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व्यवहार सूत्र - तृतीय उद्देशक TamataramaAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAwakaaaaaaaaaaaaa**************
भगवान् महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में आचार्य स्थूलभद्र के निर्देशन में प्रथम आगम वाचना हुई।
वीर निर्वाण के ८२७-८४० वर्षों के मध्य आचार्य स्कन्दिल के निर्देशन में मथुरा में दूसरी बार आगम वाचना हुई। इसे माथुरी वाचना कहा जाता है। लगभग उसी समय वलभी(सौराष्ट्र) में आचार्य नागार्जुन के निर्देशन में भी वाचना हुई।
एक ही समय के आस-पास दो वाचनाओं के होने का ऐसा कारण संभावित जान पड़ता है कि दूरवर्ती भिक्षुओं को मथुरा पहुंचने में असुविधा हुई हो, अत एव वलभी में वाचना आयोजित की गई हो। मथुरा और वलभी - ये दोनों ही उस समय जैन धर्म के मुख्य केन्द्र थे। मथुरा और वलभी की वाचनाएँ द्वितीय वाचना के अन्तर्गत हैं।
वीर निर्वाण के ९९३ वर्ष पश्चात् वलभी में आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के निर्देशन में तृतीय आगम वाचना हुई।
तब तक आगम कंठस्थ पंरपरा से ही सुरक्षित थे। तब यह सोचकर कि स्मरण शक्ति का उत्तरोत्तर हास होता जा रहा है, आगमों का लिपिबद्ध किया जाना निश्चित हुआ। तदनुसार आगम ताड़पत्र, भोजपत्र, कागज आदि पर लिपिबद्ध हुए। ___ आगम पाठ को अपरिवर्तित और शुद्ध आचरण की दृष्टि से सर्वथा निर्दोष बनाए रखने । के लिए वाचनाओं के रूप में जो प्रयत्न हुआ, वह वास्तव में बड़ा महत्त्वपूर्ण था। उपाध्याय के रूप में प्रथम पद का मनोनयन आगमों की शुद्ध पाठ परंपरा को सुरक्षित रखने हेतु है।
आचार्य गण के अधिपति या स्वामी होते हैं। वे तीर्थंकर देव के प्रतिनिधि माने जाते हैं। भिक्षुओं को आगमों की अर्थ वाचना देते हैं। भिक्षुओं के संयम जीवितव्य के निर्वाह में प्रेरक, उद्बोधक और सहायक होते हैं।
गणावच्छेदक अवस्था में, दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ, वरिष्ठ या वृद्ध होते हैं। धार्मिक अनुष्ठान, गणपरंपरा, व्यवस्था आदि सूक्ष्म एवं व्यापक अनुभव, व्यावहारिक ज्ञान, धीरता, गंभीरता आदि से युक्त होते हैं। वे गण की चिन्ता करते हैं, गण की सर्वतोमुखी उन्नति का, प्रभावना का ध्यान रखते हैं, तदर्थ प्रयत्नशील रहते हैं। अनुभव विशिष्टता की दृष्टि से इस पद की योग्यता हेतु उनके लिए कम से कम आठ वर्ष का दीक्षा-पर्याय आवश्यक माना गया है। _इन तीनों ही पदों के लिए उपर्युक्त सूत्रों में जिन गुणों की चर्चा की गई है, वे शुद्ध
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