांक [२३७]] दीप अनुक्रम एएसि क भते! बायराणं बायरपुढविकाइयाणं जाच बायरतसकाइयाण य पजत्तापज्जत्ताणं कयरे २१, सव्वस्थोवा वायरतेउकाइया पज्जत्तगा बायरतसकाइया अपज्जत्तगा असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सतिकाइया पज्जत्तगा असंखेजगुणा वायरणिओया पज्जत्तगा असंखेज. पुढविआउवाउपजत्तगा असंखेजगुणा बायरतेउअपज्जत्तगा असंखेवगुणा पत्तेयसरीरवायरव. णस्सतिअप० असंखे० वायरा णिओया अपज्जत्तगा असंखे० बायरपुढविआजबाउ अपजसगा असंखेजगुणा वायरवणस्सइ पजत्तगा अणंतगुणा बायरपजत्तगा विसेसाहिया बायरवणस्सति अपजसा असंखगुणा बायरा अपजसगा विसेसाहिया वायरा प० विसेसाहिया ५। एएसिणं भंते! सहमाणं सुहमपुदविकाइयाणं जाव सुहमनिगोदाणं बायराणं बायरपुढचिकाइयाणं जाव बायरतसकाइयाण य कयरेरहिंतो०१, गोयमा! सव्वत्थोवा बायरतसकाइया वापरतेउकाइया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणा असंखे० तहेव जाव बायरवाउकाड्या असंखेजगुणा सुहमतेउकाइया असंखे०सुहमपुढवि०विसेसाहिया सुहमआउ०मुहमवाउ०विसेसा०सहमनिओया असंखेजगुणा बायरवणस्सतिकाइया अणंतगुणा वायराविसेसाहिया सुहमवणस्सइकाइया असंखे० सुहमा विसेसा एवं अपज्जत्तगावि पज्जत्तगावि, णवरि सब्वत्थोवा वायरतेउकाइया प. जत्ता बायरतसकाइया पजत्ता असंखेजगुणा पत्तेयसरीर० सेसं तहेव जाव सुहमपज्जत्ता वि. 4%A4-54964GESGRRC-NCR - [३६२] ~840~ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: [-], -------------------- मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥४१९॥ ALSCREGAMAT प्रतिपत्ती सूक्ष्मवादरयोरल्पबहुत्वं उद्देशः२ सू० २३७ दीप अनुक्रम सेसाहिया। एएसिणं भंते ! सुहमाणं बादराण य पजत्ताणं अपजत्ताण य कयरे २१०, सव्यस्थोवा बायरा पजत्ता घायरा अपज्जत्ता असंखेनगुणा सव्वथोवा सुहुमा अपजत्ता सुहमपज्जत्ता संखेलगुणा, एवं सुहुमपुढविवायरपुढवि जाव सुहुमनिओया वायरनिओया नवरं पत्तेयसरीरबायरवण सब्वत्थोवा पजत्ता अपजत्ता असंखेजगुणा, एवं यादरतसकाइयावि ॥ सव्वेसिं पजत्तअपजत्तगाणं कयरेशहितो अप्पा वा बहुया वा?, सब्यस्थोवा वायरलेउकाइया पजत्ता वायरतसकाइया पजसगा असंखेजगुणा ते चेव अपजत्तगा असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सइअपजतगा असंखे० बायरणिओया पजत्ता असंखेज वायरपुढवि० असं० आउवाउपलत्ता असंखे० बायरतेउकाइयअपजत्ता असंखे० पत्तेय असंखे० बायरनिओयपजत्ता असं० बायरपुढवि० आउवाउकाइ अपजत्तगा असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया अपजत्रागा असं० सुहमपुढविआउवाउअपजत्ता विसेसा. सुहुमतेउकाइयपज्जत्सगा संखेजगुणा सुहमपुढविआउवाउपजत्तगा विसेसाहिया सुहमणिगोया अपजत्तगा असंखेजगुणा सुहुमणिगोया पजत्तगा असंखेजगुणा बायरवणस्सतिकाइया पजत्तगा अणंतगुणा बायरा पजत्तगा विसेसाहिया बायरवणस्सइ अपज्जत्ता असंखेजगुणा वायरा अपज्जत्ता विसे० बायरा विसेसाहिया सुहुमवणस्स [३६२] % ॥४१२ * --- ता अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~841~ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: [-], -------------------- मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७]] ARLASC दीप अनुक्रम तिकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा मुहमा अपज्जत्ता विसेसाहिया सुहमवणस्सइकाइया पजत्ता संखेजगुणा सुहमा पजत्तगा विसेसाहिया सुहमा विसेसाहिया ।। (सू०२३७) 'एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका वादरत्रसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव बादरत्रसवात् , तेषां च शेषकायापेक्षयाऽल्पवात , तेभ्यो | बादरतेजस्कायिका असोयगुणाः, असओयलोकाकाशप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिका असहयगुणाः,18 स्थानस्यासक्येयगुणत्वात् , बादरतेजस्लाविका हि मनुष्यक्षेत्र एव भवन्ति, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायां द्वितीय स्थानाख्ये पदे-'कहिण भंते ! बादरतेउकाइयाणं पञ्चचापजत्ताणं ठाणा पन्नचा?, गोयमा ! अंतो मणुस्सखेते अडाइजेसु दीवस मुद्देसु निम्बाघाएणं पन्नरससु कम्मभूमीसु वाघाएणं पंचसु महाविदेहेसु एत्थ णं वायरतेउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पज्जत्ता, तथा-जत्येक वायरते उक्काइयाणं पजताणं ठाणा पन्नत्ता तत्थेव अपजत्तागं बायरतेउकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता' इति । पादरवनस्पतिकायिकास्तु विष्वपि लोकेषु, तथा चोक्तं | प्रज्ञापनायां तस्मिन्नेव स्थानाख्ये द्वितीये पदे-'कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता?, गोयमा! सट्ठाजेणं सत्तसु घणोदहीसु सत्तसु घणोदहिवलएसु अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु उद्दलोए कप्पेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु तिरियलोए अगढेसु तलायसु नदीसु दहेसु बाबीसु पुक्खरिणीसु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु उग्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु | वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सब्बेसु चेव जलासएसु जलहाणेसु, एत्य पं बायरवणरसइकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, तथा जस्थेव | वायरवणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायरवणस्सइकाइयाणमपजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता' इति । ततः क्षेत्रस्यासोयगुणत्वादुपपद्यन्ते वावरतेजस्कायिकेभ्योऽसोयगुणाः प्रोकशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः, तेभ्यो बादरनिगोदा असपेयगुणास्तेषा-1 CRICANCHANG % [३६२] ~842~ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [३६२] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [ ५ ], ---- उद्देशक: [-], मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः रीयावृत्तिः ॥ ४२० ॥ श्रीजीवा- ७ मत्यन्तसूक्ष्मावगाहनत्वात् जलेषु च सर्वत्रापि प्रायोभावात्, पनकसेवालादयो हि जलेष्ववश्यंभाविनः ते च यादरानन्तकायिका जीवाभि० * इति तेभ्योऽपि बादरपृथिवीकायिका असङ्ख्येयगुणाः, अष्टासु पृथिवीषु सर्वेषु विमानभवन पर्वतादिषु च भावात्, तेभ्योऽसोयगुणा मलयगिबादराकाविकाः, समुद्रेषु जलप्राभूत्यात्, तेभ्यो बादरवायुकायिका असक्षेयगुणाः, शुषिरे सर्वत्र वायुसम्भवात्, तेभ्योऽपि वादरवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिबादरनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात्, तेभ्यः सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः, बादरत्रसका* विकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतमेकमौधिकमल्पबहुत्वमिदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमाह - 'एएसि णं भंते!" इत्यादि, सर्व४ ॥ स्तोका बादरत्रसकायिका अपर्याप्ताः, युक्तिरत्र प्रागुक्तैव, तेभ्यो बादरतेजस्कायिका अपर्याप्ता असोयगुणाः, असङ्ख्येयलोकाकाशप्रमाणत्वात् इत्येवं प्रागुक्तक्रमेणेदमप्यल्पबहुत्वं परिभावनीयम् ।। गतं द्वितीयमल्पबहुलं, साम्प्रतमेतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह - 'एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजस्काधिकाः पर्याप्ताः, आवलिकासमववर्गस्य कतिपय समयन्यूनैरावलिका समयैर्गुणितस्य यावान् समयराशिर्भवति तावत्प्रमाणत्वात्तेषाम् उक्ता - "आवलिवग्गो कमेणावलीए गुणिओ हि बायरो तेऊ” इति, तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः पर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः, प्रतरे यावन्त्यङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेषां तेभ्यः प्रत्येकशरीरखादरबनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असझेयगुणाः, प्रतरे यावन्त्यङ्गुला सोयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेषाम् उक्तव || “पत्तेयपतत्तवणकाइया उपयरं हरति लोगस्स अंगुल असंखभागेण भाइय”मिति, तेभ्यो बादरनिगोदपर्याप्तका असङ्ख्यगुणाः, तेषामत्यन्तसूक्ष्मावगाहनत्वात् जलाशयेषु च सर्वत्र प्रायोभावात्, तेभ्यो बादरपृथिवीकायिका: पर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः, अतिप्रभूतस| कोय प्रतराला सोयभागखण्डमानत्वात्, तेभ्योऽपि बादराकायिका: पर्याप्ता असह्येयगुणाः, अतिप्रभूततरासङ्ख्येयप्रतरामुलासह - Ja Ebemor int For P&Palle Cinly ५ प्रतिपत्तौ सूक्ष्मवादरयोरस्पबहुत्वं उद्देशः २ सू० २३७ ~843~ ॥ ४२० ॥ waterw अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७]] दीप अनुक्रम यभागखण्डमानतात, तेभ्यो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता असल्येयगुणाः, धनीकृतस्य लोकस्यासहपेये प्रतरेषु सहयासतमभागवर्तिपु| यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात्तेषां, तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याना अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां | भावान् , तेभ्यः सामान्यसो बादरपर्याप्तका विशेषाधिका:, बादरतेजस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतं तृतीयमल्पयहुत्वमिदानीमेतेषामेव प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तगतमल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि, यह वादरैकैकपर्याप्तनिश्रयाऽसोया बादरा अप प्तिा उत्पद्यन्ते, "पज्जत्तगनिस्साए अपजत्तगा बक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इति वचनात , ततः सर्वत्र पर्याप्तभ्यो काsपर्याप्ता असह्यपेयगुणा वक्तव्याः । वादरत्रसकायिकसूत्रं तु प्रागुक्तयुक्त्या भावनीयम् ।। गतं चतुर्थमध्यल्पबहुलं, सम्प्रत्येतेषामेव स| मुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानां पञ्चममल्पबहुत्यमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः, तेभ्यो बादरत्रस | कायिकाः पर्याप्ता असहयगुणाः, तेभ्यो बादरप्रत्येकवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असायेयगुणाः, तेभ्यो बादरनिगोदाः पर्याप्ता असनायगुणाः, तेभ्यो बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्मा असहयेयगुणाः, तेभ्यो बादराकायिकाः पर्याप्ता असङ्खये यगुणाः, तेभ्यो बादरवायु कायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः, एतेषु पदेषु युक्तिः प्रागुक्ताऽनुसरणीया, तेभ्यो वादरतेजस्कायिका अपर्याप्ता असलवेयगुणाः, यतो बादरवायुकाधिकाः पर्याप्पा असोयेषु लोकाकाशप्रदेशेषु यावन्त आकाशप्रदेशातावत्प्रमाणाः बादरतेजस्कायिकाश्चापर्याप्ता असङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणास्ततो भवन्त्यसहयगुणाः, ततः प्रत्येकबादरवनस्पतिकाविकवादरनिगोदवादरपृथिवीकायिकबादराकायिकबादरवायुकायिका अपर्याप्ता यथोत्तरमसयेवगुणा वक्तव्याः, यद्यपि चैते प्रत्येकमसयेवलोकाकाशप्रदेशप्रमाणास्तथाऽप्यसमातस्यासयातभेदभिन्नवादित्थं यथोत्तरमसोयगुणवं न विरुध्यते, तेभ्यो दादरवायुकायिकापर्याप्तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवाः प [३६२] जी०७१ ~844~ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [३६२] प्रतिपत्ति: [ ५ ], ----- उद्देशक: [-] मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ४२१ ॥ र्याप्ता अनन्तगुणा: प्रतिवादरैकैक निगोदमनन्तानां जीवानां भावात् तेभ्यः सामान्यतो बादरा: पर्यामा विशेषाधिकाः, बादरतेजस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्तका असोयगुणा एकैकपर्याप्तबादरवनस्पतिका यिक निगोद निश्रयाऽसयानामपर्याप्तवाद वनस्पतिकायिकनिगोदानामुत्पादात्, तेभ्यः सामान्यतो वादरा अपर्याप्त विशेषाधिका बादर तेजस्कायिकादीनामपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् तेभ्यः पर्याप्तापर्याप्त विशेषणरहिता: सामान्यतो बादरा विशेषाधिका: यादरपर्याप्ततेजस्कायिकादीनामपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् ॥ तदेवं गतानि बादराश्रितानि पञ्चास्पबहुत्वानि, सम्प्रति सूक्ष्मवादरसमुदायगतानि पञ्चा ५ स्पबहुलान्यभिधित्सुराह - 'एएसि ण'मित्यादि, इह प्रथमं वादरगतमल्पबहुलं तत्सूक्ष्मगताल्पयत्वपञ्चके यत्प्रथममस्पबहुलं तद् * भावनीयं यावत् सूक्ष्मनिगोदचिन्ता, तदनन्तरं बादरवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः प्रतिबादरनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् तेभ्यो बादरा विशेषाधिका वादरतेजस्कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका असङ्ख्यगुणाः, बादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामस पेयगुणखात्, तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा विशेषाधिकाः सूक्ष्मतेजस्का विकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ गत | मेकमल्पबहुत्वमिदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमाह - 'एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका बादरसकायिका अपर्याप्ताः ततो बादर| तेजस्कायिकबादरवनस्पतिका विकवाद निगोदबादरथिवीकायिकवादशष्कायिक वादरायुकायिका: पर्याप्ताः क्रमेण यथोत्तरमसोयगुणाः, अत्र भावना बादरगतास्पबहुलपञ्चके यद्वद् द्वितीयमपर्याप्त विषयमल्पबहुलं तद्वद् भावनीया, ततो बादरवायुकायिकेभ्योऽपर्या 8 प्रेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिका अपर्याप्ता असङ्ख्यगुणाः, अतिप्रभूतास यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीका विकसूक्ष्मा| कायिक सूक्ष्मवायुकायिकसूक्ष्म निगोदा यथोत्तरमसत्यगुणाः अत्र भावना सूक्ष्मास्पबहुत्ववद्भावनीया, पञ्चके यहितीयास्पबहुलं त ॥ ४२१ ॥ Ebetur For P&Peale Chly १ प्रतिपत्ती सुक्ष्मवादराद्यरूपबहु 4 उद्देशः २ सू० २३७ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~845~ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७]] | दून , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवा अपर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिसादरैकैकनिगोदमनन्ताना भावान् , तेभ्यः । सामान्यतो बादरा अपर्याप्पा विशेषाधिका:, बादरत्रसकायिकापर्याप्तानामपि तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असोयगुणाः, बादरनिगोदापर्याप्तेभ्य: सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानामसोयगुणत्वात् , तेभ्य: सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्त विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेजस्कायिकापर्याप्तादीनामपि तत्र प्रक्षेपान् ।। गतं द्वितीयमल्पवहुवमिदानी तेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुलमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः, तेभ्यो बादरत्रसकायिकबादरपोकवनस्पतिकायिकबादरनिगोदवादरपृथिवीकायिकबादराष्कायिकबादरवायुकायिका: पर्याप्ता यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणाः, अत्र भावना वादरगताल्पबहुत्वपञ्चके यत्तृतीयं पर्याप्तविषयमल्पबहुलं तद्वत्कर्त्तव्या, बादरपर्याप्तवायुकायिकेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः पर्याप्ता असल्येयगुणाः, बादरवायुकाथिका हि असोयन-IN तरप्रदेशराशिप्रमाणाः, सूक्ष्मतेजस्कायिकास्तु पर्याप्ता असोयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाततोऽसयेयगुणाः, तत: सूक्ष्मपृथिवीकायिक-18 सूक्ष्माप्कायिकसूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ताः क्रमेण यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततः सूक्ष्मवायुकायिकेभ्यः पर्याप्तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्रका असलयेयगुणाः, तेषामतिप्रभूततया प्रतिगोलकं भावात् , तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवाः पर्याप्रका अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां भावात् , तेभ्यः सामान्यतो बादराः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, वादरतेजस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्पा असहधेयगुणाः, बादरनिगोदपर्यापेभ्य: सूक्ष्मनिगोदपर्याप्तानामसोयगुणत्वात् , तेभ्यः सामातान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मनेजस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतं तृतीयमल्पबहुत्वमिदानीमेतेषामेव सूक्ष्मवादरादीनां प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तानां पृथक् पृथगल्पबहुखमाह-एएसिणं भंते ! सुहुमाणे बायराण य पजत्तापज्जत्ताण' दीप अनुक्रम [३६२] ~846~ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -5 प्रत सूत्रांक 56 [२३७] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- मित्यादि, सर्वत्रेयं भावना-सर्वस्तोका बादराः पर्यापा: परिमितक्षेत्रवत्तित्वात् , तेभ्यो बादरा अपर्याप्ता असहयगुणाः, एफैकवाद-15५प्रतिपत्ती जीवाभि पर्याप्तनिभयाऽसरेयाना वापरापर्यापानामुत्पादान, तेभ्यः सूक्ष्मापर्यामा असोयगुणाः, सर्वलोकापन्नतया तेषां क्षेत्रस्यासहयगुण-18| सूक्ष्मवामलयगित्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मपर्याप्रकाः सहयेयगुणाः, चिरकालावस्थायितया तेषां सदैव सोवगुणतया प्राप्यमानत्वात् , सर्वसाध्यया चा दराद्यल्परोयावृत्तिः सप्त सूत्राणि, तद्यथा-प्रथमं सामान्यत: सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्यातविपयं द्वितीयं सूश्मयादरपृथिवीकायिकपर्याप्तापर्याप्तविषय, तृतीय बहुत्वं ॥४२२॥ सूक्ष्मवादराकायिकपर्याप्तापर्याप्त विषय, चतुर्थ सूक्ष्मवादरतेजस्कायिकपर्याप्तापर्याप्त विषय, पञ्चमं सूक्ष्मवादरवायुकायिकपर्याप्तापर्यातविषय, षष्ठं सूक्ष्मवादरवनस्पतिकायिकपर्याप्तापर्याप्तविषय, सप्तमं सूक्ष्मयादरनिगोदपर्याप्तापर्याप्त विषयमिति ॥ गतं चतुर्थमल्पबहुत्व सू० २३७ मिदानीमेतेषामेव सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनां प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तानां समुदायेन पञ्चममल्पबहुखमाह-एएसिणं भंते! सुहुमाणं | सुहमपुढविकाइयाण मित्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजस्काविका: पर्याप्ताः, आवलिकासमयवर्गे कतिपयसमयन्यूनराबलिकासमयैर्गु|णिते यापान समयराशिस्तावस्त्रमाणत्वात्तेपा, रोभ्यो वादरत्रसकायिका: पर्याप्ता असपे यगुणाः, प्रतरे यायन्यनुलास हमेयभागमा त्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणखातेषां, तेभ्यो वादरप्रसकायिका अपर्याप्पा असङ्खयेय गुणाः, प्रतरे यावन्त्यनुलासययभागमात्राणि खण्डानि | तावत्प्रमाणलातेपा, ततः प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकवादरनिगोदवादरपृथिबीकायिकबादराकायिकबादरवायुकायिकाः पर्यात्रा यथोत्तरमसोयगुणाः, यद्यप्येते प्रत्येक प्रतरे यावन्त्यनुलासवभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणास्तथाऽप्यनुलासयभागस्यास पेयभेदभिन्नलादित्यं यथोत्तरमसहयगुणखमभिधीयमानं न विरुध्यते, तेभ्यो बादरतेजस्कायिका अपर्याप्तका असहयेषगुणाः, अस-II४२२॥ हायलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , ततः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिकवादरनिगोदवादरपुधिवीकाविकवादराकायिकबादरवायुका [३६२] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~847~ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [५], ---------------------- उद्देशक: -, ---------------------- मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७]] दीप अनुक्रम *यिका अपर्याप्ता यथोत्तरमसमवेयगुणाः, ततो वादरयायुकायिकेभ्योऽपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिका अपर्याप्ता असहयगुणाः, ततः सूक्ष्मपृथिवीकायिकसूक्ष्माकायिकसूक्ष्मवायुकायिका अपर्याप्ता यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततः सूक्ष्मतेजस्कायिका: पर्याप्ताः सोयगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्याप्तेभ्यः पर्वामानामोचत: सवयेयगुणत्वात् , ततः सूक्ष्मपृथियीकायिकसूक्ष्माप्कायिकसूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ता यथोत्तरं विशेषाधिका:, तेभ्यः सूक्ष्म निगोदा अपर्याप्तका असोयगुणाः, तेषामतिप्राभूत्येन सर्वलोकेषु भावान् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा असो-| यगुणाः, सूक्ष्मेवपर्याप्तानां सदैवोपतः सहयगुणत्वात् , एते च बादरपर्याप्ततेजस्कायिकादयः पर्याप्त निगोदपर्यवसाना: पोडश पदार्थी | यद्यप्वन्यत्राविशेषेणासङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणतया संगीयन्ते तथाऽप्यसवातस्यासमातभेदभिन्नत्यादित्थमसहयगुणवं विशेषा|धिकत्वं सहायगुणत्वं च प्रतिपाद्यमानं न विरोधमागिति, तेभ्यः पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदेभ्यो बादरवनस्पतिकाथिका अपर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां भावान् , तेभ्यः सामान्यतो थादरा: पर्यात्रा विशेषाधिकाः, बादरपर्याप्ततेजस्कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असहयगुणाः, एकैकपर्याप्तनिगोदनिश्रयाऽसङ्ख्येयानां बादरनिगोदापर्याप्तानामुत्पादात् , तेभ्य: सामान्यतो बादरा अपर्याप्ता विशेषाधिका:, बादरतेजस्कायिकादीनामप्यपर्यामानां तत्र प्रक्षेपात , तेभ्यः सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः, पर्यापानामपि तत्र प्रक्षेपान् , तेभ्यः सूक्ष्मबनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असयेय गुणाः, पादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामपर्याप्तानामप्यसोयगुणत्वात् , ततः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्रका विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामप्यपपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् , वेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्यापाः सत्येयगुणाः, सूक्ष्मवनस्पतिकायिकापर्याप्तभ्यो हि सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता: सहायगुणाः, सूक्ष्मेप्यप्योधतोऽपर्यानेभ्यः पर्यापानां सहयेथगुणवात् , सत: सामान्यत: सूक्ष्मपर्याप्तेभ्योऽपि सहये [३६२] ~848~ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [३६२] श्रीजीवा जीवाभि० मलयगियावृत्तिः | ॥ ४२३ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [ ५ ], ----- उद्देशक: [-], मूलं [२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः यगुणाः, विशेषाधिकत्वस्य सङ्ख्यगुणत्वबाधनायोगात्, तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्माः पर्यामका विशेषाधिकाः, पर्यासूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ततः सामान्यतः पर्यात्रा पर्याप्तविशेषणरहिताः सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, अपर्याप्रानामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ इह पूर्व निगोदाः स्थित्यादिभिचिन्तितास्ततो निगोदवक्तव्यतामाह कतिविहा णं भंते! णिओया पण्णत्ता?, गोयमा ! दुविहा णिओया पण्णत्ता, तंजहा- णिओया य णिओदजीवा य ॥ णिओयाणं भंते! कतिविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! दुविहा, पं० तंजहासुमणिओयाय बायरणिओया य ॥ सुहुमणिओया णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता?, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजा—पजत्तगा य अपजत्तगाय ॥ याघरणिओयावि दुबिहा पण्णत्ता, तंजापज्जन्तगा य अपजन्तगा य ॥ णिओयजीवा णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता?, दुबिहा पण्णसा-सुमणिओदजीवाय वायरणिओयजीवा य । सुमणिगोदजीवा दुविहा पं० [सं० - पलत्तगा य अपजतगा । बादरणिगोदजीवा दुविहा पन्नत्ता तं०-पजत्तगा य अपजतगा य ॥ (सू० २३८) 'कतिविहा णमित्यादि, कतिभेदाः भदन्त ! निगोदाः प्रता: १, भगवानाह - गौतम! द्विविधा निगोदा: प्रज्ञास्तद्यथा- निगोदाश्च निगोदजीवाश्च उभयेषामपि निगोदशब्दवाच्यतया प्रसिद्धत्वात्, तत्र निगोदा - जीवाश्रयविशेषाः निगोदजीवा - विभिन्नतैजसकार्मणा जीवा एव | अधुना निगोदभेदान् पृच्छति - 'निगोया णं भंते!" इत्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम! द्विविधाः प्रज्ञास्तद्यथा-सूक्ष्मनिगोदान बादरनिगोदान, तत्र सूक्ष्मनिगोदाः सर्वलोकापन्नाः बादरनिगोदा मूलकन्दादय: । 'सुहमनिगोया For P&Palise Cnly प्रतिपत्ती निगोदाधिकारः उद्देशः २ सु० २३८ ~ 849~ ॥ ४२३ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अथ निगोद-वक्तव्यता आरब्धः Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३८] दीप अनुक्रम [३६३] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [ ५ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ----- उद्देशक: [-], मूलं [ २३८ ] आगमसूत्र [१४] उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः णमित्यादि, सूक्ष्मनिगोदा भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञप्ताः १, भगवानाह - गौतम! द्विविधाः प्रज्ञमास्तथा पर्याप्ता अपर्याप्राय एवं यादरनिगोदविषयमपि सूत्रं वक्तव्यं । तदेवमुक्ता निगोदाः, अधुना निगोदजीवानधिकृत्य भेदप्रभसूत्रमाह - निगोयजीवा णं भंते !" | इत्यादि सुगमं, भगवानाह - गौतम! निगोदजीवा द्विविधाः प्रहमास्तद्यथा-सूक्ष्म निगोदजीवा बादरनिगोदजीवाश्च चशब्दौ निगोदजीवतया तुख्यतासूचकी, एवमन्यत्रापि यथायोगं परिभावनीयी 'सुहुमनिगोयजीवा णं भंते' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्रविपयं पाठसिद्धम् । सम्प्रति सामान्यतो निगोदसयां जिज्ञासिपुः पृच्छति - निगोदा णं भंते! दव्वट्टयाए किं संखेजा असंखेज्जा अनंता ?, गोयमा ! नो संखेजा असंखेजा अनंता, एवं ताव अपजन्तगावि | सुहमनिगोदा णं भंते! दव्वट्टयाए किं संखेजा असंखेजा अनंता ?, गो० ! णो संखेज्जा असंखेजा णो अनंता, एवं पज्जतगावि अपजत्तगावि, एवं बायरावि पज्जतगावि अपजत्तगावि णो संखेजा असंखेजा णो अनंता ॥ णिओदजीवा णं भंते! ट्टयाए किं संखेजा असंखेजा अनंता?, गोयमा ! नो संखेजा नो असंखेला अनंता, एवं पत्तावि अपजतावि, एवं सुहुमणिओयजीवाचि पजत्तगावि अपजन्तगावि, बादरणिओवजीवावि पजतगावि अपजत्तगावि || णिओदा णं भंते! पदेसट्टयाए किं संखेजा० ? पुच्छा, गो. घमा ! नो संखेजा नो असंखेजा अनंता, एवं पलसगावि अपजसगावि । एवं सुहमणिओयावि पतगाव अपजतगावि य, परसट्टयाए सच्वे अनंता, एवं बायरनिगोयावि पजत्तयावि For P&Praise City ~ 850~ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [५], ---------------------- उद्देशक: [-], --------------------- मूलं [२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 15/५ प्रतिपत्ती निगोदा प्रत धिकारः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ४२४॥ सूत्रांक [२३९] | उद्देशा२ सू०२३९ दीप अनुक्रम [३६४] अप्पजत्तयावि, पएसट्टयाए सब्बे अर्णता, एवं णिओदजीवा नवविहाबि पएसट्टयाए सब्बे अणंता ।। एएसिणं भंते ! णिओयाणं सुहमाणं वायराणं पलत्तयाणं अपजत्तगाणं दयट्ठयाए पएसट्टयाए दब्बट्ठपएसट्टयाए कयरेशहितो अप्पा वा बहुया चा०?, गोयमा! सब्वत्थोचा बादरणिओयपज्जत्तगा दबट्टयाए बादरनिगोदा अपज्जत्तगा दग्वट्टयाए असंखेजगुणा सुहमणिओदा अपजत्तगा व्यट्टयाए असंखेजगुणा सुहमणिओदा पज्जत्रागा दम्बट्टयाए संखिजगुणा, एवं प. देसट्टयाएपि ॥ ब्वट्ठपदेसट्टयाए सब्वत्थोवा बादरणिओया य पजत्ता दुव्वट्ठपाए जाव सुहमणिओदा पजत्ता य दवट्ठयाए संखेजगुणा, सुहमणिओएहितो पज्जत्तएहितो दवट्टयाए बायरणिगोदा पजत्ता पएसट्टया अणंतगुणा बायरणिओदा अपजसा पएसट्टयाए असंख० जाव मुहमणिओया पज्जत्ता पएसट्टयाए संखेजगुणा । एवं णिओयजीवावि, णवरि संकमए जाव सुहुमणिओयजीवहिंतो पजत्तएहिंतो दबट्टयाए बायरणिओयजीवा पज० पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, सेसं तहेव जाव सुहमणिओयजीवा पजत्ता पएसट्टयाए संखेजगुणा ॥ एतेसिणं भंते! णिगोदाणं सुहमाणं बायराणं पजत्ताणं अपज्जत्ताणं णिओयजीवाणं सुहमाणं बायराणं पज्जत्तगाणं अपजत्तगाणंदब्वट्ठयाए पएसट्टयाए कयरेशहितो?०, सव्वस्थोवा पायरणिओदा पजत्ता दवट्ठयाए पापरणिओदा अपजसा बट्ठयाए असङ्खजगुणा सुहमणिगोदा अप० दबट्ठयाए ||४२४॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~851~ Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३९] दीप अनुक्रम [३६४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [ ५ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ----- उद्देशक: [-] मूलं [ २३९ ] आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः असंखेज़गुणा मुहुमणिओदा पज्ज० दव्बट्टयाए संखेज्जगुणा सुद्दमणिओएहिंतो दव्वट्टयाए बा यरणिओदजीवा पत्ता दव्वट्टयाए अनंतगुणा वायरणिओदजीवा अपज्जत्ता दुव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा सुमणिओदजीवा अपजन्ता देवट्टयाए असंखेजगुणा सुमणिओयजीवा पज्जत्ता दव्या संखेनगुणा, पएसहयाए सव्वत्थोवा बायरणिओदजीवा पज्जत्ता परसट्टयाए बायरfuओदा अपना पसट्टयाए असंखे० सुहुमणिओयजीवा अपजत्तया परसट्टयाए असंखेज्जगुणा सुमणिगोदजीवा पज्ञता परसट्टयाए संखेजगुणा सुकुमणिओदजीवेहिंतो पएसयाए बाघरणिगोदा पत्ता पदेसट्टयाए अनंतगुणा, वायरणिओया अपजता पएस० असंखेजगुणा जाव सुमणिओया पत्ता परसट्टयाए संखेजगुणा, दय्वट्टपसट्टयाए सन्वत्थोवा वायरणिओया पत्ता व्याए वायरणिओदा अपजत्ता दुबट्टयाए असंखेजगुणा जाव सुहुमणिगोदा पत्ता दट्टयाए संखेज्जगुणा सुहुमणिओदाहिंतो दच्बट्टयाए वायरणिओदजीवा पजता दव्बट्टयाए अनंतगुणा सेसा तहेब जाव सुहमणिओदजीवा पजसगा दव्वट्टयाए संखेजगुणा सहमणिओयजीवेहिंतो पजत्तपहिंतो दबट्टयाए बायरणिओयजीवा पत्ता पदेसट्टयाए असंखेागुणा सेसा तहेव जाब मुहमणिओया पज्जत्ता पएसइयाए संखेज्जगुणा || सेन्तं छविहा संसारसभावण्णगा || ( सू० २३९ ) For P&Pase City ~ 852~ we % % % % % Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [५], --------------------- उद्देशक: -, --------------------- मूलं [२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] दीप अनुक्रम [३६४] श्रीजीवा- 'निगोदा 'मित्यादि, 'निगोदा' जीवाश्रयविशेषा भदन्त ! 'द्रव्यार्थतया' द्रव्यरूपतया कि सलपेया असल्या अनन्ताः, ५प्रतिपत्तौ जीवाभि018 भगवानाह-गौतम ! नो सहयेयाः, अङ्गुलासपेयभागावगाहनानां तेषां सर्वलोकापन्नत्वात् , किन्लसोयाः, असञयलोकाकाशप्रदे-1| निगोदामलयगिदशप्रमाणत्वात् , नाप्यनन्तास्तथा केवलवेदसाऽनुपलम्भात् । एवमपर्याप्तसामान्यनिगोदसूत्रं पर्याप्तसामान्यनिगोदसूत्रं च भावनीयम् । धिकारः रीवावृत्तिः यथा च सामान्य निगोदविषयं सूत्रत्रयमुक्तम् एवं सूक्ष्मनिगोद विषयमपि सूत्रत्रयं बादरनिगोदविषयमपि सूत्रत्रयं पृथग् वक्तव्यं, भावना उद्देशः२ ॥४२५॥ च पूर्वानुसारेण खयं विधेया ।। सम्प्रति द्रव्यार्थतया (निगोदजीव) सयां पिच्छिपुराह-'निगोयजीवा णं भंते! दवढयाए' | इत्यादि प्रश्नसून सुगर्म, भगवानाह-गौतम! नो सोया नाप्यसायाः किम्वनन्ता: प्रतिनिगोदमनन्तानां निगोषद्रव्यजीवानां भावात्।। एवमपर्याप्तसूत्र पर्याप्तसूत्रं च वक्तव्यं, तदेवं सामान्यतो निगोदण्यत्रिपयं सूत्रत्रिकमुक्तम् , एवं सूक्ष्मनिगोदजीवविषयं सूत्रत्रिक वादरनिगोदजीवविषयं च सूत्रत्रिकं च वक्तव्यं सर्वसङ्ख्यया नब सूत्राणि । एवमेव प्रदेशार्थताविषयाण्यपि नव सूत्राणि नानालाभावात् , भाबना च सर्वत्रापि सुप्रतीता, ये किल द्रव्यार्थतयाऽनन्तास्ते प्रदेशार्थतया सुतरामनन्ता: प्रतिद्रव्यमसङ्ख्याताना प्रदेशानां भावात् , सर्वसषया चामून्यष्टादश सूत्राणि] ॥ तदेवं द्रव्यार्थविषयाणि नव सूत्राण्युक्तानि सम्प्रति प्रदेशार्थताविषयाणि नव सूत्राणि विवक्षुः प्रथमत: सामान्यतो निगोदविषयं सूत्रत्रयमाह-निगोया णं भंते! पएसट्टयाए' इत्यादि, 'निगोदा:' उक्तस्वरूपा णमिति वाक्यालकारे भवन्त ! 'प्रदेशार्थतया' प्रदेशरूपतया चिन्यमानाः किं सख्या असोया अनन्ता:?, भगवानाह-गौतम! नो सहयेया नो असझयेयाः किन्त्वनन्ताः, एकैकस्मिन् निगोदे प्रदेशानामनन्तत्वात् , एवं शेषाण्यष्टौ सूत्राणि पूर्वक्रमेण भावनीयानि ॥ सम्प्रत्ये- ॥४२५॥ तेषामेव सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्त निगोदानां द्रव्यार्थप्रदेशार्थीभयार्थतया परस्परमल्पवहुवमाह-एएसि णं भंते ! णिगोदाणमि bar अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~853~ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [५], ---------------------- उद्देशक: -, ---------------------- मूलं [२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % % % प्रत सूत्रांक [२३९] सत्यादि प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका बादरनिगोदा मूलकन्दादिगताः पर्याप्त का द्रव्या/तया, प्रतिनियतक्षेत्रवतिलात , है तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्तका द्रव्यार्थतयाऽसोयगुणाः, एकैकपर्याप्तवादरनिगोनियाऽसोयानामपर्याप्तानां वादरनिगोदानाभु त्यादात , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्तका द्रव्यार्थतयाऽसयेयगुणाः, सकललोकापन्नतया क्षेत्रस्यासवगुणवात् , तेभ्यः सूक्ष्मनि गोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया सवेयगुणाः, सूक्ष्मेवोपतोऽपर्याप्तेभ्यः पर्यापानां सखये यगुणत्वात् , 'पएसटुवाए' इति अत ऊई प्रदेलै शार्थतया चिन्ता क्रियते, तामेव करोति-सर्वस्तोका बादरनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया द्रव्याणां लोकत्वात् , तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसोयगुणा द्रव्याणामसपेयगुणत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसयेयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया सभेयगुणा: द्रव्याणां सोयगुणत्वात् । 'दवट्ठपएसट्टयाए'त्ति अधुना द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया | चिन्ता क्रियते-सर्वस्तोका बादरनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया, बादरनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असलवेयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असहयगुणाः, तेभ्य: सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया सोयगुणाः, युक्ति: प्राक्तन्येव, तेभ्यो बादरनिगोदा: पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणा:, एकैकस्य निगोदस्य अनन्ताणुकानन्तस्कन्धनिष्पन्नवान् , तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया सवेयगुणाः, द्रव्याणामसहये यगुणवात् , तेभ्योः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थवया असङ्खये यगुणाः, युक्तिः प्राक्तन्येव, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ता: सोयगुणाः, द्रव्याणां सहयगुणवात् , साम्प्रतमेतेषामेव सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्त निगोदजीवानां द्रव्या प्रदेशाभियाधतया परस्परमल्पबहुत्य माह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका बादरजीवाः पर्याप्ता द्रव्यातया, निगोदाना खोकलात्, है तेभ्यो यादरनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसय गुणा, निगोदानामसङ्खयेयगुणत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा: अपर्याप्तका दीप अनुक्रम [३६४] ex*** ~854~ Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [५], ---------------------- उद्देशक: [-], --------------------- मूलं [२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] दीप अनुक्रम [३६४] श्रीजीवा- द्रव्यार्थतयाऽसययगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया सोयगुणाः, कारणं पूर्ववद् ऊर्जा, प्रदेशार्थतया सर्वस्तोका५प्रतिपत्ती जीवाभिवादरनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया, द्रव्याणां स्वोकत्वात् , तेभ्यो यादरनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसषेयगुणाः, द्रव्या- निगोदामलयगि- 1णामसोयगुणत्वात् , एवं तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्यामाः प्रदेशार्थतयाऽसये यगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदे- धिकार: रीयावृत्तिः शार्थतया सोयगुणाः, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतथा सर्वस्तोका वादरनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया, तेभ्यो बादरनिगोदजीया अपर्याप्ता उद्देश:२ द्रव्यार्थतयाऽसोयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसवयेयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा: पर्याप्ता द्रव्यार्थ-1 सू०२३९ ॥ ४२६॥ तया सहयेयगुणाः, तेभ्यो बादरनिगोदजीवा: पर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसोगुणाः, प्रतिबादरनिगोदपर्याप्त जीवमसषयानां लोकाकाशन- 11 देशप्रमाणानां प्रदेशानां भावात् , तेभ्यः वादरनिगोदजीया अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसय गुणाः पादरनिगोदापनिभ्यो बादरनिगो-16. पदपर्याप्तानामसङ्ख्यातगुणत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्यातकाः प्रदेशार्थवयाऽसवये पगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः । ४प्रदेशार्थतयाऽसवयेयगुणाः, भावना प्रागिव ।। सम्प्रति सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्यावनिगोदनिगोदजीवानां द्रव्यार्थप्रदेशार्थोभयातया परस्परमबाल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्बस्तोका पादरनिगोदाः पर्यामा द्रव्यार्थतया, तेभ्यो बादहारनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यातयाऽसयगुणाः तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसङ्ख्येवगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा: पर्याप्ता द्रव्यार्थवया सरेयगुणाः, अत्र सर्वत्रापि युक्तिः प्रागुक्तव, सूक्ष्मनिगोदेभ्यः पर्याप्तेभ्यो द्रव्यार्थतया बादरनिगोदजीवाः पर्याप्त अन-| हन्तगुणाः, एकैकस्मिन् निगोदेऽनन्तानां जीवानां भावात् , तेभ्यो बादरनिगोदजीवा: अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसहयगुणा: निगोदानाम-16 सङ्ख्यातत्वात् , एवं तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीया अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसपेयगुणा: तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा: पर्याप्ता द्रव्यार्थतया स अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~855~ Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३९] दीप अनुक्रम [३६४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [ ५ ], ---- उद्देशक: [-], मूलं [२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः जी० ७२ यगुणाः, प्रदेशार्थतया सर्वस्तोका बादरनिगोदजीवाः पर्याप्तकाः प्रदेशार्थतया निगोदानां स्तोकलात् तेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसयगुणाः निगोदानामसङ्ख्यगुणत्वात् एवं तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतवाऽसोयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया सख्येयगुणाः तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवेभ्यः पर्याप्तेभ्यो बादरनिगोदा: पर्याप्ताः प्रदेशातथाऽनन्तगुणाः, एकैकस्य निगोदस्थानन्ताणुकानन्तस्कन्धनिष्पनखात्, तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसयगुणाः एकैकवादरपर्याप्त निगोदनिश्रया सङ्ख्याऽतीतानां वादरपर्याप्त निगोदानामुत्पादात्, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया सपातगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा: पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया सोयगुणाः, द्रव्यार्थ प्रदेशार्थतया सर्वस्तोका बादरनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया, तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनि| गोदा: पर्याप्ता द्रव्यार्थतया सोयगुणाः अत्र युक्तिर्निगोदानां द्रव्यार्थतया चिन्तायामिव तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदेभ्यः पर्याप्तेभ्यो बादरनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणाः प्रतिवादर निगोदमनन्तानां जीवानां भावात् तेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्यातयाऽसङ्ख्यगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसयगुणाः तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया सोयगुणाः, अत्र युक्तिर्निगोदजीवानां द्रव्यार्थतया चिन्तायामिव तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवेभ्यः पर्याप्तेभ्यो द्रव्यार्थतया चिन्तितेभ्यो बादरनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसयेयगुणाः प्रतिवादरनिगोदपर्याप्तजीवमसङ्ख्यानां लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानां प्रदेशानां भावात्, वेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसयगुणाः तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया सोयगुणाः, युक्तिरत्र निगोदजीवानां प्रदेशार्थवया सङ्घयेयगुणचिन्तायामिव तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवेभ्यः पर्याप्तेभ्यः प्रदेशार्थतया चिन्दि For P&Praise City ~856~ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [५], --------------------- उद्देशक: -, --------------------- मूलं [२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: A प्रत सूत्रांक [२३९] प्रतिपत्ती नैरयिक|स्थित्यादि उद्देशः२ सू०२४० CCree दीप अनुक्रम [३६४] श्रीजीवा- तेभ्यो बादरनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणाः, एकैकस्मिन् निगोदेऽनन्तानामणूनों सद्भावात् , तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः जीवाभि प्रदेशार्थतयाऽसोयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसोयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता: प्रदेशार्थ- दातया सहयगुणाः, अत्र युक्तिर्निगोदानां प्रदेशाधतया चिन्तायामिव, उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि, एते षड्विधसंसारसमापनका रीयावृत्तिः जीवाः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां पञ्चम्यां प्रतिपत्ती पड्विधप्रतिपत्तिः ।। ॥४२७ अथ षष्ठी प्रतिपत्तिः तदेवमुक्ता षड्विधप्रतिपत्तिः, अधुना क्रमप्राप्तां सप्तविधप्रतिपत्तिमाह तत्थ जे ते एवमाहंसु सत्तविहा संसारसमावण्णगा ते एवमाहंसु, तंजहा-नेरइया तिरिक्खा तिरिक्खजोणिणीओ मणुस्सा मणुस्सीओ देवा देवीओ॥णेरतियस्स ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई, तिरिक्खजोणियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिनि पलिओवमाई, एवं तिरिक्खजोणिणीएवि, मणुस्साणवि मणुस्सीणवि, देवाणं ठिती जहा णेरइयाण, देवीणं जहपणेणं बसवाससहस्साई उक्कोसेणं पणपण्णपलिओवमाणि । नेरइयदेवदेवीणं जचेव ठिती सच्चेव संचिट्ठणा । तिरिक्खजोणिणीणं जहन्नेणं अंतोमु० उक्को तिनि पलिओवमाई पुब्बकोडिपुहुत्तमन्भहियाई। एवं मणुस्सस्स मणुस्सीएवि ॥णेरइयस्स अंतरं जह० अंतो CCACAEROLOCALCCC ॥॥४२७॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अत्र पञ्चमी "षविधा" प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता: अथ षष्ठी "सप्तविधा" प्रतिपत्ति: आरब्धा: *** संसारिजीवानाम् सप्तविधत्वेन प्ररुपणं- नैरयिक, मनुष्य, मनुष्यस्त्री, तिर्यञ्च, तिर्यञ्चस्त्री, देव, देवी अधिकार: आरभ्यते ~857~ Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२४०] दीप अनुक्रम [३६५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [६], उद्देशक: [-] मूलं [ २४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः ৮% % % জল मु० कोसेणं वणस्सतिकालो। एवं सव्वाणं तिरिक्खजोणिययजाणं, तिरिक्खजोणियाणं जहपण तो उ० सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं ॥ अप्पाबहुयं सव्वत्थोवाओ मणुस्सीओ मणुस्सा असंखेजगुणा नेरइया असंखेजगुणा तिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ देवा असंखेजगुणा देवीओ संखेज्जगुणाओ तिरिक्खजोणिया अनंतगुणा । सेतं सत्तविहा संसारसभावपणगा जीवा ॥ (सू० २४० ) 'तस्थे' त्यादि तत्र ये ते एवमुक्तवन्तः सप्तविधाः संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्तयथा-नैरविकास्तिर्यग्योनिका स्तिर्यग्योनिक्यः मनुष्या मानुष्यः देवा देव्यः ॥ तत्रामीयां सप्तानामपि क्रमेण स्थितिमाह 'नेरइयस्स णं भंते!' इत्यादि सप्तसूत्री, नैरविकस्य जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाथि । तिर्यग्योनिकस्य जयन्यतोऽन्तर्मुहूर्त मुस्कर्षतस्त्रीणि पल्योप| मानि । एवं तिर्यग्योनिकीमनुष्यमानुषीसूत्राण्यपि वक्तव्यानि देवसूत्रं नैरयिकवत् । देवीसूत्रे जघन्येन दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत् पल्योपमानि ईशानदेवी नामपरिगृहीतानामुत्कर्पत एतावस्थितिकत्वात् ॥ सम्प्रति कार्यस्थितिमाह - 'नेरइया णं भंते!" इत्यादि, नैरथिकाणां यदेव भवस्थितिपरिमाणं तदेव कायस्थितिपरिमाणमपि, नैरविकस्य मृत्वा भूयोऽनन्तरं नैरविकेपूपादाभावात् । तिर्यग्योनिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तदनन्तरमन्यत्रोत्पादानू, उत्कर्षतोऽनन्तं कालमनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रसोऽसोया लोका: असमुपेयाः पुलपरावर्त्ताः ते पुलपरावर्त्ता आवलिकाया असल्येयो भागः, अer भावार्थव्याख्या प्रागिव । तिर्थग्योनिकीसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तत ऊर्द्ध वाऽन्यत्रोत्पादात् उत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि पूर्वकोटीथकलाभ्यधिकानि तानि For P&False Cinly ~858~ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [६], ---------------------- उद्देशक: [-], --------------------- मूलं [२४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [२] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४० श्रीजीवा निरन्तरं सप्तसु पूर्वकोट्यायुष्केषु भवेष्वष्टमे च भवे देवकुर्वादिपूत्पन्नाया द्रष्टव्यानि । एवमेव मनुष्यसूत्र मानुषीसूत्रं च, देवस्य दे- प्रतिपत्ती व्याश्च यैव भयस्थितिः सैय कायस्थितिः, देवस्य देव्याश्च मृत्वाऽनन्तरं तद्भावनोत्पादाभावात् ।। साम्प्रतमेपामन्तर चिचिन्तयिषुराह-18/नैरयिकमलयगि 'नेरड्यस्स णं भंते !' इत्यादि, नैरथिकस्य जघन्येनान्तरमन्तर्मुहूर्त, तच्च नरकादुतस्य तिर्यग्मनुष्यगर्भ एवाशुभाध्यवसायेन मर-1 स्थित्यादि रीयावृत्तिः णतः परिभावनीय, सामुबम्धकर्मफलमेतदिति तात्पर्यार्थः, उत्कर्पतोऽनन्तं कालं, स चानन्तः कालो बनस्पतिकालः, नरकादत्तस्य उद्देशः२ ॥४२८ ॥ 11पारम्पर्यणानन्त कालं बनस्पतिष्ववस्थानात, तियंग्योनिकस्य जघन्येनान्तरमन्तमुहूर्त, तञ्च तिर्यग्योनिकभवाददत्यान्यत्रान्तमुहर्त ||सू० २४० स्थित्वा भूयस्तिर्यग्योनिवेनोत्पद्यमानस्य वेदितव्यम् , उत्कर्षत: सागरोपमशतपृथक्लं सातिरेकम् । तिर्यग्योनिकीसूत्रे मनुष्यसूत्रे मा-1 नुषीसूत्रे देवीसूत्रे च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः ।। सम्प्रत्येतेषामेव सप्तानां पदानामल्पबहुत्रमाह-एएसि ण नि-2 त्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-सर्वस्तोका मानुष्यः, कतिपयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , ताभ्यो मनुष्या असङ्ख्येयगुणाः, संमूछिम-18 मनुष्याणां श्रेण्यसाझपेयप्रदेशराशिप्रमाणलात् , तेभ्यस्तिर्यग्योनिकाः त्रियोऽसोयगुणाः, प्रतरासयेयभागवतिभेण्याकाशप्रदेशराशि प्रमाणत्वात् , ताभ्यो देवाः सोयगुणाः, धानमन्तरज्योतिष्काणामपि जलचरतिर्यग्योनिकीभ्यः सञ्चवेयगुणतया महादण्ड के पठित-IN हालात, तेभ्यो देव्यः सहयगुणा द्वात्रिंशद्गुणत्वात् , “बत्तीसगुणा बत्तीसरूवअहियाओ होति देवाणं देवीओ" इति वचनात् , ताभ्य-18 दस्तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतिजीवानामनन्तानन्तत्वात् , उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि सुगमम् ।। इति श्रीमलयगिरिविरचि#तायां जीवाभिगमटीकायां षष्ठया प्रतिपत्तौ सप्तविधप्रतिपत्तिः ।। का॥४२८॥ दीप अनुक्रम [३६५] GROCESSORSCOCAC-5% --C4850 अत्र षष्ठी "सप्तविधा" परिसमाप्ता: ~859~ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [७], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] XAMKARACANCCCRPCSCRICKR दीप अनुक्रम [३६६] अथ सप्तमी प्रतिपत्तिः तदेवमुक्ता सप्तविधप्रतिपत्तिरधुना क्रमप्राप्तामष्टविधप्रतिपत्तिमाहतत्थ जे ते एवमाहंसु-अट्ठविहा संसारसमावण्णगा जीवा ते एवमाहंसु-पढमसमयनेरतिया अपढमसमयनेरइया पढमसमयतिरिक्खजोणिया अपढमसमयतिरिक्खजोणिया पढमसमयमगुस्सा अपढमसमयमणुस्सा पढमसमयदेवा अपढमसमयदेवा ॥ पढमसमयनेरइयस्स णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! पढमसमयनेरइयस्स जह० एक समयं उको० एकं समयं । अपढमसमयनेरइयरस जहा दसवाससहस्साई समऊणाई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समऊणाई । पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जह० एकं समयं उको एक समयं, अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जह खुड्डागं भवग्गणं समऊर्ण उको० तिन्नि पलिओचमाई समऊणाई, एवं मणुस्साणवि जहा तिरिक्खजोणियाणं, देवाणं जहा रतियाणं ठिती ।। णेरडयदेवाणं जचेव ठिती सचेव संचिट्ठणा दुबिहाणवि । पढमसमयतिरिक्खजोणिए णं भंते! पढकालओ केवचिरं होति?, गोयमा! जह० एक समयं उको एक समयं, अपढमतिरिक्खजोणियस्स जह खुट्टागं भवग्गहणं समऊणं उकस्सेणं घणस्सतिकालो। पढमसमयमणुस्साणं जह० उ० एफ समयं, अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अथ सप्तमी "अष्टविधा" प्रतिपत्ति: आरब्धा: ~860~ Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [७], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः 8 प्रतिपत्ती दप्रथमसमशयनैरयिकादिस्थित्यादि उद्देशः२ ४ सू०२४१ ॥४२९॥ दीप अनुक्रम [३६६] अपढममणुस्त० जहरू खुट्टागं भवग्गहणं समऊणं उक्क तिन्नि पलिओवमाई पुख्वकोतिपुहसमन्भहियाई ॥ अंतरं पढमसमयणेरतियस्स जह• दसवाससहस्साई अंतोमुहत्तमभहियाई उको० वणस्सतिकालो, अपढमसमय जह० अंतोमु० उक० वणस्सतिकालो । पत्मसमयतिरिक्खजोणिए जहदो खुडागभवग्गहणाई समऊणाई उको वणस्सतिकालो, अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जह० खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं उको सागरोवमसतपुहत्तं सातिरेगे । पढमसमयमणुस्सस्स जह० दो खुड्डाई भवग्गहणाई समऊणाई उको० वणस्सतिकालो, अपढमसमयमणुस्सस्स जह० खुट्टागं भवग्गहणं समयाहियं उको० वणस्सतिकालो। देवाणं जहा नेरइयाणं जह० दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई उको० वणस्सइकालो, अपढमसमय जह अंतो० उदो० वणस्सइकालो ।। अप्पाबहु० एतेसि णं भंते ! पढमसमयनेरइयाणं जाव पढमसमयदेवाण य कतरे २हिंतो०?, गोयमा! सव्यस्थोवा पहमसमयमणुस्सा पढमसमयणेरड्या असंखेजगुणा पत्मसमयदेवा असंखेजगुणा पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेजगुणा ॥ अपढमसमयनेरइयाणं जाव अपहमदेवाणं एवं चेव अप्पबहु० णबरि अपढ़मसमयतिरिक्खजोणिया अर्णतगुणा ।। एतेसिं पढमसमयनेरइयाणं अपढमणेरतियाणं कयरे २१, सब्बत्थोवा पढमसमयणेरतिया अपढमसमयनेरइया असंखेजगुणा, एवं सब्वे ।। पढमसमयणेरइयाण जाव अपढमसमय -- -- ॥४२९॥ ~861~ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [७], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] देवाण य कयरे २१, सव्वस्थोवा पढमसमयमणुस्सा अपढमसमयमणुस्सा असंखेजगुणा पढमसमयणेरइया असंखिजगुणा पतमसमयदेवा असंखेनगुणा पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेजगुणा अपदमसमयनेरइया असंखेज गुणा अपढमसमयदेवा असंखेजगुणा अपढमसमयतिरिक्वजोणिया अर्णतगुणा । सेसं अट्टविहा संसारसमावणगा जीवा पण्णत्ता ।। (सू०२४१) अट्टविह पडिवत्ती समत्ता॥ 'तत्थेत्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्त:-अष्टविधाः संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्तद्यथा-प्रथमसमयनैरविका अ-16 * प्रथमसमयनैरयिकाः, प्रथमसमयतिर्यग्योनिका अप्रथमलमयतिर्यग्योनिकाः, प्रथमसमयमनुष्या अप्रथमसमयमनुष्याः, प्रथमसमय देवा अप्रथमसमयदेवाः, तत्र प्रथमसमयनारका नारकायुःप्रथमसमयसंवेदिनः अप्रथमसमयनारका नारकायुदो दिसमयवर्तिनः, एवं | दतिर्यग्योनिकादयो भावनीयाः ॥ साम्प्रतमेतेपामष्टानां क्रमेण स्थितिमाह-'पढमसमयनेरइयरस 'मित्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भग वानाह-गौतम! एक समयं, यादिपु समयेषु प्रथमसमयत्वविशेषणायोगान् , अप्रथमसमयप्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येन | दशवर्षसहस्राणि समयोनानि, समयातिकान्तावेवाप्रथमसमयविशेषगलभाचात् , उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि समयोनानि । तिर्य ग्योनिकादीनां प्रथमसमयानां सर्वेषामेकं समयं, अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकानां जघन्येन क्षुल्लकभवग्रहणं समयोनं, उत्कर्षतस्त्रीणि पापल्योपमानि समयोनानि । एवं अप्रथमसमयमनुष्याणामपि । अप्रथमसमयदेवानां जघन्येन दश वर्षसहस्राणि समयोनानि, उत्कर्षत खयसिंशत् सागरोपमाणि समयोनानि | अधुनैषामेव कायस्थितिमाह-'पढमसमयनेरइया णं भंते! पढमसमयनेरइयत्ति दीप अनुक्रम [३६६] LAGANAGAR अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~862~ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [७], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] दीप अनुक्रम [३६६] भाजावा- कालतो केवचिरं होइ ?' इति प्रभसूर्व मुगर्म, भगवानाह-गौतम! एक समयं, तदनन्तरं प्रथमसमयलविशेषणायोगान् । अप्रथ-18७ प्रतिपत्ती जीवाभि मसमयसूत्रे यदेव स्थितिपरिमाणं तदेव कायस्थितिपरिमाणमपि, देवनैरथिकाणां भूयो भूयस्तद्भावभावितया नैरन्तर्येणोत्पादायोगात् । प्रथमसममलयगि * प्रथमसमयतिर्यग्योनिकसूत्र प्रथमसमयनैरयिक सूत्रवत् , अप्रथमतिर्यग्योनिकसूत्रे जघन्येन क्षुल्लकभवग्रहणं समयोनं, समयोनता || यनैरयिरीयावृत्तिः प्रथमसमयहीनत्वात् , उत्कर्षतोऽनन्तकालं, स चानन्त: कालो बनस्पतिकाल: प्रागुक्तस्वरूपः । प्रथमसमयमनुष्यसूत्र पूर्ववन् , अन्न-18/ कादिस्थि॥४३०॥ दायमसमयमनुष्यसूत्रे जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं समयोनं, तदनन्तरं मृत्वाऽन्यत्रोत्पादार , उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्वा-तात्यादि भ्यधिकानि समयोनानि, तानि समसु भवेषु पूर्वकोट्यायुकवष्टमे भवे देवकुर्वादिपूत्पद्यमानस्य वेदितव्यानि, देवा यथा नैरयिकाः उद्देशा२ साम्प्रतमेतेषामेवाष्टानामन्तरं क्रमेण चिन्तयन्नाह-पढमसमयनेरइयस्स भंते!' इत्यादि, प्रथमसमयनैरयिकस्य भदन्त ! अन्तरं 8 सू०२४१ | कालतः कियश्चिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम! जपन्यतो दशवर्षसहस्राणि अन्तर्मुहसीभ्यधिकानि, तानि दशवर्षसहस्रथितिकस्य नैरयिकस्य नरकादुत्त्यान्यत्रान्तर्मुहूर्त खित्वा भूयो नैरपिकलेनोत्पद्यमानस्य वेदितव्यानि, उत्कर्पतोऽनन्तं कालं, स चानन्तः कालो वनस्पतिकालः प्रतिपत्तव्यः, नरकादुद्धृत्य पारम्पर्वेण बनस्पतिषु गलाउनन्तमपि कालमवस्थानान् , अप्रथमसमयनैरयिकसूत्रे जघन्य-15 मन्तरं समयाधिकमन्तर्मुहूर्त, तश्च नरकास तिर्यगगमें मनुष्यगर्भ वाऽन्तर्मुहू स्थित्वा भूयो नरकेपूत्पद्यमानस्य भावनीयं, समयाधिकता च प्रथमसमयस्याधिकत्वात् , कचिदन्तर्मुहूर्तमित्येव दृश्यते, तत्र प्रथमसमयोऽन्तर्मुहूर्त एवान्तर्भावित इति पृथमोक्तः, ॥४३०॥ | उत्कर्षतो वनस्पतिकालः । प्रथमसमयत्तिर्यग्योनिकसूत्रे जघन्येनान्तरं दे क्षुल्लकभवग्रहणे समयोने, ते च क्षुल्लकमनुष्यभवग्रहणव्यवधानतः | पुनस्तियक्ष्वेवोत्पद्यमानस्यावसातव्ये, तथाहि-एक प्रथमसमयोनं तिर्यक्षुलकभवग्रहणं द्वितीयं संपूर्णमेव मनुण्यक्षुलकभवग्रहणमिति, kGANGACSC ~863~ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [७], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, वदतिक्रमे मनुष्यभवब्यवधानेन भूयः प्रथमसमयतिर्यक्त्वोपपत्तेः, अप्रथमलमयतिर्यग्योनिकसूत्रे जघन्येनान्तरं भुलकभवग्रहणं समयाधिक, तत्तु तिर्यग्योनिकक्षुल्लकभवग्रह्णचरमसमयस्याधिकृताप्रथमसमयत्वात्तत्र मृतस्य मनुष्यक्षुल्लकभवप्रहणेन व्यवधाने सति तिर्यक्लेनोत्पद्यमानस्य प्रथमसमयातिकमे वेदितव्यं, अप्रथमसमयान्तरस्यैतावन्मात्रत्वात् , उत्कर्षतः सागरो-IN पमशतपृथक्त्वं सातिरेक, देवादिभवानामेतावन्मात्रकालत्वात् । मनुष्यवक्तव्यता तिर्यग्वक्तव्यतेव, नवरं तन्त्र तिर्यकक्षुछकभवग्रहणेन | व्यवधानं भावनीयम् । देवसूत्रद्वयं नैरयिकसूत्रद्वयवत् ॥ सम्प्रत्येषामेव चतुर्णा प्रथमसमयानां परस्परमल्पबहुत्वमाह-एएसि ण'-1 मियादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः, श्रेण्यसोयभागमात्रत्वात् , तेभ्यः प्रथमसमयनैर-17 विका असलयेयगुणाः, अतिप्रभूतानामेकस्मिन् समये उत्पादसम्भवात् , तेभ्यः प्रथमसमयदेवा असपेयगुणाः, व्यन्तरज्योतिष्काणामतिप्रभूततराणामेकस्मिन् समये उत्पादसम्भवान , तेभ्यः प्रथमसमयतिर्य चोऽसलोयगुणाः, इह ये नारकादिगतित्रयादागत्य तिर्य क्वप्रथमसमये ये वर्तन्ते ते प्रथमसमयनियंचो, न शेषाः, ततो यद्यपि प्रतिनिगोदमसहयेयो भागः सदा विग्रहगतिप्रथमसमववत्ता दालभ्यते तथाऽपि निगोदानामपि तिर्यक्वान्न ते प्रथमसमयतिर्यश्च ते एभ्य: सहारेयगुणा एव ।। साम्प्रतमेतेषामेव चतुर्णामप्रथमसमयाना परस्परगल्पबहुसमाह-एएसि ण'मित्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका अप्रथमसमयमनुष्याः, अण्यसहये य भागवान , तेभ्योऽप्रथमसमयनैरविका असहयगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः प्रथमवर्गमूले द्वितीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेहै शराशिस्वायत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्स आकाशप्रदेशातावत्प्रमाण वान्, तेभ्योऽप्रथमसमयदेवा असोयगुणाः, व्यन्तरज्योतिष्का जामपि प्रभूतत्याग, तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतीनामनन्तलात् ॥ साम्प्रतमेतेषामेव रविकादीनां प्रत्येकं प्रथमसमयाप्रथमसमयगतमल्पवहुत्वमाह-एएसि णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोकाः दीप अनुक्रम [३६६] 644C5%25%*CALCCAKACT अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~864~ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [७], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] श्रीजीवा- प्रथमसमयनैरयिकाः, एकस्मिन् समये समातीताना [प्रन्थानम् १३०००] मपि स्तोकानामेवोत्पादान, तेभ्योऽप्रथमसमयनैर- प्रतिपत्तौ जीवाभिनायिका असङ्खयेय गुणाः, चिरकालावस्थायिनां तेषामन्याऽन्योत्पादेनातिप्रभूतभावात् । एवं तिर्यग्योनिकमनुष्यदेवसूत्राग्यपि वक्तव्यानि, 11 पृथ्वीकामलयगि- दानवरं तिर्यगयोनिकसूत्रेऽप्रथमसगयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणा वक्तव्याः, वनस्पतिजीवानामनन्तखात् ॥ साम्प्रतमेपामेव नैरयिकादीनां यातिथिरीयावृत्तिः प्रथमाप्रथमसमयानो समुदायेन परस्परमल्पबहुलमाह-'एएसिण मित्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सर्वसोकाः प्रथमसम-1 ॥४३॥ यमनुष्याः, एकस्मिन् समये सहयातीतानामपि स्तोकानामेवोत्पादान् । तेभ्योऽप्रथमसमयमनुष्या असहयगुणाः, चिरकालावस्थायित-151 उद्देशः२ याऽतिप्राभूत्येन लभ्यमानत्वात् , तेभ्यः प्रथमसमयनैरविका असहयेयगुणाः, अतिप्रभूततराणामेकस्मिन् समये उत्पादसम्भवात् , तेभ्यः समय उत्पादसम्मवात, तभ्यः सू०२४२ प्रथमसमयदेवा असख्येयगुणाः, व्यन्तरज्योतिष्काणामेकस्मिन्नपि समये प्राचुर्येण कदाचिदुत्पादान् , तेभ्वः प्रथमसमयतिर्थग्योनिका असयेयगुणाः, नारकवर्जगतित्रयादप्युत्पादसम्भवान् , तेभ्योऽप्रथमसमयनैरयिका असपेयगुणाः, अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशेः प्रथमवर्गमूले | द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणत्वान् , तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतिजीवानामनन्त| स्वाग, उपसंहारमाह-'सेत्त'मिलादि ।। इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायर्या सप्तम्या प्रतिपत्ती अष्टविधप्रतिपत्तिः ।। - दीप अनुक्रम [३६६] - अथाष्टमी प्रतिपत्तिः तदेवमुक्ताऽष्टविधप्रतिपत्रिधुना क्रमप्राप्तां नवविधप्रतिपत्तिमाह तत्थ णं जे ते एवमाहमु णवविधा संसारसमावण्णगा ते एवमाहंसु-पुढविक्काइया आउक्काइया ॥४३१॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अत्र सप्तमी "अष्टविधा" प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता: अथ अष्टमी "नवविधा" प्रतिपत्ति: आरब्धा: *** संसारिजीवानाम् षड्विधत्वेन प्ररुपणं- पृथ्वि, अप, तेउ, वाय, वनस्पतिपर्यन्त एवं द्वि-इन्द्रियादि चत्वार: जीवाधिकार: आरभ्यते ~8654 Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [८], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४२] दीप अनुक्रम तेउकाइया वाउक्काइया वणस्सइकाइया घेइंदिया तेइंदिया चाउरिंदिया पंचेविया ॥ ठिती सम्बेसि भाणियब्वा । पुढविकाइयाणं संचिट्ठणा पुढविकालो जाव चाउकाइयाणं, वणस्सईणं यणस्सतिकालो, बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया संखेनं कालं, पंचेंदियाणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं ॥ अंतरं सम्वेसिं अणतं कालं, वणस्सतिकाइयाणं असंखेज कालं ॥ अप्पाबहुगं, सब्बत्थोवा पंचिद्रिया चरिंदिया विसेसाहिया तेइंदिया विसेसाहिया बेइंदिया विसेसाहिया तेउकाइया असंखे० पुढविका० आउ० बाउ० विसेसाहिया वणस्सतिकाइया अर्णतगुणा । सेतं णवविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ।। (१०२४२) णवविहपडिवत्ती समत्ता ॥ 'तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तो नवविधाः संसारसमापना जीवा: प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तबन्तस्तद्यथा-पृथिवीकाथिका अप्कायि| कास्तेजस्कायिका बायुकायिका वनस्पतिकायिका द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः, अमीषां शब्दार्थभावना प्राग्वत् ॥ साम्प्रतमेतेपां स्थितिनिरूपणार्थ सूत्रनवकमाह-'पुढविक्काइयस्स णं भंते!' इत्यादि, एष स पार्थ:-सर्वत्रापि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त-|| मुत्कर्पतः पृथिवीकायिकस्य द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, अपकायिकस्य सप्तवर्षसहस्रागि, तेजस्कायिकस्य त्रीणि रात्रिन्दिवानि, वायुकाविकस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि, वनस्पतिकायिकस्य दशवर्षसहस्राणि, द्वीन्द्रियस्य द्वादश संवत्सराणि, श्रीन्द्रियौकोनपश्चाशद् रात्रिंदिवानि, | चतुरिन्द्रियस्य षण्मासाः, पञ्चेन्द्रियस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ।। सम्प्रति कायस्थितिप्रतिपादना) सूत्रनवकमाह-'पुढविकाइए भंते !' इत्यादि, सर्वत्र जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतः पृथिवीकायस्यासहधेयं कालमसङ्गयेया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽ [३६७] ~866~ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२४२] दीप अनुक्रम [३६७] श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ४३२ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - प्रतिपत्ति: [८], ----- उद्देशक: [-], मूलं [ २४२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सङ्ख्या लोकाः, एवमतेजोवायुकायिकानामपि द्रष्टव्यं वनस्पतिकायिकस्यानन्तं कालमनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽनन्ता ८ प्रतिपत्तौ लोका: असलेयाः पुढपरावतः आवलिकाया असोयो भागः, द्वीन्द्रियस्य सङ्ख्येयं कालं, एवं श्रीन्द्रियस्य चतुरिन्द्रियस्य पञ्चेन्द्रि* पृथ्वीका यस्य च सागरोपमसहस्रं सातिरेकम् ॥ साम्प्रतमन्तरप्रतिपादनार्थमाह - 'पुढविकाइयस्स णमित्यादि, पृथिवीकायिकस्य मदन्त ! अन्तरं कालतः क्रियचिरं भवति ?, भगवानाह - गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम्, अन्यत्रान्तर्मुहूर्त्त स्थित्वा भूयः पृथिवीकायिकत्वेन करवाप्युपादान् उत्कर्षतोऽनन्तं कालमनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः असङ्ख्याः पुलपरावर्त्ताः से च पुलपरावर्त्ता आवलिकाया असङ्ख्य भागः, पृथिवीकायादुद्धृत्य वनस्पतिष्येतावन्तं कालं कस्याप्यवस्थानसम्भवात् एवमतेजोवायुद्वित्रिच ४ तुष्पश्वेन्द्रियाणामपि वक्तव्यं, वनस्पतिकायिकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तद्भावना प्रागिव, उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयं कालमसङ्ख्या उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रटोsसोया लोकाः, शेषका पूरकर्पतोऽप्येतावन्तं कालमवस्थासम्भवात् । साम्प्रतमेतेपामल्पबहुत्वमाह - ४ 'एएसि ण' मित्यादि प्रनसूत्रं सुगमं, भगवानाह गौतम ! सर्वस्तोकाः पच्चेन्द्रियाः सङ्ख्ययोजन कोटी कोटीप्रमाणविष्कम्भसूचीप्रमितमतरासयेय भागव सोय श्रेणिगता काशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, विष्कम्भसूच्यास्तेषां प्रभूतस| पेययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वात्, वेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततरसङ्ख्येययोजनकोटी कोटी प्रमाणत्वात् तेभ्यो द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततमसङ्ख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वात्, तेभ्यस्तेजस्कायिका असयगुणाः, असङ्ख्य लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् तेभ्यः पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः प्रभूतास पेयलोकाकाशप्रदेश प्रमाणत्वान्, तेभ्योऽकायिका विशेषाधिकाः प्रभूततरासलेलोका काशप्रदेशप्रमाणत्वात् तेभ्यो वायुकायिका विशेषाधिकाः प्रभूतत मास पेय लो | ॥ ४३२ ॥ For P&Praise Cnly यादिस्थित्यादि उद्देशः २ सू० २४२ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~867~ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [८], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: काकाशप्रदेशप्रमाणलात , तेभ्यो वनस्पतिकाविका अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि मुगमम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां अष्टम्यां प्रतिपत्तौ नवविधप्रतिपत्तिः समाता ॥ प्रत सूत्रांक [२४२] दीप अनुक्रम [३६७] अथ नवमी प्रतिपत्तिः उक्ता नवविधप्रतिपत्तिः, सम्प्रति क्रमप्रानां दशविधप्रतिपत्ति प्रतिपादयति तत्थ णं जे ते एवमाहंस दसविधा संसारसमावण्णगा जीवा ते एवमाहंसु तंजहा-पदमसमयएगिदिया अपढमसमयएगिदिया पढमसमयवेइंदिया अपढमसमयबेईदिया जाव पढमसमयपंचिंदिया अपढमसमयपंचिंदिया, पढमसमयएगिदियस्स णं भंते! केवतियं कालं ठिती पपणता? गोयमा! जहणणेणं एक समयं 'उको एक, अपढ मसमयएगिदियस्स जहणेणं खुट्टागं भवरगहणं समऊणं उको बावीसं वाससहस्साई समऊणाई, एवं सब्बसिं पढमसमयिकाणं जहपणेणं एको समओ उकोसेणं एक्को समओ, अपदमा जहपणेणं खुड्डागं भवग्गहर्ण समऊणं उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समऊणा जाव पंचिंदियाणं तेत्तीसं सागरोवमाई समऊणाई ।।संचिट्ठणा पढमसमयस्स जहणणं एक समयं उकोसेणं एक समयं, अपढमसमयकाणं जहणणं खुड्डागं भवग्गहर्ण समऊणं जी०७३ अत्र अष्टमी "नवविधा" प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता: अथ नवमी "दशविधा" प्रतिपत्ति: आरब्धाः ~868~ Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [९], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३] श्रीजीवा जीनाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥४३३॥ उक्कस्सेणं एगिदियाणं वणस्सतिकालो, बेईदियतेइंदिघचाउरिदियाणं संखेनं कालं पंचंदियाणं सागरोवमसहस्सं सातिरेग ।। पढमसमयएगिदियाणं केवतियं अंतर होति ?, गोयमा! जहन्नेणं दो खुट्टागभवग्गहणाई समऊणाई, उक्को० वणस्सतिकालो, अपडमएगिदिय. अंतरं जहपणेणं खुहागं भवग्गहणं समयाहियं उको दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई, सेसाणं सम्बेसिं पढमसमयिकाणं अंतरं जह० दो खुड्डाई भवग्गहणाई समऊणाई उको० वणस्सतिकालो, अपढमसमयिकाणं सेसाणं जहपणेणं खुट्टागं भवग्रहणं समयाहियं 'उको० वणस्सतिकालो ।। पढमसमइयाणं सब्वेसि सव्वत्थोवा पढमसमयपंचे दिया परम चरिंदिया बिसेसाहिया पढमतेइंदिया विसेसाहिया प० बेइंदिया विसेसाहिया प० एगिदिया विसेसाहिया । एवं अपढमसमयिकावि णवरि अपतमसमयएगिदिया अणंतगुणा । दोहं अप्पबहू, सब्वस्थोषा पढमसमयएगिदिया अपढमसमयएगिदिया अणंतगुणा सेसाणं सव्वस्थोचा पढमसमयिगा अपढम० असंखेजगुणा ।। एतेसिणं भंते! पढमसमयएगिदियार्ण अपढमसमयएगिदियाणं जाव अपढमसमयपंचिंदियाण य कयरे २१, सव्वत्थोवा पढमसमयपंचेंदिया पढमसमयचउरिंदिया बिसेसाहिया पढमसमयतेइंदिया विसेसाहिया एवं हेहामुहा जाव पढमसमयएगिदिया विसेसाहिया अपढमसमयपंचेंदिया असंखेजगुणा अपढमसमयचरिंदिया विसेसाहिया जाव ९.तिपत्ती प्रथमसमबकादीनां स्थिातकायस्थित्यन्तराल्पबहुत्वानि उद्देशः २ दीप अनुक्रम [३६८] सू०२४३ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~869~ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [९], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३] अपढमसमयएगिदिया अर्णतगुणा ।। (सू० २४३) । सेतं दसविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, सेत्तं संसारसमावण्णगजीवाभिगमे। 'तत्थेत्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तो दशविधा: संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञापाले एवमुक्तवन्तस्तद्यथा-प्रथमसमयकेन्द्रिया अप्रथमसमयैकेन्द्रियाः प्रथमसमयद्वीन्द्रिया अप्रथमसमयद्वीन्द्रियाः प्रथमसमयत्रीन्द्रिया अप्रथमसमयत्रीन्द्रियाः प्रथमसमयचतुरिन्द्रिया अप्रथमसमयचतुरिन्द्रियाः प्रथमसमयपश्चेन्द्रिया अप्रथमसमयपञ्चेन्द्रिया: प्रथमसमयाप्रथमसमयव्याख्यानं पूर्ववत्। साम्प्रतमेतेपामेच दशानां क्रमेण स्थिति निरूपयति-पढमसमये त्यादि, प्रथमसमयैकेन्द्रियस्य भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम! एकं समय, द्वितीयादिषु समयेषु प्रथमसमयत्वविशेषणस्यायोगात् , एवं प्रथमसमयद्वीन्द्रियादिसूत्रेष्वपि वक्तव्यं, अप्रथमसमयकेन्द्रियसूत्रे जघन्यतः क्षुल्लकभवपाहणं-षट्पश्चाशदधिकावलिकाशतद्वयप्रमाणं समयोनं, समयोनता प्रथमसमयेऽप्रथमसमयथायोगात् , उत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयोनानि, प्रथमसमयेन हीनत्वात् , अप्रथमसमयद्वीन्द्रियसूत्रे जघन्यं पूर्ववन् , उत्कर्षतो द्वादश संवत्सरा: समयोना:, अप्रथमसमयत्रीन्द्रियसूत्रेऽपि जघन्य तथैव, उत्कर्षत एकोनपञ्चाशद्वानिन्दिवानि समयोनानि, अप्रथमसमयचतुरिन्द्रियसूत्रेऽपि जघन्यं तथैव, उत्कर्षतः षण्मासाः समयोनाः, अप्रथासमयपश्चेन्द्रियसूत्रे जघन्य प्राग्बत् , उत्कर्षतस्रयविंशत्सागरोपमाणि समयोनानि, समयोनता सर्वत्रापि प्रथमसमयेन हीना प्रतिपत्तव्या ॥ साम्प्रतमेतेषां क्रमेण कायस्थितिमाह-'पढमसमये' इत्यादि, प्रथमसमयैकेन्द्रियो भदन्त ! प्रथमसमयैकेन्द्रिय इति-प्रथमसमय केन्द्रियत्वेन कालत: 'कियश्चिरं' कियन्तं कालं याबद्भवति ?, भगवानाह दीप अनुक्रम [३६८] ~870~ Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२४३] दीप अनुक्रम [३६८] प्रतिपत्ति: [९], ----- उद्देशक: [-] मूलं [ २४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरोयावृत्तिः * ॥ ४३४ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) - Ebemor in -गौतम! एकं समयं तत ऊर्द्ध प्रथमसमयत्वायोगात् एवं प्रथमसमवद्धीन्द्रियादिष्वपि वाच्यं । अप्रथमसमवै केन्द्रियसूत्रे जघन्यतः शुल्लकभवग्रहणं समयोनं, तत ऊर्द्धमन्यत्र कस्याप्युत्पादान् उत्कर्पतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रवोऽनन्ता लोका असलेयाः पुलपरावर्त्ताः ते च पुलपरावर्त्ता आवलिकाया असोयो भागः, एतावन्तं कालं वनस्पतिष्ववस्थान संभवान् अप्रथमसमयद्वीन्द्रियसूत्रे जघन्यं तथैव उत्कर्षतः सङ्ख्येयं कालं, तत अवश्यमुर्त्तनाद् एवमप्रथमसमय त्रिचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि वतव्ये, अप्रथमसमयपञ्चेन्द्रियसूत्रे जघन्यं तथैव, उत्कर्षतः सातिरेकं सागरोपमसहस्रं देवादिभवभ्रमणस्त्र सातत्येनोत्कर्षतोऽप्ये| तावत्कालप्रमाणत्वात् ॥ साम्प्रतमन्तरं चिचिन्तविपुराह - 'पढमसमये 'त्यादि, प्रथमसमयैकेन्द्रियस्य भदन्त ! अन्तरं कालतः कियचिरं भवति ?, भगवानाह - गौतम ! जपन्यतो द्वे कभवग्रहणे समयोने, ते च लकभवग्रहणे द्वीन्द्रियादिभवग्रहणव्यवधानतः पुनरेकेन्द्रियेष्वेवोत्पद्यमानस्याव सातब्ये, तथाहि एकं प्रथमसमयोनमे केन्द्रिय एक भयग्रहणमेव द्वितीयं संपूर्णमेव द्वीन्द्रियाद्यन्यतमक्षुद्धकभवग्रहणमिति, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स चानन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽनन्ता लोका: असया: पुद्गलपरा वर्त्ताः ते च पुनलपरावस आवलिकाया असल्येयो भाग इत्येवंस्वरूपः तथाहि एतावन्तं हि कालं सोऽप्रथमसमयो नतु प्रथमसमय:, ततो द्वीन्द्रियादिषु क्षुतकभवमहणमवस्थायै केन्द्रियत्वेनोत्पद्यमानः प्रथमे समये प्रथमसमय इति भवत्युत्कर्षतो वनस्पतिकालोस्तरं, अप्रथमसमयै केन्द्रियस्य जघन्यमन्तरं क्षुल्लकभवग्रहणं समयाधिकं तचैकेन्द्रियभवगतच रमसमयस्याध्यप्रथम समयत्वात्तत्र मृतस्व द्वीन्द्रियादिक्षुलकभवग्रहणेन व्यवधाने सति भूय एकेन्द्रियत्वेनोत्पन्नस्य प्रथमसमयातिक्रमे वेदितव्यं एतावन्तं कालमप्रथमसमयान्तरभावान्, उत्कर्षतो द्वे सागरोपमसहस्रे सयवर्षाभ्यधिके, द्वीन्द्रियादिभवभ्रमणस्योत्कर्षतोऽपि सातत्येनैतावन्तं कालं सम्भवात् प्र For P&Praise City ९ प्रतिपत्ती | प्रथमसमयकादीना # स्थितिका यस्थित्य ~871~ न्तराल्प बहुत्वानि उद्देशः २ | सू० २४३ ॥ ४३४ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [९], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३] थमसमयद्वीन्द्रियस्य जघन्येनान्तरं द्वे क्षुल्लकभवग्रहणे समयोने, तद्यथा-एकं द्वीन्द्रियक्षुल्लकभवग्रहणमेव प्रथमसमयोनं, द्वितीय सम्पूर्णमेवैकेन्द्रियत्रीन्द्रियाद्यन्यतमक्षुल्लकभवग्रहणं, (मिति, एवं प्रथमसमवत्रिचनुपपञ्चेन्द्रियाणामप्यन्तरं वेदितव्यं, अप्रथमसमय द्वीन्द्रियस्य जयन्येनान्तरं भुलकभवग्रहणं समयाधिकं तच्चैकेन्द्रियादि) विंयमसनयत्रीन्द्रिय क्षुल्लकभवं स्थित्ला भूयो द्वीन्द्रियत्वेनोत्पन्न व प्रथ-] मसमयातिकमे बेदितव्यं, उत्कर्षतोऽनन्त कालगनन्ता उत्सविण्यासविण्यः कालत: क्षेत्रतोऽनन्ता लोका असत्ययाः पुद्गलपरावर्ताः, ते च पुद्गलपरावर्ती आबलिकाया असल्येयो भागः, पतावांश्च द्वीन्द्रियभवादुतावन्तं कालं वनस्पतिपु स्थित्वा भूयो द्वीन्द्रियले हानोत्पन्नस्य प्रथमसमयातिक्रमे भावनीयः, एवमप्रथमसमबत्रिचतुष्प चेन्द्रियाणामपि जघन्यनुत्कुष्टं चान्तरं वक्तव्यं, भावनाप्येलदन सारेण स्वयं भावनीया ।। साम्प्रतमतेषामेकेन्द्रियाविप्रथमसमयानां परम्परमरूपबहुलमाह-एएसि ण'मित्यादि प्रभसूत्रं सुगर्भ, भगवानाह-गौतम ! सर्वलोका: प्रथमसमयप चेन्द्रियाः, अल्पानामेवैकस्मिन लमये तेपामुत्पादान् , तेभ्य: प्रथमसमयचतुरिन्द्रिया | विशेषाधिकाः, प्रभूतानां तेषामेकस्मिन् समये उत्पादसम्भवान् , तेभ्यः प्रथमसमयत्रीन्द्रिया विशेषाधिका:, प्रभूततराणां ते पाने कन्मिन | समये उत्पादान, सेभ्यः प्रथमसमपद्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, प्रभूतानां तेषामे कस्मिन् समये उपादान, सेभ्यः प्रथमसमय केन्द्रिया साविशेषाधिकाः, इह ये दीन्द्रियादिभ्य उडूत्य एकेन्द्रियखेनोत्पद्यन्ते त एव प्रथमे समये वर्तमाना: प्रथमसमयकेन्द्रिया नान्ये, ने च। प्रथमसमयद्वीन्द्रियेभ्यो विशेषाधिका एव नासद्ध्ये या नानन्तगुणा इति ।। साम्प्रतमप्रथमसमयानाभतेषामल्पबहुत्वमाह-पपलि जमिमायादि प्रभसूत्र सुगम, भगबानाह-गौतम! सर्वस्तोका अनयमसमयपथेन्द्रियाः, तेभ्योऽप्रथमसमय चतुरिन्द्रिया विशेषायिकाः, -11 योऽप्रथमममयत्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्योऽप्रथमसमयद्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, अत्र युक्तिवविधप्रतिपत्तो मामान्यतो द्वित्रिच दीप अनुक्रम [३६८] KActroCOMAARAK ~872~ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [९], ---------------------- उद्देशक: [-], --------------------- मूलं [२४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३] दीप अनुक्रम [३६८] श्रीजीवा- तुष्पश्चेन्द्रियाणां बहुखचिन्तायामिव भावनीया, तेभ्योऽप्रथमसमथैकेन्द्रिया अनन्तगुणा बनस्पतिजीवानामनन्तस्यात् ॥ साम्प्रतमेकेजीवाभिन्द्रियादीनां प्रत्येकं प्रथमसमयाप्रथमसमयानां परस्परमल्पबहु बमभिनित्सुः प्रथमत एकेन्द्रियाणां तावदाह-एएसि णं भंते !' इ- पधमलममलयगि- त्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोकाः प्रथमसमयकेन्द्रियाः, अस्पानामे कस्मिन् समये द्वीन्द्रियादिभ्य आगतानामु- कादीना रीयावृत्तिःपादान , तेभ्योऽप्रथमसमयैकेन्द्रिया अनन्तगुणा बनस्पतीनामनन्तत्यान् । द्वीन्द्रियसूत्रे सर्वस्तोकाः प्रथमसमयद्वीन्द्रिया अप्रथमसस- स्थितिका दायद्वीन्द्रिया असहयगुणाः, द्वीन्द्रियाणां सर्वसङ्ख्ययाऽध्यसवातवान्, एवं त्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियसूत्राण्यपि वक्तव्यानि ॥ साम्प्रतमेतेषां 6 यस्थित्य॥४३५॥ दशानामपि परस्परमल्यवहुलमाह-एएसि मिलादि प्रशसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्वलोकाः प्रथमसमयपञ्चेन्द्रियाः, न्तराल्पहातेभ्यः प्रथमसमयचतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्यः प्रथमसमवत्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्यः प्रथमसमबद्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, बहुत्वानि दातेभ्यः प्रथमसमपैकेन्द्रिया विशेषाधिकाः, अत्र युक्तिः प्रथमाल्पबहुववन् , तेभ्योऽपधगलमयपधेन्द्रिया अमवेयगुणाः, अप्रथमसम- उद्देशः २ कायैकेन्द्रिया दि द्वीन्द्रियादिभ्य उद्ध्यैकेन्द्रियभवप्रथमसमये वर्तमानास्ते च स्तोका एव, पोन्द्रियात्मप्रश्रमसमयवर्तिनश्चिरकालावस्था- सू०२४३ ४ावितया गतिचतुष्टये ऽप्यतिप्रभूतास्ततोऽसहयेयगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयचतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्योऽप्रथमसमयत्रीन्द्रिया विशे पाधिकाः, तेभ्योऽप्रथमसमयद्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्योऽप्रथमसमवैकेन्द्रिया अनन्तगुणाः, अत्र युक्तिद्वितीयाल्पबहलबत् , उपसं-1 हारमाह-'सेत्तं दसविहा संसारसमापन्ना जीया' । मूलोपसंहारमाह-'सेत्तं संसारसमापन्नजीवाभिगमे ।। इति श्रीमलयनि-11 हारिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां दुशविधप्रतिपत्ति: समाप्रा ।। तत्समाप्तौ च समाप्तः संसारसमापन्न जीवाभिगमः ।। ॥४३५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अत्र नवमी "दशविधा" प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता: ~873~ Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४४] %AKAAROCKR दीप अनुक्रम [३६९] तदेवमुक्तः संसारसमापन्नजीवाभिगमः, साम्प्रतं संसारासंसारसमापन्नजीवाभिगममभिधित्सुराह से किं तं सब्बजीवाभिगमे ?, सब्बजीवेसु ण इमाओ णव पडिवत्तीओ एवमाहिति एगे एयमाहंसु-दुविहा सधजीवा पपणता जाव दसविहा सबजीवा पपणत्ता ॥ तत्थ जे ते एवमाहंस दुविहा सध्वजीचा पण्णता ते एवमाहंसु, तंजहा-सिद्धा य असिद्धा य इति । सिद्धे ण भंते। सिद्धेत्ति कालतो केवचिरं होति?, गोयमा! सातीअपज्जवसिए ॥ असिद्धे णं भंते! असिद्धेत्ति०?, गोयमा! असिद्धे दुबिहे पण्णत्ते, तंज हा-अणाइए वा अपजवसिए अणातीए वा सपज्जवसिए । सिद्धस्स गं भंते! केवतिकालं अंतरं होनि?, गोयमा! सातियस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं ।। असिद्धस्स णं भंते! केवइयं अंतर होइ?, गोयमा! अणातियस्स अपजवसियस्स णधि अंतरं, अणातियस्स सपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं । एएसिणं भंते ! सिद्धाणं असिद्धाण य कयरे २१, गोयमा! सव्वत्थोवा सिद्धा असिद्धा अणंतगुणा (मू०२४४) 'से किं तमित्यादि, अध कोऽसौ सर्वजीयाभिगम: १, सर्वजीवा: संसारिमुक्तभेदाः, गुरुराह-'सबजीवेसुण'मित्यादि, सर्वजीवेषु सामान्येन 'एता:' अनन्तरं वक्ष्यमाणा नव प्रतिपत्तवः 'एवम्' अनन्तरगुपदर्यमानेन प्रकारेणात्यायन्ते, ता एवाह-एके ए-18 बमुक्तबन्तो-द्विविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्ताः, एक एवमुक्तवन्तविविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञानाः, एवं याबदेके एवमुक्तवन्तो देशविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्ताः ।। 'तत्धे'त्यादि, तन्न ये ते एवमुक्तवन्तो द्विविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्त यथा-सिद्धाश्चासिद्धाश्च, सितं-| अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: १-[द्विविधा] आरब्धा: ~874~ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति [१], ------------------- मूलं [२४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४४] | भेदादि सू०२४४ दीप अनुक्रम [३६९] श्रीजीवा- बद्धभष्टप्रकार कर्म भारी-भस्मीकृतं वैसे सिद्धाः, पृपोररादित्वादिष्टरूपनिष्पतिः, निर्दग्धकम्मेन्धना मुक्ता इत्यर्थः, 'असिद्धाःसं-1 प्रतिपत्ती जीवाभिः सारिणः, यज्ञब्दी स्वगतानेकभेदसं दर्शनार्थी । सम्प्रति सिद्धव कायस्थितिमाह--'सिद्धे 'मित्यादि, सिद्धो भदन्त ! सिद्ध इति- सर्वजीवामलयगि- सिद्धलेन कालत: कियविरं भवति ?, भगवानाह-गौतम! सिद्धः सादिको उपर्यवसितः, तत्र सादिता संसारविप्रमुक्तिसमये सिद्ध-11 भिगमे सिरीयावृत्तिः कावभावात् , अपर्षपसितता सिद्धत्वकयुतेरसम्भवान् ।। असिद्धविषयं प्रभसूर्य भुगम, भगवानाह-गौतम! असिद्धो द्विविधः प्राम-IN |द्धासिद्ध हस्ताथा-अनादि कोऽपर्यवसितः अनादिकः सपर्यवलितः, तत्र यो न जातुचिदपि सेत्स्यति अभन्यत्वात्तथाविधसामन्यभावाद्वार ॥ ४३६ ॥ सोऽनावपर्यवसितः, यस्तु सिद्धिं गतः सोऽनादिसपर्यवसितः ।। साम्यतनन्तरं विचिन्तयिपुराह-'सिद्धस्स ण भंतें इत्यादि । | उद्देशः२ प्रभसूत्रं मुगम, भगवानाह-गौतम! सिद्धस्य सादिकस्यापर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम् , अत्र 'निमित्तकारणहेतुपु सर्वासां विभक्तीनां सायो दर्शन मिति न्यायान् हेतौ पष्टी, तनोऽयमर्थः-यस्मासिद्धः सादिरपर्यवसितस्तस्मान्नास्त्यन्तरम् , अन्यथाऽपर्यवसितत्वायोगात् ॥ असिद्धसूत्रे असिद्धस्यानादिकस्यापर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम्, अपर्यवसितत्वादेवासिद्धत्वाच्चुतेः, अनादिकसपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं, भूयोऽसिद्धलायोगात् ।। साम्प्रतीतेपामेवाल्पबहुत्वमाह-एएसि 'मित्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोकाः सिद्धाः असिद्धा अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामतिप्रभूतत्वान् ।। अहवा दुविहा सब्बजीवा पणत्ता, तंजहा-सइंदिया चेव अणिंदिया चेव । सइंदिए णं भंते ! कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! सइंदिए दुविहे पत्ते-अणातीए वा अपजवसिए अणाईए ॥४३६॥ वा सपज्जवसिए, अणिदिए सातीए वा अपजयसिए, दोपहवि अंतरं नस्थि। सब्यस्थोवा अणिJhannel अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~875~ Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [१], -------------------- मूलं [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४५] दिया सइंदिया अर्गतगुणा । अहवा दुविहा सबजीवा पणत्ता तंजहा-सकाइया चेव अकाइया चेच एवं घेव, एवं सजोगी चेव अजोगी चेव तहेब, [एवं सलेस्सा चेच अलेस्सा चेव, ससरीरा चेव असरीरा चेच] संचिट्ठणं अंतरं अप्पायहुयं जहा सइन्दियार्ण ॥ अहवा दुविहा सब्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा--सवेदगा चेव अवेदगा चेव ॥ सवेदए णं भंते! सवे ? गोयमा! सवेयए तिबिहे प. पणते, तंजहा-अणादीए अपजवसिते अणादीए सपजवसिए साइए सपजबसिए, तत्थ ण जे से साइए सपजयसिए से जह अंतोमु. उको अर्थतं कालं जाव खेत्तओ अवह पोग्गलपरिपद देसूर्ण ॥ अवेदए णं भंते ! अवेयएत्ति कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा! अवेदए विहे पपणत्ते, तंजहा-सातीए वा अपज्जवसिते साइए वा सपजवसिए, तत्थ णं जे से सादीए सपजयसिते से जहणेणं एवं समयं उको० अंतोमुहत्तं ।। सवेयगस्स णं भंते! केवतिकालं अंतर होइ?, अणादियस्स अपजवसियस्स पत्थि अंतरं, अणादियस्स सपज्जवसियस्स नस्थि अंतरं, सादीपस्स सपज्जवसियस्स जहपयोणं एक समयं उक्कोसेर्ण अंतोमुहत्तं ॥ अवेदगस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ?, सातीयस्स अपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं, सातीयस्स सपजबसियस्स जह० अंलोमु 'उकोसेणं अणतं कालं जाच अवर्ल्ड पोग्गलपरियई देसूणं । अप्पायटुगं, सम्वत्थोवा अवेयगा सवेयगा अणंतगुणा । एवं सकसाई चेव अकसाई चेव २ जहा सवे दीप अनुक्रम [३७० MCHAC-ACCROGRACTk: ~876~ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [१], -------------------- मूलं [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४५]] दीप अनुक्रम यके तहेव भाणियब्वे ॥ अहवा दुविहा सब्यजीवा-सलेसा य अलेसा य जहा असिद्धा श्रीजीवा प्रतिपत्ती सर्वजीवाजीवाभि. सिद्धा, सब्वत्थोवा अलेसा सलेसा अर्णतगुणा (सू०२४५) भिगमे सेमलयगि- अथवा द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सेन्द्रियाश्च अनिन्द्रियाश्च, तत्र सेन्द्रियाः-संसारिणः अनिन्द्रिया:-सिद्धाः, उपाधिमे-18 |न्द्रियकारीयावृत्तिः दात्पुथगुपन्यासः । एवं सकायिकादिध्वपि भावनीयं, बत्र सेन्द्रियस्य कायस्थितिरन्तरं चासिद्धवद्वक्तव्यं, अनिन्द्रियस्य सिद्धवत् , तश्चैवम्-'सइंदिए भंते ! सइंदियत्ति कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! सईदिए दुविहे पन्नते, जहा-अणाइए वा अपज्जवसिए ॥४३७॥ अणाइए वा सपजाबसिए, अणिदिए गं भंते ! अणिदिएत्ति कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! साइए अपजवसिए, सइंदियस्स गं | यलेश्याभंते ! कालओ केवचिरं अंतरं होइ?, गोयमा! अणाइयस्स अपनवसियस नथि अंतरं, अणाइअस्स सपज्जवसिवस्स नत्थि अंतरं, अ- भेदादि पाणिदियस्स गं भंते ! अंतरं कालतो केवचिरं होइ?, गोबमा ! साइयस्स अपजवसियस्स नस्थि अंतरं' इति, अल्पबहुखसूत्रं पूर्ववझावनीयं । उद्देशः २ | एवं कायस्थित्यन्तराल्पवहुलसूत्राणि सकायिकाकायिकविषयाणि सयोग्ययोगिविषयाण्यपि भावयितव्यानि, तचैवम्-'अहवा दुनिहा || सब्यजीवा पण्णता, तंजहा-सकाइया चेव अकाइया चेष, एवं सजोगी चेव अजोगी चेव तहेब, एवं सलेस्सा व अलेस्सा घेवY ससरीरा चेव असरीरा चेव संचिट्ठणं अंतर अप्पाबहुयं जहा सकाइयाणं ।' भूयः प्रकारान्तरेण द्वैविध्यमाह-'अवे'यादि, अथवा द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सवेदकाच अवेदकाश्च । तत्र सवेदकस्य कायस्थितिमाह-सवेदए णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सवेदकत्रिविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अनाद्यपर्ववसितः अनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश, तत्रानाद्यप- ४३७ Bार्यवसितोऽभब्यो भन्यो वा तथाविधसामय्यभावान्मुक्तिमगन्ता, उक्तञ्च-भव्वावि न सिग्नंति केई" इत्यादि, अनादिसपर्यवसितो RECTOR [३७० Re अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~ 877~ Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [१], -------------------- मूलं [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४५] --2-5 | भग्यो मुक्तिगामी पूर्वमप्रतिपन्नोपशमणिः, सादिसपर्यवसितः पूर्व प्रतिपश्नोपशमश्रेणिः, उपशमणि प्रतिपद्य दोपशमोत्तरकालावेदकत्वमनुभूय श्रेणिसमानौ भवक्षयादपान्तराले मरणतो वा प्रतिपततो वेदोत्ये पुन: सवेदकलोपपत्तेः, तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितो जघन्येनान्तर्मुहूर्त अणिसमाप्ती सवेदकत्वे सत्ति पुनरन्तर्मुहून श्रेणिप्रतिपत्तायवेदकत्वभावात् , आह-किमेकसिन् जन्मनि बेलाय मुपशमणिलामो भवति? यदेवगुच्यते, सत्यमेतद्भवति, तथा चाह मूलटीकाकार:-"नैकस्मिन् जन्मनि उपशमणिः अपकणिश्च । दजायते, उपशमश्रेणिवयं तु भवत्येवे"ति, तत एवमुपपद्यते-जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतोऽनन्तं कालं, तमेव कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति अनन्ता उत्सपिण्यवसपिण्यः एषा कालतो मार्गणा, क्षेत्रतोऽपाईपुद्गलपरावर्त देशोनम् , एतावतः कालादुद्ध, पूर्वप्रतिपन्नोपशमश्रेणेरवश्य मुक्त्यासन्नतया सेणिप्रतिपत्तायवेदकत्वभावात् ।। 'अवेदए णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्र पाठसिद्धं, भगवानाह-गौतम! अवेदको |द्विविधः प्राप्तस्तद्यथा-सादिको वाऽपर्यवसितः [समयानन्तरं] क्षीणवेदः, सादिको वा सपर्यवसित--उपशान्तवेदः, तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितोऽवेदक: स च जघन्येनैकं समयं, उपशमश्रेणि प्रतिपन्नस्य वेदोपशमसमयानन्तरेऽपि मरणे पुनः सवेदकलोपपत्तेः, उत्कपंतोऽन्तर्मुहुर्तमुपशान्तवेदश्रेणिकालं, तत् ऊर्बु श्रेणेः प्रतिपतने नियमतः सवेदकत्वभावात् || अन्तरं प्रतिपिपादयिपुराह-सवेदगस्स णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! अनादिकस्यापर्यवसितस्य सवेदकस्य नास्त्यन्तरं, अपर्यवसिततया सदा सहावापरित्यागात् , अनादिकस्य सपर्यवसितस्यापि नास्यन्तरं, अनादिसपर्ववसितो ह्यपान्तराले उपशमणिमप्रतिपद्य भावी श्रीणवेदो न च क्षीणवेदस्य पुनः सवेदकत्वं प्रतिपाताभावान् , सादिकस सपर्यवसितरूप सवेदकस्य जघन्येनैकं समयमन्तरं, द्वितीयवा-18 रमुपशमणि प्रतिपक्षस्य वेदोपशमसमयानन्तरं कस्यापि मरणसम्भवात् , उत्कणान्तर्मुहूर्त द्वितीयं वारमुपशमणि प्रतिपन्नस्योपशा 4 दीप अनुक्रम [३७० laEcuamil ~878~ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति [१], ------------------- मूलं [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४५]] दीप अनुक्रम श्रीजीवा-दान्तवेदस्य श्रेणिसमाप्नेरूई पुनः सवेदकलभावात् ॥ अवेदकसूत्रे सादिकस्यापर्यवसितस्यावेदकस्य नास्त्यन्तर, क्षीणवेदस्य पुनः सवेद- प्रतिपत्तौ जीवाभि वाभावान् , बेदानां निर्मूलकाकपितत्वात् , सादिकस्य सपर्यवसिवस्व जबन्धनान्तर्मुहूर्त, उपशमणिसमाप्तौ सवेदकले सति पुनर- सर्वजीवामलयगि- न्तर्मुहूसेनोपशमणिलाभतोऽवेदकलोपपत्तेः, उत्कर्पतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उत्सपिण्यवसापिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽपापुद्रलपराव भिगमे सेरीयावृत्तिः देशोनं, एकवारमुपश्रेणि प्रतिपद्य तत्रावेदको भूत्वा श्रेणिसमाती सवेदकले सति पुनरेतावता कालेन श्रेणिप्रतिपत्ताबवेदकल्योपपत्तेः ।।हन्द्रियका अल्पबहुपमाह-एएसिणं भंते ! जीवा' इत्यादि पूर्ववत् ।। प्रकारान्तरेण वैविध्यमाह-'अहवे'त्यादि, अथवा द्विविधाः सर्व-नायवेदकषा॥४३८॥ जीवाः प्रज्ञप्तासयथा-सकपायिकाच अपायिकाच, सह कपाया येषां वै ते सकपायाः त एव सकपायिकाः, प्राकृतत्वान् स्थायलेश्याइकप्रत्ययः, एवं न विद्यन्ते कपाया येषां ते अपाया: २ एवाकपायिकाः ।। सम्प्रति कायस्थितिमाह-'सकसाइयस्से'त्यादि, सक पायिकस्य त्रिविधत्यापि संचिट्ठणा कायस्थितिरन्तरं च यथा सवेदकस्य, अपायिकस्य द्विविधभेदस्यापि कायस्थितिरन्तरं च यथा-1 उद्देशः २ 81वेदकस्य, सौवम्-सिक साइए णं भंते! सकसाइयत्ति कालतो केवचिर होइ?, गोयमा! सकसाइए तिविहे पन्नत्ते, तंजहा--अणा-11 सू०२४५ लाइए वा अपजबसिए अपाइए वा सपजवसिए साइए वा सपनबसिए, तश्य जे से साइए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उको-18 सेणं अणतं कालं अर्णता ओसप्पिणि उस्सपिणीओ कालतो खेत्ततो अवहुपोग्गलपरियट्टू देसूर्ण, अकसाइए णं भंते! अकसाइयत्ति कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा! अकसाइए दुविहे पन्नत्ते, तंजा-साइए का अपजवसिप साइए वा सपजवसिए, तत्थ णं जे साइए सपज्जवसिए से जहण्णेणं एक समय उकोसणं अंतोमुहुन्तं । सकसाइनस्ल गं भंते ! अंतरं कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! ॥४२८ ।। अणाइयस्स अपञ्चवसियत्म बत्थि अंतरं, अणायन्स सपजवसियस्त नस्थि अंतरं, साइयस्स सपजवसियस्स जहण्येणं एक समय [३७० 5- Jaticial अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~879~ Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------ मूलं [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४५] -%% A ---25 उकोसेणं अंतोमुटुत्तं, अकसाइयम्स गं भंते ! केवइयं कालं अंतर होइ', सइयस अपनवसियस णस्थि अंतरं, साइयत्स सप-11 जावसियस्स जहणेणं अंतोमुहुत्तं उछोसेणं अनंत कालं जाब अबई पोग्गलपरियट्ट देसूग मिति, अस्य व्याख्या पूर्ववत् । अल्पबहुल-11 माह-एएसि णं भंते ! जीवाणं सकसाइयाणमित्यादि प्राम्बत् ।। अकारान्तरेण वैविध्यमाह णाणी चेव अण्णाणी चेव ।। णाणी णं भंते! कालओ०१, २ दुविहे पन्नत्ते-सातीए वा अपजवसिए सादीए वा सपजवसिए, तत्थ णं जे से सादीए सपजवसिते से जहाणेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं छावढिसागरोवमाइं सातिरेगाई, अण्णाणी जहा सवेदया ।। गाणिस्स अंतरं जहणणं अंतोमुत्तं उकोसेणं अणंतं कालं अबढ पोग्गलपरिच देणं । अण्णाणियस्स दोण्हवि आदिलाणं णस्थि अंतरं, सादीवस्स सपजाबसियस्स जहण्णेणं अंतोमु० उकोसेणं छावहि सागरोवमाई साइरेगाई । अप्पाबहु सब्यस्थोवा णाणी अण्णाणी अणतगुणा ॥ अहया वुविहा सध्यजीवा पनसा-सागारोवत्ता य अणागारोवउत्ता य, संचिट्ठणा अन्तरं च जहणेणं उकोसेणवि अन्तोमुहुत्तं, अप्पाबहु सागारो० संखे० (सू०२४६) 'अहवे'त्यादि, अथवा विविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञातास्तद्यथा-सलेश्याश्च अलेश्याश्च, तत्र सलेश्यस्य कायस्थितिरन्तर चासिद्धयेथ, अलेश्यस्य कायस्थितिरन्तरं च यथा सिद्धस्य । अल्पबहुलं प्राम्बत् । भूयः प्रकारान्तरेण द्वैविध्यमाह-'अहवे'त्यादि, अथवा द्विविधाः *सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-ज्ञानिनश्च अज्ञानिनश्च, ज्ञानमेपामस्तीति ज्ञानिनः न ज्ञानिनोऽज्ञानिनः मिध्याज्ञाना इत्यर्थः ॥ सम्प्रति दीप अनुक्रम 4 [३७० R-62-644 जी०७४ ~880~ Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२४६] दीप अनुक्रम [३७१] " जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) प्रति० प्रति० [१], मूलं [२४६] प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... .. आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिवृतिः ॥ ४३९ ॥ Ja Erit 3 1 | कार्यस्थितिमाह 'णाणी णमित्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम! ज्ञानी द्विविधः प्रशप्तस्तवथा-सादिको वाऽपर्यवसितः, स च केवली केवलज्ञानस्य साद्यसपर्यवसितत्वात्, सादिको वा सपर्यवसितो मतिज्ञानादिमान, मतिज्ञानादीनां उद्यस्थिकतया सादिसपर्यवसितत्वात् 'तत्थ णमित्यादि, तत्र योऽसौ सादिकः सपर्यवसितः स जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त, सम्यक्त्वस्य जघन्यत एतावन्मात्र कालत्वात् सम्यक्त्ववतश्च ज्ञानित्वात् यथोक्तम्- “सम्यग्दप्रेशनं मिध्यादृप्रेर्विपर्यास" इति, उत्कर्षतः षट्षष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, सम्यग्दर्शनकालस्याप्युत्कर्षेत एतावन्मात्रत्वात्, अप्रतिपत्तिसम्यक्त्वस्य विजयादिगमनश्रवणान् तथा च भाष्यम्“दो बारे विजयाइ गयस्स तिनिहुए अहव ताई । अइरेगं नरभवियं नाणाजीवाण सम्बद्धा ॥ १ ॥” [द्वो बारौ विजयादिषु गतस्य अथवा श्रीनन्ते तानि । अतिरेको नरभविकं नानाजीवानां सर्वोद्धा ॥ १ ॥ ] 'अण्णाणी णं भंते!' इत्यादि प्रनसूत्रं सुगम, भगवानाह गौतम ! अज्ञानी त्रिविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - अनादिको वाऽपर्यवसितः जनादिको वा पर्यवसितः सादिको वा सपर्यवसितः, तत्रानाद्यपर्यवसितो यो न जातुचिदपि सिद्धिं गन्ता, अनादिसपर्यवसितो योऽनादिमिध्यादृष्टिः सम्यक्त्वमासायाप्रतिपतितसम्यक्त्व एव क्षपकश्रेणि प्रतिपत्स्यते, सादिसपर्यवसितः सम्यग्दृष्ठिभूखा जातमिध्यादृष्टिः स जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त सम्यक्त्वात् प्रतिपत्य पुनरन्तमुहूर्तेन कस्यापि सम्यग्दर्शनावामिसम्भवान्, उत्कर्षेणानन्तं कालं, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुलपरा वर्त्त देशोनं । साम्प्रतमन्तरं प्रतिपादयति — 'णाणिस्स णं भंते!' इत्यादि, ज्ञानिनो भदन्त ! अन्तरं कालतः क्रियच्चिरं भवति ?, भगवानाह गौतम ! सादिकल्यापर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं, अपर्यवसितत्वेन सदा तद्भावापरित्यागात्, सादिकस्य सपर्यवसितस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त एतावता सिध्यादर्शनकालेन व्यवधानेन भूयोऽपि ज्ञानभावान, उत्कर्षेण अनन्तं कालं, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः For P&Peale City 3 ९ प्रतिपत्ता सर्वजीव ~ 881 ~ त्यादिः उद्देशः २ सू० २४६ ॥ ४३९ ।। अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [१], ------------------ मूलं [२४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४६] %*62-61-54 दीप अनुक्रम [३७१] कालत: क्षेत्रतोऽपाद्ध पुनलपरावर्त देशोनं, सम्बग्दृष्टेः सम्यक्त्वात्प्रतिपतितस्यैतावन्तं कालं मिथ्यात्वमनुभूय तदनन्तरमवश्यं सम्यबत्यासादनान् । 'अण्णाणिस्स णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! अनाथपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं, अपर्यवसितत्वादेव, अनादिसपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं अवाप्नकेवलज्ञानस्य प्रतिपाताभावान् , सादिसपर्यवसानस्य जघन्येनान्तर्मुहुर्त, जघन्यस्य सम्यग्दर्शनकालस्वैतावन्मात्रत्वात् , उरकर्पतः षट्पष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, एतावतोऽपि कालादू सम्यग्दर्शनप्रतिपाते सत्य-] ज्ञानभावात् । अल्पबहुखसूत्र प्राग्वत् । प्रकारान्तरेण वैविध्यमाह-'अहवेत्यादि, अथवा द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-साकारोपयुक्ताश्च अनाकारोपयुक्तान, सम्प्रति कायस्थितिमाह-'सागारोव उत्ताणं भंते !' इह छद्मस्था एव सर्वजीवा विवक्षिता न केवलिनोऽपि 'विचित्रत्वात् सूत्रगते'रिति द्वयानामपि कायस्थितावन्तरे च जघन्यत उत्कर्षतश्रान्तर्मुहूर्त, अन्यथा केवलिनामुपयोगस्य | साकारस्यानाकारस्य चैकसामयिकत्वात् कायस्थितावन्तरे चैकसामयिकोऽप्युच्येत । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका अनाकारोपयुक्ताः, अनाकारोपयोगस्य स्तोककालतया पुच्छासमये तेषां स्तोकानामेवावाप्यमानत्वात् , साकारोपयुक्ताः सशपेयगुणाः, अनाकारोपयोगाद्धातः साकारोपयोगाद्धायाः सहयगुणलात् ॥ अहवा दुविहा सम्बजीचा पण्णत्ता, तंजहा-आहारगा चेव अणाहारगा चेव ॥ आहारए णं भंते! जाव केवचिरं होति?, गोयमा! आहारए दविहे पण्णत्ते, तंजहा-छउमत्थआहारए य केवलिआहारए य, छउमत्थआहारए णं जाव केवचिरं होति?, गोयमा! जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं दुसमऊणं उको० असंखेनं कालं जाव काल खेत्तओ अंगुलस्स असंखेजतिभागं । ~882~ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ९प्रतिपत्तौ सर्वजीव आहारकेतरस्थित्यादि उद्देशः२ सू० २४७ [२४७] ॥४४०॥ केवलि आहारए णं जाच केवचिरं होइ ?, गोयमा! जह• अंतोमु० उको० देसूणा पुब्बकोडी॥ अणाहारए णं भंते ! केवचिरं०?, गोषमा! अणाहारण दुधिहे पण्णत्ते, तंजहा-छउमस्थअणाहारए य केवलिअणाहारए य, छउमत्थअणाहारए णं जाव केवचिरं होति ?, गोयमा! जहणणं एकं समयं उकस्सेणं दो समया । केवलि अणाहारए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सिद्धकेवलिअणाहारए य भवत्थकेवलिअणाहारए य । सिद्धकेवलियणाहारए भंते ! कालओ केवचिरं होति?, सातिए अपजवसिए । भवत्यकेवलियणाहारए णं भंते! कइविहे पपणते?, भवस्थकेवलिया दुविहे पण्णरो-सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य । सजोगिभवस्थकेवलिअणाहारए ण भंते! कालओ केवचिरं?, अजहणमणुकोसेणं तिपिण समया। अजोगिभवत्थकेवलि० जह अंतो० उक्को० अंतोमुहुत्तं ॥ छउमस्थ आहारगस्स केवतियं कालं अंतरं?, गोयमा! जहाणेणं एक समयं उक्को दो समया। केवलिआहारगस्स अंतरं अजहण्णमणुकोसेणं तिणि समया ॥ छउमत्थअणाहारगस्स अंतरं जहन्नेणं खुडागभवग्गणं दुसमऊणं. उक० असंखेज़ कालं जाव अंगुलस्स असंखेजतिभागं। सिहकेवलिअणाहारगस्स सातीयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं । सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारगस्स जह अंतो० उक्कोसेणवि, अ दीप अनुक्रम [३७२ हा॥४४॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~883~ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], -------- ------- मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७] %25-25649 दीप अनुक्रम जोगिभवल्थकेवलिअणाहारगस्स पत्धि अंतरं । एएसिणं भंते ! आहारगाणं अणाहारगाण य कयरे २ हिंतो अप्पा बहु०१, गोयमा! सव्वत्थोवा अणाहारगा आहारगा असंखेजा।। (सू०२४७) 'अहवे'त्यादि, अथवा द्विविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-आहारकाच अनाहारकाश्च ॥ अधुना कायस्थितिमाह-'आहारगेणं, भंते!' इत्यादि प्रअसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! आहारको द्विविधः प्रशतलबथा-उग्रस्थाहारकः केवस्याहारकः, तत्र छदास्थाहारको जधन्येन शुलकभवग्रहणं द्विसमयोनं, एतच्च जघन्याधिकाराद्विग्रहेणागत्य क्षुझकभवग्रहणवत्सूत्पादे परिभावनीयं, वन्न यधपि नाम लोकान्तनिष्कुटादावुत्पादे चतु:सामयिकी पश्चसामयिकी च विग्रहगतिर्भवति तथाऽपि वाहुल्येन प्रिसामयिक्येवेति तामेवाधिकृत्य सूत्रमिदमुक्तं, इत्थमेवान्येषामपि पूर्वाचार्याणां प्रवृत्तिदर्शनात , उक्तश्च-एक द्वौ वाऽनाहारकः” (तन्वा० अ०२ सू० ३१) इति, त्रिसामयिक्यां च विग्रहगताबायो द्वौ समयावनाहारक इति ताभ्यां हीनमुक्त, उत्कर्षतोऽसहयेयं कालम् , असावेया उत्सपिण्यवसपिण्यः कालत:, क्षेत्रतोऽङ्गुलस्यासमवेयो भागः, किमुक्तं भवति ?--भङ्गुलमात्रक्षेत्राकुलासययभागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावन्तः प्रतिसमय मेकैकप्रदेशापहारे यावता कालेन निलेपा भवन्ति बावत्य उत्सपिण्यवसापिण्य इति, तावन्तं हि कालमविरहेणोत्पाद्यते, अविग्रहोत्पत्तौ च | सत्ततमाहारकः । केवल्याहारकामसूत्र पाठसिद्धं, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, स चान्तकृत् केवली प्रतिपत्तव्यः, उत्कघेतो देशोना पूर्वकोटी, सा च पूर्वकोट्यायुषो नववर्षादारभ्योत्पन्न केवलज्ञानस्य परिभावनीया ॥ अनाहारकविषयं सूत्रमाह-'अना हारए णं भंते' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम ! अनाहारको द्विविधः प्रज्ञप्त:-छद्मस्थोऽनाहारकः केवल्यमाहारकश्च, छद्मस्थानाहारकामसूत्रं सुगम भगवानाह-गौतम! जघन्यत एक समयं, जघन्याधिकाराहिसामयिकी विप्रहगतिमपक्ष्यैतदवसातव्यं, [३७२ book 0-%-99 44 ~884~ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७] दीप अनुक्रम श्रीजीवा-1 उत्कर्षतो द्वौ समयौ त्रिसामयिक्या एवं विग्रहगतेर्बाहुल्येनाश्रयणात्, आह च चूर्णिकृत्-"यद्यपि भगवत्यां चतु:सामवि- ९प्रतिपत्तौ जीवाभि. कोऽनाहारक उक्तस्तथाऽप्यन्त्र नाजीक्रियते, कदाचित्कोऽसौ भावो येन, वाहुल्यमेवाङ्गो क्रियते, बाहुल्याच समयद्वयमेवे"ति सर्वजीव मलयगि-1 *केवल्यनाहारकसूत्र पाठसिद्ध, भगवानाह-गौतम! केवल्यनाहारको द्विविधः प्रज्ञप्तस्तबधा-भवस्थ केवल्यनाहारकः सिद्ध केवल्यनाहा- आहारके रीयावृत्तिः | रकः । 'सिद्ध केवलिअणाहारए णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! सादिकापर्यवसितः, सिद्धस्य साद्यपर्यव-13 तरस्थि सिततयाऽनाहारकत्वस्यापि तद्विशिष्टस्य तथाभावान् ॥ 'भवत्थकेवलि अणाहारए ण भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-16 ॥४४१॥ त्यादि गौतम ! भवस्थकेवल्यनाहारको द्विविधः प्रज्ञप्त:-सयोगिभवस्थकेवल्यनाहारकोऽयोगिभवस्थ केवल्यनाहारकञ्च, तत्रायोगिभवस्थकेवल्य-II उद्देशः २ नाहारका असून सुगर्म, भगवानाह-गौतम! जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त, अयोगिवं नाम हि शैलेश्यवस्था तस्यां निय-131 |सू०२४७ मादनाहारक औदारिकादिकाययोगाभावात् , शैलेश्यवस्था च जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त, नवरं जघन्यपदादुल्कृष्टमधिकमबसेयं, अन्यथोभयपदोपन्यासायोगात् ।। 'सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! अ-11 जघन्योत्कर्षेण त्रयः समयाः, ते चाष्टसामयिककेवलिस मुद्धातावस्थायां तृतीय चतुर्थपञ्चमरूपाः तेषु केवलकार्मणकाययोगभावान् , उक्तञ्च-कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्माद्भवत्यनाहारको नियमान् ॥ १॥" साम्प्रतमन्तरं चिन्तयन्नाह-छउमत्थाहारयस्स णं भंते!' इत्यादि, छद्मस्थाहारकस्य भवन्त ! अन्तरं कालतः कियभिरं भवति ।, भगवानाहगौतम! जघन्येनैक समयमुत्कर्षतो द्वौ समयौ, याबानेव हि कालो जघन्वत उत्कर्षतश्च छद्मस्थानाहारकस्य तावानाहारकस्यान्तरकालः, ४४१॥ स च कालो जघन्येनैकः समय: उत्कर्षतो बाहुल्यमङ्गीकृत्य व्यवहियमाणायां त्रिसामयिक्यां वियहगती द्वौ समयावित्याहारकस्या %25% [३७२ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~885~ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७] 6-4-5 दीप अनुक्रम प्यन्तरं तावदिति । केवल्याहारकप्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! अजघन्योत्कर्षेण त्रयः समयाः, केवल्याहारको हि सयोगिभवस्थकेवली, तस्य चानाहारकत्वं त्रीनेव समयान् यथोक्तं प्रागित्यन्तरं केवल्याहारकस्य तावदिति ।। सन्प्रत्यनाहारकस्यान्तरं चिचिन्तयिपुः प्रथमतश्छद्मस्थानाहारकस्याह–'छउमस्याणाहारयस्स णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! जघन्येन क्षुल्लकभवग्रहणं द्विसमयोन, उत्कर्षतोऽसयेयं कालं यावदङ्गुलस्यासस्येवो भागः, यावानेव हि छदास्थाहारकस्य कालस्तावानेव छद्मस्थानाहारकस्यान्तरं, छदास्थाहारकस्य च जघन्यतः कालोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसयेया उत्सपिण्यवसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽङ्गलस्यासोयो भागः, एतावन्तं कालं सततमविग्रहेणोत्पादसम्भवान् , ततश्छद्मस्थानाहारकस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावदन्तरमिति । अथ स्थाने २ कभवग्रहणमित्युक्तं तत्र क्षुहकभवग्रहणमिति कः शब्दार्थः १, उच्यते, क्षुलं लघु स्तोकमित्येकोऽर्थः क्षुलमेव भुतक-एकायुष्कसंवेदनकालो भवस्तस्य महणं-संबन्धनं भवग्रहणं, क्षुल्लकं च तद्भवग्रहणं च क्षुलकभवग्रहणं, तञ्चाबलिकातश्चिन्त्यमानं षट्पञ्चाशदधिकमावलिकाशतद्वयं, अथैकस्मिन आनप्राणे कियन्ति क्षुकभवग्रहणानि भवन्ति ?, उरूयते, किश्चित्समधिकानि सप्तदश, कथमिति दुच्यते-इह मुहूर्तमध्ये सर्वस रूपया पश्चषष्टिः सहस्राणि पश्च शतानि षट्त्रिंशानि क्षुल्लकभवग्रहणानां भवन्ति, यत उक्तं चूणा"पन्न हिसहस्साई पंचेष सया हवंति छत्तीसा । खुडागभवग्गणा हवंति अंतोमुहुर्तमि ॥१॥" आनप्राणाश्च मुहू बीणि सहस्राणि सप्त | शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि, उक्तश्च-"तिन्नि सहस्सा सत्त य सयाई तेवत्तरं च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणिओ सव्वेहिं अशंतनाणीहि ॥१॥" ततोऽत्र त्रैराशिककर्मावतारः, यदि त्रिसप्तत्यधिकसप्तशतोत्तरैत्रिभिः सहस्रैरुच्छासानां पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानि षट्त्रिंशानि शुलकभवग्रहणानां भवन्ति तत एकेनोउछासेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-३७७३।६५५३६।१। अनान्त्य [३७२ ~886~ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७] श्रीजीवा- राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनाजातः स ताबानेव, एकेन गुणितं तदेव भवतीति न्यायात् , तत आवेन राशिना भागहरणं, ४९ प्रतिपत्ती जीवाभि लब्धाः सप्तदश क्षुल्लकभवाः, शेषास्वंशास्तिष्ठन्ति तत्र त्रयोदश शतानि पञ्चनबत्यधिकानि, उक्तञ्च-सत्तरस भवग्गहणा खुट्टाणं | सर्वजीव मलयगि-1 भवंति आणुपाणुमि । तेरस चेव सयाई पंचाणइ चेव अंसाणं ॥ १॥" अर्थतायरिंशै: कियत्य आवलिका लभ्यन्ते, पुण्यते, स- 1 क्षुल्लकमरीयावृत्तिःलामधिकचतुर्नवतिः, तथाहि-पट्पञ्चाशदधिकेन शतद्वयेनावलिकानां त्रयोदश शतानि पचनवतानि गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि लक्षाणि वप्ररूपणा सप्तपञ्चाशत्सहस्राणि शतमेकं विंशत्यधिकं ३५७१२०, छेदराशि: स एव ३७७३, लब्धा चतुर्नवतिरावलिकाः, शेपास्त्वंशा आब॥४४२॥ लिकायास्तिष्ठन्ति चतुर्विंशतिः शतानि अष्टपश्चाशानि, छेदः स एव 101 एवं यदा एकस्मिन्नानप्राणे आवलिका: सयातुमिच्यन्ते तदा सप्तदश द्वाभ्यां पद्पश्चाशदधिकाभ्यां शताभ्यां गुज्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनाश्चतुर्नवतिरावलिकाः प्रक्षिप्यन्ते, मत आवलि-1 कानां चतुश्चलारिंशत् शतानि पट्चत्वारिंशानि भवन्ति, उक्तच-"एको उ आणुपाणू चोयालीसं सया उ छायाला । आवलियपमाणेणं अगंतनाणीहि निदिहो ॥१॥" यदि पुनर्मुहूर्ते आवलिकाः सल्यातुमिप्यन्ते तत एतान्येव चतुश्चत्वारिंशच्छतानि त्रिसप्त-18 त्यधिकानि भवन्तीति सप्तत्रिच्छशसैखिसप्तत्यधिकैर्गुण्यन्ते, जाता एका कोटी सप्तपष्टिः शतसहस्राणि चतुःसप्ततिः सहस्राणि सनशतानि अष्टाप चाशदधिकानि १६७७४४५८, येऽपि चावलिकाया अंशाश्चतुर्विशतिशतानि अनुपश्चाशदधिकानि २४५८ तेऽपि | मुहूर्त्तगतोच्छासराशिना ३७७३ गुण्यन्ते, अस्वैव छेदस्य ते अंशा इत्यावलिकानयनाय तेनैव भागो हियते, लब्धास्तावत्य एबावलिकाश्चतुर्विशतिशतान्यष्टापञ्चाशानि २४५८, तानि मूलराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाता मूलराशिरेका कोटिः सप्तपष्टिलक्षाः सप्तसप्ततिः सहसाणि द्वे शते षोडशोत्तरे, एतावत्य आवलिका मुहूर्ते भवन्ति, यदिका मुहूर्चगतानां क्षुल्लकभवग्रहणानां पञ्चषष्टिः सहस्राणि पचा दीप अनुक्रम -9-% *-3 [३७२ ॥४४२ ESH अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~887~ Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], -------------------- मूलं [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -%AY प्रत सूत्रांक 9-4-6 [२४७] 48C शतानि पत्रिंशानि एकभवग्रहणप्रमाणेन पट्पञ्चाशेन शतद्वयेनावालिकानां गुण्यन्ते तथाऽपि तावत्य एवावलिका भवन्ति, उक्तञ्च"एगा कोडी सत्तहि लक्ख सत्तत्तरी सहस्सा य । दो य सया सोलहिया आवलियाओ मुहुत्तंमि ॥१॥" एवं च यदुग्यते 'संखेजाओ आवलियाओ एगे उसासनीसासे' इत्यादि तदतीच समीचीनमिति कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र सयोगिभवस्थकेवल्यनाहारकस्यान्तरमभिधित्सुराह-सजोगिभवस्थकेवलि अणाहारयरसणं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पणाप्यन्तर्मुहूर्ग, समुद्घातप्रतिपत्तेरनन्तरमेवान्तर्मुहूर्तेन शैलेशीप्रतिपत्तिभावात् , नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदं विशेषा|धिकमवसातव्यं अन्यथोभयपदोपन्यासायोगात् । अयोगिभवस्थ केवल्यनाहारकसूत्रे नास्यन्तरं, अयोग्यवस्थायां सर्वस्याप्यनाहार करवान् । एवं सिद्धस्यापि सावपर्यवसितस्यानाहारकस्यान्तराभावो भावनीयः ॥ साम्प्रनमेतेयामाहारकानाहारकाणामल्पबहुत्वमाह-एएसि णं भंते !' इत्यादि प्रभमूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका अनाहारकाः, सिद्धविग्रहगल्यापन्नसमुदूधातगतसयोगिफेवस्ययोगिकेयलिनामेवानाहारकत्वात् , तेभ्य आहारका असक्वेवगुणाः, अघ सिद्धेभ्योऽनन्तगुणा वनस्पतिजीवास्ते च प्राब आहारका इत्यनन्तगुणाः कथं न भवन्ति ?, उच्यते, इह प्रतिनिगोदमसङ्ख्ययो भागः प्रतिसमयं सदा विग्रहगत्यापन्नो लभ्यते, विग्रहगत्यापन्ना अनाहारकाः, “विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समुहया अजोगी य । सिद्धा य भणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥१॥" [विग्रहगत्यापन्नाः समुद्धताः अयोगिनश्च केवलिनः सिद्धाश्चानाहारा: शेषा आहारका जीवाः ॥ १॥"] इतिवचनात् ततोऽसहव्यगुणा एवाहा|रका घटन्ते नानन्तगुणा इति ॥ प्रकारान्तरेण भूयो वैविध्यमाह अहवा दुविहा सब्वजीवा पणत्ता, तंजहा-सभासगा अभासगा य ॥ सभासए णं भंते ! म दीप अनुक्रम [३७२ - RRC- Jaticomin 60 ~888~ Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ----------------- प्रति प्रति० [१], ------------ मूलं [२४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४८] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥४४३॥ ९ प्रतिपत्ती सर्वजीव भाषकसशरीरेतर उद्देशः२ सू०२४८ दीप अनुक्रम भासएत्तिकालओ केवचिरं होति?, गोयमा! जहण्णेणं एक समयं उक्को अंतोमुहुतं ॥ अभासए णं भंते०, गोयमा! अभासए दुविहे पण्णत्ते-साइए वा अपञ्जवसिए सातीए वा सपजवसिए, तत्थ ण जे से साइए सपञ्जवसिए से जह० अंतो० उको० अणंतं कालं अणंता उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ बणस्सतिकालो॥ भासगस्स णं भंते! केवतिकालं अंतरं होति, जह अंतो उक्क० अणतं कालं वणस्सतिकालो । अभासग सातीयस्स अपलवसियस्स पत्थि अंतरं, सातीयसपजवसियस्स जहण्णेणं एक समयं उक्क० अंतो 1 अप्पायहु० सव्वस्थोवा भासगा अभासगा अणंतगुणा ।। अहवा दुविहा सव्वजीवा ससरीरी य असरीरीय असरीरी जहा सिद्धा, थोवा असरीरी ससरीरी अणंतगुणा ।। (सू०२४८) 'अहवे'त्यादि, अथवा द्विविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-भाषकाच अभाषकाच, भाषमाणा भापका इतरेऽभाषकाः ॥ सम्प्रति । काय स्थितिमाह-'सभासए गं भंते' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनैकं समयं भाषाद्रव्यग्रहणसमय एव मरणतोऽन्यतो था कुतश्चित्कारणातत्यापारस्याप्युपरमान् , उत्कणान्तर्मुहूर्त, नावन्तं कालं निरन्तरं भाषाद्रव्यग्रहणनिसर्गसम्भवात् , तत उद्ध जीवस्वाभाव्यान्नियमत एवोपरमति ।। अभाषकप्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! अभावको द्विविधः प्रज्ञप्रस्तद्यथा-सादिको वाडपर्यवसित: सिद्धः, सादिको वा सपर्यवसितः स च पृथिव्यादिः, तत्र योऽसौ सादिः सपर्यवसितः स जघन्येनान्तर्मुहूर्त, भाषणादु- I परम्यान्तर्मुहन फस्यापि भूयोऽपि भाषणप्रवृत्तेः, पृथिव्यादिभवन्य वा जपन्यत एतावन्मात्रकाललान् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, [३७३] ४४३ 7-1 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~889~ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % % % प्रत सूत्रांक [२४८] स चानन्ता उत्सपिण्यवसपिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽनन्ता लोका असोया: पुद्गलपरावर्ताः से च पुढलपरावा आवलिकाया अस-1 येयो भागः, एतावन्तं कालं वनस्पतिष्वभाषकलात् ।। साम्प्रतमन्तरं चिचिन्तयिपुराह-भासगस्स णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं | सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहर्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, अभाषककालस्य भापकान्तरत्वात् । अभाषकसूत्रे साद्यपर्यव सितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् , सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनैक समयमुस्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, भाषककालस्याभाषकान्तरत्वात् । तस्य लाच जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावन्मात्रखात् , अल्पबहुलसूत्र प्रतीतम् ॥ 'अहवे'त्यादि, सशरीरा:-असिद्धा अशरीरा:-सिद्धाः, तत्तः सर्वाण्यपि सशरीराशरीरसूत्राणि सिद्धासिद्धसूत्राणीय भावनीयानि ।। अहवा दुविहा सचजीवा पण्णत्ता, तंजहा-चरिमा चेव अचरिमा चेव ॥ चरिमे णं भंते ! चरिमेत्ति कालतो केवचिरं होति ?, गोयमा! चरिम अणादीए सपजवसिए, अचरिमे दुबिहे-अणातीए वा अपजवसिए सातीए अपज्जवसिते, दोपहंपि णस्थि अंतरं, अप्पायहुं सब्बत्थोवा अचरिमा चरिमा अणंतगुणा । [अहवा दुविहा सबजीवा सागारोवउत्ता य अणागारोवउत्ता य, दोहंपि संचिट्टणावि अंतरंपि जह० अंतो० उ० अंतो०, अप्पाबहु० सव्वस्थोवा अणागारो वउत्ता सागारोवउत्ता असंखेजगुणा] सेत्तं दुविहा सव्यजीवा पन्नत्ता] ॥ (सू० २४९) 'अहवे'त्यादि, चरमा:-चरमभववन्तो भव्यविशेषा ये सेत्स्यन्ति, तद्विपरीता अचरमा:-अभव्याः सिद्धाश्च । कायस्थितिसूत्रे चरमोऽनादिसपर्यवसितोऽन्यथा चरमत्वायोगात् । अचरमसूत्रेऽचरमो द्विविधः प्रज्ञप्रस्तद्यथा-अनादिको वाऽपर्यवसितः साविको वाऽ-1 SHEETARKARKok *9-%91%-9-% दीप अनुक्रम [३७३] ~890~ Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक मलयगि-18 [२४९] दीप अनुक्रम [३७४] श्रीजीया-दापर्यवसितः, तत्रानाथपर्यवसितोऽभव्यः सायपर्यवसितः सिद्धः ॥ साम्प्रतमन्तरमाह-चरिमस्स णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्र सुगम, IF९ प्रतिपत्ती जीवाभि | भगवानाह-गौतम! अनादिकख सपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं, चरमवापगमे सति पुनश्चरमवायोगात्, अचरमस्याप्यनाथपर्यवसितस्य सर्वजीव साद्यपर्यवसितस्य वा नास्त्यन्दरं अविद्यमानचरमत्वात् । अल्पबहुवे सर्वस्तोका अचरमाः, अभव्यानां सिद्धानामेव चाचरमत्त्वात् , 16 मलान चरमेतर० रीयावृत्तिः चरमा अनन्तगुणाः, सामान्यभन्यापेक्षमेतत् , अन्यथाऽनन्तगुणत्वायोगात , आह च मूलटीकाकार:-"चरमा अनन्तगुणाः, सम्यग्दसामान्यमव्यापेक्षमेतदिति भावनीय, दुर्लक्ष्यः सूत्राणां विषयविभागः" इति । सम्प्रत्युपसंहारमाह-'सेत्तं दुविहा' ते एते द्विविधाः | ॥४४४॥ टयादि सर्वजीवाः, अत्र कचिद्विविधवकव्यतासह निगाथा--"सिद्धसईदियकाए जोए वेए कसायलेसा य । नाणुवओगाहारा भाससरीरी|| य चरमो य ॥ १॥" सम्प्रति त्रिविधवक्तव्यतामाह उद्देशः२ सू०२४८तस्थ णं जे ते एबमाहंसु तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमासु, तंजहा-सम्मदिट्ठी मि २४९ पछादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी। सम्मदिट्टी णं भंते! कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! सम्मदिट्टी दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सातीए वा अपनवसिए साइए वा सपजयसिए, तत्थ जे ते सातीए सपजवसिते से जहा अंतो० उक० छावहि सागरोवमाइं सातिरेगाई, मिच्छादिट्ठी तिविहे साइए वा सपजवसिए अणातीए वा अपजवसिते अणातीए वा सपञ्जवसिते, तस्थ जे ते सातीए सपजपसिए से जह• अंतो० उक० अणंतं कालं जाव अवडं पोग्गलपरियह देसूर्ण 1॥४४४॥ सम्मामिच्छादिट्ठी जह० अंतो. उफ. अंतोमुहुत्तं ॥ सम्मदिहिस्स अंतरं साइयस्स अपज्जब XKORORSC अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: १-द्विविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: २-त्रिविधा) आरब्धा: ~891~ Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२५० ] दीप अनुक्रम [३७५] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [सर्वजीव], प्रति० प्रति०] [२], मूलं [२५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः जी० ७५ farea after अंतरं, सातीयस्स सपलवसियस ज० अंतो० को अनंतं कालं जाव अव पोग्गलपरियई, मिच्छादिद्विस्स अणादीयस्स अपज्ञवलियम्स णत्थि अंतरं, अणातीयस्स स पज्जवसिय नत्थि अंतरं, सास सज्जबसिस जह० अंतो० उको० छावट्टि सागरोमाई सातिरेगाई, सम्मानिच्छादिट्टिस जह० अंत० उ० अनंतं कालं जाव अहं पोग्गलपरियहं देणं । अप्पा बहु० सव्वत्थोवा सम्मामिच्छादिट्टी सम्मदिट्ठी अनंतगुणा मिच्छादिट्टी अनंतगुणा || (सू० २५० ) 'तत्थ णं जे ते' इत्यादि, तन्त्र ये ते एवमुक्तवन्तस्त्रिविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञास्ते पत्रमुक्तवन्तस्तयथा सम्यग्योनिध्यादृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृप्रयच, अमीषां शब्दार्थभावना प्राग्यत् ॥ सम्प्रति कार्यस्थितिमाह--'सम्मदिट्टी णं भंते!" इत्यादि प्रज्ञसूत्रं सुन, भगवानाह - गौतम ! सम्यग्दृष्टिद्विविधः प्रज्ञस्तद्यथा-सादिको वाऽपर्यवसितः क्षायिकसम्यग्दृष्टिः, सादिको वा सपर्यवसितः क्षायोपशमिकादिसम्यग्दर्शनी, तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितः स जयन्येनान्तर्मुहूर्त्त कर्म्मपरिणामस्य विचित्रत्वेनैवायतः कालादृ पुनमिध्यात्वगमनात् उत्कर्षत: पट्पटि सागरोपमाणि तत ऊर्द्ध नियमतः क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शनापगमान् । सिध्या सुगमं, भगवानाह - गौतम! मिध्यादृष्टिविविधः प्रज्ञमन्नयथा - अनाद्यपर्यवसितः अनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्य, तत्र योसौ सादिपर्यवसितः स जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त तावता कालेन पुनः कस्यापि सम्यग्दर्शनलाभान, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उम व्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽपा पुलपरावर्त्त देशोनं, पूर्वप्रतिपत्र सम्यक्त्वस्यैतावतः कालादूर्द्ध पुनरवश्यं सम्यदर्शनलाभान् For P&Pase Cnly ~ 892~ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [२], -------------------- मूलं [२५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५०] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- पूर्वसम्यक्त्वप्रभावेन संसारस्य परित्तीकरणात् । सन्यम्मिध्याष्टिसूत्रे जघन्यतोऽप्यन्तमुहर्तमुत्कर्पतोऽप्यन्तर्मुद्दत, सम्यग्मिध्यादर्शन- प्रतिष जीवाभि कालन्य स्वभावत एवैतावन्मात्रखात् , नवरं जघन्यपदाटुकृष्टपदमधिकमबसातव्यम् ।। साम्प्रतमन्तरमाह-सम्मदिद्विस्स णं भंते सर्वजीव मलयगि- इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सायपर्यवसितस्य नास्यन्तरमपर्यवसितत्वात , सादिसपर्यवसितमा जघन्येनान्तर्मुहूर्त, काचरमेतर० रीयावृत्तिः सम्यक्त्वात् प्रतिपत्यान्तर्मुहून भूयः कस्यापि सम्यक्त्वप्रतिपत्तेः, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदपा पुलपरावर्तम् । मिथ्यादृष्टिसूत्रे- सम्यग्द उनाद्यपर्यवसितस्य नास्वन्तरमपरित्यागात् , अनादिसपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं, अन्यथाऽनादिलायोगान् , सादिसपर्यवसितस्य ज- यादि ॥४४५॥ धन्येनान्तर्मुहुर्तमुत्कर्पतः पट्पष्ठिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, सम्यग्दर्शनकाल एव हि मियादर्शनम्प प्रायोऽन्तरं, सम्यग्दर्शन-8 उद्देशः२ कालच जघन्यत उत्कर्षतश्चैताबानिति । सम्यग्मिध्यादृष्टिसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुदत्त, सम्यग्मिध्यादर्शनात् प्रतिपलान्तर्मुहू तेन भूवः सू०२५० कस्यापि सम्यग्मिध्यादर्शनभावान , उत्कर्षतोऽनन्त कालं यावदपार्द्ध पुद्गलपरावर्त देशोनं, यदि सम्यग्मिन्यादर्शनान प्रतिपतितस्य भूयः ४ २५१ सम्यग्मिध्यादर्शनलाभलत एतावता कालेन नियमेन अन्यथा तु मुक्तिः । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वतो का: सम्बग्मिध्यादृष्टयः, तत्परिहैणामस्य लोककालतया गुच्छासमये तेषां स्तोकानामघाप्यमानखात्, सम्यग्दृष्टयोऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तखान, तेभ्यो मिध्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् तेषां च मियादृष्टिवान् ।। अहवा तिविहा सध्यजीवा पण्णत्ता-परित्ता अपरित्ता नोपरित्तानोअपरिसा । परित्ते गं भंते ! कालतो केवचिरं होति?, परित्ते दुविहे पण्णत्ते-कायपरि य संसारपरिसे च । कायप ॥४४५॥ रिते णं भंते०1, जह० अंतोसुक उको असंवेनं कालं जाव असंवेझा लोगा । संसारपरित्ते णं [३७५]] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~893~ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५१] MXXX दीप अनुक्रम भंते ! संसारपरित्तेत्ति कालओ केवचिरं होति?, जह अंतो. उको अर्णतं कालं जाव अवह पोग्गलपरियह देसूर्ण । अपरित्ते णं भंते !०, अपरित्ते दुविहे पणत्ते, कायअपरित्ते य संसारअपरित्ते य, कायअपरिसे णं जह० अंतो० उक्को० अणतं कालं, वणस्सतिकालो, संसारापरित्ते दुविहे पण्णत्ते-अणादीए वा अपजवसिने अणादीए वा सपजवसिते, णोपरित्तेणोअपरित्ते सातीए अपज्जवसिते । कायपरिसस्म जहा अंतरं अंतो० उको० वणस्सतिकालो, संसारपरितस्स णस्थि अंतरं, कायापरित्तस्स जह० अंतो 'उको० असंखिनं कालं पुढविकालो । संसारापरित्तस्स अणाइयस्स अपजवसियस्स नस्थि अंतरं, अणाइयस् सपजवसियरस नस्थि अंतरं, णोपरीत्तनोअपरिसस्सवि णस्थि अंतरं । अप्पाबह सव्यस्थोवा परित्ता णोपरिसानोअप. रित्ता अनंतगुणा अपरित्ता अनंतगुणा (म०२५१) 'अहवे'त्यादि, अथवा सर्वजीवास्त्रिविधाः प्रक्षमालाथा-परीचा अपरीत्ता नोपरित्तानोअपरीत्ताश्च ।। सम्पति कायस्थितिचिन्ता-13 परीत्तविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगबानाह-गौतम! परीतो द्विविध: प्रज्ञमस्तद्यथा-कायपरीत्त: संसारपरीतञ्च, कायपरीत्तो नाम प्रत्येकसरीरी, संसारपरीतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्तान्त:संसारः, तत्र कायपरीतविपयं प्रभसून सुगमं, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मु-11 हूर्त, स च साधारणेभ्यः परीसेवन्तर्मुहूर्त खित्वा पुनः साधारणेपु गच्छतो वेदितव्यः, उत्कर्षतोऽसहयेयं कालं, असशपया उत्स-1 प्पिण्यवसप्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसयेया लोकाः, तथा चाह-पृथिवीकाल:, किमुक्तं भवति -पृथिव्यादिप्रत्येकशरीरकालः, तत | [३७६] ~894~ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------ मूलं [२५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५१] दीप अनुक्रम [३७६] श्रीजीया- ऊर्द्ध नियमतः संसारिणः साधारणभावान् ।। संसारपरीत्तविपर्व प्रश्नसूत्रं पाठसिद्ध, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहर्त, ताव- प्रतिपत्ती जीवाभिता कालेगान्तकुत्केवलखेन सिद्धिगमनान , उत्कणानन्त काल, अनन्ता उत्सपिण्यवसरिपेयः कालतः, क्षेत्रनो देशोनमपार्द्ध पुत्रलपरा- सर्वजीव मलयांग- ग वर्ने यावन् , तत कई नियमतः सिद्धिगमनाइ, अन्यथा संसारपरीत्तत्वायोगात् ।। 'अपरीत्ते णं भंते!' इत्यादि प्रभसूचं सुगनं, वैविध्ये रायावृात भगवानाह-गौतम! अपरीतो द्विविधः प्रमखयथा-कायापरीतः संसारापरीत, कायापरीतः साधारणाः, संसारापरीत:-कृष्ण- IMपरित्तादि ॥४४६11 पाक्षिकः, तत्र कायापरीतविपर्य प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! जयन्येनान्तहस, तत कई कस्यापि प्रत्येफशरीरेषु गमनान उद्देशः२ उत्कर्पतोऽनन्त कालं, स च वनस्पतिकालः, अनन्ता उत्सपिण्यासप्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽनन्दा लोका असझयेयाः पुद्गलपरावत्ता: ०२५१ ते च पुद्गलपरावर्ता आवलिकाया असहयो भागः । संसारापरीतप्रश्नसूत्रं प्रतीतं, अगवानाह-गौतम! संसारापरीचो द्विविधः प्र-M ज्ञप्तस्तथधा-अनादिकोऽपर्यवसितो, वो न जातुचिदपि सिद्धि गन्ता, अनादिको वा सपर्यवसितो भव्यविशेषः । नोपरीत्तनोअप-12 रीतविषयं प्रभसूत्रं प्रतीतं, नोपरीत्तनोअपरीत्तो दि सिद्धः, स च साशपर्यवसित एवं प्रतिपाताभावान् ॥ साम्प्रतमन्तरमाह-1 N'कायापरीत्तस्स णमित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, साधारणेचन्तहत स्थित्वा भूयः प्रत्येकशरी रेवागमनात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चानन्तः कालः प्रागुक्तस्वरूपो वनस्पतिकालः, तायन्तं काले साधारणेववस्थानात् ।। संसारपरीत्तविषयं प्रभसूत्र मुगम, भगवानाह-गौतम! नास्त्यन्तरं, संसारपरीतत्वापगमे पुनः संसारपरीतवाभावात् , मुक्तस्य प्रतिपाता| सम्भवात् । कायापरीतसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, प्रत्येकशरीरेष्वन्तर्मुहू स्थित्वा भूयः कायापरीत्तेपु कस्याप्यागमनसम्भवात् , 'उत्क-161॥४४६।। तोऽसयेयं कालं यावद, असहये या उत्सपिण्यवसपिण्य: कालतः, क्षेत्रतोऽसङ्ख्यया लोकाः, पुथिन्यादिप्रत्येकशरीरभवभ्रमणकाल % अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~895~ Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५१] SAGAR | स्वोत्कर्षतोऽप्येतावन्मात्रत्वात् , तथा चाह-पृथिवीकालः पृधिव्यादिप्रत्येकशरीरकाल इत्यर्थः । संसारापरीत्तसूत्रेऽनाथपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् , अनादिसपर्यवसितख नास्त्यन्तरं, संसारापरीतलापगमे पुनः संसारापरीतत्वस्यासम्भवान् , नोपरीतनोअपरीतस्यापि साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् । अल्पबहुवचिन्तायां सर्वस्तोकाः परीत्ताः, कायपरीत्तानां संसारपरीत्तानां | चाल्पत्वात् , नोपरीत्तानोअपरीचा अनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तत्वात् , अपरीता अनन्तगुणाः, कृष्णपाक्षिकाणामतिप्रभूतत्वात् ॥ अहवा तिविहा सब्यजीवा पं०२०-पजत्तगा अपजत्तगा नोपजतगानोअपजत्तगा, पजत्तके णं भंते !०, जह० अंतो० उक्को सागरोवमसतपहत्तं साइरेगं । अपजत्तगे णं भंते!, जह० अंतो. उको अंतो० नोपजत्तणोअपजत्तए सातीए अपजवसिते। पजत्लगस्स अंतरं जह० अंतो० उको० अंतो०, अपज्जत्तगस्स जह० अंतो० उक्को० सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेग, तइयस्स पत्थि अंतरं । अप्पाबहु० सम्वत्थोवा नोपज्जत्तगनोअपज्जत्तगा अपज्जत्तगा अर्णतगुणा पजत्तगा संखिजगुणा (सू०२५२) 'अहवे'लादि, अथवा प्रकारान्तरेण सर्वजीवाखिविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तका नोपर्याप्तकानोअपर्याप्त काश्र, तत्र पर्याप्तककायस्थितिचिन्तायां जघन्येनान्तर्मुहूर्त, अपर्याप्तकेभ्यः पर्याप्ततत्पद्यान्तमहत्तीत्परतोऽपर्याप्तकेषु भूयोऽपि गमनात् , उत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेक, तत ऊर्द्व नियमतोऽपर्याप्तकभावात् , लठण्यपेक्षं चेदं सूत्र, तेनापान्तराले उपपातापर्याप्तकोऽपि न कथिदोषः । अपर्याप्तकसूत्रे जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽप्यन्तहर्ग, अपर्याप्तलब्धेर्जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावन्मात्रकालखात, नवरं दीप अनुक्रम [३७६] ~896~ Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [२], -------------------- मूलं [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५२] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- जघन्यपदावुत्कृष्टपदमधिकमवसातव्यं, अन्यथोभयपदोपन्यासायोगास् , उभयप्रतिषेधवती सिद्धः, स च साद्यपर्यवसितः । अन्सर-15 प्रतिपत्ती जीवाभि चिन्तायां पर्याप्तकस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्तमन्तरं, अपर्याप्तकाल एव हि पर्याप्तकस्यान्तरं, अपर्याप्तककालश्च जघन्यत उत्कर्ष-1 सर्वजीव मलयगि- तश्चान्तर्मुहूर्त, अपर्याप्तकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत: सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेक, पर्याप्तककालस्य जघन्यत उत्कर्वतश्चैताव- त्रैविध्ये रीयावृत्तिः प्रमाणवात् , नोपर्याप्तनोअपर्याप्तकस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् ।। अल्पबहुखचिन्तायां सर्वस्तोका नोपर्याप्तकनोअपर्याप्तकाः, सि-18 पर्याप्तत्वा विद्वानां शेषजीवापेक्षयाऽल्पलात्, अपर्याप्तका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामपर्याप्तानामनन्तानन्तानां सदा लभ्यमानत्वात् , तेभ्यः प. दि सुक्ष्म॥४४७॥ याप्रका: सायेयगुणाः, सूक्ष्मेष्वोचतोऽपर्याप्तकेभ्यः पर्याप्तकानां सङ्ख्येय गुणतयाऽवाप्यमानत्वात् ।। त्वादि अहवा तिविहा सव्वजीवा पं० सं०-सुहुमा बायरा नोसुहमानोबायरा, सुहुमे णं भंते! सु- उद्देशः२ हमेति कालओ केवचिरं०१, जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसे. असंखिज कालं पुढचिकालो, वा- सू०२५२यरा जह• अंतो० उक्को० असंखिजं कालं असंखिजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेतओ अंगुलस्स असंखिजहभागो, नोमुहुमनोवायरए साइए अपजवसिए, सुहुमस्स अंतरं वायरकालो, बायरस्स अंतरं सुहमकालो, तइयस्स नोमुहुमणोवायरस्स अंतरं नस्थि । अप्पाबहु० सम्वत्थोवा मोसुहमानोवायरा बायरा अणंतगुणा सुहमा असंखेजगुणा ॥ || ४४७॥ 'अहवे'त्यादि, अथवा प्रकारान्तरेण सर्वजीवास्त्रिविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सूक्ष्मा बादरा: नोसूक्ष्मानोबादराः । कायस्थितिचिन्तायां २५३ [३७७] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~897~ Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२५३] दीप अनुक्रम [३७८] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [सर्वजीव], प्रतिप्रति०] [२], मूलं [२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीत वृत्तिः सूक्ष्मस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तत ऊर्द्ध भूयोऽपि बादरेषु कस्याप्यागमनात्, उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयं कालं, असङ्ख्येवा उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽसया लोकाः, बादरस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तदनन्तरं कस्यचिद् भूयोऽपि सूक्ष्मेषु गमनात् उत्कर्षंतोऽयं कालं, असङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽङ्गुलस्यासयो भागः, एतावत: कालादूर्द्ध नियोगतः संसारिणः सूक्ष्मेषु गमनात् उभयप्रतिषेधवर्त्ती सिद्धः स च साद्यपर्यवसितः || अन्तरचिन्तायां सूक्ष्मस्यान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त उत्कर्षतोऽयं | कालमसङ्ख्या उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षैत्रतोऽङ्गुलस्यासयो भागः, बादरकालख जघन्यत उत्कर्षतञ्चैतावत्प्रमाणत्वात् । बादरस्यान्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त उत्कर्षतोऽसमेयं कालं, असङ्ख्या उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽसङ्ख्या लोकाः, सूक्ष्मस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्कालप्रमाणत्वात् नोसूक्ष्मनोबादरस्य साद्यपर्यवसितस्य हेतौ षष्ठी, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति न्यायात्, ततोऽयमर्थ:-साद्यपर्यवसितत्वान्नास्त्यन्तरमन्यथाऽपर्यवसितत्वायोगात् । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका नोसूक्ष्मानोबादरा, सिद्धानामल्पत्वात्, तेभ्यो बादरा अनन्तगुणाः, वादरनिगोदजीवानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मा असयगुणाः, वादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामसयातगुणत्वात् ॥ अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-सण्णी असण्णी नोसण्णीनोअसण्णी, सन्नी भंते! कालओ० ?, जह० अंतो० को सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं, असण्णी जह० अंतो० ashto area तिकालो, नोसण्णीनोअसण्णी साइए अपजवसिते । सण्णिस्स अंतरं जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो, असण्णिस्स अंतरं जह० अंतो० उक्को० सागरोक्मसयपुहुतं सातिरेगं, For P&Pernaise Cly ~898~ my w Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: त्रैविध्ये प्रत सूत्रांक [२५४] दीप अनुक्रम श्रीजीवाततियस्स पत्थि अंतरं । अप्पाबह सव्वत्थोवा सपणी नोसन्नीनोअसण्णी अर्णतगुणा असणी ६९ प्रतिपत्ती जीवामिल अणंतगुणा ॥ (सू०२५४) | सर्वजीव मलयगि 'अहवा तिविहा' इत्यादि, अथवा' प्रकारान्तरेण त्रिप्रकाराः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सज्ञिनोऽसजिनो नोसज्जिनोऽस-1 रीयावृत्तिः ज्ञिनन, तत्र सम्झिन:-समनस्का: असब्जिन:-अमनस्का: उभयप्रतिषेधवर्तिनः सिद्धाः । कायस्थितिचिन्तायां सब्जिनो जघन्येना-8 संज्ञित्वादि ॥४४८॥ |न्तर्मुहूर्त, तत ऊ भूयोऽपि कस्यचिद् सब्जिषु गमनात् , उत्कर्पतः सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेक, तत कईमवश्यं संसारिणः सतोs-1टा देशा सब्जिपु गमनात , असज्ञिनो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तत ऊर्द्ध कस्यापि पुनरपि सज्ञिपु गमनात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चा- सू० २५४ नन्तः काली पनस्पतिकालः, स चैवं-अनन्ता उत्सर्पिण्यवसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः, असाहयेयाः पुगलपरावताः, ते च81 | पुद्गलपरावतों आवलिकाया असहयो भागः, उभयप्रतिषेधवती सिद्धः, स च साद्यपर्यवसितः । अन्तरचिन्तायां सब्जिनोऽन्तरं | जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त उत्कर्षतोऽनन्त कालं, स चानन्तकालो वनस्पतिकालः, असम्झिकालय जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्प्रमाण खात् , अ-| सब्जिानोऽन्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः सागरोपमशतपथक्वं, सब्ज्ञिकालस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्प्रमाणखात्, नोसब्जिनोनोअसम्झिनः सायपर्यवसित्तस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः सब्जिनो, देवनारकगर्भग्युत्क्रान्तिकतियग्मनुष्याणामेव सब्जियात्, तेभ्य उभयप्रतिषेधवर्तिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिवर्जशेषजीवेभ्य: सिद्धानामनन्तगुणत्वात् , तेभ्योऽसंज्ञिनोऽनन्तगुणाः वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणवात् ।। 6.1॥४४८॥ अहवा तिविहा सधजीवा पण्णसा, तंजहा-भवसिद्धिया अभवसिद्धिया नोभवसिद्धिया [३७९] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~899~ Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२५५ २५६] दीप अनुक्रम [३८० -३८१] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [सर्वजीव], ----- प्रति。प्रति०] [२], मूलं [२५५-२५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः नोभवसिद्धिया, अणाइया सपज्जवसिया भवसिद्धिया, अणाइया अपनवसिया अभवसिद्धिया, साई अपज्जबसिया नोभवसिद्धियानोअभवसिद्धिया । तिपहंपि नत्थि अंतरं । अप्पायहु० स व्वत्थोवा अभवसिद्धिया णोभवसिद्धीयानोअभवसिद्धीया अनंतगुणा भवसिद्धिया अनंतगुणा (सू० २५५) अहवा तिविहा सव्व० तंजहा तसा थावरा नोतसानोधावरा, तसरसणं भंते! कालओ० ?, जह० अंतो० उक्को० दो सागरोवमसहस्साई साइरेगाई, थावरस्स संचिट्टणा वणस्सतिकालो, गोतसानोधावरा साती अपज्जवसिया । तसस्स अंतरं वणस्सतिकालो, थावरस्स अंतरं दो सागरोवमसहस्साई साइरेगाईं, गोतसथावरस्स णत्थि अंतरं । अप्पा बहु सव्वस्थोवा तसा नोतसानोधावरा अनंतगुणा थावरा अनंतगुणा । से तं तिविधा सव्वजीवा पण्णत्ता (सू० २५६) 'अहवेत्यादि, अथवा प्रकारान्तरेण त्रिविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञतास्तद्यथा - 'भवसिद्धिकाः भवे सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिका भव्या इत्यर्थः अभवसिद्धिका - अभव्याः, नोभवसिद्धिकानोअभवसिद्धिकाः सिद्धाः सिद्धानां संसारातीततथा भवसिद्धिकत्वाभव| सिद्धिकत्वविशेषणरहितत्वात् । कायस्थितिचिन्तायां भवसिद्धिकोऽनादिसपर्यवसितोऽन्यथा भवसिद्धिकत्वायोगात् अभवसिद्धिकोऽ नाद्यपर्यवसितः, अभवसिद्धिकत्वादेवान्यथा तद्भावायोगात्, नोभवसिद्धिकोनोअभवसिद्धिकः सायपर्यवसितः, सिद्धस्य संसारक्षयाप्रादुर्भूतस्य प्रतिपातासम्भवात् । अन्तरचिन्तायां भवसिद्धिकस्यानादिसपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं भवसिद्धिकलापगमे पुनर्भवसिद्धिकला For P&Praise City ~900~ Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५५-२५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५५२५६] मौजीवा- योगात् , अभवसिद्धिकस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसिततया सदा तद्भावापरित्यागात् , नोभवसिद्धिकनोभभवसिद्धिकस्यापि साद्यपर्यवसितस्य जीवाभि नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् । अल्पबहु त्यचिन्तायां सर्वस्तोका अभवसिद्धिकाः, अभव्यानां जघन्ययुक्तानन्तकतुल्यत्वात् , नोभवसि- मलयगि- खिकानोअभवसिद्धिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामभव्येभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेभ्यो भवसिद्धिका अनन्तगुणाः, भव्यराशेः सिद्धेभ्यो- रीयावृत्तिःप्य मन्तगुणत्वात् । उपसंहारमाह-'सेत्तं तिविहा सव्वजीवा पन्नत्ता' ।। तदेवं त्रिविधसर्वजीवप्रतिपत्तिरुक्ता, सम्प्रति चतुर्विध- सर्वजीवप्रतिपत्तिमभिधित्सुराह॥४४९॥ तत्थ जे ते एवमाहंसु-चउब्विहा सब्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंमत-मणजोगी वइजोगी कायजोगी अजोगी। मणजोगी णं भंते! जह० एकं समयं उक्को० अंतोमु०, एवं वइजोगीवि, कायजोगी जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो, अजोगी सातीए अपज्जवसिए । मणजोगिस्स अंतरं जहणणं अंतोमुहत्तं उको. वणस्सइकालो, एवं वइजोगिस्सवि. कायजोगिस्स जह एक समयं उन्को अंतो०, अयोगिस्स णस्थि अंतरं । अप्पाबहु० सव्वत्थोवा मणजोगी वहजोगी संखिजगुणा अजोगा अणंतगुणा कायजोगी अर्णतगुणा ॥ (सू० २५७) 'तत्थ जे ते एव'मित्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तश्चतुर्विधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्त एवमुक्तवन्तस्तयथा-मनोयोगिनो वाग्योगिनः काययोगिनोऽयोगिनश्चेति, तत्र काय स्थितिचिन्तायां मनोयोगी जघन्यत एक समय, विशिष्टमनोयोग्यपुरलग्रहणापेक्षमेतत्सूत्रं, ततो द्वितीये समये मरणेनोपरमतो भाषकवदेकसमयता प्रतिपत्तव्या, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, तथा च जीवस्वभावतया नियनत उपरमात् ९ प्रतिपत्ती सर्वजीव त्रैविध्ये भव्यत्वाकादित्रसादि | मनोयो| गादि | उद्देशः२ सू०२५५२५७ दीप अनुक्रम [३८०-३८१] ॥४४९॥ Joic अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: २-(त्रिविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ३-चतुर्विधा] आरब्धा: ~901~ Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२५७] दीप अनुक्रम [३८२] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [सर्वजीव], प्रति० प्रति० [३], मूलं [२५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः | भाषकवत् मनोयोगरहितवाग्योगवानेव बाग्योगी द्वीन्द्रियादिः, जघन्यत एकं समय मुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्त एतदपि सूत्रं विशिष्टवाग्द्रव्यग्रहणापेक्षमवसातयं, काययोगी वाग्योगमनोयोगविकल एकेन्द्रियादिः, जयन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त द्वीन्द्रियादिभ्य उद्धृत्य पृथिव्यादिष्वअन्तर्मुहूर्त्त स्थित्वा भूयः कस्यापि द्वीन्द्रियादिषु गमनात्, उत्कर्षतः प्रागुक्तस्वरूपो वनस्पतिकाल: अयोगी सिद्धः, स च सायपर्ववसितः । अन्तर चिन्तायां मनोयोगिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त तत ऊर्जा भूयो विशिष्टमनोयोग्य पुलसम्भवात् उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, तावन्तं कालं स्थित्वा भूयो मनोयोगिष्वागमनसम्भवात् एवं वाग्योगिनोऽपि जघन्यत उत्कर्षतञ्चान्तरं भावनीय, औदा-, रिककाययोगिनो जघन्यत एकं समयं, औदारिकलक्षणं कायमपेक्ष्यैतत्सूत्रं यतो द्विसामायिक्यामवान्तरालगतावेकः समयोऽन्तरं, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्त इदं हि सूत्रं परिपूर्णोदारिकशरीरपर्याप्तिपरिसमात्यपेक्षं तत्र विप्रहसमयादारभ्य यावदौदारिकशरीरपर्याप्तिपरिसमाप्तिस्तावदन्तर्मुहूर्त्त तत उक्तमुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्त न चैतत्स्वमनीषिकाविजृम्भितं यत आह चूर्णिकृत् - 'कम्यजोगिस्स जह० एक्कं समयं, कहें ?, एकसामायिकविप्रगतस्य, उक्कोसं अंतरं अंतोंमुहुत्तं विग्रहसमयादारभ्य औदारिकशरीरपर्याप्तकस्य यावदेवनन्तमुहूर्त्त द्रष्टव्यमिति, सूत्राणि मूनि विचित्राभिप्रायतया दुर्लक्ष्याणीति सम्यकूसंप्रदायादवसातव्यानि, सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति न काचिदनुपपत्तिः, न च सूत्राभिप्रायमज्ञात्वा अनुपपत्तिरुद्भावनीया, महाशातनायोगतो महाऽनर्थप्रसक्तेः, सूत्रकृतो हि भगवन्तो महीयांसः प्रमाणीकृताश्च महीयस्तरैस्तत्कालवर्त्तिभिरन्यैर्विद्वद्भिस्ततो न तत्सूत्रेषु मनागप्यनुपपत्तिः केवलं सम्प्रदायावसाये यत्रो विधेयः ये तु सूत्राभिप्रायमज्ञात्वा यथा कथञ्चिदनुपपत्तिमुद्भावयन्ते ते महतो महीयस आशावयन्तीति दीर्घतर संसारभाजः, आह च टीकाकार:- "एवं विचित्राणि सूत्राणि सम्यक्संप्रदायादव सेयानीत्यविज्ञाय तदभिप्रायं नानुपपत्तिचोदना कार्या, महाशा For P&Palle Cinly ~902~ Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२५७] दीप अनुक्रम [३८२] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [सर्वजीव], प्रति० प्रति● [३], मूलं [२५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० तनायोगतो महाऽनर्थप्रसङ्गादिति” एवं च ये सम्प्रति दुष्पमानुभावतः प्रवचनस्योपलवाय धूमकेतव इवोत्थिताः सकलकालसुकरा- ९ प्रतिपत्तौ व्यवच्छिन्नसुविधिमार्गानुष्ठातृसुविहितसाधुषु मत्सरिणस्तेऽपि वृद्धपरम्परायात सम्प्रदायादवसेयं सूत्राभिप्रायमपास्योत्सूत्रं प्ररूपयन्तो सर्वजीव मलयग्नि- ४ महाशातनाभाजः प्रतिपत्तव्या अपकर्णयितव्याश्च दूरतस्तस्ववेदिभिरिति कृतं प्रसङ्गेन । सम्प्रत्यल्पबहुत्वमाह - 'एएस णमित्यादि ९ त्रैविध्ये रीयावृत्तिः प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम! सर्वस्तोका मनोयोगिनो, देवनारकगर्भजतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेव मनोयोगित्वात्, तेभ्यो वाग्योगिनोऽसङ्ख्येयगुणाः, द्वित्रिचतुरसङ्क्षिपञ्चेन्द्रियाणां वाग्योगित्वात्, अयोगिनोऽनन्तगुणा: सिद्धानामनन्तत्वात्, तेभ्य: काययोगिनोऽनन्तगुणाः वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तखात् ॥ ॥ ४५० ॥ स्त्रीवेदादि उद्देशः २ सू० २५८ अहवा चव्विा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा - इत्थिवेषमा पुरिसवेयगा नपुंसगवेयगा अवेयगा, इस्थिवेयगा णं भंते! इस्थिवेदपत्ति कालतो केवचिरं होति ?, गोयमा ! (एगेण आएसेण०) पलियस दसुतरं अट्ठारस चोदस पलितपुहुत्तं, समओ जहणो, पुरिसवेदस्स जह० अंतो० उक्को० सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं, नपुंसगवेदस्स जह० एवं समयं उक्को० अनंतं कालं artaतिकालो । अवेयर दुबिहे प० - सातीए वा अपज्जवसिते सातीए वा सपज्जबसिए से जह० एक स० उक्को० अंतोमु० । इत्थिवेदस्स अंतरं जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो, पुरिसवेदस्स जह० एगं समयं उक्को० वणस्सकालो, नपुंसगवेदस्स जह० अंतो० उक्को० सागरोव For P&False Cly ॥ ४५० ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~903~ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति [३], ------------------- मूलं [२५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५८] दीप अनुक्रम [३८३] मसयपुष्टुत्तं सातिरेगं, अवेदगो जहा हेट्ठा । अप्पायहु० सम्वत्थोवा पुरिसवेदगा इस्थिवेदगा संखेजगुणा अवेदगा अणंतगुणा नपुंसगवेयगा अर्णतगुणा ॥ (सू०२५८) 'अहवे'त्यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण चतुर्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-श्रीवेदकाः पुरुषवेदका नपुंसकवेदका अवेदकाः । कायस्थितिचिन्तायां स्त्रीबेदकस्य 'एगेणं आएसेणं जह० एगं समय मित्यादि पूर्व विविधप्रतिपत्तो प्रपश्चतो व्याख्यासमिति न भूयो व्याख्यायते, पुरुषवेदस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, स्त्रीवेदादिभ्य उद्धृत्य पुरुषवेदानामन्तर्मुहूर्व जीवित्वा भूयः स्त्रीवेदादिषु कस्यापि गमनात् । अथ यथा श्रीवेदस्य नपुंसकस्य वा उपशमश्रेणावुपशमे जाते तदनन्तरमेकं समयं तं वेदमनुभूय मृतस्यैकसमयता व्यावयेते तथा पुरुषवेदस्यापि जघन्यत एकसमयता कस्मान्न भवति ?, उच्यते, उपशमश्रेण्यन्तर्गतो मृतः सर्वोऽपि पुरुषवेदेधूत्पद्यते नान्यवेदेषु, तेन स्त्रीवेदस्य नपुंसकवेदस्य चोक्तप्रकारेण जघन्यत एकसमयता लभ्यते, न पुरुषवेदस्य, तस्य जन्मान्तरेऽपि सातत्येन गमनात्, ततो जघन्यं पुरुषवेदस्योपदर्शितेनैव प्रकारेणेत्यन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकं, तच्च देवमनुष्यतिर्यग्भवभ्रमणेन वेदितव्यं, नपुंसकवेदो जघन्यत एक समय, स चैकः समय उपशमश्रेणी वेदोपशमानन्तरमेकं समय नपुंसकवेवमनुभूय मृतस्य परि| भावनीयो मरणानन्तरं पुरुषवेदेषुत्पादात्, उत्कर्षतो बनस्पतिकालः, स च प्रागनेकधा दर्शितः, अवेदको द्विविधः-साद्यपर्ववसितः क्षीणवेदः सादिसपर्यवसित उपशान्तवेदः, स च जघन्यत एक समयं, द्वितीये समये मरणतो देवगतौ पुरुषवेदसम्भवात् , उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं मरणत: पुरुषवेदसक्रान्त्या प्रतिपाततो येन वेदेनोपशमश्रेणि प्रतिपन्नतवेदोदयापत्त्या सवेदकलान् । अन्तरचिन्तायां खीवेदस्यान्तरं जघन्यवोऽन्तर्मुहूर्त, तश्योपशान्तवेदे पुनरन्तर्मुहूर्तेन खीवेदोदयापत्त्या, यदिवा खीभ्य उद्धृत्य पुरुषवेदेषु नपुं जी०७६ ~904~ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [3], ------------------- मूलं [२५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५८] श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती सर्वजीव चातुर्विध्ये चक्षुदर्शन नादि उद्देश२ सू०२५९ ॥४५१॥ दीप अनुक्रम [३८३] सकवेदेषु वाऽन्तर्मुहूर्त जीविला पुनः स्त्रीलेनोत्पत्या भावनीयं, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, पुरुषवेदस्यान्तरं जपन्यत एक समयं, पुरु- पस्य स्ववेदोपशमसमयानन्तरं मरणे पुरुषेष्वेवोत्पादात् , लत्कर्षतो वनस्पतिकालः, नपुंसकवेदस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तच्च स्त्रीवेदोक्त-I प्रकारेण भावयितव्यं, उत्कर्षत: सागरोपमशतपृथक्लं सातिरेक, वत ऊर्ब नियमतः संसारिणः सतो नपुंसकोदोदवभावात् , अवे- दकस्य साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् , सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुहूतेन कस्यापि श्रेणिसमारम्भात् , उत्कर्षतोड- नन्तं कालं, अनन्ता उत्सपिण्यवसापिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुद्रलपराव देशोनं, तावत: कालादूई पूर्वप्रतिपन्नोपशमश्रेणिकस्य पुनः श्रेणिसमारम्भात् । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः पुरुषवेदकाः गतित्रयेऽप्यल्पलात्, खीवेदकाः स यगुणाः, तिर्यग्गतौ त्रि- गुणलात् (मनुष्यगतौ सप्तविंशतिगुणत्वात्) देवगतौ द्वात्रिंशद्गुणत्वात् , अवेदका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , नपुंसकवेदका अनन्तगुणाः, वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् ।। अहया चउब्विहा सव्वजीवा पपणत्ता, तंजहा-चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी अवधिदसणी केवलिदसणी ॥ चक्खुदंसणी णं भंते!०१. जह० अंतो० उको सागरोवमसहस्सं सातिरेगं, अचखुर्दसणी दुविहे पपणसे-अणातीए वा अपज्जवसिए अणाइए वा सपज्जवसिए । ओहिदसणिस्स जह० इकं समयं उक्को दो छावट्ठी सागरोवमाणं साइरेगाओ, केवलदसणी साइए अपजयसिए । चक्खुदंसणिस्स अंतरं जह. अंतोमु० उक्को वणस्सतिकालो । अचखुदंसणिस्स दुविहस्स नत्धि अंतरं। ओहिदसणस्स जह. अंतोमु० उक्कोसे वणस्सइकालो। केवलदं ॥४५ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~ 905~ Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२५९ ] दीप अनुक्रम [३८४] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], प्रति० प्रति० [३], मूलं [२५९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः afree fथ अंतरं । अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा ओहिदंसणी चक्खुदंसणी असंखेचगुणा केवलदंसणी अनंतगुणा अचकखुदंसणी अनंतगुणा ॥ (सू० २५९ ) 'अहवे'त्यादि, 'अथवा ' प्रकारान्तरेण चतुर्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-चक्षुर्दर्शनिनोऽचक्षुर्दर्शनिनोऽवधिदर्शनिनः केवलदर्श निनः ॥ अमीषां कार्यस्थितिमाह 'चक्खुदंसणी णं भंते!' इत्यादि, चक्षुर्दर्शनी जपन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त, अचक्षुर्दर्शनिभ्य उद्धृत्य च श्रुर्दर्शनिपूरपद्य तावन्तं कालं स्थित्वा पुनरचक्षुर्दर्शनिषु कस्यापि गमनात्, उत्कर्षतः सागरोपमसहस्रं सातिरेकं, अचक्षुर्दर्शनी द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - अनाद्यपर्यवसितो यो न जातुचिदपि सिद्धिं गन्ता, अनादिसपर्यवसितो भव्यविशेषो यः सेत्स्यति, अवधिदर्शनी जपन्यत एकं समयं अवधिप्रतिपत्स्यनन्तरमेव कस्यापि मरणतो मिध्यात्वगमनतो दुष्टाध्यवसाय भावतोऽवधिप्रतिपातात् उत्कर्षतो द्वे | पट्षष्टी सागरोपमाणां सातिरेके, तत्रैका षट्षष्टिः एवं विभङ्गज्ञानी तिर्यक्पञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वाऽधः सप्तम्यामुत्पन्नः, तत्र त्रयस्त्रिंशतं सागरोपमाणि स्थित्वा तत्र च प्रत्यासन्ने उद्वर्त्तनाकाले सम्यक्लं प्राप्य पुनः परित्यजति ततोऽप्रतिपतितेनैव विभङ्गेन पूर्वको व्यायुष्केषु तिर्यक्षु जातस्ततः पुनरव्यप्रतिपतितविभङ्ग एवाधः सप्तम्यामुत्पन्नः, तत्र च त्रयस्त्रिंशतं सागरोपमाणि स्थित्वा पुनरप्युद्वर्त्तनाकाले प्रत्यासने सम्यक्त्वं प्राप्य पुनः परित्यजति ततः पुनरप्यप्रतिपतितेनैव विभङ्गेन पूर्वकोयायुष्केषु तिर्यक्षूपजातो, वेलाद्वयमपि चाविप्रहेणाधः सप्तम्यास्तिर्यक्षत्पादयितव्यः, विमहे विर्भङ्गस्य प्रतिषेधात् उक्तं च- "विभंगनाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूया य आहारगा नो अणाहारगा" इति, नन्वपान्तराले किमर्थं सम्यक्त्वं प्रतिपाद्यते ?, उच्यते, विभङ्गस्य स्तोककालावस्थायित्वात् उक्तव—“विभं गनाणी जह० एवं समयं उक्को० तेचीसं सागरोवमाई देसूणाए पुण्बकोडीए अब्भहियाई”ति, तदनन्तरमप्रतिपतितविभङ्ग एव मनु For P&Perase City ~906~ Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [३], ----------------- मूलं [२५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५९] दीप अनुक्रम [३८४] श्रीजीवा- व्यवं प्राप्य सम्यक्त्वपूर्व संयममासाथ विजयादिषु वारद्वयमुत्पद्यमानस द्वितीया षट्पष्टिर्भावनीया, अवधिदर्शनं च विभोऽवधि- प्रतिपत्ती जीवाभिज्ञाने च तुल्यमतो द्वे षट्पष्टी सागरोपमाणां सातिरेके स्थितिरवधिदर्शनिनः, केवलदर्शनी साद्यपर्यवसितः ॥ साम्प्रतमन्तरमाह-151 | सर्वजीव मलयगि- चक्खुदसणिस्स णं भंते!' इत्यादि, चक्षुर्दर्श निनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त तावत्प्रमाणेनाचक्षुर्दर्शनभवेन व्यवधानात् , उत्कर्षतोचातुर्विध्ये रीयावृत्तिः वनस्पतिकालः, स च प्रागुक्तस्वरूपः, अचक्षुर्दर्शनिनोऽनाद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् , अनादिसपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरंग चक्षुर्दर्श अचक्षुर्दर्शनिखापगमे भूयोऽचक्षुर्दर्शनिलायोगात् , क्षीणघातिकर्मणः प्रतिपातासम्भवात् , अवधिदर्शनिनो जघन्येनैके समयमन्तरं, ॥४५२॥ प्रतिपातसमयानन्तरसमय एवं कस्यापि पुनस्तल्लाभभावात् , कचिदन्तर्मुहूर्तमिति पाठः, स च सुगम: तावता व्यवधानेन पुनस्तल्ला- उद्देशः२ भभावात् , न चार्य निर्मूल: पाठो, मूलटीकाकारेणापि मतान्तरेण समर्थितत्वात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, तावत: कालादूईमव. श्यमवधिदर्शनसम्भवात् अनादिमिध्यादृष्टेरप्यविरोधात् , ज्ञानं हि सम्बकत्लसचिव न दर्शनमपीति भावना, केबलदर्शनिनः साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितखात् । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका अवधिदर्शनिनो, देवनारककतिपयगर्भजतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुयाणामेव तद्भापात् , चक्षुदर्शनिनोऽसङ्ख्येयगुणाः, संमूछिमतिर्यपञ्चेन्द्रियचतुरिन्द्रियाणामपि तस्य भावात्, केवलदर्शनिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽचक्षुर्दर्शनिनोऽनन्तगुणाः, एकेन्द्रियाणामप्यचक्षुर्दर्शनित्वात् ।। अहवा चउम्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-संजया असंजया संजयासंजया नोसंजयानोअसंजयानोसंजयासंजया। संजए णं भंते!०? जह० एक समयं उक्को० देसूणा पुच्चकोडी, असंजया जहा अण्णाणी, संजयासंजते जह० अंतोमु० उक्को० देसूणा पुब्दकोडी, नोसंजतनो Janki अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~907~ Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [३], ------------------- मूलं [२६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६०] CAUSA असंजयनोसंजयासंजए सातीए अपज्जवसिए, संजयस्स संजयासंजयस्स दोण्हवि अंतरं जह अंतोमु० उक्को अवई पोग्गलपरियह देसूर्ण, असंजयस्स आदिदुवे णस्थि अंतरं, सातीयस्स सपज्जवसियस्स जह० एफ स० उकोदेसूणा पुवकोडी, चउत्थगस्स णस्थि अंतरं ॥ अप्पाबहु० सम्वत्थोवा संजयासंजया संजया असंखेनगुणा गोसंजयणोअसंजयणोसंजयासंजया अर्णतगुणा असंजया अर्णतगुणा । सेत्तं चउम्विहा सबजीया पणत्ता (सू०२६०) 'अहवे'यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण सर्वेजीवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-संयता: असंयताः संयतासंयता: नोसंथतानोअसंयतानो संयतासंयताः ।। कायस्थितिमाह-संजए णं भंते !' इत्यादि, संयतो जघन्यत एक समयं, सर्वविरतिपरिणामसमयानन्तरसमय एव कस्यापि मरणात् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, असंयतत्रिविधः-अनाद्यपर्यवसितः अनादिसपर्ववसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्रानाद्यपर्यवसितो यो न जातुचिदपि संयम प्राप्स्यति, अनादिसपर्यवसितो यः संयम लप्स्यति, लब्धेन च तेनैव संयमेन सिद्धिं गन्ता, सादिसपर्यवसितो सर्वविरतर्देशविरतेयं परिभ्रष्टः, स हि सादिः नियमभाविसपर्यवसितत्वापेक्षया च सपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तावता कालेन कस्यापि संयतललाभात् 'तिण्डं सहस्स पुहुत्त'मित्यादि वचनात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽपाई पुद्गलपरावर्त देशोनं, संयतासंयतो जघन्येनान्तर्मुहूर्त, संयतासंयतत्त्वप्रतिपत्तेः भङ्गबहुलतया जघन्यतोऽप्येतावन्मात्रकालप्रमाणत्वात् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, बालकाले तदभावात् , त्रितयप्रतिषेधवर्ती सिद्धः, सच साद्यपर्यवसित एव । अन्तरमाह-संजयस्स णमित्यादि, संयतस्य जघन्येनान्तरमन्तर्मुहू, तावता कालेन पुनः कस्यापि सं दीप अनुक्रम [३८५] Lamicmarinion ~908~ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [३], ------------------ मूलं [२६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६०] दीप अनुक्रम [३८५] श्रीजीवा- यतत्वलाभात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उत्सपिण्यवसपिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुद्गलपरावर्त देशोनम् , एतावतः कालादूद्ध प्रतिपत्तौ जीवाभि पूर्वमवाप्तसंयमस्य नियमत: संबमलाभात्, अनायपर्यवसितस्यासंयतस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् , अनादिसपर्यवसितस्यापि ना- सर्वजीव मलयगि- स्त्यन्तरं, तस्स प्रतिपातासम्भवात् , सादिसपर्ववसितस्य जघन्यत एकं समयं, स चैकसमयः प्राग्ल्यावर्णित: संयतसमयः, एवमुत्कर्षतो चातुर्विध्ये रीयावृत्तिः देशोना पूर्वकोटी, असंयतत्वव्यवधायकस्य संयतकालस्य संयतासंयतकालस्य वा उत्कर्षतोऽप्येतावत्प्रमाणत्वात् , संयतासंयतस्य जप-18/चक्षुर्वर्श.. दिन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तद्भावपाते एतावता कालेन वल्लाभसिद्धेः, उत्कर्षत: संयतवत्, त्रितवप्रतिषेधवर्तिनः सिद्धय साधपर्यवसितस्य है नादि ॥४५३॥ नास्त्यन्तरं अपर्यवसिततया सदा तद्भावापरित्यागात् ॥ अल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका जीवा: संयताः, सलो- उद्देशः२ यकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , संयतासंयंता असोयगुणाः, असोयानां तिरश्चा देशविरतिभावात् , त्रितयप्रतिषेधवर्तिनोऽनन्तगुणाः, ०२६१ सासिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽसंयता अनन्तगुणाः वनस्पतीनां सिद्धेभ्यो ऽप्यनन्तत्वात् । उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि । उक्ताश्चतुविधा: सर्वजीवाः, सम्प्रति पञ्चविधानाह तत्थ जे ते एवमासु पंचविधा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एचमाहंसु, तंजहा-कोहकसायी माणकसायी मायाकसायी लोभकसायी अकसायी। कोहकसाई माणकसाई मायाकसाई णं जह अंतो० उक्को अंतोमु०, लोभकसाइस्स जह० एकं स० उक्को. अंतो, अकसाई विहे जहा हेट्ठा । कोहकसाई माणकसाईमायाकसाईणं अंतरं जह० एकं० स० उक्को अंतो० लोहकसाइस्स अंतरं जह० अंतो. खको अंतो०, अकसाई तहा जहा हेहा ॥ अप्पाबहु-अकसाइणो ॥४५३ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ३-चतुर्विधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ४-[पञ्चविधा] आरब्धा: ~909~ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [४], ------------------ मूलं [२६१] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक PROTOCOCO+ [२६१] 15613 गाथा सव्वत्थोचा माणकसाई तहा अणतगुणा । कोहे माया लोभे विसेसमहिया मुणेतव्वा ॥१॥ (सू०२६१) 'तत्य जे ते' इत्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तः पञ्चविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्तद्यथा-कोधकषायिणो मानकषा|विणो मायाकषायिणो लोभकषायिणोऽकषायिणश्च ।। अमीषा कायस्थितिमाह-कोहकसाई णं भंते' इत्यादि, क्रोधकषायी जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्त, "क्रोधाद्युपयोगकालोऽन्तर्मुहूर्त"मिति वचनात् , एवं मानकषायी मायाकषायी च वक्तव्यः, लोभकषायी जघन्येनैकं | समयं, स चोपशमश्रेणेः प्रतिपतन लोभकषायोदयप्रथमसमयानन्तरं मृत: प्रतिपत्तव्यो, मरणसमये कस्यापि क्रोधाद्युदयसम्भवात् , क्रमेण प्रतिपतनं हि मरणाभावे न तु मरणेऽपीति, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, अकषायी द्विविध:-साद्यपर्यवसितः केवली, सादिसपर्यवसित उपशान्तकषायः, स च जघन्येनैकं समयं द्वितीये समये मरणतः क्रोधायुदयेन सकषायत्वप्राप्तः, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुपशान्तमोहगुणस्थानककालमैतावत्प्रमाणत्लादित्येके, अन्ये लभिदधति-जघन्यतोऽप्यन्तर्मुह, न लोभोपशमप्रवृत्तस्यान्तेऽन्तर्गहीदयो मरणमिति बृद्धवादात् , उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तमुपशान्तमोहगुणस्थानककालस्योत्कर्षतोऽप्येतावन्मात्रत्वात् , नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदं विशेषाधिकमवसातव्यं, युक्तं चैतत् सूत्रकृतोऽभिप्रायेण प्रतिभासते, लोभकषायिणो जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्तान्तराभिधानात् , वक्ष्यति च- लोभकसाइयस्स जह• अंतो० उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तमंतर"मिति ॥ साम्प्रतमन्तरमाह-कोहकसाइस्स णं भंते! इत्यादि, क्रोधकषाविणोऽन्तरं जघन्येनैक समयं, तदुपशमसमयानन्तरं मरणे भूयः कस्यापि तदुदयात् , उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, एवं | मानकषायिमायाकषायिसूत्रे अपि वक्तव्ये, लोभकषायिणो जघन्येनोत्कृष्टेनाप्यन्तर्मुहूर्च नवरंमुत्कृष्टं वृहत्तरमवसातव्यम् , अकषा E567 SOAMROSCA दीप अनुक्रम [३८६-३८७] % F ~910~ Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [४], ------------------ मूलं [२६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६१] गाथा D श्रीजीवा-माविणः सायपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं अपर्यवसितलान , सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तावता कालेन भूयः श्रेणिलाभात्कार प्रतिपत्ती जीवाभिदानी उत्कर्षतोऽनन्त कालं, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसपिण्यः कालत:, क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुद्गलपरावतै देशोनं, पूर्वमनुभूताकपायित्वस्यैतावता | द्र सर्वजीव कालेन भूयो नियमेनाकषायित्वभावात् ।। अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका अकषायिणः, सिद्धानामेवाकषायित्वात् , तेभ्यो मानकषा- चातुर्विध्ये रीयावृत्तिःयिणोऽनन्तगुणाः, निगोदजीवानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् , तेभ्यः क्रोधकषायिणो विशेषाधिकाः, क्रोधकषायोदयस्य चिरकालाब-18|चक्षदर्श॥४५४॥ खाबिलात्, एवं तेभ्यो मायाकषायिणो विशेषाधिकाः, तेभ्यो लोभकषाविणो विशेषाधिकाः, मायालोभोदययोचिरतरकालावस्था- नादि यित्वात् ॥ उद्देशा अहवा पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-णेरड्या तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा सिद्धा। सू०२६२ संचिट्ठणांतराणि जह हेट्ठा भणियाणि । अप्पाबहु० थोवा मणुस्सा णेरहया असंखेजगुणा देवा असंखेजगुणा सिद्धा अर्णतगुणा तिरिया अणंतगुणा । सेत्तं पंचविहा सब्वजीवा पपणत्ता ।। (सू० २६२) 'अहर्वे'त्यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण पञ्चविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-नैरविका स्तिर्ययो मनुष्या देवाः सिद्धाः, अमीषां ॥४५४॥ काय स्थितिरन्तरमल्पबहुत्वं च प्रागेवाभिहितमिति न भूयो भाम्यते । उपसंहारमाह-'सेत्तं पंचविहा सव्वजीवा पन्नत्ता' ।। तदे-18 वमुक्ताः पञ्चविधाः सर्वजीवाः, सम्प्रति षड्विधानाह दीप अनुक्रम [३८६-३८७] JEscameTTARI अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ४-(पञ्चविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ५-[षविधा] आरब्धाः ~911~ Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [9], -------------------- मूलं [२६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६३] दीप अनुक्रम [३८९]] तत्थ जे ते एक्माहंसु छविहा सब्बजीया पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तंजहा-आभिणियोहियणाणी सुयणाणी ओहिनाणी मणपज्जवणाणी केवलनाणी अण्णाणी, आभिणियोहियणाणी णं भंते ? आभिणियोहियणाणित्ति कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा! जह० अन्तोमुहुत्तं उको छावर्डि सागरोवमाई साइरेगाई एवं सुयणाणीवि, ओहिणाणी णं भंते!०१, जह० एकं समयं उक्को जवहिं सागरोषमाई साइरेगाई, मणपज्जवणाणी णं भंते !०१, जह० एक समयं उको देसूणा पुवकोडी, केवलनाणी णं भंते!? सादीए अपजयसिए, अन्नाणिणो तिबिहा पं० २०-अणाइए वा अपजवसिए अणाइए वा सपज्जवसिए साइए वा सपज्जवसिए, तत्थ साइए सपज्जवसिए जह० अंतो० उक्को० अणतं कालं अवडं पुग्गलपरियह देसूर्ण । अंतरं आभिणियोहियणाणिस्स जह० अंतो० उक्को० अणंतं कालं अवई पुग्गलपरियह देसूर्ण, एवं सुप० अंतरं० मणपजव०, केवलनाणिणो णस्थि अंतरं, अन्नाणिसाइसपज्जवसियस्स जह० अंतो उको छावर्द्धि सागरोचमाई साइरेगाई। अप्पा० सम्वत्थोवा.मण. ओहि असंखे० आभि सुप०विसेसा० सट्टाणे दोषि तुल्ला केव० अणंत अण्णाणी अणंतगुणा ।। अहवा छब्विहा सव्वजीचा पण्णत्ता तंजहा-(एवंविधः पाठ इतः प्राग आवश्यको न चोपलब्धो दृश्यमानादर्शपु कचिदपि) एगिदिया बेदिया तेंदिया चरिंदिया पंचेंदिया अजिंदिया। संचिट्ठणांतरा जहा हेवा । अप्पाबहु ~912~ Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [9], -------------------- मूलं [२६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: IN प्रतिपत्ती | सर्वजीव प्रत सूत्रांक [२६३] श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥४५५॥ दीप अनुक्रम [३८९]] सब्बत्थोचा पंचेंदिया चाउरिदिया विसेसा० तेइंदिया विसेसा बेदिया विसेसा० एगिदिया अणं तगुणा अणिदिया अणंतगुणा ।। (सू०२६३) 'तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तः षड्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽ- चातुर्विध्ये वधिज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिन: केवलज्ञानिनोऽशानिनश्च । सम्प्रत्यमीषां कायस्थितिमाह-आभिणिबोहियनाणी णं भंते!' इत्यादि, आभिनिवोधिकज्ञानी जघन्येनान्तर्मुहूर्त, सम्यक्त्वकालस्य जघन्यत एतावन्मात्रखात् , उत्कर्षतः षट्षष्टिः सागरोपमाणि सातिरे-6 नादि काणि, तानि च विजयादिषु वारद्वयादिगमनेन भावनीयानि, एवं श्रुतज्ञानिनोऽपि वक्तव्यं, आभिनिबोधिकश्रुतज्ञानयोः परस्परा- उद्देशः२ विनाभूतत्वान्, 'जत्थ आभिणिबोहियणाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ आभिणिबोहियनाणं, दोवि एयाई अण्णोण्णम * अण्णोणम- सू०२६३ गुगयाई' इति वचनात् , अवधिज्ञानी जघन्यत एक समयं, सा पैकसमयता मरणत: प्रतिपातेन मिध्यात्लगमनतो वा विभङ्गज्ञान-18 भावतः प्रतिपत्तन्या, उत्कर्यतः घट्पष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, तान्याभिनिवोधिकज्ञानवद्भावनीयानि, मनःपर्यवज्ञानी जधन्यत एक समय, द्वितीय समये मरणतः प्रतिपातात् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, चारित्रकालस्योत्कर्षतोऽप्येतावन्मात्रत्वात् , केवलहानी साद्यपर्यवसितः । अज्ञानी त्रिविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अनाद्यपर्ववसित: अनादिसपर्यबसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितोऽसौ जयन्येनान्तर्मुहूर्त, वत उई कस्यापि सम्यक्त्वलाभतो भूयोऽपि शानिलभावात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावद|पार्द्ध देशोनं पुद्गलपरावर्त, ज्ञानिनात्परिभ्रष्टस्यैतावता कालेन नियमतो भूयोऽपि ज्ञानित्वभावात् । अन्तरचिन्तायामाभिनियोधिकज्ञानिनो जघन्येनान्तरमन्तर्मुहूर्त, कस्याप्येतावत्कालेन भूयोऽप्याभिनियोधिकज्ञानिखभायात्, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदपाई पुद्गल Jamiacin IDR अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~913~ Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [५], ------------------- मूलं [२६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६३] दीप अनुक्रम [३८९]] परावर्त देशोनं, एवं श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिनश्चान्तरं वक्तव्यं, केवलज्ञानिनः साद्यपर्यवसितत्यानास्त्यन्तरं, अज्ञा-| निनोऽनाद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं अपर्यवसितत्वात् , अनादिसपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं भूयस्तद्भावायोगात् , पुनरज्ञानिलं हि भवत् सादिसपर्यवसितं भवति न खनादिसपर्यवसितं, सादिसपर्यवसितस्य जघन्यवोऽन्तर्मुहूर्त, तावता कालेन भूयोऽपि कस्याप्यज्ञा-12 नित्वप्राप्तः, उत्कर्षत: षट्षष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि । अल्पबहुलचिन्तायां सर्वस्तोका मनःपर्यवज्ञानिनश्चारित्रिणामेव केषाभिवत्तद्भावात् तं संजयस्स सव्वप्पमावरहियस्स विविधरिद्धिमतो' इति वचनात् , तेभ्योऽवधिज्ञानिनोऽसलयातगुणाः, देवनारकाणामप्यवधिज्ञानभावात् , तेभ्य आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च द्वयेऽपि विशेषाधिकाः, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्या:, आभि| निवोधिकश्रुतज्ञानयोः परस्पराविनाभावात् , तेभ्यः केवल ज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिकायानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् ॥ 'अहवेत्यादि, अथवा प्रकारान्तरेण षडियाः सर्वजीवाः प्राप्तास्तद्यथा-एकेन्द्रिया द्वीन्द्रि-I यात्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पश्चेन्द्रिवा अनिन्द्रियाः । एतेषां कायस्थितिरन्तरमल्पबहुत्वं प्रागेव भावितम् ॥ अहवा छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता तंजहा-ओरालियसरीरी वेउब्वियसरीरी आहारगसरीरी तेयगसरीरी कम्मगसरीरी असरीरी ॥ ओरालियसरीरी गं भंते ! कालओ केवचिरं होइ?, जहपणेणं खुडागं भवगहणं दुसमऊर्ण, उक्कोसेणं असंखिज्ज कालं जाव अंगुलस्स असंखेजतिभागं, वेउब्वियसरीरी जह. एक समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, आहारगसरीरी जह० अंतो० उको० अंतो०, तेयगसरीरी दुविहे-अणादीए वा अपजवसिए अणादीए k ~914~ Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [५], ------------------- मूलं [२६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [9] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६४] दीप अनुक्रम [३९० श्रीजीवा- वा सपजवसिते, एवं कम्मगसरीरीवि, असरीरी सातीए अपजवसिते ॥ अंतरं ओरालियसरी- ९ प्रतिपत्ती जीवाभि० रस्स जह० एकं समयं उको तेत्तीसं सागरोबमाइं अंतोमुत्तमम्भहियाई, वेउब्वियसरीरस्स सर्वजीव मलयगि-18 जह. अंतोषको अणंतं कालं वणस्सतिकालो, आहारगस्स सरीरस्स जह• अंतो उक्को. चातुर्विध्ये रीयावृत्तिः अणतं कालं जाव अवडं पोग्गलपरियई देसूर्ण, तेय० कम्मसरीरस्स य दुपहषि णस्थि अंतरं ॥ चक्षुर्द अप्पाबहु० सव्वस्थोवा आहारगसरीरी वेउब्वियसरीरी असंखेजगुणा ओरालियसरीरी असं॥ ४५६॥ नादि खेजगुणा असरीरी अणंतगुणा तेयाकम्मसरीरी दोवि तुल्ला अर्णतगुणा । सेत्तं छब्धिहा सब्ब- उद्देश २ जीवा पण्णत्ता ॥ (सू० २६४) दसू० २६४ | 'अहवे'त्यादि, अथवा प्रकारान्तरेण पहिधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-औदारिकशरीरिण: बैफियशरीरिणः आहारकशरीरिणः || जसशरीरिणः कार्मणशरीरिणः अशरीरिणश्च ।। अमीषां कायस्थितिमाह-ओरालियसरीरी णं भंते' इत्यादि, औदारिकशरीरी131 जघन्यतः क्षुलकभवग्रहणं द्विसमयोनं, विग्रहे आथयोवोः समययो: कार्मणशरीरित्वात् , उत्कर्षतोऽसायं कालं तावन्त कालमविनहेणोत्पादसम्भवात् । वैक्रियशरीरी जघन्येनेक समयं, विकुणासमयानन्तरसमये एव कस्यापि मरणसम्भवात् , उत्कर्षतत्रयस्त्रिंशसागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, तानि चैव-कश्चिारित्रवान वैक्रियशरीरं कृत्वाऽन्तर्मुहर्स जीवित्वा स्थितिक्षयादविग्रहेणानुतरसुरेपूपजायते, आहारकशरीरी जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त, तैजसशरीरी कार्मणशरीरी च प्रत्येक द्विविधः-अनाद्य-18 ॥४५६॥ पर्यवसितो यो न मुक्तिं गन्ता, अनादिसपर्यवसितो मुक्तिगामी, अशरीरी साद्यपर्यवसितः । अन्तरचिन्तायामौदारिकशरीरिणोs-12 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~915~ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [५], ------------------- मूलं [२६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६४] दीप अनुक्रम [३९० न्तरं जघन्यत एकः समयः, स च द्विसामयिक्यामपान्तरालगतौ भावनीयः, प्रथमे समये कार्मणशरीरोपेतत्वात् , उत्कर्षतत्यविंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहर्ताभ्याधिकानि, उत्कृष्टो वैक्रियकाल इति भावः, वैक्रियशरीरिणोऽन्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, सक्रिय-12 करणे एतावता कालेन पुनक्रियकरणात् मानवदेवेषु भावात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः प्रकट एव, आहारकशरीरिणो जघन्येनान्तमुहूर्त, सकृत्करणे एतावता कालेन पुन: करणात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदपार्ट्स पुद्गलपरावर्त, जैजसकाम्मेणशरीरयोविधाऽपि नास्त्यन्तरं । अल्पबहुवचिन्तायां सर्वस्तोका आहारकशरीरिणः, उत्कर्षतोऽपि सहस्रपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्यो बैंक्रियशरीरिगोऽसोयगुणाः, देवनारकाणां कतिपयगर्भजतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यवायुकायिकानां च बैक्रियशरीरित्वात् , तेभ्य औदारिकशरीरिणोसोयगुणाः, इहानन्तानामपि जीवानां यस्मादेकमौदारिक शरीरं ततः स एक औदारिकशरीरी परिगृह्यते ततोऽसोवगुणा एवीदारिकशरीरिणो नानन्तगुणाः, आह च मुलटीकाकार:-औदारिकशरीरिभ्योऽशरीरा अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , औ-11 दारिकशरीरिणां च शरीरापेक्षयाऽसवेयत्वा"दिति, तेभ्योऽशरीरिणोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तस्वात् , सेभ्यसैजसशरीरिणः कार्म-14 जणशरीरिणश्वानन्तगुणाः, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तैजसकार्मणयोः परस्पराविनाभावात् , इह तैजसशरीरं कार्मणशरीर पाच निगोदेष्वपि प्रतिजीब विद्यत इति सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वम् । उपसंहारमाह-'सेत्तं छबिहा सव्वजीवा पन्नत्ता' ॥ उक्ताः डिधाः सर्वजीवाः, सम्प्रति सप्तविधानाह तस्थ जे ते एवमाहमु सत्सविधा सब्यजीवा पं० ते एवमाहंसु, तंजहा-पुढधिकाइया आउका इंया तेउकाइया बाउकाइया वणस्सतिकाइया तसकाइया अकाइया । संचिट्ठणंतरा जहा हेडा । जी०७७ AAAAAGR-522-%% २-% अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ५-षडविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ६-[सप्तविधा] आरब्धा: ~ 916~ Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२६५] दीप अनुक्रम [३९१] उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [सर्वजीव], प्रति० प्रति०] [६], मूलं [ २६५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि यावृत्तिः ॥ ४५७ ॥ ৩ জ "जीवाजीवाभिगम" - अप्पाago सव्वत्थोवा तसकाइया तेडकाइया असंखेजगुणा पुढविकाइया विसे० आउ० विसे० वाउ० विसेसा० सिद्धा अनंतगुणा वणस्सइकाइया अनंतगुणा || (सू० २६५ ) 'तत्थ जे से' इत्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तः सप्तविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्तयथा- पृथिवीकायिका अष्कायिकाः तेजस्कायिका वायुकायिका बनस्पतिकायिकाः त्रसकायिकाः अकायिकाच । पृथिवीकायिकादीनां कार्यस्थितिरन्तर मल्पबहुत्वं च प्रा-कायले गेव भावितमिति न भूयो भाव्यते ॥ + श्याभ्यां ४ उद्देशः २ सू० २६५२६६ अहवा सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा- कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा पम्हलेस्सा मुक्कलेस्सा अलेस्सा ॥ कण्हलेसे णं भंते! कण्हलेसत्ति कालओ केवचिरं होइ, गोयमा ! ज० अंतो० को ० तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, णीललेस्से णं जह० अंतो० उ० दस सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जति भागअन्भहियाई, काउलेस्से णं भंते !०, जह० अंतो० उक्क० तिन्नि सागरोवमाई पलिओ मस्स असंखेजति भागमभहियाई, तेउलेस्से णं भंते!, जह० अं० उ० दोणि सागरोवमाई पलिओ मस्स असंखेजइ भागमन्भहियाई, पम्हलेसे गं भंते!, जह० अंतो० उ० दस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, सुकलेसे णं भंते १०१, जह अंत से तत्सं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, अलेस्से णं भंते! सादीए अपज्जवसिते ॥ कण्हलेसस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होति ?, जह० अंतो० उ० ते For P&Pease Cinly १९ प्रतिपत्ती सर्वजीव सप्तविधत्वं ~917~ ॥ ४५७ ॥ CHERY अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति॰ [६], -------------------- मूलं [२६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६६] सीसं सागरोचमाई अंतोमुहत्तम०, एवं नीललेसस्सधि, काउलेसस्सवि, सेउलेसस्स णं भंते। अंतरं का०, जह. अंतोउको वणस्सतिकालो, एवं पम्हलेसस्सवि सुक्कलेसस्सवि दोण्हवि एवमंतरं, अलेसस्स णं भंते! अंतरं कालओ०?, गोयमा!' सादीयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं ॥ एतेसिणं भंते! जीवाणं कण्हलेसाणं नीललेसाणं काउले० तेउ० पम्ह सुक० अलेसाण य कयरे २१०, गोयमा! सम्बत्थोपा सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सा संखेजगुणा तेउलेस्सा संखिजगुणा अलेस्सा अर्णतगुणा काउलेस्सा अणंतगुणा नीललेस्सा विसेसाहिया कण्हलेस्सा विसेसाहिया । सेत्तं सत्तविहा सव्वजीवा पन्नत्ता।। (सू०२६६) 'अहवेत्यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण सर्वजीवाः सप्तविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-कृष्णलेश्या: नीललेश्याः कापोतलेश्याः तेजोलेश्या: पद्मलेश्याः शुक्ललेश्या: अलेश्याः ॥ साम्प्रतमेतेषां कायस्थितिमाह-कपहलेसे णं भंते !' इत्यादि, कृष्णलेश्या जपन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तिर्यअनुष्याणां कृष्णलेश्याया अन्तर्मुहुर्तावस्थायित्वात् , उत्कर्षतस्रयविंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहर्ताभ्यधिकानि, देवनारका हि पाश्वात्यभवगतचरमान्तर्मुहूर्तादारभ्यागेतनभवगतप्रथमान्तर्मुहू यावदवस्थितलेश्याकाः, अधःसप्तमपृथिवीनारकाश्च कृष्णलेश्याकाः पा श्रात्याप्रेतनभवगतचरमादिमान्तर्मुहू द्वे अप्येकमन्तर्मुहूर्त, तस्यासलातभेदात्मकत्वात् , तत उपपद्यन्ते कृष्णलेश्याकस्यान्तर्मुहूर्ताभ्य४धिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, नीललेश्याको जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त तच्च प्राग्वत् , उत्कर्षको दश सागरोपमाणि पल्योपमासयभा-18 लागाधिकानि, धूमप्रभाप्रथमप्रस्तदनारकाणां नीललेश्याकानामेतावस्थितिकत्वात्, पाश्चात्याप्रेतनभवगते च परमादिमान्तर्मुहूर्ने पस्यो-R दीप अनुक्रम [३९२] ~918~ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [६], ------------------- मूलं [२६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६६] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- पमासयेयभागान्त:प्रविष्टे न पृथग्विवक्षिते, कापोतलेश्याको जघन्येनान्तर्मुहूर्व प्राग्वत् , उत्कर्षतस्त्रीणि सागरोपमाणि पल्योपमा-Plean जीवाभिसयेयभागाभ्यधिकानि, वालुकाप्रथमप्रस्तटगतनारकाणां कापोतलेश्याकानामेतावरिस्थतिकत्वात् , तेजोलेश्याको जघन्येनान्तर्मुहूर्त मलयगि-६ तथैव उत्कर्षतो वे सागरोपमे पल्योपमासपेयभागाभ्यधिके, ते चेशानदेवानामवसातव्ये, पालेश्याको जघन्येनान्तर्मुहूर्त प्राग्वत् , भागवत सप्तविधत्वं रीयावृत्तिः उत्कर्षतो दश सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, तानि ब्रह्मलोकवासिनां देवानामबसातव्यानि, शुक्कुलेश्याको जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त प्राग्वत् , उत्कर्षतस्त्रयविंशत् सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, तानि चानुत्तरसुराणां प्रतिपत्तव्यानि, तेषां शुकुलेश्याकत्वात् ॥ अन्तरचिन्तायां कृष्णलेश्याकस्वान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तिर्यअनुष्याणामन्तर्मुहूर्तेन लेश्यापरावर्तनात् , उत्कर्पतत्रयविंशत्सागरोपमाण्यन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, शुष्ठलेश्योत्कृष्टकालस्य कृष्णलेश्यान्तरोत्कुष्टकालत्वात् , एवं नीललेश्याकापोचलेश्ययोरपि जघन्यत उत्कवंतश्चान्तरं वक्तव्यं, तेज:पद्मशुक्छानामन्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च प्रतीत एवेति, अलेश्यस्य साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् ।। अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः शुक्लालेश्याः, लान्तकादिदेवानां पर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिककतिपयपञ्चेन्द्रियतिर्यब्अनुष्याणां शुकलेश्यासम्भवात् , तेभ्यः पद्मलेश्याः सोयगुणाः, सनत्कुमारमाहेन्द्रग्रह्मलोककल्पवासिनां सर्वेषां प्रभूतपर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्वधनुष्याणां च पद्मलेश्याकत्वात् , अथ लान्तकादिदेवेभ्यः सनत्कुमारादिकल्पत्रयवासिनो देवा असङ्ख्यातगुणाः ततः शुक्कुलेश्येभ्यः पालेश्या असङ्ख्यातगुणाः प्राप्नुवन्ति, कथं सोयगुणा उक्ता:?, उच्यते, इह जघन्यपदेऽप्यसङ्ख्यातानां सनत्कुमारादिकल्पत्रयवासिभ्योऽसोयगुणानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चा शुकुलेश्या, ततः पद्मलेश्याकाः शुक्छलेश्याकेभ्यः सोयगुणाः, ते DI|४५८॥ जोलेश्याकाः तेभ्योऽपि साध्येयगुणाः, तेभ्योऽपि सङ्ख्येयगुणेषु तिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्येषु भवनपतिन्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवेषु च [३९२] Mom Janatayaire अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~919~ Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [६], ------------------- मूलं [२६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [3] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: FACANCS प्रत सूत्रांक [२६६] तेजोलेश्याभावात् , भावना सङ्ख्येयगुणखे प्राग्वत् , तेभ्योऽप्यनन्तगुणा अलेश्याः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽपि कापोत्तलेश्या अनन्तगुणाः, सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणानां वनस्पतिकायिकानां कापोतलेश्यावतां सद्भावात् , तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योFISपि कृष्णलेश्या विशेषाधिका:, क्लिष्टतराध्यवसायानां प्रभूततराणां सद्भावात् । उपसंहारमाह-'सेतं सत्तविहा सव्वजीया पन्नत्ता'। उक्ताः सप्तविधा: सर्व जीवाः, साम्प्रतमष्टविधानाह तत्थ जे ते एवमाहंसु अवविहा सबजीवा पण्णत्ता ते णं एवमाहंसु, तंजहा-आभिणियोहियनाणी सुय० ओहि मण. केवल मतिअन्नाणी सुयअण्णाणी विभंगअण्णाणी ॥ आभिणिबोहियणाणी णं भंते! आभिणिबोहियणाणीत्ति कालओ केबचिरं होति ?, गोयमा! जह• अंतो. उको छावहिसागरोवमाई सातिरेंगाई, एवं सुयणाणीवि । ओहिणाणी णं भंते !?, जह० एक समयं उको छावहिसागरोवमाई सातिरेगाई, मणपजवणाणी णं भंते !०१ जह० एक स० उक० देसूणा पुच्चकोडी, केवलणाणी णं भंते !०१ सादीए अपज्जवसिते, मतिअण्णाणी णं भंते!? महअपणाणी तिविहे पण्णत्ते तं० अणाइए वा अपज्जवसिए अणादीए वा सपज्जवसिए सातीए वा सपज्जवसिते, तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिते से जह० अंतो० उक्को० अणतं कालं जाव अपहुं पोग्गलपरियह देसूर्ण, सुथअण्णाणी एवं चेव, विभंगअण्णाणी णं भंते! विभंग जह एक समयं उ० तेत्तीसं सागरोवमाइंदेसूणाए पुब्वकोडीए अमहियाई । आभिणियोहियणाणिस्स दीप अनुक्रम [३९२] Jatic अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ६-सप्तविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ७-[अष्टविधा] आरब्धा: ~920~ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२६७ ] दीप अनुक्रम [३९३] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ४५९ ॥ उपांगसूत्र- ३ (मूलं+वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [सर्वजीव], प्रति प्रति०] [७], मूलं [ २६७ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. . आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः "जीवाजीवाभिगम" - र्ण भंते! अंतरं कालओ०१, जह० अंतो० उ० अणतं कालं जाव अब योग्गलपरियहं बेतूणं, एवं सुपणाणिस्सवि, भहिणाणिस्सवि, मणपञ्जवणाणिस्सवि, केवलणाणिस्स णं भंते! अंतरं०१, सादीयस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं । महअण्णाणिस्स णं भंते! अंतरं०१, अणादीयस्स अपज्जवसियस थि अंतरं, अणादीयस्स सपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं, सादीयस्स सपज्जबसिस्स जह० अंतो० उक्को० छावहिं सागरोवमाई सातिरेगा, एवं सुयअण्णाणिस्सवि, विभंगणाणिस्स णं भंते! अंतरं० १, जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो । एएसि णं भंते! आभिनिबोहियणाणीणं सुयणाणि० ओहि० मण० केवल० महअण्णाणि० सुयअण्णाणि विभंगणाणीण य कतरे०१, गोयमा । सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी ओहिणाणी असंखेजगुणा आभिणिवोहियणाणी सुयणाणी एए दोषि तुल्ला विसेसाहिया, विभंगणाणी असंखिज्जगुणा, केवाणी अनंतगुणा, महअण्णाणी सुयअण्णाणी य दोषि तुल्ला अनंतगुणा || (सू०२३७ ) 'तत्थे'त्यादि सत्र येते एवमुक्तवन्तोऽष्टविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्त एवमुक्तवन्तस्तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवविज्ञानिनो मनः पर्यवज्ञानिनः केवलज्ञानिनो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गवानिनश्च ॥ कायस्थितिचिन्तायामाभिनिवोधिकशानी जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः षट्षष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, एवं श्रुतज्ञान्यपि, अवधिज्ञानी जघन्यत एकं समयमुत्कर्षतः पटषष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, मनः पर्यवज्ञानी जघन्वत एकं समयमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, केवलज्ञानी सायपर्यवसितः, म ९ प्रतिपत्तौ | सर्वजीवाष्टविधस्थं ~ 921 ~ ज्ञाना ज्ञानैः उद्देशः २ सू० २६७ ॥ ४५९ ।। For P&Praise Cinly अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२६७ ] दीप अनुक्रम [३९३] “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [सर्वजीव], प्रति प्रति० [७], मूलं [ २६७ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: त्यज्ञानी त्रिविधस्तद्यथा - अनाद्यपर्यवसितः अनादिस पर्यवसितः सादिसपर्यवसितञ्च तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितः स जघन्येनान्त मुहूर्त्तमुत्क वेतोऽनन्तं कालं यावदपार्द्धं पुलपरावर्त्त देशोनं, एवं भुताशान्यपि विभङ्गशानी जघन्येनैकं समयं द्वितीयसमये मरणत: प्रतिपाते सम्यक्ललाभतो ज्ञानभावेन वा विभङ्गाभावात् उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि तानि च सुप्रतीतानि, अप्रतिपतितविभङ्गानां धन्वन्तरिप्रमुखाणां बहूनां सप्तमपृथिवीनरकगमनश्रवण्यात् ॥ अन्तरचिन्तायामाभिनियोधिकज्ञानिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदपा पुगलपरावर्त्त देशोनं, एवं श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मनः पर्यवज्ञानिनश्चान्तरं वक्तव्यं, केवलज्ञानिनः साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनःञ्चानाद्यपर्यवसितस्यानादिसपर्यवसितस्य च नास्त्यन्तरं सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः षट्षष्टिः सागरोपमाणि विभङ्गज्ञानिनो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं वनस्पतिकालः | अस्पबहुलचिन्तायां सर्वस्तोका मनः पर्यवज्ञानिनः, तेभ्योऽवधिज्ञानिनोऽसयगुणाः, तेभ्योऽप्याभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रवज्ञानिनथ विशेषाधिकाः, स्वस्थाने तु द्ववेऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽपि विभङ्गज्ञानिनोऽसयेयगुणाः, मिध्यादृशां प्राभूत्यात्, एतेभ्योऽपि केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् तेभ्योऽपि मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्च प्रत्येकमनन्तगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, भावना सर्वत्रापि प्राग्वत्, केवलं सूत्रपुस्तकेष्वतिसङ्क्षेप इति वितं ॥ अहवा अडविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, संजहा—णेरड्या तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिजीओ मणुस्सा मणुस्सीओ देवा देवीओ सिद्धा || जेरइए गं भंते! नेरहयति कालओ केवचिरं होति ?, गोयमा ? जहणं दस वाससहरसाई उ० तेलीसं साम्प्रोमाई, तिरिक्खजोपिए For P&False City ~922~ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति [७], ------------------- मूलं [२६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥४६ ॥ ९ प्रतिपत्ती सर्वजीवा| ष्टविधत्वं नारकतैर्य| ग्योनतैर्य [२६८] ग्योन्या. दीप अनुक्रम [३९४] 15-DACANCE भंते १०२, जह• अंतोमु०.उको० वणस्सतिकालो, तिरिक्खजोणिणी णं भंते १०१, जह• अंतो० उको तिनि पलिओवमाई पुख्वकोडिपुत्तमम्भहियाई, एवं मणूसे मणूसी, देखें जहा नेरहए, देवी गं भंते !0१, जह० दस बाससहस्साई उ० पणपत्रं पलिओवमाई, सिद्धे णं भंते! सिद्धेति०१, गोयमा! सादीए अपज्जवसिए। रइयस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होति. जह अंतो० को० वणस्सतिकालो, तिरिक्खजोणिपस्स गं भंते! अंतरं काल ओ०१. जह अंतो उको सागरोवमसतपुहत्तं सातिरेगं, तिरिक्खजोणिणी णे भंते! अंतरंकालओ केवचिरं होति ?, गोयमा जह अंतीमुहुत्तं उक० वणस्सतिकालो, एवं मणुस्सस्सवि मणुस्सीएवि, देवस्सवि देवीएवि, सिद्धस्स णं भंते! अंतरं सादीयस्स अपज्जवसियस्स णधि अंतरं । एतेसि णं भंते! णेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं मणूसाणं मणूसीणं देवाणं देवीणं सिद्धाण य कयरे०१, गोयमा सम्वत्थोवा मणुस्सीओ मणुस्सा असंखेनगुणा नेरहया असंखिजगुणा तिरिक्खजोणिणीओ असंखिजगुणाओ देवा संखिजगुणा देवीओ संखेजगुणाओ सिद्धा अर्णतगुणा तिरिक्खजोणिया अनंतगुणा । सेत्तं अढविहा सब्बजीवा पण्णत्ता ॥ (सू०२६८) ___ 'अहवेत्यादि, अथवा प्रकारान्तरेण अष्टविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-नैरयिकास्तियन्योनास्तिर्यम्योन्यो मनुष्या मनुष्यो देवा देव्यः सिद्धाः । तत्र नैरयिकादीनां देवीपर्यन्तानां कायस्थितिरन्तरं च संसारसमापनसप्तविधप्रतिपत्ताविव, सिद्धस्तु कायस्थितिचि | दिभेदैः उद्देशा२ सू०२६८ ॥४६॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~923~ Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२६८ ] दीप अनुक्रम [३९४] "जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र - ३ (मूलं+वृत्तिः) प्रति० प्रति०] [८], प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], मूलं [२६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः -न्तायां सायपर्यवसितः, अन्तरचिन्तायां नास्त्यन्तरं । अल्पबहुत्वं सर्वस्तोका मनुष्याः सङ्ख्येय कोटी कोटीप्रमाणत्वात्, ताभ्यो मानुध्योऽसोयगुणाः, श्रेण्यसोभागप्रमाणत्वात्, तेभ्यो नैरथिका असङ्खयेयगुणाः तेभ्यस्तिर्यग्योन्योऽसङ्ख्येयगुणाः, ताभ्यो देवाः सयेयगुणाः, तेभ्यो देव्यः सङ्ख्येयगुणाः, युक्तिः सर्वत्रापि संसारसमापन्न सप्तविधप्रतिपत्ताविव, देवीभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः । उपसंहार माह – 'सेत्तं अट्ठविहा सव्वजीवा पन्नत्ता' उक्ता अष्टविधाः सर्वजीवाः, सम्प्रति नवविधानाह तत्थ णं जे ते एवमाहंसु णवविधा सव्वजीवा पं० ते णं एवमाहंसु, तंजहा -- एगिंदिया बेंदिया तेंद्रिया चउरिंदिया णेरड्या पंचेंद्रियतिरिक्खजोणिया मणूसा देवा सिद्धा ॥ एगिदिए णं भंते! एगिंदियति कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जह० अंतोमु० उक्को० वणस्स०, बेंदिए भंते! जह० अंतो० उक्को० संखेज्जं कालं, एवं तेईदिएवि, चउ०, पणेरड्या णं भंते १० २ जह० दस वाससहस्साइं उक्को० तेतीसं सागरोवमाई, पंचदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जह० अंतो उक्को तिणि पलिओ माई पुव्वकोडिपुहुत्तमम्भहियाई, एवं मणूसेवि, देवा जहा रइया, सिद्धे णं भंते!० २१ सादीए अपज्जवसिए । एगिंदियस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होति ?, गोयमा ! जह० अंतो० उक्को० दो सागरोवमसहस्साईं संखेज्जवासम भहियाई, बेंदियस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होति ?, गोयमा ! जह० अंतो० उक्को० वणस्सति For P&Palise Cnly अत्र सर्वजीव प्रतिपत्तिः ७ [अष्टविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव प्रतिपत्तिः ८-[नवविधा] आरब्धा: ~924~ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रतिप्रति [८], ------------------- मूलं [२६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रतिपत्ती प्रत सूत्रांक [२६९] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः MARACT ॥४६१॥ उद्देशः २ 55 दीप अनुक्रम [३९५]] बास्तो, एवं विपस्सवि अपरिवियस्सवि चरसवि पवेदियतिरिक्सजोणिपासचिमणरसवि देवस्सवि सम्बेसिमेवं अंतरं बाणिपर्व, सिद्स्सणं मत अंतरं कालबो, सावविरस सर्वजीवअपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं ॥ एतेसिक भते! एनिदियाणं बेइंदि० तेइंवि० बरिदियार्ण नवविधत्वं परश्याण पंचेदियतिरिक्खजोणियाण मणूसाण देवाणं सिद्धाण य कयरे २१, मोयमा! सक इन्द्रियगस्थोचा मणुस्सा णेरइया असंखेनगुणा देषा असंखेनगुणा पंचेवियतिरिक्खजोणिया असंखेज 8| तिसिद्धैः मुणा चरिदिया पिसेसाहिया तेइंदिया विसेसाहिया दिया विसे सिद्धा अणंतगुणा एपि दिया अणंतगुणा ॥ (सू० २६९) सू० २६९ 'तत्थे'यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तो नवविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्त एवमुक्तवन्तस्तन्यथा-एकेन्द्रिया द्वीन्द्रियात्रीन्द्रियाश्रतुरिन्द्रिया नैरविकास्तिर्यग्योनिका मनुष्या देवाः सिद्धाः ॥ अमीषा कायस्थितिचिन्तायामेकेन्द्रियस्य जमन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो बनस्पतिकालः, द्वीन्द्रियस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्त्तमुत्कर्षतः सङ्घषेयं कालं, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिययोरपि वक्तव्यं, नैरयिकस्य जघन्यतो दश वर्षसहस्वाणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, तिर्यग्योनिकषञ्चेन्द्रियस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहर्समुत्कर्षतः पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि त्रीणि पल्योपमानि, एवं मनुष्यस्थापि, देवानां यथा नैरयिकाणां ॥ अन्तरचिन्तायामेकेन्द्रियस्य जघन्यमन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो वे सागरोपमसहस्रे सलोयवर्षाभ्यधिके, द्वित्रिचतुरिन्द्रियरयिकतियपञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवानां जघन्यतः प्रत्येकमन्तमुहूर्तमुत्कर्षतो पनसतिकालः ॥४६१ ॥ सिद्धस्य साधपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं । अल्पबहुखचिन्तायां सर्वस्तोका मनुष्या नैरयिका असायेवगुणा: देवा असहयगुणाः तिर्य अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~925~ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [८], ------------------- मूलं [२६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: GA प्रत सूत्रांक [२६९] पञ्चेन्द्रिया असलयेयगुणाः चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः सिद्धा अनन्तगुणा: एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः ॥ अहवा णवविधा सव्यजीवा पण्णत्ता, तंजहा-पढमसमयनेरइया अपढमसमयणेरइया पढमसमयतिरिक्खजोणिया अपढमसमयतिरिक्खजोणिया पढमसमयमणूसा अपढमसमयमणूसा पढमसमयदेवा अपढमसमयदेवा सिद्धा य॥ पढमसमयणेरड्या णं भंते!?, गोयमा! एकं समयं, अपढमसमयणेरइयस्स णं भंते !० २१, जहन्नेणं दस वाससहस्साई समऊणाई, उको तेत्तीसं सागरोबमाई समऊणाई, पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते!०१, एक समयं, अपहमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते ०१, जह० खुड्डागं भवग्गहणं समऊणं उफो० वणस्सतिकालो, पतमसमयमणूसे णं भंते 10, एक समयं, अपढमसमयमणूस्से णं भंते!०१,जह खुहागं भवग्गहणं समऊणं उक्को तिन्नि पलिओवमाई पुवकोडिपुहुत्तमभहियाई, देवे जहा णेरइए, सिद्धे णं भंते ! सिद्धेत्ति कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! सादीए अपज्जनसिते ॥ परमसमयणेरड्यस्स णं भंते। अंतरं कालओ०१, गोयमा ! जह. इस वाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भ-' हियाई कोसेणं वणस्सतिकालो, अपढमसमयणेरड्यस्स णं मंते। अंतरं०१, जह• अंतो उको वणस्सतिकालो, पढमसमयतिरिक्खजोणिपस्स णं भंते ! अंतरं कालतो०१, जहदो र दीप अनुक्रम [३९५]] ~926~ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [८], -------------------- मूलं [२७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७० श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिप्रत्ता सर्वजीवनवविधत्वं प्रथमाप्रथमसमयनारकादिभिः उद्देशः२ सू० २७० ॥४६२॥ हागाई भवग्गहणाई समऊणाई उको० वण०, अपढमसमयतिरिक्खजोणिपस्स णं भंते! अंतरं कालतो०१, जह खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं उ० सागरोवमसयपुहुतं सातिरेगे, पढमसमयमणूसस्स जहा पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स, अपढमसमयमणूसस्स र्ण भंते! अंतरं कालओ०१, ज० खुड्डागं भवग्गह समयाहियं उ० वण, पढमसमयदेवस्स जहा पढमसमयणेरतियस्स, अपतमसमयदेवस्स जहा अपलमसमयणेरहयस्स, सिद्धस्स णं भंते !०, सादीयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं ॥ एएसिणं भंते! पढमसमयनेरइयाणं पढमस० तिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं पढमस.देवाण य कपरे०२१, गोयमा! सब्यस्थोवा पढमसमयमणूसा पढमसमयणेरड्या असंखिजगुणा पढमसमयदेवा असं० पढमसतिरिक्खजो० असं०। एएसि गंभंते। अपढमस० नेरहयाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणि अपढमसमयमणूसाणं अपढमसमयदेवाण य कयरे०२१, गोयमा सव्वत्थोवा अपढमसमयमणूसा अपढमसम नेरइ० असं० अपत्मसमयदेवा अस० अपढमसमयतिरि० अणंतगुणा । एतेसि णं भंते ! पढमस नेरइयाणं अपढमसमक रइयाण य कयरे०२१, गोयमा! सब्बत्थोवा पढमसमयणेरड्या अपढमसमयणेरइया असंखेजगुणा, एतेसि णं भंते! पढमसमयतिरिजोक्ख० अपढमस तिरि जोणि कतरे०१, गोयमा! सब्ब० पढमसमयतिरि० अपढमसमयतिरि० जोणि अणंत०, मणुयदेवअप्पायहुयं जहा रह दीप अनुक्रम [३९६] 56456 ||४६२॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~927~ Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [८], --------- ------- मूलं [२७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७०] याणं । एतेसि णं भंते! पढमस० णेरह पढमसतिरिक्खाणं पढमस० मणूसाणं पढमसमयदेवाणं अपढमसमयनेरइ० अपढमसमयतिरिक्खजोणि अपढमसमयमणूसा० अपतमसमयदे. वाणं सिद्धाण य कयरे०२१, गोयमा! सब्ब० पढमस० मणूसा अपढमसम० मणु० असं० पढमसमयनेरइ० असं० पढमसमयदेवा असंखे० पदमसमयतिरिक्खजो० असं० अपढमसमयनेर० असं० अपढमस देवा असंखे० सिद्धा अणं. अपढमस तिरि० अर्णतगुणा । सेसं नवविहा सब्बजीवा पण्णत्ता॥ (सू०२७०) 'अहवे'त्यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण नवविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-प्रथमसमयनैरयिका अप्रथमसमयनैरयिका: प्रथमसमयतिर्यग्योनिका अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकाः प्रथमसमयमनुष्या अप्रथमसमयमनुष्याः प्रथमसमयदेषा अप्रथमसमयदेवाः सिद्धाः ।। कायस्थितिचिन्तायां प्रथमसमयनैरयिकस्य कायस्थितिरेक समय, अप्रथमसमयनैरविकस्य जपम्यतो दश वर्षसहस्राणि समयोनानि | उत्कर्षतस्रयविंशत्सागरोपमाणि समयोनानि, प्रथमसमयतिर्यग्योनिकस्यैकं समय, अप्रथमसमयतिर्यम्योनिकस्य जघन्यतः क्षुलकभवमहणं समयोनमुत्कर्षतो बनस्पतिकालः, प्रथमसमयमनुष्यस्सैकं समयं, अप्रथमसमयस्य जघन्यत: क्षुल्लकभवग्रहणं समयोनगुत्कर्षतः पूर्वकोटियक्त्वाभ्यधिकागि प्रीणि पल्योपमानि, वा यथा नैरयिकाः, सिद्धाः साद्यपर्यवसिताः । अन्तरचिन्तायां प्रथमसमयनैरसायिकस्य जपन्थमन्तरं दशवर्षसहस्राणि अन्तर्मुर्तीभ्यधिकानि, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, प्रथमसमयनैरपिकस्य जपन्यतोऽन्तर मन्तर्मुहुर्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, प्रथमसमयविर्षग्योनिकस्स जघन्यतो द्वे क्षुझकभवग्रहणे समयोने उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, अप्र दीप अनुक्रम [३९६] जी०७८ ~928~ Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२७०] दीप अनुक्रम [३९६] प्रति० प्रति०] [८], मूलं [ २७०] प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ४६३ ॥ “जीवाजीवाभिगम” - उपांगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) Ja Ecoma in श्रमसमयतिर्यग्योनिकस्य जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं समयाधिकं उत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकं प्रथमसमयमनुष्यस्य जधन्यतो द्वे क्षुद्धकभवमहणे समचोने उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, अप्रथमसमयमनुष्यस्य जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं समयाधिकमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः प्रथमसमयदेवस्य जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, अप्रथमसमयदेवस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः सिद्धस्य साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं ॥ सम्प्रयत्पबहुत्वचिन्ता, तत्रास्पबहुलान्यन्त्र च वारि, तद्यथा - प्रथमं प्रथमसमयनैरयिकादीनां द्वितीयमप्रथमसमयनैरविकादीनां तृतीयं प्रथमाप्रथमसमयनैरयिकादीनां प्रत्येकं चतुर्थी सर्व समुदायेन तत्र प्रथममिदम्- सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः, तेभ्यः प्रथमसमयनैरविका असोयगुणाः, तेभ्यः प्रथमस2 मयदेवा असल्यगुणाः, तेभ्यः प्रथमसमयतिर्यग्योनिका असलेयगुणाः, नारकादिशेषगसित्रयादागतानामेव प्रथमसमये वर्त्तमानानां प्रथमसमयतिर्यग्योनिकत्वात् । द्वितीयमेवम्- सर्वस्वोका अप्रथमसमयमनुष्याः, तेभ्योऽप्रथमसमयनैरविका असश्यगुणाः, वेभ्योऽप्रथमसमयदेवा असयेयगुणाः, तेभ्योऽप्रथम समयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तत्वात् । तृतीयमेवम् सर्वस्तोकाः ] प्रथमसमयनैरथिका अप्रथमसमयनैरविका असोयगुणाः, तथा प्रथमसमयतिर्यग्योनिकाः सर्वस्तोकाः अप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, तथा सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः अप्रथमसमयमनुष्या असङ्ख्यगुणाः, तथा सर्वस्तोकाः प्रथमसमयदेवाः अप्रथमसम| यदेवा असह्येयगुणाः । सर्वसमुदायगतं चतुर्थमेवम् सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः अप्रथमसमय मनुष्या असङ्ख्येवगुणाः, तेभ्यः प्रथमसमयनैरविका असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि प्रथमसमयदेवा असलेयगुणाः, तेभ्योऽपि प्रथमसमयतिर्यञ्चोऽसयगुणाः, तेभ्योऽपि अप्रथमसमयनैरयिका असङ्ख्यगुणाः, तेभ्योऽन्यप्रथमसमयदेवा अयगुणाः तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः तेभ्योऽप्रथमसमय For P&False City ९ प्रतिपत्तौ सर्वजीवनवविध ~929~ ता प्रथमाप्रथमसम यनारका दिसिद्धेः उद्देशः २ सू० २७० ॥ ४६३ ॥ अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------- प्रति प्रति० [९], ------------------ मूलं [२७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७१] SECSC दीप अनुक्रम [३९७] | तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः । उपसंहारमाह-'सेत्तं नवविहा सधजीवा पण्णत्ता' । उक्ता नवविधाः सर्वजीवाः, सम्प्रति दशविधानाह तत्थ णं जे ते एवमाहंसु दसविधा सम्बजीवा पपणत्ता ते णं एवमाहंस, तंजहा-पदविकाहया आउकाइया तेजकाइया वाउकाइया वणस्सतिकाइया बिंदिया तिदिया चरिं० पं. अणिंदिया ॥ पुढधिकाइए णं भंते ! पुढविकाइएत्ति कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! जह• अंतो. को असंखेज कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ असंखेना लोया, एवं आउतेउवाउकाइए, वणस्सतिकाइए णं भंते !०२१, गोयमा! जह• अंतो० उक्को वणस्सलिकालो, दिए भंते!?, जह. अंतो उको संखेजं कालं, एवं तेईदिएवि चउरिदिएवि, पंचिंदिए णं भंते !?, गोयमा! जह० अंतो० उक्को सागरोवमसहस्सं सातिरेग, अणिदिए णं भंते !०१, सादीए अपज्जवसिए ॥ पुढविकाइयस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होति?, गोयमा जह• अंतोषको वणस्सतिकालो, एवं आउकाइयस्स तेउ० वाउ०, वणस्सइकाइयस्स णं भंते ! अंतरं कालओ०१, जा चेव पुढविकाइयस्स संचिट्ठणा, वियतियचउरिंदियपंचेंदियाणं एतेर्सि चजण्हंपि अंतरं जह• अंतो० उक्को० वणस्सइकालो, अणिविपस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! सादीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं ॥ ए. अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: नवविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ९-[दशविधा] आरब्धा: ~ 930~ Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ----------------- प्रति प्रति० [९], ------------- मूलं [२७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७१] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ९प्रतिपत्ती सर्वजीवदशवि० पृथ्व्यादिभिः प्रथमाप्रथमसमयना ॥४६४॥ तेसि णं भंते! पुढविकाइयाणं आउ० तेउ० वाउ० वण दियाणं तेइंदियाणं चउरि० पंचेंदियाणं अणिदियाण य कतरे २०१, गोयमा! सव्वत्थोवा पंचेंदिया चतुरिंदिया विसेसाहिया तेइंदि०विसे० दि० विसे० तेउकाइया असंखिजगुणा पुढविकाइया वि० आज० वि० वाउ. वि० अणिंदिया अणंतगुणा वणस्सतिकाइया अणंतगुणा ॥ (सू०२७१) 'तत्थे'यादि, तन ये ते एवमुक्तवन्तो दशविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्त एवमुक्तवन्तस्तद्यथा-पृथिवीकायिका: अकायिका: तेजस्का- यिकावायुकायिकाः वनस्पतिकायिकाः द्वीन्द्रियाः त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः अनिन्द्रियाः, सत्र पृथिवीकायिकस्य काय- स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसङ्ख्येयं कालं, असोया उत्सर्पिण्यक्सपिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽसलोया लोकाः, एवमप्तेजोवायूनामपि वक्तव्यं, वनस्पतिकायिकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उत्सपिण्यवसर्पिण्य: कालत: क्षेत्रतोऽनन्ता लोका असोयाः पुद्गलपरावर्ता आबलिकाया असलेयो भागः, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां जघन्यत: प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत: प्रत्येक स- क्वेयः कालः, पञ्चेन्द्रियस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत: सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेक, अनिन्द्रियः साद्यपर्यवसितः ॥ अन्तरचिन्तायां पृथिवीकायिकस्स जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, एवं यावत्पचेन्द्रियस्य, नवरं बनस्पतिकायिकस्योत्कर्षतोऽसङ्खोयं कालं, असोया उत्सपिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽसोया लोकाः, अनिन्द्रियस्य नास्त्यन्तरं, साद्यपर्ववसितत्वात् ॥ अल्पबहुवचिन्तायां सर्वलोकाः पञ्चेन्द्रियाश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः श्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः दीन्द्रिया विशेषाधिकाः तेजस्कायिका दीप अनुक्रम [३९७]] उद्देशः२ सू०२७१ ४ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~931~ Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ---------------- प्रति प्रति [९], ----------------- मूलं [२७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७१] असोयगुणाः पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः अकायिका विशेषाधिकाः वायुकायिका विशेषाधिकाः अनिन्दिा अबन्दगुणाः वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः ।। अहवा वसविहा सव्वजीचा पण्णता, तंजहा-पढमसमयणेरड्या अपरमसमयनेरहया पढमसमयतिरिक्खजोणिया अपढमसमयतिरिक्खजोणिया पढमसमयमणूसा अपढयसमपमणूसा पढमसमयदेवा अपढमसमयदेवा पढमसमयसिद्धा अपढमसमयसिमा । पहमसमयबेरहया गं भंते। पत्मसमयणेरहपत्ति कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! एकं समर्ष, अपरमसमयनेरइए णं भंते १०१ जहन्नेणं दस वाससहस्साई समऊणाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोचमाई समऊणाई, पढमसमयतिरिक्खजोणिया गं भंते!० २१, गोयमा! एकं समर्थ, अपदमसमयतिरिक्व.जह खुड्डागं भवग्गहणं समऊणं उको० वणस्सहकालो, पढमसमयमणूसे पं भंते १०२, एक समयं, अपढमस०मणूसे णं भंते!०१, जह खुडागं भवग्गहर्ण समकणं उकोतिपिण पतिओवमाई पुब्बकोडिपुत्समभहियाई, देवे जहा णेरइए, पढमसमपसिद्धे णं भंते !०२१, एक समयं, अपतमसमयसिद्धे ण भंते ०२१, सादीए अपज्जवसिए। पढमसमपणेर भंते! अंतर कालओ.?, ज. दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई उको० वण, अपढमसमपणेर० अंतरं कालओ केव०१, जह० अंतो० उ० वण०, पढमसमयतिरिक्खजोणियस्त अंत्वरं केवचिरं होह ?, गो दीप अनुक्रम [३९७]] VAROSAGARMACOCARK ~932~ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [३९८] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि• रीयावृत्तिः ॥ ४६५ ॥ उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], प्रति० प्रति० [९], मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१४], उपांग सूत्र [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: "जीवाजीवाभिगम" - यमा! जह० दो खुड्डागभवग्गहणाई समऊणाई उक्कों० वण०, अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते ०१, जह० खुड्डागभवग्गहणं समग्राहियं उक्को० सागरोवमसयहुतं सातिरेगं, पढमसमयमणूसस्स णं. भंते । अंतरं कालओ०१, जह० दो खुड्डागभवग्गहणाई समऊणाई उक्को० वण०, अपढमसमयमणूसस्स णं भंते! अंतरं० ?, जह० खुड्डागं भव० समग्राहियं उक्को० वणस्स०, देवरस णं अंतरं जहा णेरइयस्स, पढमसमयसिद्धस्स णं भंते! अंतरं?, णत्थि, अपढमसमयसिद्धस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होति ?, गोयमा ! सादीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं ॥ एतेसि णं भंते! पढमस० णेर० पदमस० तिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं पढमसमयदेवाणं पढमसमयसिद्धाण य कतरे २०१, गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयसिद्धा पढमसमयमणूसा असंखे० पढमस० णेरड्या असंखेज्जगुणा पढमस० देवा असं० पढमस० तिरि० असं० । एतेसि णं भंते! अपढमसमयनेरइयाणं जाव अपढमसमयसिद्धाण य कपरे ०१, गोयमा! सव्वत्थोवा अपढमस० मणूसा अपढमसः नेरइया असंखि० अपढमस० देवा असंखि अपमस० सिद्धा अनंतगुणा अपढमस० तिरि० जो० अनंतगुणा । एतेसि णं भंते! पढमस० रइयाणं अपढमस० णेरइयाण य कतरे २१, गोयमा। सव्वत्थोवा पढमस० रइया अपढमस॰ नेरइया असंखे०, एतेसि णं भंते! पढमस० तिरिक्खजोणियाणं अपदमस० तिरिक्खजोणि For P&Praise City १९ प्रतिपत्तौ सर्वजीवदशवि० प्रथमाप्रथमसमय नारकादिभिः उद्देशः २ सू० २७२ ~933~ ॥ ४६५ ॥ jay अत्र मूल- संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [९], -------------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [9] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत क सूत्रांक [२७२] याण य कतरे २१ गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमयतिरिक्खजो अपढमसतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा, एतेसि णं भंते! पढमस० मणूसाणं अपढमसमयमणूसाण य कतरे २१, गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसम० मणूसा अपढमस० मणूसा असंखे०, जहा मणूसा तहा देवावि, एतेसि णं भंते। पढमसमयसिद्धाणं अपढमसमयसिद्धाण य कयरे २ अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमयसिद्धा अपढमसम सिद्धा अणंतगुणा। एतेसि णं भंते ! पढमसमयणेरइयाणं अपढमसमयणेरइयाणं पढमस तिरि० जोणि अपढमस० तिरि० जो० प० समयमणू. अपढमस०म० पढ० स० देवाणं अप० सम० देवाणं पढमस० सिद्धाणं अपढमसम० सिद्धाण य कतरे २ अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसे०१, गोयमा! सव्वत्थोवा पढमस० सिद्धा पढमस० मणू० असं० अप० सम० मणू० असंखि० पढमसम० णेरइ० असं० पढमस० देवा असं० पढमस तिरि० असं० अपतमसणेर० असंखे० अपडमस० देवा असं० अपढमस० सिद्धा अर्णत० अपढमस० तिरि० अर्णतगुणा । सेत्तं दसविहा सब्बजीवा पण्णत्ता । सेत्तं सव्वजीवाभिगमे ॥ (सू०२७२) ॥ इति जीवाजीवाभिगमसुतं सम्मत्तं ॥ सूत्रे ग्रन्थाग्रम् ४७५० ॥ 'अहवे'त्यादि, 'अथया' प्रकारान्तरेण दशविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-प्रथमसमयनैरयिकाः अप्रथमसमयनैरविकाः प्रथम AAAA ष्टकर दीप अनुक्रम [३९८] ~934~ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [९], ------------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [३९८] श्रीजीवा- समयतिर्यग्योनिकाः अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकाः प्रथमसमयमनुष्याः अप्रथमसमयमनुष्याः प्रथमसमयदेवा: अप्रथमसमयदेवाः प्रथम-12 प्रतिपत्ती जीवाभि समयसिद्धाः अप्रथमसमयसिद्धाः ॥ कायस्थितिरन्तरं च प्रथमसमयनारकादीनामप्रथमसमयदेवपर्यन्तानां पूर्ववत्, प्रथमसमयसिद्धस्य सर्वजीव मलयगि- & कायस्थितिरेक समय, अप्रथमसमयसिद्धः साद्यपर्यवसितः, प्रथमसमयसिद्धस्य नास्त्यन्तरं, भूयः प्रथमसमथसिद्धत्वाभावात् , अप्रथ- दशवि० रीयावृत्तिःमसमयसिद्धस्यापि नास्त्यन्तरमपर्यबसितत्वात् ॥ अल्पबहुलान्यत्रापि चत्वारि, तत्र प्रथममिदं-सर्वस्तोकाः प्रथमसमयसिद्धाः, अष्टो- उपसंहा त्तरशतादूर्द्धमभावात् , तेभ्यः प्रथमसमयमनुष्या असङ्खयेयगुणाः तेभ्यः प्रथमसमयनैरयिका असल्येयगुणाः तेभ्यः प्रथमसमयदेवा रश्च ॥४६६॥ असङ्ख्येयगुणाः तेभ्यः प्रथमसमयतिर्ययोऽसोयगुणाः । द्वितीयमिदं सर्वस्तोका अप्रथमसमयमनुष्या अप्रथमसमयनैरविका अस- उद्देशा२ व्यगुणाः अप्रथमसमयदेवा असोयगुणा: अप्रथमसमयसिद्धा अनन्तगुणा: अप्रथमसमयतिर्यचोऽनन्तगुणाः । तृतीयं प्रत्येकभा- सू०२७२ विनैरयिकतिपंडानुष्यदेवानां पूर्ववत्, सिद्धानामेव सर्वस्त्रोकाः प्रथमसमयसिद्धा अप्रथमसमयसिद्धा अनन्तगुणाः । समुदायगत चतुर्थमेवं-सर्वस्तोकाः प्रथमसमयसिद्धा: तेभ्यः प्रथमसमयमनुष्या असोयगुणाः वेभ्योऽप्रथमसमयमनुष्या असोयगुणा: तेभ्यः प्रथमसमयनैरविका असोयगुणाः वेभ्यः प्रथमसमयदेवा असोयगुणा: वेभ्यः प्रथमसमयतिर्ययोऽसोयगुणाः तेभ्योऽप्रथमस-10 दमयनरयिका असङ्ख्यगुणाः तेभ्योऽप्रथमसमयदेवा असोयगुणाः तेभ्योऽप्रथमसमयसिमा अनन्तगुणाः तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यचो ऽनन्तगुणाः, भावना सर्वत्रापि प्राग्वन , नवरं सूजे संक्षेप इति विवृतम् । निगमनमाइ-सेवं दखविन सबजीया पन्नत्ता, महानिगमनमाह-सोऽयं सर्वजीवाभिगम इति । विवृतयुदेसकोऽध्ययनशासमर्हद्वचनचित्येतदविगम्भीराई, अविषयोऽस्य सारः स्थू-12॥१६॥ द्रलबुद्धीना, न खलु पश्यवि सूक्ष्मान रूपविशेषयन बन्दकोचर, स्थूळदर्शचसपि हिवाय मध्वाचन, देवाययोगबोप्राय वफलयो अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र "उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~935~ Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) “जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [९], ------------------- मूलं [२७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] जगात् , पक्षपातोऽप्यन्त्र कल्याणहेतुः, राजयक्ष्माऽहङ्कारा दिदुःखसमुदयस्य, विपर्यस्तदर्शनं खनायेति त्याज्य एतदनुगुणो व्यवहारः, कार्या सदैव सन्मार्गप्रतिपत्तये मार्गानुसारिबोधबहुश्रुतजनैः सङ्गतिः, तद्योगतः सकलापायविरहिणां चिरमभिमतफलसिद्धेः ।। जयति परिस्फुटविमल-ज्ञानविभासितसमस्तवस्तुगणः । प्रतिहतपरतीथिमतः श्रीवीरजिनेश्वरो भगवान् ॥१॥ सरस्वती समोवृन्द, शरज्योत्सव निन्नती । नित्यं वो मङ्गलं दिश्यान्मुनिभिः पर्युपासिता ॥२॥ जीबाजीवाभिगम विवृण्वताऽवापि मलयगिरिणेह । कुशलं तेन लभन्तां मुनयः सिद्धान्तसदोधम् ॥ ३॥ ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचिता श्रीजीवाजीवाभिगमवृत्तिः समाप्ता ।। पन्थानम् १४००० ॥ mmmmmmmmmmmmmmmmmmm ॥ इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितविवरणयुतं श्रीमज्जीवा जीवाभिगमाख्यमुपाझं समाप्तिं गतम् ॥ दीप अनुक्रम [३९८] 545 इति श्रेष्ठि देवचन्द लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे अन्धाङ्क:५०। ~936~ Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः 14 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “जीवाजीवाभिगम (उपांग)सूत्र” [मूलं एवं मलयगिरि-प्रणित वृत्तिः] / (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~ 937~