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- दशविध वैयावृत्य : महानिर्जरा ************************xxxxxxxxxxxxxxxxxxaaaaaaaaaaaaaat
___ अध्यापन, क्रियानुष्ठान की सुविधा एवं सुव्यवस्था रहे, इस हेतु गण पृथक्-पृथक् थे। वस्तुतः उनमें कोई मौलिक भेद नहीं था। वाचना का भी केवल शाब्दिक भेद था, अर्थ की दृष्टि से वे अभिन्न थीं। क्योंकि भगवान् महावीर ने अर्थ रूप में जो तत्त्व-निरूपण किया, भिन्न-भिन्न गणधरों ने अपने-अपने शब्दों में उसका संकलन या संग्रथन किया, जिसे वे अपने गण के श्रमण-समुदाय को सिखाते थे। अत एव गण विशेष की व्यवस्था करने वाले तथा उसे वाचना देने वाले गणधर का निर्वाण हो जाने पर उस गण का पृथक् अस्तित्व नहीं रहता। निर्वाणोन्मुख गणधर अपने निर्वाण से पूर्व दीर्घजीवी गणधरं सुधर्मा के गण में उसका विलय कर देते। ____भगवान् महावीर के संघ की यह परम्परा थी कि सभी गणों के श्रमण, जो भिन्न-भिन्न गणधरों के निर्देशन और अनुशासन में थे, प्रमुख पट्टधर के शिष्य माने जाते थे। इस परंपरा के अनुसार सभी श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण के अनन्तर सहजतया सुधर्मा के शिष्य माने जाने लगे। यह परम्परा आगे भी चलती रही। भिन्न-भिन्न साधु मुमुक्षुजनों को आवश्यक होने पर दीक्षित तो कर लेते थे, पर परम्परा या व्यवस्था के अनुसार उसे अपने शिष्य रूप में नहीं लेते, दीक्षित व्यक्ति मुख्य पट्टधर का ही शिष्य माना जाता था। ___ यह बड़ी स्वस्थ परम्परा थी। जब तक रही, संघ बहुत सबल एवं सुव्यवस्थित रहा। वस्तुतः धर्म संघ का मुख्य आधार श्रमण-श्रमणी समुदाय ही है। उनके संबंध में जितनी अधिक जागरूकता और सावधानी बरती जाती है, संघ उतना ही स्थिर और दृढ़ बनता है।
- भगवान् महावीर के समय से चलती आई गुरु शिष्य परम्परा का आचार्य भद्रबाहु तक निर्वाह होता रहा। उनके बाद इस क्रम ने एक नया मोड़ लिया। तब तक श्रमणों की संख्या बहुत बढ़ चुकी थी। भगवान् महावीर के समय व्यवस्था की दृष्टि से गणों के रूप में संघ का जो विभाजन था, वह यथावत् रूप में नहीं चल पाया। सारे संघ का नेतृत्व एक मात्र पट्टधर पर होता था, वह भी आर्य जम्बू तक तो चल सका, आगे संभव नहीं रहा। फलत:उत्तरवर्ती काल में संघ में से समय-समय पर भिन्न-भिन्न नामों से पृथक्-पृथक् समुदाय निकले, जो 'गण' नाम से अभिहित हुए।
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि भगवान् महावीर के समय में 'गण' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त था, आगे चल कर उसका अर्थ परिवर्तित हो गया। भगवान् महावीर के आदेशानुवर्ती
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