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संयम त्याग कर जाते हुए आचार्य आदि द्वारा पद-निर्देश : करणीयता
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में पद के योग्य हो तभी उसे पदासीन करने का विधान किया गया है। वैसा न होने पर पद के लिए अन्य योग्य भिक्षु के चयन का निर्देश किया गया है। '. ___ वैसी योग्यता से संपन्न अन्य भिक्षु प्राप्त न हो तो काम चलाने के लिए आचार्य द्वारा निर्दिष्ट भिक्षु को ही पदासीन करने का उल्लेख है। किन्तु आगे चलकर बात फिर योग्यता या गुण निष्पन्नता पर ही आ टिकती है। यदि संघ के किसी सुयोग्य स्थविर भिक्षु को ऐसा प्रतीत हो कि आचार्य या उपाध्याय पद पर मनोनीत व्यक्ति अयोग्य है तो वह उसे पद-त्याग करने की बात कहने का अधिकारी है। वैसी स्थिति में यदि पदासीन भिक्षु पद का त्याग कर देता है तो यह उचित ही है, वैसा करना मर्यादा भंग नहीं है। ___यदि पदासीन भिक्षु को अयोग्य समझते हुए भी सहवर्ती भिक्षु उससे पद-त्याग का कथन नहीं करते तो वे दोषी हैं, प्रायश्चित्त के भागी हैं। __सारे वर्णन का सार यह है कि जैन धर्म में आचार एवं श्रुत मूलक गुणों की ही प्रधानता है, गुण ही मुख्य हैं, व्यक्ति नहीं। संयम त्याग कर जाते हुए आचार्य आदि द्वारा पद-निर्देश : करणीयता
आयरियउवज्झाए ओहायमाणे अण्णयरं वएजा-अज्जो ! ममंसि णं ओहावियंसि समाणंसि अयं समुक्कसियव्वे, से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे, से य णो समुक्कसणारिहे णो समुक्कसियव्वे, अत्थि या इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे, णत्थि या इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियव्वे, तंसि च णं समुक्किटुंसि परो वएज्जा-दुस्समुक्किट्ठ ते अज्जो ! णिक्खिवाहि, तस्स णं णिक्खिवमाणस्स णत्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जे साहम्मिया अहाकप्पेणं णो उट्ठाए विहरंति सव्वेसिंतेसिं तप्पत्तियं छए वा परिहारे वा॥११२॥
कठिन शब्दार्थ - ओहायमाणे - मोहवश या परीषहादिवश संयम का त्याग कर जाता हुआ, ओहावियंसि समाणंसि - संयम त्याग कर चले जाने पर।। ____ भावार्थ - ११२. मोह या रोग आदि के कारण संयम का त्याग कर जाते हुए आचार्य या उपाध्याय किसी एक-विशिष्ट भिक्षु को कहे कि मेरे चले जाने पर इसको - अमुक को मेरे पद पर मनोनीत - प्रस्थापित कर देना।
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