Book Title: Trini Ched Sutrani
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 494
________________ व्यवहार सूत्र - - दिन में जो प्रस्रवण होता है, वह पान करने योग्य है। रात में जो होता है, वह पान करने योग्य नहीं है । जो प्रस्रवण जीवयुक्त, शुक्रयुक्त, चिकनाईयुक्त तथा रजयुक्त होता है, वह पान करने योग्य नहीं है। जो जीव रहित, शुक्ररहित, चिकनाईरहित और रजरहित होता है, वह पान करने योग्य है । - नवम उद्देश उस प्रकार का जीवादि रहित प्रस्रवण जब- जब, जैसा जैसा थोड़ा या बहुत होता हो, वह पान करने योग्य है । इस प्रकार यह क्षुद्रिका - छोटी मोक प्रतिमा यथासूत्र यावत् जिनेश्वर देव की आज्ञानुरूप अनुपालित होती है। २६०. महतिका - बड़ी मोक प्रतिमा को शरत् काल के प्रथम समय में - मार्गशीर्ष मास में अथवा ग्रीष्म काल के अन्तिम समय में आषाढ मास में साधु द्वारा स्वीकार करना तथा ग्राम यावत् राजधानी से बाहर वन, वनदुर्ग, पर्वत या पर्वतदुर्ग में रहते हुए उसकी आराधना करना कल्पता है 1 Jain Education International - . १६८ *** यदि साधु आहार करके प्रतिमा की आराधना में संलग्न होता है तो वह सात उपवास के साथ इसे पूर्ण करता है, इस प्रकार आठ अहोरात्र हो जाते हैं। यदि वह भोजन किए बिना उपवास पूर्वक प्रतिमा की आराधना में संलग्न होता है तो आठ उपवास के अनन्तर उसे पूर्ण करता है अर्थात् उसके आठों ही अरोहात्र उपवास पूर्वक व्यतीत होते हैं। जब-जब, जितना - जितना प्रस्रवण होता है, वह पान करने योग्य है यावत् वह पूर्वानुरूप अनुपालित की जाती है। विवेचन इन सूत्रों में प्रयुक्त मोक (मोय) शब्द का एक अर्थ कायिक या शरीर संबंधी है, प्रस्रवण का संबंध शरीर से है । अत एव मुख्यतः उसके पान - विषयक विधान पर आधारित इस प्रतिमा को मोक-प्रतिमा कहा गया है। "मोचयति पापकर्मभ्यः साधून् इति मोकः " इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो प्रतिमा साधकों को पापकर्मों से मुक्त कराती है, छुड़ाती है, वह मोक- प्रतिमा है । इन दोनों अर्थों में दूसरा अर्थ अधिक संगत है। क्योंकि इस प्रतिमा में जो साधना का क्रम निर्देशित है, वह बहुत कठिन है, कर्म - निर्जरण का विशेष हेतु है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538