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व्यवहार सूत्र - सप्तम उद्देशक ****aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa************** भिक्षा देने में अभिरुचि रखता है, किन्तु फिर भी यह सोचते हुए कि कदाचन वह उसे कहीं भार रूप न लग जाए, इस मनोवैज्ञानिक चिन्तन के आधार पर यह मर्यादा या नियम रखना आवश्यक माना गया। ___ जैन दर्शन प्रत्येक विषय पर, चाहे वह तात्त्विक हो या व्यावहारिक, बड़ी गहराई से चिन्तन करता है। वहाँ सदैव यह जागरूकता रखी जाती है कि कहीं किसी भी चर्या में, व्यवहार में कोई भी ऐसा प्रसंग न हो, जिससे इस दर्शन, धर्म या आचार संहिता में जरा भी न्यूनता प्रतीत हो। यही कारण है कि आचार्य समन्तभद्र ने इसे सर्वोदय तीर्थ कहा है अर्थात् यह वह आध्यात्मिक तीर्थ है, जिसमें सबके उदय, उत्थान, कल्याण या सुख का सन्निवेश है। इस संबंध में उनका निम्नांकित श्लोक पठनीय है -
सर्वान्तवद तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनवद्यम्। सर्वापदामन्तकर निरन्त, सर्वोदय तीर्थमिदं तदैव॥
इन सूत्रों में मकानमालिक, मकान के किरायेदार एवं मकान के खरीददार आदि से . संबंधित शय्यातर-विषयक प्रसंगों की चर्चा है, जिसका आशय भावार्थ से स्पष्ट है।
... आवास स्थान में ठहरने के संबंध में आज्ञा-विधि
विहवधूया णायकुलवासिणी, सा वि यावि ओग्गहं अणुण्णवेयव्वा, किमंग-पुण पिया वा भाया वा पुत्ते वा, से वि यावि ओग्गहे ओगेण्हियव्वे॥१९९॥
पहे वि ओग्गहं अणुण्णवेयव्वे ॥२०॥ .. कठिन शब्दार्थ - विहवधूया - विधवा, दुहिता - पुत्री, णायकुलवासिणी - ज्ञातकुलवासिनी - पीहर (पितृ गृह) में रहने वाली, ओग्गहं अणुण्णवेयव्वा - स्थान की आज्ञा देने योग्य, पिया - पिता, भाया - भाई, पुत्ते - पुत्र, ओग्गहे ओगेण्हियव्वे - आज्ञा लिए जाने योग्य, पहे वि - मार्ग में भी।
. भावार्थ - १९९. पिता के घर में रहने वाली विधवा पुत्री भी जब साधु-साध्वी को ठहरने के स्थान की आज्ञा देने योग्य है - वह आज्ञा दे सकती है तो पिता, भाई तथा पुत्र आदि की तो बात ही क्या, उनसे भी आज्ञा ली जा सकती है।
२००. मार्ग में भी ठहरने के स्थान की आज्ञा लेनी चाहिए।
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