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सांप डस जाने पर उपचार-विषयक विधान
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पाउणइ - एस कप्पे थेरकप्पियाणं, एवं से णो कप्पइ, एवं से णो चिट्ठइ, परिहारं च से पाउणइ-एस कप्पे जिणकप्पियाणं॥१५१॥त्ति बेमि॥
॥ववहारस्स पंचमो उद्देसओ समत्तो॥५॥ कठिन शब्दार्थ - राओ - रात्रि में, वियाले - विकाल में - संध्या समय में, दीहपट्ठो - सर्प, लूसेज्जा - डस जाए, इत्थी - स्त्री, पुरिसस्स - पुरुष, ओमावेज्जा - अपमार्जित करे - उपचार करे, चिट्ठइ - स्थित होता है, पाउणइ - प्राप्त करता है,
थेरकप्पियाणं - स्थविरकल्पियों का, कप्पे - कल्प-आचार विधि या आचार मर्यादा, जिणकप्पियाणं - जिनकल्पियों का।
भावार्थ - १५१. यदि किसी साधु या साध्वी को रात में या संध्या समय में सांप काट ले तो स्त्री - साधु का तथा पुरुष साध्वी का औषधि या मंत्रादि द्वारा उपचार करे तो ऐसा करना उन्हें कल्पता है। ऐसी स्थिति में उनका साधुत्व यथावत् - शुद्ध या निर्दोष रहता है और वे परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त के भागी नहीं होते। यह स्थविरकल्पियों की आचारविधि है।
जिनकल्पियों की आचार-विधि में ऐसा उपचार कराना नहीं कल्पता है। वैसा कराने से उन्हें परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - साधु-साध्वियों के शरीर को संयम का उपकरण माना गया है। वह आध्यात्मिक साधना, आत्मोपासना एवं व्रताराधना या साधन का माध्यम है। इसलिए उसका संरक्षण आवश्यक है। ___ सर्पदंश का यदि तत्काल उपचार न किया जाए तो सर्पदष्ट व्यक्ति की अतिशीघ्र मृत्यु हो सकती है। इसलिए अपवाद दृष्टि से यहाँ स्थविरकल्पी साधु को किसी स्त्री से और साध्वी को किसी पुरुष से उपचार कराना वर्जित नहीं है। वैसा कराने में उसे दोष नहीं लगता। उसका संयम यथावत् पवित्र तथा दोषशून्य बना रहता है। किन्तु जिनकल्प की साधना में यह स्वीकृत नहीं है। वहाँ यदि कोई ऐसा कराए तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।
॥ व्यवहार सूत्र का पांचवां उद्देशक समाप्त॥
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