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दूरवर्ती गुरु आदि के निर्देश के संदर्भ में विधि-निषेध .. Akkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
चारित्र में पुनः उपस्थापित का तात्पर्य छेदोपस्थापनीय चारित्र में स्थापित करना या बड़ी दीक्षा देना है। इस संदर्भ में पहले विस्तृत विवेचन किया जा चुका है।
दूरवर्ती गुरु आदि के निर्देश के संदर्भ में विधि-निषेध णो कप्पइ णिग्गंथीणं विइकिट्ठियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा॥१८५॥ ___ कप्पइ णिग्गंथाणं विइकिट्ठियं दिसं वा अणुदिसं वा उहिसित्तए वा धारेत्तए वा॥ १८६॥
कठिन शब्दार्थ - विकिट्ठियं - व्यतिकृष्टा - दूरवर्तिनी। .
भावार्थ - १८५. साध्वियों को दूरवर्तिनी अपनी प्रवर्तिनी (गुरुणी) का निर्देश कर किसी को प्रव्रजित करना, दिशा निर्देश करना आदि नहीं कल्पता।
१८६. साधुओं को दूरवर्ती अपने आचार्य या उपाध्याय का निर्देश कर किसी को प्रव्रजित करना, दिशा निर्देश करना आदि कल्पता है। • विवेचन - पूर्व सूत्रों में प्रव्रज्या या दीक्षा देने के संबंध में विधि-निषेध मूलक वर्णन हुआ है। ये सूत्र एक प्रकार से पिछले सूत्रों के पूरक हैं, क्योंकि इनमें भी पिछले सूत्रों का विशदीकरण ही है।
साध्वियों के लिए विशेष रूप से यहाँ यह प्रतिपादित किया गया है कि - आचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी - ये दूरवर्ती हों तो उनका निर्देशन कर अथवा उनके नाम से किसी दीक्षार्थिनी को साध्वी के रूप में प्रव्रजित करना, दिशा निर्देश करना आदि अकल्प्य है।
साधुओं के लिए आचार्य, उपाध्याय आदि का निर्देश कर प्रव्रजित करना, दिशा निर्देश करना आदि कल्प्य है। ऐसा यहाँ बताया गया है। । - साध्वी के लिए अकल्प्यता का कारण यह है - वह (प्रवर्तिनी के पास) स्वयं एकाकिनी जा नहीं सकती, प्रवर्त्तिनी आदि के अधिक दूर होने से उसे कोई पहुंचा नहीं सकते, लम्बे समय के अन्तराल से ऐसा भी आशंकित है, उसका भाव विपरिणमन हो जाए, वह अस्वस्थ । हो जाए तथा उसकी गुरुणी रोगग्रस्त हो जाए या दिवंगत हो जाए - ये स्थितियाँ बाधक बन सकता है।
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