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व्यवहार सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
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समुक्कसियव्वे - समुत्कृष्ट - पदासीन किया जाए, समुक्कसणारिहे - पदासीन करने योग्य, समुक्किटुंसि - पदासीन किए जाने पर, दुस्समुक्किट्ठ - दुःसमुत्कृष्ट - औचित्य रहित, णिक्खिवाहि - पद-त्याग कर दो, णिक्खिवमाणस्स - पद-त्याग करता हुआ, . अहाकप्पेणं - यथाकल्प - कल्प के अनुसार, उट्ठाए - उत्थापित करे - पद-त्याग के लिए कहे, सव्वेसिं तेसिं - उन सबको।
भावार्थ - १११. रोगग्रस्त आचार्य या उपाध्याय किसी एक - विशिष्ट भिक्षु से कहे कि आर्य! मेरा देहावसान हो जाने पर इसको - अमुक भिक्षु को मेरे पद पर मनोनीत - समासीन कर देना।
वह यदि पद के योग्य हो तो उसे पद पर स्थापित करना चाहिए। यदि उसमें पदानुरूप योग्यता न हो तो उसे पद पर स्थापित नहीं करना चाहिए।
वहाँ भिक्षु संघ में यदि कोई दूसरा भिक्षु पद के योग्य हो तो उसे पदासीन करना चाहिए। . यदि भिक्षु संघ में दूसरा कोई पद के योग्य न हो तो उसी (जिसके लिए आचार्य आदि · ने निर्देश किया हो) को पद पर नियुक्त करना चाहिए।
उसके पदासीन किए जाने पर कोई दूसरा भिक्षु (स्थविर; विज्ञ) कहे कि आर्य! तुम इस पद के लिए योग्य नहीं हो, इसलिए पद का त्याग कर दो।
ऐसा कहे जाने पर पद का त्याग करता हुआ वह भिक्षु दीक्षा-छेद या परिहार तप रूप प्रायश्चित्त का भागी नहीं होता।
- जो साधर्मिक - संघ में सहवर्ती साधु कल्पानुसार उसे पद-त्याग के लिए न कहें तो वे सभी उस कारण दीक्षा-छेद या परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
विवेचन - सामान्यतः जैन भिक्षु संघ में आचार्य या उपाध्याय ही दैहिक एवं मानसिक स्वस्थता की स्थिति में अपने उत्तराधिकारी निर्णीत करने के अधिकारी होते हैं।
. इस सूत्र में आचार्य या उपाध्याय द्वारा रुग्णावस्था में अपने मरणोपरान्त अमुक को अपने पद पर नियुक्त किए जाने का प्रतिपादन है। - यदि यथेष्ठ आत्म-स्थिरता न हो तो रुग्णावस्था में शरीर के साथ-साथ मन भी यत्किंचित् अस्वस्थ हो जाता है। उस समय जो भी निर्णय किया जाता है, वह सर्वथा यथार्थ हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसीलिए इस सूत्र में आचार्य द्वारा निर्दिष्ट भिक्षु को, यदि वह वास्तव
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