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ऊनोदरी-विषयक परिमाणक्रम
भूख से कम खाया जाता है, उसे ऊनोदरी या ऊनोदरिका तप कहा गया है। क्योंकि एक सीमा तक उसमें आहार -पानी का नियमन होता है तथा त्याग की भावना से आत्मोल्लासपूर्वक बुभुक्षा को सहन किया जाता है।
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इस सूत्र में ऊनोदरी तप के संबंध में विवेचन है। इसके अनुसार बत्तीस कौर (ग्रास मुख में सुखपूर्वक समाने योग्य भोजनांश) व्यक्ति का परिपूर्ण आहार है। आहार करने में जिस परिमाण में कमी की जाती है, वह ऊनोदरी तप है। इसी का आठ, बारह, सोलह, चौबीस तथा इकत्तीस कौर परिमित गृहीत आहार के आधार पर विश्लेषण हुआ है, जो भावार्थ से स्पष्ट है।
सूत्र में कवल प्रमाण को स्पष्ट करने के लिए 'कुक्कुटि अंडकप्रमाण' ऐसा विशेषण लगाया गया है। इस विषय में व्याख्या ग्रन्थों में इस प्रकार स्पष्टीकरण किये गये हैं
(१) 'निजकस्याहारस्य सदा योद्वात्रिंशत्तयो भागो तत् कुक्कुटीप्रमाणे'अपनी आहार की मात्रा का जो सदा बत्तीसवां भाग होता है वह कुक्कुटिअंडक प्रमाण अर्थात् उस दिन का कवल कहा जाता है।
(२) 'कुत्सिता कुटी कुक्कुटी शरीर मित्यर्थः । तस्याः शरीर रुपायाः कुक्कुटया अंडकमिव अंडकं मुखं अशुचिमय यह शरीर ही कुकुटी है उसका जो मुख है वह कुकुटी का अंडक कहा गया है।
(३) 'यावत्प्रमाणमात्रेण कवलेन मुखे प्रक्षिप्यमाणेव मुर्ख न विकृत भवति तत्स्थलं कुक्कुट अंडक प्रमाणम्' - जितना बड़ा कवल मुख में रखने पर मुख विकृत न दिखे उतने प्रमाण का एक कंवल समझना चाहिए। उस कवल के समावेश के लिए जो मुख का भीतरी आकार बनता है उसे कुक्कुटी अंडक प्रमाण समझना चाहिए । अथवा कुकडी के
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(४) 'अयमन्यः विकल्पः कुक्कुटं अंडकोपमे कवले'
अंडे के प्रमाण जितना कवल, यह भी अर्थ का एक विकल्प है।
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॥ व्यवहार सूत्र का आठवाँ उद्देशक समाप्त ॥
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