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व्यवहार सूत्र - दशम उद्देशक
विवेचन - जैन आगमों में स्थविर शब्द का स्थान-स्थान पर प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। यह शब्द अनेक दृष्टियों से बहुत महत्त्वपूर्ण है।
- संस्कृत में 'स्था' धातु के आगे 'किरच्' प्रत्यय के लगने और उसे 'स्थव' आदेश होने से स्थविर शब्द बनता है। जो दृढता, परिपक्वता, स्थिरता, वृद्धता युक्त होता है, उसे स्थविर कहा जाता है।
स्थविर का मुख्य गुण स्थिरता या अचंचलता है। जो वय की परिपक्वता, शास्त्राध्ययन की गहनता और अध्यात्म-साधना की दीर्घता - चिरन्तनता से उत्पन्न होती है।
जैन आगमों में उपर्युक्त गुणों से युक्त श्रमणों को स्थविर कहा जाता है। उनका धर्म संघ में बहुत आदर होता है। उनके विमर्श - परामर्श को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ... इन सूत्रों में अवस्था, ज्ञान और साधना के आधार पर स्थविरों के तीन भेद किए गए हैं। ये तीनों उनकी विशेषताएँ हैं। महाव्रतपालनात्मक संयम रूप मौलिक आचार से तीनों युक्त होते हैं, यह उनका सामान्य गुण है।
: यहाँ स्थविर के प्रथम भेद में स्थविर से पूर्व जाति(जाइ) शब्द का प्रयोग हुआ है। जाति शब्द 'जन्' धातु और 'क्तिन्' प्रत्यय के योग बना है। जाति शब्द अनेक अर्थों का वाचक है किन्तु 'जायते-उत्पद्यते इति जातिः' व्युत्पत्ति के अनुसार जाति का मुख्य अर्थ जन्म है। यहाँ प्रयुक्त जाति शब्द इसी अर्थ का बोधक है। इसी कारण जन्म से लेकर जिसके साठ वर्ष व्यतीत हो जाते हैं, उसे यहाँ जातिस्थविर, वयस्थविर या अवस्था स्थविर कहा गया है। वय या अवस्था को महत्त्व इसलिए दिया गया है कि जीवन का इतना समय व्यतीत करने वाला व्यक्ति बहुत प्रकार के बहुमूल्य अनुभवों का धनी होता है, जो उसके अपने लिए तथा औरों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। किन्तु यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है, जो केवल अवस्था मात्र से वृद्ध होता है, ज्ञानी, संयमी, अनुभवी नहीं होता, उसका वयोवृद्ध होना कोई महत्त्व नहीं रखता। इसीलिए मनुस्मृति में कहा गया है।
न तेन वृद्धो भवति, येनास्य पलितं शिरः। . यो युवाप्यधीयानस्तं देवा स्थविरं विदुः॥
अर्थात् सिर के बाल सफेद हो जाने से ही या अवस्था पक जाने पर ही कोई वृद्ध नहीं होता। जो अवस्था में युवा होता हुआ भी शास्त्रों का अध्येता होता है, ज्ञानी होता है, वही वास्तव में स्थविर या वृद्ध होता है। इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि वयस्थविरता की तभी सार्थकता है, जब वह ज्ञान दर्शन एवं चारित्र से संपृक्त हो।
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