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व्यवहार सूत्र - दशम उद्देशक
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कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो अपना या गण का कार्य करते हैं, किन्तु अपने कर्तृत्व का अभिमान नहीं करते, कुछ ऐसे होते हैं, जो केवल अभिमान करते हैं, कार्य नहीं करते। कतिपय ऐसे होते हैं, जो कार्य भी करते हैं और अभिमान भी करते हैं। कई ऐसे होते हैं जो न कार्य करते हैं तथा न अभिमान ही करते हैं। __ इन चारों भंगों के परीक्षण-निरीक्षण करने से यह स्पष्ट है कि इन पाँचों चतुगियों में प्रथम भंग के अन्तर्गत जिस साधनाशील पुरुष का उल्लेख हुआ है, वह सर्वोत्कृष्ट है। क्योंकि वह अपना और संघ का कार्य आदि करता हुआ भी अभिमान नहीं करता। अपना कर्तव्य-पालन करते हुए जरा भी अभिमान न करना व्यक्ति की उच्चता, उत्तमता का सूचक है।
द्वितीय भंग में कार्य न करते हुए भी अभिमान करने का वर्णन है। कार्य न करते हुए भी उसे करने का मिथ्या अभिमान करना व्यक्ति का बहुत बड़ा दोष है। एक साधनाशील पुरुष में ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए।
तृतीय भंग में कार्य करने और उसका अभिमान करने का उल्लेख हुआ है। अपना या गण का कार्य करना एक साधनाशील पुरुष का दायित्व है, उसका अभिमान करना कदापि उचित नहीं है। साधु को अपना तथा गण का कार्य करते हुए. तद्विषयक उत्तरदायित्व वहन करते हुए कदापि अभिमान नहीं करना चाहिए। अपना और गण का कार्य करना उसका धर्म है, फिर उसका अभिमान कैसा?
चतुर्थ भंग में जिस साधनाशील पुरुष का वर्णन किया गया है, वह सामान्य कोटि का है। वैसा साधक कार्य नहीं करता तो अभिमान भी नहीं करता। यद्यपि कार्य नहीं करना कोई अच्छी बात नहीं है, किन्तु न करके मिथ्या अभिमान न करना व्यक्ति की सरलता एवं सदाशयता का द्योतक है। ऐसे व्यक्ति यदि संयम साधना में सावधान और जागरूक रहे तो आगे बढ़ सकता है, किन्तु यहाँ वर्णित सामान्य स्थिति में न वह अधिक कर्मनिर्जरा करता है तथा न अधिक कर्मबंध और पुण्यक्षय ही करता है।
धार्मिक दृढता के तीन चतुभंग चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तंजहा.- रूवं णामेगे जहइ णो धम्म, धम्म णामेगे जहइ णो रूवं, एगे रूवं पि जहइ धम्म पि जहइ, एगे णो रूवं जहइ णो धर्म जहइ।।२७६॥
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