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पापसेवी बहुश्रुतों के लिए पद नियुक्ति का निषेध kakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkke
विवेचन - जैसा पहले विवेचित हुआ है - "ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः" - ज्ञान और क्रिया - चारित्र की शुद्ध आराधना से मोक्ष प्राप्त होता है। यह जैन दर्शन का सिद्धान्त है। ज्ञान के साथ-साथ शास्त्रानुरूप शुद्ध, निरवद्य क्रिया का होना परम आवश्यक है। यदि ज्ञान के साथ सत् क्रिया का योग नहीं होता तो उस ज्ञान की सार्थकता नहीं मानी जाती, वह ज्ञान भार रूप होता है। .
यहाँ ऐसे भिक्षुओं, गणावच्छेदकों, आचार्यों या उपाध्यायों को उद्दिष्ट कर वर्णन किया गया है, जो आगम ज्ञान एवं शास्त्र ज्ञान में तो बहुत बढे-चढे होते हैं, किन्तु किन्हीं विवादास्पद कारणों का सहारा लेकर माया - छल प्रवंचना, असत्य तथा अन्यान्य प्रकार के सावध आचरण का सेवन करते हैं। ऐसा करना उनके महाव्रतमय जीवन को दोषपूर्ण बनाता है। चाहे वे तर्क, युक्ति आदि के बल से अपने कार्यों को दोष रहित सिद्ध करने का प्रयास भले ही करें किन्तु दोष तो दोष ही हैं। विशिष्ट ज्ञानी होते हुए भी वैसे व्यक्ति आचार्य, उपाध्याय यावत् गणावच्छेदक पद के लिए अयोग्य माने गए हैं। क्योंकि इन पदों पर वे ही भिक्षु शोभित होते हैं, जो विशिष्ट ज्ञानी होने के साथ-साथ उत्कृष्ट क्रियावान् होते हैं क्योंकि उनका जीवन उनके अनुयायी या सहवर्ती साधुओं के लिए आदर्श होता है। वे माया, मृषा अशुचिता एवं पापवृत्ति से सर्वथा अछूते रहें, दूर रहें, यह परम आवश्यक है।
॥व्यवहार सूत्र का तृतीय उद्देशक समाप्त॥
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