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व्यवहार सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
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मार्गशीर्ष-पौष एवं ६. शिशिर - माघ-फाल्गुन - इन छह ऋतुओं में विभक्त किया गया है। प्रत्येक ऋतु को दो-दो मास का माना गया है। - इन छहों ऋतुओं को संक्षेप में - १. ग्रीष्म - चैत्र-वैशाख-ज्येष्ठ-आषाढ, २. प्रावृट् - वर्षा - श्रावण-भाद्रपद-आश्विन-कार्तिक तथा ३. हेमन्त - मार्गशीर्ष-पौष-माघ-फाल्गुन-इन तीन ऋतुओं में बांटा गया है।
इन सूत्रों में इसी पद्धति को अपनाकर वर्णन किया गया है।
सामान्यतः साधु गण या संघ में आचार्य आदि के नेतृत्व में एकाधिक रूप में - बहुत से एक साथ रहते हुए संयमाराधना, तपश्चरण एवं विहार आदि करते हैं। किसी भी साधु को सामान्यतः एकाकी विहार करने का, वर्षावास में रहने का आदेश नहीं है। अभिग्रह, प्रतिमा, जिनकल्प इत्यादि में ही उत्कृष्ट तप, आराधना आदि के लक्ष्य से साधु को एकाकी विहार करने तथा रहने का विधान है। अपने तपोमूलक आध्यात्मिक साधना-क्रम में वे अकेले रह सकते हैं।
___ आचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक के लिए किसी भी कारण से एकाकी विहार करना एवं रहना कल्पानुगत नहीं माना गया है।
इन तीनों पदों का श्रमण संघ में बहुत महत्त्व है। चारित्राराधना, श्रुताराधना तथा संघव्यवस्था इन्हीं के आधार पर टिकी हुई है। इनके पदों की गरिमा, प्रतिष्ठा एवं सम्मान को अक्षुण्ण बनाए रखने हेतु आचार्यों या उपाध्यायों के साथ कम से कम एक-एक साधु तथा गणावच्छेदकों के साथ कम से कम दो-दो साधुओं का रहना आवश्यक है। यदि अधिक रहें तो और भी उत्तम है।
. गणावच्छेदक के साथ आचार्य एवं उपाध्याय की अपेक्षा एक साधु अधिक रखने का जो विधान किया गया है, उसका तात्पर्य गणावच्छेदक के व्यवस्थामूलक कार्यों का आधिक्य है।
संयोगवश एक ही स्थान पर अनेक संघों या गणों के आचार्यों, उपाध्यायों एवं गणावच्छेदकों का आगमन, प्रवास हो तब वे अपनी-अपनी नेश्राय के साधुओं को ही अपने साथ रखें। ऐसा इसलिए कहा गया है कि अपनी-अपनी नेश्राय के साधु अपने-अपने आचार्यों, उपाध्यायों या गणावच्छेदकों की मानसिकता से परिचित होते हैं, उनका व्यवहार सदा अनुकूल तथा साताकारी रहता है।
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