Book Title: Trini Ched Sutrani
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 463
________________ १३७ राज-परिवर्तन की दशा में अनुज्ञा-विषयक विधान ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ यदि किन्हीं साधु-साध्वियों ने वहाँ के राजा से उसके राज्य में विहार करने की अनुज्ञा प्राप्त की हो, उस राजा का निधन हो जाए, किन्तु राज-सत्ता आनुवंशिकता अनुरूप अव्यवच्छिन्न : रहे तो मृत राजा के स्थान पर अभिषिक्त होने वाले नए राजा की पुनः आज्ञा लेना आवश्यक नहीं है, क्योंकि पूर्ववर्ती राजा की मूल व्यवस्था में, सत्ता में कोई अन्तर नहीं आया है। .. यदि उपर्युक्त स्थिति न रहे, राज्य टुकड़ों में विभक्त हो जाए अथवा किसी आक्रमणकारी अन्य राजा के अधिकार में चला जाए, राजसत्ता इस प्रकार सर्वथा परिवर्तित हो जाए तो साधु-साध्वियों को अपनी संयमानुगत आचार संहिता या जीवनचर्या के परिपालन की दृष्टि से राज्य के जो नये शासक या स्वामी हुए हों, जिनके हाथ में राज्य-सत्ता आदि हो, उनसे अनुज्ञा प्राप्त करना अभीष्ट है। सभी जैन संघों के साधु साध्वियों के विचरण करने की राजाज्ञा एक प्रमुख व्यक्ति के द्वारा प्राप्त कर ली जाए तो फिर पृथक्-पृथक् किसी भी संत सती को आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं रहती है। श्रमण-निर्ग्रन्थ सर्वथा निर्द्वन्द्व, प्रशान्त, आत्मोपासनारत तथा सांसारिक स्थितियों से सर्वथा अनासक्त, तटस्थ, अस्पृष्ट रहें, यह वांछित है। ऐसा करते हुए वे अपने जीवन के परम लक्ष्य की दिशा में सदा अग्रसर रहते हैं। इन सूत्रों का यह हार्द है। आज युग बदल चुका है। राजतंत्र प्रायः समाप्त हो गया है। भारत वर्ष जो सैंकड़ों राजाओं द्वारा शासित था, आज प्रजातंत्रात्मक व्यवस्था से चल रहा है, कोई भी राजा नहीं है। राजा या जनता द्वारा निर्वाचित जन ही शासन करते हैं। अतः उपर्युक्त सूत्रों में सूचित मर्यादाओं का वर्तमान में कोई स्थान नहीं है। भारत के भिन्न-भिन्न राज्य, प्रदेश या प्रान्त प्रजातन्त्र द्वारा ही शासित हैं। जब तक यह प्रजातंत्र अविच्छिन्न चालू रहे तब तक पुनः आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं रहती है। तंत्र बदल जाने पर अर्थात् राजतंत्र या गणतंत्र हो जाने पर पुनः आज्ञा लेने की आवश्यकता रहती है। ___संसार का अधिकांश भाग आज प्रजातंत्रात्मक प्रणाली द्वारा संचालित है। राजतंत्र बहुत ही कम स्थानों में विद्यमान है। ॥ व्यवहार सूत्र का सातवाँ उद्देशक समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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