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सम्मिलित विहरण- गमन-विषयक विधि-निषेध
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भावार्थ - ११७. बहुत से साधर्मिक- एक गणवर्ती भिक्षु यदि एक साथ मिलकर कहीं जाना चाहें तो स्थविरों को पूछे बिना उनकी अनुज्ञा प्राप्त किए बिना उनको वैसा करना नहीं कल्पता ।
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स्थविरों को पूछकर - उनकी आज्ञा प्राप्त कर उनको एक साथ जाना कल्पता है।
स्थविर यदि उन्हें आज्ञा प्रदान करें तो वे एक साथ मिलकर जाएं।
स्थविर यदि उन्हें आज्ञा न दें तो एक साथ मिलकर न जाएं।
स्थविरों द्वारा आज्ञा न दिए जाने पर यदि वे एक साथ मिलकर जाएं तो उन्हें दीक्षा-छेद या परिहार- तप रूप प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन इस सूत्र में अभिनिचारिका शब्द का विशेष रूप से प्रयोग आया है। अभिनिचारिका का अभिप्राय एक साथ मिलकर विचरण करना, प्रवास करना, जाना या चलना है। यहाँ यह शब्द विशेष उद्देश्य से कई साधुओं के एक साथ मिलकर किसी विशेष उद्देश्य से कहीं जाने के अर्थ में है।
धारणा से तो उपरोक्त अर्थ किया जाता है। भाष्य में अन्य प्रकार से अर्थ भी किया है। वह इस प्रकार है -
जैसे कोई आचार्य या उपाध्याय मासकल्प में कहीं प्रवास कर रहे हों। उनके सान्निध्यवर्ती साधुओं में कतिपय ऐसे हों, जो रोग, तप विशेष आदि के कारण कृष, दुर्बल हो गए हों, शारीरिक स्वस्थता, स्वास्थ्य लाभ एवं शक्ति की दृष्टि से उन्हें दुग्ध आदि विगय पदार्थों की आवश्यकता हो, पास में ही कोई गोपालकों की बस्ती हो और वे दूध आदि लेने हेतु जाना चाहें तो वे स्थविरों की आज्ञा से ही जा सकते हैं। स्थविर आज्ञा न दें तब वे न जाएं। आज्ञा न देने के बावजूद यदि वे जाते हैं तो यह मर्यादा भंग है, दोष है, जिसके लिए उन्हें दीक्षाछेद या परिहार- तप रूप प्रायश्चित्त आता है।
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यहाँ प्रतिपादित विधि-निषेध का आशय अनुशासन से जुड़ा हुआ है । भिक्षुओं का प्रत्येक कार्य अनुशासित रूप में हो । आचार्य, उपाध्याय एवं स्थविर आदि बड़ों के आदेशानुरूप हो, यह आवश्यक है ! क्योंकि ये महापुरुष लाभ - अलाभ आदि सभी स्थितियों के मर्मज्ञ होते हैं। वे स्थिति की निरापदता, अनुकूलता आदि देखकर ही आज्ञा देते हैं। तदनुसार करना गण एवं जाने वाले भिक्षुओं के हित में ही होता है।
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