________________
आगम
(१४)
“जीवाजीवाभिगम" - उपांगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---- ------------- उद्देशक: [(नैरयिक)-२], ------- ------ मूलं [९२-९४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१४], उपांग सूत्र - [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[९२-९४]
श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्ति
-4--00-
0
गाथा:
॥१२७॥
दीप अनुक्रम
सन्यतेसु (सू०९२) इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० तीसाए नरयावाससयसहस्सु इकमिकसि
प्रतिपत्तो निरयावासंसि सब्वे पाणा सवे भूया सत्वे जीवा सब्वे सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाय वणस्सइका- नरकाधि० इयत्ताए नेरइयत्ताए उवचनपुवा?, हंता गोयमा! असतिं अदुवा अर्णतखुत्तो, एवं जाव अहेस. | उद्देशः २ समाए पुढवीए णवरं जत्थ जसिया णरका। [इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पु० निरयपरिसामंतेसु | सू० ९२जे पुढविकाइया जाच वणप्फतिकाइया ते णं भंते ! जीवा महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महाआसपसरा चेव महावेषणतरा चेव ?, हंता गोयमा! इमीसे णं भिंते !] रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतसुतं चेष जाच महाबेदणतरका चेव, एवं जाय अधेसत्तमा] (सू०१३)। पुढवीं
ओगाहित्ता, नरगा संठाणमेव वाहल्लं । विक्वंभपरिक्वेवे वपणो गंधो य फासो य ॥१॥ तेसिं महालयाए उबमा देवेण होइ कायब्वा । जीवा य पोग्गला वकर्मति तह सासया निरया ॥२॥ उववायपरीमाणं अवहारञ्चत्तमेव संघयणं । संठागवण्णगंधा फासा ऊसासमाहारे ॥३॥ लेसा दिही नाणे जोगुवओगे तहा समुग्घाया। तत्तो खुहापिवासा विउवणा वेयणा य भए ॥ ४ ॥ उववाओ पुरिसाणं ओवम्मं वेयणाएँ दुविहाए । उव्वणपुढवी उ, उववाओ सव्वजीवाणं ॥५॥ एयाओ संगहणिगाहाओ ॥ (मू०९४)। बीओ उद्देसओ समत्तो॥
॥ १२७॥ 'रयणप्पभेत्यादि, रत्नप्रभापूथिवीनरविका भदन्त ! कीदृशं पृथिवीस्पर्श प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ?, भगवानाह-गौतम! 'अणि IN
[१०८
~ 257~