Book Title: Trini Ched Sutrani
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 498
________________ व्यवहार सूत्र - नवम उद्देशक १७२ १. शुद्धोपहृत २. फलितोपहृत एवं ३. संसृष्टोपहृत। विवेचन - लेप रहित सूखे खाद्य पदार्थ शुद्धोपहृत कहे जाते हैं। यहाँ भूने हुए चने, मुरमुरे तथा फुली आदि शुद्धोपहृत के अन्तर्गत आते हैं। इनमें और किसी वस्तु का मेल नहीं होता। यहाँ प्रयुक्त शुद्ध शब्द निर्दोष का वाचक नहीं है क्योंकि तीनों ही प्रकार के पदार्थ साधुचर्या के अनुरूप, अनुद्दिष्ट, अनवद्य तथा अचित्त होते हैं, इसलिए तीनों ही शुद्ध हैं, उनमें कोई अशुद्ध नहीं है। यह किसी से भी अमिलित या अमिश्रित का वाचक है। शाक, भाजी, दाल, दही, खीर आदि व्यंजनों से युक्त पूड़ी, रोटी, चावल, मिष्ठान आदि पदार्थ फलितोपहृत के अन्तर्गत आते हैं। शाक, भाजी, दाल आदि व्यंजनों से रहित रोटी, घाट, भात, खिचड़ी आदि संलेप्य पदार्थ संसृष्टोपहृत कहे जाते हैं। • अवगृहीत आहार के भेद तिविहे ओग्गहिए पण्णत्ते, तंजहा-जंच ओगिण्हइ, जंच साहरइ, जं च आसगंसि पक्खिवइ, एगे एवमाहंसु॥२६४॥ .. (एगे पुण एवमाहेसु) दुविहे ओग्गहिए पण्णत्ते, तंजहा - जंच ओगिण्हइ, जंच आसगंसि पक्खिवइ॥२६५॥त्ति बेमि॥ .... ॥ववहारस्स णवमो उद्देसओ समत्तो॥९॥ कठिन शब्दार्थ - ओग्गहिए - अवगृहीत - ग्रहण किया हुआ, ग्रहण किया जाता हुआ, जं - जो, ओगिण्हइ - अवगृहीत करता है - ग्रहण करता है, साहरइ - संहृत करता है - जिसमें खाद्य पदार्थ रखा हो, उस पात्र से निकालता है, आसगंसि - पात्र के मुख में - पात्र के भीतर, पक्खिवइ - प्रक्षिप्त करता है - डालता है, एगे - एक नय की अपेक्षा से, एवं आहंसु - ऐसा कहते हैं, दुविहे - द्विविध - दो प्रकार का। भावार्थ - २६४. अवगृहीत आहार तीन प्रकार का परिज्ञापित - निरूपित हुआ है। वह इस प्रकार है - १. जो देने या प्रस्तुत करने हेतु ग्रहण किया जाता हो, वह प्रथम प्रकार में आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538