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व्यवहार सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
दिखलाकर उन्हें जो श्रमण-जीवन में स्थिर करते हैं, वे स्थविर कहे जाते हैं। वे स्वयं उज्ज्वल चारित्र्य के धनी होते हैं, अतः उनके प्रेरणा- वचन, प्रयत्न प्रायः निष्फल नहीं होते ।
स्थविर की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा गया है कि स्थविर संविग्न- मोक्ष के अभिलाषी, मार्दवित, अत्यन्त मृदु या कोमल प्रकृति के धनी और धर्मप्रिय होते हैं। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र्य की आराधना में उपादेय अनुष्ठानों को जो भ्रमण परिहीन करता है, उनके पालन में अस्थिर बनता है, वे ( स्थविर) उसे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र्य की याद दिलाते हैं। पतनोन्मुख श्रमणों को वे ऐहिक और पारलौकिक अध: पतन दिखला कर मोक्ष के मार्ग में स्थिर करते हैं * ।
इसी आशय को स्पष्ट करते हुए कहा गया है तेन व्यापारितेष्वर्थे ष्वनगार्राश्च सीदतः । स्थिरीकरोति सच्छक्तिः, स्थविरो भवतीह सः ॥
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धर्मसंग्रह, अधिकार ३ गाथा ७३ तप, संयम, श्रुताराधनां तथा आत्म-साधना आदि श्रमण- जीवन के उन्नायक कार्य, जो संघ - प्रवर्त्तक द्वारा श्रमणों के लिए नियोजित किये जाते हैं, में जो श्रमण अस्थिर हो जाते हैं, इनका अनुसरण करने में जो कष्ट मानते हैं या इनका पालन करना जिनको अप्रिय लगता है, भाता नहीं, उन्हें जो आत्मशक्ति सम्पन्न दृढचेता श्रमण उक्त उनुष्ठेय कार्यों में दृढ बनता है, वह स्थविर कहा जाता है ।
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इससे स्पष्ट है कि संयम- जीवन जो श्रामण्य का अपरिहार्य अंग है, के प्रहरी का महनीय कार्य स्थविर करते हैं। संघ में उनकी बहुत प्रतिष्ठा तथा साख होती है। अवसर आने पर वे आचार्य तक को आवश्यक बातें सुझा सकते हैं, जिन पर उन्हें (आचार्य को ) भी गौर करना होता है ।
संविग्गो मद्दविओ, पियधम्मो नाणदंसण चरित्तैः ।
जे अट्ठे परि हायइ, सातो ते हवई थेरो ॥
यः संविग्नो मोक्षाभिलाषी, मार्दवितः संज्ञातमार्दविकः । (१)
प्रियधर्मा एकान्तवल्लभः संयमानुष्ठानो, यो ज्ञानदर्शनचारित्रेषु मध्य यानर्थानुपादेयानुष्ठानविशेषान् परिहापयति हानिं नयति तान् तं स्मारयन् भवति स्थविरः सीदमानान्साधून् ऐहिकाऽऽमुष्मिकापायप्रदर्शनतां मोक्षमार्गे स्थिरीकरोतीति स्थविर इति व्युत्पत्तेः । अभिधान राजेन्द्र, भाग-४, पृष्ठ २३८६-८७
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