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व्यवहार सूत्र - दशम उद्देशक
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एकादशी के दिन आहार एवं पानी की बारह-बारह दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है यावत् पूर्वोक्त स्थितियाँ होने पर वह आहार-पानी ग्रहण करे अन्यथा ग्रहण न करे।
द्वादशी के दिन आहार एवं पानी की तेरह-तेरह दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है यावत् पूर्वोक्त स्थितियाँ होने पर वह आहार-पानी ग्रहण करे अन्यथा ग्रहण न करे।
त्रयोदशी के दिन आहार एवं पानी की चवदह-चवदह दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है यावत् पूर्वोक्त स्थितियाँ होने पर वह आहार-पानी ग्रहण करे अन्यथा ग्रहण न करे।
चतुर्दशी के दिन आहार एवं पानी की पन्द्रह-पन्द्रह दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है।
सभी द्विपद-चतुष्पद प्राणी यावत् अपना-अपना खाद्य लेकर वापस लौट गये हो, इत्यादि पूर्ववर्णित स्थितियों के होने पर वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा प्रतिपन्न साधु आहार पानी ग्रहण करे अन्यथा ग्रहण न करे। ...
पूर्णिमा के दिन वह आहारार्थी नहीं होता - उपवास करता है।
इस प्रकार यह वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा यथासूत्र - सूत्रों में वर्णित सिद्धान्तानुरूप, यथाकल्पकल्पानुरूप यावत् जिनाज्ञा के अनुरूप अनुपालित होती है।
- विवेचन - कर्म निर्जरण हेतु जैन आगमों में तपःसाधना के अनेक प्रकार निरूपित 'ए हैं। साधक अपनी रुचि के अनुकूल तपश्चरण में संलग्न होकर कर्मक्षय की आध्यात्मिक यात्रा में अग्रसर रहता है।
इन सूत्रों में वर्णित यवमध्य चन्द्रप्रतिमा तथा वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा इसी प्रकार की तप:साधना के दो रूप हैं। चन्द्रमा की ज्योत्स्ना शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से उत्तरोत्तर बढती हुई पूर्णिमा को पूर्णत्वं प्राप्त करती है, कृष्णपक्ष में वह उत्तरोत्तर घटती जाती है। जिस तरह पूर्णिमा का दिन वृद्धि का सर्वोत्कृष्ट रूप है उसी प्रकार अमावस्या का दिन हानि - ह्रास का निम्नतम रूप लिए हुए हैं, उस दिन चन्द्र-ज्योत्स्ना का सर्वथा अभाव रहता है।
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के दशवें अध्ययन (चन्द्रज्ञात) में एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र में - अमावस्या की रात्रि में चन्द्रमा की ज्योत्स्ना का राहू से पूर्ण आवृत्त होना बताया है। कुछ भी अंश अनावृत नहीं रहता है।
जिस प्रकार जौ का बीच का भाग स्थूल - मोटा तथा दोनों किनारों के भाग पतले होते हैं, उसी प्रकार इस प्रतिमा में दत्तियों की संख्या लगभग वैसी ही न्यूनाधिक स्थिति पा लेती है। दोनों ही पक्षों की दत्तियाँ बीच में अधिक हो जाती हैं, किनारों पर कम रहती हैं।
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