Book Title: Trini Ched Sutrani
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 523
________________ १९७ त्रिविध शैक्ष-भूमिका kakkakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkakakakakakakakakakakakakakir . उपर्युक्त सूत्र में तीनों प्रकार के स्थविर साधु-साध्वियों की अपेक्षा से ही कहे गये हैं। श्रुत स्थविर में - स्थानांग - समवायांग सूत्रों का कथन करने से उपलक्षण से उनसे पूर्ववर्ती आचारांग, सूयगडांग तथा चार छेद सूत्र भी समझ लेना चाहिए। त्रिविध शैक्ष-भूमिका तओ सेहभूमीओ पण्णत्ताओ, तंजहा - सत्तराइंदिया चाउम्मासिया छम्मासिया, छम्मासिया उक्कोसिया, चाउम्मासिया मज्झमिया, सत्तराइंदिया जहणिया॥२८४॥ कठिन शब्दार्थ - सेहभूमीओ - शैक्षभूमियाँ, सत्तराईदिया - सप्तरात्रिन्दिवा - सप्त रात्रि-दिवस परिमित या सात रात-दिन. प्रमाण युक्त, चाउम्मासिया - चातुर्मासिक - चार मास परिमित, छम्मासिया - पाण्मासिक - छह मास परिमित, उक्कोसिया - उत्कृष्ट - अधिक से अधिक, मज्झमिया - मध्यमिका - मध्यवर्तिनी या बीच की, जहणिया - जघन्य - कम से कम। भावार्थ - २८४. तीन शैक्षभूमिकाएं प्रतिपादित हुई हैं, जो इस प्रकार हैं - १. सप्तरात्रिन्दिवा, २. चातुर्मासिका तथा ३. पाण्मासिकी।। षाण्मासिकी - छह मास के प्रमाण से युक्त भूमि उत्कृष्ट - सर्वोत्कृष्ट है। चातुर्मासिकी - चार मास के प्रमाण से युक्त भूमिका मध्यम है। सप्तरात्रिन्दिवा - सातवें रात दिन के प्रमाण से युक्त भूमिका जघन्य-कम से कम है। , यहाँ सात रात-दिन का तात्पर्य - प्रव्रज्या ग्रहण करने के दिन से लेकर सातवें दिन (सूर्योदय) होने पर अर्थात् सातवें दिन समझना चाहिए। विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त शैक्ष (सेह) शब्द नव-दीक्षित साधु का सूचक है। इस शब्द के मूल में शिक्षा है। शिक्षा का अर्थ जीवनोपयोगी विषयों, तथ्यों को जानना या समझना है। जो इन्हें जानने में, समझने में तत्पर हो, शाब्दिक दृष्टि से वह शैक्ष कहा जाता है। जैन आगमों में प्रव्रजित साधु जब तक महाव्रतारोपण में उपस्थापित नहीं होता तब तक वह शैक्ष कहा जाता है। क्योंकि उसे साधुजीवनोचित तथ्यों को सीखना, स्वायत्त करना आवश्यक होता है। व्यवहार भाषा में प्रव्रज्या और उपस्थापन - महाव्रतारोपण क्रमशः छोटी दीक्षा एवं बड़ी दीक्षा को कहा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538