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राज-परिवर्तन की दशा में अनुज्ञा-विषयक विधान kakakakakakakakakkartattatrikakakakixxxkkkkxxxx
विवेचन - जैन साधु को अनगार कहा जाता है। "नास्ति अगार - गृहं यस्य, स अनगारः" अगार शब्द का अर्थ घर है। जिसके कोई अपना घर या आवास स्थान न हो, उसे अनगार कहा जाता है। साधु सर्वस्व-त्यागी होते हैं। वे अपरिग्रह महाव्रत के धारक होते हैं। किसी भी जमीन, जायदाद, मकान आदि पर उनका कोई स्वामित्व नहीं होता। वे जहाँ भी ठहरते हैं, गृहस्वामी या मकान मालिक की अनुज्ञा या स्वीकृति लेकर ही ठहरते हैं। __इन सूत्रों में साधु-साध्वियों द्वारा ठहरने के स्थान की आज्ञा लेने के संबंध में निरूपण है। गृहस्वामी या मकान मालिक अथवा उसका पिता या भाई अथवा पुत्र - ये साधु-साध्वियों को ठहरने के स्थान की आज्ञा देने के अधिकारी हैं। ____ यहाँ इतना और ज्ञातव्य है कि अविवाहिता पुत्री भी आज्ञा देने की अधिकारिणी है, किन्तु विवाहित हो जाने के पश्चात् उसका घर ससुराल हो जाता है। अतः पिता के घर में साधु-साध्वियों को ठहरने की आज्ञा देने का उसका अधिकार नहीं रहता। किन्तु वह विवाहिता पुत्री जिसके पति का देहावसान हो गया हो तथा जो पिता के घर में रहती हो, वह (विधवा) पुत्री भी अनुज्ञा दे सकती हैं। यहाँ इतना और जानना चाहिए कि कोई विवाहिता पुत्री किसी अपरिहार्य कारण से निरन्तर पिता के ही घर में रहती हो वह भी अनुज्ञा देने की अधिकारिणी है।
साधु या साध्वी विहार कर रहे हों, मार्ग में कहीं ठहरने की आवश्यकता हो जाए, मकान का कोई खुला परिसर आदि हो, छायादार वृक्ष के नीचे का स्थान हो तो आस-पासके लोगों से और वहाँ कोई भी न हो तो उधर से निकलने वाले राहगीरों से आज्ञा लेनी चाहिए। राहगीर भी न हो, अर्थात् आज्ञा देने वाला कोई भी न हो तो "शक्रेन्द्र भी आज्ञा है", यों उच्चारित कर साधु-साध्वी वहाँ ठहर सकते हैं, किन्तु आज्ञा लिए बिना कहीं भी ठहरना अविहित है। यदि कहीं आज्ञा लेना भूल जाएं तो उसके लिए आलोचना - प्रतिक्रमण करना चाहिए।
___ आज्ञा लेने के संबंध में यहाँ जो इतना सूक्ष्म रूप में प्रतिपादन हुआ है, उसका आशय यह है कि साधु-साध्वियों के मन में क्षण-क्षण अपरिग्रह का प्रोज्वलभाव उदित रहे।
राज-परिवर्तन की दशा में अनुज्ञा-विषयक विधान से रज्जपरियट्टेसु संथडेसु अव्वोगडेसु अव्वोच्छिण्णेसु अपरपरिग्गहिएसु सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिटुइ अहालंदमवि ओग्गहे॥२०१॥
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