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आलोचना-क्रम
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जहाँ वह बहुश्रुत, बहुआगमवेत्ता, अपने सारूपिक - समान वेश एवं समान आलोचना करणेच्छुक मुनि को देखे तो उसके समीप आलोचना करे यावत् तपःक्रम, प्रायश्चित्त स्वीकार करे। ___३७-२. यदि बहुश्रुत, बहुआगमवेत्ता, सारूपिक भिक्षु प्राप्त न हो तो वह वैसे बहुश्रुत, बहुआगमवेत्ता श्रमणोपासक को देखे, जो पहले साधु था, फिर गृहस्थ हो गया हो तो उसे उसके समक्ष आलोचना करना, प्रतिक्रमण करना यावत् प्रायश्चित्त स्वीकार करना कल्पता है।
३८. यदि वैसा बहुश्रुत, बहुआगमवेत्ता, साधुत्व छोड़कर गृहस्थ बना हुआ श्रमणोपासक प्राप्त न हो तो जहाँ भी सम्यक्-भावित - जिन-वचन में आस्थायुक्त ज्ञानी गृहस्थ मिले, उनके समक्ष उसे आलोचना, प्रतिक्रमण कर यावत् प्रायश्चित्त स्वीकार करना कल्पता है।
३९. यदि संभावित ज्ञानी गृहस्थ न मिले तो गाँव, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडम्ब, पत्तन; द्रोणमुख, आश्रम, संबाध या सन्निवेश के बाहर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर, वह हाथ जोड़कर उन्हें सिर पर घुमाता हुआ ललाट पर अंजलि बांधे इस प्रकार बोले - मेरे इतने अपराध, दोष हैं, मैंने इतनी बार ये अपराध किए हैं, वैसा करता हुआ वह अर्हन्त भगवन्तों, सिद्ध भगवन्तों के साक्ष्य से आलोचना करे यावत् प्रायश्चित्त स्वीकार करे।
विवेचन - सर्वसावद्ययोगत्यागी पंचमहाव्रतधारी भिक्षु का सदैव यह भाव तथा प्रयत्न रहता है कि वह निर्दोषतया संयमपथ पर चलता रहे। ऐसा होते हुए भी कदाचन भिक्षु के मन में अन्यथा भाव आता है तो उस द्वारा अकरणीय - न करने योग्य, दोषपूर्ण कार्य हो जाते हैं। तब वह झट संभलकर यथावस्थित हो जाए, अपने द्वारा जो दोष सेवन हुआ है, उसके लिए वह आलोचना करे, यथानिर्दिष्ट प्रायश्चित्त करे।
__ आलोचना एवं प्रायश्चित्त किसी के साक्ष्य में हो, यह परम आवश्यक है। उससे आत्मनिर्मलता, विशुद्धि फलित होती है। संयम में अविचलता, स्थिरता आती है।
इन सूत्रों में आलोचना एवं प्रायश्चित्त करने का जो विशेष क्रम बतलाया गया है, उसी के अनुसार आलोचना तथा प्रायश्चित्त किया जाना चाहिए। व्यतिक्रम - विपरीत क्रम से वैसा करना निषिद्ध है, दोषपूर्ण है। इस क्रम के अनुसार जब कोई भी व्यक्ति प्राप्त न हो तो अन्ततः अर्हन्त और सिद्ध भगवन्तों के साक्ष्य से आलोचना एवं प्रायश्चित्त करने का विधान है, जो साधक के लिए आत्मस्थ तथा संयम-निष्ठ बने रहने की दृष्टि से वस्तुतः अतीव महत्त्वपूर्ण है।
॥व्यवहार सूत्र का प्रथम उद्देशक समाप्त॥
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