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१३१। मार्ग में मृत श्रमण के शरीर का परिष्ठापन तथा उपकरण-ग्रहण का विधान ।
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मार्ग में मृत भ्रमण के शरीर का परिफापन तथा
उपकरण-ग्रहण का विधान गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खू य आहच्च वीसंभेज्जा तं च सरीरगं केइ साहम्मिए पासेजा, कप्पड़ से तं सरीरगं से ण सागारियमिति कट्ट थंडिले बहुफासुए पडिलेहित्ता पमग्जित्ता परिद्ववेत्तए, अस्थि या इत्थ केइ साहम्मियसंतिए उवगरणजाए परिहरणारिहे, कप्पइ से सागारकडं गहाय दोच्चं पि ओग्गहं अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहारेत्तए॥ १९६॥
कठिन शब्दार्थ - सरीरगं - देह, सागारियं - साकारिक - गृहस्थ, कट्ट - करके (जानकर), थंडिले - स्थण्डिल - स्थान में, बहुफासुए - बहुप्रासुक - द्वीन्द्रियादि जीव विवर्जित, पडिलेहित्ता - प्रतिलेखन कर, पमज्जित्ता - प्रमार्जन कर, परिद्ववेत्तए - परिष्ठापन करना - परठना, साहम्मियसंतिए - साधर्मिक श्रमण के, उवगरणजाए - उपकरण समूह - . उपधि आदि उपयोग में लेने की वस्तुएँ, परिहरणारिहे - परिहरणार्ह - उपयोग में लेने योग्य, सागारकडं - सागारकृत - आगार के साथ, गहाय - गृहीत कर, अणुण्णवेत्ता - आज्ञा प्राप्त कर, परिहारेत्तए - उपयोग में लेना।
भावार्थ - १९६. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यदि किसी साधु का अकस्मात् मार्ग में देहावसान हो जाए और उसके शरीर को कोई साधर्मिक साधु देखे तथा यह जाने कि यहाँ - कोई गृहस्थ नहीं है तो साधु के मृत शरीर को एकान्त में अचित्त, अतीव प्रासुक - द्वीन्द्रियादि जीव रहित स्थान में प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन कर परिष्ठापित करना - परठना उसे कल्पता है।
यदि उस मृत साधर्मिक साधु के उपयोग में लेने योग्य कोई उपकरण हो तो आगार के साथ उन्हें गृहीत करना तथा आचार्य आदि की आज्ञा लेकर उपयोग में लेना कल्पता है।
विवेचन - बृहत्कल्प सूत्र के चतुर्थ उद्देशक में, उपाश्रय में कालधर्म को प्राप्त साधु के मृत शरीर को परठने के संबंध में वर्णन हुआ है। यहाँ ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मार्ग में कालधर्म प्राप्त साधु के मृत शरीर के परठने के विषय में विवेचन है।
जैन धर्म अनेकान्तवाद की पृष्ठभूमि पर आधारित है, वहाँ किसी भी विषय को ऐकान्तिक रूप में पकड़े रहना स्वीकृत नहीं है। वह निश्चय तथा व्यवहार - दोनों नयों के समन्वय को स्वीकार करता है। अत एव नैश्चयिक एवं व्यावहारिक - दोनों दृष्टियों से आगमों में, शास्त्रों में विविध विषयों का विश्लेषण हुआ है।
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