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अब्रह्मचर्य - सेवी को पद देने के संदर्भ में विधि - निषेध
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'मत्तेभकुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः, केचित् प्रमत्तमृगराजवधेऽपि दक्षाः । किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य
कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ॥’
अर्थात् कई ऐसे व्यक्ति हैं जो मदोन्मत्त हाथी के मस्तक को चीर डालने में समर्थ हैं, कुछेक ऐसे भी पुरुष हैं जो सिंहों का भी वध करने में सक्षम होते हैं, किन्तु बलवानों के समक्ष बहुत जोर देकर - डंके की चोट कहता हूँ कि कामदेव के दर्प- अहंकार का दलन करने वाले, उसको जीतने वाले शौर्यशाली पुरुष विरले ही हैं।
यद्यपि साधु, आचार्य, उपाध्याय तथा गणावच्छेदक आदि सभी संयमी पुरुष पाँचों महाव्रतों का भलीभाँति पालन करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु यदि कभी मन में दुर्बलता आ जाने पर विषय-सेवन का प्रसंग बन जाए तो वे पदों के लिए अयोग्य हो जाते हैं। उसी विषय में यहाँ विवेचन किया गया है।
अब्रह्मचर्य सेवन का पाप हो जाए पद पर रहते हुए या न रहते हुए हो जाए, उस संबंध में क्या-क्या करणीय है, इस सूत्र में वर्णन किया गया है।
आचार्य आदि पद पर रहते हुए यदि वैसा दुष्कर्म हो जाए तो वे जीवन भर के लिए पुनः उस पद पर आने की योग्यता खो देते हैं।
यदि गण से, पद से निष्क्रान्त होकर वैसा पाप करते हैं और शास्त्र विहित प्रायश्चित्त कर विकारशून्य, शुद्ध हो जाएं तो तीन वर्ष के अनन्तर उस पद के योग्य माने गए I
जहाँ तक हो, एक संयमी साधक के जीवन में ऐसे पतन का प्रसंग कदापि न आए, किन्तु यदि आ जाए तो वह झट उससे संभल जाए, उस पाप का प्रायश्चित्त द्वारा प्रक्षालन करे तो उसका पुनः उत्थान हो जाता है ।
जैन आगमों में इसीसे विविध पापों के प्रायश्चित्तों का विधान है, जिनके कारण साधनापथ से व्युत या पतित साधक को पुनः उसमें आने का अवसर प्राप्त होता है।
आचार्य एवं उपाध्याय के संबंध में पहले यथाप्रसंग विवेचन किया जा चुका है। गावच्छेदक के विषय में विशेष रूप से यह ज्ञातव्य है।
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गणावच्छेदक पद का संबंध विशेषतः व्यवस्था से है। संघ के सदस्यों का संयम
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