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शय्यासंस्तारक - आनयन-विधि,
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विवेचन - जैन साधु की दिनचर्या शुद्ध आचार संहिता के नियमों से .परिबद्ध होती है। वे अपना प्रत्येक कार्य नियम, विधि और परम्परा के अनुसार निर्वद्य रूप में करते हैं।
इन सूत्रों में शय्यासंस्तारक - शयनपट्ट या शयनास्तरण लाने के विषय में विधान हुआ है।
साधु-साध्वी सदा यह ध्यान रखते हैं कि वे कोई भी अनावश्यक या भारी वस्तु अपने पास न रखे और प्रातिहारिक रूप में याचित, परिगृहीत ही करे।
साधु का जीवन जितना हल्का हो उतना ही उत्तम है। स्वावलम्बी होने के कारण साधु किसी भी गृहस्थ के यहाँ से किसी भी वस्तु के लाने-ले जाने में उसका (किसी भी गृहस्थ का) शारीरिक सहयोग नहीं ले सकते। वे स्वयं या. अपने साधर्मिक साधुओं के सहयोग से ही किसी वस्तु को ला-लेजा सकते हैं। साधर्मिक साधु भी सदा प्राप्त नहीं रहते। अत एव इन सूत्रों में संकेत किया गया है कि पाट, बाजोट आदि जो भी वे लाएं, वे अत्यन्त हल्के हो, इतने हल्के कि इन्हें एक ही हाथ के सहारे लाया - ले जाया जा सके। इससे वे अनावश्यक श्रम से बचते हैं तथा जीवन सर्वथा निर्भार - हल्का बना रहता है।
एक हाथ से उठाने का आशय बीच में विश्राम हेतु भूमि पर नहीं रखते हुए ले जाना। एक हाथ से दूसरे हाथ में बदलते हुए ले जाने में बाधा नहीं है। भूमि पर रखे बिना दूसरे साधु के हाथ में देने में भी एक हाथ से उठाना ही गिना जाता है। ___इन सूत्रों में हेमन्त या ग्रीष्म ऋतु तथा वर्षावास में जो काल-मर्यादा दी गई है, वृद्धावास या स्थविरावास में तदपेक्षया अधिक काल मर्यादा है। यह इसलिए है कि वैसा आवास दीर्घकालवर्ती होता है, क्योंकि स्थविर - वृद्ध साधु वार्धक्य के कारण शारीरिक अशक्तिवश विहार करने में समर्थ नहीं होते।
व्यवहार सूत्र के आठवें उद्देशक के दूसरे तीसरे सूत्र में शेषकाल एवं चातुर्मास के लिए शय्या संस्तारक लाने का विधान है। वह शय्या संस्तारक इतना हल्का होना चाहिए कि उसे एक हाथ में पकड़ कर उपाश्रय में लाया जा सके तथा मार्ग में भी तीन विश्रामों से अधिक विश्राम न लेने पड़े। यहाँ पर 'अहं' शब्द का धारणानुसार अर्थ - विश्राम किया जाता है
और वह संगत भी है। यदि उस गाँव में शय्या संस्तारक न मिले तो दो कोस की सीमा के अन्दर आये हुए ग्रामादि से भी प्रातिहारिक शय्या संस्तारक ला सकता है किन्तु मार्ग में तीन विनामों से अधिक विश्राम न लेने पड़े इतना दूर ही वह ग्रामादि होना चाहिए। .
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