________________
व्यवहार सूत्र - अष्टम उद्देशक
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
सांसारिक पदार्थों के प्रति ममत्व से सर्वथा अलिप्त, अस्पृष्ट बने रहना साधु साध्वियों के लिए साधना में अविच्छिन्न रूप में गतिशील रहने की दृष्टि से आवश्यक है। - शय्यासंस्तारक प्रतिग्रहण-विषयक विधान
णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पुत्वामेवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता तओ पच्छा अणुण्णवेत्तए ॥२११॥ ___ कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पुव्वामेव ओग्गहं अणुण्णवेत्ता तओ पच्छा ओगिण्हित्तए॥२१२॥ ____ अह पुण एवं जाणेजा, इह खलु णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा णो सुलभे पाडिहारिए सेज्जा संथारए त्ति कट्ट एवं ण्हं कप्पइ पुवामेव ओग्गहं ओगिण्हित्ता तओ पच्छा अणुण्णवेत्तए, मा वहउ अजो! बिइयं ति वइ अणुलोमेणं अणुलोमेयव्वे सिया॥२१३॥
कठिन शब्दार्थ - पुव्वामेव - पूर्व - पहले ही, तओ पच्छा - तत्पश्चात् - उसके 'बाद, ओगिण्हित्तए - अवगृहीत करना - लेना, अह पुण - अथ पुनः - फिर यदि, जाणेजा - जाने, णो सुलभे - सुख पूर्वक - आसानी से अप्राप्य, मा - नहीं, वहउ - बोलो, बिइयं - द्विघात - उपकार करने वाले के प्रति कठोर वचन बोलकर दो प्रकार का आघात करना, वइ अणुलोमेणं - अनुकूल वचन द्वारा, अणुलोमेयव्वे - अनुकूल बनाये।
भावार्थ - २११. साधु-साध्वियों को पहले शय्यासंस्तारक आदि ग्रहण करना और फिर उनके लिए स्वामी की आज्ञा लेना नहीं कल्पता।
२१२. साधु-साध्वियों को पहले शय्या संस्तारक आदि के संदर्भ में स्वामी से आज्ञा लेना तथा बाद में गृहीत करना कल्पता है।
- २१३. यदि यह जानकारी में आए कि यहां साधु-साध्वियों को शय्यासंस्तारक सुविधापूर्वक प्राप्य नहीं है तो उन्हें पहले ही शय्यासंस्तारक गृहीत करना एवं बाद में स्वामी से आज्ञा लेना कल्पता है। .
(यदि शय्यासंस्तारक को लेकर उसके मालिक और साधु के बीच कुछ तकरार हो जाए तथा साधु के मुंह से कोई कठोर वचन निकल पड़े तो आचार्य उससे कहे -) हे आर्य!
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org