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व्यवहार सूत्र - दशम उद्देशक
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इसी कारण यहाँ आचार्य, उपाध्याय आदि की तन्मयता, तत्परता तथा समर्पण भाव से सेवा-परिचर्या करने वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को महानिर्जरा एवं महापर्यवसान करने वाला कहा गया है।
इस सूत्र में गण और कुल शब्द का जो प्रयोग हुआ है, उनकी विशद् व्याख्या इस प्रकार है
गण - भगवान् महावीर का श्रमण-संघ बहुत विशाल था। अनुशासन, व्यवस्था, संगठन, संचालन आदि की दृष्टि से उसकी अपनी अपनी अप्रतिम विशेषताएं थीं। फलतः उत्तरवर्ती समय में भी वह समीचीनतया चलता रहा, आज भी एक सीमा तक चल रहा है।
भगवान् महावीर के नौ गण थे, जिनका स्थानांग सूत्र में निम्नांकित रूप में उल्लेख हुआ है -
. 'समणस्स भगवओ महावीरस्स णव गणा होत्था। तंजहा - १. गोदासगणे २. उत्तरबलिस्सहगणे, ३. उद्देहगणे ४. चारणगणे ५. उद्दवाइयगणे ६. विस्सवाइयगणे ७. कामड्डियगणे ८. माणवगणे ९. कोडियगणे।'
- स्थानांग-सूत्र - ९.२६ . इन गणों की स्थापना का मुख्य आधार आगम-वाचना एवं धर्मक्रियानुशीलन की व्यवस्था था। अध्ययन द्वारा ज्ञानार्जन श्रमण-जीवन का अपरिहार्य अंग है। जिन श्रमणों के अध्ययन की व्यवस्था एक साथ रहती थी, वे एक गण में समाविष्ट थे। अध्ययन के अतिरिक्त क्रिया अथवा अन्यान्य व्यवस्थाओं तथा कार्यों में भी उनका साहचर्य एवं ऐक्य था।
गणस्थ श्रमणों के अध्यापन तथा पर्यवेक्षण का कार्य गणधरों पर था। भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे -
१. इन्द्रभूति २. अग्निभूति ३. वायुभूति ४. व्यक्त ५. सुधर्मा ६. मण्डित ७. मौर्यपुत्र ८. अकम्पित ९. अचलभ्राता १०. मेतार्य ११. प्रभास। ___ इन्द्रभूति भगवान् महावीर के प्रथम व प्रमुख गणधर थे। वे गौतम गोत्रीय थे, इसलिए आगम-वाङ्मय और जैन परम्परा में वे गौतम के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रथम से सप्तम तक के गणधरों के अनुशासन में उनके अपने-अपने गण थे। अष्टम व नवम गणधर का सम्मिलित रूप में एक गण था। इसी प्रकार दशवें तथा ग्यारहवें गणधर का भी एक ही गण था। कहा जाता है कि श्रमण-संख्या कम होने के कारण इन दो-दो गणधरों के गणों को मिला कर एक-एक किया गया था।
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