Book Title: Trini Ched Sutrani
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 513
________________ १८७ विविध रूप में कार्यशील साधक विवेचन - इस सूत्र में आगम शब्द का प्रयोग गुण और गुणी के अभेद की अपेक्षा से आगमवेत्ता के अर्थ में हुआ है। केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधरः . तथा नवपूर्वधर - ये छह आगम-व्यवहार के अन्तर्गत हैं। ये आगमव्यवहारी माने गए हैं। . - श्रुत व्यवहार के अन्तर्गत आचारप्रकल्प एवं निशीथ आदि सूत्रों के यावत् उत्कृष्ट नौ पूर्व से कम श्रुत के धारक समाविष्ट हैं, ये श्रुतव्यवहारी अभिहित हुए हैं। ___ इस सूत्र का विशेष अभिप्राय यह है कि साधु-साध्वी सदैव सर्वज्ञ, पूर्वधर - विशिष्ट ज्ञानी तथा आगमशास्त्रवेत्ता, आचार्य, उपाध्याय आदि गुरुजनों के आदेश - निर्देश, मार्गदर्शन के अनुसार अपना समग्र प्रवृत्ति-निवृत्ति मूलक व्यवहार करें। जिन कार्यों के करने का विधान है, उन्हें करें तथा जिन कार्यों के करने का निषेध है, उन्हें न करें। यदि ये साक्षात् प्राप्त न हो तो उनकी आज्ञा - उन द्वारा संप्रवर्तित, निर्देशित आचार विषयक अथवा प्रवृत्ति-निवृत्ति विषयक सिद्धान्त, धारणा एवं गुरुपरम्परागत चर्यापद्धति का अनुसरण करते हुए प्रवृत्ति-निवृत्ति विषयक व्यवहार में क्रियाशील रहें। वे व्यवहार विषयक अनुशासन का कदापि उल्लंघन न करे, क्योंकि आध्यात्मिक जीवन में अनुशासन का सर्वोपरि महत्त्व है, लौकिक जीवन में भी अनुशासन का महत्त्व कम नहीं है। यद्यपि आगमों में जहां पर भी पांच व्यवहारों का उल्लेख है वहाँ पर उनका संबंध प्रायश्चित्त दान से ही बताया है। प्रायश्चित्त दान में ही पांच व्यवहारों का प्रमुख उपयोग होता है तथापि तत्त्व निर्णय आदि में भी इनका उपयोग करने में बाधा ध्यान में नहीं आती है, जैसे किन्हीं परम्पराओं का जीत है कि - 'वे कदलीफल को अचित्त समझते हैं किन्तु भगवती सूत्र के शतक २२ में - उसमें बीज बताये हैं, अतः सचित्त समझना चाहिए।' इस प्रकार इस दृष्टान्त में जीत व्यवहार से श्रुत व्यवहार की प्रधानता समझी जा सकती है। आगमों में देवकर्तव्यों के लिए भी 'जीत' शब्द का प्रयोग हुआ है। उसे भी जीत व्यवहार का रूप ही समझा जाता है। विविध रुप में कार्यशील साधक चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तंजहा - अट्ठकरे णाम एगे णो माणकरे, माणकरे णामं एगे णो अट्ठकरे, एगे अट्ठकरे वि माणकरे वि, एगे णो अट्ठकरे णो माणकरे॥ २७१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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