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दीक्षा-ज्येष्ठ का अग्रणी-विषयक विधान
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तथा अल्पकाल दीक्षित भिक्षु शिष्य परिवार सम्पन्न न हो तो दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ भिक्षु यदि चाहे तो अल्पकाल दीक्षित भिक्षु की उपसंपदा में रहे, न चाहे तो न रहे, यदि वह चाहे तो उसे भिक्षा लाकर दे और न चाहे तो न दे, यदि वह चाहे तो उसका विनय वैयावृत्य करे तथा न चाहे तो न करे।
विवेचन - जैन धर्म में ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र का स्थान सर्वोत्तम है। लौकिक जीवन में लोग हीरा, पन्ना, माणिक, नीलम तथा लाल आदि को रत्न मानते हैं, उनका सर्वाधिक मूल्य समझते हैं। जैन धर्म अध्यात्म पर टिका हुआ है। वहाँ आत्मिक उज्वलता को ही सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त है। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना से जीवन का परम लक्ष्य - मोक्ष सिद्ध होता है। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र - ये तीन आध्यात्मिक रत्न कहे गए हैं। महाव्रतात्मक संयम में दीक्षित होते ही ये तीनों रत्न प्राप्त हो जाते हैं।
"रत्जैनिदर्शनचारित्ररूपैर्विशिष्ट गुणे - रधिकः - रत्नाधिकः।" इस व्युत्पत्ति के अनुसार, जो दीक्षा में बड़ा या दीर्घ काल दीक्षित होता है, उसे रत्नाधिक कहा गया हैं।
भिक्षु संघ में रत्नाधिक या दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ भिक्षु का अत्यन्त महत्त्व स्वीकार किया गया है। इसीलिए इन सूत्रों में उस भिक्षु को जो अल्प दीक्षा-पर्याय युक्त हो, बहुत से शिष्यों से परिवृत्त हो तो उसके लिए यह विधान किया गया है कि वह दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ भिक्षु की सब प्रकार से सेवा-परिचर्या करे, उसका निर्देशन स्वीकार करे, उसे आहार-पानी लाकर दे, उसका सान्निध्यसेवी रहे। ऐसा करना संयम को सम्मान देना है, जो शैक्ष या अल्पकालिक दीक्षित भिक्षु का आवश्यक कर्त्तव्य है।
___ दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ भिक्षु के लिए यह आवश्यक नहीं है, उनकी इच्छा पर निर्भर है, . जैसा वह उचित समझे करे।
दीक्षा-ज्येष्ठ का अग्रणी-विषयक विधान दो भिक्खुणो एगयओ विहरंति, णो ण्हं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ ण्हं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए॥१२४॥
दो गणावच्छेइया एगयओ विहरंति, णो ण्हं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ ण्हं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥१२५॥ ___ दो आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति, णो ण्हं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ ण्हं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥१२६॥
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