________________
व्यवहार सूत्र - तृतीय उद्देशक
९०. आचार्य और उपाध्याय, आचार्य तथा उपाध्याय पद से पृथक् हुए बिना यदि संयम का उल्लंघन करें तो उस कारण उन्हें जीवनभर के लिए आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना, धारण करना नहीं कल्पता ।
६०
****
९१. आचार्य तथा उपाध्याय, आचार्य और उपाध्याय पद से पृथक् होकर यदि संयम से हट जाए तो उस कारण उन्हें तीन वर्ष तक आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना, धारण करना नहीं कल्पता ।
तीन वर्ष व्यतीत होने के अनन्तर चौथे वर्ष में प्रविष्ट हो जाने पर यदि वे संयम में स्थित, उपशान्त, असंयम से उपरत, प्रतिविरत एवं विकार रहित हो जाएं तो उन्हें आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना, धारण करना कल्पता है ।
विवेचन - पिछले सूत्रों में अब्रह्मचर्य - सेवी साधु, आचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक के प्रायश्चित्त पूर्वक पुनः पद प्राप्त करने अथवा आजीवन पद के लिए अयोग्य माने जाने के संबंध में चर्चा आई है।
उपर्युक्त (इन) सूत्रों में संयम त्याग कर जाने वाले अथवा संमयी वेश में रहते हुए संयम का उल्लंघन करने वाले भिक्षु तथा आचार्य आदि के संबंध में पुनः पद प्राप्ति योग्य होने अथवा यावज्जीवन पद के लिए अयोग्य माने जाने के विषय में वर्णन हुआ है।
साधु के बने (वेश) में रहते हुए अथवा आचार्य आदि पद पर रहते हुए (अब्रह्म) का सेवन करना बहुत बड़ा दोष, पाप माना गया है। वैसा करने वाला साधु के पवित्र वेश को कलंकित करता है । साधु वेश के प्रति अश्रद्धा पैदा करता है, वैसा व्यक्ति जीवन भर के लिए पद योग्य नहीं होता । किन्तु जो साधुत्व से पृथक् होकर, साधु वेश त्याग कर असंयम का सेवन करे तो वह अपराधी या दोषी तो है, किन्तु साधु के वेश में रहकर साधुत्व का उल्लंघन करने वाले जितना दोषी नहीं है। इसलिए अपेक्षित प्रायश्चित्त पूर्वक, दोष रहित - विकार शून्य होने के अनन्तर तीन वर्ष के बाद उसे पद योग्य माना गया है।
पापसेवी बहुश्रुतों के लिए पद नियुक्ति का निषेध
भिक्खू य बहुस्सुए बब्भागमे बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेर्स माई मुसावाई असुई पावजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं णो कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा ॥ ९२ ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org