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व्यवहार सूत्र - षष्ठ उद्देशक
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कठिन शब्दार्थ - एगवगडाए - एक प्रकार - परकोटे या चार दीवारी से युक्त, एगदुवाराए - एक द्वार - दरवाजे से युक्त, एगणिक्खमणपवेसाए - एक निष्क्रमण-प्रवेश -युक्त - बाहर निकलने और भीतरं आने के एक ही रास्ते वाले, बहूणं - बहुतों का, अगडसुयाणं - अकृतश्रुत - जिन्होंने श्रुत - आगम ज्ञान का अध्ययन न किया हो, अभिणिव्वगडाए - पृथक्-पृथक् अनेक प्राकार युक्त, अभिणिदुवाराए - पृथक्-पृथक् अनेक द्वार युक्त, अभिणिक्खमणपवेसणाए - पृथक्-पृथक् अनेक रास्तों से युक्त, तत्तियंतीसरी, रयणिं - रात, संवसइ - संवास करते हों - प्रवास करता हों या रहते हों।
. भावार्थ - १६८. बहुत से अनधीतश्रुत - अगीतार्थ भिक्षुओं को ग्राम यावत् राजधानी में एक प्राकार, एक द्वार, एक निष्क्रमण - प्रवेश मार्ग से युक्त उपाश्रय में एक साथ रहना नहीं कल्पता। - यदि उनमें कोई आचार प्रकल्पधर भिक्षु हो तो उनको वैसे उपाश्रय में एक साथ संवास करने से दीक्षा-छेद या परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त नहीं आता। ... यदि उनमें कोई आचार प्रकल्पधर भिक्षु न हो तो उनका वहाँ संवास करना मर्यादोल्लंघन दोष युक्त है, उसके कारण वे दीक्षा-छेद या परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। . १६९.. ग्राम यावत् राजधानी में पृथक्-पृथक् अनेक प्राकार, अनेक द्वार तथा अनेक निष्क्रमण-प्रवेश मार्ग से युक्त उपाश्रय में बहुत से अगीतार्थ भिक्षुओं को एक साथ निवास करना - रहना नहीं कल्पता। .
यदि कोई आचारप्रकल्पधर तृतीय रात्रि में उनके साथ आकर रहे तो वे दीक्षा-छेद या परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त के भागी नहीं होते।
- यदि कोई आचारप्रकल्पधर तृतीय रात्रि में भी उनके साथ आकर नं रहे तो उनका वहाँ संवास करना मर्यादोल्लंघन दोष युक्त है, उनके कारण वे दीक्षा-छेद या परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
विवेचन - भिक्षु-जीवन में चारित्राराधना के साथ-साथ ज्ञानाराधना भी आवश्यक है। ज्ञान चक्षु रूप है, चारित्र चरण रूप है। अत एव पृथक् विचरण करने वाले भिक्षुओं के लिए यह वांछित है कि वे आवश्यक, आचारांग एवं निशीथ सूत्र का अध्ययन किए हुए हों। इन सूत्रों में साध्वाचार का विभिन्न अपेक्षाओं के साथ वर्णन हुआ है। स्खलना या त्रुटि होने पर करणीय प्रायश्चित्त आदि का भी उनमें विस्तृत रूप में विधान है। उत्सर्ग मार्ग एवं अपवाद
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