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निषिद्ध काल में साधु-साध्वियों के लिए स्वाध्याय विषयक विधि - निषेध
ही परस्पर एक-दूसरे के परोक्षवर्ती हो जाएँ। वैसी स्थिति में दूरवर्ती साधु अपने स्थान से ही दूसरे साधु को, जिसके साथ मनमुटाव हुआ हो, उद्दिष्ट कर क्षमायाचना करें, यह विहित नहीं है। ऐसा करना नहीं कल्पता, क्योंकि दोनों सामने हों तभी क्षमायाचना भलीभाँति सार्थकता पाती है। उचित यह है, साधु दूरवर्ती स्थान में भी जाकर ही क्षमायाचना करें। क्योंकि सांधु एकाकी विहार करते हुए वहाँ जाने में समर्थ होता है ।
साध्वियों के लिए दूरवर्ती स्थान में सहयोगिनियों के बिना अकेले जाना संभव नहीं है। उन्हें वैसा करने में अनेक बाधाएँ उत्पन्न हो सकती हैं। अत एव उन द्वारा दूरवर्तिनी होते हुए भी एक-दूसरे को उद्दिष्ट कर क्षमायाचना करना, वैमनस्य या मनमुटाव को उपशान्त करना कल्पता है। यहाँ इतना अवश्य ज्ञातव्य है कि जिन साध्वियों के बीच परस्पर कटुता उत्पन्न हुई हो, वे निकटवर्ती स्थान में हों तो सहयोगिनियों के साथ, अपेक्षित व्यवस्था के साथ वहाँ जाकर ही क्षमायाचना करे ।
निषिद्ध काल में साधु-साध्वियों के लिए स्वाध्याय विषयक विधि-निषेध
णो कप्पणिग्गंथाणं विइकिट्ठए काले सज्झायं करेंत्तए ॥ ९८९ ॥
कप्पइ णिग्गंथीणं विइकिट्ठए काले सज्झायं करेत्तए णिग्गंथणिस्साए ॥ १९० ॥ . कठिन शब्दार्थ - विइकिट्ठए काले - व्यतिकृष्ट विपरीत या निषिद्ध काल में, सज्झायं - स्वाध्याय, करेत्तए करना ।
भावार्थ - १८९. साधुओं को निषिद्ध काल में उत्कालिक आगमों के, स्वाध्याय काल में कालिक आगमों का स्वाध्याय करना नहीं कल्पता ।
१९०. साध्वियों को साधु की निश्रा में निषिद्ध काल में उत्कालिक आगमों के, स्वाध्याय ATM में कालिक आगमों का स्वाध्याय करना कल्पता है।
विवेचन - जिन आगमों का जिस काल में स्वाध्याय करना विवर्जित अथवा निषिद्ध है, वह काल उन आगमों के लिए व्यतिकृष्ट काल कहा जाता है।
इन सूत्रों में व्यतिकृष्ट काल में आगमों के सूत्र पाठ के संदर्भ में साधु-साध्वियों के लिए विधि - निषेध का प्रतिपादन है।
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साधुओं के लिए व्यतिकृष्ट काल में स्वाध्याय का निषेध है, किन्तु साध्वियों के लिए मधु की निश्रा में वैसा करने का निषेध नहीं है।
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