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अष्टविध गणिसंपदा
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श्रुतसंपदा चार प्रकार की निरूपित हुई हैं - (अ) बहुश्रुत - अनेक शास्त्रों का ज्ञाता होना। (ब) परिचित श्रुत - सूत्रगत रहस्य - आशय का भलीभाँति ज्ञान होना।
(स) विचित्र श्रुत - अपने दर्शन के सिद्धान्तों तथा अन्य दर्शन के सिद्धान्तों का अभिज्ञान होना।
(द) घोषविशुद्धिकारकता - उच्चारण विशुद्धि का भलीभाँति ज्ञान होना। ये चार श्रुतसंपदाएँ हैं। ३. शरीरसंपदा कितने प्रकार की बतलाई गई हैं? यह चार प्रकार की परिज्ञापित हुई है - (अ) समुचित अनुपात युक्त लम्बाई-चौड़ाई युक्त देह का होना। (ब) अंग विकलता का अभाव (सांगोपांग होना)। (स) स्थिर संहनन - दैहिक संहननात्मक सुदृढ़ता (द) बहुप्रतिपूर्णेन्द्रियता - इन्द्रियों की सर्वथा परिपूर्णता। यह चतुर्विध देह संपदा का स्वरूप है। ४. वचनसंपदा कितने प्रकार की प्ररूपित हुई है? यह चार प्रकार की परिज्ञापित हुई है - (अ) आदेयवचनता - श्रद्धातिशय युक्त होने से ग्रहण करने योग्य वचन। (ब) मधुरवचनता - वाणी में मधुरता। (स) अनिश्रितवचनता - किसी पर भी अनाश्रित अनाधारित, पक्षपात शून्यवचन युक्तता (द) असंदिग्धवचनता - संदेह रहित वचनशीलता, चतुर्विध वचनसंपदा का यह स्वरूप है। ५. वाचनासंपदा के कितने प्रकार बतलाए गए हैं ? इसके चार प्रकार कहे गए हैं -
(अ) शिष्य की ग्रहण विषयक योग्यता (क्षमता) को समझ कर तदनुरूप सूत्र विशेष की वाचना देना।
(ब) शिष्य की धारणाशक्ति के अनुसार युक्ति तर्क-हेतु-दृष्टांत पूर्वक वाचना देना।
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