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' व्यवहार सूत्र - द्वितीय उद्देशक
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संयम त्यागने के झादे से बहिर्गमन : पुनरागमन भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहाणुप्पेही वजेजा, से य ( आहच्च ) अणोहाइए इच्छेजा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, तत्थ णं थेराणं इमेयारूवे विवाए समुप्पजित्था - इमं भो! जाणइ किं पडिसेवी? से य पुच्छियव्वे, किं पडिसेवी? से य वएजा-पडिसेवी, परिहारपत्ते, से य वएजा-णो पडिसेवी, णो परिहारपत्ते, जं से पमाणं वयइ से पमाणाओ घेयव्वे, से किमाहु भंते? सच्चपइण्णा ववहारा॥६४॥ ___कठिन शब्दार्थ - ओहाणुप्पेही - अवधावनानुप्रेक्षी - संयम को त्यागने का इरादा लिए हुए, वज्जेज्जा - चला जाए, आहच्च - संयम से नहीं हटा हुआ, अणोहाइए - अनवधावितसंयम से अपृथक्भूत, इमेयारूवे - इस प्रकार का, विवाए - विवाद, समुप्पज्जित्था - उत्पन्न हो जाए, इमं - इसको, भो - अरे (संबोधन), जाणह - जानते हैं। __भावार्थ - ६४. कोई भिक्षु संयम छोड़ने का इरादा लिए हुए गण से पृथक् हो जाए
और वह संयम से अपृथक्भूत रहता हुआ - असंयम में नहीं जाता हुआ, पुनः उसी गण में आकर रहना चाहे. तथा उसे वापस लेने के संबंध में स्थविरों में ऐसा विवाद उठ जाए एवं वे यों कहने लगे -
क्या आप जानते हैं कि इसने दोष का प्रतिसेवन किया है ? (तब उनका शास्त्रानुकूल यह मन्तव्य होता है -) उसी से पूछा जाए - क्या तुम दोष प्रतिसेवी हो? वह यदि कहे - मैं दोष प्रतिसेवी हूँ, तो वह परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
यदि वह कहे - मैं दोष प्रतिसेवी नहीं हूँ, तो वह परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र नहीं होता।
जो वह प्रमाण प्रस्तुत करे - उसके अनुसार निर्णय करना चाहिए। हे भगवन्! ऐसा कहने का क्या कारण है? .
सत्य प्रतिज्ञ - सत्यव्रती भिक्षुओं के कथन पर व्यवहार - प्रायश्चित्त का निर्णय निर्भर करता है।
विवेचन - मन बड़ा चंचल है। व्रतनिष्ठ, संयमरत भिक्षु के मन में भी कभी संयम के प्रति अरुचि उत्पन्न हो सकती है। वैसा होने पर या मानसिक उद्वेगजनक किसी अन्य कारण
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