Book Title: Trini Ched Sutrani
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 529
________________ २०३ दीक्षा-पर्याय के आधार पर आगमाध्ययनक्रम kakkakakakakakakakakakakakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk ३०१. अठारह वर्ष तक के दीक्षा-पर्याय से युक्त श्रमण-निर्ग्रन्थ को दृष्टिविषभावना नामक अध्ययन पढाना कल्पता है। ३०२. उन्नीस वर्ष तक के दीक्षा-पर्याय से युक्त श्रमण-निर्ग्रन्थ को दृष्टिवाद नामक (बारहवां) अंग पढाना कल्पता है। . ३०३. बीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय से युक्त श्रमण-निर्ग्रन्थ सर्वश्रुतानुपाती - सर्वश्रुतधारक होता है। विवेचन - इन सूत्रों में दीक्षा-पर्याय की कालावधि या वर्षों के आधार पर श्रमणनिर्ग्रन्थों को आगमों का अध्ययन कराने का वर्णन हुआ है। उसका आशय - 'इतने-इतने वर्षों की दीक्षा-पर्याय में उपरोक्त सूत्रों में वर्णित आगमों का तो अध्ययन कर ही लेना चाहिए', ऐसा समझना आगम पाठों से उचित है। ज्यों-ज्यों अध्ययन तथा साधना का समय बढता जाता है त्यों-त्यों साधक में प्रज्ञाशक्ति अनुभूत प्रवणता तथा धारणा भी बढती जाती है। वह गहन, गंभीर विषयों को स्वायत्त करने में समर्थ होता जाता है। ___ तीन वर्ष तक, चार वर्ष तक, पाँच वर्ष तक, आठ वर्ष तक तथा दस वर्ष तक के . दीक्षा-पर्याय से युक्त श्रमण-निर्ग्रन्थों को जिन-जिन आगमों के अध्ययन कराने का, पढाने का निरूपण हुआ है, वे आगम आज उपलब्ध हैं। .. ___ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि द्वादशांग का अन्तिम अंग दृष्टिवाद है, जो इस समय उपलब्ध नहीं है। दृष्टिवाद के पाँच विभाग माने गए हैं :- १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वानुयोग, ४. पूर्वगत और ५. चूलिका। 'ग्यारह वर्ष तक की दीक्षा-पर्याय से लेकर अठारह वर्ष तक के दीक्षा-पर्याय से युक्त श्रमण-निर्ग्रन्थ को जिन आगम शास्त्रों के पढाने का निर्देश है, उनका संबंध प्रायः दृष्टिवाद के पाँचवें अंग-चूलिका से संभव है। ____उन्नीस वर्ष तक के दीक्षा-पर्याय से युक्त श्रमण-निर्ग्रन्थों को समुच्चय रूप में सामान्यतः समग्र दृष्टिवाद का अध्ययन कराने का निर्देश है। दृष्टिवाद के अन्तर्गत समस्त श्रुत का समावेश हो जाता है। भेद-प्रभेदात्मक दृष्टि से वह अत्यन्त विशाल है। उसका अध्ययन परिपक्व बुद्धि युक्त एवं अनुभव-निष्णात श्रमण-निर्ग्रन्थ ही करने में सक्षम होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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