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व्यवहार सूत्र - दशम उद्देशक
१७८ artitattatratikridadakikikikattakikattarairatxxxxxxxxxxxxxxx घर की देहली, साहट्ट - संहत कर - रख कर, दलमाणीए - देते हुए, किच्चा - करके, विक्खंभइत्ता - दोनों के बीच में करके, एयाए एसणाए - इस प्रकार गवेषणा पूर्वक, एसमाणे - गवेषणा करता हुआ, लब्भेजा - प्राप्त हो, आहारेजा - आहार स्वीकार करे, बिइजाए - द्वितीया - दूज के दिन, तइयाए - तृतीया - तीज, चउत्थीए - चतुर्थी - चौथ, पंचमीए - पंचमी - पांचम, छट्ठीए - षष्ठी - छठ, सत्तमीए - सप्तमी - सातम, अट्ठमीएअष्टमी - आठम, णवमीए - नवमी, दसमीए - दशमी, एगार( सी )समीए - एकादशी - ग्यारस, बारसमीए - द्वादशी - बारस, तेरसमीए - त्रयोदशा - तेरस, चोद्दसमीए - चतुर्दशीचवदस, पण्णरसमीए (पुण्णिमा) - पूर्णमासी (पूर्णिमा) पूनम, बहुलपक्खस्स - कृष्ण पक्ष, अमावासाए - अमावस्या, अभत्तट्टे - अभक्तार्थ - उपवास युक्त, मुट्ठीण - मुष्ठिकामुक्का या बंधी हुई मुट्ठी।
भावार्थ - २६६. दो प्रतिमाएं परिज्ञापित - निरूपित हुई हैं। वे इस प्रकार हैं - १. यवमध्य चन्द्रप्रतिमा सथा २. वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा।
जो साधु यवमध्य चन्द्रप्रतिमा को स्वीकार करता है, वह सदा दैहिक ममत्व से दूर रहता है तथा शरीर पर होने वाले परीषहों और उपसर्गों से अतीत रहता है, उनकी जरा भी चिन्ता नहीं करता।
जो भी कोई देव, मनुष्य या तिर्यंच विषयक अनुकूल या प्रतिकूल परीषह तथा उपसर्ग उत्पन्न हों, जैसे - कोई उसे वंदना करे, नमस्कार करे, सत्कार करे, सम्मान करे, कल्याणकर, मंगलमय, धर्मदेवस्वरूप एवं ज्ञानस्वरूप मानता हुआ पर्युपासना करे तथा कोई डण्डे, हड्डी से बने प्रहारक साधन, मोटे रस्से, बेंत एवं चमड़े के चाबुक से उसके शरीर पर प्रहार करे, ताड़ित करे - दोनों ही (अनुकूल-प्रतिकूल परीषहोपसर्ग) परिस्थितियों में वह (साधु) यह सब निर्विकार भाव से सहता है, क्षमा करता है - क्षन्तव्य मानता है, निर्जरा भाव से, निश्चल भाव से सहन करता है।
२६७. यवमध्य चन्द्रप्रतिमा स्वीकार किए हुए साधु को शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा - एकम के दिन आहार एवं पानी की एक-एक दत्ति प्रतिगृहीत करना - लेना कल्पता है। . सभी आहारकांक्षी - भोजन चाहने वाले द्विपद-चतुष्पद प्राणियों के खाद्य प्राप्त कर लौट जाने पर तथा सभी श्रमण, माहण, अतिथि, दीन-दरिद्र तथा याचकों के भोजन लेकर चले जाने पर अपरिचित स्थान से - घर से निर्दोष, शुद्ध रूप से दिया गया आहार लेना कल्पता है।
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