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... मशकादिनिरोधिनी आवरणवस्त्रिका का विधान
. जिस प्रकार ब्रह्मचर्य भावना की सुदृढता हेतु साध्वियों के लिए अविच्छिन्न प्रलम्ब, मूल से बीज पर्यन्त दस भेदों वाली वनस्पतियाँ ग्रहण करने का निषेध है उसी प्रकार विपरीत लिंगाकृति सूचक (मुख युक्त) लघु घटक साधुओं के लिए निषिद्ध है।
काम विकार का जब उद्दाम उभार हो जाए तो वह कुत्सित कल्पना, विचारणा तो उत्पन्न कर ही सकता है।
मशकादिनिरोधिनी आवरणवस्त्रिका का विधान कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा चलचिलिमिलियं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥१८॥
भावार्थ - १८. साधु-साध्वियों को वस्त्रमयी चिलमिलिका (मच्छरदानी) धारण करनारखना और उसका उपयोग करना कल्पता है।
विवेचन - विभिन्न स्थानों की भिन्न-भिन्न जलवायु के कारण प्रावृट् आदि में मच्छर, डांस इत्यादि छोटे जन्तु बढ़ जाते हैं। वे रात्रि में शयनकाल में बहुत ही कष्टप्रद होते हैं। उनसे बचने के लिए महीन छिद्रों से युक्त आवरण वस्त्रिका, जिसे आज की भाषा में . मच्छरदानी कहा जाता है, का प्रयोग करना विहित है।
ये ऐसे परीषह हैं, जिसे सब कोई सहन नहीं कर पाते। भाष्य आदि में मशक आदि अवरोधिनी वस्त्रिका के अनेक रूप बताए गए हैं। मुख्यतः उनके पाँच प्रकार हैं - .
१. सूत्रमयी - कपास आदि के धागों से निर्मित। २. रजुमयी - ऊन या मोटे धागों से बनी हुई। ३. वल्कलमयी - सन, पटसन आदि की छाल से निर्मित। ४. दण्डकमयी - बांस-बेंत आदि से बनी हुई। ५. कटमयी - चटाई आदि से निर्मित।।
इनमें से वस्त्रनिर्मित (प्रथम) आवरणिका ही ग्राह्य मानी जाती है क्योंकि साधु-साध्वियों को अपना सारा सामान स्वयं लेकर चलना होता है। यह हल्की होने से सुविधा युक्त होती. है। आवरणिका (चिलमिलिका) का प्रमाण चौड़ाई तथा ऊँचाई में तीन-तीन हाथ एवं लम्बाई पाँच हाथ बतलाई गई है। यह एक साधु या साध्वी के लिए पर्याप्त होती है।
इस संबंध में यह ज्ञातव्य है - निशीथ सूत्र में भी यह प्रसंग (उद्देशक-१) आया है,
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