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अध्ययनार्थ अन्य गण में गए भिक्षु की भाषा kakkaatkaatkaatkaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa******
अध्ययनार्थ अन्य गण में गए भिक्षु की भाषा भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरेजा, तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वएजा-कं अज्जो ! उवसंपज्जित्ताणं विहरसि? जे तत्थ सव्वराइणिए तं वएज्जा, अह भंते ! कस्स कप्पाए? जे तत्थ सव्वबहुस्सुए तं वएजा, जं वा से भगवं वक्खइ तस्स आणाउववायवयणणिइसे चिट्ठिस्सामि॥११६॥
कठिन शब्दार्थ - गणाओ - (किसी एक) गण से, अण्णं - अन्य - दूसरे, उवसंपग्जित्ताणं - उपसंपद्यमान - निःश्रय (निश्रा) प्राप्त किए हुए, पासित्ता - देखकर - मिलकर, सव्वराइणिए - सर्वरत्नाधिक - दीक्षा-पर्याय में सबसे ज्येष्ठ, अह - अथ - इसके अतिरिक्त, कप्पाए - कल्प में - बहुश्रुत भिक्षु के अध्ययन निर्देशन में, सव्वबहुस्सुए - सबमें बहुश्रुत - सर्वाधिक श्रुतज्ञ, वक्खइ - कहे, आणा - आज्ञा, उववाय - उपपात - सान्निध्य, वयणणिहेसे - वचन निर्देश, चिट्ठिस्सामि - स्थित रहूंगा।
भावार्थ - ११६. यदि कोई भिक्षु विशेष अध्ययन हेतु अपने गण से अवक्रान्त होकर - अपना गण छोड़कर दूसरे गण की उपसंपदा - सान्निध्य स्वीकार कर विचरण करे और यदि उसे अपना साधर्मिक - पूर्ववर्ती गण का सहवर्ती भिक्षु देखे या मिले तथा उससे पूछे -
आर्य! आप किसके निःश्रय में विचरण करते हैं? तब वह उस गण में, दीक्षा-पर्याय में जो सबसे बड़े हों, उनका नाम ले - कथन करे।
वह साधर्मिक भिक्षु यदि उसे पुनः पूछे - हे भगवन्! आप किस बहुश्रुत के निर्देशन - सान्निध्य में रह रहे हैं, अध्ययनरत हैं?
तब वह उस गण में, जो सबसे अधिक बहुश्रुतज्ञ हों, विद्वान् हों, उनका नाम ले और कहे कि मैं उन्हीं भगवन्त - पूज्य मुनिवर की आज्ञा, सान्निध्य तथा वचन निर्देश में रहूँगा अर्थात् जैसा वे कहेंगे, करूंगा।
विवेचन - सावद्य-प्रत्याख्यान एवं महाव्रत-पालन की दृष्टि से सभी भिक्षु सामान्य रूप से तुल्य या सदृश होते हैं। श्रुतानुशीलन या ज्ञानार्जन का संबंध ज्ञानावरण के क्षयोपशम से है। अतः श्रुतज्ञता या विद्वत्ता में भिक्षुओं में अन्तर होना स्वाभाविक है, क्योंकि सभी के ज्ञानावरण का क्षयोपशम एक जैसा नहीं होता। उसमें तरतमता रहती है।
भिक्षु जीवन में चारित्राराधना के साथ-साथ ज्ञानाराधना का भी बड़ा महत्त्व है। उज्ज्वल
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