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. अनधीतश्रुत भिक्षुओं के संवास-विषयक विधि-निषेध
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रखने में निर्विघ्नतया आध्यात्मिक साधनामय जीवन में उत्तरोत्तर उन्नति-प्रवण बनाए रखने में आगमों का, शास्त्रों का विधिवत् ज्ञान कराने में ये दोनों ही महापुरुष सतत उद्यमशील रहते हैं। अत एव गण के समस्त साधुओं का इनके प्रति बहुमान एवं आदर होता है, जो सर्वथा उचित है।
इनके व्यक्तित्व की गरिमा, आन्तरिक तथा बाह्य दोनों रूप में उद्योतित रहे, इस हेतु आगमों में विविध रूप में इनके अतिशयों का वर्णन है। . इसी प्रकार गणावच्छेदक का भी गण में महत्त्वपूर्ण स्थान है। गण की सार-सम्हाल, सुव्यवस्था, समुन्नति तथा संवृद्धि करने में इनके भी अतिशयों का वर्णन है। गरिमा - महिमा की दृष्टि से आचार्य, उपाध्याय के बाद गणावच्छेदक का स्थान है।
इन सूत्रों में आचार्य एवं उपाध्याय के पांच अतिशयों का तथा गणावच्छेदक के दो अतिशयों का प्रतिपादन है, जिसमें उच्चार-प्रस्रवण-परित्याग तथा उपाश्रय में आवास के संदर्भ में उनको दी गई सम्मान पूर्ण सुविधाओं का उल्लेख है, जो भावार्थ से स्पष्ट है।
निष्कर्ष यह है कि उन पदों के प्रति चतुर्विध संघ में अतिशय-गर्भित सम्मान का भाव रहे तथा पदासीन महापुरुषों के महत्त्वपूर्ण दायित्व निर्वाह में अत्यन्त व्यस्त जीवन में शास्त्रानुमोदित कतिपय अनुकूलताएं तथा सुविधाएं रहें।
अनधीतश्रुत भिक्षुओं के संवास-विषयक विधि-निषेध से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगणिक्खमणपवेसाए (उवस्सए) णो कप्पइ बहूणं अगडसुयाणं एगयओ वत्थए, अत्थि याई ण्हं केइ आयारपकप्पधरे णत्थि याई एहं केइ छए वा परिहारे वा, णत्थि याइं ण्हं केइ आयारपकप्पधरे से संतरा छए वा परिहारे वा॥१६८॥
से गामसि वा जाव रायहाणिंसि वा अभिणिव्वगडार अभिणिदुवाराए अभिणिक्खमणपवेसणाए (उवस्सए) णो कप्पइ बहूण वि अगडसुयाणं एगयओ वत्थए, अस्थि पाई हं केइ आयोरपकप्पधरे जे तत्तियं रयणिं संवसइ णत्थि याई ण्हं केइ छए वा परिहारे वा, णस्थि याइं ण्हं केइ आयारपकप्पधरे जे तत्तियं रयणिं संवसइ सव्वेसिं तासंतप्यत्तियं छए वा परिहारे वा॥१६९॥
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