________________
९२
व्यवहार सूत्र - पंचम उद्देशक kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
गणावच्छेदिनी, प्रवर्तिनी के दायित्व-निर्वाह में विशेष सहायिका होती है। उसका कार्य क्षेत्र साध्वी संघ के संरक्षण, संवर्धन आदि की दृष्टि से गणावच्छेदक की तरह व्यापक होता है। वह प्रवर्तिनी के आदेशानुसार साध्वियों की व्यवस्था, वैयावृत्य, प्रायश्चित्त इत्यादि सभी कार्यों का पर्यवेक्षण करती है। अत एव प्रवर्तिनी की अपेक्षा गणावच्छेदिनी के विचरने में एवं चातुर्मासिक प्रवास में एक-एक अधिक साध्वी रखने का निर्देश किया गया है। इससे गणावच्छेदिनी को साध्वी-समुदाय का हित एवं उन्नयन करने में अपेक्षाकृत अनुकूलता रहती है। __ व्यवहार सूत्र उद्देशक ३ के पहले दूसरे सूत्र एवं उद्देशक ४ के ११-१२वें सूत्र के अनुसार स्वतंत्र विचरने के लिए न्यूनतम तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय एवं आचारांग, निशीथ की जानकारी समझी जाती है। आठवें ठाणे में आठ गुणों का धारक व्यक्ति ही एकल विहार पडिमा स्वीकार कर सकता है। इससे साधारणतया कम से कम दो साधु तो होने ही चाहिए। व्यवहार सूत्र के चौथे उद्देशक में जो आचार्य उपाध्याय के लिए शेषकाल में एकाकी विचरण का निषेध किया है। इसके फलितार्थ से जो शेष साधुओं का एकाकी विचरण सिद्ध होता है वह ठाणांग सूत्र के अनुसार साधारण नहीं समझ कर कारणिक समझना चाहिए। अर्थात् सेवा आदि के प्रसंगों पर साधु तो अकेला जा सकता है। किन्तु आचार्य उपाध्याय अकेले नहीं जा सकते। ऐसा इस सूत्र का अर्थ समझा जाता है। यही स्थिति ५वें उद्देशक में वर्णित प्रवर्तिनी के लिए भी समझी जाती है। अर्थात् साधारण साध्वियाँ सेवा आदि प्रसंगों पर दो जा सकती है। किन्तु प्रवर्तिनी सेवा आदि प्रसंगों पर भी दो रूप में नहीं जा सकती। इससे स्पष्ट हुआ कि - 'सेवा आदि कारणों के बिना साधारणतया तीन से कम साध्वियाँ नहीं विचर सकती है।' - संघाटकप्रमुखा का देहावसान होने पर साध्वी का विधान
गामाणुगामं दूइजमाणी णिग्गंथी य जं पुरओ काउं विहरइ सा आहच्च वीसंभेजा, अत्थि या इत्थ काइ अण्णा उवसंपज्जणारिहा सा उवसंपज्जियव्वा, णत्थि या इत्थ काइ अण्णा उवसंपजणारिहा तीसे य अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पड़ सा एगराइयाए पडिमाए जण्णं जण्णं दिसं अण्णाओ साहम्मिणीओ विहरंति तण्णं तण्णं दिसं उवलित्तए, णो सा कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ सा तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि णिट्ठियंसि परो वएजा-वसाहि अज्जे ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं सा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org